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________________ ज ) )) ))) ) ) )) )) 85555555555555555555555555555555555555 ॐ जोर-जोर से उद्घोषणा करते हुए कहो-देवेन्द्र, देवराज शक्र का आदेश है-वे जम्बूद्वीप में भगवान म तीर्थंकर का जन्म-महोत्सव मनाने जा रहे हैं। देवानुप्रियो ! आप सभी अपनी सर्वविध ऋद्धि, द्युति, बल, समुदय, आदर, विभूति, विभूषा, नाटक-नृत्य-गीतादि के साथ, किसी भी बाधा की परवाह न 卐 करते हुए सब प्रकार के पुष्पों, सुरभित पदार्थों, मालाओं तथा आभूषणों से विभूषित होकर दिव्य, + तुनुल ध्वनि के साथ महती ऋद्धि यावत् उच्च, दिव्य वाद्यध्वनिपूर्वक अपने-अपने परिवार सहित अपने-अपने विमानों पर सवार होकर शीघ्र शक्र (देवेन्द्र, देवराज) के समक्ष उपस्थित हों। देवेन्द्र, देवराज शक्र द्वारा इस प्रकार आदेश दिये जाने पर हरिणेगमेषी देव हर्षित होता है, परितुष्ट होता है, देवराज शक्र का आदेश विनयपूर्वक स्वीकार करता है। आदेश स्वीकार कर शक्र के पास से ॐ निकलता है। निकलकर, जहाँ सुधर्मा सभा है एवं जहाँ मेघसमूह के गर्जन के सदृश गम्भीर तथा अति मधुर शब्दयुक्त, एक योजन वर्तुलाकार सुघोषा नामक घण्टा है, वहाँ जाता है। वहाँ जाकर बादलों के 5 गर्जन के तुल्य एवं गम्भीर एवं मधुरतम शब्दयुक्त, एक योजन गोलाकार सुघोषा घण्टा को तीन बार ॐ बजाता है। मेघसमूह के गर्जन की तरह गम्भीर तथा अत्यन्त मधुर ध्वनि से युक्त, एक योजन वर्तुलाकार ॥ सुघोषा घण्टा के तीन बार बजाये जाने पर सौधर्मकल्प में एक कम बत्तीस लाख विमानों में, एक कम 5 बत्तीस लाख घण्टाएँ एक साथ तुमुल शब्द करने लगती हैं, बजने लगती हैं। सौधर्मकल्प के प्रासादों एवं विमानों के गम्भीर प्रदेशों, कोनों में पहुंचे तथा उनसे टकराये हुए शब्द-वर्गणा के पुद्गल लाखों घण्टा-ॐ के प्रतिध्वनियों के रूप में प्रकट होने लगते हैं। सौधर्मकल्प सुन्दर स्वरयुक्त घण्टाओं की विपुल ध्वनि से गूंज उठता है। वहाँ निवास करने वाले बहुत से वैमानिक देव, देवियाँ जो रतिसुख में आसक्त तथा नित्य प्रमत्त रहते हैं, वैषयिक सुख में मूर्छित रहते हैं, शीघ्र प्रतिबुद्ध होते हैं-जागरित होते हैं-भोगमयी मोह-निद्रा से जागते हैं। घोषणा के सुनने हेतु उत्सुक होते हैं। उसे सुनने में कान लगा देते हैं, दत्तचित्त हो जाते हैं। जब घण्टा-ध्वनि अत्यन्त मन्द, सर्वथा शान्त हो जाती है, तब शक्र की पदातिसेना का अधिपति हरिणेगमेषी देव स्थान# स्थान पर जोर-जोर से उद्घोषणा करता हुआ इस प्रकार कहता है 'सौधर्मकल्पवासी बहुत से देवों ! देवियों ! आप सौधर्मकल्पपति का यह हितकर एवं सुखप्रद वचन # सुनें ! उनकी आज्ञा है, आप उन (देवेन्द्र, देवराज शक्र) के समक्ष उपस्थित हों।' यह सुनकर देवों, म देवियों के हृदय हर्षित एवं परितुष्ट होते हैं। उनमें से कतिपय भगवान तीर्थंकर के वन्दन-अभिवादन हेतु, कतिपय पूजन-अर्चन हेतु, कतिपय सत्कार-स्तवनादि द्वारा गुणकीर्तन हेतु, कतिपय में सम्मान-समादर-प्रदर्शन द्वारा मनःप्रसाद निवेदित करने हेतु, कतिपय दर्शन की उत्सुकता से, अनेक जिनेन्द्र भगवान के प्रति भक्ति-अनुरागवश तथा कतिपय इसे अपना परम्परानुगत आचार मानकर वहाँ उपस्थित हो जाते हैं। देवेन्द्र, देवराज शक्र उन वैमानिक देव-देवियों को अपने समक्ष उपस्थित देखता है। देखकर प्रसन्न होता है। वह अपने पालक नामक आभियोगिक देव को बुलाता है। बुलाकर कहता है__देवानुप्रिय ! सैकड़ों खम्भों पर अवस्थित, क्रीडोद्यत पुत्तलियों से शोभित, ईहामृग-वृक, वृषभ, अश्व, मनुष्य, मकर, खग, सर्प, किन्नर, रुरु संज्ञक मृग, अष्टापद, चमर-चँवरी गाय, हाथी, वनलता, ))))))))5555555555555555555 ) )) ))) ) नानासा 卐5555555555555555555) पंचम वक्षस्कार (415) Fifth Chapter Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002911
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2006
Total Pages684
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Book_English, Agam, Canon, Conduct, & agam_jambudwipapragnapti
File Size21 MB
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