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________________ பூமிமிமிததமி*************************தமி भाँति पहने । संख्या में कम पर बहुमूल्य आभूषणों से शरीर को अलंकृत किया। धूप, पुष्प, सुगन्धित पदार्थ एवं मालाएँ हाथ में लीं। स्नानघर से बाहर निकला। बाहर निकलकर जहाँ तमिस्रा गुफा के दक्षिणी द्वार के कपाट थे, उधर चला। तब बहुत से माण्डलिक अधिपति, ऐश्वर्यशाली, प्रभावशाली पुरुष, राजसम्मानित विशिष्ट जन, जागीरदार तथा सार्थवाह आदि सेनापति सुषेण के पीछे-पीछे चले, जिनमें से कतिपय अपने हाथों में कमल लिए थे। बहुत-सी दासियाँ पीछे-पीछे चलती थीं, जिनमें से अनेक कुबड़ी थीं, अनेक किरात आदि भिन्न-भिन्न देश की थीं। उन दासियों में से किन्हीं के हाथों में मंगल कलश थे । वे चिन्तित तथा अभिलषित भाव को संकेत या चेष्टा मात्र से समझ लेने में निपुण थीं, प्रत्येक कार्य में कुशल थीं, तथा स्वभावतः विनयशील थीं। ( यावत् फूलों के गुलदस्तों से भरी टोकरियाँ, झारियाँ, फलों की डलिया, चूर्ण, गन्ध, वस्त्र, आभूषण, सिंहासन, छत्र, चँवर आदि भिन्न-भिन्न वस्तुएँ थीं।) सब प्रकार की समृद्धि तथा द्युति से युक्त सेनापति सुषेण वाद्य-ध्वनि के साथ जहाँ तमिस्रा गुफा के दक्षिणी द्वार के कपाट थे, वहाँ आया । आकर उन्हें देखते ही प्रणाम किया । मयूरपिच्छ से बनी प्रमार्जनिक उठाई। उससे दक्षिणी द्वार के कपाटों को साफ किया। दिव्य जल से उन्हें धोया। धोकर आर्द्र गोशीर्ष चन्दन से पाँच अंगुलियों सहित हथेली के थापे लगाये । थापे लगाकर अभिनव, उत्तम सुगन्धित पदार्थों से तथा मालाओं से उनकी अर्चना की। उन पर पुष्पमालाएँ, वस्त्र चढ़ाये। ऐसा कर इन सबके ऊपर से नीचे तक फैला, विस्तीर्ण, गोल चंदवा ताना। चंदवा तानकर स्वच्छ बारीक चाँदी के चावलों से, तमिस्रा गुफा के कपाटों के आगे स्वस्तिक, श्रीवत्स, आठ मांगलिक प्रतीक अंकित किये। कचग्रह-केशों को पकड़ने की ज्यों पाँचों अंगुलियों से ग्रहीत पंचरंगे फूल उसने अपने करतल से उन पर छोड़े। वैदूर्य रत्नों से बना धूपपात्र उसने हाथ में लिया । धूपपात्र को पकड़ने का हत्था चन्द्रमा की ज्यों उज्ज्वल था, वज्ररत्न एवं वैदूर्यरत्न से बना था। धूपपात्र पर स्वर्ण, मणि तथा रत्नों द्वारा चित्रांकन किया हुआ था। (उससे लोबान एवं धूप की गमगमाती महक उठ रही थी । उसने धूपपात्र में धूप दिया- धूप खेया । फिर उसने अपने बायें घुटने को जमीन से ऊँचा रखा। दोनों हाथ जोड़े, अंजलि रूप से उन्हें मस्तक से लगाया। वैसा कर उसने कपाटों को प्रणाम किया। प्रणाम कर दण्डरत्न को उठाया। वह दण्डरत्नमय तिरछे अवयवयुक्त था, वज्रसार से बना था, समग्र शत्रु सेना का विनाश करने वाला, राजा के सैन्य- सन्निवेश के लिए गड्ढों, कन्दराओं, ऊबड़खाबड़ स्थलों, पहाड़ियों, चलते हुए मनुष्यों के लिए कष्टकर पथरीले टीलों को समतल बना देने वाला था । वह राजा के लिए शान्तिकर, शुभकर, हितकर तथा उसके इच्छित मनोरथों को पूरा करने वाला था, दिव्य था, अप्रतिहत था । सेनापति सुषेण ने उस दण्डरत्न को उठाया । वह सात-आठ कदम पीछे हटा, तमिस्रा गुफा के दक्षिणी द्वार के किवाड़ों पर तीन बार प्रहार किया, जिससे भारी शब्द हुआ। इस प्रकार सेनापति सुषेण द्वारा दण्डरत्न से तीन बार आहत - ताड़ित कपाट क्रोञ्च पक्षी की ज्यों जोर से आवाज कर सरसराहट के साथ अपने स्थान से विचलित हुए-सरके । यो सेनापति सुषेण ने तमिस्रा गुफा के दक्षिणी द्वार के कपाट खोले । खोलकर वह जहाँ राजा भरत था, वहाँ आया। हाथ जोड़े। राजा को 'जय-विजय' शब्दों द्वारा बधाई दी और कहा - " - "देवानुप्रिय ! तमिस्रा गुफा के दक्षिणी द्वार के कपाट खोल दिये हैं। मैं तथा मेरे सहचर यह प्रिय संवाद आपको निवेदित करते हैं। आपके लिए यह प्रियकर हो ।" तृतीय वक्षस्कार (177) Jain Education International फफफफफफफफफफफ Third Chapter For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002911
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2006
Total Pages684
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Book_English, Agam, Canon, Conduct, & agam_jambudwipapragnapti
File Size21 MB
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