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________________ 9555555555555555555555555555555555555555555558 9555555555555555555555555555555555555 तए णं ते जंभगा देवा वेसमणेणं देवेणं एवं वुत्ता समाणा हद्वतुट्ठ जाव खिप्पामेव बत्तीसं ॐ हिरण्णकोडीओ जाव च भगवओ तित्थगरस्स जम्मणभवणंसि साहरंति २ त्ता जेणेव वेसमणे देवे तेणेव ॥ पच्चप्पिणंति। तए णं से वेसमणे देव जेणेव सक्के देविंदे, देवराया पच्चप्पिणइ।। तए णं से सक्के देविंदे देवराया सक्के आभिओगे देवे सद्दावेइ २ ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो ॐ देवाणुप्पिआ ! भगवओ तित्थयरस्स जम्मणणयरंसि सिंघाडग जाव महापहपहेसु महया २ सद्देणं उग्योसेमाणा २ एवं वदह- 'हंदि सुणंतु भवंतो बहवे भवणवइ-वाणमंतर-जोइस-वेमाणिया देवा य देवीओ अ जे णं देवाणुप्पिआ ! तित्थयरस्स तित्थयरमाऊए वा असुभं मणं पधारेइ, तस्स गं अज्जगमंजरिआ इव सयधा मुद्धाणं फुट्टउत्ति' कटु घोसेणं घोसेह २ ता एअमाणत्तिअं पच्चप्पिणहत्ति।। तए णं ते आभिओगा देवा एवं देवोत्ति आणाए पडिसुणंति २ ता सक्कस्स देविंदस्स, देवरण्णो अंतिआओ पडिणिक्खमंति २ ता खिप्पामेव भगवओ तित्थगरस्स जम्मणणगरंसि सिंघाडग जाव एवं ॐ वयासी-हंदि सुणंतु भवंतो बहवे भवणवइ जे णं देवाणुप्पिआ ! तित्थयरस्स फुट्टिहीतित्ति कटु घोसणगं घोसंति २ त्ता एअमाणत्तिअं पच्चप्पिणंति। म तए णं ते बहवे भवणवइ-वाणमंतर-जोइस-वेमाणिआ देवा भगवओ तित्थगरस्स जम्मणमहिमं : करेंति २ त्ता जेणेव गंदीसरदीवे, तेणेव उवागच्छंति २ ता अट्ठाहियाओ महामहिमाओ करेंति २ ता 卐 जामेव दिसिं पाउन्भूआ तामेव दिसिं पडिगया। १५६. तत्पश्चात् देवेन्द्र देवराज शक्र पाँच शक्र रूपों की विकुर्वणा करता है। एक शक्र भगवान म तीर्थंकर को अपनी हथेलियों के संपुट द्वारा ग्रहण करता है। एक शक्र भगवान के पीछे उन पर छत्र ताने ॥ रहता है। दो शक्र दोनों ओर चँवर ढुलाते हैं। एक शक्र वज्र हाथ में लिए आगे खड़ा होता है। फिर शक्र अपने चौरासी हजार सामानिक देवों, अन्य-भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क एवं वैमानिक देवों, देवियों के साथ सब प्रकार की ऋद्धि से युक्त, वाद्य-ध्वनि के बीच उत्कृष्ट त्वरित दिव्य ज गति द्वारा, जहाँ भगवान तीर्थंकर का जन्म-नगर, जन्म-भवन तथा उनकी माता थी वहाँ आता है। भगवान तीर्थंकर को उनकी माता की बगल में स्थापित करता है। वैसा कर माता की बगल में रखे हुए फ़ तीर्थंकर के प्रतिरूपक को समेट लेता है। भगवान तीर्थंकर की माता की अवस्वापिनी निद्रा को, जिसमें 卐 वह सोई होती है, प्रतिसंहृत कर लेता है। वैसा कर वह भगवान तीर्थंकर के सिरहाने दो बड़े वस्त्र तथा दो कुण्डल रखता है। फिर वह तपनीय-स्वर्ण-निर्मित झुनझुने से युक्त, सोने के पातों से सुशोभित, नाना प्रकार की मणियों तथा रत्नों से बने तरह-तरह के हारों-अठारह लड़े हारों, अर्ध-हारों-नौ लड़े हारों म से उपशोभित सुन्दर मालाओं को परस्पर ग्रथित कर बनाया हुआ बड़ा गोलक भगवान के ऊपर तनी चाँदनी में लटकाता है, जिसे भगवान तीर्थंकर निर्निमेष दृष्टि से-बिना पलकें झपकाए उसे देखते हुए ॐ सुखपूर्वक क्रीड़ा करते हैं। तदनन्तर देवेन्द्र देवराज शक्र वैश्रमण देव को बुलाता है। बुलाकर कहता है-देवानुप्रिय ! शीघ्र ही बत्तीस करोड़ रौप्य-मुद्राएँ, बत्तीस करोड़ स्वर्ण-मुद्राएँ, सुभग आकार, शोभा एवं सौन्दर्ययुक्त बत्तीस 5555555555555555555555555555 पंचम वक्षस्कार (445) Fifth Chapter 卐 听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听。 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002911
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2006
Total Pages684
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Book_English, Agam, Canon, Conduct, & agam_jambudwipapragnapti
File Size21 MB
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