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________________ the Tirthankar and his mother. They stay neither very near nor very far from them and sing in a low voice. Thereafter, they sing in a loud voice. ऊर्ध्वलोकवासिनी दिक्कुमारिकाओं द्वारा उत्सव CELEBRATION BY DIK-KUMARIS OF UPPER WORLD १४६. तेणं कालेणं तेणं समएणं उद्धलोग-वत्थव्वाओ अट्ट दिसाकुमारी-महत्तरिआओ सएहिं २ कूडेहिं, सरहिं २ भवणेहिं, सएहिं २ पासाय-वडेंसएहिं पत्तेअं २ चउहिं सामाणिअसाहस्सीहिं एवं तं चेव पुबवण्णिअंजाव विहरंति, तं जहा मेहकंरा १ मेहवई २, सुमेहा ३, मेहमालिनी ४। सुवच्छा ५, वच्छमित्ता य ६, वारिसेणा, ७ बलाहगा ८॥१॥ तए णं तासिं उद्धलोगवत्थव्वाणं अट्ठण्हं दिसाकुमारीमहत्तरिआणं पत्तेअं २ आसणाई चलन्ति, एवं तं चेव पुब्ववण्णिसं भाणिअव्वं। ज जाव अम्हे णं देवाणुप्पिए ! उद्धलोगवत्थव्वाओ अट्ठ दिसाकुमारीमहत्तरिआओ जेणं भगवओ तित्थगरस्स जम्मणमहिमं करिस्सामो, तेणं तुब्भेहिं ण भाइअव्वं ति कट्ठ उत्तर-पुरस्थिमं दिसीभागं + अवक्कमन्ति अवक्कमित्ता जाव अभवद्दलए विउव्वन्ति विउवित्ता तं निहयरयं, गट्ठरयं, भट्ठरयं, पसंतरयं, उवसंतरयं करेंति करित्ता खिप्पामेव पच्चुवसमन्ति, एवं पुप्फवद्दलंसि पुष्फवासं वासंति, वासित्ता म कालागुरु पवर जाव सुरवराभिगमणजोग्गं करेंति २ ता जेणेव भयवं तित्थयरे तित्थयरमाया य, तेणेव उवागच्छन्ति जाव आगायमाणीओ, परिगायमाणीओ चिट्ठति। १४६. उस काल उस समय (१) मेघंकरा, (२) मेघवती, (३) सुमेघा, (४) मेघमालिनी, (५) सुवत्सा, (६) वत्समित्रा, (७) वारिषेणा, तथा (८) बलाहका नामक, ऊर्ध्वलोक में निवास करने वाली, महिमामयी आठ दिक्कुमारिकाओं के, जो अपने कूटों पर. अपने भवनों में, अपने उत्तम प्रासादों में है + अपने चार हजार सामानिक देवों, यावत् देव परिवार के साथ विपुल सुखोपभोग में अभिरत थीं, उनके 5 आसन चलित होते हैं। शेष वर्णन पूर्ववत्। ___ वे दिक्कुमारिकाएँ भगवान तीर्थंकर की माता से कहती हैं-देवानुप्रिये ! हम ऊर्ध्वलोकवासिनी : विशिष्ट दिक्कुमारिकाएँ भगवान तीर्थंकर का जन्म महोत्सव मनायेंगी। अतः आप भयभीत मत होना। , यों कहकर वे ईशान कोण में चली जाती हैं। आकाश में बादलों की विकुर्वणा करती हैं, यावत् भगवान के जन्म-भवन के चारों ओर दिव्य सुगन्धयुक्त झिरमिर-झिरमिर जल बरसाती हैं। उससे धूल-जम 5 जाती है, नष्ट हो जाती है, वर्षा के साथ चलती हवा से उड़कर दूर चली जाती है, प्रशान्त हो जाती भी है-उपशान्त हो जाती है। फिर वे बादल शीघ्र ही प्रत्युपशान्त हो जाते हैं। म तत्पश्चात् वे ऊर्ध्वलोकवासिनी आठ दिक्कुमारिकाएँ पुष्पों के बादलों की विकुर्वणा करती हैं। म यावत् राजमहल के आँगन आदि परिसर में पंचरंगे, वृत्त सहित फूलों की इतनी विपुल वृष्टि करते हैं कि उनका घुटने-घुटने तक ऊँचा ढेर हो जाता है। फिर वे काले अगर, उत्तम कुन्दरुक, लोबान तथा धूप म की गमगमाती महक से वहाँ के वातावरण को देवराज इन्द्र के अभिगमन योग्य बना देती हैं। ऐसा कर के 5555555555)))))))))))))))))))))))))))))) पंचम वक्षस्कार (399) Fifth Chapter 555555555555555555555;))))))))))) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002911
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2006
Total Pages684
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Book_English, Agam, Canon, Conduct, & agam_jambudwipapragnapti
File Size21 MB
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