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________________ தமி*தமிழ***தமிழ*********மிமிமிமிமிமிமிமிமிமிதமிY पुलगामईओ दिट्ठीओ, रिट्ठामईओ तारगाओ, रिट्ठामयाइं अच्छिपत्ताई, रिट्ठामईओ भमुहाओ, कणगामया कवोला, कणगामया सवणा, कणगामईओ णिडालपट्टियाओ, वइरामईओ सीसघडीओ, तवणिज्जमईओ संतसभूमिओ, रिट्ठामय उवरिमुद्धया । तासि णं जिणपडिमाणं पिट्ठओ पत्तेयं २ छत्तधारपडिमा पण्णत्ता । ताओ णं छत्तधारपडिमाओ हिम- रयय - कुंदिंदु - सप्पगासाइं सकोरंटमल्लदामाई, धवलाई आयवत्ताई सलीलं ओहारेमाणीओ चिट्ठति । तासि णं जिणपडिमाणं उभओ पासिं पतेअं २ दो दो चामरधारपडिमाओ पण्णत्ताओ । ताओ णं चामरधारपडिमाओ चंदप्पह - बइर - बेरुलिय- णाणामणिकणग - रयण - खइअ - महरिह - तवणिज्जुविचित्तदंडाओ, चिल्लियाओ, संखंक - कुंद - दगरय- अमयमहिअ - फेणपुंजसन्निकासाओ, सुहुमरययदीहवालाओ, धवलाओ चामराओ सलीलं धारेमाणीओ चिट्ठति । तासि णं जिणपरिमाणं पुरओ वो दो णागपडिमाओ, दो दो जक्खपडिमाओ, दो दो भूअपडिमाओ, दो दो कुंडधारपडिमाओ विणओणयाओ, पायबडियाओ, पंजलिउडाओ, सन्निक्खित्ताओ चिट्ठति - सव्वरयणामईओ, अच्छाओ, सण्हाओ, लण्हाओ, घट्टाओ, मट्ठाओ, नीरयाओ, निप्पंकाओ जाव पडिरूवाओ। तत्थ णं जिणपरिमाणं पुरओ अट्ठसयं घंटाणं, अट्ठसयं चंदणकलसाणं, एवं भिंगाराणं, आयंसगाणं, थालाणं पाईर्ण, सुपट्ट्टगाणं, मणोगुलिआणं, बातकरगाणं, चित्ताणं रयणकरंडगाणं, हयकंठाणं जाव उसभकंठाणं, पुष्कचंगेरीणं जाब लोमहत्थचंगेरीणं, पुष्फपडलगाणं जाव लोमहत्थपडलगाणं धूवकडुच्छुगा । १९. [प्र.] भगवन् ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत भरत क्षेत्र में वैताढ्य पर्वत पर सिद्धायतनकूट कहाँ है ? [उ.] गौतम ! पूर्व लवण समुद्र के पश्चिम में, दक्षिणार्ध भरतकूट के पूर्व में, जम्बूद्वीप के अन्तर्गत भरत क्षेत्र में वैताढ्य पर्बत पर सिद्धायतनकूट नामक कूट है। वह छह योजन एक कोस ऊँचा, मूल में छह प्रोजन एक कोस चौड़ा, मध्य में कुछ कम पाँच योजन चौड़ा तथा ऊपर कुछ अधिक तीन योजन चौड़ा है। मूल में उसकी परिधि कुछ कम बाईस योजन की, मध्य में कुछ कम पन्द्रह योजन की तथा ऊपर कुछ अधिक नौ योजन की है। यह मूल में विस्तीर्ण, मध्य में संकुचित या सँकड़ा तथा ऊपर पतला है। वह गाय के पूँछ के आकार जैसा है। वह सर्वरत्नमय, स्वच्छ, सुकोमल तथा सुन्दर है। यह एक पद्मयरवेदिका एवं एक वनखण्ड से सब ओर से परिवेष्टित है। दोनों का परिमाण पूर्ववत् है । सिखायतनकूट के ऊपर अति समतल तथा रमणीय भूमिभाग है। वह मृदंग के ऊपरी भाग जैसा समतल है। यहाँ वाणव्यन्तर देव और देवियाँ विहार करते हैं। उस अति समतल, रमणीय भूमिभाग के ठीक बीच में एक बड़ा सिद्धायतन है। वह एक कोस लम्बा, आधा कोस चौड़ा और कुछ कम एक कोस ऊँचा है। वह ऊँची, सुरचित वेदिकाओं, तोरणों तथा सुन्दर पुत्तलिकाओं से सुशोभित है। उसके उज्ज्वल स्तम्भ चिकने, विशिष्ट, सुन्दर आकारयुक्त उत्तम सूर्यमणियों से निर्मित हैं। उसका भूमिभाग विविध प्रकार की मणियों और रत्नों से जड़ा हुआ है, उज्ज्वल है, अत्यन्त समतल तथा सुविभक्त है। उसमें ईहामृग-भेड़िया, वृषभ - बैल, घोड़ा, मनुष्य, मगर, प्रथम वमस्कार ( 23 ) Jain Education International 6 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 555 55559 First Chapter For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002911
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2006
Total Pages684
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Book_English, Agam, Canon, Conduct, & agam_jambudwipapragnapti
File Size21 MB
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