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________________ 6 5 5 5 5 5 55 5 55 55 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 Immediately when king Bharat released the arrow, it went up to a distance of twelve yojans and fell in the abode of the celestial being controlling the Magadh Tirth. मागध तीर्थाधिपति का भरत के समीप आगमन ARRIVAL OF MAGADH TIRTH MASTER DEVA NEAR BHARAT ५८. [ २ ] तए णं से मागहतित्थाहिवई देवे भवणंसि सरं णिवइअं पासइ २ त्ता आसुरुते रुट्ठे डिक्किए कुविए मिसिमिसेमाणे तिवलिअं भिअर्डि णिडाले साहरइ २ त्ता एवं वयासी सणं भो एस अपत्थि अपत्थए दुरंतपंतलक्खणे हीणपुण्णचाउद्दसे हिरिसिरिपरिवज्जिए जेणं मम इमाए एआणुरूवाए दिव्वाए देविद्धीए दिव्वाए देवजुईए दिव्वेणं देवाणुभावेणं लगाए पत्ता अभिसमण्णा या उप्पं अप्पुस्सुए भवणंसि सरं णिसिरइत्ति कट्टु सीहासणाओ अब्भुट्ठेइ २ त्ता जेणेव से णामाहयंके सरे तेणेव उवागच्छइ २ त्ता तं णामाहयंकं सरं गेण्हइ, णामंकं अणुप्पवाएइ, णामंक अणुप्पवाएमाणस्स इमे एआरूवे अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था 'उप्पण्णे खलु भो ! जंबुद्दीवे दीवे भरहे वासे भरहे णामं राया चाउरंतचक्कवट्टी तं जीअमेअं ती अ-पच्चुष्पण - मणागयाणं मागहतित्थकुमाराणं देवाणं राईणमुवत्थाणीअं करेत्तए, तं गच्छामि गं अहंप भरहस्स रण्णो उवत्थाणीअं करेमित्ति कट्टु । एवं संपेइ, संपेहित्ता हारं मउडं कुंडलाणि अ कडगाणि अ तुडिआणि अ वत्थाणि अ आभरणाणि अ सरं च णामाहयंकं मागहतित्थोदगं च गेण्हइ, गिण्हित्ता ताए उक्किट्ठाए तुरिआए चवलाए जयणाए सीहाए सिग्घाए उद्घआए दिव्याए देवगईए वीईवयमाणे २ जेणेव भरहे राया तेणेव उवागच्छइ २ ता अंतलिक्खपडिवणे सखिंखिणीआई पंचवण्णाई वत्थाइं पवर-परिहिए करयलपरिग्गहिअं दसणहं सिर जाव अंजलिं कट्टु भरहं रायं जएणं विजएणं बद्धावेइ वद्धावित्ता एवं वयासी - 'अभिजिए णं देवाणुप्पिएहिं केवलकप्पे भरहे वासे पुरत्थिमेणं मागहतित्थमेराए तं अहण्णं देवाणुप्पिआणं विसयवासी, अहणणं देवापि आणं आणत्तीकिंकरे, अहण्णं देवाणुष्पिआणं पुरत्थिमिल्ले अंतवाले, तं पडिच्छंतु णं देवाणुप्पिआ ! ममं इमे आवं पीइदाणं तिकट्टु हारं मउडं कुंडणाणि अ कडगाणि अ जाव मागहतित्थोदगं च उवणेइ । तए णं से भरहे राया मागहतित्थकुमारस्स देवस्स इमेयारूवं पीइदाणं पडिच्छइ २ ता मागहतित्थकुमारं देवं सक्कारेइ सम्माणेइ २ त्ता पडिविसज्जे । ५८. [ २ ] मागध तीर्थाधिपति देव ने ज्यों ही बाण को अपने भवन में गिरा हुआ देखा तो वह तत्क्षण क्रोध से लाल हो गया, रोषयुक्त हो गया, कोपाविष्ट हो गया, प्रचण्ड - विकराल हो गया, क्रोधाग्नि से उद्दीप्त हो गया। कोपाधिक्य से उसके ललाट पर तीन रेखाएँ उभर आईं। उसकी भृकुटि तन गईं। वह बोला 'जिसे कोई नहीं चाहता, उस अप्रार्थित मृत्यु को चाहने वाला, दुःखद अन्त तथा अशुभ लक्षण वाला, अशुभ दिन में जन्मा हुआ, लज्जा तथा श्री - शोभा से परिवर्जित वह कौन अभागा है, जिसने उत्कृष्ट देवानुभाव से लब्ध प्राप्त स्वायत्त मेरी ऐसी दिव्य देवऋद्धि, देवद्युति पर प्रहार करते हुए मौत से न डरते हुए मेरे भवन में बाण गिराया है ?' यों कहकर वह अपने सिंहासन से उठा और जहाँ वह तृतीय वक्षस्कार Third Chapter (149) ******************* Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002911
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2006
Total Pages684
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Book_English, Agam, Canon, Conduct, & agam_jambudwipapragnapti
File Size21 MB
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