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७८. [ २ ] चुल्ल हिमवान् गिरिकुमार देव ने बाण को अपने यहाँ गिरा हुआ देखा तो वह तत्क्षण
क्रोध से लाल हो गया । ( यावत् शेष वर्णन सूत्र ५८ में मागधतीर्थाधिपति देव के समान) इसलिए मैं भी 5
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चलूँ, यह सोचकर उसने प्रीतिदान- भेंट के रूप में सर्वोषधियाँ, कल्पवृक्ष के फूलों की माला, गोशीर्ष चन्दन - हिमवान् कुंज में उत्पन्न होने वाला चन्दन - विशेष, कड़े, पद्महृद - पद्म नामक (हद) का जल लिया। फिर उत्कृष्ट तीव्र गति द्वारा वह राजा भरत के पास आया। आकर बोला- 'मैं चुल्ल हिमवान् पर्वत की सीमा में आप देवानुप्रिय के देश का वासी हूँ । यावत् मैं आपका उत्तर दिशा का अन्तपाल - सीमारक्षक हूँ । अतः देवानुप्रिय ! आप मेरे द्वारा उपहृत भेंट स्वीकार करें, राजा भरत ने चुल्ल हिमवान् गिरिकुमार 5 देव द्वारा इस प्रकार भेंट किये गये उपहार स्वीकार किये और देव को विदा किया।
78. [2] When Himavan Girikumar Dev saw, the arrow fallen in his area, he immediately became extremely angry. (Further description may be understood as similar to Sutra 58 relating the Deva controlling Magadh Tirth). As such he also thought that he should go to the king with various types of gifts. So he took food grains, garlands of flowers of
Kalpa tree and Gosheersh sandalwood, special sandalwood that grows in Himavan Kunj, bangles, water of Padma Lake (Hrad). He came to king Bharat at a fast speed and said, 'Reverend Sir! I am a resident of your land at the border of Himavan mountain. I am the controller or guardian
of the northern direction. So you kindly accept my offering. King Bharat accepted the gifts thus offered to him and then allowed the god to go. ऋषभकूट पर नामांकन CARVING OF NAME ON RISHABHAKOOT
७९. तए णं से भरहे राया तुरए णिगिण्हइ णिगिण्हित्ता रहं परावत्तेइ परावत्तित्ता जेणेव उसहकूडे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता उसहकूडं पव्वयं तिक्खुत्तो रहसिरेणं फुसइ, फुसित्ता तुरए णिगिण्हइ णिगित्ता रहं वेइ ठवित्ता छत्तलं दुबालसंसिअं अट्ठकण्णिअं अहिगरणिसंठिअं सोवण्णिअं कागणिरयणं परामुसइ परामुसित्ता उसभकूडस्स पव्वयस्स पुरत्थिमिल्लंसि कडगंसि णामगं आउडेइ
ओसप्पिणीइमीसे, तइआए समाए पच्छिमे भाए ।
अहमंसि चक्कवट्टी, भरहो इअ
नामधिज्जेणं ॥ १ ॥ अहमंसि पढमराया, अहयं भरहाहिवो णरवरिंदो । णत्थि महं पडिसत्तू, जिअं मए भारहं वासं ॥२॥
इति कट्टु णामगं आउडेइ, णामगं आउडित्ता रहं परावत्तेइ परावत्तित्ता जेणेव विजयखंधावारणिवेसे, जेणेव बाहिरिआ उवट्ठाणसाला तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता जाव चुल्लहिमवंतगिरिकुमारस्स देवस्स अट्ठाहिआए महामहिमाए णिव्वत्ताए समाणीए आउहघरसालाओ पडिणिक्खमइ पडिणिक्खमित्ता जाव दाहिणं दिसिं वेअड्डपव्ययाभिमुहे पयाए आवि होत्था ।
जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र
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Jambudveep Prajnapti Sutra
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