SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 170
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 55555555555555555555555555555555555558 पहाणगार-वच्छायागइए, अणेगवयणप्पहाणे, तेयआउबलवीरियजुत्ते, अझुसिरघणणिचिय-लोहसंकलणा राय-वइरउसहसंघयणदेहधारी। म झस १, जुग २, भिंगार ३, वद्धमाणग ४, भद्दासण ५, संख ६, छत्त ७, वीयणि ८, पडाग ९, चक्क १०, णंगल ११, मूसल १२, रह १३, सोत्थिय १४, अंकुस १५, चंदाइच्च १६-१७, ॐ अग्गि १८, जूय १९, सागर २०, इंदज्झय २१, पुहवि २२, पउम २३, कुञ्जर २४, सीहासण २५, दंड २६, कुम्म २७, गिरिवर २८, तुरगवर २९, वरमउड ३०, कुंडल ३१, णंदावत्त ३२, धणु ३३, ॐ कोंत ३४, गागर ३५, भवणविमाण ३६, अणेगलक्खण-पसत्थ-सुविभत्त-चित्तकर-चरणदेसभाए, म उड्डामुह-लोमजालसुकुमाल-णिद्धमउआवत्त-पसत्थलोम-विरइयसिरिवच्छ-च्छण्ण-विउलवच्छे, ॐ देस-खेत्त-सुविभत्तदेहधारी, तरुणरवि-रस्सिबोहिय-वरकमल-विबुद्धगब्भवण्णे, हयपोसण कोससण्णिभ-पसत्थपिटुंत-णिरुवलेवे, पउमुप्पल-कुन्द-जाइ-जुहिय-वरचंपग-णागपुष्फ सारंगतुल्लगंधी, छत्तीसाहियपसत्थ-पत्थिवगुणेहिं जुत्ते, अव्वोच्छिण्णयवत्ते, पागड-उभयजोणी, म विसुद्धणियग-कुलगयणपुण्णचंदे, चंदे इव सोमयाए णयण-मणणिबुइकरे, अक्खोभे सागरो व थिमिए, धणवइव्व भोगसमुदयसद्दव्वयाए, समरे अपराइए, परमविक्कमगुणे, अमरवइसमाणसरिसरूवे, मणुयवई म भरहचक्कवट्टी भरहं भुजइ पणट्ठसत्तू। ५२. वहाँ विनीता राजधानी में भरत नामक चातुरंग चक्रवर्ती-(पूर्व, पश्चिम तथा दक्षिण तीन ओर ॐ समुद्र एवं उत्तर में हिमवान्-यों चारों ओर विस्तृत विशाल राज्य का अधिपति) राजा उत्पन्न हुआ। वह महाहिमवान् पर्वत के समान महान् तथा मलय, मेरु [एवं महेन्द्र नामक पर्वतों के सदृश प्रधान या + विशिष्ट था। वह अत्यन्त विशुद्ध-दोषरहित, चिरकालीन-प्राचीन वंश में उत्पन्न हुआ था। उसके अंग ॐ पूर्णतः राजोचित लक्षणों से सुशोभित थे। वह बहुत लोगों द्वारा अति सम्मानित और पूजित था, सब ॐ गुणों से शोभित क्षत्रिय था-जनता को आक्रमण तथा संकट से बचाने वाला था, वह सदा प्रसन्न रहता था। अपनी पैतृक परम्परा द्वारा, अनुशासनवर्ती अन्यान्य राजाओं द्वारा उसका राज्याभिषेक या राजतिलक हुआ था। वह उत्तम माता-पिता से उत्पन्न उत्तम पुत्र था। वह स्वभाव से करुणाशील था। वह मर्यादाओं की स्थापना करने वाला तथा उनका पालन करने + वाला था। वह क्षेमंकर-सबके लिए अनुकूल स्थितियाँ उत्पन्न करने वाला तथा क्षेमंधर-उन्हें स्थिर बनाये रखने वाला था। वह परम ऐश्वर्य के कारण मनुष्यों में इन्द्र के समान था। वह अपने राष्ट्र के लिए ॐ पितृतुल्य प्रतिपालक, हितकारक, कल्याणकारक, पथदर्शक तथा आदर्श था। वह नरप्रवर-वैभव, सेना, शक्ति आदि की अपेक्षा से मनुष्यों में श्रेष्ठ तथा पुरुषवर-धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष रूप चार पुरुषार्थों में उद्यमशील, पुरुषों में परमार्थ-चिन्तन के कारण श्रेष्ठ था। कठोरता व पराक्रम में वह सिंहतुल्य, रौद्रता । में बाघ सदृश तथा अपने क्रोध को सफल बनाने के सामर्थ्य में सर्पतुल्य था। वह पुरुषों में उत्तम, सेवाशील जनों के लिए श्वेत कमल जैसा सुकुमार था। वह पुरुषों में गन्धहस्ती के समान था-अपने विरोधी राजारूपी हाथियों का मान-भंजक था। वह समृद्ध, दर्प या प्रभावयुक्त तथा सुप्रसिद्ध था। उसके यहाँ बड़े-बड़े विशाल भवन, सोने-बैठने के आसन तथा रथ, घोड़े आदि सवारियाँ, वाहन बड़ी मात्रा | जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (126) Jambudveep Prajnapti Sutra Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002911
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2006
Total Pages684
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Book_English, Agam, Canon, Conduct, & agam_jambudwipapragnapti
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy