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________________ फफफफफफफ फफफफफफफफफफफफफफफफफफफफफफफ 卐 5 तित्थयरे तित्थयरमाया य तेणेव उवागच्छन्ति २ त्ता भगवं तित्थयरं तित्थयरमायरं च तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेंति २ त्ता पत्तेअं २ करयलपरिग्गहिअं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्टु एवं वयासीमोत्थु ते रयणकुच्छिधारिए ! जगप्पईवदाईए ! सव्वजगमंगलस्स, चक्खुणो अ मुत्तस्स, सव्वजगजीववच्छलस्स, हिअकारग - मग्गदेसिय- वागिद्धिविभुप्पभुस्स, जिणस्स, णाणिस्स, नायगस्स, बुहस्स, बोहगस्स, सव्वलोगनाहस्स, निम्ममस्स, पवरकुलसमुब्भवस्स जाईए खत्तिअस्स जमसि लोगुत्तमस्स जणी धासि तं पुण्णासि कयत्थासि । अम्हे णं देवाणुप्पिए ! अहेलोगवत्थव्वाओ अट्ठ दिसाकुमारीमहत्तरिआओ भगवओ तित्थगरस्स जम्मणमहिमं करिस्सामो, तण्णं तुब्भेहिं णं भाइव्वं । सिवेणं, इति कट्टु उत्तरपुरथिमं दिसीभागं अवक्कमन्ति अवक्कमित्ता वेउव्विअसमुग्धाएणं समोहणंति समोहणित्ता संखिज्जाई जोयणाइं दंडं निस्सरंति, तं जहा - रययाणं जाव संवट्टगवाए विउव्वंति २ त्ता ते णं मउएणं, मारुणं अणं, भूमितल - विमलकरणेणं, मणहरेणं सव्वोउअसुरहिकुसुमगन्धाणुवासिएणं, पिण्डिमणिहारिमेणं गन्धुडुएणं तिरिअं पवाइएणं भगवओ तित्थयरस्स जम्मणभवणस्स सव्वओ समन्ता जोअणपरिमण्डलं से जहाणामए कम्मगदारए सिआ जाव तहेव तत्तणं वा पत्तं वा कटुं वा कयवरं वा असुइमचोक्खं पूइअं दुब्भिगन्धं तं सव्वं आहुणिअ २ एगन्ते एडेंति २ जेणेव भगवं तित्थयरे तित्थयरमाया य तेणेव उवागच्छन्ति २ त्ता भगवओ तित्थयरस्स अ अदूरसामन्ते आगायमाणीओ, परिगायमाणीओ चिट्ठति । तित्थरमायाए १४५. जब किसी भी एक चक्रवर्ती - विजय में तीर्थंकर उत्पन्न होते हैं, उस काल-तृतीय चतुर्थ आरक में उस समय अर्ध रात्रि की वेला में (१) भोगंकरा, (२) भोगवती, (३) सुभोगा, (४) भोगमालिनी, (५) तोयधारा, (६) विचित्रा, (७) पुष्पमाला, तथा (८) अनिन्दिता नामक अधोलोक में निवास करने वाली, महत्तरिका - गौरवशालिनी आठ दिक्कुमारिकाएँ, जो अपने कूटों पर, अपने भवनों में, अपने उत्तम प्रासादों में, अपने चार हजार सामानिक देवों यावत् विशाल देव परिवार के साथ दिव्य विपुल सुखोपभोग में लीन रहती हैं, तब उनके आसन चलित होते हैं- प्रकम्पित होते हैं। जब वे अधोलोकवासिनी आठ दिक्कुमारिकाएँ अपने आसनों को चलित होते देखती हैं, वे अपने अवधिज्ञान का प्रयोग करती हैं । अवधिज्ञान का प्रयोग कर भगवान तीर्थंकर को देखती हैं। देखकर परस्पर एक-दूसरे को सम्बोधित कर कहती हैं- 'जम्बूद्वीप में भगवान तीर्थंकर उत्पन्न हुए हैं। अतीत में हुई, वर्तमान समय में विद्यमान तथा भविष्य में होने वाली, अधोलोकवासिनी हम आठ महत्तरिका दिशाकुमारियों का यह परम्परागत आचार है कि हम भगवान तीर्थंकर का जन्म - महोत्सव मनाएँ, अतः चलें, भगवान का जन्मोत्सव आयोजित करें।' यों कहकर उनमें से प्रत्येक अपने आभियोगिक देवों बुलाकर, उनसे कहती हैं- 'देवानुप्रियो ! सैकड़ों खम्भों पर अवस्थित सुन्दर यान - विमान की विमान - - रचना करो | दिव्य विमान तैयार कर हमें सूचित करो।' विमान का वर्णन पूर्वानुरूप है। हम को वे आभियोगिक देव सैकड़ों खम्भों पर अवस्थित यान - विमानों की रचना करते हैं और सूचित उनके आदेशानुरूप कार्य सम्पन्न हो गया है। यह जानकर वे अधोलोकवासिनी गौरवशीला करते हैं पंचम वक्षस्कार (395) Jain Education International Fifth Chapter For Private & Personal Use Only ब 卐 25595555 5 5 5 55 559 55 55 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 a 卐 www.jainelibrary.org
SR No.002911
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2006
Total Pages684
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Book_English, Agam, Canon, Conduct, & agam_jambudwipapragnapti
File Size21 MB
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