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म [प्र.] तीसे णं भंते ! समाए उत्तमकट्टपत्ताए भरहस्स वासस्स केरिसए आयारभावपडोआरे भविस्सइ ?
[उ.] गोयमा ! काले भविस्सइ हाहाभूए, भंभाभूए, कोलाहलभूए, समाणुभावेण यम खरफरुसधूलिमइला, दुबिसहा, वाउला, भयंकरा य वाया संवट्टगा य वाइंति, इह अभिक्खणं २ धूमाहिति अ दिसा समंता रउस्सला रेणुकलुस-तमपडल-णिरालोआ, समयलुक्खयाए णं अहिअं चंदा ॥ सीअं मोच्छिहिंति, अहिअं सूरिआ तविस्संति, अदुत्तरं च णं गोयमा ! अभिक्खणं अरसमेहा, विरसमेहा, खारमेहा, खत्तमेहा, अग्गिमेहा, विज्जुमेहा, विसमेहा, अजवणिज्जोदगा, वाहिरोग-वेदणोदीरण
परिणामसलिला, अमणुण्णपाणिअगा चंडानिलपहततिक्खधाराणिवातपउरं वासं वासिहिंति, जेणं भरहे ॐ वासे गामागर-णगर-खेड-कब्बड-मडंब-दोणमुह-पट्टणासमगयं जणयं, चउप्पयगवेलए, खहयरे,
पक्खिसंघे गामारण्णप्पयारणिरए तसे अ पाणे, बहुप्पयारे रुक्ख-गुच्छ-गुम्म-लयवल्लिपवालंकुरमादीए तणवणस्सइकाइए ओसहीओ अ विद्धंसेहिति, पबय-गिरि-डोंगरुत्थलभट्ठिमादीए अ वेअड्डगिरिवज्जे विरावेहिंति, सलिलबिल-विसम-गत्तणिण्णुण्णयाणि अ गंगासिंधुवज्जाइं समीकरेहिति।
[प्र.] तीसे णं भंते ! समाए भरहस्स वासस्स भूमीए केरिसए आयारभावपडोआरे भविस्सइ ? 卐 [उ.] गोयमा ! भूमि भविस्सइ इंगालभूआ, मुम्मुरभूआ, छारिअभूआ, तत्तकवेल्लुअभूआ, म # तत्तसमजोइभूआ, धूलिबहुला, रेणुबहुला, पंकबहुला, पणयबहुला, चलणिबहुला, बहूणं धरणिगोअराणं । सत्ताणं दुनिक्कमा यावि भविस्सइ। ॐ ४६. [१] आयुष्मन् श्रमण गौतम ! उस समय के-पंचम आरक के इक्कीस हजार वर्ष व्यतीत हो +जाने पर अवसर्पिणी काल का दुषम-दुषमा नामक छठा आरक प्रारम्भ होगा। उसमें अनन्त वर्ण-पर्याय, * गन्ध-पर्याय, रस-पर्याय तथा स्पर्श-पर्याय आदि का क्रमशः ह्रास होता जायेगा।
[प्र.] भगवन् ! जब वह आरक उत्कर्ष की पराकाष्ठा पर पहुँचा होगा, तो भरत क्षेत्र का ॐ आकार/स्वरूप कैसा होगा?
[उ. ] गौतम ! उस समय दुःखार्ततावश लोगों में हाहाकर मच जायेगा, गाय आदि पशुओं में ॐ अत्यन्त दुःखोद्विग्नता से चीत्कार फैल जायेगा अथवा भेरी के भीतरी भाग की शून्यता या सर्वथा
रिक्तता के सदश वह समय विपल जन-क्षय के कारण जन-शन्य हो जायेगा। उस ॐ प्रभाव है। तब अत्यन्त कठोर, धूल से मलिन, दुस्सह, आकुलतापूर्ण भयंकर वायु चलेंगे, तृण, काष्ठ
आदि को उड़ाकर कहीं का कहीं पहुंचा देने वाले संवर्तक-वायु चलेंगे। उस काल में दिशाएँ पुनः पुनः धुआँ छोड़ती रहेंगी। वे सर्वथा रज से भरी होंगी, धूल से मलिन होंगी तथा घोर अंधकार के कारण म प्रकाशशून्य हो जायेंगी। काल की रूक्षता के कारण चन्द्र अधिक शीत-हिम छोड़ेंगे। सूर्य अधिक असह्य, म : रूप में तपेंगे। गौतम ! उसके अनन्तर अरसमेघ-मनोज्ञ रस-वर्जित जलयुक्त मेघ, विरसमेघ-विपरीत ॐ रसमय जलयुक्त मेघ, क्षारमेघ-खार के समान जलयुक्त मेघ, खात्रमेघ-अम्ल या खट्टे जलयुक्त मेघ, + अग्निमेघ-अग्नि सदृश दाहक जलयुक्त मेघ, विद्युन्मेघ-विद्युत्-बहुत जलवर्जित मेघ अथवा बिजली द्वितीय वक्षस्कार
Second Chapter
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