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तहत्ति आणाए विणएणं वयणं पडिसुणेइ २ ता भरहस्स रण्णो आवसहं पोसहसालं च करेइ २ त्ता
एअमाणत्ति खिप्पामेव पच्चप्पिणंति। ऊ ५७. [१] अष्ट दिवसीय महोत्सव के संपन्न हो जाने पर वह दिव्य चक्ररत्न आयुधगृहशाला ॥
(शस्त्रागार) से निकला। निकलकर आकाश में अधर स्थित हुआ। वह एक सहस्त्र यक्षों से संपरिवृतॐ घिरा था। दिव्य वाद्यों की ध्वनि एवं निनाद से आकाश व्याप्त था। वह चक्ररत्न विनीता राजधानी के के बीच से निकला। निकलकर गंगा महानदी के दक्षिणी किनारे से होता हुआ पूर्व दिशा में मागध तीर्थ की 卐 5 ओर चला। म राजा भरत ने उस दिव्य चक्ररत्न को गंगा महानदी के दक्षिणी तट से होते हुए पूर्व दिशा में मागध फ़
तीर्थ की ओर बढ़ते हुए देखा, वह हर्षित व परितुष्ट हुआ, यावत् (हर्षातिरेक से विकसित हृदय हो ज उठा।) उसने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। बुलाकर कहा-देवानुप्रियो ! आभिषेक्य-(प्रधान पद पर क
अधिष्ठित) राजा की सवारी के योग्य हस्तिरत्न को शीघ्र ही सुसज्ज करो। घोड़े, हाथी, रथ तथा श्रेष्ठ
योद्धाओं-पदातियों से परिगठित चतुरंगिणी सेना को तैयार करो। यथावत् आज्ञा पालन कर मुझे सूचित फ़ करो। कौटुम्बिक पुरुषों ने राजा के आदेश के अनुरूप सब किया और राजा को अवगत कराया। ॐ तत्पश्चात् राजा भरत जहाँ स्नानघर था, वहाँ आया। उस ओर आकर स्नानघर में प्रविष्ट हुआ। वह ॐ स्नानघर मुक्ताजालयुक्त-मोतियों की अनेकानेक लड़ियों से सजे हुए झरोखों के कारण बड़ा सुन्दर था।
यावत् शरद ऋतु में धवल महामेघ, विशाल बादल से निकले चन्द्र की भाँति देखने में प्रिय लगने वाला ॐ वह राजा स्नानघर से निकला। स्नानघर से निकलकर घोड़े, हाथी, रथ, अन्यान्य उत्तम वाहन तथा ॥ + योद्धाओं के विस्तार से युक्त सेना से सुशोभित राजा जहाँ बाह्य उपस्थानशाला, जहाँ आभिषेक्य ॐ हस्तिरन था, वहाँ आया और अंजनगिरि के शिखर के समान विशाल गजपति पर आरूढ़ हुआ।
भरत क्षेत्र के अधिपति नरेन्द्र-राजा भरत का वक्षस्थल हारों से व्याप्त, सुशोभित एवं प्रीतिकर लग ॐ रहा था। उसका मुख कुंडलों से उद्योतित था। मस्तक मुकुट से देदीप्यमान था। मनुष्यों में सिंहसदृश के शौर्यशाली, मनुष्यों के स्वामी, मनुष्यों के इन्द्र-परम ऐश्वर्यशाली अभिनायक, मनुष्यों में वृषभ के समान
स्वीकृत कार्यभार के निर्वाहक, व्यन्तर आदि देवों के मध्य वृषभ-मुख्य सौधर्मेन्द्र के सदृश, राजोचित ॐ तेजस्विता रूप लक्ष्मी से अत्यन्त दीप्तिमय, वंदिजनों द्वारा सैकड़ों मंगलसूचक शब्दों से संस्तुत, जयनाद
से सुशोभित, गजारूढ़ राजा भरत सहस्रों यक्षों से संपरिवृत (चक्रवर्ती का शरीर दो हजार व्यन्तर देवों
से अधिष्ठित होता है।) यक्षराज कुबेर के जैसा लगता था। देवराज इन्द्र के तुल्य उसकी समृद्धि थी, ऊ जिससे उसका यश सर्वत्र विश्रुत था। कोरंट के पुष्पों की मालाओं से युक्त छत्र मस्तक पर तना था। श्रेष्ठ, + श्वेत चँवर डुलाये जा रहे थे। ऊ राजा भरत गंगा महानदी के दक्षिणी तट से होता हुआ सहस्रों ग्राम, आकर, नगर, खेट, कर्वट, + मडंब, द्रोणमुख, पट्टन, आश्रम तथा संवाध-इनसे सुशोभित, पृथ्वी को-वहाँ के शासकों को जीतता ॐ हुआ, उत्कृष्ट, श्रेष्ठ रत्नों को भेंट के रूप में ग्रहण करता हुआ, दिव्य चक्ररत्न का अनुगमन करता हुआफ एक-एक योजन पर अपने पड़ाव डालता हुआ जहाँ मागध तीर्थ था, वहाँ आया। आकर मागध तीर्थ के जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र
(142)
Jambudveep Prajnapti Sutra
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