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- १३६ - उत्तमसंहननस्यैकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानम् ॥ २७ ॥ आमुहूर्तात् ॥२८॥ आर्तरौद्रधर्मशुक्लानि ॥२९॥ परे मोक्षहेतू ॥३०॥ आर्तममनोज्ञानां सम्प्रयोगे तद्विप्रयोगाय स्मृतिसमन्वाहारः ॥ ३१॥ वेदनायाश्च । ३२॥ विपरीतं मनोज्ञानाम् ॥ ३३ ॥ निदानं च ॥ ३४॥ तदविरतदेशविरतप्रमत्तसंयतानाम् ॥ ३५ ॥ हिंसाऽनृतस्तेयविषयसंरक्षणेभ्यो रौद्रमविरतदेशविरतयोः ॥ ३६ ॥ आज्ञाऽपायवियाकसंस्थानविचयाय धर्ममप्रमत्तसंयतस्य ॥ ३७॥ उपशान्तक्षीणकषाययोश्च ॥ ३८ ॥ शुक्ले चाद्ये पूर्वविदः ॥ ३९ ॥
१. स० रा० श्लो० मे ध्यानमान्तमुहूर्तात् है, अतः २८वा सूत्र उनमे ___ अलग नहीं है । देखें-विवेचन, पृ० २२२, टि० २ । २. -धयं-स० रा० श्लो० । ३. -नोज्ञस्य-स० रा० श्लो० । ४. यह सूत्र स० रा० श्लो० मे विपरीतं मनोज्ञानाम के बाद है अर्थात्
उनके मतानुसार यह ध्यान का द्वितीय नही, तृतीय भेद है । ५. मनोज्ञस्य • स० रा० श्लो० । ६. -धर्म्यम-हा० । -धर्म्यम्-स० रा० श्लो० । दिगम्बर सूत्रपाठ मे स्वामी
का विधान करनेवाला अप्रमत्तसंयतस्य अंश नही है। इतना ही नही, बल्कि इसके बाद का उपशान्तक्षीण सूत्र भी नही है। स्वामी का विधान सर्वार्थसिद्धि मे है। उसे लक्ष्य मे रखकर अकलंक ने श्वे० परंपरासम्मत सूत्रपाठ विषयक स्वामी के विधान का खण्डन भी किया है। उसी का अनुगमन विद्यानन्द ने भी किया है। देखें-विवेचन,
पृ० २२६-२७ । ७. देखें -विवेचन, पृ० २२७, टि० १। पूर्वविदः अंश भा० हा० मे न
तो इस सूत्र के अंश के रूप मे है और न अलग सूत्र के रूप में। सि० मे अलग सूत्र के रूप मे है, लेकिन टीकाकार की दृष्टि मे यह भिन्न नही है। दिगम्बर टीकाओं में इसी सूत्र के अंश के रूप मे है ।
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