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* का विषय है। तब पृथ्वी पर किसी प्रकार का प्रदूषण नहीं था, कल-कारखाने नहीं थे, समय पर पर्याप्त म वर्षा होती थी, धरती खूब रस युक्त थी, फसलें बहुत अच्छी होती थी, जल भी अमृत तुल्य था और 5 - फल व खाद्य पदार्थ भी पौष्टिक व स्वादिष्ट होते थे। मनुष्य की इच्छाएँ और आवश्यकताएँ बहुत स्वल्प ॐ थी। वे न तो परस्पर कभी झगड़ते, न ही कोई किसी से शत्रुता करता। सब निर्भय और निर्द्वन्द्व भाव से + स्वतंत्र पाद विहारी थे। पशु-पक्षी भी क्रूर व हिंसक स्वभाव के नहीं थे। पशु-पक्षी, साँप-बिच्छू जैसे
जहरीले जीव-जन्तु भी कभी किसी को काटते नहीं थे, न ही भयभीत करते थे। घोड़े, गाय, भैंस आदि ॥ पशु भी होते थे, परन्तु मनुष्य न तो घोड़े से कभी सेवा लेता, न ही गाय, भैंस का दूध दुहता। वह मात्र
फलाहारी था। वृक्षों के फल भी इतने पौष्टिक व स्वादिष्ट होते थे कि थोड़ा-सा फल खा लेने पर भी तीन
दिन तक भूख नहीं सताती। उस यग का जीवन सर्वथा संक्लेश मक्त आनन्दमय था ॐ प्राकृतिक जीवन जीता था। इसलिए स्वस्थ, बलिष्ट, शान्त, प्रसन्न और दीर्घजीवी होता था। इसके . # विपरीत पर्यावरण में जब परिवर्तन होने लगता है, तो मनुष्य की इच्छाएँ बढ़ती हैं। आवश्यकताएँ * बढ़ती हैं। धरती भी धीरे-धीरे रसहीन होने लगती है। वायुमण्डल में अधिक सर्दी, अधिक गर्मी बढ़ती 卐 है। पशु-पक्षियों के स्वभाव में क्रूरता, हिंसकता आती है और धीरे-धीरे पांचवाँ आरा समाप्त होने तक के
तो यह पृथ्वी तवे सी तपने लगती है। मनुष्य क्रोधी, कामी, लोभी और धूर्त बन जाता है। नदियों का % पानी सूख जाता है, धरती बंजर हो जाती है। वनस्पतियाँ जल जाती हैं। मनुष्य मजबूरी वश माँसाहार म से जीवन निर्वाह करने लगता है।
द्वितीय वक्षस्कार में अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी काल का यह वर्णन आज के पर्यावरण की दृष्टि से बहुत ॥ ॐ कुछ सोचने समझने की प्रेरणा देता है और जो वर्णन किया गया है, उसका कुछ-कुछ प्रभाव आज भी 5
अनुभव किया जा रहा है। जैसे जंगलों का कटना, धरती की उर्वरा शक्ति क्षीण होना, और पानी का 9 भयंकर संकट तथा तापमान में असाधारण वृद्धि। पर्यावरण का यह असंतुलन आने वाले अत्यन्त ॥
कष्टमय समय की पूर्व सूचना है। जिसका आँखों देखा जैसा वर्णन प्रस्तुत सूत्र में मिलता है। म मेरा सभी पाठकों से आग्रह है कि इस वर्णन के परिप्रेक्ष्य में वे आज की इकोलॉजी को समझेंगे तो इसकी सत्यता स्वयं अनुभव कर सकेंगे।
इसी क्रम में भगवान ऋषभदेव के अवतरण का भी संक्षिप्त वर्णन दूसरे वक्षस्कार में है। ॐ तृतीय वक्षस्कार में भरत चक्रवर्ती का आदि से अन्त तक का बहुत ही रोचक वर्णन है। भरत की 5
दिग्विजय यात्रा, फिर चक्रवर्तित्व और अन्त में उसके विशाल राज्य वैभव का रोमांचक वर्णन पढ़ने के पश्चात् ऐसा लगता है, कितना महान पुण्यशाली होगा वह आत्मा जीव। जिसकी सेवा में १६ हजार देवता सेवक की तरह खड़े रहते थे और वह अपार वैभव का स्वामी भीतर से कितना अनासक्त और
वीतराग होता है कि भावनाओं की उच्चतम निर्मलता प्राप्त करके शीशमहल में बैठे-बैठे ही केवलज्ञान ॐ प्राप्त कर लेता है।
चरित्र कथा की दृष्टि से इस आगम में केवल बस यही एक चरित्र है। बाकी सब जम्बूद्वीप का म भौगोलिक वर्णन है।
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