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After passing the total period of 84 lakh poorva of his life-span he, in the third month of winter in the fifth fortnight on the thirteenth day of dark fortnight of month of Magh, he went to Ashtapad mountain with ten thousand monks. He was then on six day fast sitting in cross-legged posture. It was then Abhijit constellation with the moon and only 79 fortnights of the first aeon Sukhma-Sukhma were remaining. In other words after three years and eight and a half months the said aeon was going to end. At that time he ended all the miseries of the mundane world, snapped completely all the bondage of birth, old age and death and attained salvation. He was liberated from the mundane world.
देवकृत महामहिमा : महोत्सव FESTIVAL ARRANGED BY DEVAS
४१. जं समयं च णं उसभे अरहा कोसलिए कालगए वीइक्कंते, समुज्जाए छिण्णजाइ-जरामरण - बंधणे, सिद्धे, बुद्धे, (मुत्ते, अंतंगडे, परिणिब्बुडे) सब्व - दुक्खप्पहीणे, तं समयं च णं सक्कस्स देविंदस्स देवरणो आसणे चलिए । तए णं से सक्के देविंदे, देवराया, आसणं चलिअं पासइ, पासित्ता ओहिं पउंजइ, परंजित्ता भयवं तित्थयरं ओहिणा आभोएइ, आभोएत्ता एवं वयासी - परिणिब्बुए खलु जंबुद्दीवे दीवे भरहे वासे उसके अरहा कोसलिए, तं जीअमेअं तीअ-पच्चुप्पण्ण-मणागयाणं सक्काणं देविंदाणं, देवराईणं तित्थगराणं परिनिव्वाणमहिमं करेत्तए । तं गच्छामि णं अहंपि भगवतो तित्थगरस्स परिनिव्वाण - महिमं करेमित्ति कट्टु वंदइ, णमंसइ; वंदित्ता, णमंसित्ता चउरासीईए सामाणिअ - साहस्सीहिं तायत्तीसाए तायत्तीसएहिं, चउहिं लोगपालेहिं, (अट्ठहिं अग्गमहिसीहिं सपरिवाराहिं, तिहिं परिसाहिं, सत्तहिं अणीएहिं ) चउहिं चउरासीईहिं आयरक्खदेव - साहस्सीहिं, अण्णेहिं अ बहूहिं सोहम्म- कप्पवासी मणिएहिं देवेहिं, देवीहि अ सद्धिं संपरिवुडे ताए उक्किट्ठाए, तिरिअमसंखेज्जाणं दीवसमुद्दाणं मज्झमज्झेणं जेणेव अट्ठावयपव्वए, जेणेव भगवओ तित्थगरस्स सरीरए, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता विमणे, णिराणंदे, अंसुपुण्ण - णयणे तित्थयर - सरीरयं तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ, करेत्ता णच्चासणे, णाइदूरे सुस्सूसमाणे ( णमंसमाणे, अभिमुहे विणएणं पंजलिउडे) पज्जुवासइ ।
४१. जिस समय कौशलिक, अर्हत् ऋषभ कालगत हुए, जन्म, वृद्धावस्था तथा मृत्यु के बन्धन तोड़कर सिद्ध, बुद्ध, (मुक्त, अन्तकृत् परिनिर्वृत्त) तथा सर्वदुःखरहित हुए, उस समय देवेन्द्र, देवराज शक्र का आसन चलित हुआ। देवेन्द्र, देवराज शक्र ने अपना आसन चलित देखा, अवधिज्ञान का प्रयोग किया, प्रयोग कर भगवान तीर्थंकर को देखा। देखकर वह यों बोला- 'जम्बूद्वीप के अन्तर्गत भरत क्षेत्र में कौशलिक अर्हत् ऋषभ ने परिनिर्वाण प्राप्त कर लिया है, अतः अतीत, वर्तमान, अनागत- भावी देवराजों, देवेन्द्रों शक्रों का यह जीत व्यवहार है कि वे तीर्थंकरों के परिनिर्वाण - महोत्सव मनाएँ । इसलिए मैं भी तीर्थंकर भगवान का परिनिर्वाण - महोत्सव आयोजित करने हेतु जाऊँ ।” यों सोचकर देवेन्द्र ने वन्दन - नमस्कार किया । वन्दन - नमस्कार कर वह अपने चौरासी हजार सामानिक देवों, तेतीस हजार त्रायस्त्रिंशक देवों, परिवारोपेत अपनी आठ पट्टरानियों, तीन परिषदों, सात सेनाओं, चारों
द्वितीय वक्षस्कार
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Second Chapter
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