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________________ जभ क ) ))1955555555555555555 [उ. ] गोयमा ! उद्धीमुहकलंबुआपुष्फसंठासंठिआ अंधकारसंठिई पण्णत्ता, अंतो संकुआ, बाहिं वित्थडा तं चेव (अंतो वट्टा, बाहिं विउला, अंतो अंकमुहसंठिआ, बाहिं सगडुद्धीमुहसंठिआ)। तीसे णं सव्वभंतरिआ बाहा मंदरपव्वयंतेणं छज्जोअणसहस्साई तिण्णि अ चउवीसे जोअणसए छच्च दसभाए जोअणस्स परिक्खेवेणंति। [प्र. ६ ] से णं भंते ! परिक्खेवविसेसे कओ आहिएत्तिवएज्जा ? [उ. ] गोयमा ! जे णं मंदरस्स पव्वयस्स परिक्खेवे तं परिक्खेवं, दोहिं गुणेत्ता दसहिं छेत्ता दसहिं भागे हीरमाणे एस णं परिक्खेवविसेसे आहिएत्ति वएज्जा। तीसे णं सव्वबाहिरिआ बाहा लवणसमुहतेणं तेसट्ठी जोअणसहस्साई दोण्णि य पणयाले जोअणसए छच्च दसभाए जोअणस्स परिक्खेवेणं। [प्र. ७ ] से णं भंते ! परिक्खेवविसेसे कओ आहिएत्ति वएज्जा ? [उ. ] गोयमा ! जे णं जम्बुद्दीवस्स परिक्खेवे तं परिक्खेवं दोहिं गुणेत्ता (दसहिं छेत्ता दसहिं भागे हीरमाणे एस णं परिक्खेवविसेसे आहिएत्ति वएज्जा) तं चेव। [प्र. ८ ] तया णं भंते ! अंधयारे केवइए आयामेणं पण्णत्ते ? [उ. ] गोयमा ! अट्ठहत्तर जोअणसहस्साइं तिण्णि अ तेत्तीसे जोअणसए तिभागं च आयामेणं पण्णत्ते। [प्र. ९ ] जया णं भंते ! सूरिए सव्वबाहिरमंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं किंसंठिआ तावक्खित्तसंठिई पण्णत्ता ? [उ. ] गोयमा ! उद्धीमुहकलंबुआपुप्फसंठाणसंठिआ पण्णत्ता। तं चेव सवं अव्वं णवरं णाणत्तं जं अंधयारसंठिइए पुव्ववण्णि पमाणं तं तावखित्तसंठिईए अव्वं, तं ताव खित्तसंठिईए पुव्ववण्णि पमाणं तं अंधयारसंठिईए णेअवंति। १६८. [प्र. १] भगवन् ! जब सूर्य सर्वाभ्यन्तर मण्डल का उपसंक्रमण कर गति करता है, तो उसके ताप-क्षेत्र की स्थिति-सूर्य के आतप से परिव्याप्त आकाश-खण्ड की स्थिति-उसका संस्थान किस प्रकार का होता है? [उ. ] गौतम ! तब ताप-क्षेत्र की स्थिति ऊर्ध्वमुखी कदम्ब-पुष्प के संस्थान जैसी होती है-उसकी ज्यों संस्थित होती है। वह भीतर-मेरु पर्वत की दिशा में संकीर्ण-सँकड़ी तथा बाहर-लवणसमुद्र की दिशा में विस्तीर्ण-चौड़ी, भीतर से वृत्त-अर्द्ध-वलयाकार तथा बाहर से पृथुल-पृथुलतापूर्ण विस्तृत, भीतर अंकमुख-पद्मासन में अवस्थित पुरुष के उत्संग-गोद रूप आसनबन्ध में मुख-अग्र भाग जैसी तथा बाहर गाड़ी की धुरी के अग्र भाग जैसी होती है। मेरु के दोनों ओर उसकी दो बाहाएँ-भुजाएँपार्श्व में अवस्थित हैं-नियत परिमाण हैं-उनमें वृद्धि-हानि नहीं होती। उनकी-उनमें से प्रत्येक की जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र (488) Jambudveep Prajnapti Sutra Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002911
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2006
Total Pages684
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Book_English, Agam, Canon, Conduct, & agam_jambudwipapragnapti
File Size21 MB
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