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तथा सिद्धसेन आदि के उल्लेख से उसकी उमास्वाति-कर्तृकता निश्चित रूप से सिद्ध होती है।
उमास्वाति अपने को 'वाचक' कहते है, इसका अर्थ 'पूर्ववित्' कर के पहले से ही श्वेताम्बराचार्य उमास्वाति को 'पूर्ववित्' रूप से पहचानते आए हैं । दिगम्बर-परम्परा में भी उनको 'श्रुतकेलिदेशीय' कहा गया है।
तथा सिद्ध सेन भाष्यकार और सूत्रकार को एक ही समझते है । यथा - स्वकृतसूत्रसंनिवेशमाश्रित्योक्तम् ।-९. २२, पृ० २५३ ।
इति श्रीमदर्हत्प्रवचने तत्त्वार्थाधिगमे उमास्वातिवाच रोपज्ञसूत्रभाष्ये भाष्यानुसारिण्यां च टीकायां सिद्धसेनगणिविरचितायां अनगारागारिधर्मप्ररूपकः सप्तमो. ऽध्यायः । --तत्त्वार्थभाष्य के सातवे अध्याय की टीका की पुष्पिका। ऐसे अन्य उल्लेखों के लिए आगे--(ग) उमास्वाति की परम्परा' नामक उपशीर्षक, पृ० १५ ।
प्रशमरतिप्रकरण की १२०वी कारिका 'आचार्य पाह' कहकर निशीथचूर्णि मे उद्धृत है । इस चूर्णि के प्रणेता जिनदास महत्तर का समय विक्रम की आठवी शताब्दी है जिसका निर्देश उन्होने अपनी नन्दिसूत्र को चूर्णि में किया है। अतः कहा जा सकता है कि प्रशमरति विशेष प्राचीन है। इससे तथा ऊपर निर्दिष्ट कारणों से इस कृति के वाचक की होने में कोई बाधा नही है ।
१. पूर्वो के चौदह होने का समवायाग आदि आगमों मे वर्णन है। ऐसा भी उल्लेख है कि वे दृष्टिवाद नामक बारहवे अङ्ग का पाँचवाँ भाग जानते थे। पूर्वश्रुत अर्थात् भ० महावीर द्वारा सर्वप्रथम दिया हुआ उपदेश-ऐसी परम्परागत मान्यता है । पश्चिम के विद्वानो की इस विषय मे कल्पना है कि भ० पार्श्वनाथ की परम्परा का जो पूर्वकालीन श्रुत भ० महावीर को अथवा उनके शिष्यो को मिला वह पूर्वश्रुत है । यह श्रुत क्रमश. भ० महावीर के उपदिष्ट श्रुत मे ही मिल गया और उसी का एक भाग माना गया । जो भ० महावीर की द्वादशागी के धारक थे वे इस पूर्वश्रुत को जानते थे । कण्ठस्थ रखने की परम्परा तथा अन्य कारणों से पूर्वश्रुत क्रमश. नष्ट हो गया और आज 'पूर्वगतगाथा' रूप मे नाममात्र से शेष उल्लिखित मिलता है। 'पूर्व' के आधार पर बने कुछ ग्रन्थ मिलते है ।
२. नगर ताल्लुका के एक दिगम्बर शिलालेख नं० ४६ मे इन्हे 'श्रुतकेवलिदेशीय' कहा गया है । यथा
तत्त्वार्थसूत्रकर्तारमुमास्वातिमुनीश्वरम् । श्रुतकेवलिदेशीयं वन्देऽहं गुणमन्दिरम ।।
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