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९.२७-२८ ] ध्यान
२२३ २ स्वरूप-सामान्यतः क्षण में एक, क्षण मे दूसरे, क्षण मे तीसरे ऐसे अनेक विषयो को अवलबन करके प्रवृत्त ज्ञानधारा भिन्न-भिन्न दिशाओ से बहती हुई हवा मे स्थित दीपशिखा की भाँति अर्थात् अस्थिर होती है । ऐसी ज्ञानधारा--- चिन्ता को विशेष प्रयत्नपूर्वक शेष विषयो से हटाकर किसी एक ही इष्ट विषय मे स्थिर रखना अर्थात् ज्ञानधारा को अनेक विषयगामिनी न बनने देकर एक विषयगामिनी बना देना ही ध्यान है । ध्यान का यह स्वरूप असर्वज्ञ ( छद्मस्थ ) मे ही सम्भव है । इसलिए ऐसा ध्यान बारहवें गुणस्थान तक होता है।
सर्वज्ञत्व प्राप्त होने के बाद अर्थात् तेरहवे और चौदहवे गुणस्थानों मे भी ध्यान स्वीकार तो अवश्य किया गया है, पर उसका स्वरूप भिन्न है। तेरहवें गुणस्थान के अन्त मे जब मानसिक, वाचिक और कायिक योग-व्यापार के निरोध का क्रम प्रारम्भ होता है तब स्थूल कायिक व्यापार के निरोध के बाद सूक्ष्म कायिक व्यापार के अस्तित्व के समय मे सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती नामक तीसरा शुक्ल ध्यान माना गया है और चौदहवें गुणस्थान की सम्पूर्ण अयोगिपन की दशा मे शैलेशीकरण के समय मे समुच्छिन्नक्रियानिवृत्ति नामक चौथा शुक्लध्यान माना गया है। ये दोनों ध्यान उक्त दशाओ मे चित्तव्यापार न होने से छद्मस्थ की भांति एकाग्रचिन्तानिरोधरूप तो है ही नहीं, अतः उक्त दशाओं मे ध्यान को घटाने के लिए सूत्रगत प्रसिद्ध अर्थ के उपरान्त 'ध्यान' शब्द का अर्थ विशेष विशद किया गया है कि केवल कायिक स्थूल व्यापार के निरोध का प्रयत्न भी ध्यान है और आत्मप्रदेशों की निष्प्रकम्पता भी ध्यान है ।
फिर भी ध्यान के विषय में एक प्रश्न रहता है कि तेरहवें गुणस्थान के प्रारम्भ से योगनिरोध का क्रम शुरू होता है, तब तक की अवस्था मे अर्थात् सर्वज्ञ हो जाने के बाद की स्थिति मे क्या कोई ध्यान होता है ? यदि होता है तो कौन-सा ? इसका उत्तर दो प्रकार से मिलता है : १. विहरमाण सर्वज्ञ की दशा मे ध्यानान्तरिका कहकर उसमे अध्यानित्व ही मानकर कोई ध्यान स्वीकार नहीं किया गया है । २. सर्वज्ञदशा मे मन, वचन और शरीर के व्यापारसम्बन्धी सुदृढ प्रयत्न को ही ध्यान के रूप मे मान लिया गया है।
३. काल का परिमारण-उपर्युक्त एक ध्यान अधिक-से-अधिक अन्तर्मुहूर्त तक ही टिकता है, बाद में उसे टिकाना कठिन है, अतः उसका कालपरिमाण अन्तर्मुहूर्त है।
कई लोग श्वास-उच्छ्वास रोक रखने को ही ध्यान मानते हैं तथा अन्य
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