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________________ फ्र 卐 मेघोघरसिअ - गंभीरमहुरयरसद्दं, जोअण - परिमंडलं, सुघोसं घंटं तिक्खुत्तो उल्लालेइ । तए णं तीसे 卐 मेघोघरसिअ—गंभीरमहुरयर - सद्दाए, जोअण - परिमंडलाए, सुघोसाए घण्टाए तिक्खुत्तो उल्लालिआए 卐 5 समाणीए सोहम्मे कप्पे अण्णेहिं एगूणेहिं बत्तीसविमाणावास - सयसहस्सेहिं, अण्णाई एगूणाई बत्तीसं घंटासय सहस्साइं जमग- समगं कणकणारावं काउं पयत्ताई हुत्था इति । तए णं सोहम्मे कप्पे 5 पासायविमाण - निक्खुडावडिअ - सद्दसमुट्ठिअ - घण्टापडेंसुआसयसहस्ससंकुले जाए आवि हत्था इति । 卐 5 तए णं तेसिं सोहम्मकप्पावासीणं, बहूणं वेमाणियाणं देवाण य देवीए य एगन्तरइपसत्त - णिच्चपमत्त5 विसयसुहमुच्छिआणं, सूरघण्टारसिअ - विउलबोलपूरिअ - चवल - पडिबोहणे कए 卐 घोसणकोऊ हलदिण्ण - कण्णएगग्गचित्त-उवउत्तमाणसाणं से पायत्ताणीआहिवई देवे तंसि घण्टारवंसि 5 निसंतपडिसंतंसि समाणंसि तत्थ तत्थ तहिं २ देसे महया महया सद्देणं उग्घोसेमाणे २ एवं वयासीति 'हन्त ! सुणंतु भवंतो बहवे सोहम्मकप्पवासी वेमाणिअदेवा देवीओ अ सोहम्मकप्पवइणो इणमो वयणं 5 हिअसुहत्थं - अणणवेवइ णं भो (सक्कस्स देविंदस्स देवरण्णो ) अंतिअं पाउन्भवहत्ति । तए णं ते देवा देवीओ अ एयमट्ठे सोच्चा हट्टतुट्ठहिअया अप्पेगइआ वन्दणवत्तिअं एवं पूअणवत्तिअं, सक्कारवत्तिअं समा 卐 5 सम्माणवत्तिअं दंसणवत्तिअं, जिणभत्तिरागेणं, अप्पेगइआ तं जीअमेअं एवमादि ति कट्टु जाव 5 पाउब्भवंति त्ति । उसभ - तुरग - णर- मगर - विहग - वालग - किण्णर - रुरु - सरभ - चमर - कुंजर - वणलय - पउमलय सहस्समालिणीअं, रूवगसहस्सकलिअं, भिसमाणं भिब्भिसमाणं चक्खुल्लो अणलेसं, सुहफासं, तणं से सक्के देविंदे, देवराया ते वेमाणिए देव देवीओ अ अकाल-परिहीणं चेव अंतिअं फ पाब्भवमाणे पास २ त्ता हट्टे पालयं णामं आभिओगिअं देवं सद्दावेइ २ त्ता एवं वयासी फ्र 卐 5 सस्सिरी अरूवं, घंटावलिअ - महुरमणहरसरं, सुहं, कन्तं, दरिसणिज्जं, णिउणोविअ - मिसिमिसिंत खामेव भो देवापिआ ! अणेगखम्भसयसण्णिविट्टं, लीलट्ठिय- सालभंजिआकलिअं, ईहामिअ- 5 मणिरयणघंटिआजालपरिक्खित्तं, जोयणसहस्स– वित्थिण्णं, पंचजो अणसयमुब्बिद्धं, सिग्धं, तुरिअं 卐 फ जइणणिव्याहिं, दिव्वं जाणविमाणं विउव्वाहि विउव्वित्ता एअमाणत्तिअं पच्चप्पिणाहि । 5 भत्तिचित्तं खंभुग्गयवइर - वेइआ - परिगयाभिरामं विज्जाहर-जमलजुअलजंतजुत्तं पिव, अच्ची- 5 卐 १४८. [ २ ] तब देवेन्द्र, देवराज शक्र मन में ऐसा संकल्प उत्पन्न होता है - जम्बूद्वीप में भगवान 1959595 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 55955555555952 उससे कहता है- 'देवानुप्रिय ! शीघ्र ही सुधर्मा सभा में मेघसमूह के गर्जन के समान गम्भीर तथा अति 卐 मधुर शब्दयुक्त, एक योजन गोलाई वाली सुन्दर स्वरयुक्त सुघोषा नामक घण्टा को तीन बार बजाते हुए, (414) Jambudveep Prajnapti Sutra 5 जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र फ 卐 Jain Education International 卐 卐 5 तीर्थंकर उत्पन्न हुए हैं। भूतकाल में हुए, वर्तमानकाल में विद्यमान, भविष्य में होने वाले देवेन्द्रों, देवराजों शक्रों का यह परम्परागत आचार है कि वे तीर्थंकरों का जन्म - महोत्सव मनाएँ । इसलिए मैं भी जाऊँ, क भगवान तीर्थंकर का जन्मोत्सव समायोजित करूँ । For Private & Personal Use Only 卐 देवराज शक्र ऐसा विचार करता है, निश्चय करता है। ऐसा निश्चय कर वह अपनी पदातिसेना के 5 अधिपति हरिणेगमेषी (हरि - इन्द्र के निगम - आदेश को चाहने वाले) नामक देव को बुलाता है। बुलाकर 卐 फ्र www.jainelibrary.org.
SR No.002911
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2006
Total Pages684
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Book_English, Agam, Canon, Conduct, & agam_jambudwipapragnapti
File Size21 MB
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