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Omniscient Bharat remained for seventy seven lakh poorvas in princely state. He remained as Mandalik ruler for one thousand years and for one thousand years less six lakh poorvas as king emperor-the Chakravarti king emperor. Thus he remained as a householder for a total period of 83 lakh poorvas. He remained in a state of omniscience for a little less (less than 48 minutes) than one lakh poorva. He spent the life of monkhood for a period of one lakh poorvas. His total life-span was that of 84 lakh poorvas. After destroying all the remaining four Karmas through complete fast for one month when moon was in Shravan constellation, he discarded the physical body and snapped the bondage of death and re-birth. He then attained salvation, liberation and state of 卐 5 complete departure from the worldly cycles of birth, death and re-birth 5
which is the cause of all miseries.
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विवेचन : राजा भरत शीशमहल में सिंहासन पर बैठा शीशों में पड़ते हुए अपने प्रतिबिम्ब को निहार रहा था। अपने सौन्दर्य, शोभा एवं रूप पर वह स्वयं विमुग्ध था। अपने प्रतिबिम्बों को निहारते-निहारते उसकी दृष्टि फ 5 अपनी अंगुली पर पड़ी। अंगुली में अंगूठी नहीं थी । वह नीचे गिर पड़ी थी। भरत ने अपनी अंगुली पर पुनः दृष्टि 5
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गड़ाई| अंगूठी के बिना उसे अपनी अंगुली सुहावनी नहीं लगी। सूर्य की ज्योत्स्ना में चन्द्रमा की धुति जिस प्रकार 5 प्रभाहीन प्रतीत होती है, उसे अपनी अंगुली वैसी ही लगी। उसके सौन्दर्याभिमानी मन पर एक चोट लगी। उसने अनुभव किया- अंगुली की कोई अपनी शोभा नहीं थी, वह तो अंगूठी की थी, जिसके बिना अंगुली का शोभारहित रूप उद्घाटित हो गया।
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the Koshal region where Ashtapad mountain was located. He then 卐 slowly climbed Ashtapad mountain. Thereafter, he closely examined a stone seat where the celestial beings normally come and go. It was looking black as a cloud. He undertook Sanlekhana and restrained 卐 卐 himself from all types of food and drinks. He took the posture of a branch of a tree lying on the ground motionless after having been separated from the tree. Without any desire for further life or early death, he engaged himself in deep contemplation about the soul.
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भरत चिन्तन की गहराई में पैठने लगा। उसने अपने शरीर के अन्यान्य आभूषण भी उतार दिये । सौन्दर्य5 परीक्षण की दृष्टि से अपने आभूषणरहित अंगों को निहारा । उसे लगा - चमचमाते स्वर्णाभरणों तथा रत्नाभरणों के अभाव में वस्तुतः मेरे अंग फीके, अनाकर्षक लगते हैं। उनका अपना सौन्दर्य, अपनी शोभा कहाँ है ?
भरत की चिन्तन-धारा उत्तरोत्तर गहन बनती गई। शरीर के भीतरी मलीमस रूप पर उसका ध्यान गया। उसने मन ही मन अनुभव किया - शरीर का वास्तविक स्वरूप माँस, रक्त, मज्जा, विष्ठा, मूत्र एवं मल-मय है। इनसे भरा शरीर सुन्दर, श्रेष्ठ कहाँ से होगा ?
तृतीय वक्षस्कार
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भरत के चिन्तन ने एक दूसरा मोड़ लिया। वह आत्मोन्मुख बना । आत्मा के परम पावन, विशुद्ध चेतनामय फ तथा शाश्वत शान्तिमय रूप की अनुभूति में भरत उत्तरोत्तर मग्न होता गया। उसके प्रशस्त अध्यवसाय, उज्ज्वल, 5
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Third Chapter
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