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________________ 卐卐5555555 55555555555555555555555555555555555 + १५०. [२] तए णं से सक्के देविन्दे देवराया चउरासीए सामाणिअसाहस्सीएहिं जाव सद्धिं ॥ संपरिखुडे सब्बिड्डीए जाव दुंदुभिणिग्घोसणाइयरवेणं जेणेव भगवं तित्थयरे तित्थयरमायाय तेणेव उवागच्छइ + म २ त्ता आलोए चेव पणामं करेइ २ त्ता भगवं तित्थयरं तित्थयरमायरं च तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ २ ता करयल जाव एवं वयासी+ णमोत्थु ते रयणकुच्छिधारए एवं जहा दिसाकुमारीओ जाव धण्णासि, पुण्णासि, तं कयत्थाऽसि, अहणं देवाणुप्पिए ! सक्के णामं देविन्दे, देवराया भगवओ तित्थयरस्स जम्मणमहिमं करिस्सामि, तं णं ॐ तुन्भाहिं णं भाइव्वंति कटु ओसोवणिं दलयइ दलइत्ता तित्थयरपडिरूवगं विउब्वइ, तित्थयरमाउआए पासे ठबइ ठवित्ता पंच सक्के विउब्वइ विउवित्ता एगे सक्के भगवं तित्थयरं करयलपुडेणं गिण्हइ, एगे सक्के पिट्टओ आयवत्तं धरेड, दवे सक्का उभओ पासिं चामरुक्खेवं करेन्ति, एगे सक्के परओ वज्जपाणी पकड्डइ त्ति। तए णं से सक्के देविन्दे देवराया अण्णेहिं बहूहिं भवणवइवाणमन्तर-जोइस-वेमाणिएहि देवेहि म देवीहि अ सद्धिं संपरिवुडे सविडीए जाव णाइएणं ताए उक्किट्ठाए जाव वीईवयमाणे जेणेव मन्दरे पब्बए, ॐ जेणेव पंडगवणे, जेणेव अभिसेअसिला, जेणेव अभिसेअसीहासणे, तेणेव उवागच्छइ २ त्ता सीहासणवरगए पुरत्याभिमुहे सण्णिसण्णे त्ति। १५०. [ २ ] तत्पश्चात् देवेन्द्र, देवराज शक्र चौरासी हजार सामानिक आदि अपने सहवर्ती देव+ समुदाय के साथ सर्व ऋद्धि-वैभव से युक्त, नगाड़ों के गूंजते हुए निर्घोष के साथ, जहाँ भगवान तीर्थंकर थे और उनकी माता थी, वहाँ आता है। आकर उन्हें देखते ही प्रणाम करता है। भगवान तीर्थंकर एवं उनकी माता की तीन बार आदक्षिण-प्रदक्षिणा करता है। हाथ जोड़, अंजलि बाँधे भगवान तीर्थंकर की माता को कहता है "रत्नकुक्षिधारिके ! यावत् आपको नमस्कार हो। धन्य, पुण्य एवं कृतकृत्य हैं। देवानुप्रिये ! मैं देवेन्द्र, देवराज शक्र भगवान तीर्थंकर का जन्म-महोत्सव मनाऊँगा, अतः आप भयभीत मत होना।" यों कहकर वह तीर्थंकर की माता को अवस्वापिनी निद्रा में सुला देता है। फिर वह तीर्थंकर-सदृश म प्रतिरूपक-शिशु की विकुर्वणा करता है। उसे तीर्थंकर की माता की बगल में रख देता है। शक्र फिर वैक्रियलब्धि द्वारा स्वयं पाँच शक्रों के रूप की विकुर्वणा करता है। एक शक्र भगवान तीर्थंकर को हथेलियों के संपुट द्वारा उठाता है, एक शक्र पीछे छत्र धारण करता है, दो शक्र दोनों ओर चँवर डुलाते - ज हैं, एक शक्र हाथ में वज्र लिए आगे चलता है। तत्पश्चात् देवेन्द्र, देवराज शक्र अन्य अनेक भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क, वैमानिक देवॐ देवियों से घिरा हुआ, सब प्रकार ऋद्धि से शोभित, उत्कृष्ट, त्वरित देवगति से चलता हुआ, जहाँ मन्दर पर्वत पर पण्डक वन, अभिषेक-शिला एवं अभिषेक-सिंहासन है, वहाँ आता है, पूर्वाभिमुख हो सिंहासन पर बैठता है। 150. [2] Thereafter Shakra the ruler of first heaven comes near the Tirthankar and his mother. His 84,000 co-chiefs and other gods and |पंचम वक्षस्कार (425) Fifth Chapter Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002911
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2006
Total Pages684
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Book_English, Agam, Canon, Conduct, & agam_jambudwipapragnapti
File Size21 MB
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