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________________ 因%%%% %% % %%% %% %%% %% %% %%% %% % %% %% %% %% %% क. तए णं से दिव्वे चक्करयणे आउहघरसालाओ पडिणिक्खमइ जाव उत्तरपुरत्थिमं दिसिं गंगादेवीभवणाभिमुहे पयाए आवि होत्था, सच्चेव सव्वा सिंधुवत्तव्यया जाव नवरं कुंभट्ठसहस्सं रयणचित्तं जणाणामणि-कणग-रयण-भत्तिचित्ताणि अ दुवे कणगसीहासणाई सेसं तं चेव जाव महिमत्ति। ८०. राजा भरत ने उस दिव्य चक्ररत्न को दक्षिण दिशा में वैताढ्य पर्वत की ओर जाते हुए देखा। वह ॐ वैताठ्य पर्वत की उत्तर दिशावर्ती तलहटी में आया। वहाँ बारह योजन लम्बा, नौ योजन चौड़ा श्रेष्ठ नगर सदृश सैन्य-शिविर स्थापित किया। वहाँ वह पौषधशाला में प्रविष्ट हुआ। श्री ऋषभ स्वामी के कच्छ तथा महाकच्छ नामक प्रधान सामन्तों के पुत्र नमि एवं विनमि नामक विद्याधर राजाओं को साधने हेतु तेले की ॐ तपस्या स्वीकार की। पौषधशाला में नमि-विनमि विद्याधर राजाओं का मन में ध्यान करता हुआ वह स्थित । रहा। राजा की तेले की तपस्या जब परिपूर्ण होने को आई, तब नमि-विनमि विद्याधर राजाओं को अपनी दिव्य मतिज्ञान द्वारा इसका भान हुआ। वे एक-दूसरे के पास आये, परस्पर मिले और कहने लगेम जम्बूद्वीप के अन्तर्गत भरत क्षेत्र में भरत नामक चातुरन्त चक्रवर्ती राजा उत्पन्न हुआ है। भूत, वर्तमान एवं भविष्यवर्ती विद्याधर राजाओं के लिए यह उचित है कि वे राजा को उपहार भेंट करें। ॐ इसलिए हम भी राजा भरत को अपनी ओर से उपहार भेंट करें। यह सोचकर विद्याधरराज विनमि ने # अपनी दिव्य मति से प्रेरित होकर चक्रवर्ती राजा भरत.को भेंट करने हेतु सुभद्रा नामक स्त्रीरत्न लिया। स्त्रीरत्न-परम सुन्दरी सुभद्रा का शरीर दैहिक फैलाव, वजन, ऊँचाई आदि की दृष्टि से परिपूर्ण, श्रेष्ठ फ़ तथा सर्वांग सुन्दर था। वह तेजस्विनी थी, रूपवती एवं लावण्यमयी थी। उसका यौवन अविनाशी था। उसके शरीर के केश तथा नाखून नहीं बढ़ते थे। उसके स्पर्श से सब रोग मिट जाते थे। वह बल वृद्धिकारिणी थी-ग्रीष्म ऋतु में वह शीत-स्पर्शा तथा शीत ऋतु में उष्ण-स्पर्शा थी। म (गाथा) वह तीन स्थानों में-(१) कटि भाग में, (२) उदर में, तथा (३) शरीर में कृश थी। तीन स्थानों में-(१) नेत्र के प्रान्त भाग में, (२) अधरोष्ठ में, तथा (३) योनि भाग में ताम्र-लाल थी। ॐ वह त्रिवलियुक्त थी-देह के मध्य उदर स्थित तीन रेखाओं से युक्त थी। वह तीन स्थानों में-(१) स्तन, (२) जघन, तथा (३) योनि भाग में उन्नत थी। तीन स्थानों में-(१) नाभि में, (२) अन्तःशक्ति में, तथा (३) स्वर में गम्भीर थी। वह तीन स्थानों में-(१) रोमराजि में, (२) स्तनों के चूचकों में, तथा (३) नेत्रों फ की कनीनिकायों में कृष्ण वर्णयुक्त थी। तीन स्थानों में-(१) दाँतों में, (२) स्मित में-मुस्कान में, तथा + (३) नेत्रों में वह श्वेतता लिए थी। तीन स्थानों में-(१) केशों की वेणी में, (२) भुजलता में, तथा (३) लोचनों में लम्बाई लिए थी। तीन स्थानों में-(१) श्रोणिचक्र में, (२) जघन-स्थली में, तथा 9 (३) नितम्ब बिम्बों में विस्तीर्ण-चौड़ाईयुक्त थी॥१॥ वह समचौरस दैहिक संस्थानयुक्त थी। भरत क्षेत्र में समग्र महिलाओं में वह प्रधान-श्रेष्ठ थी। उसके ॐ स्तन, जघन, हाथ, पैर, नेत्र, केश, दाँत-सभी सुन्दर थे, देखने वाले पुरुष के चित्त को आल्हादित करने वाले थे, आकृष्ट करने वाले थे। वह मानो शृंगार-रस का आगार-गृह थी यावत् लोक-व्यवहार में वह "कुशल-प्रवीण थी। वह रूप में देवांगनाओं के सौन्दर्य का अनुसरण करती थी। वह कल्याणकारीॐ सुखप्रद यौवन में विद्यमान थी। विद्याधरराज नमि ने चक्रवर्ती भरत को भेंट करने हेतु रत्न, कटक तथा त्रुटित लिये। उत्कृष्ट त्वरित, तीव्र विद्याधर-गति द्वारा वे दोनों, जहाँ राजा भरत था, वहाँ आये। वहाँ | तृतीय वक्षस्कार (213) Third Chapter 55555545545545455555455555545455555555555円 %%%%% 卐55555555555555555555555555555555555555555555558 %% %%%%%% % %%%% %% %%% Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002911
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2006
Total Pages684
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Book_English, Agam, Canon, Conduct, & agam_jambudwipapragnapti
File Size21 MB
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