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________________ *5**********************************& 卐 फ्र 5 सामाणि जाव परिवुडे सब्बिड्डीए जाव रवेणं सोहम्मस्स कप्पस्स मज्झमज्झेणं तं दिव्वं देविंडि (दिवजुई 5 (देवाणुभावं ) उवदंसेमाणे २ जेणेव सोहम्मस्स कप्पस्स उत्तरिल्ले निज्जाणमग्गे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता जोअणसयसाहस्सीएहिं विग्गहेहिं ओवयमाणे २ ताए उक्किट्ठाए जाव देवगईए वीईवयमाणे २ तिरियमसंखिज्जाणं दीवसमुद्दाणं मज्झमज्झेणं जेणेव णंदीसरवरे दीवे जेणेव दाहिणपुरत्थिमिल्ले रइकरगपव्वए तेणेव उवागच्छइ २ त्ता एवं जा चैव सूरिआभस्स वत्तव्वया णवरं सक्काहिगारो वत्तव्यो इति जावतं दिव्यं देवर्ष्टि जाव दिव्वं जाणविमाणं पडिसाहरमाणे २ जाव जेणेव भगवओ तित्थयरस्स जम्मणनगरे 5 जेणेव भगवओ तित्थयरस्स जम्मणभवणे तेणेव उवागच्छति । 卐 उवागच्छत्ता भगवओ तित्थयरस्स जम्मणभवणं तेणं दिव्वेणं जाणविमाणेणं तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ २ त्ता भगवओ तित्थयरस्स जम्मणभवणस्स उत्तरत्थिमे दिसीभागे चतुरंगुलमसंपत्तं धरणियले तं दिव्वं जाणविमाणं ठवेइ २ त्ता अट्ठहिं अग्गमहिसीहिं दोहिं अणीएहिं गन्धव्वाणीण य णट्टाणीएण य सद्धिं ताओ दिव्वाओ जाणविमाणाओ पुरत्थिमिल्लेणं तिसोवाणपडिरूवएणं पच्चोरुहइ, तए णं सक्कस्स देविंदस्स देवरण्णो चउरासीइ सामाणिअसाहस्सीओ दिव्याओ जाणविमाणाओ 5 उत्तरिल्लेणं तिसोवाणपडिरूवएणं पच्चोरुहंति, अवसेसा देवा य देवीओ अ ताओ दिव्याओ जाणविमाणाओ दाहिणिल्लेणं तिसोवाणपडिरूवएणं पच्चोरुहंति त्ति । १५०. [ १ ] पालक देव से दिव्य यान - विमान की रचना सम्पन्न होने की सूचना पाकर शक्र मन में हर्षित होता है। जिनेन्द्र भगवान के सम्मुख जाने योग्य, दिव्य, सर्वालंकारविभूषित, उत्तर वैक्रिय रूप की विकुर्वणा करता है । फिर सपरिवार आठ अग्रमहिषियों, नाट्य-सेना, गन्धर्व - सेना के साथ उस यानविमान की अनुप्रदक्षिणा करता हुआ पूर्वदिशावर्ती त्रिसोपनक से तीन सीढ़ियों द्वारा विमान पर आरूढ़ होता है । विमानारूढ़ होकर वह पूर्वाभिमुख हो सिंहासन पर आसीन होता है । उसी प्रकार सामानिक देव उत्तरी त्रिसोपानक से विमान पर आरूढ़ होकर पहले से रखे हुए उत्तम आसनों पर बैठ जाते हैं। बाकी के देव - देवियाँ दक्षिणदिग्वर्ती त्रिसोपानक से विमान पर आरूढ़ होकर (अपने लिए उत्तम आसनों पर ) बैठ जाते हैं । शक्र के यों विमानारूढ़ होने पर आगे अष्ट मंगलक प्रस्थित होते हैं। तत्पश्चात् शुभ शकुन के रूप में ५ प्रयाण - प्रसंग में दर्शनीय जलपूर्ण कलश, जलपूर्ण झारी, चँवर सहित दिव्य छत्र, दिव्य पताका, वायु द्वारा उड़ाई जाती, अत्यन्त ऊँची, मानो आकाश को छूती हुई-सी विजय - वैजयन्ती ये क्रमशः आगे प्रस्थान करते हैं। जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र תתתתתתתתתתתתתתתתתתתתתתתתתתתתתתתתתתתתתתתתתתתתתתת तत्पश्चात् छत्र, विशिष्ट वर्णकों एवं चित्रों द्वारा शोभित निर्जल झारी, फिर वज्ररलमय, वर्तुलाकार, मनोज्ञ संस्थानयुक्त, चिकनी, कठोर शाण पर तरासी हुई, रगड़ी हुई पाषाण - प्रतिमा की ज्यों स्वच्छ, स्निग्ध, सुकोमल शाण पर घिसी हुई पाषाण - प्रतिमा की तरह चिकनाई लिए हुए मृदुल, सुप्रतिष्ठित 5 संस्थित, अतिशययुक्त, अनेक उत्तम, पंचरंगी हजारों छोटी पताकाओं से अलंकृत, वायु द्वारा हिलती विजय- वैजयन्ती, ध्वजा, छत्र एवं अतिछत्र से सुशोभित, आकाश को छूते हुए से शिखरयुक्त, एक हजार ऊँचा, विशाल महेन्द्रध्वज यथाक्रम आगे प्रस्थान करता है। उसके बाद अपने कार्यानुरूप वेश 5 फ्र Jambudveep Prajnapti Sutra फ्र (422) Jain Education International फ फ्र फफफफफफ For Private & Personal Use Only 卐 www.jainelibrary.org
SR No.002911
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2006
Total Pages684
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Book_English, Agam, Canon, Conduct, & agam_jambudwipapragnapti
File Size21 MB
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