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ॐ
कमलामेलं णामेणं आसरयणं सेणावईं कमेण समभिरूढे कुवलयदल-सामलं च रयणिकर-मंडलनिभं ॐ सत्तुजणविणासणं कणगरयणदंडं णवमालिअ-पुप्फसुरहिगंधिं णाणामणिलयभत्तिचित्तं च
पहोतमिसिमिसिंत-तिक्खधारं दिव्वं खग्गरयणं लोके अणोवमाणं तं च पुणो वंस-रुख-सिंग-ट्ठि-दंत卐 कालायस-विपुल-लोहदंडक-वरवइर-भेदकं जाव-सव्वत्थ अप्पडिहयं किं पुण देहेसु जंगमाणं
__पण्णासंगुलदीहो सोलस से अंगुलाई विच्छिण्णो।
अद्धंगुलसोणीको जेट्टपमाणो असी भणिओ॥ १॥ असिरयणं णरवइस्स हत्थाओ तं गहिऊण जेणेव आवाडचिलाया तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता आवाइचिलाएहिं सद्धि संपलग्गो आवि होत्था। तए णं से सुसेणे सेणावई ते आवाडचिलाए हय-महिअ-5 ऊ पवरवीर-घाइअ जाव दिसो दिसिं पडिसेहेइ।
७३. [२] वह घोड़ा अस्सी अंगुल ऊँचा था, निन्यानवे अंगुल प्रमाण उसका विस्तारण, एक सौ 卐 आठ अंगुल लम्बा था। उसका मस्तक बत्तीस अंगुल ऊँचा था। उसके कान चार अंगुल प्रमाण थे। उसकी
बाह्य-मस्तक के नीचे का और घुटनों के ऊपर का भाग-बीस अंगुल-प्रमाण था। उसके घुटने चार
अंगल-प्रमाण थे। उसकी जंघा-घटनों से लेकर खरों तक का भाग-पिण्डली सोलह अंगल-प्रमाण थी। म उसके खुर चार अंगुल ऊँचे थे। उसकी देह का मध्य भाग मुक्तोली-ऊपर-नीचे से सँकड़ी, बीच से कुछ
विशाल-कोठी के सदृश गोल तथा वलित था। उसकी पीठ की यह विशेषता थी कि जब सवार उस पर । बैठता तब वह कुछ कम एक अंगुल झुक जाती थी। उसकी पीठ क्रमशः देहानुरूप झुकी हुई थी, 9
जन्मजात दोषरहित थी, प्रशस्त थी, शालिहोत्रशास्त्र निरूपित लक्षणों के अनुरूप थी, वह हरिणी के म
घुटनों की ज्यों उन्नत थी, दोनों पार्श्व भागों में विस्तृत तथा चरम भाग में सुदृढ़ थी। उसका शरीर बेंत, 卐 लता-बाँस की पतली छड़ी, कशा-चमड़े के चाबुक आदि के प्रहारों से परिवर्जित था अर्थात् घुड़सवार फ़
के मनोनुकूल चलते रहने के कारण उसे बेंत, छड़ी, चाबुक आदि से तर्जित करना आवश्यक नहीं था। ॐ उसका शरीर शृंगारित था। काठी बाँधने हेतु रस्सी, जो पेट से लेकर पीठ तक दोनों पाश्वों में बाँधी + जाती है, उत्तम स्वर्णघटित सुन्दर पुष्पों तथा दर्पणों से सजी थी, विविध-रत्नमय थी। उसकी पीठ, +
स्वर्णयुक्त मणि-रचित तथा केवल स्वर्ण-निर्मित आभूषण जिनके बीच-बीच में जड़े थे, ऐसी नाना ॐ प्रकार की घंटियों और मोतियों की लड़ियों से सुशोभित थी, जिससे वह अश्व बड़ा सुन्दर प्रतीत होता + था। कर्केतन मणि, इन्द्रनील मणि, मरकत मणि आदि रत्नों द्वारा रचित एवं माणिक के साथ पिरोये गये फ़
सूत्रक से-घोड़े का मुख विभूषित था। स्वर्णमय कमल के तिलक से किया हुआ वह अश्व दैवी कौशल ऊ से विरचित था। वह देवराज इन्द्र की सवारी के उच्चैःश्रवा नामक अश्व के समान गतिशील तथा सुन्दर के
था। मस्तक, गले, ललाट, मौलि एवं दोनों कानों के मूल में पाँचों अवयवों पर पाँच चँवरों को कलंगियों ॐ को वह धारण किये था। वह अनभ्रचारी था-(इन्द्र का घोड़ा उच्चैःश्रवा जहाँ अभ्रचारी-आकाशगामी
होता है, वहाँ वह) भूतलगामी था। उसकी अन्यान्य विशेषताएँ उच्चैःश्रवा जैसी ही थीं। उसकी आँखें ॥ विकसित थीं. पलकयक्त थीं। डांस. मच्छर आदि से रक्षा हेत उस पर लगाये गये प्रच्छा स्वर्ण के तार गुंथे थे। उसका तालु तथा जिह्वा तपाये हुए स्वर्ण की ज्यों लाल थे। उसकी नासिका परफ | जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र
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Jambudveep Prajnapti Sutra
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