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३८. [ २ ] इस प्रकार विहार करते हुए एक हजार वर्ष व्यतीत हो जाने पर पुरिमताल नगर बाहर शकटमुख नामक उद्यान में एक वट वृक्ष के नीचे, ध्यानान्तरिका - ( आरब्ध ध्यान की समाप्ति तथा अपूर्व ध्यान के अनारंभ की स्थिति में अर्थात् शुक्लध्यान के पृथक्त्ववितर्क - सविचार तथा एकत्ववितर्क - अविचार- इन दो चरणों के स्वायत्त कर लेने एवं सूक्ष्मक्रिय-अप्रतिपति और व्युच्छिन्नक्रिय - अनिवर्ति- इन दो चरणों की अप्रतिपन्न अवस्था में) फाल्गुण मास कृष्ण पक्ष, एकादशी के दिन पूर्वाह्न के समय, निर्जल तेले की तपस्या की स्थिति में चन्द्र के संयोग से युक्त उत्तराषाढ़ा नक्षत्र में सर्वोत्तम तप, बल, वीर्य, निर्दोष स्थान में आवास, विहार, भावना - महाव्रत-सम्बद्ध उदात्त भावनाएँ, शान्ति - क्रोधनिग्रह, क्षमाशीलता, गुप्ति- मानसिक, वाचिक तथा कायिक प्रवृत्तियों का गोपन, उनका विवेकपूर्ण उपयोग, मुक्ति - कामनाओं से छूटते हुए मुक्तता की ओर प्रयाण - समुद्यतता, तुष्टि - आत्मपरितोष, आर्जव - सरलता, मार्दव-मृदुता, लाघव- आत्मलीनता के कारण सभी प्रकार से, निर्भरता - हल्कापन, स्फूर्तिशीलता, सच्चारित्र्य के निर्वाण - मार्ग रूप उत्तम फल से आत्मा को भावित करते हुए उनके अनन्त, अविनाशी, अनुत्तर, निर्व्याघात - व्याघातरहित, सर्वथा अप्रतिहत, निरावरण- आवरणरहित, कृत्स्न- सम्पूर्ण सकलार्थग्राहक, प्रतिपूर्ण - अपनी समग्र किरणों से सुशोभित पूर्ण चन्द्रमा की ज्यों सर्वांशतः परिपूर्ण, श्रेष्ठ केवलज्ञान, केवलदर्शन, उत्पन्न हुए। वे जिन, केवली, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी हुए। वे नैरयिक, तिर्यंच, मनुष्य तथा देवलोक के पर्यायों के ज्ञाता हो गये । आगति - नैरयिक गति तथा देवगति से च्यवन कर मनुष्य या तिर्यंचगति में आगमन गति - मनुष्य या तिर्यंचगति से मरकर देवगति या नरकगति में गमन, काय-स्थिति, भव- स्थिति, मुक्त, कृत, प्रतिसेवित, प्रकट कर्म, एकान्त में कृत गुप्त कर्म, तब उद्भूत मानसिक, वाचिक व कायिक योग आदि के जीवों तथा अजीवों के समस्त भावों के, मोक्षमार्ग के प्रति विशुद्ध भाव - यह मोक्षमार्ग मेरे लिए एवं दूसरे जीवों के लिए हितकर, सुखकर तथा निःश्रेयस्कर है, सब दुःखों से छुड़ाने वाला एवं परम आनन्दयुक्त होगा - इन ५ सबके ज्ञाता, द्रष्टा हो गये ।
द्वितीय वक्षस्कार
38. [2] When a period of one thousand years passed in wandering in y this fashion, he was once engaged in deep meditation under a banyan tree in Shakatamukh garden outside Purimatal town. He had practiced two stages of Shukla meditation namely-absorption in meditation of the self but unconsciously allowing its different attributes to replace one another (Prithakatva vitarka savichara) and absorption in one aspect of the self y without changing the particular aspect concentrated upon (ekatva vitarka vichar) and was still in a state when the other two stages of concentration still remained to be practiced namely concentration on the very subtle vibratory movements in the soul even when it is deeply ५ absorbed in soul (Sukshma kriya pratipati) and total absorption of the y i soul in itself, steady and undisturbably fixed without any motion or y vibration whatsoever (vyuchhinna kriya anivritti). It was then the forenoon of the eleventh day of dark fortnight of Phalgun month and he
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Second Chapter
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