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________________ 卐ध9555555555555555555 में थे। उसके पास विपुल सम्पत्ति, सोना तथा चाँदी थी। वह आयोग-प्रयोग-अर्थ-लाभ के उपायों का प्रयोक्ता था-धन-वृद्धि के सन्दर्भ में वह अनेक प्रकार से प्रयत्नशील रहता था। उसके यहाँ भोजन कर के लिये जाने के बाद बहुत खाद्य-सामग्री बच जाती थी (जो जरूरतमंदों में बाँट दी जाती थी)। उसके यहाँ अनेक दासियाँ, दास, गायें, भैंसें तथा भेड़ें थीं। उसके यहाँ यंत्र, खजाना, अन्न आदि वस्तुओं का भण्डार तथा शस्त्रागार अति समृद्ध था। उसके पास प्रभूत सेना थी। वह ऐसे राज्य का शासन करता था जिसमें अपने राज्य के सीमावर्ती राजाओं या पड़ोसी राजाओं को शक्तिहीन बना दिया गया था। अपने सगोत्र प्रतिस्पर्धियों को विनष्ट कर दिया गया या उनका धन छीन लिया गया था, उनका मान भंग कर दिया गया तथा उन्हें देश से निर्वासित कर दिया गया था। यों उसका कोई भी सगोत्र विरोधी नहीं बचा था। अपने (गोत्रभिन्न) शत्रुओं को भी विनष्ट कर दिया गया था, उनकी सम्पत्ति छीन ली गई थी, उनका मान भंग कर दिया गया था और उन्हें देश से निर्वासित कर दिया गया था। अपने प्रभावातिशय से उन्हें जीत लिया गया था] इस प्रकार वह राजा भरत दुर्भिक्ष तथा महामारी के भय से रहित-निरुपद्रव, क्षेममय, कल्याणमय, सुभिक्षयुक्त एवं शत्रुकृत विघ्नरहित राज्य का शासन करता था। राजा के वर्णन का दूसरा गम (पाठ) इस प्रकार है-वहाँ (विनीता राजधानी में) असंख्यात वर्ष बाद भरत नामक चक्रवर्ती उत्पन्न हुआ। वह यशस्वी, अभिजात कुलयुक्त, सत्त्व, वीर्य तथा पराक्रम आदि गुणों से शोभित, प्रशस्त वर्ण, स्वर, सुदृढ़ देह-संहनन, तीक्ष्ण बुद्धि, धारणा, मेधा, उत्तम शरीर-संस्थान, शील एवं प्रकृतियुक्त, उत्कृष्ट गौरव, कान्ति एवं गतियुक्त, अनेकविध प्रभावकर वचन बोलने में निपुण, तेज, आयु-बल, वीर्ययुक्त, निश्छिद्र, सघन, लोह-श्रृंखला की ज्यों सुदृढ़ वज्र-ऋषभ-नाराच-संहननयुक्त था। ___ उसकी हथेलियों और पगथलियों पर (१) मत्स्य, (२) युग, (३) भुंगार, (४) वर्धमानक, (५) भद्रासन, (६) शंख, (७) छत्र, (८) चँवर, (९) पताका, (१०) चक्र, (११) हल, (१२) मूसल, (१३) रथ, (१४) स्वस्तिक, (१५) अंकुश, (१६) चन्द्र, (१७) सूर्य, (१८) अग्नि, (१९) यज्ञ-स्तंभ, (२०) समुद्र, (२१) इन्द्रध्वज, (२२) कमल, (२३) पृथ्वी, (२४) हाथी, (२५) सिंहासन, (२६) दण्ड, (२७) कच्छप, (२८) उत्तम पर्वत, (२९) उत्तम अश्व, (३०) श्रेष्ठ मुकुट, (३१) कुण्डल, (३२) नन्दावर्त, (३३) धनुष, (३४) भाला, (३५) गागर-घाघरा, (३६) भवन, विमान प्रभृति पृथक्-पृथक् स्पष्ट रूप में अंकित अनेक सामुद्रिक शुभ लक्षण विद्यमान थे। उसके विशाल वक्षःस्थल पर है ऊर्ध्वमुखी, सुकोमल, स्निग्ध, मृदु एवं प्रशस्त केश थे, जिनसे सहज रूप में श्रीवत्स का चिह्न निर्मित था। देश एवं क्षेत्र के अनुरूप उसका सुगठित, सुन्दर शरीर था। बाल-सूर्य की किरणों से विकसित उत्तम कमल के मध्य भाग के वर्ण जैसा उसका वर्ण था। उसका पृष्ठान्त-(गुदा भाग) घोड़े के पृष्ठान्त की ज्यों मल-त्याग के समय पुरीष से अलिप्त रहता था। उसके शरीर से पद्म, उत्पल, चमेली, मालती, जूही, चंपक, केसर तथा कस्तूरी के सदृश सुगंध आती थी। वह छत्तीस से कहीं अधिक उत्तम राजगुणों से अथवा शुभ राजोचित लक्षणों से युक्त था। वह अविच्छिन्न प्रभुत्व का स्वामी था। उसके मातृवंश तथा : पितृवंश-दोनों निर्मल थे। अपने विशुद्ध कुलरूपी आकाश में वह पूर्णिमा के चन्द्र जैसा था। वह चन्द्र-सदृश सौम्य था, मन और आँखों के लिए आनन्दप्रद था। वह समुद्र के समान निश्चल-गंभीर के | तृतीय वक्षस्कार (127) Third Chapter 55555555555555555555555555555)))))))))))) . - . - . - . - . - . - . 「步步步步步步步步步步步牙牙牙%%%%%%%%%%%%%%%%% Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002911
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2006
Total Pages684
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Book_English, Agam, Canon, Conduct, & agam_jambudwipapragnapti
File Size21 MB
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