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________________ )) )) ) )) 55555555555555555555555))))))))))))) कोई भी व्यक्ति उसे तेज शस्त्र द्वारा भी छिन्न-भिन्न नहीं कर सकता। ऐसा सर्वज्ञों ने कहा है। वह ॥ (व्यावहारिक परमाणु) सभी प्रमाणों का आदि कारण है। __अनन्त व्यावहारिक परमाणुओं के संयोग से एक उत्श्लक्ष्णश्लक्ष्णिका होती है। आठ बाल का अग्रज भाग उत्श्लक्ष्णश्लक्ष्णिकाओं की एक श्लक्ष्णश्लक्ष्णिका होती है। आठ श्लक्ष्णश्लक्ष्णिकाओं का एक ॐ ऊर्ध्वरेणु होता है। आठ ऊर्ध्वरेणुओं का एक त्रसरेणु होता है। आठ त्रसरेणुओं का एक रथरेणु (रथ के चलते समय उड़ने वाले रज-कण) होता है। आठ रथरेणुओं का देवकुरु तथा उत्तरकुरु निवासी मनुष्यों के का एक बालाग्र होता है। इन आठ बालारों का हरिवर्ष तथा रम्यक्वर्ष के निवासी मनुष्यों का एक ॐ बालाग्र होता है। इन आठ बालागों का हैमवत तथा हैरण्यवत निवासी मनुष्यों का एक बालाग्र होता है। के इन आठ बालाग्रों का पूर्वविदेह एवं अपरविदेह के निवासी मनुष्यों का एक बालाग्र होता है। इन आठ फ़ बालागों की एक लीख होती है। आठ लीखों की एक जूं होती है। आठ जूओं का एक यवमध्य होता है। ॐ आठ यवमध्यों का एक अंगुल होता है। छः अंगुलों का एक पाद-पादमध्य-तल होता है। बारह अंगुलो 5 की एक वितस्ति होती है। चौबीस अंगुलों की एक रनि-हाथ होता है। अड़तालीस अंगुलों की एक कुक्षि , में होती है। छियानवे अंगुलों का एक अक्ष-आखा-शकट का भाग-विशेष होता है। इसी तरह छियानवे : अंगुलों का एक दण्ड, धनुष, जुआ, मूसल तथा नालिका-एक प्रकार की यष्टि होती है। दो हजार धनुषों के का एक गव्यूत-कोस होता है। चार गव्यूतों का एक योजन होता है। इस योजन-परिमाण से एक योजन लम्बा, एक योजन चौड़ा, एक योजन ऊँचा तथा इससे तीन गुनी परिधियुक्त पल्य-धान्य रखने के कोठे जैसा हो। देवकुरु तथा उत्तरकुरु में एक दिन, दो दिन, तीन फ़ , अधिकाधिक सात दिन-रात के जन्मे यौगलिक के प्ररूढ़ बालानों से उस पल्य को इतने सघन,, ठोस, निचित, निविड रूप में भरा जाये कि वे बालाग्र न खराब हों, न विध्वस्त हों, न उन्हें अग्नि जला सके, न वायु उड़ा सके, न वे सड़ें-गलें-दुर्गन्धित हों। फिर सौ-सौ वर्ष के बाद एक-एक बालाग्र निकाले जाते रहने पर जब वह पल्य बिल्कुल रीता हो जाये, रजरहित-धूलकण-सदृश बालारों से रहित हो जाए, निर्लिप्त हो जाये-बालाग्र कहीं जरा भी चिपके न रह जायें, सर्वथा रिक्त हो जाये, तब ! + तक का समय एक पल्योपम कहा जाता है। (अंगुल, धनुष आदि के चित्र पृष्ठ ९२ तथा पल्य का स्वरूप एवं __ चित्र देखें--अनुयोगद्वार, भाग २, पृष्ठ १६३) + ऐसे कोड़ाकोड़ी पल्योपम का दस गुना एक सागरोपम होता है। ऐसे सागरोपम परिमाण से सुषम-सुषमा का काल चार कोड़ा-कोड़ी सागरोपम, सुषमा का काल म तीन कोड़ा-कोड़ी सागरोपम, सुषम-दुःषमा का काल दो कोड़ा-कोड़ी सागरोपम, दुःषम-सुषमा काम काल बयालीस हजार वर्ष कम एक कोड़ा-कोड़ी सागरोपम, दुःषमा का काल इक्कीस हजार वर्ष तथा : दुःषम-दुःषमा का काल इक्कीस हजार वर्ष है। यह अवसर्पिणी काल के छह आरों का परिमाण है। उत्सर्पिणी काल का परिमाण इससे प्रतिलोम-उल्टा समझना चाहिए। यावत् सुषम-सुषमा का काल + चार कोड़ा-कोड़ी सागरोपम है। इस प्रकार अवसर्पिणी का काल दस सागरोपम कोड़ा-कोड़ी है तथा । के उत्सर्पिणी का काल भी दस सागरोपम कोड़ा-कोड़ी है। अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी-दोनों का काल बीस है कोड़ा-कोड़ी सागरोपम है। जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (40) Jambudveep Prajnapti Sutra 步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步高 055555555555555555555555555555555555555 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002911
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2006
Total Pages684
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Book_English, Agam, Canon, Conduct, & agam_jambudwipapragnapti
File Size21 MB
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