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present and future ruling celestial gods of Magadh Tirth that they offer gift to the king. So, I should also go and offer gift to the king.'
Thinking in this manner, he took garland, crown, kundals (ornaments f worn in the ear), bangles, armlets, cloth, many other ornaments, the arrow bearing the name of Bharat and the water of Magadh Tirth. He then with a great speed like that of a lion moved quickly and anxiously with divine speed and came to the place where king Bharat was seated. Thereafter, he with folded hands touched his forehead while he was wearing excellent clothes of five colours and stationed in the open space. He congratulated king Bharat with the words, 'May you always be successful' and said, 'You have conquered the entire area up to Magadh Tirth of Bharat area in the eastern side. I am residing in the region conquered by you. I am your obedient servant. I am your lieutenant guarding the eastern boundary. So, you please accept my gift happily. 5 Saying so, he offered the garland, crown, ear-ornament, the Katak up to the water of Magadh Tirth.
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King Bharat accepted the gift thus offered by Magadh Tirth Kumar. Thereafter, he honoured him and then bid him to go.
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5 अष्टमभक्त का पारणा तथा अष्टदिवसीय महोत्सव
BREAKING OF THREE DAY FAST AND CELEBRATION OF EIGHT DAY FESTIVAL
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५८. [ ३ ] तए णं से भरहे राया रहं परावत्तेइ २ त्ता मागहतित्थेणं लवणसमुद्दाओ पच्चुत्तरइ २ ता
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फ जेणेव विजयखंधावारणिवेसे जेणेव बाहिरिआ उवट्ठाणसाला तेणेव उवागच्छइ २ त्ता तुरए णिगिण्हइ २ ता
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रहं ठबेइ २ ता रहाओ पच्चोरुहति २ त्ता जेणेव मज्जणघरे तेणेव उवागच्छति २ त्ता मज्जणघरं अणुपविसइ २ ता जाव ससिव्व पिअदंसणे णरवई मज्जणघराओ पडिणिक्खमइ २ त्ता जेणेव भोअणमंडवे तेणेव उवागच्छइ २ त्ता भोअणमंडवंसि सुहासणवरगए अट्ठमभत्तं पारेइ २ त्ता भोअणमंडवाओ पडिणिक्खमइ २ त्ता जेणेव बाहिरिआ उबट्ठाणसाला जेणेव सीहासणे तेणेव उवागच्छइ २ त्ता सीहासणवरगए पुरत्थाभिमुहे णिसीअइ २ त्ता अट्ठारस सेणिप्पसेणीओ सद्दावेइ २ त्ता एवं वयासी'खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! उस्सुक्कं उक्करं जाव मागहतित्थकुमारस्स देवस्स अट्ठाहिअं महामहिमं करेइ २त्ता मम एअमाणत्तिअं पच्चप्पिण्णह ।' तए णं ताओ अट्ठारस सेणिप्पसेणीओ भरहेणं रण्णा एवं वृत्ताओ समाणीओ हट्ठ जाव करेंति २ त्ता एअमाणत्तिअं पच्चप्पिणंति ।
५८. [३] फिर राजा भरत ने अपना रथ वापस मोड़ा। रथ मोड़कर वह मागध तीर्थ से होता हुआ लवण समुद्र से वापस लौटा। जहाँ उसका सैन्य शिविर था, बाह्य उपस्थानशाला थी, वहाँ आया । वहाँ आकर घोड़ों को रोका, रथ को ठहराया, रथ से नीचे उतरा, जहाँ स्नानघर था, गया । स्नानघर में प्रविष्ट हुआ। उज्ज्वल महामेघ से निकलते हुए चन्द्र सदृश सुन्दर दिखाई देने वाला राजा स्नानादि सम्पन्न
Third Chapter
तृतीय वक्षस्कार
(151)
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