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________________ 25 55 5 555 5555 5 55 55 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 52 5திதிதததததததமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிததமிமிமிமிமிமிமிதததத***************S 卐 卐 5 हतुट्ठचित्तमाणंदिए Sarai 卐 फ्र 卐 卐 जाव करयलपरिग्गहिअं दसणहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्टु एवं सामी ! तहत्ति 5 डिसुणेइ २ त्ता भरहस्स रण्णो अंतिआओ पडिणिक्खमइ २ त्ता जेणेव सए 卐 आवासे तेणेव उवागच्छइ २ त्ता कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ २ त्ता एवं वयासी - खिप्पामेव भो देवाणुप्पिआ ! अभिसेक्कं हत्थरयणं पडिकप्पेह हयगयरहपवर - चाउरंगिणिं सेण्णं सण्णाहेहत्ति । कट्टु जेणेव मज्जणघरे तेणेव उवागच्छइ २ त्ता मज्जणघरं अणुपविसइ २ त्ता हाए कयबलिकम्मे 5 कयको अमंगलपायच्छित्ते सन्नद्धबद्धवम्मि अकवए उप्पल असरासणपट्टिए पिणद्धगेविज्जबद्धआविद्धविमलवरचिंधपट्टे गहि आउहप्पहरणे अणेगगणनायगा -दंडनायग जाव सद्धिं संपरिवुडे 5 सकोरंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिज्जमाणेणं मंगलजयसद्दकयालोए मज्जणघराओ पडिणिक्खमइ २ त्ता जेणेव बाहिरिआ उवट्ठाणसाला जेणेव आभिसेक्के हत्थिरयणे तेणेव उवागच्छइ २ त्ता आभिसेक्कं हत्थिरयणं दुरूढे । फ्र ६६. कृतमाल देव के विजयोपलक्ष्य में समायोजित अष्टदिवसीय महोत्सव के सम्पन्न हो जाने पर 卐 5 卐 5 5 卐 5 राजा भरत ने अपने सुषेण नामक सेनापति को बुलाकर कहा- देवानुप्रिय ! सिन्धु महानदी के पश्चिम में फ पश्चिम समुद्र द्वारा तथा उत्तर में वैताढ्य पर्वत द्वारा विभक्त- भरत क्षेत्र के कोणवर्ती 5 5 खण्डरूप निष्कुट (कोने का) प्रदेश को, उसके सम, विषम अवान्तर - क्षेत्रों को अधिकृत करो - मेरे अधीन बनाओ। उन्हें अधिकृत कर उनसे अभिनव, उत्तम रत्न- अपनी-अपनी जाति के उत्कृष्ट पदार्थ गृहीत करो - प्राप्त करो। मेरे इस आदेश की पूर्ति हो जाने पर मुझे इसकी सूचना दो । 5 विद्यमान, फ्र 卐 फ्र भरत द्वारा यों आज्ञा दिये जाने पर सेनापति सुषेण चित्त में हर्षित, परितुष्ट तथा आनन्दित हुआ । फ्र सुषेण भरत क्षेत्र में बड़ा यशस्वी था । विशाल सेना का वह अधिनायक था, अत्यन्त बलशाली तथा पराक्रमी था। स्वभाव से उदात्त - बड़ा गम्भीर था । ओजस्वी, तेजस्वी - शारीरिक तेजयुक्त था। वह पारसी, अरबी आदि भाषाओं में निष्णात था। उन्हें बोलने में, समझने में, उन द्वारा औरों को समझाने में समर्थ था। वह विविध प्रकार से सुन्दर, शिष्ट भाषा-भाषी था। नीचे, गहरे, दुर्गम, दुष्प्रवेश्य - जिनमें जाना व प्रवेश करना दुःशक्य हो, ऐसे स्थानों का विशेषज्ञ था । अर्थशास्त्र - नीतिशास्त्र आदि में कुशल था । सेनापति सुषेण ने अपने दोनों हाथ जोड़े। उन्हें मस्तक से लगाया - मस्तक पर से घुमाया तथा अंजलि 5 बाँधे, 'स्वामी ! जो आज्ञा' यों कहकर राजा का आदेश विनयपूर्वक स्वीकार किया। ऐसा कर वह वहाँ से चला। चलकर जहाँ अपना आवास-स्थान था, वहाँ आया । वहाँ आकर उसने अपने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। बुलाकर उनको कहा - 'देवानुप्रियो ! आभिषेक्य हस्तिरत्न को - गजराज को तैयार करो, घोड़े, हाथी, रथ तथा उत्तम योद्धाओं - पदातियों से परिगठित चातुरंगिणी सेना को सजाओ ।' फ्र (169) Jain Education International 卐 5 फ क 5 卐 ऐसा आदेश देकर वह जहाँ स्नानघर था, वहाँ आया। स्नानघर में प्रविष्ट हुआ। स्नान किया, 5 नित्य - नैमित्तिक कृत्य किये, कौतुक - मंगल-प्रायश्चित्त किया - देहसज्जा की दृष्टि से नेत्रों में अंजन आंजा, ललाट पर तिलक लगाया, दुःस्वप्न आदि दोष निवारण हेतु चन्दन, कुंकुम, दही, अक्षत आदि फ्र पर निर्मल, से मंगल - विधान किया। उसने अपने शरीर पर लोहे के मोटे-मोटे तारों से निर्मित कवच कसा, धनुष दृढ़ता के साथ प्रत्यञ्चा आरोपित की । गले में हार पहना। मस्तक पर अत्यधिक वीरतासूचक उत्तम वस्त्र गाँठ लगाकर बाँधा । बाण आदि क्षेप्य-दूर फेंके जाने वाले तथा खड्ग आदि अक्षेप्य - 5 तृतीय वक्षस्कार फ्र Third Chapter For Private & Personal Use Only சு फ्र 2 95 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 55 5 5 5 5 52 www.jainelibrary.org
SR No.002911
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2006
Total Pages684
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Book_English, Agam, Canon, Conduct, & agam_jambudwipapragnapti
File Size21 MB
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