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________________ 55555555555555555555555$$$$$$$$ तए णं से सरे भरहेणं रण्णा णिसढे समाणे खिप्पामेव दुवालस जोअणाई गंता मागहतित्थाधिपतिस्स देवस्स भवणंसि निवइए। ५८.[१] तत्पश्चात राजा भरत चार घंटे वाले-अश्वरथ पर सवार हआ। वह घोडे, हाथी, रथ तथा पदातियों से यक्त चातरंगिणी सेना से घिरा था। बडे-बडे योद्धाओं का समह उसके साथ चल रहा था। हजारों मकटधारी राजा उसके पीछे-पीछे चल रहे थे। चक्ररत्न द्वारा दिखाए गये मार्ग पर वह आगे बढ रहा था। उस द्वारा किये गये सिंहनाद के कलकल शब्द से ऐसा भान होता था कि मानो वाय द्वारा प्रक्षुभित महासागर गर्जन कर रहा हो। उसने पूर्व दिशा की ओर आगे बढ़ते हुए, मागध तीर्थ होते हुए अपने रथ के पहिये भीगे, उतनी गहराई तक लवणसमुद्र में प्रवेश किया। फिर राजा भरत ने घोड़ों को रोका, रथ को ठहराया और अपना धनुष उठाया। वह धनुष तत्काल उदित हुए शुक्ल पक्ष की द्वितीया के बालचन्द्र जैसा एवं इन्द्रधनुष जैसा था। उत्कृष्ट, गर्वोद्धत भैंसे के सुदृढ़, सघन सींगों की ज्यों ठोस था। उस धनुष का पृष्ठ भाग उत्तम नाग, महिषशृंग, श्रेष्ठ कोकिल, भ्रमर-समुदाय तथा नील के सदृश उज्ज्वल काली कांति से युक्त, तेज से जाज्वल्यमान एवं निर्मल था। निपुण शिल्पी द्वारा चमकाये गये, देदीप्यमान मणियों और रत्नों की घंटियों के समूह से वह परिवेष्टित था। बिजली की तरह जगमगाती किरणों से युक्त, स्वर्ण से परिबद्ध तथा चिह्नित था। दर्दर एवं मलय पर्वत के शिखर पर रहने वाले सिंह के अयाल तथा चँवरी गाय की पूँछ के बालों के उस पर सुन्दर, अर्ध-चन्द्राकार बन्ध लगे थे। काले, हरे, लाल, पीले तथा सफेद स्नायुओं-नाड़ी-तन्तुओं से उसकी प्रत्यञ्चा बँधी थी। शत्रुओं के जीवन का विनाश करने में वह सक्षम था। उसकी प्रत्यञ्चा चंचल थी। राजा ने वह धनुष उठाया। उस पर बाण चढ़ाया। बाण की दोनों कोटियाँ उत्तम वज्र-हीरों से बनी थीं। उसका सिरा वज्र की भाँति अभेद्य था। उसका पुंख-पीछे का भाग-स्वर्ण में जड़ी हुई चन्द्रकांत आदि मणियों तथा रत्नों से सुसज्ज था। उस पर अनेक मणियों और रत्नों द्वारा सुन्दर रूप में राजा भरत का नाम अंकित था। भरत ने वैशाख-धनुष चढ़ाने के समय प्रयुक्त किये जाने वाले पादन्यास (विशेष मुद्रा) में स्थित होकर उस उत्कृष्ट बाण को कान तक खींचा और वह यों बोला (गाथार्थ) मेरे द्वारा प्रयुक्त बाण के बहिर्भाग में तथा आभ्यन्तर भाग में अधिष्ठित नागकुमार, असुरकुमार, सुपर्णकुमार आदि देवो ! मैं आपको प्रणाम करता हूँ। आप सुनें-स्वीकार करें। यों कहकर राजा भरत ने बाण छोड़ा। मल्ल जब अखाड़े में उतरता है, तब जैसे वह कमर बाँधे होता है, उसी प्रकार भरत युद्धोचित वस्त्र-बन्ध द्वारा अपनी कमर बाँधे था। उसका कौशेय-पहना हुआ वस्त्र-विशेष हवा से हिलता हुआ बड़ा सुन्दर प्रतीत होता था। विचित्र, उत्तम धनुष धारण किये वह साक्षात् इन्द्र की ज्यों सुशोभित हो रहा था, विद्युत की तरह देदीप्यमान था। पञ्चमी के चन्द्र सदृश शोभित वह महाधनुष राजा के विजयोधत बायें हाथ में चमक रहा था। राजा भरत द्वारा छोड़े जाते ही वह बाण तुरन्त बारह योजन तक जाकर मागध तीर्थ के अधिपतिअधिष्ठायक देव के भवन में गिरा। 58. [1] Thereafter, king Bharat rode on the horse-driven chariot having four bells. He was surrounded with horses, elephants, chariots तृतीय वक्षस्कार (147) Third Chapter $乐听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002911
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2006
Total Pages684
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Book_English, Agam, Canon, Conduct, & agam_jambudwipapragnapti
File Size21 MB
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