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'तए णं से भरहे राया जाव पासइ २ ता हद्वतुट्ठ जाव कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ २ त्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिआ ! आभिसेक्कं जाव (हत्थिरयणं पडिकप्पेह) पच्चप्पिणंति।
८२. [४] तत्पश्चात् एक दिन वह दिव्य चक्ररत्न शस्त्रागार से बाहर निकला। बाहर निकलकर आकाश में अधर स्थित हुआ। वह एक सहस्र योद्धाओं से घिरा था। दिव्य वाद्यों की ध्वनि (एवं निनाद) से आकाश को व्याप्त करता था। वह चक्ररत्न सैन्य-शिविर के बीच से चला। उसने दक्षिण-पश्चिम दिशा में (नैऋत्य कोण में) विनीता राजधानी की ओर प्रयाण किया।
राजा भरत ने चक्ररत्न को देखा। उसे देखकर वह हर्षित एवं परितुष्ट हुआ। उसने अपने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। बुलाकर कहा-देवानुप्रियो ! आभिषेक्य हस्तिरत्न को तैयार करो यावत् मेरे आदेशानुरूप यह सब सम्पादित कर मुझे सूचित करो। कौटुम्बिक पुरुषों ने वैसा किया एवं राजा को उससे अवगत कराया।
82. [4] Thereafter one day, the divine Chakra Ratna came out of ordnance store and stationed itself in the space without any support. It was surrounded by one thousand soldiers. It was filling the sky with the
sic of divine musical instruments. That Chakra Ratna went ahead through the army camp. It started moving towards Vinita, the capital city, in the south-west direction.
King Bharat saw the Chakra Ratna and felt happy and satisfied to see it. He called his officials and ordered, “O the blessed ! Prepare the coronated elephant up to that you do everything as ordered by me and then report to me about the compliance." The officials acted accordingly and after doing the needful informed the king about it. विनीता को प्रत्यागमन RETURN TOWARDS VINITA
८३. [१] तए णं से भरहे राया अज्जिअरज्जो णिज्जिअसत्तू उप्पण्ण-समत्तरयणे चक्करयणप्पहाणे णवणिहिवई समिद्धकोसे बत्तीसरायवरसहस्साणुआयमग्गे सट्ठीए वरिससहस्सेहि केवलकप्पं भरहं वासं ओयवेइ, ओअवेत्ता कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ सहावेत्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिआ ! आभिसेक्कं हत्थिरयणं हयगयरह. तहेव अंजणगिरिकूडसण्णिभं गयवई णरवई दुरूढे। तए णं तस्स भरहस्स रण्णो आभिसेक्कं हत्थिरयणं दुरूढस्स समाणस्स इमे अट्ठमंगलगा पुरओ अहाणुपुबीए संपद्विआ, तं जहा-सोत्थिअ-सिरिवच्छ जाव दप्पणे। तयणंतरं च णं पुण्णकलसभिंगार दिव्वा य छत्तपडागा जाव संपट्ठिआ।
तयणंतरं च वेरुलिअ-भिसंतविमलदंडं जाव संपढिअं, तयणंतरं च णं सत्त एगिंदिअरयणा पुरओ अहाणुपुब्बीए संपत्थिआ, तं जहा-चक्करयणे १, छत्तरयणे २, चम्मरयणे ३, दंडरयणे ४, असिरयणे ५, मणिरयणे ६, कागणिरयणे ७, तयणंतरं च णं णव महाणिहीओ पुरओ अहाणुपुबीए संपढिआ, तं जहा-णेसप्पे पंडुयए जाव संखे।
तृतीय वक्षस्कार
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Third Chapter
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