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________________ 955 ) फ्र) )))))555555555555 卐5555555555555555555555555555555555555555555555 ॐ चुल्लहिमवंत विजय CONQUEST OF CHULLA-HIMAVANT ७८. [१] तए णं दिव्वे चक्करयणे अण्णया कयाइ आउह-घरसालाओ पडिणिक्खमइ म पडिणिक्खमित्ता अंतलिक्खपडिवण्णे जाव उत्तरपुरच्छिमं दिसिं चुल्लहिमवंतपव्वयाभिमुहे पयाए यावि होत्था। तए णं से भरहे राया तं दिव्वं चक्करयणं जाव चुल्लहिमवंतवासहरपब्वयस्स अदूरसामंते ॐ दुवालसयोजनायाम जाव चुल्लहिमवंतगिरिकुमारस्स देवस्स अट्ठमभत्तं पगिण्हइ, तहेव जहा मागहतित्थस्स जाव समुद्दरवभूअं पिव करेमाणे २ उत्तरदिसाभिमुहे जेणेव चुल्लहिमवंतवासहरपब्बए तेणेव उवागच्छइ ॐ उवागच्छित्ता चुल्लहिमवंतवासहरपव्वयं तिक्खुत्तो रहसिरेणं फुसइ, फुसित्ता तुरए णिगिण्हइ, णिगिण्हित्ता + तहेव जाव आयत्तकण्णायतं च काऊण उसुमुदारं इमाणि वयणाणि तत्थ भाणीय से परवई जाव तेसिं खु ॐ णमो पणिवयामि। हंदि सुणंतु भवंतो, सव्वे मे ते विसयवासित्ति कटु उद्धं वेहासं उसं णिसिरइ परिगरणिगरिअमज्झो जाव तए णं से सरे भरहेणं रण्णा उड्ढं वेहासं णिसट्टे समाणे खिप्पामेव बावत्तरि जोअणाई गंता चुल्लहिमवंतगिरिकुमारस्स देवस्स मेराए णिवइए। ७८. [१] आपात किरातों को विजय कर लेने के पश्चात् एक दिन वह दिव्य चक्ररत्न शस्त्रागार से बाहर निकला, आकाश में अधर अवस्थित हुआ। फिर वह उत्तर-पूर्व दिशा-(ईशानकोण) में स्थित + लघु हिमवान् पर्वत की ओर जाने लगा। तब राजा भरत उस दिव्य चक्ररत्न के पीछे यावत् लघु हिमवान् वर्षधर पर्वत से न अधिक दूर, न अधिक समीप-कुछ ही दूरी पर बारह योजन लम्बा (नौ योजन चौड़ा, 卐 उत्तम नगर जैसा सैन्य-शिविर स्थापित किया) फिर उसने लघु हिमवान् गिरिकुमार देव के निमित्त तेले की तपस्या ग्रहण की। [आगे का सब वर्णन मागध तीर्थ के प्रसंग जैसा है।] चक्ररत्न का अनुगमन ॐ करता हुआ समुद्र की गर्जना के समान वातावरण को नाद से गुंजाता हुआ राजा भरत उत्तर दिशा की 5 ओर आगे बढ़ा। जहाँ चुल्ल हिमवान् वर्षधर पर्वत था, वहाँ आया। रथ के अग्र भाग का चुल्ल हिमवान् - वर्षधर पर्वत से तीन बार स्पर्श किया। उसने वेगपूर्वक चलते हुए घोड़ों को नियन्त्रित कर रथ को 卐 रोका। धनुष का स्पर्श किया। (वह धनुष शुक्ल पक्ष की द्वितीया के चन्द्र जैसा एवं इन्द्रधनुष जैसा था) शत्रुओं के जीवन का विनाश करने में वह सक्षम था। उसकी प्रत्यंचा चंचल थी। राजा ने वह धनुष म उठाया। उस पर बाण चढ़ाया। बाण की दोनों कोटियाँ उत्तम वज्र-श्रेष्ठ हीरों से बनी थीं। उसका मुख-सिरा वज्र की ज्यों अभेद्य था। उसका पुंख-पीछे का भाग स्वर्ण में जड़ी हुई चन्द्रकान्त आदि मणियों तथा रत्नों से सुसज्ज था। उस पर अनेक मणियों और रत्नों द्वारा सुन्दर रूप में राजा भरत का नाम अंकित था। राजा भरत ने उस उत्कृष्ट बाण को कान तक खींचा (और यों बोला-मेरे द्वारा प्रयुक्त बाण के बहिर्भाग में तथा आभ्यन्तर भाग में अधिष्ठित नागकुमार, असुरकुमार, सुपर्णकुमार आदि ॐ देवो ! मैं आपको प्रणाम करता हूँ। आप सुनें।) ये सब मेरे देशवासी हैं, अर्थात् मेरी प्रजा है। ऐसा कर 卐 राजा भरत ने वह बाण ऊपर आकाश में छोड़ा। मल्ल जब अखाड़े में उतरता है तब जैसे वह कमर बाँधे होता है, उसी प्रकार भरत युद्धोचित वस्त्र-बन्ध द्वारा अपनी कमर बाँधे था। राजा भरत द्वारा के ऊपर आकाश में छोड़ा गया वह बाण शीघ्र ही बहत्तर योजन तक जाकर चुल्ल हिमवान् गिरिकुमार देव म की सीमा में-तत्सम्बन्धित समुचित स्थान पर गिरा। | जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र Jambudveep Prajnapti Sutra भक555555555555555555555 (208) 545) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002911
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2006
Total Pages684
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Book_English, Agam, Canon, Conduct, & agam_jambudwipapragnapti
File Size21 MB
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