SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 497
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ה ת ת נ נ ת נ ת ת ת ת ת %%%步步步步步%%%%%%%%%%%% LC LC LC निकालकर एक हजार आठ स्वर्ण कलश, एक हजार आठ रजत कलश, एक हजार आठ मणिमय कलश, एक हजार आठ स्वर्ण-रजतमय कलश, एक हजार आठ स्वर्ण-मणिमय कलश-सोने और - मणियों से बने कलश, एक हजार आठ रजत-मणिमय कलश, एक हजार आठ स्वर्ण-रजत-मणिमय - । कलश, एक हजार आठ मृत्तिकामय कलश, एक हजार आठ चन्दन कलश-चन्दनचर्चित मंगल कलश, एक हजार आठ झारियाँ, एक हजार आठ दर्पण, एक हजार आठ थाल, एक हजार आठ पात्रियाँ-रकाबी जैसे छोटे पात्र, एक हजार आठ सुप्रतिष्ठक-प्रसाधनमंजूषा, एक हजार आठ विविध म रत्नकण्डक-रत्न-मंजूषा, एक हजार आठ वातकरंडक-बाहर से चित्रित करके, एक हजार आठ पुष्पचंगेरी-फूलों की टोकरियाँ, राजप्रश्नीयसूत्र में सूर्याभदेव के अभिषेक-प्रसंग में विकुर्वित सर्वविध चंगेरियों, पुष्प-पटलों-फूलों के गुलदस्तों के सदृश चंगेरियाँ, पुष्प-पटल-संख्या में तत्समान, गुण में अतिविशिष्ट, एक हजार आठ सिंहासन, एक हजार आठ छत्र, एक हजार आठ चॅवर, एक हजार आठ - तैल के भाजन-विशेष-डिब्बे आदि, एक हजार आठ सरसों के समुद्गक, एक हजार आठ पंखे तथा । एक हजार आठ धूपदान-इनकी विकुर्वणा करते हैं। विकुर्वणा करके स्वाभाविक एवं विकुर्वित कलशों से धूपदान पर्यन्त सब वस्तुएँ लेकर, जहाँ क्षीरोद समुद्र है, वहाँ आकर क्षीररूप उदक-जल ग्रहण करते हैं। क्षीरोदक गृहीत कर उत्पल, पद्म, सहस्रपत्र आदि लेते हैं। पुष्करोद समुद्र से जल आदि लेते हैं। मनुष्यक्षेत्रवर्ती पुष्करवर द्वीपार्ध के भरत, ऐरवत के मागध आदि तीर्थों का जल तथा मृत्तिका लेते हैं। वैसा कर गंगा आदि महानदियों का जल एवं मृत्तिका ग्रहण करते हैं। फिर क्षुद्र हिमवान् पर्वत से , । आमलक आदि सब कषायद्रव्य-कसैले पदार्थ, सब प्रकार के पुष्प, सब प्रकार के सुगन्धित पदार्थ, सब , प्रकार की मालाएँ, सब प्रकार की औषधियाँ तथा सफेद सरसों लेते हैं। उन्हें लेकर पद्मद्रह से उसका । जल एवं कमल आदि ग्रहण करते हैं। इसी प्रकार समस्त कुलपर्वतों-सर्वक्षेत्रों को विभाजित करने वाले + हिमवान् आदि पर्वतों, वृत्तवैताढ्य पर्वतों, पद्म आदि सब महाद्रहों, भरत आदि समस्त क्षेत्रों, कच्छ A आदि सर्व चक्रवर्तिविजयों, माल्यवान्, चित्रकूट आदि वक्षस्कार पर्वतों, ग्राहावती आदि अन्तर-नदियों में के से जल एवं मृत्तिका लेते हैं। (देवकुरु से) उत्तरकुरु से पुष्करवरद्वीपार्ध के पूर्व भरतार्ध, पश्चिम भरतार्ध । , आदि स्थानों से सुदर्शन-पूर्वार्ध मेरु के भद्रशाल वन पर्यन्त सभी स्थानों से समस्त कषायद्रव्य एवं सफेद । सरसों लेते हैं। इसी प्रकार नन्दन वन से सर्वविध कषायद्रव्य, सफेद सरसों, सरस-ताजा गोशीर्ष चन्दन , तथा दिव्य पुष्पमाला लेते हैं। इसी भाँति सौमनस एवं पण्डक वन से सर्व-कषायद्रव्य (सर्व पुष्प, सर्व : गन्ध, सर्व माल्य, सर्वोषधि, सरस गोशीर्ष चन्दन तथा दिव्य) पुष्पमाला एवं दर्दर और मलय पर्वत पर । उद्भूत चन्दन की सुगन्ध से आपूर्ण सुरभिमय पदार्थ लेते हैं। ये सब वस्तुएँ लेकर एक स्थान पर मिलते है में हैं। मिलकर, जहाँ भगवान तीर्थंकर होते हैं, वहाँ आते हैं। वहाँ आकर तीर्थंकराभिषेक में उपयोगी में क्षीरोदक आदि वस्तुएँ अच्युतेन्द्र के सम्मुख रखते हैं। 153. Achyutendra, the ruling god of twelfth heaven calls his Abhiyogik gods and orders them, 'O beloved of gods ! You prepare quickly the material suitable for anointing of Tirthankar. Precious stones, gold, Fi jewels and the like should be used in it. Hymns, panegyrics and other पंचम वक्षस्कार (433) Fifth Chapter $$$$$$$$$$$$%%% ב ו ת ב ת ת ת ת ת ת 卐 ) )))))) ) ))))))55558 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002911
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2006
Total Pages684
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Book_English, Agam, Canon, Conduct, & agam_jambudwipapragnapti
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy