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उच्चारित करता है। वैसा कर वह रोएँदार, सुकोमल, सुरभित, काषायित-हरीतकी, विभीतक, ऊ आमलक आदि कसैली वनौषधियों से रंगे हए अथवा कषाय-लाल या गेरुए रंग के वस्त्र-तौलिये द्वारा
भगवान का शरीर पोंछता है। शरीर पोंछकर वह (उनके अंगों पर ताजे गोशीर्ष चन्दन का लेप करता 卐 है। वैसा कर नाक से निकलने वाली हवा से भी जो उड़ने लगें, इतने बारीक और हल्के, नेत्रों को
आकृष्ट करने वाले, उत्तम वर्ण एवं स्पर्शयुक्त, घोड़े के मुख की लार के समान कोमल, अत्यन्त स्वच्छ, ॐ श्वेत, स्वर्णमय तारों से अन्तःखचित दो दिव्य वस्त्र-परिधान एवं उत्तरीय उन्हें धारण कराता है।) वैसा मकर वह उन्हें कल्पवृक्ष की ज्यों अलंकृत करता है। (पुष्पमाला पहनाता है), नाट्य-विधि प्रदर्शित करता है है, उजले, चिकने, रजतमय, उत्तम रसपूर्ण चावलों से भगवान के आगे आठ-आठ मंगल-प्रतीक 卐 आलिखित करता है, जैसे
१. दर्पण, २. भद्रासन, ३. वर्धमान, ४. कलश, ५. मत्स्य, ६. श्रीवत्स, ७. स्वस्तिक, तथा ८ नन्द्यावर्त।
उनका आलेखन कर वह पूजोपचार करता है। गुलाब, मल्लिका, चम्पा, अशोक, पुन्नाग, आम्रम मंजरी, नवमल्लिका, बकुल, तिलक, कनेर, कुन्द, कुब्जक, कोरण्ट, मरुक्क तथा दमनक के उत्तम
सुगन्धयुक्त फूलों को कोमलता से हाथ में लेता है। वे सहज रूप में उसकी हथेलियों से गिरते हैं, छूटते हैं, इतने गिरते हैं कि उन पँचरंगे पुष्पों का घुटने-घुटने जितना ऊँचा एक विचित्र ढेर लग जाता है। चन्द्रकान्त आदि रत्न, हीरे तथा नीलम से बने उज्ज्वल दण्डयुक्त, स्वर्ण मणि एवं रत्नों से चित्रांकित, काले अगर, उत्तम कुन्दरुक्क, लोबान एवं धूप से निकलती श्रेष्ठ सुगन्ध से परिव्याप्त, धुएँ की लहर
छोड़ते हुए नीलम-निर्मित धूपदान को पकड़कर प्रयत्न सावधानी से, अभिरुचि से धूप देता है। धूप 卐 देकर जिनवरेन्द्र के सम्मुख सात-आठ कदम चलकर, हाथ जोड़कर अंजलि बाँधे उन्हें मस्तक से
लगाकर उदात्त, अनुदात्त आदि स्वरोच्चारण में जागरूक शुद्ध पाठयुक्त, अपुनरुक्त अर्थयुक्त एक सौ ॐ आठ महावृत्तों-महिमामय काव्यों द्वारा उनकी स्तुति करता है। वैसा कर वह अपना बायाँ घुटना ऊँचा म उठाता है, दाहिना घुटना भूमितल पर रखता है, हाथ जोड़ता है, अंजलि बाँधे उन्हें मस्तक से लगाता है, कहता है
हे सिद्ध ! बुद्ध ! नीरज-कर्मरजोरहित ! श्रमण समाहित-अनाकुल-चित्त ! कृत-कृत्य ! ॥ समयोगिन्-कुशल-मनोवाक्काययुक्त ! शल्य-कर्तन-कर्मशल्य को विध्वस्त करने वाले ! निर्भय रागद्वेषरहित ! निर्मम-निःसंग, निर्लेप ! निःशल्य-शल्यरहित ! मान-मूरण-अहंकार का नाश करने वाले ! गुण-रत्न-शील-सागर अनन्त अप्रमेय-अपरिमित ज्ञान तथा गुणयुक्त, धर्म-साम्राज्य के भावी उत्तम चातुरन्त चक्रवर्ती धर्मचक्र के प्रवर्तक ! अर्हत्-जगत्पूज्य अथवा कर्म-रिपुओं का नाश करने वाले ! आपको नमस्कार हो। इन शब्दों में वह भगवान को वन्दन करता है, नमन करता है। उनके न अधिक दूर, न अधिक समीप खड़ा रहकर शुश्रूषा करता है, पर्युपासना करता है। ____ अच्युतेन्द्र की ज्यों प्राणतेन्द्र यावत् ईशानेन्द्रों द्वारा सम्पादित अभिषेक-कृत्य का भी वर्णन करना म चाहिए। भवनपति, वाणव्यन्तर एवं ज्योतिष्केन्द्र चन्द्र, सूर्य-सभी इसी प्रकार अपने-अपने देव-परिवार
सहित अभिषेक करते हैं।
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पंचम वक्षस्कार
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Fifth Chapter
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