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वाचक उमास्वातिविरचित
त त्त्त्वा र्थ
सू त्र
विवेचनसहित
विवेचक पं० सुखलाल संघवी
प्रकाशक
पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान
वाराणसी - ५
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पार्श्वनाथ विद्याश्रम ग्रन्थमाला
:२२:
सम्पादक डा० मोहनलाल मेहता श्री जमनालाल जैन
वाचक उमास्वातिविरचित
तत्त्वार्थ सूत्र विवेचनसहित
विवेचक पं० सुखलाल संघवी
17岁后后乐
प्रकाशक
पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान
वाराणसी-५
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सूत्रकार : वाचक उमास्वाति
विवेचक :
पं० सुखलाल संघवी
सम्पादक :
डा० मोहनलाल मेहता श्री जमनालाल जैन
प्रकाशक :
पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान
जैन इंस्टिट्यूट
आई० टी० आई० रोड, वाराणसी--५
मुद्रक : शिवलाल प्रिंटर्स
के० ४४/१७ बी० नायक बाजार, विश्वेश्वरगंज, वाराणसी - १
संशोधित एवं परिवर्धित तृतीय सस्करण, सन् १९७६
मूल्य : दस रुपये
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समर्पण
उस भगिनी - मण्डल को जिसमें श्रीमती मोतीबाई जीवराज तथा श्रीमती मणिबहन शिवचन्द कापड़िया आदि बहनें मुख्य हैं, जिसके द्वारा विद्या - जीवन तथा
शारीरिक जीवन में मुझे सदा हार्दिक सहायता मिलती रही है ।
- सुखलाल संघवी
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तत्त्वार्थसूत्र
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2997
लाला जगन्नाथ जैन
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प्रकाशकीय
वाचक उमास्वाति का तत्त्वार्थसूत्र या तत्त्वार्थाधिगम जैन दर्शन की अमर एवं अद्वितीय कृति है। इसमे तत्त्व, ज्ञान, आचार, कर्म, भूगोल, खगोल यादि समस्त महत्त्वपूर्ण विषयो का संक्षिप्त प्रतिपादन किया गया है। यह ग्रन्थ जैन दर्शन को गर्वप्रथम संस्कृत कृति है । इसकी भाषा भरल एवं शैली प्रवाहशील है। इम लोकप्रिय ग्रन्थ पर अनेक टीकाएँ एवं विवेचन लिखे गए है । उनमें पंडितप्रवर सुखलालजी संघवीकृत प्रस्तुत विवेचन का प्रमुख स्थान है। हिन्दी आदि आधुनिक भारतीय भाषाओं मे विरचित तत्त्वार्थ-विवेचनों मे पंडितजी की यह कृति नि मन्देह सर्वोपरि है। इसमे समस्त प्राचीन संस्कृत टीकालो का सार समाहित है। प्रारम्भ मे पंडितजी की विस्तृत प्रस्तावना ऐतिहासिक एव तुलनात्मक दृ - से अत्यधिक महत्वपूर्ण है। यह विवेचन गुजराती तथा अग्रेजी में भी प्रकाशित हो चुका है। हिन्दी विवेचन का यह तृतीय सस्करण प्रकाशित हो रहा है। इस सस्करण में प्रस्तावना के अन्त में जापानी विदुषो कुमारा सुजुको ओहिरा का चिन्तनपूर्ण निबन्ध दिया गया है जो तत्त्वार्थसूत्र की मूल पाठविषयक समस्या पर अच्छा प्रकाश डालता है । इस तरह प्रस्तुत संस्करण को प्रत्येक दृष्टि से उपयोगी बनाने का भरसक प्रयत्न किया गया है।
इस ग्रन्थ का प्रकाशन अमृतसर के स्व० लाला जगन्नाथ जैन की पुण्यस्मृति मे किया गया है। आप सोहनलाल जैनधर्म प्रचारक समिति के सम्मान्य मंत्री लाला हर जमराय जैन के पूज्य पिता थे। आपकी तथा आपकी महधर्मिणी स्व० श्रीमती जीवनदेवी दोनों की स्मृति मे जीवन-जगन चेरिटेबल ट्रस्ट' की स्थापना की गई है । इस ट्रस्ट से पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध सस्थान को आर्थिक सहायता प्राप्त होती रहती है।
संस्थान ज्ञानोदय ट्रस्ट, अहमदाबाद का विशेष आभारी है जिसने चार हजार रुपये का अनुदान देकर प्रस्तुत ग्रन्थ के प्रकाशन-व्यय का आधा भार सहष वहन किया है। पूज्यप्रवर प० सुखलालजी एवं परमादरणीय प० दलसुखसाई मालपणिया का तो संस्थान प्रारम्भ से ही ऋणी है । हमारे सहयोगी श्री जमनालाल जैन ने सम्पादन-कार्य एवं ग्रन्थ को अधुनालन रूप में प्रस्तुत करने में पूर्ण सहयोग दिया है, अत: उनका मै अत्यन्त आभारी हूँ। कुशल मुद्रण के लिए शिवलाल प्रिण्टर्स के सचालक श्री हरिप्रसाद निगम धन्यवाद के पात्र है। पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान
मोहनलाल मेहता वाराणसी-५
अध्यक्ष १. ७. ७६
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प्राक्कथन
तत्त्वार्थसूत्र-विवेचन का प्रथम गुजराती संस्करण सन् १९३० में गुजरात विद्यापीठ, अहमदाबाद से प्रकाशित हुआ था। उसी के हिन्दी सस्करण की प्रकाशन सन् १९३९ मे श्री आत्मानन्द जन्म-शताब्दी स्मारक ग्रन्थमाला, बम्बई से प्रथम पूष्प के रूप में हआ। इस हिन्दी सस्करण के परिचय ( प्रस्तावना ) में कुछ संशोधन किया गया था और इसमें सम्पादक श्री कृष्णचन्द्रजी और प० दलसुखभाई मालवणिया ने शब्दसूची और सूत्रपाठ उपलब्ध पाठान्तरों के साथ जोड़ा था। 'परिचय' मे विशेषतः वाचक उमास्वाति की परम्परा के विषय में पुनर्विचार करते हुए यह कहा गया था कि वे श्वेताम्बर परम्परा के थे। इसी हिन्दी सस्करण के आधार पर गुजराती का दूसरा संस्करण सन् १९४० में श्री पूजाभाई जैन ग्रन्थमाला, अहमदाबाद से प्रकाशित हुआ और विवेचन मे दा-चार स्थानों पर विशेष स्पष्टीकरण बढाकर उसका तीसरा संस्करण उसी ग्रन्थमाला से सन् १९४९ मे प्रकाशित हआ। बाद में हिन्दी का दूसरा सस्करण उक्त स्पष्टीकरणो के साथ जैन संस्कृति संशोधन मंडल, बनारस से सन् १९५२ मे प्रकाशित हुआ ।
प्रथम गुजराती सस्करण ( सन् १९३०) के वक्तव्य का आवश्यक अश यहाँ दिया जा रहा है, जिससे मुख्यतया तीन बातें ज्ञात होती हैं। पहली यह कि शुरू में विवेचन किस ढग से लिखने की इच्छा थी और अन्त में वह किस रूप मे लिखा गया। दूसरी यह कि हिन्दी में विवेचन लिखना प्रारंभ करने पर भी वह प्रथम गुजरातो में क्यों और किस परिस्थिति मे समाप्त किया गया और फिर सारा का सारा विवेचन गुजराती में ही प्रथम क्यों प्रकाशित हुआ। तीसरी यह कि कैसे और किन अधिकारियों को लक्ष्य मे रखकर विवेचन लिखा गया है, उसका आधार क्या है और उसका स्वरूप तथा शैली कैसी रखी गई है । __ "प्रथम कल्पना-लगभग १२ वर्ष पहले जब मै अपने सहृदय मित्र श्री रमणिकलाल मगनलाल मोदी, बी० ए० के साथ पूना में था तब हम दोनो ने मिलकर साहित्य-निर्माण के विषय में बहुत विचार करने के
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बाद तीन ग्रन्थ लिखने की स्पष्ट कल्पना की। श्वेताम्बर-दिगम्बर दोनों सम्प्रदायों में प्रतिदिन बढती हुई पाटगालाओ, छात्रालयो और विद्यालयों में जैन-दर्शन के शिक्षण की आवश्यक्ता जैसे-जैसे अधिक प्रतीत होने लगी वैसे-वैसे चारो ओर से दोनो सम्प्रदायो मे मान्य नई शैली के लोकभाषा मे लिखे गए जैन-दर्शन विषयक ग्रंथों की मॉग भी होने लगी। यह देखकर हमने निश्चय किया कि 'तत्त्वार्थ' और 'सन्मतितर्क' इन दोनों ग्रथों का तो विवेचन किया जाए और उसके परिणामस्वरूप तृतीय पुस्तक 'जैन पारिभाषिक शब्दकोश' स्वतन्त्र रूप से लिखी जाए। इस प्रथम कल्पना के अनुसार हम दोनों ने तत्त्वार्थ के विवेचन का काम आज से ११ वर्ष पूर्व ( सन् १९१९ में ) आगरा में प्रारम्भ किया। ___ "अपनी विशाल योजना के अनुसार हमने काम प्रारम्भ किया और इष्ट सहायको का समागम होता गया, पर वे आकर स्थिर रहे न रहे उसके पूर्व ही वे पक्षियो की तरह भिन्न-भिन्न दिशाओं में तितर-बितर हो गए और बाद मे तो आगरा के इस घोसले म अकेला मै ही रह गया । तत्त्वार्थ का आरम्भ किया गया कार्य और अन्य कार्य मेरे अकेले के बस के न थे और यह कार्य चाहे जिस तरह पूर्ण करने का निश्चय भी चुप न रहने देता था। महयोग और मित्रों का आकर्षण देखकर मै आगरा छोडकर अहमदाबाद चला गया। वहाँ मेने 'सन्मति' का कार्य हाथ मे लिया आर तत्त्वार्थ के दा-चार सूत्रो पर आगरा में जो कुछ लिखा वह ज्यों का त्यों पडा रहा।
"भावनगर में सन् १९२१-२२ मे सन्मति का काम करते समय बीच-बोच मे तत्त्वार्थ के अधूरे काम का स्मरण हो आता और मै चिन्तित हो जाता। मानसिक सामग्री होने पर भी उपयुक्त इष्ट मित्रों के अभाव के कारण मैने तत्त्वार्थ के विवेचन की पूर्व निश्चित विशाल योजना दूर करके अपना उतना भार कम किया, पर इस कार्य का सकल्प ज्यो का त्यो था। इसलिए स्वास्थ्य के कारण जब मै विश्रान्ति के लिए भावनगर के पास वालु कड़ गांव गया तब फिर तत्त्वार्थ का कार्य हाथ में लिया और उसकी विशाल योजना सक्षिप्त करके मध्यममार्ग अपनाया। इस विवाति-काल में भिन्न-भिन्न जगहों मे रहकर लिखा। इस काल में लिखा तो कम गया पर उसकी एक रूपरेखा ( पद्धति ) मन में निश्चित हा गई और कभी अकेले लिखने का विश्वास उत्पन्न हुआ।
“मै उन दिनो गुजरात में ही रहता था और लिखता था। पूर्व
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- नौ -
निश्चित पद्धति को भी संकुचित करना पड़ा था, फिर भी पूर्व सस्कारों का एक साथ कभी विनाश नहीं होता, मानव-शास्त्र के इस नियम से मैं भी बद्ध था। आगरा में लिखने के लिए सोची गई और काम में लाई गई हिन्दी भाषा का संस्कार मेरे मन मे कायम था। इसलिए मैने उसी भाषा में लिखना शुरू किया। हिन्दी भाषा में दो अध्याय लिखे गए। इतने मे ही बीच में रुके हुए जन्मति के काम का सिलसिला पुनः प्रारम्भ हुआ और इसके प्रवाह में तत्त्वार्थ के कार्य को वही छोड़ना पड़ा। स्थूल रूप से काम चलाने की कोई आशा नही थी, पर मन तो अधिकाधिक कार्य कर ही रहा था। उसका थोड़ा-बहुत मूर्त रूप आगे चलकर दो वर्ष बाद अवकाश के दिनो में कलकत्ता में सिद्ध हुआ और चार अध्याय तक पहुंचा। उसके बाद अनेक प्रकार का मानसिक और शारीरिक दबाव बढ़ता ही गया, इसलिए तत्त्वार्थ को हाथ में लेना कठिन हो गया और पूरे तोन वर्ष अन्य कामो में बीत गए। सन् १९२७ के ग्रीष्मावकाश में लीमडो गया। तब फिर तत्त्वार्थ का काम हाथ में आया.और वह थोड़ा आगे बढा भी, लगभग छ अध्याय तक पहँच गया । पर अन्त मे मुझे प्रतीत हुआ कि अब सन्मति का कार्य पूर्ण करने के बाद हो तत्त्वार्थ को हाथ में लेना श्रेयस्कर है। इसलिए सन्मतितर्क का कार्य दुगुने वेग से करने लगा। पर इतने समय तक गुजरात में रहने से और इष्ट मित्रो के कहने से यह धारणा हुई कि पहले तत्त्वार्थ का गुजराती सस्करण निकाया जाए। यह नवीन संस्कार प्रबल था। पुराने संस्कार से हिन्दी भाषा मे छ: अध्यायों का लेखन हो गया था। हिन्दी से गुजगती करना शक्य और इष्ट होने पर भी उसके लिए समय नहीं था । शेष अश गुजराती मे लिखें तो भी प्रथम हिन्दो में लिखे हुए का क्या उपयोग ? योग्य अनुवादक प्राप्त करना भी सरल बात नहीं थी। ये सभी असुविधाएँ थी, पर भाग्यवश इनका भी अन्त आ गया। विद्वान् और सहृदय मित्र रसिकलाल छोटालाल परीख ने हिन्दी से गुजराती मे अनुवाद किया और शेष चार अध्याय मैने गुजरातो में ही लिख डाले। इन चार अध्यायो का हिन्दी अनुवाद श्री कृष्णचन्द्रजी ने किया है । इस तरह लगभग ग्यारह वर्ष पूर्व प्रारम्भ किया हुआ सकल्प पूर्ण हुआ ।
"पद्धति-पहले जब तत्त्वार्थ पर विवेचन लिखने की कल्पना आई तब निश्चित की गई योजना के पीछे दृष्टि यह थी कि सपूर्ण जैन तत्त्वज्ञान और जैन आचार का स्वरूप एक ही स्थान पर प्रामाणिक रूप में
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उसके विकासक्रमानुसार प्रत्येक अभ्यासी के लिए सुलभ हो जाए। जैन और जैनेतर तत्त्वज्ञान के अभ्यासियों की संकुचित परिभाषाभेद को दीवाल तुलनात्मक वर्णन से टूट जाए और आज तक के भारतीय दर्शनों में या पश्चिमी तत्त्वज्ञान के चिन्तन मे सिद्ध और स्पष्ट महत्त्व के विषयों द्वारा जैन ज्ञानकोश समृद्ध हो, इस प्रकार से तत्त्वार्थ का विवेचन लिखा जाए। इस धारणा में तत्त्वार्थ विषयक दोनों सम्प्रदायो की किसी एक ही टोका के अनुवाद या सार को स्थान नहीं था। इसमे टीकाओ के दोहन के अतिरिक्त दूसरे भी महत्त्वपूर्ण जैन ग्रन्थो के सार को स्थान था । परन्तु जब इस विशाल योजना ने मध्यममार्ग का रूप ग्रहण किया तव उसके पीछे की दृष्टि भी कुछ सकुचित हुई। फिर भी मैने इस मध्यममार्गी विवेचन-पद्धति मे मुख्य रूप से निम्न बातो का ध्यान रखा है :
१. किसी एक ही ग्रन्थ का अनुवाद या सार न लिखकर या किसी एक ही सम्प्रदाय के मन्तव्य का बिना अनुसरण किए ही जो कुछ आज तक जैन तत्त्वज्ञान के अङ्ग के रूप मे पठन-चिन्तन में आया हो उसका तटस्थ भाव से उपयोग करना ।
२. विवेचन महाविद्यालय या कालेज के विद्याथियों की जिज्ञासा के अनुकूल हो तथा पुरातन प्रणाली से अध्ययन करनेवाले विद्याथियो को भी रुचिकर लगे इस प्रकार से साम्प्रदायिक परिभाषा को कायम रख कर सरल विश्लेषण करना ।
३. जहाँ ठीक प्रतीत हो और जितना ठीक हो उतने ही अश मे संवाद के रूप में और शेष भाग मे बिना सवाद के सरलतापूर्वक चर्चा करना।
४. विवेचन में सूत्रपाठ एक ही रखना और वह भी भाष्य-स्वीकृत और जहाँ महत्त्वपूर्ण अर्थभेद हो वहाँ भेदवाला सूत्र देकर नीचे टिप्पणी" में उसका अर्थ देना।
५. जहाँ तक अर्थ दृष्टिसंगत हो वैसे एक या अनेक सूत्रों को माथ रखकर उतका अर्थ लिखना और एक साथ ही विवेचन करना। ऐसा करते हुए जहाँ विषय लम्बा हो वहाँ उसका विभाग करके शीर्षक द्वारा वक्तव्य का विश्लेषण करना ।
६. बहुत प्रसिद्ध स्थल में बहुत अधिक जटिलता न आ जाए,
१. अब ऐसी टिप्पणियाँ मूल सूत्रों मे दे दी गई है । देखे-पृ० १११-१३८ ।
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- ग्यारह -
इसका ध्यान रखते हुए जैन परिभाषा की जैनेतर परिभाषा के साथ तुलना करना। - ७. किसी एक ही विषय पर जहाँ केवल श्वेताम्बर या दिगम्बर अथवा दोनों के मिलकर अनेक मन्तव्य हों वहाँ कितना और क्या लेना और कितना छोडना इसका निर्णय सूत्रकार के आगय की निकटता और विवेचन के परिमाण की मर्यादा को ध्यान में रखकर स्वतन्त्र रूप से करना और किसी एक ही सम्प्रदाय के वशीभूत न होकर जैन तत्त्वज्ञान या सूत्रकार का ही अनुसरण करना ।
"इतनी बातें ध्यान में रखने पर भी प्रस्तुत विवेचन में भाष्य, उसकी वृत्ति, सर्वार्थसिद्धि एवं राजवार्तिक के ही अशों का विशेष रूप से आना स्वाभाविक है। क्योकि ये हो ग्रन्थ मूल सूत्रों की आत्मा को स्पर्श तथा स्पष्ट करते है । इनमें भी मैने प्राय भाष्य को ही प्राधान्य दिया है क्योंकि यह प्राचोन एव स्वोपज्ञ होने से सूत्रकार के आशय को अधिक स्पर्श करता है। ___"प्रस्तुत विवेचन में पहले की विशाल योजना के अनुसार तुलना नही की गई है। इसलिए न्यूनता को थोड़े-बहत अशो में दूर करने और तुलनात्मक प्रधानतावाली आधुनिक रसप्रद शिक्षण-प्रणाली का अनुसरण करने के लिए 'प्रस्तावना' मे तुलना सम्बन्धी कार्य किया गया है। प्रस्तावना मे की गई तुलना पाठक को ऊपर-ऊपर से बहत ही अल्प प्रतीत होगी। यह ठीक है, पर सूक्ष्म अभ्यासी देखेंगे कि यह अल्प प्रतीत होने पर भी विचारणीय अधिक है। प्रस्तावना में की जानेवाली तुलना में लम्बे-लम्बे विषयों और वर्णनो का स्थान नही होता, इसलिए तुलनोपयोगी मुख्य मुद्दों को पहले छाँटकर बाद में संभाव्य मुद्दों की वैदिक और बौद्ध दर्शनों के साथ तुलना की गई है। उन-उन महों पर ब्योरेवार विचार के लिए उन-उन दर्शनो के ग्रन्थों के स्थलों का निर्देश कर दिया गया है । इससे अभ्यास करनेवालों को अपनी बुद्धि का उपयोग करने का भी अवकाश रहेगा। इसी बहाने उनके लिए दर्शनांतर के अवलोकन का मार्ग भी खुल जाएगा, ऐसी आशा है।"
गुजरातो विवेचन के करीब २१ वर्ष बाद सन् १९५२ में हिन्दी विवेचन का दूसरा सस्करण प्रकाशित हुआ। इतने समय में तत्त्वार्थ से सम्बन्ध रखनेवाला साहित्य पर्याप्त परिमाण में प्रकाशित हआ है। भाषादृष्टि से संस्कृत, गुजराती, अग्रेजी और हिन्दी इन चार भाषाओ में
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- बारह -
तत्वार्थ विषयक साहित्य प्रकाशित हुआ है। इसमें भी न केवल प्राचीन ग्रन्थों का ही प्रकाशन समाविष्ट है अपितु समालोचनात्मक, अनुवादात्मक, संशोधनात्मक और विवेचनात्मक आदि अनेकविध साहित्य समाविष्ट है।
प्राचीन टोका-ग्रन्थों में से सिद्धसेनीय और हारिभद्रीय दोनो भाष्यवृत्तियों को पूर्णतया प्रकाशित करने-कराने का श्रेय वस्तुतः श्रीमान् सागरानन्द सूरीश्वर को है। उनका एक समालोचनात्मक निबन्ध भी हिन्दी में प्रकाशित हुआ है, जिसमे वाचक उमास्वाति के श्वेताम्बर या दिगम्थर होने के विषय में मुख्यरूप से चर्चा है। तत्त्वार्थ के मूल सूत्रों का गुजराती अनुवाद श्री हीरालाल कापड़िया, एम० ए० का तथा तत्त्वार्थभाष्य के प्रथम अध्याय का गजरातो अनुवाद विवेचनसहित प० प्रभुदास बेचरदास परीख का प्रकाशित हआ है। तत्त्वार्थ का हिन्दी अनुबाद जो वस्तुतः मेरे गुजराती विवेचन का अक्षरशः अनुवाद है वह फलोदी ( मारवाड़ ) के श्री मेघराजजी मुणोत के द्वारा तैयार होकर प्रकाशित हुआ है। स्थानव वासी मुनि (बाद मे आचार्य ) आत्मारामजी उपाध्याय के द्वारा 'तत्त्वार्थसूत्र-जैनागम समन्वय' नामक दो पुस्तिकाएं प्रकाशित हुई है । इनमे से एक हिन्दी अर्थ युक्त है और दूसरी हिन्दी अर्थरहित आगमपाठवाली है।
श्री रामजीभाई दोशी का गुजराती तत्त्वार्थ-विवेचन सोनगढ़ से प्रकाशित हुआ है। प्रो० जी० आर० जैन का तत्त्वार्थ के पचम अध्याय का विवेचन आधुनिक विज्ञान की दृष्टि से अग्रेजी में प्रकाशित हुआ है।' प० महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्य द्वारा सम्पादित श्रुतसागराचार्यकृत तत्त्वार्थवृत्ति, पं० लालबहादुर शास्त्रीकृत तत्त्वाथसूत्र का हिन्दी अनुवाद और प० फूलचंद्रजी का हिन्दी विवेचन बनारस से प्रकाशित हुआ है । तत्त्वार्थसूत्र की भास्करनंदिकृत सुखबोधवृत्ति ओरिएण्टल लायब्रेरी पब्लिकेशन की सस्कृत सीरीज में ८४वी पुस्तक रूप से प्रकाशित हुई है जो प० शान्तिराज शास्त्री द्वारा सम्पादित है। यह वृत्ति १४वी शताब्दो की है। तत्त्वात्रिसूत्रीप्रकाशिका नामक व्याख्या जो श्री विजयलावण्यसूरिकृत है और जो श्री विजयनेमिसूरि ग्रन्थमाला के २२ वें रत्न के रूप में प्रकाशित हुई है, वह पंचमाध्याय के
१. Cosmology : Old and New.
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- तेरह - उत्पादव्ययादि तीन सूत्रों ( ५. २९-३१ ) को सभाष्य सिद्धसेनों प वृत्ति का विस्तृत विवरण है।
पिछले २१ वर्षों में प्रकाशित व निर्मित तत्त्वार्थविषयक साहित्य का उल्लेख यहाँ इसलिए किया है कि २१ वर्षों के पहले जो तत्त्वार्थ के अध्ययन-अध्यापन का प्रचार था वह पिछले वर्षों में किस तरह और कितने परिमाण में बढ़ गया है और दिन-प्रतिदिन उसके बढ़ने की कितनी अधिक सम्भावना है। पिछले वर्षो के तत्वार्थ-विष पक तीनों मम्प्रदायों के परिशीलन में मेरे 'गुनगती विवेचन' का कितना हिस्सा है यह बतलाना मेग काम नही। कर भी इतना अवश्य कह सकता हूँ कि तीना सम्प्रदायो के योग्य अधिकारियो ने मेरे 'गजगती विवेचन' को इतना अधिक आनाया कि मे उसकी कल्पना भी नही करता था।
तत्त्वार्थ के प्रथम हिन्दो सम्ण के प्रकाशित होने के बाद तत्त्वार्थ सूत्र, उसका भाष्य, वाचक उपस्वाति और तत्त्वार्थ की अनेक टीकाएँ इत्यादि विषयो पर अनेक लेखको के अनेक लख निकले है। परन्तु यहाँ मुझे श्रामात् नाथूराम जा प्रेमा के लख के विषय मे ही कुछ कहना है। प्रेमाजी का 'भारतीय विद्या' क मिघा स्मारक अक मे 'वाचक उमास्वाति का सभाष्य तत्त्वाथसूत्र और उनका सम्प्रदाय' नामक लेख प्रकाशित हुआ है। उन्होने दाघ ऊहापोह के बाद वह बतलाया है कि वाचक उमास्वानि यापनीय सघ के आचार्य थे। उनकी अनेक दलीलें ऐसी है जो उनके मंतव्य को मानने के लिए आकृष्ट करती है, इसलिए उनके मन्तव्य की विशेष छानबीन करने के लिए सटोक भगवतो आराधना का खास परिशोलन प० दलसुख मालवणिया ने किया। फलस्वरूप जो नाट उन्हाने तैयार किए उन पर हम दोनो ने विचार किया । विचार करते समय भगवतो आराधना, उसकी टीकाएं और बृहत्कल्पभाष्य आदि ग्रन्थो का आवश्यक अवलोकन भी किया गया । यथासम्भव इस प्रश्न पर मुक मन से विचार किया गया । आखिर हम दोनों इस नतीजे पर पहुंचे कि वाचक उमास्वाति यापनीय न थे, वे सचेल परम्परा के थे, जैसा कि हमने प्रस्तावना मे दरसाया है। हमारे अवलोकन और विचार का निष्कर्ष संक्षेप में इस प्रकार है :
१. देखे-अनेकान्त, वर्ष ३, अंक १,४, ११, १२; वर्ष ४, अंक १, ४, ६, ७, ८, ११, १२, वर्ष ५, अंक १-११; जैन सिद्धान्त भास्कर, वर्ष ८ और ९; जैन सत्यप्रकाश, वर्ष ६, अंक ४; भारतीय विद्या का सिंघी स्मारक अंक ।
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- चौदह -
१. भगवती आराधना और उसके टीकाकार अपराजित दोनों यदि यापनीय हैं तो उनके ग्रन्थ से यापनीय संघ के आचारविषयक निम्न लक्षण फलित होते है
(क ) यापनीय आचार का औत्सर्गिक अंग अचेलत्व अर्थात् नग्नत्व
(ख ) यापनीय संघ में मुनि की तरह आर्याओं का भी मोक्षलक्षी स्थान है। अवस्थाविशेष में उनके लिए भी निर्वसनभाव का उपदेश है।
(ग) यापनीय आचार में पाणितल-आहार का विधान है और कमण्डलु-पिच्छी के अतिरिक्त और किसी उपकरण का औत्सर्गिक विधान नही है।
उक्त लक्षण उमास्वाति के भाष्य और प्रशमरति जैसे ग्रन्थों के वर्णन के साथ बिलकुल मेल नही खाते, क्योकि उनमे स्पष्ट रूप से मुनि के वस्त्र-पात्र का वर्णन है। कही भी नग्नत्व का औत्सर्गिक विधान नही है एवं कमण्डलु-पिच्छी जैसे उपकरण का तो नाम तक नही है।
२. श्री प्रेमीजी की एक दलील यह भी है कि पुण्य-प्रकृति आदि विषयक उमास्वाति का मन्तव्य अपराजित की टीका में पाया जाता है। परन्तु गच्छ तथा परम्परा की तत्त्वज्ञानविषयक मान्यताओ के इतिहास से स्पष्ट है कि कभी-कभी एक ही परम्परा में परस्पर विरुद्ध दिखाई देनेवाली सामान्य एव छोटी मान्यताएँ पाई जाती हैं। इतना ही नही अपितु दो परस्पर विरोधी मानी जानेवाली परम्पराओ में भी कभीकभी ऐसो सामान्य व छोटी-छोटो मान्यताओ का एकत्व मिलता है। ऐसी स्थिति में वस्त्रपात्र के समर्थक उमास्वाति का वस्त्रपात्र के विरोधी यापनीय सघ की अमुक मान्यताओं के साथ साम्य हो तो कोई अचरज की बात नही।
पं० फूलचन्द्रजी शास्त्री ने तत्त्वार्थसूत्र के अपने विवेचन की प्रस्तावना में गृध्रपिच्छ को सूत्रकार और उमास्वाति को भाष्यकार बतलाने का प्रयत्न किया है। पर यह प्रयत्न जितना इतिहास-विरुद्ध है उतना ही तर्कबाधित भी है। उन्होने जब यह लिखा कि शुरू की कारिकाओ मे ऐसी कोई कारिका नही है जो उमास्वाति को सूत्रकार सूचित करती हो तब जान पड़ता है वे एकमात्र अपना मन्तव्य स्थापित करने की ओर इतने झुक गए कि जो अर्थ स्पष्ट है वह भी या तो उनके ध्यान में आया नही या उन्होने उसकी उपेक्षा कर दी। अन्य का रकाओं की कथा छोड़
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- पन्द्रह -
दें तो भी कारिकाएं २२ और ३१ इतनी स्पष्ट हैं कि जिनके उमास्वातिकर्तृक सूत्रसंग्रह या उमास्वातिकर्तृक मोक्षमार्ग शास्त्ररूप अर्थ में सन्देह को लेशमात्र अवकाश नहीं रहता।।
प० कैलाशचन्द्रजी ने अपने हिन्दी अर्थसहित तत्त्वार्थसूत्र की प्रस्तावना में तत्त्वार्थभाष्य की उमास्वातिकतकता तथा भाष्य के समय के बारे में जो विचार व्यक्त किए हैं उन्हे ध्यानपूर्वक देखने के बाद कोई तटस्थ इतिहासज्ञ उनको प्रमाणभूत नहीं मान सकता । पंडितजी को जहाँ कहीं भाष्य की स्वोपज्ञता या राजवातिक आदि मे भाष्य के उल्लेख की संभावना दीख पड़ी वहाँ उन्होने प्रायः सर्वत्र निराधार कल्पना के बल पर अन्य वृत्ति को मानकर उपस्थित ग्रन्थ को अर्वाचीन बतलाने का प्रयत्न किया है। इस विषय में पं० फूलचन्द्रजी आदि अन्य पंडित भी एक ही मार्ग के अनुगामी है।।
हिन्दी का पहला सस्करण समाप्त हो जाने पर इसकी निरन्तर बढती हुई मांग को देखकर जैन संस्कृति सशोधन मंडल, बनारस के मत्रो और मेरे मित्र पं० दलसुख मालवणिया दूसरा संस्करण प्रकाशित करने का विचार कर रहे थे । इसी बीच सहृदय श्री रिषभदासजी राका का उनसे परिचय हुआ। श्री रांकाजी ने यह सस्करण प्रकाशित करने का और यथासंभव कम मूल्य में सुलभ कराने का अपना विचार व्यक्त किया और उसका प्रबंध भी किया, एतदर्थ मै उनका कृतज्ञ हूँ।
इस हिन्दी तत्त्वार्थ के ही नही अपितु अपनी लिखो हई किसी भी गुजराती या हिन्दी पुस्तक-पुस्तिका या लेख के पुनः प्रकाशन में सीधे भाग लेने की मेरा रुचि बहुत समय से नहीं रही है । मैने यही सोच रखा है कि अभी तक जो कुछ सोचा और लिखा गया है वह यदि किसी भी दृष्ट से किसी संस्था या किन्हीं व्यक्तियों को उपयोगी जंचेगा तो वे उसके लिए जो कुछ करना होगा, करेगे। मै अब अपने लेख आदि मे क्यों उलझा रहूँ ? इस विचार के बाद मेरा जो जीवन या जो शक्ति अवशिष्ट है उसे मै आवश्यक नए चिन्तन आदि में लगाता रहा हूँ। ऐसी स्थिति मे हिन्दी तत्त्वार्थ के दूसरे संस्करण के प्रकाशन में विशेष रुचि लेना मेरे लिए संभव नहीं था । यदि यह भार मुझ पर ही रहता तो दूसरा संस्करण निकल ही न पाता। एतद्विषयक सारा दायित्व अपनी इच्छा और उत्साह से पं० श्री मालवणिया ने अपने ऊपर ले लिया और उसे अन्त तक भलीभांति निभाया भी। द्वितीय सस्करण के प्रकाशन के लिए
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सोलह
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जितना और जो कुछ साहित्य पढना पडा, समुचित परिवर्तन के लिए जो कुछ ऊहापोह करना पड़ा और अन्य व्यावहारिक बातों को सुलझाना पड़ा, यह सब श्री मालवणिया ने स्वयं स्फूर्ति से किया है । हम दोनों का जो सबन्ध है वह आभार मानने को प्रेरित नहीं करता । फिर भी इस बात का उल्लेख इसीलिए करता हूँ कि जिज्ञासु पाठक वस्तुस्थिति जान सके ।
प्रस्तुत तृतीय सस्करण की प्रस्तावना मे केवल अगस्त्य सिंह चूर्ण का तथा नयचक्र का निदेश बढा दिया गया है जो सूत्रभाष्य की एककर्तृकता को निद्ध में सहायक है ।
विवेचन में ध्यान ( ९२७ ) सूत्र की व्याख्या में भाष्यकार के उस मतं का टिप्पणी में निर्देश किया गया है जिसका अनुसरण किसी ने भी नही किया ।
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- सुखलाल
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विषयानुक्रम
-- प्रस्तावना -- १. तत्त्वार्थसूत्रकार उमास्वाति
१-२८ (क) वाचक उमास्वाति का समय ६, (ख) उमास्वाति की योग्यता १३, (ग) उमास्वाति की परम्परा १५, (घ)
उमास्वाति की जाति और जन्मस्थान २७ २. तत्त्वार्थ के व्याख्याकार
२८-४२ (क) उमास्वाति २८, (ख) गन्धहस्ती २९, (ग) सिद्धसेन ३४, (घ) हरिभद्र ३६, (ङ) यशोभद्र तथा यशोभद्र के शिष्य ३७, (च) मलयािर ३८, (छ) चिरंतनमुनि ३८, (ज) वाचक यशोविजय ३८, (झ) गणी यशोविजय ३९, (अ) पूज्यपाद ४०, (ट) भट्ट अकलङ्क ४१, (ठ) विद्यानन्द ४१, (ड) श्रुतसागर ४१, (ढ) विबुधसेन, योगीन्द्रदेव,
लक्ष्मीदेव, योगदेव और अभयनन्दसूरि आदि ४२ ३. तत्त्वार्थसूत्र
४२-५९ (क) प्रेरकसामग्री : १. आगमज्ञान का उत्तराधिकार ४२, २. सस्कृतभाषा ४२, ३. दर्शनान्तरों का प्रभाव ४३, ४. प्रतिभा ४३ (ख) रचना का उद्देश्य (ग) रचनाशैली (घ) विषयवर्णन : विषय का चुनाव ४६, विषय का विभाजन ४७, ज्ञानमीमांसा की सारभूत बातें ४७, तुलना ४८, ज्ञेयमीमांसा की सारभूत बाते ४९, तुलना ५०, चारित्रमोमांसा की सारभूत बातें ५३,
तूलना ५४ ४. तत्त्वार्थ की व्याख्याएँ
५९-७१ (क) भाष्य और सर्वार्थसिद्धि : १. सूत्रसख्या ६१,
४४
- सत्रह -
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६५
- अठारह - २ अर्थभेद ६१, ३. पाठान्तरविषयक भेद ६१, ४. यथाथता : ( क ) शैलीभेद ६१, ( ख ) अर्थविकास ६३, (ग) साम्प्रदायिकता ६४ (ख) दो वातिक (ग) दो वृत्तियाँ
६८ (घ) खण्डित वृत्ति
७१ (ङ) रत्नसिंह का टिप्पण परिशिष्ट
७२-७८ (क) प्रश्न ७२, (ख) प्रेमीजी का पत्र ७३, (ग) जुगल
किगारजो मुख्तार का पत्र ७४, (घ) मेरी विचारणा ७६ अध्ययन विषयक सूचनाएँ
७९-८३ तत्त्वार्थसूत्र का मूल पाठ (सुजुको ओहिरा)
८४-१०७ मूल सूत्र
१०९-१३८
- विवेचन -
१. ज्ञान मोक्ष के साधन
मोक्ष का स्वरूप १, साधनों का स्वरूप २, साधनों का
साहचर्य २, साहचर्य-नियम २ सम्यग्दर्शन का लक्षण सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति के हेतु
निश्चय और व्यवहार सम्यक्त्व ४, सम्यक्त्व के लिङ्ग ४,
हेतुभेद ४, उत्पत्ति-क्रम ५ तात्त्विक अर्थों का नाम-निर्देश निक्षेपों का नाम-निर्देश तत्त्वों को जानने के उपाय
__नय और प्रमाण का अन्तर ८ तत्त्वों के विस्तृत ज्ञान के लिए कुछ विचारणा द्वारों का निर्देश सम्यग्ज्ञान के भेद प्रमाण-चर्चा
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- उन्नीस - प्रमाण-विभाग १२, प्रमाण-लक्षण १२ मतिज्ञान के एकार्थक शब्द मतिज्ञान का स्वरूप मतिज्ञान के भेद
___ अवग्रह आदि उक्त चारों भेदों के लक्षण १५ अवग्रह आदि के भेद सामान्य रूप से अवग्रह आदि का विषय इन्द्रियों को ज्ञानोत्पत्ति-पद्धति-सम्बन्धी भिन्नता के कारण अवग्रह के अवान्तर भेद
दृष्टान्त २१ श्रुतज्ञान का स्वरूप और उसके भेद अवधिज्ञान के प्रकार और उनके स्वामी मनःपर्याय के भेद और उनका अन्तर अवधि और मनःपर्याय में अन्तर पाँचों ज्ञानों का ग्राह्य विषय एक आत्मा में एक साथ पाये जानेवाले ज्ञान विपर्ययज्ञान का निर्धारण और विपर्ययता के हेतु नय के भेद
नयो के निरूपण का भाव ३६, नयवाद को देशना और उसकी विशेषता ३६, सामान्य लक्षण ३८, विशेष भेदो का स्वरूप ३९, नैगमनय ४०, सग्रहनय ४०, व्यवहारनय ४१, ऋजुसूत्रनय ४२, शब्दनय ४२, समभिरूढ़नय ४३, एवंभूतनय ४४, शेष वक्तव्य ४४ ।।
२. जीव पाँच भाव, उनके भेद और उदाहरण
भावो का स्वरूप ४८, औपशमिक भाव के भेद ४९. क्षायिक भाव के भेद ४९, क्षायोपशमिक भाव के भेद ४२,
औदयिक भाव के भेद ४९, पारिणामिक भार के भेद ५० जीव का लक्षण उपयोग की विविधता जीवराशि के विभाग संसारी जीवों के भेद-प्रभेद
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- बीस - इन्द्रियों की संख्या, उनके भेद-प्रभेद और नाम-निर्देश
इन्द्रियो के नाम ५७ इन्द्रियों के ज्ञेय अर्थात् विषय इन्द्रियों के स्वामी अन्तराल गति सम्बन्धी योग आदि पाँच बाते
योग ६३, गति का नियम ६४. गति का प्रकार ६४, गति
का कालमान ६५, अनाहार का कालमान ६५ जन्म और योनि के भेद तथा उनके स्वामी
जन्म-भेद ६७, योनि-भेद ६७, जन्म के स्वामी ६९ शरीरों के विषय
शरीर के प्रकार तथा व्याख्या ७१, स्थूल-सूक्ष्म भाव ७१, आरम्भक या उपादान द्रव्य का परिमाण ७२, अन्तिम दो शरीरों का स्वभाव, कालमर्यादा और स्वामी ७३, स्वभाव ७३. कालमर्यादा ७३, स्वामी ७३, एक साथ लभ्य शरीरों की संख्या ७४, प्रयोजन ७५, जन्मसिद्धता
और कृत्रिमता ७६ वेद (लिंग) के प्रकार
विभाग ७८, विकार की तरतमता ७८ आयुष के प्रकार और उनके स्वामी
अधिकारी ८०
७७
७८
८२
३. अधोलोक-मध्यलोक नारकों का वर्णन
नरकावासों की संख्या ८५, लेश्या ८६, परिणाम ८६, शरीर ८६, वेदना ८६, विक्रिया ८६, नारको को स्थिति ८७, गति ८७, आगति ८७, द्वीप-समुद्र आदि की अव
स्थिति ८८ मध्यलोक
द्वीप और समुद्र ८९, व्यास ८९, रचना ९.०, आकृति ९०, जम्बूद्वीप के क्षेत्र और प्रधान पर्वत ९०, धातकीखण्ड और पुष्कगर्धद्वोप ९१, मनुष्यजाति का क्षेत्र और प्रकार ९२, कर्मभूमियाँ ९३, मनुष्य और तियञ्चों की स्थिति ९३
८८
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१०४
- इक्कीस -
४. देवलोक देवों के प्रकार तृतीय निकाय को लेश्या चार निकायों के भेद चतुनिकाय के अवान्तर भेद इन्द्रों की संख्या प्रथम दो निकायों में लेश्या देवों का कामसुख चतुनिकाय के देवों के भेद
भवनपति १००, व्यन्तरों के भेद-प्रभेद १०१, पञ्चविध ज्योतिष्क १०१, चरज्योतिष्क १०२, कालविभाग १०२,
स्थिरज्योतिष्क १०३, वैमानिक देव १०३ देवों की उत्तरोत्तर अधिकता और हीनता विषयक बातें
स्थिति १०४, प्रभाव १०४, सुख और द्युति १०५, लेश्याविशुद्धि १०५, इन्द्रियविषय १०५, अवधिविषय १०५, गति १०५, शरीर १०६, परिग्रह १०६, अभिमान १०६, उच्छ्वास १०६, आहार १०६, वेदना १०७, उपपात
१०७, अनुभाव १०७ वैमानिकों में लेश्या कल्पों की परिगणना लोकान्तिक देव अनुत्तर विमानों के देवों को विशेषता तिर्यञ्चों का स्वरूप अधिकार-सूत्र भवनपतिनिकाय की उत्कृष्ट स्थिति वैमानिकों को उत्कृष्ट स्थिति वैमानिकों की जघन्य स्थिति नारकों को जघन्य स्थिति भवनपतियों को जघन्य स्थिति व्यन्तरों की स्थिति ज्योतिष्कों की स्थिति
५. अजीव अजीव के भेद
१०७ १०७ १०८
१०९
११०
११०
११२
११३
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- बाईस -
११५
११९
१२३ १२५ १२६ १२६ १२८ १३१ १३१
१३२
१
الله
الله
الله
मूल द्रव्य मूल द्रव्यों का साधर्म्य और वैधर्म्य प्रदेशों की संख्या द्रव्यों का स्थितिक्षेत्र कार्य द्वारा धर्म, अधर्म और आकाश के लक्षण कार्य द्वारा पुद्गल का लक्षण कार्य द्वारा जीव का लक्षण कार्य द्वारा काल का लक्षण पुदगल के असाधारण पर्याय पुदगल के मुख्य प्रकार स्कन्ध और अणु की उत्पत्ति के कारण अचाक्षुष स्कन्ध के चाक्षुष बनने में हेतु 'सत' की व्याख्या विरोध-परिहार एवं परिणामिनित्यत्व का स्वरूप व्याख्यान्तर से सत् का नित्यत्व अनेकान्त स्वरूप का समर्थन व्याख्यान्तर पौद्गलिक बन्ध के हेतु बन्ध के सामान्य विधान के अपवाद परिणाम का स्वरूप द्रव्य का लक्षण काल तथा उसके पर्याय गुण का स्वरूप परिणाम का स्वरूप परिणाम के भेद तथा आश्रयविभाग
६. आत्रव योग अर्थात् आस्रव का स्वरूप योग के भेद और उनका कार्यभेद स्वामिभेद से योग का फलभेद साम्परायिक कर्मास्त्रव के भेद
पच्चीस क्रियाओं के नाम और लक्षण १५१ बन्ध का कारण समान होने पर भी परिणामभेद से कर्मबन्ध
में विशेषता
or or or or or orroworooronorror
१३८
१४८ १४९ १५०
१५३
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१५४
१५६
- तेईस - अधिकरण के भेद आठ प्रकार के साम्परायिक कर्मों में से प्रत्येक के भिन्नभिन्न बन्धहेतु
ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय कर्मो के बन्धहेतु १५८, असातावेदनीय कर्म के बन्धहेतु १५९, सातावेदनीय कर्म के बन्धहेतु १६०, दर्शनमोहनीय कर्म के बन्धहेतु १६०, चारित्रमोहनीय कर्म के बन्धहेतु १६१, नरक-आयु कर्म के बन्धहेतु १६१, तिर्यञ्च-आयु कर्म के बन्धहेतु १६१, मनुष्य-आयु कर्म के बन्धहेतु १६१, उक्त तीनों आयु कर्मों के सामान्य बन्धहेतु १६१, देव-आयु कर्म के बन्धहेतु ५६२, अशुभ एवं शुभ नामकर्म के बन्धहेतु १६२, तीर्थंकर नामकर्म के बन्धहेतु १६२, नीच गोत्रकर्म के बन्धहेतु १६३, उच्च गोत्रकर्म के बन्धहेतु १६३, अन्तराय कर्म के बन्धहेतु १६३, सांपरायिक कर्मों के आस्रव के विषय में विशेष वक्तव्य १६३
७. व्रत व्रत का स्वरूप व्रत के भेद व्रतों की भावनाएँ
भावनाओं का स्पष्टीकरण १६९ कई अन्य भावनाएं हिंसा का स्वरूप असत्य का स्वरूप चोरी का स्वरूप अब्रह्म का स्वरूप परिग्रह का स्वरूप यथार्थ व्रती की प्राथमिक योग्यता व्रती के भेद अगारी व्रती
पाँच अणुव्रत १८१, तीन गुणव्रत १८२, चार शिक्षाव्रत
१८२, संलेखना १८२ सम्यग्दर्शन के अतिचार
१६६ १६८ १६८
१७० १७२ १७६ १७७ १७७ १७८
१७२
१८० १८०
१८३
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१८५
१९०
१९२ १९३
- चौबीस - व्रत व शील के अतिचारों की संख्या तथा नाम-निर्देश
अहिंसावत के अतिचार १८७, सत्यव्रत के अतिचार १८७, अस्तेयव्रत के अतिचार १८७, ब्रह्मचर्यव्रत के अतिचार १८८, अपरिग्रहवत के अतिचार १८८, दिग्विरमणव्रत के अतिचार १८८, देशावकाशिकव्रत के अतिचार १८९, अनर्थदंडविरमणव्रत के अतिचार १८९, सामायिकव्रत के अतिचार १८९, पौषधव्रत के अतिचार १८९, भोगोपभोगवत के अतिचार १९०, अतिथिसंविभागवत के
अतिचार १९०, संलेखनाव्रत के अतिचार १९० दान तथा उसकी विशेषता
८.बन्ध बन्धहेतुओं का निर्देश बन्धहेतओं को व्याख्या
मिथ्यात्व १९३, अविरति, प्रमाद १९३, कषाय, योग १९४ बन्ध का स्वरूप बन्ध के प्रकार मूलप्रकृति-भेदों का नामनिर्देश उत्तरप्रकृति-भेदों की संख्या और नामनिर्देश
ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्म की प्रकृतियाँ १९७, वेदनीय कर्म की प्रकृतियाँ १९८, दर्शनमोहनीय कर्म की
प्रकृतियाँ १९८ चारित्रमोहनीय कर्म को पच्चीस प्रकृतियां
सोलह कषाय १९८, नौ नोकषाय १९९, आयुष्कर्म के चार
प्रकार १९९ नामकर्म की बयालीस प्रकृतियाँ
चौदह पिण्डप्रकृतियाँ १९९, सदशक और स्थावरदशक १९९, आठ प्रत्येकप्रकृतियाँ २००, गोत्रकर्म की दो
प्रकृतियाँ २००, अन्तरायकर्म की पाँच प्रकृतियाँ २०० स्थितिबन्ध अनुभावबन्ध
अनुभाव और उसका बन्ध २०२, अनुभाव का फल २०२,
फलोदय के बाद मुक्त कर्म की दशा २०३ प्रदेशबन्ध
१९४ १९४ १९५
१९८
२०१ २०१
२०३
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२०४
- पच्चीस - पुण्य और पाप प्रकृतियाँ
पुण्यरूप में प्रसिद्ध ४२ प्रकृतियाँ २०५, पापरूप में प्रसिद्ध ८२ प्रकृतियां २०५
९. संवर-निर्जरा संवर का स्वरूप संवर के उपाय गुप्ति का स्वरूप समिति के भेद धर्म के भेद
क्षमा २०८, मार्दव २०९, आर्जव २०९, शौच २१०, सत्य २१०, संयम २१०, तप २१०, त्याग २१०, आकिंचन्य
२१०, ब्रह्मचर्य २१० । अनुप्रेक्षा के भेद
अनित्यानुप्रेक्षा २११, अशरणानुप्रेक्षा २११, संसारानुप्रेक्षा २११, एकत्वानुप्रेक्षा २१२, अन्यत्वानुप्रेक्षा २१२, अशुचित्वानुप्रेक्षा २१२, आस्रवानुप्रेक्षा २१२, संवरानुप्रेक्षा २१२, निर्जरानुप्रेक्षा २१२, लोकानुप्रेक्षा २१३, बोधिदुर्लभत्वानुप्रेक्षा २१३, धर्मस्वाख्यातत्वानुप्रेक्षा २१३
२०६ २०६ २०७ २०७ २०८
२११
परीषह
२१३
२१७
लक्षण २१४, संख्या २१४, अधिकारी-भेद २१६, कारण
निर्देश २१६, एक साथ एक जीव में संभाव्य परीषह २१७ चारित्र के भेद
सामायिकचारित्र २१७, छेदोपस्थापनचारित्र २१७, परिहारविशुद्धिचारित्र २१८, सूक्ष्मसंपरायचारित्र २१८,
यथाख्यातचारित्र २१८ तप
बाह्य तप २१९, आभ्यन्तर तप २१९ प्रायश्चित्त आदि आभ्यन्तर तपों के भेद प्रायश्चित्त के भेद विनय के भेद वैयावृत्त्य के भेद स्वाध्याय के भेद
२१८
२१९
२१९
२२०
२२०
२२१
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- छब्बीस -
व्युत्सर्ग के भेद ध्यान
२२१ २२२
२२४ २२५ २२५ २२६ २२६
२२७
२३०
२३१
२३२
अधिकारी २२२, स्वरूप २२३, काल का परिमाण २२३ ध्यान के भेद और उनका फल चारों घ्यानों के भेद और अधिकारी आर्तध्यान रौद्रध्यान धर्मध्यान
भेद २२६, स्वामी २२७ शुक्लध्यान
स्वामी २२८, भेद २२८, पृथक्त्ववितर्क-सविचार २२९, एकत्ववितर्क-निर्विचार २२९, सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती २३०,
समुच्छिन्नक्रियानिवृत्ति २३० सम्यग्दष्टियों की कर्मनिर्जरा का तरतमभाव निग्रन्थ के भेद निर्ग्रन्थों की विशेषता-द्योतक आठ बातें
संयम २३२, श्रुत २३२, प्रतिसेवना (विराधना ) २३३. तीर्थ ( शासन ) २३३, लिङ्ग २३३, लेश्या २३३, उपपात (उत्पत्तिस्थान ) २३३, स्थान (संयम के स्थान -प्रकार ) २३४
१०. मोक्ष कैवल्य की उत्पत्ति के हेतु कर्म के आत्यन्तिक क्षय के कारण और मोक्ष का स्वरूप अन्य कारण मुक्त जोव का मोक्ष के बाद तुरन्त ऊर्ध्वगमन सिध्यमान गति के हेतु सिद्धों की विशेषता-द्योतक बारह बाते
क्षेत्र २३८, काल २३८, गति २३९, लिङ्ग २३९, तीर्थ २३९, चारित्र २३९, प्रत्येकबुद्धबोधित २३९, ज्ञान २३९, अवगाहना २४०, अन्तर २४०, संख्या २४०,
अल्पबहुत्व २४० अनुक्रमणिका
२३५
२३५
२३६
२३७
२३७ २३८
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प्रस्तावना
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१. तत्त्वार्थसूत्रकार उमास्वाति
वंश दो प्रकार का होता है - जन्म-वंश और विद्या-वंश ।' जब किसी के जन्म के इतिहास पर विचार करना हो तब रक्त से सम्बद्ध उसके पिता, पितामह, प्रपितामह, पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र आदि परम्परा को ध्यान में रखना होता है । जब किसी के विद्या ( शास्त्र ) का इतिहास जानना हो तब उस शास्त्र रचयिता के साथ विद्या से सम्बद्ध गुरु- प्रगुरु तथा शिष्यप्रशिष्य आदि गुरु-शिष्य परम्परा का विचार करना आवश्यक होता है ।
'तत्त्वार्थ' भारतीय दार्शनिक विद्या की जैन शाखा का एक शास्त्र है, अतः इसका इतिहास विद्या-वश की परम्परा में आता है । तत्त्वार्थ मे उसके रचयिता ने जिस विद्या का समावेश किया है उसे उन्होंने गुरुपरम्परा से प्राप्त किया है और उसे विशेष उपयोगी बनाने के उद्देश्य से अपनी दृष्टि के अनुसार अमुक रूप में व्यवस्थित किया है। उन्होंने उस विद्या का तत्त्वार्थ में जो स्वरूप व्यवस्थित किया, वह बाद में ज्यों का त्यों नहीं रहा । इसके अध्येताओं एवं टीकाकारों ने अपनी-अपनी शक्ति के अनुसार अपने-अपने समय में प्रचलित विचारधाराओं से बहुत-कुछ लेकर उस विद्या में सुधार, वृद्धि, पूर्ति और विकास किया है । अतएव प्रस्तुत 'प्रस्तावना' में तत्त्वार्थं और इसके रचयिता के अतिरिक्त वंश - लता के रूप में विस्तीर्ण टीकाओ तथा टीकाकारों का भी परिचय कराना आवश्यक है ।
तत्त्वार्थाधिगम-शास्त्र के प्रणेता जैनों के सभी सम्प्रदायों में प्रारम्भ से ही समानरूप में मान्य है । दिगम्बर उन्हें अपनी शाखा का और श्वेताम्बर अपनी शाखा का मानते आए है । दिगम्बर परम्परा में ये 'उमास्वामी' और 'उमास्वाति' नामों से प्रसिद्ध हैं, श्वेताम्बर परम्परा
१. ये दोनों वंश आर्य-परम्परा और आर्य - साहित्य मे हजारों वर्षों से प्रसिद्ध है । 'जन्म - वंश ' योनि सम्बन्ध की प्रधानता के कारण गृहस्थाश्रम - सापेक्ष है और 'विद्या-वंश' विद्या-सम्बन्ध की प्रधानता के कारण गुरुपरम्परा - सापेक्ष है । इन दोनों वंशों का पाणिनि के व्याकरणसूत्र मे स्पष्ट उल्लेख है, यथा 'विद्या- योनि-सम्बन्धेभ्यो वुञ्ज' ४. ३. ७७ । इसलिए इन दो वंशों की कल्पना पाणिनि से भी बहुत प्राचीन है ।
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२ -
में केवल 'उमास्वाति' नाम से । इस समय दिगम्बर परम्परा में कोई-कोई तत्त्वार्थशास्त्र-प्रणेता उमास्वाति को कुन्दकुन्द का शिष्य' समझते हैं और श्वेताम्बरों में थोड़ी-बहुत ऐसी मान्यता दिखाई देती है कि प्रज्ञापनासूत्र के रचयिता श्यामाचार्य के गुरु हारितगोत्रीय 'स्वाति' ही तत्त्वार्थसूत्र के प्रणेता उमास्वाति है। ये दोनों मान्यताएँ प्रमाणभूत आधार के बिना बाद में प्रचलित हुई जान पड़ती हैं, क्योकि दसवी शताब्दी से पहले के किसी भी विश्वस्त दिगम्बर ग्रन्य, पट्टावली या शिलालेख आदि में ऐसा उल्लेख दिखाई नहीं देता जिसमे उमास्वाति को तत्त्वार्थसूत्र का रचयिता कहा गया हो और उन्ही उमास्वाति को कुन्दकुन्द का शिष्य भी कहा गया हो। इस आशय के जो उल्लेख दिगम्बर-साहित्य में अब तक देखने मे आए है, वे सभी दसवीं-ग्यारहवी शताब्दी के बाद
१. देखें-स्वामी समन्तभद्र, पृ० १४४ तथा आगे।
२. आर्यमहागिरेस्तु शिष्यौ बहुल-बलिस्सही यमल-भ्रातरौ तत्र बलिस्सहस्य शिष्यः सातिः, तत्त्वार्थादयो ग्रन्थास्तु तत्कृता एव सम्भाव्यन्ते । तच्छिष्य श्यामाचार्य. प्रज्ञापनाकृत् श्रीवीरात षट्सप्तत्यधिकशतत्रये ( ३७६ ) स्वर्गभाक् ।
-धर्मसागरीय पट्टावली । ३. श्रवणबेलगोला के जिन-जिन शिलालेखो मे उमास्वाति को तत्त्वार्थरचयिता और कुन्दकुन्द का शिष्य कहा गया है, वे सभी शिलालेख विक्रम की ग्यारहवी शताब्दी के बाद के है । देखे–माणिकचन्द्र दि० जैन ग्रन्थमाला द्वारा प्रकाशित 'जैन शिलालेख-संग्रह' मे नं० ४०, ४२, ४३, ४५, ५० और १०८ के शिलालेख ।
नन्दिसंघ की पट्टावली भी बहुत अपूर्ण तथा ऐतिहासिक तथ्य-विहीन होने से उसे आधार नही माना जा सकता, ऐसा पं० जुगलकिशोरजी मुख्तार ने अपनी परीक्षा मे सिद्ध किया है । देखें-स्वामी समन्तभद्र, पृष्ठ १४४ और आगे। इससे इस पट्टावली तथा ऐसी ही अन्य पट्टावलियों में भी उपलब्ध उल्लेखो को अन्य विश्वस्त प्रमाणों के आधार के अभाव में ऐतिहासिक नही माना जा सकता।
तत्त्वार्थशास्त्रकर्तारं गृध्रपिच्छोपलक्षितम् ।
वन्दे गणीन्द्रसंजातमुमास्वामिमुनीश्वरम् ।। यह तथा इसी आशय के अन्य गद्य-पद्यमय दिगम्बर अवतरण किसी भी विश्वस्त तथा प्राचीन आधार से रहित है, अतः इन्हे भी अन्तिम आधार के रूप मे नही रखा जा सकता ।
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के हैं और उनका कोई भी प्राचीन विश्वस्त आधार दिखाई नही देता। विचारणीय बात तो यह है कि तत्त्वार्थसूत्र के पांचवी से नवीं शताब्दी तक के प्रसिद्ध और महान् दिगम्बर व्याख्याकारो ने अपनी व्याख्याओं में कही भी स्पष्ट रूप से तत्त्वार्थसूत्र को 'उमास्वाति' प्रणीत नही कहा है और न इन उमास्वाति का दिगम्बर, श्वेताम्बर या तटस्थ रूप से उल्लेख किया है। हाँ, श्वेताम्बर साहित्य मे विक्रम की आठवी शताब्दी के ग्रन्थो मे तत्त्वार्थसूत्र के वाचक उमास्वाति-रचित होने के विश्वसनीय उल्लेख मिलते हैं और इन ग्रन्थकारो की दृष्टि में उमास्वाति श्वेताम्बर थे, ऐसा मालूम होता है; परन्तु १६-१७वी शताब्दी के घर्मसागर की तपागच्छ की 'पट्टावली' को यदि अलग कर दिया जाय तो किसी भी श्वेताम्बर ग्रन्थ या पट्टावली आदि में ऐसा निर्देश तक नही पाया जाता कि तत्त्वार्थसूत्र-प्रणेता वाचक उमास्वाति श्यामाचार्य के गुरु थे ।
वाचक उमास्वाति की स्व-रचित अपने कुल तथा गुरु-परम्परा को दर्शानेवाली, लेशमात्र सदेह से रहित तत्त्वार्थसूत्र की प्रशस्ति के विद्यमान होते हुए भी इतनी भ्रान्ति कैसे प्रचलित हई, यह आश्चर्य की बात है । परन्तु जब पूर्वकालीन साम्प्रदायिक व्यामोह और ऐतिहासिक दृष्टि के अभाव की ओर ध्यान जाता है तब यह समस्या हल हो जाती है। वा० उमास्वाति के इतिहास-विषयक उनकी अपनी लिखी हुई छोटीसी प्रशस्ति ही एक सच्चा साधन है। उनके नाम के साथ जोड़ी हुई अन्य बहुत-सी घटनाए3 दोनो सम्प्रदायो की परम्पराओं मे चली आ रही है, परन्तु परीक्षणीय होने से अभी उन सबको अक्षरशः सही नहीं माना जा सकता । उनकी वह सक्षिप्त प्रशस्ति इस प्रकार है :
वाचकमुख्यस्य शिवश्रियः प्रकाशयशसः प्रशिष्येण । शिष्येण घोषनन्दिक्षमणस्यैकादशाङ्गविदः॥१॥ वाचनया च महावाचकक्षमणमुण्डपादशिष्यस्य । शिष्येण वाचकाचार्यमूलनाम्नः प्रथितकीर्तेः॥२॥ १. विशेष स्पष्टीकरण के लिए इसी प्रस्तावना का परिशिष्ट द्रष्टव्य है । २. देखें-प्रस्तुत प्रस्तावना मे पृ० १३ की टिप्पणी २ ।
३. जैसे कि दिगम्बरों में गृध्रपिच्छ आदि तथा श्वेताम्बरो मे पाच सौ ग्रन्थों के रचयिता आदि ।
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४
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न्यग्रोधिकाप्रसूतेन विहरता पुरवरे कुसुमनाम्नि । कौभीषणिना स्वातितनयेन वात्सीसुतेनाय॑म् ॥ ३॥ अर्हदवचनं सम्यग्गुरुक्रमेणागतं समुपधार्य । दुःखार्त च दुरागमविहतमति लोकमवलोक्य ॥४॥ इदमुच्चै गरवाचकेन सत्त्वानुकम्पया दृब्धम् । तत्त्वार्थाधिगमाख्यं स्पष्टमुमास्वातिना शास्त्रम् ॥ ५ ॥ यस्तत्त्वाधिगमाख्यं ज्ञास्यति च करिष्यते च तत्रोक्तम्। सोऽव्याबाधसुखाख्यं प्राप्स्यत्यचिरेण परमार्थम् ॥ ६ ॥ इसका सार इस प्रकार है
"जिनके दोक्षागुरु ग्यारह अंग के धारक 'घोषनन्दि' क्षमण थे और प्रगुरु वाचकमुख्य 'शिवश्री' थे; वाचना ( विद्याग्रहण ) की दृष्टि से जिसके गुरु 'मूल' नामक वाचकाचार्य और प्रगुरु महावाचक 'मुण्डपाद' थे; जो गोत्र से 'कौभीषणि' थे; जो 'स्वाति' पिता और 'वात्सी' माता के पुत्र थे; जिनका जन्म 'न्यग्रोधिका' में हआ था और जो 'उच्चनागर'१
१. 'उच्चै गर' शाखा का प्राकृत नाम 'उच्चानागर' मिलता है । यह शाखा किसी ग्राम या शहर के नाम पर प्रसिद्ध हुई होगी, यह तो स्पष्ट दीखता है। परन्तु यह ग्राम कौन-सा था, यह निश्चित करना कठिन है। भारत के अनेक भागों मे 'नगर' नाम के या अन्त मे 'नगर' शब्दवाले अनेक शहर तथा ग्राम है । 'बडनगर' गुजरात का पुराना तथा प्रसिद्ध नगर है। बड का अर्थ मोटा (विशाल) और मोटा का अर्थ कदाचित् ऊँचा भी होता है । लेकिन गुजरात में बडनगर नाम भी पूर्वदेश के उस अथवा उस जैसे नाम के शहर से लिया गया होगा, ऐसी भी विद्वानो की कल्पना है। इससे उच्चनागर शाखा का बडनगर के साथ ही सम्बन्ध है, यह जोर देकर नही कहा जा सकता । इसके अतिरिक्त जब उच्चनागर शाखा उत्पन्न हुई, उस काल मे बडनगर था या नही और था तो उसके साथ जैनो का कितना सम्बन्ध था, यह भी विचारणीय है। उच्चनागर शाखा के उद्भव के समय जैनाचार्यों का मुख्य विहार गंगा-यमुना की तरफ होने के प्रमाण मिलते है । अत. बड़नगर के साथ उच्चनागर शाखा के सम्बन्ध की कल्पना सबल नही रहती । इस विषय मे कनिघम का कहना है कि यह भौगोलिक नाम उत्तरपश्चिम प्रान्त के आधुनिक बुलन्दशहर के अन्तर्गत 'उच्चनगर' नाम के किले के साथ मेल खाता है।
-आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया रिपोर्ट, भाग १४, पृ० १४७ ।
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शाखा के थे; उन उमास्वाति वाचक ने गुरु-परम्परा से प्राप्त श्रेष्ठ आहेतउपदेश को भली प्रकार धारण करके तथा तुच्छ शास्त्रों द्वारा हतबद्धि दु.खित लोक को देखकर प्राणियों की अनुकम्पा से प्रेरित होकर यह 'तत्त्वार्थाधिगम' नाम का स्पष्ट शास्त्र विहार करते हुए 'कुसुमपूर' नामक महानगर में रचा है। जो इस तत्त्वार्थशास्त्र को जानेगा और उसके कथनानुसार आचरण करेगा, वह अव्याबाधसुख नामक परमार्थ मोक्ष को शीघ्र प्राप्त होगा।"
इस प्रशस्ति में ऐतिहासिक घटना की द्योतक मुख्य छ: बातें हैं१. दीक्षागुरु तथा दीक्षाप्रगुरु का नाम और दीक्षागुरु की योग्यता, २. विद्यागुरु तथा विद्याप्रगुरु का नाम, ३. गोत्र, पिता तथा माता का नाम, ४. जन्मस्थान तथा ग्रन्थरचना के स्थान का नाम, ५ शाखा तथा पदवी की सूचना तथा ६. ग्रन्थकार तथा ग्रन्थ का नाम ।
___ यह मानने का कोई कारण नहीं कि यह प्रशस्ति जो कि इस समय भाष्य के अन्त में उपलब्ध होती है स्वयं उमास्वाति की रची हई नहीं है । डा. हर्मन जैकोबी भी इस प्रशस्ति को उमास्वाति की ही मानते हैं और यह उन्हीं के तत्त्वार्थ के जर्मन अनुवाद की भूमिका से स्पष्ट है। अतः इसमें जिस घटना का उल्लेख है उसे ही यथार्थ मानकर वा० उमास्वाति विषयक दिगम्बर-श्वेताम्बर परम्परा में चली आई मान्यताओं का स्पष्टीकरण करना इस समय राजमार्ग है।
ऊपर निर्दिष्ट छः बातों में से दिगम्बरसम्मत पहली और दूसरी बात कुन्दकुन्द के साथ उमास्वाति के सम्बन्ध को असत्य सिद्ध करती है। कुन्दकुन्द के उपलब्ध अनेक नामो मे से एक भी नाम ऐसा नही जो उमास्वाति द्वारा दर्शाए हुए अपने विद्यागुरु तथा दीक्षागुरु के नामो मे आता हो । इससे इस कल्पना को कोई स्थान नही कि कुन्दकुन्द का उमास्वाति के साथ विद्या अथवा दीक्षा-विषय मे गुरुशिष्य-भावात्मक सम्बन्ध था। उक्त प्रशस्ति में उमास्वाति के वाचक-परम्परा में तथा उच्चनागर शाखा मे होने का स्पष्ट कथन है, जब कि दिगम्बर मान्यता कुन्दकुन्द के नन्दि
नागरोत्पत्ति के निबन्ध मे रा० रा० मानशंकर 'नागर' शब्द का सम्बन्ध दिखलाते हुए नगर नाम के अनेक ग्रामों का उल्लेख करते है। इसके लिए छठी गुजराती साहित्यपरिषद् की रिपोर्ट द्रष्टव्य है।
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संघ में होने की है। उच्चनागर नाम की कोई शाखा दिगम्बर सम्प्रदाय में हई हो, ऐसा आज भी ज्ञात नही है। दिगम्बर परम्परा में कून्दकुन्द के शिष्यरूप में मान्य उमास्वाति यदि वास्तव में ऐतिहासिक व्यक्ति हों तो भी उन्होंने तत्त्वार्थाधिगम शास्त्र लिखा था, यह मान्यता विश्वस्त आधार से रहित होने से बाद में कल्पित मालूम होती है ।
उक्त बातों में से तीसरी बात श्यामाचार्य के साथ उमास्वाति के सम्बन्ध की श्वेताम्बरीय सम्भावना को असत्य सिद्ध करती है, क्योंकि वाचक उमास्वाति अपने को कौभीषणि कहकर अपना गोत्र 'कौभीषण' बताते हैं, जब कि श्यामाचार्य के गुरुरूप से पट्टावली में उल्लिखित 'स्वाति' को 'हारित' गोत्र का कहा गया है । इसके अतिरिक्त तत्त्वार्थप्रणेता उमास्वाति को उक्त प्रशस्ति स्पष्ट रूप से 'वाचक' कहती है, जब कि श्यामाचार्य या उनके गुरुरूप मे निर्दिष्ट 'स्वाति' नाम के साथ वाचक विशेषण पट्टावली में दिखाई नहीं देता। इस प्रकार उक्त प्रशस्ति एक ओर दिगम्बर और श्वेताम्बर परम्पराओ की भ्रान्त कल्पनाओं का निरसन करती है और दूसरी ओर वह ग्रन्थकार का सक्षिप्त किन्तु यथार्थ इतिहास प्रस्तुत करती है।
(क) वाचक उमास्वाति का समय वाचक उमास्वाति के समय के सम्बन्ध में उक्त प्रशस्ति में कुछ भी निर्देश नहीं है । समय का ठीक निर्धारण करनेवाला दूसरा भी कोई साधन अब तक प्राप्त नही हआ । ऐसी स्थिति में इस विषय मे कुछ विचार करने के लिए यहाँ तोन वातो का उपयोग किया जाता है--१. शाखानिर्देश, २. प्राचीन से प्राचीन टीकाकारों का समय और ३. अन्य दार्शनिक ग्रन्थों की तुलना।
१. प्रशस्ति में जिस 'उच्चै गरशाखा' का निर्देश है वह कानिकलो,
१. देखें-स्वामी समन्तभद्र, पृ० १५८ से आगे तथा प्रस्तुत प्रस्तावना का परिशिष्ट ।
२. देखे-प्रस्तुत प्रस्तावना मे पृ० २ की टिप्पणी ३ तथा परिशिष्ट । २. हारियगुत्तं साई च वंदिमो हारियं च सामज्जं ।। २६ ॥
-नन्दिसूत्र की स्थविरावली, पृ० ४९ ।
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यह निश्चयपूर्वक कहना कठिन है, तो भी कल्पसूत्र की स्थविरावली में 'उच्चानागरी' शाखा का उल्लेख है।' यह शाखा आर्य 'शान्तिश्रेणिक' से निकली है । आर्य शान्तिश्रेणिक आर्य 'सुहस्ति' से चौथी पीढ़ी में आते हैं। आर्य सुहस्ति के शिष्य सुस्थित-सुप्रतिबुद्ध और उनके शिष्य इन्द्रदिन्न, इन्द्रदिन्न के शिष्य दिन्न और दिन के शिष्य शांतिश्रेणिक हैं। यह शान्तिश्रेणिक आर्य वज्र के गुरु आर्य सिंहगिरि के गुरुभाई थे, इसलिए वे आर्य वज्र की पहली पीढ़ी में आते हैं। आर्य सुहस्ति का स्वर्गवास-काल वीरात् २९१ और वन का स्वर्गवास काल वीरात् ५८४ उल्लिखित है। अर्थात् सुहस्ति के स्वर्गवास-काल से वज्र के स्वर्गवास-काल तक २९३ वर्ष के भीतर पाँच पीढ़ियाँ उपलब्ध होती हैं। सरसरी तौर पर एक-एक पीढी का काल साठ वर्ष का मान लेने पर सुहस्ति से चौथी पीढी में होनेवाले शांतिश्रेणिक का प्रारम्भकाल वीरात् ४७१ आता है। इस समय के मध्य मे या कुछ आगे-पीछे शातिश्रेणिक से उच्चनागरी शाखा निकली होगी । वाचक उमास्वाति शांतिश्रेणिक की ही उच्चनागर शाखा में हुए है, ऐसा मानकर और इस शाखा के निकलने का जो समय अनुमानित किया गया है उसे स्वीकार करके यदि आगे बढ़ा जाए तो भी यह कहना कठिन है कि वा० उमास्वाति इस शाखा के निकलने के बाद कब हुए है। क्योंकि प्रशस्ति में अपने दीक्षागुरु और विद्यागुरु के जो नाम उन्होंने दिए है, उनमें से एक भी नाम कल्पसूत्र की स्थविरावली में था वैसी किसी दूसरी पट्टावली में नहीं मिलता। अतः उमास्वाति के समय के संबंध में स्थविरावली के आधार पर अधिक से अधिक इतना ही कहा जा सकता है कि वे वीरात् ४७१ अर्थात् विक्रम संवत् के प्रारम्भ के लगभग किसी समय हुए है, उससे पहले नही, इससे अधिक परिचय अभी अन्धकार में है।
२. इस अंधकार में एक अस्पष्ट प्रकाश-किरण तत्त्वार्थसूत्र के प्राचीनटीकाकार के समय सम्बन्धी उपलब्ध है, जो उमास्वाति के समय की अनिश्चित उत्तरसीमा को मर्यादित करती है। नयचक्र और उसकी टीका मे तत्त्वार्थसूत्र और भाष्य के वाक्यों को उद्धृत किया गया है
१. थेरेहितो णं अज्जसंतिसेणिएहितो माढरसगुहितो एत्थ रणं उच्चानागरी साहा निग्गया ।-कल्पसूत्रस्थविरावली, पृ० ५५ । आर्य शान्तिश्रेणिक की पूर्व परम्परा जानने के लिए इससे आगे के कल्पसूत्र के पृष्ठ देखने चाहिए।
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-पृ० १९,११४, ५९६ । नयचक्र का समय परंपरा-मान्य वि० ४८४ श्री जम्बूविजयजी ने स्वीकृत किया है-नयचक्र का प्राक्कथन प० २३, प्रस्तावना पृ० ६० । स्वोपज्ञ-भाष्य को यदि अलग रखा जाए तो तत्त्वार्थसूत्र पर उपलब्ध सीधी टीकाओ में आचार्य पूज्यपाद की सर्वार्थसिद्धि सबसे प्राचीन है। पूज्यपाद का समय विद्वानों ने विक्रम की पाँचवी-छठी शताब्दी निर्धारित किया है। अतः कहा जा सकता है कि सूत्रकार वा० उमास्वाति विक्रम की पांचवी शताब्दी से पूर्व किसी समय हुए हैं ।
उक्त विचारसरणी के अनुसार वा० उमास्वाति का प्राचीन से प्राचीन समय विक्रम की पहली शताब्दी और अर्वाचीन से अर्वाचीन समय तीसरी-चौथी शताब्दी निश्चित होता है। इन तीन-चार सौ वर्षों के बीच उमास्वाति का निश्चित समय शोधने का काम शेष रह जाता है ।
३. समय-सम्बन्धी इस सम्भावना में और भावी शोध में उपयोगी पड़नेवाली कुछ विशेष बातें भी है जो उनके तत्त्वार्थसूत्र और भाष्य के साथ दूसरे दर्शनों तथा जैन-आगम की तुलना में से निष्पन्न होती हैं। उन्हें भी यहाँ दिया जाता है। ऐसी बात नही है कि ये बातें सीधे तौर पर समय का ठीक निर्णय करने में इस समय सहायक हों, फिर भी यदि दूसरे ठोस प्रमाण मिल जाएँ तो इन बातों का महत्त्वपूर्ण उपयोग होने में कोई सन्देह नहीं है। इस समय तो ये बातें भी हमें उमास्वाति के उपर्युक्त अनुमानित समय की ओर ही ले जाती है।।
(क) जैन-आगम 'उत्तराध्ययन' कणाद के सूत्रो से पूर्व का होना चाहिए, ऐसी सम्भावना परंपरा-दृष्टि से और अन्य दृष्टि से भी होती है। कणाद के सूत्र प्रायः ईस्वी पूर्व की पहली शताब्दी के माने जाते है। जैन आगमों के आधार पर रचित तत्त्वार्थसूत्र में तीन सत्र ऐसे हैं जिनमें उत्तराध्ययन की छाया के अतिरिक्त कणाद के सूत्रों का सादृश्य दिखाई देता है। इन तीन सूत्रों में पहला द्रव्य का, दूसरा गुण का और तीसरा काल का लक्षणविषयक है।
उत्तराध्ययन के २८वें अध्ययन की छठी गाथा में द्रव्य का लक्षण गुणाणमासओ दव्वं (गुणानामाश्रयो द्रव्यम् ) अर्थात् जो गुणों का आश्रय वह द्रव्य, इतना ही है। कणाद द्रव्य के लक्षण में गुण के अतिरिक्त क्रिया और समवायिकारणता को समाविष्ट करके कहता है कि क्रियागुणवत् समवायिकारणमिति द्रव्यलक्षणम्-१. १. १५. । अर्थात् जो क्रियावाला, गुणवाला तथा समवायिकारण हो वह द्रव्य है । वा०
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उमास्वाति उत्तराध्ययन-कथित गुणपद को कायम रखकर कणादसूत्रों में दिखाई देनेवाले 'क्रिया' शब्द की जगह जैन-परम्परा-प्रसिद्ध 'पर्याय' शब्द रखकर द्रव्य का लक्षण बाँधते है-गुणपर्यायवद् द्रव्यम्-५ ३७ । अर्थात् जो गुण तथा पर्यायवाला हो वह द्रव्य है।
उत्तराध्ययन के २८वें अध्ययन की छठी गाथा मे गुण का लक्षण एगदव्वस्सिआ गुणा ( एकद्रव्याश्रिता गुणाः) अर्थात् जो एक द्रव्य के आश्रित हों वे गुण, इतना ही है । कणाद के गुणलक्षण में विशेष वृद्धि दिखाई देती है। वह कहता है-द्रव्याश्रय्यगुणवान् संयोगविभागेष्वकारणमनपेक्ष इति गुणलक्षणम्-१. १. १६ । अर्थात् द्रव्य के आश्रित, निर्गुण और संयोग-विभाग में अनपेक्ष जो कारण नही होता वह गुण है। उमास्वाति के गुणलक्षण में उत्तराध्ययन के गुणलक्षण के अतिरिक्त कणाद के गुणलक्षण में से एक 'निर्गुण' अंश है। वे कहते है-द्रव्याश्रया निगुणा गुणाः-५. ४० । अर्थात् जो द्रव्य के आश्रित और निर्गण हों वे गुण हैं।
उत्तराध्ययन के २८वें अध्ययन की दसवीं गाथा में काल का लक्षण वत्तणालक्खणो कालो ( वर्तनालक्षणः कालः) अर्थात् वर्तना काल का स्वरूप है, इतना ही है । कणाद के काललक्षण में 'वर्तना' पद तो नही है, परन्तु दूसरे शब्दों के साथ 'अपर' शब्द दिखाई देता है-अपरिस्मन्नपरं युगपच्चिरं क्षिप्रमिति काललिङ्गानि-२. २६ । उमास्वाति-कृत काललक्षण में 'वर्तना' पद के अतिरिक्त जो दूसरे पद दिखाई देते है उनमें 'परत्व' और 'अपरत्व' ये दो शब्द भी हैं, जैसे कि वर्तना परिणामः क्रिया परत्वापरत्वे च कालस्य-५. २२ ।
ऊपर दिए हुए द्रव्य, गुण तथा काल के लक्षणवाले तत्त्वार्थ के तीन सूत्रों के लिए उत्तराध्ययन के अतिरिक्त किसी प्राचीन श्वेताम्बर जैनआगम अर्थात् अंग का उतना ही शाब्दिक आधार अब तक देखने मे नही आया, परन्तु विक्रम की पहली दूसरी शताब्दी के माने जानेवाले कुन्दकुन्द के प्राकृत वचनों के साथ तत्त्वार्थ के संस्कृत सूत्रों का कही तो पूर्ण और कहीं बहुत ही कम सादृश्य है। श्वेताम्बर सूत्रपाठ मे द्रव्य के लक्षणवाले दो ही सूत्र है : उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्-५. २९ तथा गुण
१. द्रव्य-लक्षण-विषयक विशेष जानकारी के लिए देखे-प्रमाणमीमांसा, भाषाटिप्पण, पृ० ५४; न्यायावतारवातिकवृत्ति, की प्रस्तावना, पृ० २५, १०४,११९ ।
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पर्यायवद् द्रव्यम्-५. ३७ । इन दोनों के अतिरिक्त द्रव्य का लक्षणविषयक एक तीसरा सूत्र दिगम्बर सूत्रपाठ में है-सद् द्रव्यलक्षणम्-५. २९ । ये तीनों दिगम्बर सूत्रपाठगत सूत्र कुन्दकुन्द के पंचास्तिकाय की निम्न प्राकृत गाथा में पूर्णरूप से विद्यमान है :
दव्वं सल्लक्खणियं उप्पादव्वयधुवत्तसंजुत्तं ।
गुणपज्जयासयं वा जं तं भण्णंति सव्वण्हू ॥१०॥ इसके अतिरिक्त कुन्दकुन्द के प्रसिद्ध ग्रन्थों के साथ तत्त्वार्थसूत्र का जो शाब्दिक तथा वस्तुगत महत्त्वपूर्ण सादृश्य है, वह आकस्मिक तो नही ही है।
(ख ) उपलब्ध 'योगसूत्र' के रचयिता पतजलि माने जाते है। व्याकरण-महाभाष्य के कर्ता पतंजलि ही योगसूत्रकार हैं या दूसरे कोई पतंजलि, इस विषय में अभी निश्चयपूर्वक नही कहा जा सकता। यदि महाभाष्यकार और योगसूत्रकार पतंजलि एक हैं तो योगसूत्र विक्रम पूर्व पहलो-दूसरी शताब्दी की रचना मानी जा सकती है। योगसूत्र का 'व्यासभाष्य' कब की रचना है यह भी निश्चित नही, फिर भी उसे विक्रम की तीसरी शताब्दो से प्राचीन मानने का कोई कारण नही है।
योगसूत्र और उसके भाष्य के साथ तत्त्वार्थ के सूत्रों और उनके भाष्य का शाब्दिक तथा आर्थिक सादृश्य बहुत है और वह आकर्षक भी है, तो भी इन दोनों में से किसी एक पर दूसरे का प्रभाव है यह ठीकठीक कहना सम्भव नही, क्योकि तत्त्वार्थसूत्र और भाष्य को योगदर्शन से प्राचीन जैन आगमग्रन्थों की विरासत मिली है, उसी प्रकार योगसूत्र और उसके भाष्य को पुरातन साख्य, योग तथा बौद्ध आदि परम्पराओ की विरासत प्राप्त है। फिर भी तत्त्वार्थ-भाष्य में एक स्थल ऐसा है जो जैन अगग्रन्थों में इस समय तक उपलब्ध नही है और योगसूत्र के भाष्य मे उपलब्ध है।
पहले निमित हई आय कम भी हो सकती है अर्थात् बीच में टूट भी सकती है और नहीं भी, ऐसी चर्चा जैन अंगग्रन्थों मे है । परन्तु इस चर्चा में आयु के टूटने के पक्ष को उपपत्ति करने के लिए भीगे कपड़े तथा सूखी घास का उदाहरण अंगग्रन्थो मे नही, तत्त्वार्थ-भाष्य में ये
१. इसके सविस्तर परिचय के लिए देखें-हिन्दो योगदर्शन की प्रस्तावना, पृष्ठ ५२ तथा आगे।
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दोनों उदाहरण है जो योगसूत्र के भाष्य में भी हैं। विशेष बात यह है कि दोनो भाष्यों में शाब्दिक सादृश्य भी बहुत अधिक है। एक विशेषता यह भी है कि गणित-विषयक एक तीसरा उदाहरण तत्त्वार्थसूत्र के भाष्य में पाया जाता है जिसका योगसूत्र के भाष्य में अस्तित्व तक नहीं है। दोनों भाष्यों का पाठ क्रमश: इस प्रकार है :
".. शेषा मनुष्यास्तिर्यग्योनिजाः सोपक्रमा निरुपक्रमाश्वापवायुषोऽनपवायुषश्च भवन्ति । 'अपवर्तनं शीघ्रमन्तर्मुहूर्तात्कर्मफलोपभोग उपक्रमोऽपवर्तननिमित्तम् । · सहतशुष्कतृणराशिदहनवत् । ययाहि संहतस्य शुष्कस्यापि तृणराशेरवयवशः क्रमेण दह्यमानस्य चिरेण दाहो भवति तस्यैव शिथिलप्रकोर्णापचितस्य सर्वतो युगपदादीपितस्य पवनोपक्रमाभिहतस्याशुदाहो भवति । तद्वत् । यथा वा सख्यानाचार्यः करणलाघवार्थ गुणकारभागहाराभ्यां राशि छेदादेवापवर्तयति न च संख्येयस्यार्थस्याभावो भवति तद्वदुपक्रमाभिहतो मरणसमुद्धातदु खातः कर्मप्रत्ययमनाभोगपूर्वकं करणविशेषमुत्पाद्य फलोपभोगलाघवार्थ कर्मापवर्तयति न चास्य फलाभाव इति । कि चान्यत्-यथा वा धौतपटो जलाद्रं एव च वितानितः सूर्यरश्मिवाय्वभिहतः क्षिप्रं शौषमुपयाति न च संहते तस्मिन् प्रभूतस्नेहागमो नापि वितानितेऽकृत्स्नशोष त हद् यथोक्तनिमित्तापवर्तनैः कर्मणः क्षिप्रं फलोपभोगो भवति । न च कृतप्रणाशाकृताभ्यागमाफल्यानि ।"-तत्त्वार्थ-भाष्य, २.५२।।
"आयविपाक कर्म द्विविधं सोपक्रम निरुपकम च । तत्र यथार्द्र वस्त्रं वितानितं हसीयसा कालेन शुष्येत्तथा सोपक्रमम । यथा च तदेव संपिण्डितं चिरेण संशुष्येदेवं निरुपक्रमम् । यथा वाग्निः शुष्के कक्षे मुक्तो वातेन समन्ततो युक्तः क्षेपीयसा कालेन दहेत् तथा सोपक्रमम् । यथा वा स एवाग्निस्तणराशौ क्रमशोऽवयवेष न्यस्तश्विरेण दहेत तथा निरुपक्रमम । तदैकभविकमायुष्कर कर्म द्विविधं सोपक्रमं निरुपक्रमं च ।"-योगभाष्य, ३.२२ ।
(ग) अक्षपाद का 'न्यायदर्शन' लगभग ईस्वी सन् के आरम्भ का माना जाता है। उसका 'वात्स्यायननाष्य' दूसरी-तीसरी शताब्दी के भाष्यकाल की प्राथमिक कृतियों में से एक है। इस कृति के कुछ शब्द और विषय तत्त्वार्थभाष्य में मिलते हैं। न्यायदर्शन (१.१.३ ) मान्य प्रमाणचतुष्कवाद का निर्देश तत्त्वार्थ अ० १ सू० ६ और ३५ के भाष्य में
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मिलता है।' तत्त्वार्थ १.१२ के भाष्य में अर्थापत्ति, सभव और अभाव आदि प्रमाणों के भेद का निरसन न्यायदर्शन (२.१.१.) आदि के जैसा ही है। न्यायदर्शन में प्रत्यक्ष के लक्षण में इन्द्रियार्थसन्निकर्षात्पन्नम् ( १. १. ४ ) ये शब्द हैं। तत्त्वार्थ १.१२ के भाष्य में अर्थापत्ति आदि भिन्न माने गए प्रमाणों को मति और श्रुतज्ञान में समाविष्ट करते हए इन्हीं शब्दों का प्रयोग किया गया है। यथा सर्वाण्येतानि मतिश्रुतयोरन्त तानि इन्द्रियार्थसन्निकर्षनिमित्तत्वात् ।
इसी प्रकार पतंजलि-महाभाष्य और न्यायदर्शन ( १. १. १५) आदि में 'पर्याय' शब्द के स्थान पर 'अनर्थान्तर' शब्द के प्रयोग की पद्धति तत्त्वार्थसूत्र ( १. १३ ) में भी है।
(घ ) बौद्ध-दर्शन की शून्यवाद, विज्ञानवाद आदि शाखाओं के विशिष्ट मंतव्यों अथवा शब्दों का उल्लेख जैसा सर्वार्थसिद्धि में है, वैसा तत्त्वार्थभाष्य में नही है, तो भी बौद्धदर्शन के थोड़े से सामान्य मन्तव्य तंत्रान्तर के मन्तव्यों के रूप में दो-एक स्थल पर आते हैं। वे मन्तव्य पालिपिटक से लिए गए हैं या महायान के संस्कृत पिटकों से अथवा तद्विषयक किसी दूसरे ही ग्रन्थ से, यह विचारणीय है। उनमें पहला उल्लेख जैनमत के अनुसार नरकभूमियों की सख्या बतलाते हुए बौद्धसम्मत संख्या का खंडन करने के लिए आ गया है। वह इस प्रकार है-अपि च तन्त्रान्तरीया असंख्येषु लोकधातुष्वसंख्येयाः पथिवीप्रस्तारा इत्यध्यवसिताः। -तत्त्वार्थभाष्य, ३ १ ।
दुसरा उल्लेख जैनमत के अनुसार पुद्गल का लक्षण बतलाते हुए बौद्धसम्मत पुद्गल शब्द के अर्थ का निराकरण करते हुए आया है । यथा पुद्गला इति च तंत्रान्तरीयाँ जीवान् परिभाषन्ते-अ० ५ सू०२३ का उत्थानभाष्य !
१. प्रत्यक्षानुमानोपमानशब्दाः प्रमाणानि । -न्यायदर्शन, १. १.३ । चतुर्विधमित्येके नयवादान्तरेण-तत्त्वार्थभाष्य, १. ६. और यथा वा प्रत्यक्षानु मानोपमानाप्तवचनैः प्रमारगरेकोऽर्थः प्रमीयते । -तत्त्वार्थभाष्य, १. ३५ ।
२ देखे-१ १ ५६; २ ३.१. और ५. १. ५९ का महाभाष्य ।
३. यद्यपि जैन आगम ( भगवती श ८, उ. ३ और श २०, उ. २) मे 'पुद्गल' शब्द जीव अर्थ मे भी प्रयुक्त हुआ है, किन्तु जैन-दर्शन की परिभाषा तो
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( ख ) उमास्वाति की योग्यता
उमास्वाति के पूर्ववर्ती जैनाचार्यो ने संस्कृत भाषा में लिखने की शक्ति का यदि विकास न किया होता और लिखने का प्रघात शुरू न किया होता तो प्राकृत परिभाषा मे रूढ साम्प्रदायिक विचारों को उमास्वाति इतनी प्रसन्न संस्कृत शैली मे सफलतापूर्वक निबद्ध कर सकते अथवा नहीं, यह एक प्रश्न ही है, तो भी उपलब्ध समग्र जैन वाङ्मय का इतिहास तो यही कहता है कि जैनाचार्यो में उमास्वाति ही प्रथम सस्कृत लेखक है। उनके ग्रन्थों की प्रसन्न, संक्षिप्त और शुद्ध शैली संस्कृत भाषा पर उनके प्रभुत्व की साक्षी है । जैन आगम में प्रसिद्ध ज्ञान, ज्ञेय, आचार, भूगोल, खगोल आदि से सम्बद्ध बातों का सक्षेप में जो सग्रह उन्होंने तत्त्वार्थाधिगम-सूत्र मे किया है वह उनके 'वाचक' वंश में होने का और वाचक - पद की यथार्थता का प्रमाण है । उनके तत्त्वार्थ-भाष्य की प्रारंभिक कारिकाओं तथा दूसरी पद्यकृतियो से स्पष्ट है कि वे गद्य की तरह पद्य क भी प्रांजल लेखक थे । उनके सभाष्य सूत्रो के सूक्ष्म अवलोकन से जैन आगम सबंधी उनके सर्वग्राही अध्ययन के अतिरिक वैशेषिक, न्याय, योग और बौद्ध आदि दार्शनिक साहित्य के अध्ययन की प्रतीति होती है । तत्त्वार्थभाष्य ( १.५ २.१५ ) में उद्धृत व्याकरण के सूत्र उनके पाणिनीय व्याकरण-विषयक अध्ययन के परिचायक हैं ।
यद्यपि श्वेताम्बर सम्प्रदाय में इनकी प्रसिद्धि पाँच सौ ग्रंथों के रचयिता के रूप में है और इस समय इनकी कृतिरूप में कुछ ग्रन्थ प्रसिद्ध भी हैं, तथापि इस विषय में आज संतोषजनक कुछ भी कहने की स्थिति नहीं है । ऐसी स्थिति में भी 'प्रशमरति की भाषा और विचारसरणी
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मात्र जड़ परमाणु और तन्निर्मित स्कंध के रूप मे ही प्रसिद्ध है । बौद्ध दर्शन की परिभाषा जीव अर्थ मे ही प्रसिद्ध है । इसी भेद को लक्ष्य मे रखकर वाचक ने यहाँ 'तन्त्रान्तरीय' शब्द का प्रयोग किया है ।
१. जम्बूद्वीपसमासप्रकरण, पूजाप्रकरण, श्रावकप्रज्ञप्ति, क्षेत्रविचार, प्रशमरति । सिद्धसेन अपनी वृत्ति मे ( पृ० ७८, पं० २ ) उनके 'शौचप्रकरण' नामक ग्रंथ का उल्लेख करते हैं, जो इस समय उपलब्ध नही है ।
२. वृत्तिकार सिद्धसेन 'प्रशमरति' को भाष्यकार की ही कृति बतलाते है । यथा - 'यतः प्रशमरतौ ( का० २०८ ) अनेनैवोक्तम् -- परमाणुरप्रदेशो वर्णादिगुणेषु भजनीय. ।' 'वाचकेन त्वेतदेव बलसंज्ञया प्रशमरतौ (का० ८० ) उपात्तम्' - ५.६ तथा ९.६ की भाष्यवृत्ति ।
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तथा सिद्धसेन आदि के उल्लेख से उसकी उमास्वाति-कर्तृकता निश्चित रूप से सिद्ध होती है।
उमास्वाति अपने को 'वाचक' कहते है, इसका अर्थ 'पूर्ववित्' कर के पहले से ही श्वेताम्बराचार्य उमास्वाति को 'पूर्ववित्' रूप से पहचानते आए हैं । दिगम्बर-परम्परा में भी उनको 'श्रुतकेलिदेशीय' कहा गया है।
तथा सिद्ध सेन भाष्यकार और सूत्रकार को एक ही समझते है । यथा - स्वकृतसूत्रसंनिवेशमाश्रित्योक्तम् ।-९. २२, पृ० २५३ ।
इति श्रीमदर्हत्प्रवचने तत्त्वार्थाधिगमे उमास्वातिवाच रोपज्ञसूत्रभाष्ये भाष्यानुसारिण्यां च टीकायां सिद्धसेनगणिविरचितायां अनगारागारिधर्मप्ररूपकः सप्तमो. ऽध्यायः । --तत्त्वार्थभाष्य के सातवे अध्याय की टीका की पुष्पिका। ऐसे अन्य उल्लेखों के लिए आगे--(ग) उमास्वाति की परम्परा' नामक उपशीर्षक, पृ० १५ ।
प्रशमरतिप्रकरण की १२०वी कारिका 'आचार्य पाह' कहकर निशीथचूर्णि मे उद्धृत है । इस चूर्णि के प्रणेता जिनदास महत्तर का समय विक्रम की आठवी शताब्दी है जिसका निर्देश उन्होने अपनी नन्दिसूत्र को चूर्णि में किया है। अतः कहा जा सकता है कि प्रशमरति विशेष प्राचीन है। इससे तथा ऊपर निर्दिष्ट कारणों से इस कृति के वाचक की होने में कोई बाधा नही है ।
१. पूर्वो के चौदह होने का समवायाग आदि आगमों मे वर्णन है। ऐसा भी उल्लेख है कि वे दृष्टिवाद नामक बारहवे अङ्ग का पाँचवाँ भाग जानते थे। पूर्वश्रुत अर्थात् भ० महावीर द्वारा सर्वप्रथम दिया हुआ उपदेश-ऐसी परम्परागत मान्यता है । पश्चिम के विद्वानो की इस विषय मे कल्पना है कि भ० पार्श्वनाथ की परम्परा का जो पूर्वकालीन श्रुत भ० महावीर को अथवा उनके शिष्यो को मिला वह पूर्वश्रुत है । यह श्रुत क्रमश. भ० महावीर के उपदिष्ट श्रुत मे ही मिल गया और उसी का एक भाग माना गया । जो भ० महावीर की द्वादशागी के धारक थे वे इस पूर्वश्रुत को जानते थे । कण्ठस्थ रखने की परम्परा तथा अन्य कारणों से पूर्वश्रुत क्रमश. नष्ट हो गया और आज 'पूर्वगतगाथा' रूप मे नाममात्र से शेष उल्लिखित मिलता है। 'पूर्व' के आधार पर बने कुछ ग्रन्थ मिलते है ।
२. नगर ताल्लुका के एक दिगम्बर शिलालेख नं० ४६ मे इन्हे 'श्रुतकेवलिदेशीय' कहा गया है । यथा
तत्त्वार्थसूत्रकर्तारमुमास्वातिमुनीश्वरम् । श्रुतकेवलिदेशीयं वन्देऽहं गुणमन्दिरम ।।
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तत्त्वार्थ इनके ग्यारह अंग विषयक श्रुतज्ञान की तो प्रतीति करा ही रहा है। इससे इनकी ऐसी योग्यता के विषय में तो कोई सदेह नहीं है। इन्होंने विरासत में प्राप्त आहेत श्रुत के सभी पदार्थो का संग्रह तत्त्वार्थ में किया है; एक भी महत्त्वपूर्ण बात इन्होंने बिना कथन किये नही कोडी. इसी कारण आचार्य हेमचन्द्र संग्रहकार के रूप में उमास्वाति का स्थान सर्वोत्कृष्ट आँकते हैं । इसी योग्यता के कारण इनके तत्त्वार्थ की व्याख्या करने के लिए श्वेताम्बर-दिगम्बर आचार्य प्रेरित हुए है।
(ग) उमास्वाति की परम्परा दिगम्बर वाचक उमास्वाति को अपनी परम्परा का मानकर मात्र तत्त्वार्थसूत्र को ही इनकी रचना स्वीकार करते है, जब कि श्वेताम्बर इन्हे अपनी परम्परा का मानते है और तत्त्वार्थसूत्र के अतिरिक्त भाष्य को भी इनकी कृति स्वीकार करते है । अब प्रश्न यह है कि उमास्वाति दिगम्बर परम्परा में हुए हैं या श्वेताम्बर परम्परा में अथवा दोनों से भिन्न किसी अन्य परम्परा में हुए है ? इस प्रश्न का उत्तर भाष्य के कर्तत्व विषयक निर्णय से मिल जाता है। भाष्य स्वयं उमास्वाति की कृति है, यह बात प्रमाणों से निर्विवाद सिद्ध है।
१. भाष्य की उपलब्ध टीकाओ में सबसे प्राचीन टीका सिद्धसेन की है। उसमें स्वोपज्ञतासूचक उल्लेख ये है :
प्रतिज्ञातं चानेन "ज्ञानं वक्ष्यामः" इति । अतस्तनुरोधेनैकवचनं चकार आचार्यः। -प्रथम भाग, पृ० ६९
शास्तीति च ग्रन्थकार एव द्विधा आत्मानं विभज्य सूत्रकारभाष्यकाराकारेणैवमाह -पृ०७२
सूत्रकारादविभक्तोपि हि भाष्यकारो।-पृ० २०५
इति श्रीमदर्हत्प्रवचने तत्त्वार्थाधिगमे उमास्वातिवाचकोपज्ञसूत्रभाष्ये भाष्यानुसारिण्यां च टीकायां ..।द्वितीय भाग, पृ० १२०
१. तत्त्वार्थ मे वणित विषयो के मूल को जानने के लिए देखें.-उ० आत्मारामजी द्वारा सम्पादित तत्त्वार्थसूत्र-जैनागमसमन्वय ।
२. उपोमास्वाति संगृहीतार. ।—सिद्धहेम, २. २. ३१ ।
३. देखे-'भारतीय विद्या' के सिधी स्मारक अंक में श्री नाथूरामजी प्रेमी का लेख, पृ० १२८ जिसमें उन्होंने भाष्य को स्वोपज्ञ सिद्ध किया है ।
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२. भाष्यगत अन्तिम कारिकाओं में से आठवी कारिका को याकिनीसूनु हरिभद्राचार्यं ने शास्त्रवार्तासमुच्चय में उमास्वातिकर्तृक रूप में उद्धृत किया है ।
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३. भाष्य की प्रारम्भिक अंगभूत कारिका के व्याख्यान में आ० देवगुप्त भी सूत्र और भाष्य को एक- कर्तृक सूचित करते हैं ( देखें — का० १-२ ) ।
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४. प्रारम्भिक कारिकाओं में और कुछ स्थानों पर भाष्य में भी वक्ष्यामि, वक्ष्यामः आदि प्रथम पुरुष का निर्देश है और इस निर्देश में की गई प्रतिज्ञा के अनुसार ही बाद में सूत्र में कथन किया गया है ।
५ भाष्य को प्रारम्भ से अन्त तक देख जाने पर एक बात जँचती है कि कही सूत्र का अर्थ करने में शब्दों की खींचतान नहीं हुई, कहीं सूत्र का अर्थ करने में सन्देह या विकल्प नहीं किया गया, न सूत्र की किसी दूसरी व्याख्या को मन में रखकर सूत्र का अर्थ किया गया और न कहीं सूत्र के पाठभेद का ही अवलम्बन लिया गया है ।
यह वस्तु-स्थिति सूत्र और भाष्य के एक कर्तृक होने की चिरकालीन मान्यता को सत्य सिद्ध करती है । जहाँ मूल ग्रन्थकार और टीकाकार अलगअलग होते हैं वहाँ तत्त्वज्ञान विषयक प्रतिष्ठित तथा अनेक सम्प्रदायों में मान्य ग्रन्थों में ऊपर जैसी वस्तु-स्थिति नहीं होती । उदाहरणार्थ वैदिक दर्शन में प्रतिष्ठित ग्रन्थ 'ब्रह्मसूत्र' को लीजिए । यदि इसका रचयिता स्वयं ही व्याख्याकार होता तो इसके भाष्य में शब्दों की खींचतान, अर्थ के विकल्प और अर्थ का सदेह तथा सूत्र का पाठभेद कदापि न दिखाई
१. तत्त्वार्थाधिगमाख्यं बह्वर्थं संग्रहं लघुग्रन्थम् ।
वक्ष्यामि शिष्यहितमिममर्हद्वचनैकदेशस्य ॥ २२ ॥
न च मोक्षमार्गाद् व्रतोपदेशोऽस्ति जगति कृत्स्नेऽस्मिन् । तस्मात्परमिममेवेति मोक्षमार्ग प्रवक्ष्यामि ॥ ३१ ॥
२. गुणान् लक्षणतो वक्ष्यामः । - ५. ३७ का भाव्य, अगला सूत्र ५. ४० । अनादिरादिमांश्च तं परस्ताद्वक्ष्यामः । - ५. २२ का भाष्य, अगला सूत्र ५. ४२ ।
३. अगस्त्यसिह ने दशवैकालिकचूर्णि मे उमास्वाति का नाम देकर सूत्र और भाष्य का उद्धरण दिया है- पृ० ८५ । नयचक्र मूल मे भाष्य उद्धृत है- पृ० ५९६ ।
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- १७ - पड़ता। इसी प्रकार तत्त्वार्थसूत्र के प्रणेता ने ही यदि 'सर्वार्थसिद्धि'. 'राजवार्तिक' और 'श्लोकवार्तिक' आदि कोई व्याख्या लिखी होती तो उनमें अर्थ की खींचतान, शब्द की तोड़-मरोड़, अध्याहार, अर्थ का संदेह और पाठभेद' कभी न दिखाई देते। यह वस्तु-स्थिति निश्चित रूप से एक-कर्तृक मूल तथा टीका-ग्रन्थों को देखने से समझ में आ सकती है। यह चर्चा हमें मूल तथा भाष्य का कर्ता एक होने की मान्यता की निश्चित भूमिका पर लाकर छोड़ देती है ।
मूल ग्रन्थकार और भाष्यकार एक ही हैं, यह निश्चय इस प्रश्न के हल करने में बहुत उपयोगी है कि वे किस परम्परा के थे। उमास्वाति दिगम्बर परम्परा के नही थे, ऐसा निश्चय करने के लिए नीचे की युक्तियाँ काफी हैं :
१. प्रशस्ति में उल्लिखित उच्चनागर शाखा या नागरशाखा का दिगम्बर सम्प्रदाय में होने का एक भी प्रमाण नहीं मिलता।
२. 'काल' किसी के मत से वास्तविक द्रव्य है, ऐसा सूत्र (५. ३८) और उसके भाष्य का वर्णन दिगम्बर मत (५. ३९) के विरुद्ध है। केवली में (९.११) ग्यारह परीषह होने की सूत्र और भाष्यगत सीधी मान्यता एव भाष्यगत वस्त्र-पात्रादि का स्पष्ट उल्लेख भी दिगम्बर परम्परा के विरुद्ध है (९ ५,९. ७, ९. २६) । सिद्धों में लिंगद्वार और तीर्थद्वार का भाष्यगत वक्तव्य दिगम्बर परम्परा के विपरीत है।
३. भाष्य में केवलज्ञान के पश्चात् केवली के दूसरा उपयोग मानने न मानने का जो मन्तव्य-भेद (१.३१ ) है वह दिगम्बर ग्रन्थों में नहीं दिखाई देता।
उपर्युक्त युक्तियों से यद्यपि यह सिद्ध होता है कि वाचक उमास्वाति दिगम्बर परम्परा के नहीं थे तथापि यह देखना तो रह ही जाता है कि वे किस परम्परा के थे। निम्न युक्तियां उन्हें श्वेताम्बर परम्परा की ओर ले जाती हैं : ____१. प्रशस्ति में उल्लिखित उच्चनागर शाखा श्वेताम्बर पट्टावली में मिलती है।
१. उदाहरणार्थ देखे -"चरमदेहा इति वा पाठ."-सर्वार्थसिद्धि, २. ५३ । "अथवा एकादश जिने न सन्तीति वाक्यशेषः कल्पनीयः सोपस्कारत्वात् सूत्राणाम्"-सर्वार्थसिद्धि, ९. ११ ।
२. देखें-प्रस्तुत प्रस्तावना, पृ० ४ तथा ६-७ ।
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- १८ - २. अमुक विषय-सम्बन्धी मतभेद या विरोध बतलाते हए भी कोई ऐसे प्राचीन या अर्वाचीन श्वेताम्बर आचार्य नहीं हैं जिन्होंने दिगम्बर आचार्यों की भाँति भाष्य को अमान्य कहा हो।
३. जिसे उमास्वाति की कृति मानने में सन्देह का अवकाश नहीं उस प्रशमरति ग्रन्थ में मुनि के वस्त्र-पात्र का व्यवस्थित निरूपण है, जिसे श्वेताम्बर परम्परा निर्विवाद रूप से स्वीकार करती है।
४. उमास्वाति के वाचकवंश का उल्लेख और उसी वंश में होनेवाले अन्य आचार्यों का वर्णन श्वेताम्बर पट्टावलियों, पन्नवणा और नन्दी की स्थविरावली में मिलता है।
ये युक्तियाँ वाचक उमास्वाति को श्वेताम्बर परम्परा का सिद्ध करती हैं और समस्त श्वेताम्बर आचार्य पहले से उन्हे अपनी ही परम्परा का मानते आए हैं। वाचक उमास्वाति श्वेताम्बर परम्परा में हुए और दिगम्बर परम्परा में नही, ऐसा स्वयं मेरा मन्तव्य भी अधिक अध्ययनचिन्तन के बाद स्थिर हुआ है। इस मन्तव्य की विशेष स्पष्टता के लिए दिगम्बर-श्वेताम्बर-भेद विषयक इतिहास के कुछ प्रश्नों पर प्रकाश डालना जरूरी है। पहला प्रश्न यह है कि इस समय दिगम्बर-श्वेताम्बर के भेद या विरोध का विषय जो श्रुत तथा आचार है उसकी प्राचीन जड़ कहाँ तक मिलती है और वह मुख्यतया किस बात में थी ? दूसरा प्रश्न यह है कि उक्त दोनों सम्प्रदायों को समान रूप से मान्य श्रुत था या नही, और था तो वह समान मान्यता का विषय कब तक रहा, उसमें मतभेद कब से प्रविष्ट हुआ तथा उस मतभेद के अन्तिम परिणामस्वरूप एक-दूसरे के लिए परस्पर पूर्णरूपेण अमान्य श्रुतभेद कब पैदा हुआ ? तीसरा और अन्तिम प्रश्न यह है कि उमास्वाति स्वयं किस परम्परा के आचार का पालन करते थे और उन्होंने जिस श्रुत को आधार मानकर तत्त्वार्थ की रचना की वह श्रत उक्त दोनों सम्प्रदायों को समान रूप से पूर्णतया मान्य था या किसी एक सम्प्रदाय को ही पूर्णरूपेण मान्य था और दूसरे को पूर्णरूपेण अमान्य था ?
१. जो भी ऐतिहासिक सामग्री इस समय प्राप्त है उससे निर्विवादरूपेण इतना स्पष्ट ज्ञात होता है कि भगवान् महावीर पापित्य
१. देखे-का० १३५ और आगे।
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परम्परा में हुए थे और उन्होंने शिथिल या मध्यम त्याग मार्ग में अपने उत्कट त्यागमार्गमय व्यक्तित्व द्वारा नवजीवन का संचार किया था । में विरोध और उदासीनभाव रखनेवाले अनेक पार्श्वसन्तानिक साधु व शुरू श्रावक भी भगवान् महावीर के शासन में मिल गए। भगवान् महावीर ने अपनी नायकत्वोचित उदार किन्तु तात्त्विक दृष्टि से अपने शासन में उन दोनों दलों का स्थान निश्चित किया जिनमें से एक बिलकुल नग्नजीवीं तथा उत्कट विहारी था और दूसरा मध्यममार्गी था जो बिलकुल नग्न नहीं था । दोनो दलों का बिलकुल नग्न रहने या न रहने के विषय में तथा अन्य आचारों में थोड़ा-बहुत अन्तर रहा, फिर भी वह भगवान् के व्यक्तित्व के कारण विरोध का रूप धारण नही कर पाया । उत्कट और मध्यम त्यागमार्ग के इस प्राचीन समन्वय मे ही वर्तमान दिगम्बर श्वेताम्बर भेद की जड़ है ।
-
उस प्राचीन समय में जैन परम्परा में दिगम्बर श्वेताम्बर जैसे शब्द नहीं थे, फिर भी आचारभेद के सूचक नग्न, अचेल ( उत्त० २३. १३, २९ ), जिनकल्पिक, पाणिप्रतिग्रह ( कल्पसूत्र, ९. २८ ), पाणिपात्र आदि शब्द उत्कट त्यागवाले दल के लिए तथा सचेल, प्रतिग्रहधारी ( कल्पसूत्र, ९.३१ ), स्थविरकल्प ( कल्पसूत्र, ९. ६३ ) आदि शब्द मध्यमत्यागवाले दल के लिए मिलते हैं ।
१. आचारांग, सूत्र १७८ ।
२. कालासवेसियपुत्त ( भगवती, १९ ), केशी ( उत्तराध्ययन, अध्ययन २३ ), उदकपेढालपुत्त ( सूत्रकृताङ्ग, २. ७ ), गांगेय ( भगवती, ९. ३२ ) इत्यादि । विशेष के लिए देखें - 'उत्थान' का महावीरांक, पृ० ५८ । कुछ पावपत्यों ने तो पंचमहाव्रत और प्रतिक्रमण के साथ नग्नत्व भी स्वीकार किया था, ऐसा उल्लेख आज तक अंगों मे सुरक्षित है । उदाहरणार्थ देखें- भगवती,
१. ९ ।
३. आचारांग में सचेल और अचेल दोनों प्रकार के मुनियों का वर्णन है । अचेल मुनि के वर्णन के लिए प्रथम श्रुतस्कन्ध के छठे अध्ययन के १८३ से आगे के सूत्र और सचेल मुनि के वस्त्रविषयक आचार के लिए द्वितीय श्रुतस्कन्ध का ५वाँ अध्ययन द्रष्टव्य है । सचेल तथा अचेल दोनों मुनि मोह को कैसे जीतें, इसके रोचक वर्णन के लिए देखें – आचारांग, १८।
४. देखें --- उत्तराध्ययन, अ० २३ ।
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२. इन दो दलों में आचार-विषयक भेद होते हुए भी भगवान् के शासन के मुख्य प्राणरूप श्रुत में कोई भेद नही था, दानों दल बारह अग के रूप में मान्य तत्कालीन श्रुत को समान रूप से मानते थे। आचारविषयक कुछ भेद और श्रुतविषयक पूर्ण अभेद की यह स्थिति तरतमभाव से महावीर के बाद लगभग डेढ़ सौ वर्ष तक रही। इस बीच में भी दोनों दलो के अनेक योग्य आचार्यों ने उसी अंग-श्रुत के आधार पर छोटे-बड़े ग्रन्थों की रचना की थी जिनको सामान्यरूप से दोनो दलों के अनुगामी तथा विशेषरूप से उस-उस ग्रन्थ के रचयिता के शिष्यगण मानते थे और अपने-अपने गुरु-प्रगुरु की कृति समझकर उस पर विशेष जोर देते थे । वे ही ग्रन्थ अंगबाह्य, अनंग या उपांग रूप मे व्यवहृत हुए।' दानों दलों की श्रुत के विषय मे इतनी अधिक निष्ठा व प्रामाणिकता रही कि जिससे अंग और अंगबाह्य का प्रामाण्य समान रूप से मानने पर भी किसी ने अंग और अनंग-श्रुत की भेदक रेखा को गौण नही किया जो कि दोनों दलों के वर्तमान साहित्य में आज भी स्थिर है।
एक ओर अचेल-सचेल आदि आचार का पूर्वकालीन मतभेद जो पारस्परिक सहिष्णुता तथा समन्वय के कारण दबा हुआ था, धीरे-धीरे तीव्र होता गया और दूसरी ओर उसी आचारविषयक मतभेद का समर्थन दोनों दलवाले मुख्यतया अंग-श्रुत के आधार पर करने लगे और साथ ही अपने-अपने दल के द्वारा रचित विशेष अंगबाह्य श्रुत का उपयोग भी उसके समर्थन में करने लगे। इस प्रकार मुख्यतया आचारभेद में से जो दलभेद स्थिर हुआ उसके कारण सारे शासन में अनेक गड़बड़ियां पैदा हुई। फलस्वरूप पाटलिपुत्र की वाचना ( वी० नि० १६० के लगभग) हुई।२ इस वाचना तक और इसके आगे भी ऐसा अभिन्न अग-श्रुत रहा जिसे दोनों दल समान रूप से मानते थे, पर कहते जाते थे कि उस मूलश्रुत का क्रमशः ह्रास होता जा रहा है। साथ ही वे अपने-अपने अभिमत-आचार के पोषक ग्रन्थों का भी निर्माण करते रहे । इसी आचारभेद-पोषक श्रुत के द्वारा अन्ततः उस प्राचीन अभिन्न अंग-श्रुत में मतभेद का जन्म हुआ, जो आरम्भ में अर्थ करने में था पर
१. दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, प्रज्ञापना, अनुयोगद्वार, आवश्यक, ऋषिभाषित आदि।
२. परिशिष्टपर्व, सर्ग ९ श्लोक ५५ तथा आगे, वीरनिर्वाणसंवत् और जैनकालगणना, पृ० ९४ ।
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आगे जाकर पाठभेद की तथा प्रक्षेप आदि की कल्पना में परिणत हो गया । इस प्रकार आचारभेदजनक विचारभेद ने उस अभिन्न अंगश्रुतविषयक दोनों दलों की समान मान्यता में भी अन्तर पैदा किया । इससे एक दल तो यह मानने- मनवाने लगा कि वह अभिन्न मूल अंगश्रुत बहुत अंशों में लुप्त ही हो गया है । जो है वह भी कृत्रिमता तथा नये प्रक्षेपों से रिक्त नहीं है, ऐसा कहकर भी उस दल ने उस मूल अंगश्रुत को सर्वथा छोड नही दिया । लेकिन साथ ही साथ अपने आचारपोषक श्रुत का विशेष निर्माण करने लगा और उसके द्वारा अपने पक्ष का प्रचार भी करता रहा । दूसरे दल ने देखा कि पहला दल उस मूल अंगश्रुत में कृत्रिमता के समाविष्ट हो जाने का आक्षेप भी करता है पर वह उसे सर्वथा छोड़ता भी नहीं और न उसकी रक्षा में सहयोग ही देता है । यह देखकर दूसरे दल ने मथुरा में एक सम्मेलन आयोजित किया । उसमे मूळ अंगश्रुत के साथ अपने मान्य अंगबाह्य श्रुत का पाठनिश्चय, वर्गीकरण और सक्षेप - विस्तार आदि किया गया, जो उस सम्मेलन में भाग लेनेवाले सभी स्थविरों को प्रायः मान्य रहा । यद्यपि इस अंग और अनग-श्रुत का यह नव-संस्करण था तथा उसमें अंग और अनंग की भेदक रेखा होने पर भी अग में अनंग का प्रवेश तथा प्रमाण े, जो कि दोनों के समप्रामाण्य का सूचक है, आ गया था तथा उसके वर्गीकरण तथा पाठस्थापन में भी अन्तर आ गया था, फिर भी यह नया संस्करण उस मूल अंग श्रुत के बहुत निकट था, क्योंकि इसमें विरोधी दल की आचार- पोषक वे सभी बातें थीं जो मूल अंगश्रुत में थी । इस माथुरसस्करण के समय से तो मूल अंगश्रुत की समान मान्यता में दोनों दलों का बड़ा ही अन्तर आ गया, जिसने दोनों दलों के तीव्र श्रुतभेद की नींव रखी। अचेलत्वसमर्थक दल का कहना था कि मूल अगश्रुत सर्वथा लुप्त हो गया है, जो श्रुत सचेल दल के पास है और जो हमारे पास है वह सब मूल अर्थात् गणधरकृत न होकर बाद के अपने-अपने आचार्यो द्वारा रचित व संकलित है । सचेल दलवाले कहते थे कि निःसन्देह बाद के आचार्यों द्वारा अनेकविध नया श्रुत निर्मित हुआ है
१. वी० नि० ८२७ और ८४० के बीच | देखे – वीरनिर्वाणसंवत् और जैनकालगणना, पृ० १०४ ।
२. जैसे भगवतीसूत्र मे अनुयोगद्वार, प्रज्ञापना, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, जीवाभिगम और राजप्रश्नीय का उल्लेख है ।
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- २२ -
और उन्होंने नई संकलना भी की है, फिर भी मूल अंग त के भावों में कोई परिवर्तन या काट-छाँट नहीं की गई है। बारीकी से देखने तथा ऐतिहासिक कसौटी पर कसने पर सचेल दल की बात बहुत-कुछ सत्य ही जान पड़ती है, क्योकि सचेलत्व का समर्थन करते रहने पर भी इस दल ने अंगश्र त में से अचेलत्वसमर्थक, अचेलत्वप्रतिपादक किसी अंश को उड़ा नहीं दिया।' जैसे अचेल दल का कहना था कि मूल अंगश्र त लप्त हो गया वैसे ही सचेल दल का कहना था कि जिनकल्प अर्थात् पाणिपात्र या अचेलत्व का जिनसम्मत आचार भी काल-भेद के कारण लुप्त हो गया है। फिर भी हम देखते है कि सचेल दल के द्वारा संस्कृत, संगहीत और नव-संकलित श्र त में अचेलत्व के आधारभूत सब पाठ तथा तदनुकूल व्याख्याएँ विद्यमान हैं। सचेल दल द्वारा अवलम्बित अंगश्रुत के मल अंगश्र त से निकटतम होने का प्रमाण यह है कि वह उत्सर्गसामान्यभूमिकावाला है, जिसमें अचेल दल के सब अपवादों का या विशेष मार्गो का विधान पूर्णतया आज भी विद्यमान है, जब कि अचेल दल-सम्मत नग्नत्वाचारथ त औत्सर्गिक नहीं है, क्योकि वह मात्र अचेलत्व का ही विधान करता है। सचेल दल का श्र त अचेल तथा सचेल दोनों आचारों को मोक्ष का अंग मानता है, वास्तविक अचेल-आचार की प्रधानता भी स्वीकार करता है। उसका मतभेद उसकी सामयिकता मात्र में है, जब कि अचेल दल का श्र त सचेलत्व को मोक्ष का अंग ही नही मानता, उसे बाधक तक मानता है। ऐसी स्थिति में स्पष्ट है कि सचेल दल का श्र त अचेल दल के श्रु त की अपेक्षा उस मूल अंगशु त के अति निकट है।
मथुरा के बाद वलभी में पुनः श्रुत-संस्कार हुआ, जिसमें स्थविर या सचेल दल का रहा-सहा मतभेद भी समाप्त हो गया। पर साथ ही
१. देखे-प्रस्तुत प्रस्तावना, पृ० १९ की टिप्पणी ३ । २. गण-परमोहि-पुलाए आहारग-खवग-उवसमे कप्पे । संजम् ति:-केवलि-सिज्झणा य जम्बुम्मि वुच्छिण्णा ।।
-विशेषा० २५९३ । ३. सर्वार्थसिद्धि मे नग्नत्व को मोक्ष का मुख्य और अबाधित कारण माना गया है।
४. वी० नि० ८२७ और ८४० के बीच । देखें वीरनिर्वाणसंवत् और जैनकालगणना, पृ० ११० ।।
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- २३ - अचेल दल का श्र त-विषयक विरोध उग्रतर हो गया। अचेल दल में से अमक ने अब रहे-सहे औदासीन्य को छोड़ सचेल दल के श्रुत का सर्वथा बहिष्कार करने का ठान लिया।
३. वाचक उमास्वाति स्थविर या सचेल परम्परा के आचारवाले अवश्य रहे, अन्यथा उनके भाष्य एवं प्रशमरति ग्रन्थ में सचेल धर्मानुसारी प्रतिपादन कदापि न होता, क्योंकि अचेल दल के किसी भी प्रवर मुनि की सचेल प्ररूपणा बिलकुल सम्भव नहीं। अचेल दल के प्रधान मुनि कुन्दकुन्द ने भी एकमात्र अचेलत्व का ही निर्देश किया है, अतः कुन्दकुन्द के अन्वय में होनेवाले किसी अचेल मुनि द्वारा सचेलत्वप्रतिपादन संगत नहीं। प्रशमरति की उमास्वाति-कर्तृकता भी विश्वसनीय है। स्थविर दल की प्राचीन और विश्वस्त वंशावली में उमास्वाति की उच्चानागर शाखा तथा वाचक पद का पाया जाना भी उनके स्थविरपक्षीय होने का सूचक है। उमास्वाति विक्रम की तीसरी शताब्दी से पांचवीं शताब्दी तक किसी भी समय में हुए हों, पर उन्होंने तत्त्वार्थ की रचना के आधाररूप में जिस अंग-अनंग श्रुत का अवलम्बन किया था वह स्थविरपक्ष को मान्य था। अचेल दल उसके विषय में या तो उदासीन था या उसका त्याग ही कर बैठा था। यदि उमास्वाति माथुरी-वाचना के कुछ पूर्व हुए हों तब तो उनके द्वारा अवलम्बित अंग और अनंग श्रुत के विषय में अचेल पक्ष का प्रायः औदासीन्य था। यदि वे वालभी-वाचना के आसपास हुए हों तब तो उनके अवलम्बित श्रुत के विषय में अचेल दल में से अमुक उदासीन ही नहीं, विरोधी भी ब्रुन गए थे। ___ यहाँ यह प्रश्न अवश्य होगा कि जब उमास्वाति द्वारा अवलम्बित श्रुत अचेल दल में से अमुक को मान्य न था तब उस दल के अनुगामियों ने तत्त्वार्थ को इतना अधिक क्यों अपनाया ? इसका उत्तर भाष्य और सर्वार्थसिद्धि की तुलना से तथा मूलसूत्र से मिल जाता है। उमास्वाति जिस सचेलपक्षावलंबित श्रुत के धारक थे उसमें नग्नत्व का भी प्रतिपादन
१. प्रवचनसार, अधि० ३ ।
२. वृत्तिकार सिद्धसेन द्वारा अवलंबित स्थविरपक्षीय श्रुत वालभी-वाचनावाला रहा, जब कि उमास्वाति द्वारा अवलंबित स्थविरपक्षीय श्रुत वालभी-वाचना के पहले का है, जो सम्भवतः माथुरी-वाचनावाला होना चाहिए । इसी से लगता है कि कही-कही सिद्धसेन को भाष्य में आगम-विरोध-सा दिखाई दिया है।
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- २४ - और आदर रहा ही, जो सूत्रगत नाग्न्य (९.९ ) शब्द से प्रकट है। उनके भाष्य में अंगबाह्य रूप में जिस श्रुत का निर्देश है वह सब सर्वार्थसिद्धि में नहीं आया, क्योंकि दशाश्रुतस्कन्ध, कल्प, व्यवहार आदि अचेल पक्ष के अनुकूल ही नहीं हैं। वह स्पष्टतया सचेल पक्ष का पोषक है, पर सर्वार्थसिद्धि में दशवैकालिक, उत्तराध्ययन का नाम आता है, जो खास अचेल पक्ष के किसी आचार्य की कृतिरूप से निश्चित न होने पर भी अचेल पक्ष का स्पष्ट विरोधी नहीं है।
उमास्वाति के मूलसूत्रों की आकर्षकता तथा भाष्य को छोड़ देने मात्र से सूत्रों को अपने पक्षानुकूल बनाने की योग्यता देखकर ही पूज्यपाद ने उन सूत्रों पर ऐसी व्याख्या लिखी जिसमें केवल अचेलधर्म का हो प्रतिपादन हो और सचेल धर्म का स्पष्टतया निरसन हो । इतना ही नही, पूज्यपादस्वामी ने सचेलपक्षावलम्बित एकादश अंग तथा अंगबाह्य श्रुत, जो वालभी-लेखन का वर्तमान रूप है, का भी स्पष्टतया अप्रामाण्य सूचित कर दिया है । उन्होने कहा है कि केवली को कवलाहारी मानना तथा मांस आदि ग्रहण करनेवाला कहना क्रमशः केवली-अवर्णवाद तथा श्रुतअवर्णवाद है। वस्तुस्थिति यह प्रतीत होती है कि पूज्यपाद की सर्वार्थसिद्धि, जिसमें मुख्य रूप से अचेलधर्म का स्पष्ट प्रतिपादन है, के बन जाने के बाद सवेलपक्षावलम्बित समग्र श्रुत का जैसा बहिष्कार अमुक अचेल पक्ष ने किया वैसा दृढ व ऐकान्तिक बहिष्कार सर्वार्थसिद्धि की रचना के पूर्व नहीं हुआ था । यही कारण है कि सर्वार्थसिद्धि की रचना के बाद अचेल पक्ष में सचेलपक्षीय श्रुत का प्रवेश नाममात्र का ही रहा, जैसा कि उत्तरकालीन दिगम्बर विद्वानों की श्रुतप्रवृत्ति से स्पष्ट है। इस स्थिति में अपवाद है जो नगण्य है। वस्तुतः पूज्यपाद के आसपास अचेल और सचेल पक्ष में इतनी खींच-तान और पक्ष-प्रतिपक्षता बढ़ गई थी
१. भगवतीसूत्र ( शतक १५), आचाराङ्ग ( शोलाङ्कटीकासहित, पृ० ३३४, ३३५, ३४८, ३५२, ३६४ ), प्रश्नव्याकरण ( पृ० १४८, १५०) आदि मे माससंबंधी जो पाठ आते है उनको लक्ष्य मे रखकर सर्वार्थमिद्धिकार ने कहा है कि आगम मे ऐसी बातों का होना स्वीकार करना श्रुत-अवर्णवाद है। भगवती ( शतक १५ ) आदि के केवली-आहार वर्णन को लक्ष्य मे रखकर उन्होने कहा है कि यह केवली का अवर्णवाद है।
२. अकलङ्क और विद्यानन्द आदि सिद्धसेन के ग्रन्थों से परिचित रहे। देखेंराजवार्तिक, ८. १. १७ तथा श्लोकवार्तिक, पृ० ३ ।
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कि उसी के फलस्वरूप सर्वार्थसिद्धि के बन जाने तथा उसके अति प्रतिष्ठित हो जाने पर अचेल पक्ष में से तत्त्वार्थ-भाष्य का रहा-सहा स्थान भी हट गया । विचार करने पर भी इस प्रश्न का अब तक कोई उत्तर नहीं मिला कि जैसे-तैसे भी सचेल पक्ष ने अंगत को अभी तक किसी-न-किसी रूप में सम्हाल रखा, तब बुद्धि में, श्रुत-भक्ति में और अप्रमाद में जो सचेल पक्ष से किसी तरह कम नही उस अचेल पक्ष ने अंग श्रुत को समूल नष्ट क्यों होने दिया ? जब कि अचेल पक्ष के अग्रगामी कुन्दकुन्द, पूज्यपाद, समन्तभद्र आदि का इतना श्रुत-विस्तार अचेल पक्ष ने सम्हालकर रखा, तब कोई कारण नहीं था कि वह आज तक भी अंगश्रुत के अमुक मूल भाग को न सम्हाल सकता | अंगश्रुत को छोड़कर अंग बाह्य की ओर दृष्टिपात करने पर भी प्रश्न रहता ही है कि पूज्यपाद के द्वारा निर्दिष्ट दशवैकालिक, उत्तराध्ययन जैसे छोटे-से ग्रन्थ अचेल पक्षीय श्रुत में से लुप्त कैसे हो गए, जब कि उनसे भी बड़े ग्रन्थ उस पक्ष में बराबर रहे । सब बातों पर विचार करने से मैं इसी निश्चित परिणाम पर पहुॅचा हूँ कि मूल अंगश्रुत का प्रवाह अनेक अवश्यम्भावी परिवर्तनों की चोटें सहन करता हुआ भी आज तक चला आया है जो श्वेताम्बर सम्प्रदाय द्वारा अभी सर्वथा मान्य है और जिसे दिगम्बर सम्प्रदाय बिलकुल नही मानता ।
श्रुत के इस सन्दर्भ में एक प्रश्न की ओर इतिहास के विद्वानों का ध्यान खींचना आवश्यक है। पूज्यपाद तथा अकलङ्क ने दशवेकालिक तथा उत्तराध्ययन का निर्देश किया है । इतना ही नही, दशवैकालिक पर तो नग्नत्व के समर्थक अपराजित आचार्य ने टीका भी लिखी थी । इन्होंने भगवती आराधना पर भी टीका लिखी है । ऐसी स्थिति में सम्पूर्ण दिगम्बर परम्परा से दशवैकालिक और उत्तराध्ययन का प्रचार क्यों उठ गया ? जब हम देखते हैं कि मूलाचार, भगवती आराधना जैसे अनेक ग्रन्थ जो कि वस्त्र आदि उपधि का भी अपवाद रूप से मुनि के लिए निरूपण करते हैं और जिनमें आर्यिकाओं के मार्ग का भी निरूपण है और जो दशवैकालिक तथा उत्तराध्ययन की अपेक्षा मुनि आचार का उत्कट प्रतिपादन नही करते वे ग्रन्थ सम्पूर्ण दिगम्बर परम्परा में एकसे मान्य हैं और जिन पर कई प्रसिद्ध दिगम्बर विद्वानों ने संस्कृत तथा
१. देखें – भगवती आराधना, पृ० ११९६; अनेकान्त, वर्ष २, पृ० ५७ ।
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अंक १,
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भाषा ( हिन्दी ) में टीकाएँ भी लिखी हैं, तब तो उपर्युक्त प्रश्न और भी बलवान् बन जाता है । मूलाचार तथा भगवती आराधना जैसे ग्रन्थों को श्रुत में स्थान देनेवाली दिगम्बर परम्परा दशवैकालिक और उत्तराध्ययन को क्यों नहीं मानती ? अथवा दशवैकालिक आदि को छोड़ देनेवाली दिगम्बर परम्परा मूलाचार आदि को कैसे मान सकती है ? इस असगतिसूचक प्रश्न का उत्तर सरल भी है और कठिन भी । ऐतिहासिक दृष्टि से विचार करें तो सरल है और केवल पन्थ दृष्टि से विचार करें तो कठिन है ।
इतिहास से अनभिज्ञ लोग बहुधा यही सोचते हैं कि अचेल या दिगम्बर परम्परा एकमात्र नग्नत्व को ही मुनित्व का अंग मानती है या मान सकती है । नग्नत्व के अतिरिक्त थोड़े भी उपकरण धारण करने को दिगम्बरत्व में कोई स्थान नहीं । जब से दिगम्बर परंपरा में तेरापन्थ को भावना ने जोर पकड़ा और दूसरे दिगम्बर अवान्तर पक्ष या तो नामशेष हो गए या तेरापन्थ के प्रभाव में दब गए तब से तो पन्थदृष्टिवालों का उपर्युक्त विचार और भी पुष्ट हो गया कि मुनित्व का अंग तो एकमात्र नग्नत्व है - थोड़ी भी उपधि उसका अंग नहीं हो सकती और नग्नत्व की असंभावना के कारण न स्त्री ही मुनि-धर्म की अधिकारिणी बन सकती है । ऐसी पन्थ दृष्टि के लोग उपर्युक्त असंगति का सच्चा समाधान प्राप्त ही नही कर सकते । उनके लिए यही मार्ग रह ता है कि या तो वे कह दें कि वैसे उपधिप्रतिपादक सभी ग्रन्थ श्वेताम्बर हैं या श्वेताम्बर प्रभाववाले किन्ही विद्वानों के हैं या उन्हें पूर्ण दिगम्बर मुनित्व का प्रतिपादन अभिप्रेत नही है । ऐसा कहकर भी वे अनेक उलझनों से मुक्त नहीं हो सकते । अतएव उनके लिए प्रश्न का सच्चा उत्तर कठिन है ।
परन्तु जैन-परम्परा के इतिहास के अनेक पहलुओं का अध्ययन तथा विचार करनेवाले के सामने वैसी कोई कठिनाई नहीं । जैन - परम्परा के इतिहास से स्पष्ट है कि अचेल या दिगम्बर पक्ष में भी अनेक सघ या गच्छ ऐसे हुए हैं जो मुनिधर्म के अगरूप में उपधि का आत्यन्तिक त्याग मानने न मानने के विषय में पूर्णतया एकमत नहीं थे । कुछ सघ ऐसे भी थे जो नग्नत्व और पाणिपात्रत्व का पक्ष लेते हुए भी व्यवहार में थोड़ी-बहुत उपधि अवश्य स्वीकार करते थे । वे एक प्रकार से मृदु या मध्यममार्गी अचेल दलवाले थे । कोई संघ या कुछ सघ ऐसे भी थे जो मात्र नग्नत्व का समर्थन करते थे और व्यवहार में भी उसी का अनुसरण करते थे । वे
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- २७ -
ही तीव्र या उत्कट अचेल दलवाले थे। जान पड़ता है कि संघ या दल कोई भी हो पर पाणिपात्रत्व सबका समान रूप में था। इसीलिए वे सब दिगम्बर ही समझे जाते थे। इसी मध्यम और उत्कट भावनावाले भिन्नभिन्न संघों या गच्छों के विद्वानों या मुनियों द्वारा रचित आचार-ग्रन्थों में नग्नत्व और वस्त्र आदि का विरोधी निरूपण आ जाना स्वाभाविक है । इसके अतिरिक्त यापनीय आदि कुछ ऐसे भी संघ हुए जो न तो पूरे सचेल पक्ष के समझे गए और न पूरे अचेल पक्ष में ही स्थान पा सके। ऐसे संघ जब लुप्त हो गए तब उनके आचार्यो की कुछ कृतियाँ तो श्वेताम्बर पक्ष के द्वारा ही मुख्यतया रक्षित हुई जो उस पक्ष के विशेष अनुकूल थीं और कुछ कृतियाँ दिगम्बर पक्ष में ही विशेषतया रह गईं और कालक्रम से दिगम्बर ही मानी जाने लगी । इस प्रकार प्राचीन और मध्यकालीन तथा मध्यम और उत्कट भावनावाले अनेक दिगम्बर संघों के विद्वानों की कृतियों में समुचित रूप से कही नग्नत्व का आत्यन्तिक प्रतिपादन और कहीं मर्यादित उपधि का प्रतिपादन दिखाई दे तो यह कोई असंगत बात नही है। इस समय दिगम्बर सम्प्रदाय में नग्नत्व की आत्यन्तिक आग्रही जो तेरापन्थीय भावना दिखाई देती है वह पिछले दो-तीन सौ वर्षों का परिणाम है। केवल इस भावना के आधार पर पुराने सब दिगम्बर समझे जानेवाले साहित्य का स्पष्टीकरण कभी सभव नहीं। दशवैकालिक आदि ग्रन्थ श्वेताम्बर परम्परा में इतनी अधिक प्रतिष्ठा को प्राप्त हैं कि जिनका त्याग आप ही आप दिगम्बर परम्परा में सिद्ध हो गया। यदि मूलाचार आदि ग्रन्थों को भी श्वेताम्बर परम्परा पूरी तरह अपना लेती तो वे दिगम्बर परम्परा में शायद ही अपना इतना स्थान बनाए रखते ।
(घ) उमास्वाति की जाति और जन्म-स्थान प्रशस्ति में स्पष्ट रूप से जातिविषयक कोई कथन नहीं है, फिर भी माता का गोत्रसूचक 'वात्सी' नाम इसमें है और 'कौभीषणि' भी गोत्रसूचक विशेषण है । गोत्र का यह निर्देश उमास्वाति के ब्राह्मण जाति का होने की सूचना देता है, ऐसा कहना गोत्र-परम्परा को ठेठ से पकड़ रखनेवाली ब्राह्मण जाति के वंशानुक्रम के अभ्यासी को शायद ही सदोष प्रतीत हो । प्रशस्ति वाचक उमास्वाति के जन्म-स्थान के रूप में 'न्यग्रोधिका' ग्राम का निर्देश करती है। यह न्यग्रोधिका स्थान कहाँ है, इसका इतिहास क्या है और आज उसको क्या स्थिति है-यह सब अंधकार में है। इसकी छानबीन करना दिलचस्पी का विषय है। प्रशस्ति में तत्त्वार्थसूत्र
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- २८ - के रचना-स्थान के रूप में 'कुसुमपुर' का निर्देश है । यह कुसुमपुर हो इस समय बिहार का पटना है। प्रशस्ति में कहा गया है कि विहार करतेकरते पटना मे तत्त्वार्थ को रचना हुई। इस पर से नीचे की कल्पनाएँ स्फुरित होती हैं :
१. उमास्वाति के समय में और कुछ आगे-पीछे भी मगध में जैन भिक्षओं का खुब विहार होता रहा होगा और उस तरफ जैन संघ का बल तथा आकर्षण भी रहा होगा ।
२. विशिष्ट शास्त्र के लेखक जैन भिक्ष अपनी अनियत स्थानवास की परम्परा को बराबर कायम रख रहे थे और ऐसा करके उन्होंने अपने कुल को 'जंगम विद्यालय' बना लिया था।
३. विहार-स्थान पाटलिपुत्र (पटना) और मगधदेश से जन्म-स्थान न्यग्रोधिका सामान्य तौर पर बहुत दूर नहीं रहा होगा ।
२. तत्त्वार्थ के व्याख्याकार तत्त्वार्थ के व्याख्याकार श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों सम्प्रदायों में हए हैं, परन्तु इसमें अन्तर यह है कि श्वेताम्बर परम्परा में सभाष्य तत्त्वार्थ की व्याख्याओं की प्रधानता है और दिगम्बर परम्परा में मूल सूत्रों की ही व्याख्याएँ हुई है। दोनो सम्प्रदायों के इन व्याख्याकारों में कितने ही ऐसे विशिष्ट विद्वान् हैं जिनका स्थान भारतीय दार्शनिकों में भी आ सकता है। अतः यहाँ ऐसे कुछ विशिष्ट व्याख्याकारों का ही सक्षेप में परिचय दिया जा रहा है।
(क) उमास्वाति तत्त्वार्थसूत्र पर भाष्यरूप में व्याख्या लिखनेवाले स्वयं सूत्रकार उमास्वाति ही हैं। इनके विषय में पहले लिखा जा चुका है। अतः इनके विषय में यहाँ अलग से लिखना आवश्यक नहीं है। सिद्धसेनगणि' की भाँति आचार्य हरिभद्र भी भाष्यकार और सूत्रकार को एक ही समझते हैं, ऐसा उनकी भाष्य-टीका के अवलोकन से स्पष्ट ज्ञात होता है। हरिभद्र
१. देखे –प्रस्तुत प्रस्तावना, पृ० १३, टि० १ और पृ० १५-१६ ।
२. "एतन्निबन्धनत्वात् संसारस्येति स्वामियमभिधाय मतान्तरमुपन्य. सन्नाह-एके त्वित्यादिना"-पृ० १४१ ।
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- २९ - प्रशमरतिको भाष्यकार की ही रचना समझते हैं। ऐसी स्थिति में भाष्य को स्वोपज्ञ न मानने को आधुनिक कल्पनाएँ भ्रांत ठहरती है । पूज्यपाद, अकलङ्ग आदि किसी प्राचीन दिगम्बर टीकाकार ने ऐसी बात नही उठाई है जो भाष्य की स्वोपज्ञता के विपरीत हो ।
(ख ) गन्धहस्तो वाचक उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्र पर व्याख्याकार या भाष्यकार के रूप में जैन परम्परा में दो गंधहस्ती प्रसिद्ध है। उनमें एक दिगम्बराचार्य
और दूसरे श्वेताम्बराचार्य माने जाते है। गंधहस्ती विशेषण है। यह विशेषण दिगम्बर परम्परा के प्रसिद्ध विद्वान् आ० समन्तभद्र का समझा जाता है और इससे फलित होता है कि आप्तमीमांसा के रचयिता गंधहस्तिपदधारी स्वामी समन्तभद्र ने वा० उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्र पर व्याख्या लिखी थी। श्वेताम्बर परम्परा में गंधहस्तो विशेषण वृद्धवादी के शिष्य सिद्धसेन दिवाकर का है। यह मान्यता इस समय प्रचलित है। इसके अनुसार फलित होता है कि सन्मति के रचयिता और वृद्धवादी के शिष्य सिद्धसेन दिवाकर ने वाचक उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्र पर व्याख्या लिखी थी। ये दोनों मान्यताएँ और उन पर से निष्पन्न उक्त मन्तव्य अप्रामाणिक होने से ग्राह्य नही है। दिगम्बराचार्य समन्तभद्र की कृति के लिए 'गंधहस्ती' विशेषण व्यवहृत मिलता है, जो लघुसमन्तभद्रकृत अष्टसहस्री के टिप्पण से स्पष्ट है। लघुसमन्तभद्र का काल १४वीं-१५वीं शताब्दी के बीच का माना जाता है। उनके प्रस्तुत उल्लेख का समर्थक एक भी सुनिश्चित प्रमाण अब तक उपलब्ध नही है। अब तक के अध्ययनचिन्तन से मै इसी परिणाम पर पहुंचा हूँ कि कही भाष्य, कहीं महाभाष्य,
१. “यथोक्तमनेनैव सूरिणा प्रकरणान्तरे" कहकर हरिभद्र ने भाष्यटीका मे प्रशमरति की कारिकाएँ २१० व २११ उद्धृत की हैं।
२. 'शक्रस्तव' नाम से प्रसिद्ध 'नमोत्थुणं' के प्राचीन स्तोत्र मे 'पुरिसवरगन्धहत्योणं' कहकर तीर्थकर को गन्धहस्ती विशेषण दिया गया है। दसवी और ग्यारहवी शक शताब्दी के दिगम्बर शिलालेखों मे एक वीर सैनिक को गन्धहस्ली उपनाम दिया गया मिलता है । एक जैन मन्दिर का नाम भी 'सवति गन्धवारण जिनालय' है । देखे-डा० हीरालाल जैन द्वारा सम्पादित जैन शिलालेख संग्रह, पृ० १२३ व १२९ मे चन्द्रगिरि पर्वत के शिलालेख ।
३. देखे-स्वामी समन्तभद्र, पृ० २१४-२२० ।
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- ३० -
कहीं तत्त्वार्थभाष्य, कही गन्धहस्तिभाष्य जैसे अलग-अलग अनेक उल्लेख दिगम्बर-साहित्य में बिखरे हुए मिलते हैं और कहीं स्वामी समन्तभद्र नाम का निर्देश तत्त्वार्थ-महाभाष्य के साथ भी है। यह सब देखकर बाद के अर्वाचीन लेखकों को यह भ्रान्तिमूलक विश्वास हुआ कि स्वामी समन्तभद्र ने उमास्वाति के तत्त्वार्थ पर गन्धहस्ती नामक महाभाष्य लिखा था । इसी विश्वास ने उन्हें ऐसा लिखने को प्रेरित किया। वस्तुत. उनके सामने न तो ऐसा कोई प्राचीन आधार था और न कोई ऐसी कृति थी जो तत्त्वार्थसूत्र पर गन्धहस्ती-भाष्य नामक व्याख्या को समन्तभद्रकर्तृक सिद्ध करते । भाष्य, महाभाष्य, गन्ध-हस्ती आदि बड़े-बड़े शब्द तो थे ही, अतएव यह विचार आना स्वाभाविक है कि समन्तभद्र जैसे महान् आचार्य के अतिरिक्त ऐसी कृति कौन रच सकता है ? विशेषकर इस स्थिति में कि जब अकलङ्क आदि बाद के आचार्यो के द्वारा रचित कोई कृति गन्धहस्ती-भाष्य नाम से निश्चित न की जा सकती हो । उमास्वाति के अतिप्रचलित तत्त्वार्थ पर स्वामी समन्तभद्र जैसे आचार्य की छोटी-मोटी कोई कृति हो तो उसके उल्लेख या किसी अवतरण का सर्वार्थसिद्धि, राजवार्तिक आदि अति-शास्त्रीय टोकाओं में सर्वथा न पाया जाना कभी संभव नही। यह भी सम्भव नहीं है कि वैसी कोई कृति सर्वार्थसिद्धि आदि के समय तक लुप्त ही हो गई हो जब कि समन्तभद्र के अन्य महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ विद्यमान हैं। जो हो, मुझे अब कोई सन्देह नहीं है कि तत्त्वार्थ पर समन्तभद्र का गन्धहस्ती नामक कोई भाष्य नहीं था।
पं० जुगलकिशोरजी मुख्तार ने अनेकान्त (वर्ष १, पृ० २१६) में लिखा है कि 'धवला' में गन्धहस्ती-भाष्य का उल्लेख आता है, पर हमें धवला की मूल प्रति को जाँच करनेवाले पं० हीरालालजी न्यायतीर्थ के द्वारा विश्वस्त रूप से ज्ञात हुआ है कि धवला में गन्धहस्ती-भाष्य शब्द का उल्लेख नही है।
वृद्धवादी के शिष्य सिद्धसेन दिवाकर के गन्धहस्ती होने की श्वेताम्बरमान्यता सत्रहवीं-अठारहवीं शताब्दी के प्रसिद्ध विद्वान् उपाध्याय यशोविजयजी के एक उल्लेख पर से चली है। उपाध्याय यशोविजयजी ने अपने 'महावीरस्तव' में गन्धहस्ती के कथन के रूप में सिद्धसेन दिवाकर
१. "अनेनैवाभिप्रायेणाह गन्धहस्ती सम्मतौ'- न्यायखण्डखाद्य, पृ० १६।
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के 'सन्मति' की एक गाथा उद्धृत को है। उस पर से आजकल यह माना जाता है कि सिद्धसेन दिवाकर ही गन्धहस्ती हैं। परन्तु उपाध्याय यशोविजयजी का यह उल्लेख भ्रान्तिपूर्ण है। इसके दो प्रमाण इस समय स्पष्ट है । एक तो यह कि उ० यशोविजयजी से पूर्व के किसी भी प्राचीन या अर्वाचीन ग्रन्थकार ने सिद्धसेन दिवाकर के साथ या निश्चित रूप से उनकी मानी जानेवाली कृतियों के साथ या उन कृतियों से उद्धृत अवतरणों के साथ एक भी स्थल पर गन्धहस्ती विशेषण का उपयोग नहीं किया है। सिद्धसेन दिवाकर की कृति के अवतरण के साथ 'गन्धहस्ती' विशेषण का प्रयोग करनेवाले केवल यशोविजयजी ही है, अत: उनका यह कथन किसी भी प्राचीन आधार से रहित है। इसके अतिरिक्त सिद्धसेन दिवाकर के जीवन-वृत्तान्तवाले जितने प्राचीन या अर्वाचीन प्रबन्ध मिलते हैं उनमें कही भी 'गन्धहस्ती' पद व्यवहृत दृष्टिगोचर नहीं होता, जब कि दिवाकर पद प्राचीन प्रबन्धों तक में और दूसरे आचार्यों के ग्रन्थों में भी प्रयुक्त मिलता है। दूसरा प्रबल और अकाटय प्रमाण यह है कि उपाध्याय यशोविजयजी से पूर्ववर्ती अनेक ग्रन्थों में जो गन्धहस्ती के अवतरण मिलते हैं वे सभी अवतरण कहीं
१ भद्रेश्वरकृत कथावलीगत सिद्धसेनप्रबन्ध, अन्य लिखित सिद्धसेनप्रबन्ध, प्रभावकचरित्रगत वृद्धवादिप्रबन्धांतर्गत सिद्धसेनप्रबन्ध, प्रबन्धचितामणिगत विक्रमप्रबन्ध और चतुर्विशतिप्रबन्ध ।
सिद्धसेन के जीवन-प्रबन्धो मे जैसे दिवाकर उपनाम आता है और उसका समर्थन मिलता है वैसे गन्धहस्ती के विषय में कुछ भी नही है। यदि गन्धहस्ती पद का इतना प्राचीन प्रयोग मिलता है तो यह प्रश्न होता ही है कि प्राचीन ग्रंथकारों ने दिवाकर पद को तरह गन्धहस्ती पद सिद्धसेन के नाम के साथ या उनकी किसी निश्चित कृति के साथ प्रयुक्त क्यों नही किया ?
२. देखें-हरिभद्रकृत पंचवस्तु, गाथा १०४८ ।
३. तुलना के लिए देखे -
"निद्रादयो यतः समधिगताया एव । “आह च गन्धहस्ती-निद्रादयः दर्शनलब्धे उपयोगघाते प्रवर्तन्ते चक्षु- समधिगताया एव दर्शनलब्धरुपघाते दर्शनावरणादिचतुष्टयं तूद्गमोच्छेदित्वात् । वर्तन्ते दर्शनावरणचतुष्टयन्तूगमोच्छेदिमूलघातं निहन्ति दर्शनलब्धिम् इति ।" । त्वात् समूलघात हन्ति दर्शनलब्धिमिति।"
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- ३२ - तो जरा भी परिवर्तन के बिना और कहीं बहुत थोड़े परिवर्तन के साथ
और कहीं भावसाम्य के साथ सिहसूर के प्रशिष्य और भास्वामी के शिष्य सिद्धसेनकृत तत्त्वार्थभाष्य की वृत्ति में मिलते हैं। इस पर से इतना तो निर्विवाद सिद्ध होता है कि प्रचलित परम्परा के अनुसार सिद्धसेन दिवाकर नहीं किन्तु उपलब्ध तत्त्वार्थभाष्य की वृत्ति के -तत्त्वार्थभाष्यवृत्ति,भाग २, पृ० १३५, | प्रवचनसारोद्धार की सिद्धसेनीय वृत्ति, पं० ४ ।
पृ० ३५८, प्र० ५० ५; सित्तरीटीका मलयगिरिकृत गाथा ५; देवेन्द्रकृत
प्रथम कर्मग्रन्थ टीका, गाथा १२ । "या तु भवस्थकेवलिनो द्विविधस्य । “यदाह गन्धहस्ती-भवस्थकेवसयोगाऽयोगभेदस्य सिद्धस्य वा दर्शन- ! लिनो द्विविधस्य सयोगायोगभेदस्य मोहनीयसप्तकक्षयादपायसद्रव्यक्षयाच्चो- सिद्धस्य वा दर्शनमोहनीसप्तकक्षयादपादि सा सादिरपर्यवसाना इति ।" विभूता सम्यग्दृष्टिः सादिरपर्यवसाना -तत्त्वार्थभाष्यवृत्ति, पृ० ५९, पं० २७ ।। इति ।"-नवपदवृत्ति, पृ० ८८ ।
"तत्र याऽपायसव्व्यवर्तिनी श्रेणि- | "यदुक्तं गन्धहस्तिना-तत्र याऽपाकादिनां सद्दव्यापगमे च भवति अपाय- । यसव्यवर्तिनी, अपायो-मतिज्ञानांश. सहचारिणी सा सादिसपर्यवसाना।" सव्व्याणि-शुद्धसम्यक्त्वदलिकानि -तत्त्वार्थभाष्यवृत्ति, पृ० ५९, पं० २७ । तद्वतिनी श्रेणिकादीनां च सद्रव्याप
गमे भवत्यपायसहचारिणी सा सादिसपर्यवसाना इति ।"
--नवपदवृत्ति, पृ०८८ । "प्राणापानावुच्छ्वासनिःश्वास- "यदाह गन्धहस्ती-प्राणापानौ क्रियालक्षणौ ।"
उच्छ्वासनिःश्वासौ इति।"-धर्मसंग्रहणी-तत्त्वार्थभाष्यवृत्ति, पृ०१६१, पं० १३ । । वृत्ति (मलयगिरि), पृ० ४२, प्र० पं० २।
"अतएव च भेदः प्रदेशानामवय- ___"यद्यप्यवयवप्रदेशयोर्गन्धहस्त्यादिषु वानां च, ये न जातुचिद् वस्तुव्यतिरे- | भेदोऽस्ति ।" केणोपलभ्यन्ते ते प्रदेशाः ये तु विशक
-स्याद्वादमंजरी, श्लो० ९, पृ० ६३ । लिताः परिकलितमूर्तयः प्रज्ञापथमवतरन्ति तेऽवयवाः ।" -तत्त्वार्थभाष्यवृत्ति, पृ० ३२८,पं० २१ ।
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- ३३ -
रचयिता भास्वामी के शिष्य सिद्धसेन ही गन्धहस्ती हैं। नाम के साहश्य से और प्रकाण्डवादी तथा कुशल ग्रन्थकार के रूप में प्रसिद्ध सिद्धसेन दिवाकर ही गन्धहस्ती हो सकते हैं ऐसी धारणा से उ० यशोक्जियजी ने दिवाकर के लिए गन्धहस्तो विशेषण का प्रयोग करने की भ्रान्ति की होगी, यही सम्भव है।
उपर्युक्त युक्तियों से स्पष्ट देखा जा सकता है कि श्वेताम्बर परम्परा में प्रसिद्ध गंधहस्ती तत्त्वार्थसूत्र के भाष्य की उपलब्ध विस्तीर्ण वृत्ति के रचयिता सिद्धसेन ही है। इस से हमें निश्चित रूप से ऐसा मानने के कारण मिलते हैं कि दसवीं शताब्दी के अभयदेव ने अपनी सन्मति को टीका' में दो स्थानों पर गंधहस्ती पद का प्रयोग कर उनकी तत्त्वार्थ-व्याख्या देखने की जो सूचना को है वह अन्य कोई नहीं, प्रत्युत उपलब्ध भाष्यवृत्ति के रचयिता सिद्धसेन ही हैं। इसलिए सन्मतिटीका में अभयदेव ने तत्त्वार्थ की जिस गंधहस्तिकृत व्याख्या को देखने की सूचना की है उसके लिए अब नष्ट या अनुपलब्ध साहित्य की ओर दृष्टिपात करना आवश्यक नहीं है। इसी सिलसिले में यह मानना भी आवश्यक प्रतीत होता है कि नवी-दसवीं शताब्दी के ग्रन्थकार शीला ने अपनी आचारांगसूत्र की टीका में जिस गन्धहस्तिकृत विवरण का
१. सन्मति के दूसरे काण्ड की प्रथम गाथा की व्याख्या की समाप्ति में टीकाकार अभयदेव ने तत्त्वार्थ के प्रथम अध्याय के सूत्र ९ से १२ तक उद्धृत किए है और उन सूत्रों की व्याख्या के विषय मे गन्धहस्ती की सिफारिश करते हुए कहा है कि "अस्य च सूत्रसमूहस्य व्याख्या गन्धहस्तिप्रभृतिभिविहितेति न प्रदर्श्यते"पृ० ५९५, पं० २४ । इसी प्रकार तृतीय काण्ड की गाथा ४४ मे 'हेतुवाद' पद की व्याख्या करते हुए उन्होने “सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग.' रखकर इसके लिए भी लिखा है-' तथा गन्धहस्तित्रभृतिभिर्विक्रान्तमिति नेह प्रदर्श्यते ।" - पृ० ६५१, पं० २० ।
२. देखें-आचार्य जिनविजयजी द्वारा सम्पादित 'जीतकल्प' की प्रस्तावना के बाद परिशिष्ट मे शीलाङ्काचार्य के विषय मे अधिक विवरण, पृ० १९-२० । ३. शस्त्रपरिज्ञाविवरणमतिबहुगहनं च गन्धहस्तिकृतम्' । तथा"शरत्रपरिज्ञाविवरणमतिबहुगहनमितीव किल वृतं पूज्यैः । श्रीगन्धहस्तिमिविवृणोमि ततोऽहमवशिष्टम् ।।"
- आचारांगटीका, पृ० १ तथा ८२ का प्रारंभ ।
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उल्लेख किया है वह भी तत्त्वार्थभाष्य की वृत्ति के रचयिता सिद्धसेन का ही होना चाहिए, क्योकि बहुत ही निकट-काल के शीलाङ्क और अभयदेव दोनों का भिन्न-भिन्न आचार्यों के लिए गन्धहस्ती पद का प्रयोग करना असम्भव है। अभयदेव जैसे बहुश्रुत विद्वान् ने जैन आगमों में प्रथम स्थानीय आचाराङ्ग पर कुछ ही समय पूर्व के शीलाङ्कसूरिरचित वृत्ति न देखी हो, यह कल्पना करना ही कठिन है। फिर, शीलाङ्क ने स्वयं ही अपनी टीकाओं में जहाँ-जहाँ सिद्धसेन दिवाकरकृत सन्मति की गाथाएँ उद्धृत की है वहाँ किसी भी स्थल पर गन्धहस्तिपद का प्रयोग नहीं किया, अत: शीलाङ्क के अभिप्रेत गन्धहस्ती सिद्धसेन दिवाकर नहीं हैं, यह स्पष्ट है।
ऊपर की विचारसरणी के आधार पर हमने पहले जो निर्णय किया था उसका संपूर्ण समर्थक उल्लिखित प्राचीन प्रमाण भी हमें मिल गया है, जो हरिभद्र की अपूर्ण वृत्ति के पूरक यशोभद्रसूरि के शिष्य ने लिखा है। वह इस प्रकार है
"सूरियशोभद्रस्य (हि) शिष्येण समुद्धृता स्वबोधार्थम् । तत्त्वार्थस्य हि टीका जडकायार्जना धृता यात्यां नृद्धृता ॥१॥
हरिभद्राचार्येणारब्धा विवृतार्धषडध्यायांश्च ।।
पूज्यैः पुनरुद्धृतेयं तत्त्वार्थाद्धस्य टीकान्त्या ॥२॥ ___ एतदुक्त भवति-हरिभद्राचार्येणार्धषण्णामध्यायानामाधानां टीकाकृता, भगवता तु गन्धहस्तिना सिद्धसेनेन नव्या कृता तत्त्वार्थटीका नव्य
दस्थानाकुला, तस्या एव शेषमुद्धृतं चाचार्येण [शेषं मया ] स्वबोधार्थ सात्यन्तगुर्वी च डुपड्डुपिका टीका निष्पन्ना इत्यलं प्रसंगेन ।" -पृ० ५२१॥
(ग) सिद्धसेन तत्त्वार्थभाष्य पर श्वेताम्बराचार्यो की दो पूर्ण वृत्तियाँ इस समय उपलब्ध हैं। इनमें एक बड़ी और दूसरी छोटी है। बड़ी वत्ति के रचयिता सिद्धसेन ही यहाँ अभिप्रेत है। ये सिद्धसेन दिन्नगणि के शिष्य सिंहसूर
१. देखें-गुजराती तत्त्वार्थविवेचन ( प्रथम संस्करण ), परिचय पृ० ३६ ।
२. यह पाठ अन्य लिखित प्रति से शुद्ध किया गया है। देखें-आत्मानंद प्रकाश, वर्ष ४५, अंक १०, पृ० १९३ ।।
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के शिष्य भास्वामी के शिष्य थे, यह बात इनकी भाष्यवृत्ति की अन्तिम प्रशस्ति से सिद्ध है। ' गंधहस्ती के विचार-प्रसंग में प्रयुक्त युक्तियों से यह भी ज्ञात होता है कि गंधहस्ती ये ही सिद्धसेन हैं । जब तक दूसरा कोई विशेष प्रमाण न मिले तब तक उनकी दो कृतियाँ मानने में शंका नहीं रहती-एक तो आचाराग-विवरण जो अनुपलब्ध है और दूसरी तत्त्वार्थभाष्य की उपलब्ध बड़ी वृत्ति । इनका 'गधहस्ती' नाम किसने और क्यों रखा, इस विषय में केवल कल्पना ही की जा सकती है। इन्होंने स्वयं तो अपनी प्रशस्ति में गंधहस्ती पद जोड़ा नही है। इससे मालूम होता है कि सामान्य तौर पर जैसा बहुतों के लिए घटित होता है वैसा ही इनके साथ भी घटित हुआ है अर्थात् इनके शिष्य या भक्त अनुगामी जनों ने इनको गधहस्ती के तौर पर प्रसिद्ध किया है। यह बात यशोभद्रसूरि के शिष्य के उपर्युक्त उल्लेख से और भी स्पष्ट हो जाती है। इसका कारण यह ज्ञात होता है कि प्रस्तुत सिद्धसेन सैद्धान्तिक थे और आगमशास्त्रों का विशाल ज्ञान धारण करने के अतिरिक्त वे आगमविरुद्ध प्रतीत होनेवाली चाहे जैसी तर्कसिद्ध बातो का भी बहुत ही आवेशपूर्वक खंडन करते थे और सिद्धान्त-पक्ष की स्थापना करते थे। यह बात उनको ताकिकों के विरुद्ध की गई कटु चर्चा देखने से अधिक सम्भव प्रतीत होती है। इसके अतिरिक्त उन्होंने तत्वार्थभाष्य पर जो वृत्ति लिखी है वह अठारह हजार श्लोक-प्रमाण है और कदाचित उस वक्त की रची हुई तत्त्वार्थभाष्य की सभी व्याख्याओं में बड़ी होगी। इस बड़ो वृत्ति और उसमें किए गए आगम के समर्थन को देखकर ऐसा लगता है कि उनके किसी शिष्य या भक्त अनुगामी ने उनके जीवनकाल में अथवा उनके बाद उनके लिए 'गंधहस्ती' विशेषण प्रयुक्त किया है। उनके समय के सम्बन्ध में निश्चित रूप से कुछ कहना अभी संभव नही, फिर भी वे विक्रम की सातवी और नवीं शताब्दी के मध्य के होने चाहिए, यह नि.संदेह है। उन्होंने अपनी भाष्यवृत्ति में वसुबंधु आदि अनेक बौद्ध विद्वानों
१. यही सिंहसूर नयचक्र के सुप्रसिद्ध टोकाकार है । देखें-आत्मानंद प्रकाश, वर्ष ४५, अंक१०, पृ० १९१ । ____२. प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान् 'वसुबंधु' का वे 'आमिषगृद्ध' के रूप मे निर्देश करते है-तस्मादेनःपदमेतत् वसुबन्धोरामिषगृद्धस्य गृध्रस्येवाऽप्रेक्ष्यकारिणः । जातिरुपन्यस्ता वसुबन्धुवैधेयेन । -तत्त्वार्थभाष्यवृत्ति, पृ० ६८, पं० १ तथा २९ । नागार्जुन-रचित धर्मसंग्रह, पृ० १३ पर जो आनन्तर्य पांच पाप आते है और
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का उल्लेख किया है । उनमे से एक सातवी शताब्दी के धर्मकीर्ति भी है। अर्थात् सातवी शताब्दी के पहले वे नही हुए, इतना तो निश्चित है। दूसरी ओर नवी शताब्दी के विद्वान् शीला ने गन्धहस्ती नाम से उनका उल्लेख किया है। इससे वे नवी शताब्दी के पहले किसी समय हए होंगे। सिद्धसेन नयचक के वृत्तिकार सिहसूर गणि क्षमाश्रमण के प्रशिष्य थे। सिहसूर विक्रम की सातवीं शताब्दी के मध्य में अवश्य विद्यमान थे, अतएव सिद्धसेन का समय विक्रम को सातवीं शताब्दी के अंतिम पाद से लेकर आठवी शताब्दी के मध्यभाग तक का प्रतीत होता है। सिद्धसेन ने अपनी वृत्ति में 'सिद्धिविनिश्चय' ग्रन्थ का उल्लेख किया है, जो अकलंक का है, अत: कहना चाहिए कि अकलंक और सिद्धसेन दोनों समकालीन थे । यह भी संभव है कि सिद्धसेन ने अकलंक का राजवार्तिक देखा हो ।
(घ) हरिभद्र तत्त्वार्थभाष्य की लघु वृत्ति के लेखक हरिभद्र है । यह वृत्ति रतलाम की श्री ऋषभदेवजी केसरोमल जी नामक संस्था को ओर से प्रकाशित हुई है। यह वृत्ति केवल हरिभद्राचार्य की कृति नही है, किन्तु इसकी रचना में कम-से-कम तीन आचार्यो का हाथ है। उनमें से एक हरिभद्र है। इन्ही हरिभद्र का विचार यहाँ प्रस्तुत है। श्वेताम्बर परम्परा में हरिभद्र नाम के अनेक आचार्य हो गए है। इनमें से याकिनीसूनु रूप से
जिनका वर्णन शीलांक ने सूत्रकृतांग की टीका ( पृ० २१५) मे किया है उनका उल्लेख भी सिद्धसेन करते है ।-भाष्यवृत्ति, पृ० ६७ ।
१. भिक्षुवरधर्मकीर्तिनाऽपि विरोध उक्त प्रमागविनिश्चयादौ । -तत्त्वार्थभाष्यवृत्ति, पृ० ३९७, पं० ४।
२. देखें--प्रस्तुत प्रस्तावना, पृ० ३३, टि० ३ ।
३. इस वृत्ति के रचयिता तीन से ज्यादा भी हो सकते है । हरिभद्र, यशोभद्र और यशोभद्र के शिष्य ये तीन तो निश्चित ही है, किन्तु अष्टम-नवम अध्याय के अन्त की पुष्पिका के आधार पर अन्य की भी कल्पना हो सकती है-'इति श्री तत्त्वार्यटोकायां हरिभद्राचार्यप्रारब्धायां डुपडुपिकाभिधानायां तस्यामेवान्यकर्तृकायां नवमोऽध्यायः समाप्त ।"
४. देखें-मुनि कल्याणविजयजी द्वारा लिखित धर्मसंग्रहणी की प्रस्तावना, पृ० २ तथा आगे।
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प्रसिद्ध सैकड़ों ग्रन्थों के रचयिता आ० हरिभद्र ही इस लघु वृत्ति के रचयिता माने जाते हैं। परन्तु इस विषय में कोई असंदिग्ध प्रमाण अभी हमारे सामने नही है।
मुनि श्री जंबूविजयजी ने हरिभद्र और सिद्धसेन दोनों की वृत्तियों की तुलना की है और बतलाया है कि हरिभद्र ने सिद्धसेनीय वृत्ति का अवलंबन लिया है।' यदि यह ठीक है तो कह सकते हैं कि सिद्धसेन की वृत्ति के बाद ही हरिभद्रोय वृत्ति लिखी गई है।
(ङ) यशोभद्र तथा यशोभद्र के शिष्य हरिभद्र ने साढे पाँच अध्यायों की वृत्ति लिखो। इसके बाद तत्त्वार्थभाष्य के शेष सारे भाग की वृत्ति की रचना दो व्यक्तियों के द्वारा हई, यह निश्चित जान पड़ता है। इनमे से एक यशोभद्र नाम के आचार्य हैं और दूसरे उनके शिष्य है, जिनके नाम का पता नही चला । यशोभद्र के इस अज्ञातनामा शिष्य ने दसवें अध्याय के केवल अन्तिम सूत्र के भाष्य पर वृत्ति लिखी है । इसके पहले के अर्थात् हरिभद्र द्वारा छूटे हुए शेष भाष्य-अंश पर यशोभद्र की वृत्ति है । यह बात यशोभद्रसूरि के शिष्य के वचनों से ही स्पष्ट है। ___ श्वेताम्बर परम्परा में यशोभद्र नामक अनेक आचार्य और ग्रन्थकार हुए है। उनमें से प्रस्तुत वृत्ति के लेखक यशोभद्र कौन हैं, यह अज्ञात है । प्रस्तुत यशोभद्र भाष्य की अपूर्ण वृत्ति के रचयिता हरिभद्र के शिष्य थे, इसका कोई निर्णायक प्रमाण उपलब्ध नही है। इसके विपरीत यह तो कहा ही जा सकता है कि यदि ये यशोभद्र उन हरिभद्र के शिष्य होते तो यशोभद्र के जो शिष्य वृत्ति की समाप्ति करते हैं और जिन्होंने हरिभद्र की अपूर्ण वृत्ति का अपने गुरु यशोभद्र के द्वारा निर्वाहित होना लिखा है वे अपने गुरु के नाम के साथ हरिभद्र-शिष्य इत्यादि कोई विशेषण लगाए बिना शायद ही रहते। जो हो, इतना तो अभी विचारणीय है कि ये यशोभद्र कब हए और उनकी दूसरी कृतियाँ हैं या नहीं।
१. देखे-आत्मानन्द प्रकाश, वर्ष ४५, अंक १०, पृ० १९३ । २. देखें-प्रस्तुत प्रस्तावना, पृ० ३४ । ३. देखें-मो० ६० देसाई, जैन साहित्यनो सक्षिप्त इतिहास, परिशिष्ट में यशोभद्र ।
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यह भी विचारणीय है कि यशोभद्र एकमात्र अन्तिम सूत्र की वृत्ति क्यों नहीं लिख पाए, वह उनके शिष्य को क्यों लिखनी पड़ी ?
तुलना करने से ज्ञात होता है कि यशोभद्र और उनके शिष्य की भाष्यवृत्ति गन्धहस्ती की वृत्ति के आधार पर ही लिखी गई है।
हरिभद्र के षोडशक प्रकरण पर वृत्ति लिखनेवाले एक यशोभद्रसरि हो गए है, वे ही प्रस्तुत यशोभद्र हैं या अन्य, यह भी एक विचारणीय प्रश्न है।
(च) मलयगिरि मलयगिरि' की लिखी हई तत्त्वार्थभाष्य की व्याख्या उपलब्ध नहीं है । ये विक्रम की १२वी-१३वीं शताब्दी के विश्रुत श्वेताम्बर विद्वान् हैं। ये आचार्य हेमचन्द्र के समकालीन हैं और इनकी प्रसिद्धि सर्वश्रेष्ठ टीकाकार के रूप में है । इनकी बीसों महत्त्वपूर्ण कृतियां उपलब्ध हैं।
(छ) चिरंतनमुनि चिरंतनमुनि एक अज्ञातनामा श्वेताम्बर साधु थे । इन्होंने तत्त्वार्थ पर साधारण टिप्पण लिखा है । ये विक्रम की चौदहवीं शताब्दी के बाद किसी समय हुए हैं, क्योंकि इन्होंने अध्याय ५, सूत्र ३१ के टिप्पण में चौदहवीं शताब्दी के मल्लिषेण की 'स्याद्वादमंजरी' का उल्लेख किया है।
(ज) वाचक यशोविजय वाचक यशोविजय की लिखी तत्त्वार्थभाष्य की वत्ति का अपूर्ण प्रथम अध्याय ही मिलता है । ये श्वेताम्बर सम्प्रदाय में ही नहीं किन्तु सम्पूर्ण जैन समाज में सबसे अन्त में होनेवाले सर्वोत्तम प्रामाणिक विद्वान् के रूप में प्रसिद्ध हैं। इनकी अनेक कृतियाँ उपलब्ध हैं। सतरहवींअठारहवीं शताब्दी तक होनेवाले न्यायशास्त्र के विकास को अपनाकर
१. मलयगिरि ने तत्त्वार्थटीका लिखी थी ऐसी मान्यता उनकी प्रज्ञापनावृत्ति मे उपलब्ध निम्न उल्लेख तथा ऐसे ही अन्य उल्लेखों पर से रूढ हुई है - "तच्चाप्राप्तकारित्वं तत्त्वार्थटीकादी सविस्तरेण प्रसाधितमिति ततोऽवधारणीयम् ।"-प्रज्ञापना, पद १५, पृ० २९८ ।
२. देखे----'धर्मसंग्रहणी' की प्रस्तावना, पृ० ३६ । ३. देखें-जैनतर्कभाषा, प्रस्तावना, सिंघी ग्रंथमाला।
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- ३९ - इन्होंने जैन श्रत को तर्कबद्ध किया है और भिन्न-भिन्न विषयों पर अनेक प्रकरण लिखकर जैन तत्त्वज्ञान के सूक्ष्म अध्ययन का मार्ग प्रशस्त किया है।
(झ) गणी यशोविजय गणी यशोविजय वाचक यशोविजय से भिन्न है। इनका समय अज्ञात है । इनके विषय में अन्य ऐतिहासिक परिचय भी इस समय कुछ नहीं है। इनकी कृति के रूप मे केवल तत्त्वार्थसूत्र पर गुजराती टबा-टिप्पण प्राप्त है। इसके अतिरिक्त इनकी और कोई रचना है या नही, यह ज्ञात नहीं। टिप्पण की भाषा और शैली को देखते हुए ये सतरहवीं-अठारहवीं शताब्दी के प्रतीत होते हैं। इनकी दो विशेषताएँ उल्लेखनीय हैं :
(१) जैसे वाचक यशोविजय आदि श्वेताम्बर विद्वानों ने 'अष्टसहस्री' जैसे दिगम्बर-ग्रन्थों पर टीकाएँ लिखी हैं वैसे ही गणी यशोविजय ने भी तत्त्वार्थसूत्र के सर्वार्थसिद्धिमान्य दिगम्बर सूत्रपाठ पर मात्र सूत्रों का अर्थपूरक टिप्पण लिखा है और टिप्पण लिखते हुए उन्होंने जहाँजहाँ श्वेताम्बर-दिगम्बर मतभेद या मतविरोध आता है वहाँ सर्वत्र श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार ही अर्थ किया है । सूत्रपाठ दिगम्बर होते हुए भी अर्थ श्वेताम्बरीय है ।
(२) अब तक तत्त्वार्थसूत्र पर गुजराती में टिप्पण लिखनेवालों में प्रस्तुत यशोविजय गणी ही प्रथम माने जाते हैं, क्योंकि तत्त्वार्थसूत्र पर गजराती में और किसी का कुछ लिखा हुआ अभी तक जानकारी में नही आया।
गणी यशोविजयजी के श्वेताम्बर होने की बात तो निश्चित है, क्योकि टिप्पण के अन्त में ऐसा उल्लेख है, और दूसरा सबल प्रमाण तो उनका बालावबोध-टिप्पण ही है। सूत्र का पाठभेद और दिगम्बरीय
१. “इति श्वेताम्बराचार्यश्रीउमास्वामिगण (णि) कृततत्त्वार्थसूत्र तस्य बालावबोधः श्रीयशोविजयगणिकृतः समाप्तः।"-प्रवर्तक श्री कान्तिविजय के शास्त्र-सग्रह की लिखित टिप्पणी की पुस्तक ।
२. इसे स्वीकार करने में अपवाद भी है जो कि बहुत थोड़ा है। उदाहरणार्थ अध्याय ४ का १९ वाँ सूत्र इन्होंने दिगम्बर सूत्रपाठ से नहीं लिया, क्योंकि
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सूत्रों की संख्या स्वीकार करने पर भी अर्थ उन्होंने दिगम्बर परम्परा के अनुकूल कहीं नहीं किया। हाँ, यहाँ एक प्रश्न होता है कि श्वेताम्बर होते हुए भी यशोविजयजी ने दिगम्बर सूत्रपाठ क्यों लिया ? क्या वे श्वेताम्बर सूत्रपाठ से परिचित नही थे, या परिचित होने पर भी उन्हें दिगम्बर सूत्रपाठ में ही श्वेताम्बर सूत्रपाठ की अपेक्षा अधिक महत्त्व दिखाई दिया? इसका उत्तर यही उचित जान पड़ता है कि वे श्वेताम्बर सूत्रपाठ से परिचित तो अवश्य ही होगे और उनकी दृष्टि में उसी पाठ का महत्त्व भी होगा, क्योकि वैसा न होता तो वे श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार टिप्पणी लिखते ही नहीं। ऐसा होने पर भी दिगम्बर सूत्रपाठ ग्रहण करने का कारण यह होना चाहिए कि जिस सूत्रपाठ के आधार पर सभी दिगम्बर विद्वान् हजार वर्ष से दिगम्बर परम्परा के अनुसार ही श्वेताम्बर आगमो से विपरीत अर्थ करते आए है' उसी सूत्रपाठ से श्वेताम्बर परम्परा के ठीक अनुकूल अर्थ निकालना और करना बिलकुल शक्य तथा संगत है, ऐसी छाप दिगम्बर पक्ष पर डालना और साथ ही श्वेताम्बर अभ्यासियो को दर्शाना कि दिगम्बर या श्वेताम्बर चाहे जो सूत्रपाठ लो, पाठभेद होते हुए भी अर्थ तो एक ही प्रकार का निकलता है और वह श्वेताम्बर परम्परा के अनुकूल ही है-दिगम्बर सूत्रपाठ से चौंकने की या उसे विरोधी पक्ष का समझकर फेक देने की कोई आवश्यकता नहीं। चाहे तो भाष्यमान्य सूत्रपाठ सीखें या सर्वार्थसिद्धिमान्य सूत्रपाठ याद करें। तत्त्व दोनों में एक ही है। इस तरह एक ओर दिगम्बर विद्वानों को यह बतलाने के लिए कि उनके सूत्रपाठ में से सरलतापूर्वक सत्य अर्थ क्या निकल सकता है और दूसरी ओर श्वेताम्बर अभ्यासियों को पक्षभेद के कारण दिगम्बर सूत्रपाठ से न चौकें यह समझाने के उद्देश्य से ही इन यशोविजयजी ने दिगम्बर सूत्रपाठ पर टिप्पणी लिखी हो ऐसा जान पड़ता है।
(ज) पूज्यपाद पूज्यपाद का मूल नाम देवनन्दी है। ये विक्रम की पांचवी छठी शताब्दी में हुए हैं। इन्होंने व्याकरण आदि अनेक विषयों पर ग्रन्थ लिखे
दिगम्बर परम्परा सोलह स्वर्ग मानती है इसलिए इन्होने यहाँ बारह स्वर्गों के नामवाला श्वेताम्बर सूत्र लिया है।
१. देखें-सर्वार्थसिद्धि, २. ५३; ९. ११ और १०.९ ।
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हैं, जिनमें से कुछ तो उपलब्ध है और कुछ अभी तक मिले नहीं।' दिगम्बर व्याख्याकारों में पूज्यपाद से पहले केवल शिवकोटि के ही होने की सूचना मिलती है। इन्हीं पूज्यपाद की दिगम्बरत्व-समर्थक 'सर्वार्थसिद्धि' नामक तत्त्वार्थव्याख्या बाद में सम्पूर्ण दिगम्बर विद्वानों के लिए आधारभूत बनी है।
(E) भट्ट अकलङ्क भट्ट अकलङ्क विक्रम की सातवीं-आठवीं शताब्दी के विद्वान् है। 'सर्वार्थसिद्धि' के बाद तत्त्वार्थ पर इनकी ही व्याख्या मिलनी है जो 'राजवातिक' के नाम से प्रसिद्ध है। ये जैन-न्याय के प्रस्थापक विशिष्ट गण्यमान्य विद्वानों में से एक है। इनकी कितनी ही कृतियां उपलब्ध हैं जो जैनन्याय के प्रत्येक अभ्यासी के लिए महत्त्वपूर्ण है।
(ठ) विद्यानन्द विद्यानन्द विक्रम की नवीं-दसवीं शताब्दी के विद्वान् हैं । इनकी कितनी ही कृतियाँ उपलब्ध हैं। ये भारतीय दर्शनों के विशिष्ट ज्ञाता थे और इन्होंने तत्त्वार्थ पर 'श्लोकवार्तिक' नामक पद्यबद्ध विस्तृत व्याख्या लिखकर कुमारिल जैसे प्रसिद्ध मीमांसक ग्रन्थकारों की स्पर्धा की और जैनदर्शन पर किए गए मीमांसकों के प्रचण्ड आक्रमण का सबल उत्तर दिया।
(ड) श्रुतसागर 'श्र तसागर' नामक दिगम्बर सूरि १६वीं शताब्दी के विद्वान् हैं। इन्होंने तत्त्वार्थ पर टीका लिखी है। इनकी अन्य कई रचनाएँ हैं।
१. देखें--जैन साहित्य संशोधक, प्रथम भाग, पृ० ८३ ।।
२. शिवकोटिकृत तत्त्वार्थ-व्याख्या, उसके अवतरण आदि आज उपलब्ध नहीं है । उन्होंने तत्त्वार्थ पर कुछ लिखा था, ऐसी सूचना कुछ अर्वाचीन शिलालेखों की प्रशस्तियों से मिलती है । शिवकोटि समन्तभद्र के शिष्य थे, ऐसी मान्यता है । देखें-स्वामी समन्तभद्र , पृ० ९६ ।
३. देखें-न्यायकुमुदचन्द्र की प्रस्तावना । ४. देखे-अष्टसहस्री एवं तत्त्वार्थश्लोकवात्तिक की प्रस्तावना ।
५. देखें भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित श्रुतसागरी वृत्ति की प्रस्तावना, पृ० ९८ ।
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(ढ) विबुधसेन, योगीन्द्रदेव, लक्ष्मीदेव, योगदेव और अभयनन्दिसूरि आदि
अनेक दिगम्बर विद्वानों ने तत्त्वार्थ पर साधारण संस्कृत व्याख्याएँ लिखी हैं । उनका मुझे विशेष परिचय नही मिला । इतने संस्कृत व्याख्याकारों के अतिरिक्त तत्त्वार्थ की हिन्दी आदि भाषाओं में टीका लिखनेवाले अनेक दिगम्बर विद्वान् हो गए हैं, जिनमें से कुछ ने तो कन्नड़ भाषा में टीकाएँ लिखी हैं और शेष ने हिन्दी भाषा में टीकाएँ लिखी हैं ।
३. तत्त्वार्थसूत्र
तत्त्वार्थशास्त्र का बाह्य तथा आभ्यन्तर विशेष परिचय प्राप्त करने के लिए मूल ग्रन्थ के आधार पर नीचे लिखी चार बातों पर विचार किया जाता है- ( क ) प्रेरक सामग्री, ( ख ) रचना का उद्देश्य, ( ग ) रचनाशैली और (घ ) विषयवर्णन |
( क ) प्रेरक सामग्री
ग्रन्थकार को जिस सामग्री ने 'तत्त्वार्थ सूत्र' लिखने की प्रेरणा दी वह मुख्य रूप से चार भागों में विभाजित की जाती है ।
१. आगमज्ञान का उत्तराधिकार - वैदिक दर्शनों में जैसे वेद वैसे ही जैनदर्शन में आगम-ग्रन्थ मुख्य प्रमाण माने जाते हैं, दूसरे ग्रन्थों का प्रामाण्य आगम का अनुसरण करने में ही है । इस आगमज्ञान का पूर्व परम्परा से चला आया उत्तराधिकार वाचक उमास्वाति को समुचित रूप में मिला था, इसलिए सम्पूर्ण आगमिक विषयों का ज्ञान उन्हें स्पष्ट तथा व्यवस्थित रूप में था ।
२. संस्कृत भाषा - काशी, मगध, बिहार आदि प्रदेशों में रहने तथा विचरने के कारण और कदाचित् ब्राह्मणजाति के होने के कारण वाचक उमास्वाति ने अपने समय की प्रधान भाषा संस्कृत का गहरा अध्ययन किया था । ज्ञानप्राप्ति के लिए प्राकृत भाषा के अतिरिक्त संस्कृत भाषा का द्वार ठीक-ठीक खुलने से संस्कृत भाषा के वैदिक दर्शनसाहित्य और बौद्ध दर्शनसाहित्य को जानने का उन्हें अवसर मिला और उस अवसर का पूरा उपयोग करके उन्होने अपने ज्ञानभंडार को खूब समृद्ध किया ।
१. देखें – तत्त्वार्थभाष्य के हिन्दी अनुवाद की श्री नाथूरामजी प्रेभी की
प्रस्तावना ।
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- ४३ - ३. दर्शनान्तरों का प्रभाव-संस्कृत भाषा द्वारा वैदिक और बौद्ध साहित्य में प्रवेश करने के कारण उन्होंने तत्कालीन नई-नई रचनाएँ देखीं, उनकी वस्तुओं तथा विचारसरणियों को जाना, उन सबका उन पर गहरा प्रभाव पड़ा और इसी ने उन्हे जैन साहित्य में पहले से स्थान न पानेवाली संक्षिप्त दार्शनिक सूत्रशैली तथा संस्कृत भाषा में ग्रन्थ लिखने को प्रेरित किया।
४. प्रतिभा-उक्त तीनों हेतुओं के होते हुए भी यदि उनमें प्रतिभा न होती तो तत्त्वार्थ का इस रूप में कभी उद्भव ही न होता। अतः उक्त तीनों हेतुओं के साथ प्रेरक सामग्रो में उनकी प्रतिभा का महत्त्वपूर्ण स्थान है।
( ख ) रचना का उद्देश्य कोई भी भारतीय शास्त्रकार जब स्वीकृत विषय पर शास्त्र-रचना करता है तब वह अपने विषयनिरूपण के अन्तिम उद्देश्य के रूप में मोक्ष को ही रखता है, फिर भले ही वह विषय अर्थ, काम, ज्योतिष या वैद्यक जैसा आधिभौतिक हो अथवा तत्त्वज्ञान और योग जैसा आध्यात्मिक । सभी मुख्य-मुख्य विषयों के शास्त्रों के प्रारम्भ में उस-उस विद्या के अन्तिम फल के रूप में मोक्ष का ही निर्देश हुआ और उपसंहार में भी उस विद्या से मोक्षसिद्धि का कथन किया गया है।
वैशेषिकदर्शन का प्रणेता कणाद प्रमेय की चर्चा करने से पूर्व उस विद्या के निरूपण को मोक्ष का साधनरूप बतलाकर ही उसमें प्रवर्तित होता है। न्यायदर्शन का सूत्रकार गौतम प्रमाणपद्धति के ज्ञान को मोक्ष का द्वार मानकर ही उसके निरूपण में प्रवृत्त होता है। सांख्यदर्शन का निरूपक भी मोक्ष के उपायभूत ज्ञान की पूर्ति के लिए अपनी विश्वोत्पत्ति विद्या का वर्णन करता है। ब्रह्ममीमांसा में ब्रह्म और जगत् का निरूपण भी मोक्ष के साधन की पूर्ति के लिए ही हआ है। योगदर्शन में योगक्रिया और अन्य बहुत-सी प्रासंगिक बातों का वर्णन मात्र मोक्ष का उद्देश्य सिद्ध करने के लिए ही है। भक्तिमागियों के शास्त्रों का उद्देश्य भी, जिनमें जीव, जगत् और ईश्वर आदि विषयों का वर्णन है, भक्ति की
१. देखे-कणादसूत्र, १. १. ४ । २. देखें-न्यायसूत्र, १ १.१। ३. देखें-ईश्वरकृष्णकृत सांख्यकारिका, का० २।
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पुष्टि द्वारा अन्त में मोक्ष प्राप्त करना ही है। बौद्ध-दर्शन के क्षणिकवाद का अथवा चार आर्यसत्यों में समाविष्ट आधिभौतिक तथा आध्यात्मिक विषय के निरूपण का उद्देश्य भी मोक्ष के अतिरिक और कुछ नहीं है। जैनदर्शन के शास्त्र भी इसी मार्ग का अवलम्बन लेकर लिखे गए हैं। वाचक उमास्वाति ने भी अन्तिम उद्देश्य मोक्ष रखकर ही उसकी प्राप्ति का उपाय सिद्ध करने के लिए निश्चित की हुई सभी वस्तुओं का वर्णन अपने तत्त्वार्थ में किया है।
(ग) रचना-शैली पहले से ही जैन आगमों की रचना-शैली बौद्ध पिटकों जैसी लम्बे और वर्णनात्मक सूत्रों के रूप में प्राकृत भाषा में चली आती थी। दूसरी ओर ब्राह्मण विद्वानों द्वारा संस्कृत भाषा की संक्षिप्त सूत्रों की रचना-शैली धीरे-धीरे बहुत प्रतिष्ठित हो गई थी। इस संस्कृत सूत्र-शैली ने वाचक उमास्वाति को आकर्षित किया और उसी में उन्हे लिखने की प्रेरणा हई । जहाँ तक हमारा खयाल है, जैन संप्रदाय में संस्कृत भाषा में छोटे-छोटे सूत्रों के रचयिता सर्वप्रथम उमास्वाति ही हैं। उनके बाद हो यह सूत्रशैली जैन परम्परा में प्रतिष्ठित हुई और व्याकरण, अलकार, आचार, नीति, न्याय आदि अनेक विषयों पर श्वेताम्बर-दिगम्बर दोनों विद्वानों ने इस शैली में संस्कृत भाषाबद्ध ग्रन्थों की रचना की।
उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्र कणाद के वैशेषिकसूत्रों की भाँति दस
१. वाचक उमास्वाति को तत्त्वार्थ-रचना की प्रेरणा 'उत्तराध्ययन' के २८वें अध्ययन से मिली है, ऐसा ज्ञात होता है । इस अध्ययन का नाम 'मोक्षमार्ग' है । इस अध्ययन मे मोक्ष के मार्गों को सूचित कर उनके विषय के रूप मे जैन तत्त्वज्ञान का अत्यन्त सक्षेप मे निरूपण है। इसी वस्तु का उमास्वाति ने विस्तार करके उसमें समग्र आगम के तत्त्वों को गंथ दिया है। उन्होने अपने सूत्र-ग्रंथ का प्रारम्भ भी मोक्षमार्ग प्रतिपादक सूत्र से ही किया है। दिगम्बर परम्परा मे तो तत्त्वार्थसूत्र ‘मोक्षशास्त्र' के नाम से ही प्रसिद्ध है। बौद्ध-परम्परा मे विशुद्धिमार्ग नामक अति महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ प्रसिद्ध है। इसकी रचना पाँचवी सदी के आसपास पालि भाषा मे बुद्धघोष ने की है। इसमे समग्र पालि-पिटकों का सार है । इसका पूर्ववर्ती विमुक्तिमार्ग नामक ग्रन्थ भी बौद्ध-परम्परा मे था जिसका अनुवाद चीनी भाषा मे मिलता है। विशुद्धिमार्ग और विमुक्तिमार्ग दोनो शब्दों का अर्थ मोक्षमार्ग ही है ।
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अध्यायो में विभक्त है, जिनकी संख्या ३४४ है, जब कि कणाद के सूत्रों की सख्या ३३३ है। इन अध्यायों मे वैशेषिक आदि सूत्रों के सदृश आह्निक-विभाग अथवा ब्रह्मसूत्र आदि के समान पाद-विभाग नहीं है। जैन साहित्य में 'अध्ययन' के स्थान पर 'अध्याय' का आरंभ करनेवाले भी उमास्वाति ही है। उनके द्वारा शुरू न किया गया आह्निक और पाद-विभाग भी आगे चलकर उनके अनुयायी अकलंक आदि द्वारा शुरू कर दिया गया है। बाह्य-रचना में कणादसूत्र के साथ तत्त्वार्थसत्र का विशेष साम्य होते हुए भी उसमें जानने योग्य एक विशेष अन्तर है, जो जैनदर्शन के परम्परागत मानस पर प्रकाश डालता है। कणाद अपने मंतव्यों को सूत्र मे प्रतिपादित करके उनको साबित करने के लिए अक्षपाद गौतम के सदृश पूर्वपक्ष-उत्तरपक्ष न करते हुए भी उनकी पुष्टि में हेतुओं का उपन्यास तो बहुधा करते ही हैं, जब कि वाचक उमास्वाति अपने एक भी सिद्धान्त की सिद्धि के लिए कही भी युक्ति, प्रयुक्ति या हेतु नही देते । वे अपने वक्तव्य का स्थापित सिद्धान्त के रूप में ही कोई भी युक्ति या हेतु दिए बिना अथवा पूर्वपक्ष-उत्तरपक्ष किए बिना ही योगसूत्रकार पतंजलि की तरह वर्णन करते चले जाते हैं। उमास्वाति के सूत्रों और वैदिक दर्शनो के सूत्रों की तुलना करते हुए एक छाप मन पर पड़ती है कि जैन परम्परा श्रद्धा-प्रधान है, वह अपने सर्वज्ञ के वक्तव्य को अक्षरशः स्वीकार कर लेती है और उसमे शका-समाधान का अवकाश नही देखती जिसके परिणामस्वरूप सशोधन, परिवर्धन और विकास करने योग्य बुद्धि के अनेक विषय तर्कवाद के युग में भी अचचित रह कर मात्र श्रद्धा के आधार पर आज तक टिके हुए है। वैदिक दर्शनपरम्परा बुद्धिप्रधान होकर अपने माने हुए सिद्धान्तो की परीक्षा करती है, उसमे शंका-समाधानपरक चर्चा करती है और बहुत बार तो पहले से माने गए सिद्धान्तों को तर्कवाद से उलट कर नए सिद्धान्तों की स्थापना करती है अथवा उनमें संशोधन-परिवर्धन करती है। सारांश यह है कि जैन परम्परा ने विरासत में प्राप्त तत्त्वज्ञान और आचार को बनाए रखने मे जितनी रुचि ली है उतनी नूतन सर्जन में नही ली।
१. सिद्धसेन, समन्तभद्र आदि अनेक धुरंधर तार्किकों द्वारा किया हुआ तर्कविकास और ताकिक चर्चा भारतीय विचार के विकास में विशिष्ट स्थान रखती है, इस बात से इनकार नही किया जा सकता, फिर भी प्रस्तुत कथन गौण-प्रधान भाव और दृष्टिभेद की अपेक्षा से ही है। तत्त्वार्थसूत्रों और उपनिषदों आदि को
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(घ) विषय- वर्णन
विषय का चुनाव — कितने ही दर्शनों में विषय का वर्णन ज्ञेयमीमांसा - प्रधान है, जैसे कि वैशेषिक, सांख्य और वेदान्तदर्शन मे । वैशेषिकदर्शन अपनी दृष्टि से जगत् का निरूपण करते हुए उसमें मूल द्रव्य कितने है, कैसे है और उनसे सम्बन्धित दूसरे पदार्थ कितने तथा कैसे हैं, इत्यादि का वर्णन करके मुख्य रूप से जगत् के प्रमेयों की ही मीमांसा करता है । सांख्यदर्शन प्रकृति और पुरुष का वर्णन करके प्रधान रूप से जगत् के मूलभूत प्रमेय तत्त्वो की ही मोमांसा करता है । वेदान्तदर्शन भी जगत् के मूलभूत ब्रह्मतत्त्व की ही मीमांसा प्रधान रूप से करता है । परन्तु कुछ दर्शनों में चारित्र को मीमांसा मुख्य है, जैसे कि योग और बौद्ध दर्शन में । जीवन की शुद्धि क्या है, वह कैसे साध्य है, उसमें कौन-कौन बाधक हैं इत्यादि जीवन- सम्बन्धी प्रश्नों का हल योगदर्शन हे ( दुःख ), हे हेतु ( दुःख का कारण ), हान ( मोक्ष ) और हानोपाय ( मोक्ष का कारण ) इस चतुर्व्यूह का निरूपण करके और बौद्धदर्शन ने चार आर्यसत्यों का निरूपण करके किया है । अर्थात् पहले दर्शन विभाग का विषय ज्ञेयतत्त्व और दूसरे दर्शनविभाग का चारित्र है ।
भगवान् महावीर ने अपनी मीमांसा में ज्ञेयतत्त्व और चारित्र को समान स्थान दिया है । इस कारण उनकी तत्त्वमीमासा एक ओर जीवअजीव के निरूपण द्वारा जगत् के स्वरूप का वर्णन करती है और दूसरी ओर आस्रव, संवर आदि तत्त्वों का वर्णन करके चारित्र का स्वरूप दरसाती है । उनकी तत्त्वमीमांसा का अर्थ है ज्ञेय और चारित्र का
लीजिए | तत्त्वार्थ के व्याख्याकार धुरंधर तार्किक होते हुए भी और सम्प्रदाय-भेद में विभक्त होते हुए भी जो चर्चा करते है और तर्क का प्रयोग करते हैं वह सब पहले से स्थापित जैन सिद्धान्त को सष्ट करने अथवा उसका समर्थन करने के लिए ही । इनमे से किसी व्याख्याकार ने नया विचारसर्जन नही किया या श्वेताम्बरदिगम्बर की तात्त्विक मान्यता मे कुछ भी अन्तर नही डाला । दूसरी ओर उपनिषद्, गीता और ब्रह्मसूत्र के व्याख्याकार तर्क के जोर पर यहाँ तक स्वतन्त्र चर्चा करते है कि उनके बीच तात्त्विक मान्यता में पूर्व-पश्चिम जैसा अन्तर खड़ा हो गया है । इसमें क्या गुण और क्या दोष है, यह वक्तव्य नही, वक्तव्य केवल वस्तुस्थिति को स्पष्ट करना है । सापेक्ष होने से गुण और दोष दोनों परम्पराओं में हो सकते हैं और नही भी हो सकते हैं ।
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४७ -
समान रूप से विचार । इस मीमांसा में भगवान् ने नौ तत्त्वों को रखकर इनके प्रति अचल श्रद्धा को जैनत्व की प्राथमिक शर्त मानकर उसका वर्णन किया है । त्यागी या गृहस्थ कोई भी महावीर के मार्ग का अनुयायी तभी माना जा सकता है जब कि वह इन पर श्रद्धा रखता हो, अर्थात् 'जिनकथित ये तत्त्व ही सत्य है' ऐसी रुचि - प्रतीतिवाला हो, फिर चाहे इन नौ तत्त्वो का यथेष्ट ज्ञान प्राप्त न भी किया हो । इस कारण जैन दर्शन में नौ तत्त्वों के जैसा महत्त्व अन्य किसी विषय का नहीं है । इस वस्तुस्थिति के कारण ही वा० उमास्वाति ने अपने प्रस्तुत शास्त्र के विषय के रूप में इन नौ तत्त्वों को उपयुक्त समझा और इन्ही का वर्णन सूत्रों में सात संख्या द्वारा करके उन सूत्रों के विषयानुरूप 'तत्त्वार्थाधिगम' नाम दिया । उमास्वाति ने नौ तत्त्वों की मीमासा में ज्ञेयप्रधान और चारित्रप्रधान दोनों दर्शनों का समन्वय देखा, तो भी उन्होने उसमें अपने समय में विशेष चर्चाप्राप्त प्रमाण-मीमांसा के निरूपण की उपयोगिता अनुभव की । इस प्रकार उन्होंने अपने ग्रन्थ को अपने ध्यान में आनेवाली सभी मीमांसाओं से परिपूर्ण करने के लिए नौ तत्त्वों के अतिरिक्त ज्ञान-मीमांसा को विषय के रूप में स्वीकार करके तथा न्यायदर्शन की प्रमाणमीमांसा के स्थान पर जैन ज्ञानमीमांसा बतलाने की अपने ही सूत्रों में योजना की । इस तरह समुच्चय रूप में कहना चाहिए कि उमास्वाति ने अपने सूत्र के विषय के रूप मे ज्ञान, ज्ञेय और चारित्र इन तीनों मीमांसाओं को जैन दृष्टि के अनुसार अपनाया है ।
विषय का विभाजन - तत्त्वार्थ के वर्ण्य विषय को उमास्वाति ने दस अध्यायों में इस प्रकार से विभाजित किया है— पहले अध्याय में ज्ञान की, दूसरे से पाँचवें तक चार अध्यायों में ज्ञेय की और छठे से दसवें तक पांच अध्यायों में चारित्र की मीमांसा यहाँ उक्त तीनों मीमांसाओं की क्रमशः मुख्य व सारभूत बाते देकर प्रत्येक की दूसरे दर्शनों के साथ संक्षेप में तुलना की जाती है ।
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ज्ञानमीमांसा की सारभूत बातें - पहले अध्याय में ज्ञान से सम्बन्धित मुख्य आठ बातें इस प्रकार हैं - १. नय और प्रमाण रूप से ज्ञान का विभाजन । २. मति आदि आगम - प्रसिद्ध पाँच ज्ञान और उनका प्रत्यक्षपरोक्ष दो प्रमाणों में विभाजन । ३. मतिज्ञान की उत्पत्ति के साधन, उनके भेद-प्रभेद और उनकी उत्पत्ति के क्रमसूचक प्रकार । ४. जैनपरम्परा में प्रमाण माने गए आगम-शास्त्र का श्रुतज्ञान के रूप में वर्णन ।
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५. अवधि आदि तीन दिव्य प्रत्यक्ष और उनके भेद-प्रभेद तथा पारस्परिक अन्तर । ६. पांचों ज्ञानों का तारतम्य बतलाते हुए उनका विषय-निर्देश और उनकी एक साथ शक्यता। ७. कुछ ज्ञान भ्रमात्मक भी हो सकते है तथा ज्ञान की यथार्थता और अयथार्थता के कारण । ८. नय के भेद-प्रभेद ।
तुलना-ज्ञानमीमांसा की ज्ञानचर्चा 'प्रवचनसार' के ज्ञानाधिकार जैसी तर्कपूरस्सर और दार्शनिक शैली की नहीं, बल्कि नन्दीसूत्र की ज्ञानचर्चा जैसी आगमिक शैली की होकर ज्ञान के सम्पूर्ण भेद-प्रभेदों का तथा उनके विषयों का मात्र वर्णन करनेवाली और ज्ञान-अज्ञान के बीच का भेद बतानेवाली है। इसमें अवग्रह, ईहा आदि लौकिक ज्ञान की उत्पत्ति का जो क्रम है वह न्यायशास्त्र की निर्विकल्प-सविकल्प ज्ञान की और बौद्ध अभिधम्मत्यसंगहो की ज्ञानोत्पत्ति की प्रक्रिया का स्मरण कराता है। अवधि आदि तीन दिव्य प्रत्यक्ष ज्ञानों का जो वर्णन है वह वैदिक और बौद्धदर्शन के सिद्ध, योगी तथा ईश्वर के ज्ञान का स्मरण कराता है। दिव्य ज्ञान में वर्णित मनःपर्याय का निरूपण योगदर्शन और बौद्धदर्शन के परचित्तज्ञान का स्मरण दिलाता है। प्रत्यक्षपरोक्ष रूप से प्रमाणों का विभाजन वैशेषिक और बौद्धदर्शन मे वर्णित दो प्रमाणों का, सांख्य और योगदर्शन में वर्णित तीन प्रमाणों का, न्यायदर्शन में प्ररूपित चार प्रमाणों का' और मीमांसादर्शन में प्रतिपादित छ: आदि
१. तत्त्वार्थ, १५-१९ । २. देखें-मुक्तावली, का० ५२ से आगे । ३. परिच्छेद ४, पैरेग्राफ ८ से आगे। ४. तत्त्वार्थ, १. २१-२६ और ३० । ५. प्रशस्तपादकंदली, पृ० १८७ । ६. योगदर्शन, ३. १९ ।
७. अभिधम्मत्थसंगहो, परि० ९, पैरेग्राफ २४ और नागार्जुन का धर्मसंग्रह, पृ० ४।
८. तन्वार्थ, १. १०-१२ । ९. प्रशस्तपादकंदली, पृ० २१३, पं० १२ और न्यायबिन्दु, १. २ । १०. ईश्वरकृष्णकृत सांख्यकारिका, का० ४ और योगदर्शन १. ७ । ११. न्यायसूत्र, १. १. ३ ।
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प्रमाणों' का समन्वय है। इस ज्ञानमीमांसा में ज्ञान-अज्ञान का जो विवेक है वह न्यायदर्शन की यथार्थ-अयथार्थ बुद्धि तथा योगदर्शन के प्रमाण और विपर्यय के विवेक जैसा है। इसमे नय' का जैसा स्पष्ट निरूपण है वैसा दर्शनान्तर में कहीं भी नहीं है। संक्षेप मे कह सकते हैं कि वैदिक तथा बौद्ध दर्शन में वर्णित प्रमाणमीमांसा के स्थान पर जैनदर्शनसम्मत मान्यता को प्रस्तुत ज्ञानमीमांसा मे उमास्वाति ने ब्योरेवार प्रतिपादित किया है।
ज्ञेयमीमांसा की सारभूत बातें-ज्ञेयमीमांसा मे जगत् के मूलभूत जीव और अजीव इन दो तत्त्वों का वर्णन है, जिनमें से मात्र जीव तत्त्व की चर्चा दो से चार तक के तीन अध्यायों में है। दूसरे अध्याय में जीवतत्त्व के सामान्य स्वरूप के अतिरिक्त संसारी जीवों के अनेक भेद-प्रभेदों का और उनसे सम्बन्धित अनेक बातों का वर्णन है। तीसरे अध्याय में अधोलोकवासी नारकों व मध्यलोकवासी मनुष्यों तथा तिर्यचों ( पशुपक्षी आदि) का वर्णन होने से उनसे सम्बन्धित अनेक बातों के साथ नरकभूमि एवं मनुष्यलोक का सम्पूर्ण भूगोल आ जाता है। चौथे अध्याय में देव-सृष्टि का वर्णन होने से उसमे खगोल के अतिरिक्त अनेक प्रकार के दिव्यधामों एव उनकी समृद्धि का वर्णन है। पांचवे अध्याय में प्रत्येक द्रव्य के गुणधर्म का सामान्य स्वरूप बतलाकर साधर्म्य-वैधर्म्य द्वारा द्रव्य मात्र की विस्तृत चर्चा है ।
ज्ञेयमीमांसा में मुख्य सोलह बातें आती है, जो इस प्रकार हैं :
दूसरे अध्याय में-१. जीव तत्त्व का स्वरूप। २ संसारी जीव के भेद । ३. इन्द्रिय के भेद-प्रभेद, उनके नाम, उनके विषय और जीवराशि में इंद्रियों का विभाजन । ४. मृत्यु और जन्म के बीच की स्थिति । ५. जन्मों के और उनके स्थानों के भेद तथा उनका जाति की दृष्टि से विभाजन । ६. शरीर के भेद, उनका तारतम्य, उनके स्वामी और एक साथ उनकी शक्यता। ७. जातियों का लिंग-विभाजन और न टूटनेवाले आयुष्य को भोगनेवालों का निर्देश। तीसरे व चौथे अध्याय में-८. अधोलोक के
१. शाबर-भाष्य, १. ५ । २. तत्त्वार्थ, १. ३३ । ३. तर्कसंग्रह-बुद्धिनिरूपण' । ४. योगसूत्र, १.६ । ५. तत्त्वार्थ, १. ३४-३५ ।
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विभाग, उसमें रहनेवाले नारक-जीव और उनकी दशा तथा आयुमर्यादा आदि । ९. द्वीप, समुद्र, पर्वत, क्षेत्र आदि द्वारा मध्यलोक का भौगोलिक वर्णन तथा उसमें रहनेवाले मनुष्य, पशु, पक्षी आदि का जीवन-काल । १०. देवों की विविध जातियाँ, उनके परिवार, भोग-स्थान, समृद्धि, जीवनकाल और ज्योतिर्मण्डल अर्थात् खगोल का वर्णन । पांचवें अध्याय में-११. द्रव्य के भेद, उनका परस्पर साधर्म्य-वैधर्म्य, उनका स्थितिक्षेत्र और प्रत्येक का कार्य । १२. पुद्गल का स्वरूप, उसके भेद और उत्पत्ति के कारण । १३. सत् और नित्य का सहेतुक स्वरूप। १४. पौद्गलिक बन्ध की योग्यता और अयोग्यता । १५. द्रव्य-सामान्य का लक्षण, काल को द्रव्य माननेवाला मतान्तर और उसकी दृष्टि से काल का स्वरूप । १६. गुण और परिणाम के लक्षण और परिणाम के भेद ।
तुलना-इनमें से अनेक बातें आगमों तथा प्रकरण ग्रन्थों में है, परन्तु वे सभो इस ग्रन्थ की तरह सक्षेप में संकलित और एक ही स्थल पर न होकर बिखरी हुई है। 'प्रवचनसार' के ज्ञेयाधिकार में और 'पंचास्तिकाय' के द्रव्याधिकार में ऊपर उल्लिखित पांचवें अध्याय के ही विषय हैं, परन्तु उनका निरूपण इस ग्रन्थ से भिन्न पड़ता है। पंचास्तिकाय और प्रवचनसार मे तर्कपद्धति तथा विस्तार है, जब कि पाँचवें अध्याय मे संक्षिप्त तथा सीधा वर्णन है।
ऊपर दूसरे, तीसरे और चौथे अध्याय की जो सारभूत बातें दी है वैसा अखण्ड, व्यवस्थित और सांगोपांग वर्णन किसी भी ब्राह्मण या बौद्ध मूल दार्शनिक सूत्र-ग्रन्थ में दिखाई नही देता। बादरायण ने अपने ब्रह्मसूत्र के तीसरे एवं चौथे अध्याय में जो वर्णन दिया है वह उक्त दूसरे, तीसरे एवं चौथे अध्याय की कितनी ही बातों के साथ तुलना के योग्य है; क्योंकि इसमे मरण के बाद की स्थिति, उत्क्राति, भिन्न-भिन्न जातियों के जीव, भिन्न-भिन्न लोक और उनके स्वरूप का वर्णन है।
दूसरे अध्याय में जीव का लक्षण उपयोग कहा गया है, वह आत्मवादी सभी दर्शनों द्वारा स्वीकृत उनके ज्ञान या चैतन्य लक्षण से भिन्न नही है। वैशेषिक और न्यायदर्शन के इन्द्रियवर्णन की अपेक्षा तत्त्वार्थ के दूसरे अध्याय का इन्द्रियवर्णन भिन्न दिखाई देते हुए भी उसके इन्द्रिय
१ देखे-हिन्द तत्त्वज्ञाननो इतिहास, द्वितीय भाग, पृ० १६२ तथा आगे । २. तत्त्वार्थ, २. ८ । ३. तत्त्वार्थ, २. १५-२१ ।
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- ५१ - सम्बन्धी भेद, उनके नाम और प्रत्येक का विषय न्याय तथा वैशेषिक दर्शन के साथ लगभग शब्दशः समान हैं। वैशेषिक दर्शन में जो पार्थिव, जलीय, तैजस और वायवीय शरीरों का वर्णन है तथा सांख्यदर्शन में जो सूक्ष्म लिंग और स्थूल शरीर का वर्णन है वह तत्त्वार्थ के शरीर. वर्णन से भिन्न दिखाई देते हुए भी वास्तव में एक ही अनुभव के भिन्न पहलुओं (पाश्वो ) का सूचक है। तत्त्वार्थ में जो बीच से ट सके और न टूट सके ऐसी आयु का वर्णन है और उसकी जो उपपत्ति बतलाई गई है उसका योगसूत्र और उसके भाष्य के साथ शब्दशः साम्य है। तत्त्वार्थ के तीसरे तथा चौथे अध्याय में प्रतिपादित भूगोलविद्या का किसी भी दूसरे दर्शन के सूत्रकार ने स्पर्श नहीं किया। ऐसा होते हए भी योगसूत्र ३.२६ के भाष्य में नरकभूमियों का, उनके आधारभूत घन, सलिल, वात, आकाश आदि तत्त्वों का, उनमें रहनेवाले नारकों का, मध्यलोक का, मेरु का, निषध, नील आदि पर्वतों का, भरत, इलावृत्त आदि क्षेत्रों का, जम्बूद्वीप, लवणसमुद्र आदि द्वीपसमुद्रों का, ऊर्ध्वलोक-सम्बन्धी विविध स्वर्गों का, उनमें रहनेवाली देवजातियों का, उनकी आयु का, उनके स्त्री, परिवार आदि भोगों का और रहन-सहन का जो विस्तृत वर्णन है वह तत्त्वार्थ के तीसरे एवं चौथे अध्याय की त्रैलोक्य-प्रज्ञप्ति की अपेक्षा न्यून प्रतीत होता है। इसी प्रकार बौद्ध-ग्रंथों में वणित द्वीप, समुद्र, पाताल, शीत-उष्ण, नारक और विविध देवों का वर्णन भी तत्त्वार्थ की त्रैलोक्यप्रज्ञप्ति की अपेक्षा सक्षिप्त ही है। फिर भी इन वर्णनों का शब्दसाम्य और विचार-पद्धति की समानता देखकर आर्य-दर्शनों की विभिन्न शाखाओं का एक मूल शोधने की प्रेरणा मिलती है।
१. न्यायसूत्र, १. १. १२ और १४ । २. देखे-तर्कसंग्रह मे पृथ्वी से वायु तक का निरूपण । ३. साख्यकारिका, का० ४० से ४२ । ४. तत्त्वार्थ, २. ३७-४९।। ५. तत्त्वार्थ, २. ५२ । ६. योगसूत्र, ३.२२; विस्तार के लिए देखें-प्रस्तुत प्रस्तावना, पृ० ११-१२ । ७. धर्मसंग्रह, पृ० २९-३१ तथा अभिधम्मत्थसंगहो, परि० ५ पैरा ३ से आगे।
८. तत्त्वार्थ की श्रुतसागरकृत वृत्ति की प्रस्तावना ( पृ० ८६) में पं० महेन्द्रकुमार ने बौद्ध, वैदिक आदि ग्रन्थों से लोक का जो विस्तृत वर्णन उद्धृत किया है वह पुरातन भूगोल-खगोल के जिज्ञासुओं के देखने योग्य है।
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- ५२ -
पाँचवें अध्याग की वस्तु, शैली और परिभाषा का दूसरे दर्शनों की अपेक्षा वैशेषिक और साख्य दर्शनों के साथ अधिक साम्य है । इसका षड़द्रव्यवाद वैशेषिक दर्शन' के षट्पदार्थवाद की याद दिलाता है। इसमें प्रयुक्त साधर्म्य-वैवर्म्यवाली शैली वैशेषिक दर्शन के प्रतिबिम्ब जैसी भासित होती है। यद्यपि धर्मास्तिकाय व अधर्मास्तिकाय इन दो द्रव्यों की कल्पना दूसरे किसी दर्शनकार ने नहीं की और जैन दर्शन का आत्मस्वरूप भी दूसरे सभी दर्शनों की अपेक्षा भिन्न प्रकार का है, तो भी आत्मवाद और पुद्गलवाद से सम्बन्धित बहुत-सी बातों का वैशेषिक, सांख्य आदि के साथ अधिक साम्य है। जैन दर्शन की तरह न्याय, वैशेषिक, सांख्य आदि दर्शन भी आत्मबहत्ववादी ही है। जैन दर्शन का पुद्गलवाद वैशेषिक दर्शन के परमाणुवाद और साख्य दर्शन के प्रकृतिवाद के समन्वय का भान कराता है, क्योकि इसमे आरंभ और परिणाम उभयवाद का स्वरूप आता है। एक ओर तत्त्वार्थ में कालद्रव्य को माननेवाले मतान्तर का उल्लेख और दूसरी ओर उसके निश्चित रूप से निर्दिष्ट लक्षणों से ऐसा मानने को जी चाहता है कि जैन तत्त्वज्ञान के व्यवस्थापकों के ऊपर कालद्रव्य के विषय मे वैशेषिक और सांख्य दोनों दर्शनों के मन्तव्य की स्पष्ट छाप है; क्योंकि वैशेषिक दर्शन काल को स्वतन्त्र द्रव्य मानता है, जब कि सांख्य दर्शन नही मानता। तत्त्वार्थ में
१. वैशेषिकसूत्र, १. १. ४ । २. प्रशस्तपाद, पृ० १६ तथा आगे । ३. तत्त्वार्थ, ५. १ और ५ १७, विशेष विवरण के लिए देखे-जैन साहित्य
सशोधक, खण्ड ३, अङ्क १ तथा ४ । ४. तत्त्वार्थ, ५ १५-१६ । ५. तत्त्वार्थ, ५. २। ६. व्यवस्थाता नाना- ३. २ २० । ७. पुरुषबहुत्वं सिद्धम् सांख्यकारिका, का० १८ । ८. तत्त्वार्थ, ५. २३-२८ ।। ९. देखें-तर्कसंग्रह, पृथ्वी आदि भूतों का निरूपण । १०. सांख्यकारिका, का० २२ से आगे । ११. तत्त्वार्थ, ५. ३८ । १२. तत्त्वार्थ, ५. २२ । १३. २. २. ६ ।
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- ५३ -
वणित कालद्रव्य के स्वतन्त्र अस्तित्व-नास्तित्व विषयक दोनों पक्ष, जो आगे चलकर दिगम्बर' और श्वेताम्बर भिन्न-भिन्न मान्यता के रूप में विभाजित हो गए है, पहले से ही जैन दर्शन में होगे या उन्होने वैशेषिक और सांख्य दर्शन के विचार-संघर्ष के परिणामस्वरूप किसी समय जैन दर्शन में स्थान प्राप्त किया, यह शोध का विषय है। परन्तु एक बात तो स्पष्ट है कि मूल तत्त्वार्थ और उसकी व्याख्याओ में काल के लिंगो का प्रतिपादन वैशेषिक सूत्रों के साथ शब्दशः मिलता-जुलता है। सत् और नित्य की तत्त्वार्थगत व्याख्या सांख्य और योग दर्शन के साथ सादृश्य रखती है। इनमें वर्णित परिणामिनित्य का स्वरूप तत्त्वार्थ के सत् और नित्य के साथ शब्दश: मिलता है। वैशेषिक दर्शन मे परमाणुओं में द्रव्यारम्भ की जो योग्यता वर्णित है वह तत्त्वार्थ में वणित पौद्गलिक बन्ध ( द्रव्यारम्भ ) की योग्यता की अपेक्षा अलग प्रकार की है। तत्त्वार्थ की द्रव्य और गुण की व्याख्या का वैशेषिक दर्शन की व्याख्या के साथ अधिक सादृश्य है। तत्त्वार्थ और सांख्य-योग की परिणाम-सम्बन्धी परिभाषा समान है। तत्त्वार्थ का द्रव्य, गुण और पर्याय के रूप में सत् पदार्थ का विवेक सांख्य के सत् और परिणामवाद की तथा वैशेषिक दर्शन के द्रव्य, गुण और कर्म को मुख्य सत् मानने की प्रवृत्ति का स्मरण दिलाता है।
चारित्रमीमांसा की सारभूत बातें-जीवन में कौन-कौन-सी प्रवृत्तियाँ हेय है, इनका मूल बीज क्या है, हेय प्रवृत्तियों का सेवन करनेवालों के जीवन का परिणाम क्या होता है, हेय प्रवृत्तियों का त्याग शक्य हो तो वह किन-किन उपायों से सम्भव है और इनके स्थान पर किस प्रकार की प्रवृत्तियाँ अगीकार की जाएँ, उनका जीवन में क्रमशः और अन्त में क्या परिणाम आता है-ये सब विचार छठे से दसवें अध्याय तक की चारित्रमीमांसा मे आते हैं। ये सब विचार जैन दर्शन को बिलकुल अलग परिभाषा और साम्प्रदायिक प्रणाली के कारण मानो किसी भी दर्शन के साथ
१. देखे-कुन्दकुन्द के प्रवचनसार और पंचास्तिकाय का कालनिरूपण तथा सर्वार्थसिद्धि, ५. ३९ ।
२. देखे--भाष्यवृत्ति, ५. २२ और प्रस्तुत प्रस्तावना, पृ० १० । ३. प्रशस्तपाद, वायुनिरूपण, पृ० ४८ । ४. तत्त्वार्थ, ५. ३२-३५ । ५ तत्त्वार्थ, ५, ३७ और ४० । ६. प्रस्तुत प्रस्तावना, पृ० १०-११ ।
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साम्य नहीं रखते, ऐसा आपाततः भास होता है, तो भी बौद्ध या योग दर्शन के सूक्ष्म अध्येता को यह ज्ञात हुए बिना नही रहता कि जैन चारित्रमीमांसा का विषय चारित्र-प्रधान उक्त दो दर्शनों के साथ अधिक से अधिक और अद्भुत रूप से साम्य रखता है। यह साम्य भिन्न-भिन्न शाखाओं में विभाजित, विभिन्न परिभाषाओं में संगठित और उन-उन शाखाओं में न्यूनाधिक विकास-प्राप्त परन्तु मूल में आर्य जाति के एक ही आचारदाय-आचारविषयक उत्तराधिकार का भान कराता है।
चारित्रमीमांसा की मुख्य बातें ग्यारह है : छठे अध्याय में-१. आस्रव का स्वरूप, उसके भेद तथा किस-किस प्रकार के आस्रवसेवन से कौन-कौन से कर्म बँधते हैं, इसका वर्णन है। सातवे अध्याय में-२. व्रत का स्वरूप, व्रत लेनेवाले अधिकारियों के भेद और व्रत को स्थिरता के मार्ग का वर्णन है, ३. हिसा आदि दोषों का स्वरूप, ४. व्रत में संभाव्य दोष, ५. दान का स्वरूप और उसके तारतम्य के हेतु का वर्णन है। आठवें अध्याय में-६. कर्मबन्ध के मूलहेतु और कर्मबन्ध के भेद है। नवें अध्याय में-७. संवर और उसके विविध उपाय तथा उसके भेद-प्रभेद, ८. निर्जरा और उसका उपाय, ९. भिन्न-भिन्न अधिकारवाले साधक और उनकी मर्यादा का तारतम्य दर्शाया है । दसवें अध्याय में-१०. केवलज्ञान के हेतु और मोक्ष का स्वरूप तथा ११. मुक्ति प्राप्त करनेवाली आत्मा को किस रीति से कहाँ गति होती है, इसका वर्णन है ।
तुलना-तत्त्वार्थ को चारित्रमीमांसा प्रवचनसार के चारित्र-वर्णन से भिन्न पड़ती है, क्योंकि उसमें तत्त्वार्थ के सदृश आस्रव, संवर आदि तत्त्वों की चर्चा नही है। उसमें तो केवल साधु की दशा का और वह भी दिगम्बर साधु के लिए विशेष अनुकूल दशा का वर्णन है। पंचास्तिकाय
और समयसार मे तत्त्वार्थ के सदृश ही आस्रव, सवर, बंध आदि तत्त्वों को लेकर चारित्र-मीमासा की गई है, तो भी इन दोनों में अन्तर यह है कि तत्त्वार्थ के वर्णन में निश्चय की अपेक्षा व्यवहार का चित्र अधिक खीचा गया है, इसमें प्रत्येक तत्त्व से सम्बन्धित सभी बातें है और त्यागी गृहस्थ तथा साधु के सभी प्रकार के आचार तथा नियम वर्णित है जो जैनसंघ का सगठन सूचित करते है, जब कि पंचास्तिकाय और समयसार में वैसा नही है। उनमें तो आस्रव, संवर आदि तत्त्वों की निश्चयगामी तथा उपपत्तिवाली चर्चा है, उनमें तत्त्वार्थ के सदृश जैन गृहस्थ तथा साधु के प्रचलित व्रतों का वर्णन नही है।
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योगदर्शन के साथ प्रस्तुत चारित्रमीमांसा की तुलना को जितना अवकाश है उतना ही यह विषय दिलचस्प है, परन्तु यह एक स्वतंत्र लेख का विषय होने से यहाँ उसको स्थान नहीं, तो भी जिज्ञासुओं का ध्यान खींचने के लिए उनकी स्वतन्त्र तुलनाशक्ति पर विश्वास रखकर नीचे संक्षेप में तुलना करने योग्य सारभूत बातों की एक सूची दी जाती है : तत्त्वार्थसूत्र
योगदर्शन १. कायिक, वाचिक, मानसिक १. कर्माशय ( २. १२)
प्रवृत्तिरूप आस्रव (६. १) २. मानसिक आस्रव (८.१) २. निरोध के विषयरूप में ली
जानेवाली चित्तवृत्तियाँ (१.६) ३. सकषाय व अकषाय-यह ३. क्लिष्ट और अक्लिष्ट दो प्रकार
दो प्रकार का आस्रव (६.५) का कर्माशय ( २. १२) ४. सुख-दुःख जनक शुभ व अशुभ ४. सुख-दु:खजनक पुण्य व अपुण्य आस्रव ( ६. ३-४)
कर्माशय ( २. १४) ५. मिथ्यादर्शन आदि बन्ध के ५. अविद्या आदि पाँच बन्धक __ पांच हेतु ( ८.१)
क्ले श ( २.३) ६. पांचों में मिथ्यादर्शन की ६. पांचों में अविद्या की प्रधानता प्रधानता
(२. ४) ७. आत्मा और कर्म का विलक्षण ७. पुरुष और प्रकृति का विलक्षण __सम्बन्ध ही बन्ध (८. २-३) संयोग ही बन्ध ( २. १७) ८. बन्ध ही शुभ-अशुभ हेय ८. पुरुष व प्रकृति का संयोग ही हेय विपाक का कारण
दुःख का हेतु ( २. १७) ९. अनादि बन्ध मिथ्यादर्शन के ९. अनादि संयोग अविद्या के अधीन
अधीन ( २. २४) १०. कर्मों के अनुभागबन्ध का १०. कर्मो के विपाकजनन का मल आधार कषाय ( ६. ५)
क्लेश ( २. १३) ११. आस्रवनिरोध ही संवर (९.१) ११. चित्तवृत्तिनिरोध ही योग (१.२) १२. गुप्ति, समिति आदि और १२. यम, नियम आदि और अभ्यास,
विविध तप आदि संवर वैराग्य आदि योग के उपाय के उपाय (९. २-३)
(१.१२ से और २. २९ से)
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FRAD
१३. अहिंसा आदि महाव्रत ( ७.१ )
१४. हिंसा आदि वृत्तियों में ऐहिक,
पारलौकिक दोषों का दर्शन करके उन्हें रोकना ( ७.४ ) १५. हिंसा आदि दोषो में दू खपने की ही भावना करके उन्हें त्यागना ( ७.५ )
१६. मैत्री आदि चार भावनाएँ ( ७.६ )
१७. पृथक्त्ववित्तर्कसविचार और एकत्ववितर्कनिर्विचार आदि चार शुक्ल ध्यान ( ९.४१४६ )
१८. निर्जरा और मोक्ष ( ९.३ और १०. ३ )
१९. ज्ञानसहित चारित्र ही निर्जरा और मोक्ष का हेतु ( १ . १ ) २०. जातिस्मरण, अवधिज्ञानादि दिव्यज्ञान और विद्यादि लब्धियाँ (१.१२ और १०.७ का भाष्य )
चारण
२१. केवलज्ञान ( १०. १ )
५६.
-
१३. अहिंसा आदि सार्वभौम यम ( २३० )
१४. प्रतिपक्ष भावना द्वारा हिंसा आदि वितर्को को रोकना ( २. : ३-३४ )
१५. विवेकी की दृष्टि में सम्पूर्ण कर्माशय दुःखरूप ( २.१५ )
१६. मैत्री आदि चार भावनाएँ ( १.३३ )
१७. सवितर्क, निर्वितर्क, सविचार और निर्विचाररूप चार संप्रज्ञात समाधियाँ (१.१६ ओर ४१, ४४ )
१८. आशिकान - बन्धोपरम और सर्वथाहान' ( २. २५ ) १९. सांगयोगसहित विवेकख्याति ही हान का उपाय ( २.२६ ) २०. संयमजनित वैसी ही विभूतियाँ ( २. २९ और ३. १६ से आगे )
२
२१. विवेकजन्य तारक ज्ञान (३.५४)
इनके अतिरिक्त कितनी ही बातें ऐसी भी हैं जिनमें से एक बात
१. ये चार भावनाएँ बौद्ध परम्परा मे 'ब्रह्मविहार' कहलाती है और उन पर बहुत जोर दिया गया है ।
२. ध्यान के ये चार भेद बौद्धदर्शन मे प्रसिद्ध है ।
३. इसे बौद्धदर्शन मे 'निर्वाण' कहते हैं, जो तीसरा आर्यसत्य है ।
४. बौद्धदर्शन में इनके स्थान पर पाँच अभिशाएँ है । देखें - धर्मसंग्रह, पृ० ४ और अभिधम्मत्थसंग्रहो, परिच्छेद ९ पैरा २४ ।
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२
पर एक दर्शन द्वारा तो दूसरी बात पर दूसरे दर्शन द्वारा जोर दिया गया है, अतः वह बात उस उस दर्शन के एक विशिष्ट विषय के रूप में अथवा एक विशेषता के रूप में प्रसिद्ध हो गई । उदाहरणार्थ कर्मसिद्धान्त को लीजिए । बौद्ध एवं योग दर्शन में कर्म के मूल सिद्धान्त तो हैं ही । योग दर्शन में तो इन सिद्धान्तो का ब्योरेवार वर्णन भो है, फिर भी कर्म - सिद्धान्त विषयक जैन दर्शन में एक विस्तृत और गहरा शास्त्र बन गया है जैसा कि दूसरे किसी भी दर्शन में नही है । इसी कारण चारित्रमीमांसा में कर्म सिद्धान्त का वर्णन करते हुए जैनसम्मत सम्पूर्ण कर्मशास्त्र वाचक उमास्वाति ने संक्षेप में ही समाविष्ट कर दिया है । इसी प्रकार तात्त्विक दृष्टि से चारित्र की मीमांसा जैन, बौद्ध और योग तीनों दर्शनों में समान होते हुए भी कुछ कारणों से व्यवहार में अन्तर दिखाई देता है और यह अन्तर ही उस उस दर्शन के अनुगामियों की विशेषता बन गया है । क्लेश और कषाय का त्याग सभी के मत में चारित्र है, उसे सिद्ध करने के अनेक उपायों में से कोई एक पर तो दूसरा दूसरे पर अधिक जोर देता है । जैन आचार के संगठन में देहदमन की प्रधानता दिखाई देती है, बौद्ध आचार के सगठन में ध्यान पर जोर दिया गया है और योग दर्शनानुसारी परिव्राजकों के आवार के संगठन में प्राणायाम, शौच आदि पर । यदि मुख्य चारित्र की सिद्धि में ही देहदमन, ध्यान तथा प्राणायाम आदि का उचित उपयोग हो तब तो इन सबका समान महत्त्व है, परन्तु जब ये बाह्य अग मात्र व्यवहार की लीक बन जाते है और उनमे से मुख्य चारित्र की सिद्धि को आत्मा निकल जाती है तभी इनमें विरोध की गव आतो है और एक सम्प्रदाय का अनुयायी दूसरे सम्प्रदाय के आचार की निरर्थकता बतलाने लगता है । बौद्ध साहित्य में और बौद्ध - अनुगामी वर्ग में जैनों के देहदमनप्रधान तप की निन्दा दिखाई पड़ती है, जैन साहित्य और जैन - अनुगामी वर्ग में बौद्धों के सुखशीलवर्तन और ध्यान का तथा परिव्राजकों के प्राणायाम व शौच का परिहास दिखाई देता
-
१. देखें --- योगसूत्र, २. ३-१४ ।
२. तत्त्वार्थ, ६. ११-२६ और ८ ४-२६ ।
३. तत्त्वार्थ, ९. ९; " देहदुक्खं महाफलं " - दशवैकालिक, ८. २७ ।
४. मज्झिमनिकाय, सूत्र १४ ।
५. सूत्रकृतांग, अ. ३ उ. ४गा. ६ की टीका तथा अ. ७ मा १४ से आगे ।
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है । ऐसा होने से उस उस दर्शन की चारित्रमीमांसा के ग्रंथों में व्यावहारिक जीवन से सम्बन्धित वर्णन का विशेष भिन्न दिखाई देना स्वाभाविक है । यही कारण है कि तत्त्वार्थ की चारित्रमीमांसा में प्राणायाम या शौच विषयक एक भी सूत्र दिखाई नही देता, तथा ध्यान का अधिक वर्णन होते हुए भी उसकी सिद्धि के लिए बौद्ध या योग दर्शन में वर्णित व्यावहारिक उपाय तत्त्वार्थ में नही है । इसी भांति तत्त्वार्थ में परीषह और तप का जैसा विस्तृत तथा व्यापक वर्णन है वैसा योग या बौद्ध दर्शन की चारित्रमीमांसा में नही दिखाई देता ।
इसके अतिरिक्त चारित्रमीमांसा के सम्बन्ध में एक बात विशेष ध्यान मे रखने जेसी है । उक्त तीनों दर्शनों में ज्ञान और चारित्र ( क्रिया ) दोनों का स्थान है, फिर भी जैन दर्शन में चारित्र को ही मोक्ष का साक्षात् कारण स्वीकार करके ज्ञान को उसके अंगरूप में स्वीकार किया गया है, जब कि बौद्ध और योग दर्शनों में ज्ञान को ही मोक्ष का साक्षात् कारण मानकर ज्ञान के अंगरूप में चारित्र को स्थान दिया गया है । यह बात उक्त तीनो दर्शनों के साहित्य तथा उनके अनुयायी वर्ग के जीवन का बारीकी से अध्ययन करनेवाले को ज्ञात हो जाती है । इस कारण तत्त्वार्थ की चारित्रमीमांसा मे चारित्रलक्षी क्रियाओं का और उनके भेद-प्रभेदों का अधिक वर्णन स्वाभाविक ही है ।
तुलना पूरी करने के पूर्व चारित्र-मीमांसा के अन्तिम साध्य मोक्ष के स्वरूप के विषय में उक्त दर्शनों की क्या कल्पना है, यह जान लेना भी आवश्यक है । दुःख के त्याग में से ही मोक्ष की कल्पना उद्भूत होने से सभी दर्शन दुःख की आत्यन्तिक निवृत्ति को हो मोक्ष मानते
। न्याय, वैशेषिक, योग और बौद्ध ये चारों दर्शन ऐसा मानते है कि दुःख नाश के अतिरिक्त मोक्ष में दूसरी कोई भावात्मक वस्तु नही है | अतः उनके अनुसार मोक्ष मे यदि सुख हो तो वह कोई स्वतन्त्र वस्तु नही अपितु उस दुःख के अभाव में ही पर्यवसित है, जब कि जैन दर्शन वेदान्त की तरह यह मानता है कि मोक्ष-अवस्था मात्र दुःखनिवृत्ति नहीं बल्कि इसमें विषय-निरपेक्ष स्वाभाविक सुख जैसी स्वतन्त्र वस्तु भी है— मात्र सुख ही नही, उसके अतिरिक्त ज्ञान जैसे अन्य स्वाभाविक गुणों का आविर्भाव जैन दर्शन इस अवस्था में स्वीकार करता है, जब कि
१. देखे – न्यायसूत्र, १. १. २२ । २. देखे -- वैशेषिकसूत्र, ५. २. १८ ।
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दूसरे दर्शनों की प्रक्रिया इसे स्वीकार नहीं करती। मोक्ष के स्थान के सबंध में जैन दर्शन का मत सबसे निराला है। बौद्ध दर्शन में तो स्वतन्त्र आत्म-तत्त्व का स्पष्ट स्थान न होने से मोक्ष के स्थान के संबंध में उसमें से किसी भी विचार-प्राप्ति की आशा को अवकाश नहीं है। सभी प्राचीन वैदिक दर्शन आत्मविभुत्व-वादी होने से उनके मत में मोक्ष के किसी पृथक् स्थान की कल्पना ही नहीं है, परतु जैन दर्शन स्वतंत्र आत्मतत्त्ववादी है, फिर भी आत्मविभुत्व-वादी नही है, अतः उसके लिए मोक्ष के स्थान का विचार करना आवश्यक हो गया और यह विचार उसने किया भी है । तत्त्वार्थ के अन्त में वाचक उमास्वाति कहते हैं कि मुक्त हुए जीव हरएक प्रकार के शरीर से छुटकर ऊर्ध्वगामी होकर अन्त में लोक के अग्रभाग में स्थिर होते हैं और सदा वही रहते हैं ।
४. तत्त्वार्थ की व्याख्याएँ साम्प्रदायिक व्याख्याओं के विषय में 'तत्त्वार्थाधिगम' सूत्र की तुलना 'ब्रह्मसूत्र' के साथ की जा सकतो है । जिस प्रकार बहुत-से विषयों में परस्पर नितान्त भिन्न मत रखनेवाले अनेक आचार्यो ने ब्रह्मसूत्र पर व्याख्याए लिखी हैं और उसीसे अपने वक्तव्य को उपनिषदों के आधार पर सिद्ध करने का प्रयत्न किया है, उसी प्रकार दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायों के विद्वानों ने तत्त्वार्थ पर व्याख्याएँ लिखी हैं और उसीसे परस्पर विरोधी मन्तव्यों को भी आगम के आधार पर सिद्ध करने का प्रयत्न किया है। इससे सामान्य बात इतनी ही सिद्ध होती है कि जैसे वेदान्त-साहित्य में प्रतिष्ठा होने के कारण भिन्न-भिन्न मत रखनेवाले प्रतिभाशाली आचार्यों ने ब्रह्मसूत्र का आश्रय लेकर उसी के द्वारा अपने विशिष्ट वक्तव्य को दर्शाने की आवश्यकता अनुभव की, वैसे ही जैन वाङमय में स्थापित तत्त्वार्थाधिगम की प्रतिष्ठा के कारण उसका आश्रय लेकर दोनों सम्प्रदायों के विद्वानों को अपने-अपने मन्तव्यों को प्रकट करने की आवश्यकता हुई । इतना स्थूल साम्य होते हुए भी ब्रह्मसूत्र की और तत्त्वार्थ की साम्प्रदायिक व्याख्याओं में एक विशेष महत्त्व का भेद है कि तत्त्वज्ञान के जगत्, जोव, ईश्वर आदि मौलिक विषयों में ब्रह्मसूत्र के प्रसिद्ध व्याख्याकार एक-दूसरे से बहु । ही भिन्न पड़ते हैं और बहुत बार तो उनके विचारों में पूर्व-पश्चिम जितना अंतर दिखाई देता
१. शंकर, निम्बार्क, मध्व, रामानुज, वल्लभ आदि ।
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- ६० - है; जबकि तत्त्वार्थ के दिगम्बर या श्वेताम्बर किसी भी सम्प्रदाय के व्याख्याकारों में वैसी बात नहीं है। उनमें तत्त्वज्ञान के मौलिक विषयों में कोई अन्तर नहीं है और जो थोड़ा-बहुत अंतर है वह भो बिलकुल साधारण बातों में है और ऐसा नहीं कि जिसमें समन्वय को अवकाश ही न हो अथवा वह पूर्व-पश्चिम जितना हो । वस्तुतः जैन तत्त्वज्ञान के मूल सिद्धान्तों के सम्बन्ध में दिगम्बर व श्वेताम्बर सम्प्रदायों में खास मतभेद पडा ही नहीं, इससे उनकी तत्त्वार्थ-व्याख्याओं में दिखाई देनेवाला मतभेद बहुत गम्भीर नहीं माना जाता। ___ तत्त्वार्थाधिगमसूत्र पर प्राचीन-अर्वाचीन, छोटी-बड़ी, संस्कृत तथा लौकिक भाषा की अनेक व्याख्याएँ है, परन्तु उनमें से जिनका ऐतिहासिक महत्त्व हो, जैन तत्त्वज्ञान को व्यवस्थित करने में तथा विकसित करने मे जिनका प्राधान्य हो और जिनका खास दार्शनिक महत्त्व हो ऐसी चार ही व्याख्याएँ इस समय मौजूद हैं। उनमें से तोन तो दिगबर सम्प्रदाय की हैं, जो साम्प्रदायिक भेद की ही नहीं बल्कि विरोध की तीव्रता बढ़ने के बाद प्रसिद्ध दिगम्बर विद्वानों द्वारा लिखी गई हैं; और एक स्वयं सूत्रकार वाचक उमास्वाति की स्वोपज्ञ ही है। अतः इन चार व्याख्याओं के विषय में ही यहाँ कुछ चर्चा करना उचित होगा।
( क ) भाष्य और सर्वार्थसिद्धि 'भाष्य' और 'सर्वार्थसिद्धि' इन दोनों टीकाओं के विषय में कुछ विचार करने के पहले इन दोनों के सूत्रपाठो के विषय में विचार करना आवश्यक है। यथार्थ में एक ही होते हुए भी बाद में साम्प्रदायिक भेद के कारण सूत्रपाठ दो हो गए है, जिनमें एक श्वेताम्बर और दूसरा दिगम्बर के रूप में प्रसिद्ध है। श्वेताम्बर मानेजानेवाले सूत्रपाठ के स्वरूप का भाष्य के साथ मेल बैठने से उसे भाष्यमान्य कह सकते है और दिगम्बर मानेजानेवाले सूत्रपाठ के स्वरूप का सर्वार्थसिद्धि के साथ मेल बैठने से उसे सर्वार्थसिद्धिमान्य कह सकते है। सभी श्वेताम्बर आचार्य भाष्यमान्य सूत्रपाठ का अनुसरण करते है और सभी दिगम्बर आचार्य सर्वार्थसिद्धिमान्य सूत्रपाठ का। सूत्रपाठ के सम्बन्ध में नीचे लिखी चार बातें यहाँ ज्ञातव्य हैं -१. सूत्रसंख्या, २. अर्थभेद, ३. पाठान्तरविषयक भेद और ४. यथार्थता ।
१. इसमे यशोविजयगणि अपवाद है । देखे-प्रस्तावना, पृ० ३८-४० ।
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- ६१ -
१. सूत्रसंख्या-भाष्यमान्य सूत्रों की संख्या ३४४ है और सर्वार्थसिद्धिमान्य सूत्रों की संख्या ३५७ है।
२. अर्थभेद-सूत्रों की संख्या और कही-कहीं शाब्दिक रचना में अन्तर होते हुए भी मूलसूत्रों से ही अर्थ में महत्त्वपूर्ण अन्तरवाले तीन स्थल हैं, शेष सब मूलसूत्रों से खास अर्थ में अन्तर नहीं पड़ता। इन तीन स्थलों में स्वर्ग को बारह और सोलह संख्या विषयक पहला ( ४. २० ), काल का स्वतन्त्र अस्तित्व-नास्तित्व विषयक दूसरा (५. ३८)
और तीसरा पुण्य-प्रकृतियो में हास्य आदि चार प्रकृतियों के होने न होने का ( ८. २६ ) है।
३. पाठान्तरविषयक भेद-दोनों सूत्रपाठों के पारस्परिक भेद के अतिरिक्त इस प्रत्येक सूत्रपाठ में भी भेद आता है। सर्वार्थसिद्धि के कर्ता ने जो पाठान्तर निर्दिष्ट किया है उसको यदि अलग कर दिया जाए तो सामान्यतः यही कहा जा सकता है कि सब दिगम्बर टीकाकार सर्वार्थसिद्धि-मान्य सूत्रपाठ मे कुछ भी पाठ-भेद सूचित नहीं करते । अतः कहना चाहिए कि पूज्याद ने सर्वार्थसिद्धि लिखते समय जो सूत्रपाठ प्राप्त किया तथा सुधारा-बढ़ाया गया उसी को निर्विवाद रूप से बाद के सभी दिगम्बर टीकाकारों ने मान्य रखा, जब कि भाष्यमान्य सूत्रपाठ के विषय में ऐसो बात नही है । यह सूत्रपाठ श्वेताम्बररूप मे एक होने पर भी उसमें कितने हो स्थानों पर भाष्य के वाक्य सूत्ररूप में दाखिल हो जाने का, कितने ही स्थानों पर सूत्ररूप में माने जानेवाले वाक्यों का भाष्यरूप में गिने जाने का, कही-कही मूलतः एक ही सूत्र के दो भागों मे बँट जाने का और कही मूलतः दो सूत्र मिलकर एक ही सूत्र हो जाने का सूचन भाष्य की लभ्य दोनों टीकाओं मे सूत्रों की पाठान्तर विषयक चर्चा से स्पष्ट होता है।
४. यथार्थता-उक्त दोनों सूत्रपाठों में मूल कौन-सा है और परिवर्तित कौन-सा है, यह प्रश्न सहज उत्पन्न होता है। अब तक किए गए विचार से मैं इस निश्चय पर पहुंचा हूँ कि भाष्यमान्य सूत्रपाठ ही मूल है अथवा वह सर्वार्थसिद्धिमान्य सूत्रपाठ की अपेक्षा मूल सूत्रपाठ के अत्यन्त निकट है।
१. देखे-२. ५३ । २. देखें-२. १९; २. ३७; ३. ११; ५. २-३; ७. ३ और ५ इत्यादि ।
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- ६२ -
सूत्रपाठ के विषय में इतनी चर्चा करने के पश्चात् अब सूत्रों पर सर्वप्रथम रचित भाष्य तथा सर्वार्थसिद्धि इन दो टीकाओ के विषय में कुछ विचार करना आवश्यक लगता है। भाष्यमान्य सूत्रपाठ का मूल होना अथवा मूलपाठ के विशेष निकट होना तथा पूर्व कथनानुसार भाष्य का वाचक उमास्वातिकृत होना-इन बातो में दिगम्बर आचार्यो का मौन स्वाभाविक है। क्योंकि पूज्यपाद के बाद के सभी दिगम्बर आचार्यो की टीकाओं का मूल आधार सर्वार्थसिद्धि और उसका मान्य सूत्रपाठ ही है। यदि वे भाष्य या भाष्यमान्य सूत्रपाठ को उमास्वातिकर्तृक कहते हैं तो पूज्यपादसम्मत सूत्रपाठ और उसकी व्याख्या का प्रामाण्य पूरा-पूरा नही रह सकता। दिगम्बर परम्परा सर्वार्थसिद्धि और उसके मान्य सूत्रपाठ को प्रमाणसर्वस्व मानती है। ऐसी स्थिति मे भाष्य और सर्वार्थसिद्धि दोनों की प्रामाण्य-विषयक जाँच किए बिना यह प्रस्तावना अधूरी ही रहती है। भाष्य की स्वोपज्ञता के विषय मे कोई सन्देह न होते हुए भी दलील के लिए यदि ऐसा मान लिया जाए कि यह स्वोपज्ञ नही है तो भी इतना तो निर्विवाद रूप से कहा ही जा सकता है कि भाष्य सर्वार्थसिद्धि की अपेक्षा प्राचीन है तथा तत्त्वार्थसूत्र की प्रथम टीका है, क्योंकि वह सर्वार्थसिद्धि की भाँति साम्प्रदायिक नही है। इस तत्त्व को समझने के लिए यहां तीन बातों की पर्यालोचना की जाती है—(क) शैली-भेद, (ख ) अर्थ-विकास और (ग) साम्प्रदायिकता ।
(क) शैली-भेद-किसी एक ही सूत्र के भाष्य और उसकी सार्थसिद्धिवाली व्याख्या को सामने रखकर तुलना की दृष्टि से देखनेवाले को यह मालूम हुए बिना नही रहता कि सर्वार्थसिद्धि की अपेक्षा भाष्य की शैली प्राचीन है तया पद-पद पर सर्वार्थसिद्धि मे भाष्य का प्रतिबिम्ब है। इन दोनों टीकाओं से भिन्न और दोनो से प्राचीन तीसरी किसी टीका के होने का यथेष्ट प्रमाण जब तक नहीं मिलता तब तक भाष्य और सर्वार्थसिद्धि की तुलना करनेवाले ऐसा कहे बिना नहीं रह सकते कि भाष्य को सामने रखकर सर्वार्थसिद्धि की रचना हुई है। भाष्य की शैली प्रसन्न और गंभीर है, फिर भी दार्शनिक दृष्टि से सर्वार्थसिद्धि की शैली निःसन्देह विशेष विकसित और परिमार्जित है। संस्कृत भाषा में लेखन और जैन साहित्य में दार्शनिक शैली के जिस विकास के पश्चात् सर्वार्थसिद्धि लिखी गई है वह भाष्य में दिखाई नहीं देता, फिर भी इन दोनों रचनाओं की भाषा में जो बिम्ब-प्रतिबिम्बभाव है उससे स्पष्ट है कि भाष्य ही प्राचीन है।
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उदाहरणार्थ, प्रथम अध्याय के प्रथम सूत्र के भाष्य मे सम्यक् शब्द के विषय में लिखा है कि 'सम्यक' निपात है अथवा 'सम्' उपसर्गपूर्वक 'अञ्च' धातु का रूप है। इस विषय में सर्वाथसिद्धिकार लिखते है कि 'सम्यक्' शब्द अव्युत्पन्न अर्थात् व्युत्पत्ति-रहित अखंड है अथवा व्युत्पन्न है-धातु और प्रत्यय दोनो मिलाकर व्युत्पत्तिपूर्वक सिद्ध हुआ है । 'अञ्च' धातु को 'क्विप्' प्रत्यय लगाया जाए तब 'सम् +अञ्चति' इस रीति से 'सम्यक्' शब्द बनता है। 'सम्यक्' शब्द विषयक निरूपण की उक्त दो शैलियो मे भाष्य की अपेक्षा सर्वार्थसिद्धि की स्पष्टता अधिक है। इसी प्रकार भाष्य में 'दर्शन' शब्द की व्युत्पत्ति के विषय मे इतना ही लिखा है कि दर्शन 'दृशि' धातु का रूप है, जब कि सर्वार्थसिद्धि मे 'दर्शन' शब्द की व्युत्पत्ति तीन प्रकार से स्पष्ट वर्णित है। भाष्य मे 'ज्ञान' और 'चारित्र' शब्दों की व्युत्पत्ति स्पष्ट नही है, जब कि सर्वार्थसिद्धि में इन दोनों शब्दों की व्युत्पत्ति तीन प्रकार से स्पष्ट वर्णित है और बाद में उसका जैनदृष्टि से समर्थन किया गया है। इसी प्रकार समास में दर्शन
और ज्ञान शब्दों में पहले कौन आए और बाद में कौन आए, यह सामासिक चर्चा भाष्य में नहीं है, जब कि सर्वार्थसिद्धि में वह स्पष्ट है। इसी तरह पहले अध्याय के दूसरे सूत्र के 'तत्त्व' शब्द के भाष्य मे मात्र दो अर्थ सूचित किए गए हैं, जब कि सर्वार्थसिद्धि में इन दोनों अर्थो की व्युत्पत्ति की गई है और 'दृशि' धातु का श्रद्धा अर्थ कैसे लिया जाए, यह बात भी सूचित की गई है, जो भाष्य में नही है ।
( ख ) अर्थविकास'--अर्थ की दृष्टि से भी भाष्य की अपेक्षा सर्वार्थसिद्धि अर्वाचीन प्रतीत होती है । जो एक बात भाष्य में होती है उसको विस्तृत करके-उस पर अधिक चर्चा करके-सर्वार्थसिद्धि मे निरूपण हुआ है। व्याकरणशास्त्र और जैनेतर दर्शनों की जितनी चर्चा सर्वार्थसिद्धि में है उतनी भाष्य में नहीं है। जैन परिभाषा का, सक्षिप्त होते हए भी, जो स्थिर विशदीकरण और वक्तव्य का जो विश्लेषण सर्वार्थसिद्धि में है वह भाष्य में कम से कम है। भाष्य की अपेक्षा सर्वार्थसिद्धि की तार्किकता बढ़ जाती है और भाष्य मे जो नही है ऐसे विज्ञानवादी बौद्ध आदि के मन्तव्य उसमें जोड़े जाते हैं और इतर दर्शनों का खंडन
१. तुलना करे-१. २; १. १२; १. ३२ और २. १ इत्यादि सूत्रों का भाष्य और सर्वार्थसिद्धि ।
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- ६४ - जोर पकड़ता है। ये सब बातें सर्वार्थसिद्धि की अपेक्षा भाष्य की प्राचीनता को सिद्ध करती है।
(ग) साम्प्रदायिकता'-उक्त दो बातों की अपेक्षा साम्प्रदायिकता की बात अधिक महत्त्वपूर्ण है। काल-तत्त्व, केवलि-कवलाहार, अचेलकत्व और स्त्री-मुक्ति जैसे विषयों के तीव्र मतभेद का रूप धारण करने के बाद और इन बातों पर साम्प्रदायिक आग्रह बँध जाने के बाद ही सर्वार्थसिद्धि लिखी गई है, जब कि भाष्य में साम्प्रदायिक अभिनिवेश का यह तत्त्व दिखाई नहीं देता। जिन बातों मे रूढ़ श्वेताम्बर सम्प्रदाय के साथ दिगम्बर सम्प्रदाय का विरोध है उन सभी बातों को सर्वार्थसिद्धि के प्रणेता ने सूत्रों में संशोधन करके या उनके अर्थ में खींचतान करके अथवा असगत अध्याहार आदि करके दिगम्बर सम्प्रदाय की अनुकूलता की दृष्टि से चाहे जिस रीति से सूत्रों में से उत्पन्न करके निकालने का साम्प्रदायिक प्रयत्न किया है। वैसा प्रयत्न भाष्य में कहीं दिखाई नही देता। इससे यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि सर्वार्थसिद्धि साम्प्रदायिक विरोध का वातावरण जम जाने के बाद आगे चलकर लिखी गई है और भाष्य इस विरोध के वातावरण से मुक्त है।
तब यहाँ प्रश्न होता है कि इस प्रकार यदि भाष्य प्राचीन है तो उसे दिगम्बर परम्परा ने क्यो छोड़ा ? इसका उत्तर यही है कि सर्वार्थसिद्धिकार को श्वेताम्बर सम्प्रदाय की जिन मान्यताओं का खंडन करना था वह खंडन भाष्य में नहीं था। इतना ही नहीं, भाष्य अधिकांशतः रूढ़ दिगम्बर परम्परा का पोषक भी नहीं था और बहुत-से स्थानों पर तो वह उलटा दिगम्बर परम्परा से बहुत विपरीत पड़ता था। अतः पूज्यपाद ने भाष्य को एक ओर रख कर सूत्रों पर स्वतंत्र टीका लिखी और सूत्रपाठ में इष्ट सुधार तथा वृद्धि की और उसकी व्याख्या में जहाँ मतभेद
१. देखें-५. ३९; ६. १३; ८. १; ९. ९, ९. ११, १०. ९ इत्यादि सूत्रों की सर्वार्थसिद्धि टीका के साथ उन्ही सूत्रों का भाष्य ।
२. तत्त्वार्थ, ९. ७ तथा २४ के भाष्य मे वस्त्र का उल्लेख है एवं १०. ७ के भाष्य मे 'तीर्थकरीतीर्थ' का उल्लेख है।
३. जहाँ-जहाँ अर्थ की खीचतान की है अथवा पुलाक आदि जैसे स्थलों पर ठीक-ठीक विवरण नहीं हो सका उन सूत्रों को क्यों न निकाल डाला ? इस प्रश्न का उत्तर सूत्रपाठ की अति प्रसिद्धि और निकाल डालने पर अप्रामाण्य का आक्षेप आने का डर था, ऐसा जान पड़ता है ।
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- ६५ -
वाली बात आई वहाँ स्पष्ट रूप से दिगम्बर मन्तव्य ही स्थापित किया । ऐसा करने में पूज्यपाद के लिए कुन्दकुन्द के ग्रन्थ मुख्य आधारभूत रहे है, ऐसा जान पड़ता है। ऐसा होने से दिगम्बर परम्परा ने सर्वार्थसिद्धि को मुख्य प्रमाणरूप में स्वोकार कर लिया और भाष्य स्वाभाविक रूप में श्वेताम्बर परम्परा में मान्य रह गया। भाष्य पर किसी भी दिगम्बर आचार्य ने टीका नहीं लिखो, इससे वह दिगम्बरपरम्परा से दूर ही रह गया। अनेक श्वेताम्बर आचार्यों ने भाष्य पर टीकाएँ लिखी हैं और कही-कही पर भाष्य के मन्तव्यों का विरोध किए जाने पर भी समष्टि रूप से उसका प्रामाण्य ही स्वीकार किया है। इसी लिए वह श्वेताम्बर सम्प्रदाय का प्रमाणभूत ग्रन्थ है। फिर भी यह स्मरण रखना चाहिए कि भाष्य के प्रति दिगम्बर परम्परा की जो आजकल मनोवृत्ति देखी जाती है वह प्राचीन दिगम्बराचार्यो में नहीं थी। क्योंकि अकलंक जैसे प्रमुख दिगम्बराचार्य भी यथासम्भव भाष्य के साथ अपने कथन की संगति दिखाने का प्रयत्न करके भाष्य के विशिष्ट प्रामाण्य का सूचन करते हैं ( देखें-राजवार्तिक ५. ४. ८.) और कहीं भी भाष्य का नामोल्लेखपूर्वक खण्डन नहीं करते या अप्रामाण्य व्यक्त नहीं करते।
( ख ) दो वार्तिक ग्रन्थों का नामकरण भी आकस्मिक नहीं होता; खोज की जाए तो उसका भी विशिष्ट इतिहास है। पूर्वकालीन और समकालीन विद्वानों की भावना से तथा साहित्य के नामकरण-प्रवाह से प्रेरणा लेकर ही ग्रन्यकार अपनी कृतियों का नामकरण करते है। व्याकरण पर पातंजल महाभाष्य की प्रतिष्ठा का प्रभाव बाद के अनेक ग्रन्थकारों पर पड़ा, यह बात हम उनकी कृतियों के भाष्य नाम से जान सकते हैं। इसी प्रभाव ने, सम्भव है, वा० उमास्वाति को भाष्य नामकरण करने के लिए प्रेरित किया हो । बौद्ध साहित्य में एक ग्रन्थ का नाम 'सर्वार्थसिद्धि' होने का स्मरण है। उसके और प्रस्तुत सर्वार्थसिद्धि के नाम का पौर्वापर्य सम्बन्ध अज्ञात है, परन्तु वार्तिकों के विषय में इतना निश्चित है कि एक बार भारतीय वाङ्मय में वार्तिक युग आया और भिन्न-भिन्न सम्प्रदायों में भिन्न-भिन्न विषयों पर वार्तिक नाम के अनेक ग्रन्थ लिखे गए। उसी का असर तत्त्वार्थ के प्रस्तुत वार्तिकों के नामकरण पर है। अकलंक ने अपनी टोका का नाम 'तत्त्वार्थवार्तिक' रखा है, जो राजवातिक नाम से प्रसिद्ध
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है। विद्यानन्दकृत तत्त्वार्थव्याख्या का 'श्लोकवार्तिक' नाम कुमारिल के 'श्लोकवार्तिक' का अनुकरण है, इसमें कोई संदेह नही।
तत्त्वार्थसूत्र पर लिखित अकलङ्क के 'राजवार्तिक' और विद्यानन्द के 'श्लोकवार्तिक' दोनों का मूल आधार सर्वार्थसिद्धि ही है। यदि अकलङ्क को सर्वार्थसिद्धि न मिली होती तो राजवार्तिक का वर्तमान स्वरूप इतना विशिष्ट नही होता और यदि राजवातिक का आश्रय न मिला होता तो विद्यानन्द के श्लोक वार्तिक की विशिष्टता भी दिखाई न देती, यह निश्चित है। राजवातिक और श्लोकवातिक ये दोनों साक्षात् या परपरा से सर्वार्थसिद्धि के ऋणी होने पर भी दोनों में सर्वार्थसिद्धि की अपेक्षा विशेष विकास हुआ है। उद्योतकर के 'न्यायवातिक' की तरह 'तत्त्वार्थवार्तिक' गद्य में है, जब कि 'श्लोकवार्तिक' कुमारिल के श्लोकवातिक' तथा धर्मकीर्ति के 'प्रमाणवार्तिक' एव सर्वज्ञात्म मुनिकृत संक्षेपशारीरकवार्तिक की तरह पद्य में है। कुमारिल की अपेक्षा विद्यानन्द की विशेषता यह है कि उन्होने स्वयं ही अपने पद्यवार्तिक की टीका भी लिखी है। राजवातिक में लगभग समस्त सर्वार्थसिद्धि आ जाती है, फिर भी उसमें नवीनता और प्रतिभा इतनी अधिक है कि सर्वार्थसिद्धि को साथ रखकर राजवातिक पढ़ते समय उसमें कुछ भी पुनरुक्ति दिखाई नहीं देती। लक्षणनिष्णात पूज्यपाद के सर्वार्थसिद्धिगत सभी विशेष वाक्यों को अकलङ्ग ने पृथक्करण और वर्गीकरण पूर्वक वार्तिकों में परिवर्तित कर डाला है और वृद्धि करने योग्य दिखाई देनेवाली बातों तथा वैसे प्रश्नों के विषय में नवीन वार्तिक भी रचे है तथा सब वार्तिकों पर स्वयं ही स्फुट विवरण लिखा है। अतः समष्टिरूप से देखते हुए 'राजवातिक' सर्वार्थसिद्धि का विवरण होने पर भी वस्तुत: एक स्वतन्त्र ही ग्रन्थ है । सर्वार्थसिद्धि में जो दार्शनिक अभ्यास दिखाई देता है उसकी अपेक्षा राजवार्तिक का दार्शनिक अभ्यास बहुत ही ऊँचा चढ़ जाता है। राजवार्तिककार का एक ध्रुव मन्त्र यह है कि उसे जिस बात पर जो कुछ कहना होता है उसे वह 'अनेकान्त' का आश्रय लेकर ही कहता है । 'अनेकान्त' राजवार्तिक की प्रत्येक चर्चा की चाबी है। अपने समय तक भिन्न-भिन्न सम्प्रदायों के विद्वानों ने 'अनेकान्त' पर जो आक्षेप किए और अनेकान्तवाद की जो त्रुटियां बतलाई उन सबका निरसन करने और अनेकान्त का वास्तविक स्वरूप बतलाने के लिए ही
१. साख्यसाहित्य मे भी एक राजवार्तिक नाम का ग्रन्थ था।
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अकलङ्क ने प्रतिष्ठित तत्त्वार्थसूत्र के आधार पर सिद्धलक्षणवाली सर्वार्थसिद्धि का आश्रय लेकर अपने राजवार्तिक की भव्य इमारत खड़ी की है। सर्वार्थसिद्धि में जो आगमिक विषयों का अति विस्तार है उसे राजव तिककार ने कम कर दिया है और दार्शनिक विषयों को हो प्राधान्य दिया है।
दक्षिण भारत में निवास करते हुए विद्यानन्द ने देखा कि पूर्वकालीन और समकालीन अनेक जनेतर विद्वानों ने जैन दर्शन पर जो आक्रमण किर हैं उनका उत्तर देना बहुत कुछ शेष है और विशेष कर मीमांसक कुमारिल आदि द्वारा किए गए जैन दर्शन के खंडन का उत्तर दिए बिना उनसे रहा नहीं गया, तभी उन्होंने श्लोकवार्तिक को रचना की । उन्होंने अपना यह उद्देश्य सिद्ध किया है। तत्त्वार्थश्लोकवातिक में मीमांसा दर्शन का जितना और जैसा सबल खडन है वैसा तत्त्वार्थसूत्र को अन्य किसो टीका में नही। तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक में सर्वार्थसिद्धि तथा राजवार्तिक में चचित कोई भी मुख्य विषय छूटा नही; बल्कि बहुत-से स्थानों पर तो सर्वार्थसिद्धि और राजवार्तिक की अपेक्षा श्लोकवार्तिक को चर्चा बढ़ जाती है। कितनी हो बातों को चर्चा तो श्लोकवातिकम अपूर्व ही है। राजवार्तिक में दार्शनिक अभ्यास की विशालता है तो श्लोकवार्तिक में इस विशालता के साथ सूक्ष्मता का तत्त्व भरा हुआ दृष्टिगोचर होता है। समग्र जैन वाङ्मय में जो थोड़ी-बहुत कृतियाँ महत्व रखती हैं उनमें 'राजवातिक' और 'श्लोकवार्तिक' भी है। तत्त्वार्थसूत्र पर उपलब्ध श्वेताम्बर साहित्य में एक भी अन्य ऐसा नही है जो राजवार्तिक या श्लोकवातिक की तुलना में बैठ सके । भाष्य में दिखाई देनेवाला साधारण दार्शनिक अभ्यास सर्वार्थसिद्धि में कुछ गहरा बन जाता है और राजवार्तिक में वह विशेष गाढ़ा होकर अंत में श्लोकवार्तिक में खूब जम जाता है। राजवातिक और श्लोकवार्तिक के इतिहासज्ञ अध्येता को मालूम ही हो जाएगा कि दक्षिण भारत में दार्शनिक विद्या और स्पर्धा का जो समय आया और अनेकमुखी पांडित्य विकसित हुआ उसी का प्रतिबिम्ब इन दो ग्रन्थों में है। प्रस्तुत दोनों वार्तिक जैन दर्शन का प्रामाणिक अध्ययन करने के पर्याप्त साधन हैं, परन्तु इनमें से राजवार्तिक गद्यमय व सरल तथा विस्तृत होने से तत्त्वार्थ के समस्त टीका-ग्रन्थों की अपेक्षा पूर्ति अकेला ही कर देता है। ये दो वार्तिक यदि नहीं होते तो दसवीं
१. तुलना करें-१. ७-८ की सर्वार्थसिद्धि तथा राजवार्तिक ।
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शताब्दी तक के दिगम्बर साहित्य में जो विशिष्टता आई है और इसकी जो प्रतिष्ठा बँधी है वह निश्चय ही अधुरी रहती। साम्प्रदायिक होने पर भो ये दो वार्तिक अनेक दृष्टियो से भारतीय दार्शनिक साहित्य में विशिष्ट स्थान प्राप्त करने की योग्यता रखते है। इनका अवलोकन बौद्ध और वैदिक परम्परा के अनेक विषयों पर तथा अनेक ग्रन्थों पर ऐतिहासिक प्रकाश डालता है।
(ग ) दो वृत्तियाँ मूल सूत्र पर रची गई व्याख्याओं का संक्षिप्त परिचय प्राप्त करने के बाद अब व्याख्या पर रचित व्याख्याओं का परिचय प्राप्त करना क्रमप्राप्त है । ऐसी दो व्याख्याएं इस समय पूरी-पूरी उपलब्ध है, जो श्वेताम्बर है। इन दोनों का मुख्य साम्य सक्षेप मे इतना ही है कि ये व्याख्याएं उमास्वाति के स्वोपज्ञ भाष्य को शब्दशः स्पर्श करती है और उसका विवरण करती हैं। भाष्य का विवरण करते समय भाष्य का आश्रय लेकर सर्वत्र आगमिक वस्तु का ही प्रतिपादन करना और जहाँ भाष्य आगम से विरुद्ध जाता दिखाई देता हो वहाँ भी अन्ततः आगमिक परम्परा का ही समर्थन करना, यह इन दोनो वृत्तियों का समान ध्येय है । इतना साम्य होते हुए भी इन दोनों वृत्तियो मे परस्पर भेद भी है। एक वृत्ति जो प्रमाण में बडी है वह एक ही आचार्य की कृति है, जब कि दूसरी छोटी वत्ति तीन आचार्यो की मिश्र कृति है। लगभग अठारह हजार श्लोक-प्रमाण बड़ी वृत्ति में अध्यायो के अन्त मे तो प्रायः 'भाष्यानुसारिणी' इतना ही उल्लेख मिलता है, जब कि छोटी वृत्ति के हर एक अध्याय के अन्न का उल्लेख कुछ न कुछ भिन्न है। कही 'हरिभद्रविरचितायाम्' (प्रथमाध्याय की पुष्पिका) तो कही 'हरिभद्रो
द्धृतायाम्' (द्वितीय, चतुर्थ एवं पंचमाध्याय के अन्त में) है, कही 'हरिभद्रारब्धायाम्' (छठे अध्याय के अन्त में ) तो कहीं 'प्रारब्धायाम्' ( सातवे अध्याय के अन्त में ) है, कही 'यशोभद्राचार्यनिhढायाम्' (छठे अध्याय के अन्त में ) तो कहीं 'यशोभद्रसूरिशिष्यनिर्वाहितायाम्' (दसवें अध्याय के अन्त मे ) है, बीच में कहीं 'तत्रवान्यकर्तृकायाम्' (आठवें अध्याय के अन्त में ) तथा 'तस्यामेवान्यकर्तृकायाम्' ( नवें अध्याय के अन्त में) है। इन सब उल्लेखों में भाषाशैली तथा समुचित संगति का अभाव देखकर कहना पड़ता है कि ये सब उल्लेख उस कर्ता के अपने नहीं हैं। हरिभद्र ने अपने पांच अध्यायों के अन्त में स्वयं लिखा होता
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तो वे 'विरचित' और 'उद्धृत' ऐसे भिन्नार्थक दो शब्द कभी प्रयुक्त नहीं करते जिनसे कोई एक निश्चित अर्थ नहीं निकल सकता कि वह भाग हरिभद्र ने स्वयं नया रचा या किसी एक या अनेक वृत्तियों का संक्षेपविस्तार रूप में उद्धार किया । इसी प्रकार यशोभद्रलिखित अध्यायों के अन्त में भी एकवाक्यता नहीं है । 'यशोभद्र निर्वाहितायाम्' शब्द होने पर भो 'अन्यकर्तृकायाम्' लिखना या तो व्यर्थ है या किसी अर्थान्तर का सूचक है ।
ये सब असंगतियाँ देखकर अनुमान होता है कि अध्याय के अन्तवाले उल्लेख किसी एक या अनेक लेखकों के द्वारा एक समय में या अलगअलग समय में नकल करते समय प्रविष्ट हुए है। ऐसे उल्लेखों की रचना का आधार यशोभद्र के शिष्य का वह पद्य गद्य है जो उसने अपनी रचना के प्रारम्भ में लिखा है ।
उपर्युक्त उल्लेखों के बाद में जुड़ने की कल्पना का पोषण इससे भी होता है कि अध्यायों के अन्त मे पाया जानेवाला 'डुपडुपिकायाम् ' पद अनेक जगह त्रुटित है । जो हो, अभी तो उन उल्लेखों के आधार पर निम्नोक्त बातें निष्पन्न होती हैं :
१. तत्त्वार्थ-भाष्य पर हरिभद्र ने वृत्ति लिखी जो पूर्वकालीन या समकालीन छोटी-छोटी खण्डित व अखण्डित वृत्तियों का उद्धार है, क्योकि उसमें उन वृत्तियों का यथोचित समावेश हो गया है ।
२. हरिभद्र की अधूरी वृत्ति को यशोभद्र ने तथा उनके शिष्य ने गन्धहस्ती की वृत्ति के आधार पर पूरा किया ।
३. वृत्ति का डुपडुपिका नाम ( अगर यह नाम सत्य तथा ग्रन्थकारों का रखा हुआ हो तो ) इसलिए पड़ा जान पड़ता है कि वह टुकड़े-टुकड़े में पूरी हुई, किसी एक के द्वारा पूरी न बन सकी । किसी प्रति में 'दुपदुपिका' पाठान्तर है । 'डुपडुपिका' शब्द इस स्थान के अतिरिक्त अन्यत्र कहीं देखा-सुना नहीं गया । सम्भव है वह अपभ्रष्ट पाठ हो या कोई देशी शब्द रहा हो । जैसी कि मैने पहले कल्पना की थी कि उसका अर्थ कदाचित् डोंगी हो, एक विद्वान् मित्र ने यह भी कहा था कि वह संस्कृत उडूपिका का भ्रष्ट पाठ है । पर अब सोचने से वह कल्पना और वह सूचना ठीक नही जान पड़ती। यशोभद्र के शिष्य ने अन्त में जो
१. देखें ---- गुजराती तत्त्वार्थ-विवेचन का परिचय, पृ० ८४ |
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वाक्य लिखा है उससे तो कुछ ऐसा ध्वनित होता है कि यह छोटी वृत्ति थोडी एकने रचो,थोड़ो दूसरे ने,थोड़ी तीसरे ने इस कारण डुमडुपिका बन गई, एक कथा-सी बन गई। __ सर्वार्थसिद्धि और राजवार्तिक के साथ सिद्धसेनीय वृत्ति की तुलना करने से इतना तो स्पष्ट ज्ञात होता है कि जो भाषा का प्रसाद, रचना की विशदता एवं अर्थ का पृथक्करण सर्वार्थसिद्धि और राजवार्तिक में है वह सिद्धसेनीय वृत्ति में नही है। इसके दो कारण हैं। एक तो है ग्रन्थकार का प्रकृतिभेद और दूसरा है पराश्रित रचना। सर्वार्थसिद्धिकार और राजवातिककार सूत्रो पर अपना-अपना विवेचन स्वतन्त्र रूप से ही करते हैं।
सिद्धसेन को भाष्य का शब्दशः अनुसरण करते हुए पराश्रित रूप में चलना पड़ा है। इतना भेद होने पर भो समग्र रीति से सिद्धसेनीय वृत्ति का अवलोकन करते समय मन पर दो बाते अंकित होती है। पहली यह कि सर्वार्थसिद्धि और राजवातिक की अपेक्षा सिद्धसेनीय वृत्ति की दार्शनिक योग्यता कम नही है। पद्धति-भेद होने पर भी समष्टरूप से इस वृत्ति में भी उन दो ग्रन्थों जितनी ही न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग और बौद्ध दर्शनों की चर्चा है। दूसरी बात यह है कि सिद्धसेन अपनी वृत्ति मे दार्शनिक और तार्किक चर्चा करते हुए भो अन्त में जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण की तरह आगमिक परम्परा की प्रबल रूप में स्थापना करते हैं और इसमें उनका प्रचुर आगमिक अध्ययन दिखाई देता है। सिद्धसेन की वृत्ति से ऐसा मालूम होता है कि उनके समय तक तत्त्वार्थ पर अनेक व्याख्याएँ रची जा चुकी थी। किसीकिसी स्थल पर एक ही सूत्र के भाष्य का विवरण करते हुए वे पांच-छः तक मतान्तर निर्दिष्ट करते है। इससे यह अनुमान करने का आधार मिलता है कि जब सिद्धसेन ने वृत्ति लिखी तब उनके सामने तत्त्वार्थ पर रची हुई कम-से-कम पांच टीकाएँ रहो होंगी। सिद्धसेन की वृत्ति में तत्त्वार्थगत विषय-सम्बन्धी जो विचार और भाषा की जो पुष्ट शैली दिखाई देती है उससे भलीभाँति मालूम होता है कि इस वृत्ति के पहले तत्त्वार्थ से सम्बन्धित काफी साहित्य श्वेताम्बर सम्प्रदाय में लिखा गया और उसमे वृद्धि भी हुई।
१. देखें-५. ३ की सिद्धसेनीय वृत्ति, पृ० ३२१ ।
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(घ) खण्डित वृत्ति भाष्य पर तीसरी वृत्ति उपाध्याय यशोविजय की है। यदि यह पूर्ण मिल जाती तो सत्रहवों-अठारहवीं शताब्दी तक प्राप्त होनेवाले भारतीय दर्शनशास्त्र के विकास का एक नमना पूर्ण करती, ऐसा वर्तमान में उपलब्ध इस वृत्ति के एक छोटे-से खण्ड से ही कहा जा सकता है । यह खण्ड प्रथम अध्याय पर भी पूरा नहीं है और इसमें ऊपर को दो वृत्तियों के समान ही शब्दश: भाष्य का अनुसरण करते हुए विवरण किया गया है। ऐसा होने पर भी इसमे जो गहरी तर्कानुगामी चर्चा, जो बहुश्रनता एवं जो भावाभिव्यक्ति दिखाई देती है वह यशोविजय की न्यायविशारदता की परिचायक है। यदि इन्होंने यह वृत्ति सम्पूर्ण रची हो ता ढाई सौ वर्षों में ही उस हा सर्वनाश हो जाना सभव नही लगता, अतः इस पर शोध-कार्य अपेक्षित है।
रत्नसिंह का टिप्पण 'अनेकान्त' वर्ष ३, किरण १ ( सन् १९३९ ) में पं० जुगलकिशोरजी ने तत्त्वार्थाधिगमसत्र की सटिप्पण एक प्रति का परिचय कराया है। इससे ज्ञात होता है कि वह टिप्पण केवल मूलसूत्रस्पर्शी है। टिप्पणकार श्वेताम्बर रत्नसिंह का समय तो ज्ञात नहीं, पर उक परिचय में दिए गए अवतरणों की भाषा तथा लेखन-शैली से ऐपा मालूम होता है कि रत्नसिंह १६वीं शताब्दी के पूर्व के शायद ही हों। वह टिप्पण अभी तक छपा नहीं है । लिखित प्रति के आठ पत्र हैं ।
ऊपर जो तत्त्वार्थ पर महत्त्वपूर्ण तथा अध्ययन-योग्य थोड़े से ग्रन्थों का परिचय कराया गया है वह केवल इसलिए कि पाठकों की जिज्ञासा जाग्रत हो और उन्हें इस दिशा में विशेष प्रयत्न करने की प्रेरणा मिले। वास्तव में प्रत्येक ग्रन्थ के परिचय के लिए एक-एक स्वतन्त्र निबन्ध अपेक्षित है और इन सबके सम्मिलित परिचय के लिए तो एक खासी मोटी पुस्तक की अपेक्षा है जो इस स्थल की मर्यादा के बाहर है । इसलिए इतने ही परिचय से सन्तोष धारण कर विराम लेता हूँ।
-~-सुखलाल
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परिशिष्ट मैने पं० नाथूरामजी प्रेमी तथा पं० जुगलकिशोरजी मुख्तार से उमास्वाति तथा तत्त्वार्थ से सम्बन्धित बातों के विषय में कुछ प्रश्न पूछे थे । उनकी ओर से प्राप्त उत्तर का मुख्य अश उन्हीं के शब्दों में अपने प्रश्नों के साथ नीचे दिया जाता है। वर्तमान युग के दिगम्बर विद्वानी में, ऐतिहासिक क्षेत्र में, इन दोनों की योग्यता उच्च कोटि की रही है। अतः पाठकों के लिए उनके विचार उपयोगी होने से उन्हें परिशिष्ट के रूप में यहां देता हूँ। पं० जुगलकिशोरजी के उत्तर के जिस अंश पर मुझे कुछ कहना है वह उनके पत्र के बाद 'मेरी विचारणा' शीर्षक में कह दिया गया है (आगे पृष्ठ ७६)।
( क ) प्रश्न १. उमास्वाति कुन्दकुन्द के शिष्य या वंशज है, इस भाव का सबसे पुराना उल्लेख किस ग्रथ, पट्टावली या शिलालेख में आपके देखने में अब तक आया है ? अथवा यों कहिए कि दसवीं सदी के पूर्ववर्ती किस ग्रन्थ, पट्टावली आदि में उमास्वाति के कुन्दकुन्द के शिष्य या वंशज होने की बात मिलती है ?
२. आपके विचार मे पूज्यपाद का समय क्या है ? तत्त्वार्थ का श्वेताम्बर-भाष्य आपके विचार में स्वोपज्ञ है या नहीं? यदि स्वोपज्ञ नही है तो उस पक्ष में महत्त्वपूर्ण दलीलें क्या है ?
३. दिगम्बर परम्परा में कोई 'उच्च नागर' नामक शाखा कभी हुई है और वाचकवंश या वाचकपद धारी मुनियों का कोई गण प्राचीन काल में कभी हुआ है ? यदि हुआ है तो उसका वर्णन या उल्लेख कहाँ पर है ?
४. मुझे संदेह है कि तत्त्वार्थसूत्र के रचयिता उमास्वाति कुन्दकुन्द के शिष्य थे, क्योकि इसका कोई भी प्राचीन प्रमाण अभी तक मुझे नही मिला। जो मिले वे सब बारहवीं सदी के बाद के हैं। इसलिए सरसरी तौर पर जो बात ध्यान में आए सो लिखिएगा।
५. प्रसिद्ध तत्त्वार्थशास्त्र की रचना कुन्दकुन्द के शिष्य उमास्वाति ने को है, इस मान्यता के लिए दसवी सदी से प्राचीन क्या-क्या प्रमाण या
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उल्लेख हैं ? क्या दिगम्बर साहित्य में दसवीं सदी से पुराना कोई ऐसा उल्लेख है जिसमें कुन्दकुन्द के शिष्य उमास्वाति के द्वारा तत्त्वार्थसूत्र की रचना करने का सूचन या कथन हो ?
६. 'तत्त्वार्थसूत्रकर्तारं गृध्रपिच्छोपलक्षितम्' यह पद्य कहाँ का है और कितना पुराना है ?
७. पूज्यपाद, अकलंक, विद्यानन्द आदि प्राचीन टीकाकारों ने कहीं भी तत्त्वार्थसत्र-रचयिता के रूप में उमास्वाति का उल्लेख किया है ? यदि नहीं किया है तो बाद में यह मान्यता कैसे चल पडी ?
(ख) प्रेमीजी का पत्र "आपका ता० ६ का कृपापत्र मिला। उमास्वाति कुन्दकुन्द के वंशज हैं, इस बात पर मुझे जरा भी विश्वास नही है। यह दश-कल्पना उस समय की गई है जब तत्त्वार्थसूत्र पर सर्वार्थसिद्धि, श्लोकवार्तिक, राजवातिक आदि टीकाएँ बन चुकी थी और दिगम्बर सम्प्रदाय ने इस ग्रंथ को पूर्णतया अपना लिया था। दसवी शताब्दी के पहले का कोई भी उल्लेख अभी तक मुझे इस सम्बन्ध में नहीं मिला । मेरा विश्वास है कि दिगम्बर सम्प्रदाय में जो बड़े-बड़े विद्वान् ग्रथकर्ता हुए है, प्रायः वे किसी मठ या गद्दी के पट्टधर नहीं थे। परन्तु जिन लोगों ने गर्वावली या पट्टावली बनाई है उनके मस्तक में यह बात भरी हुई थी कि जितने भी आचार्य या ग्रन्यकर्ता होते हैं वे किसी-न-किसी गद्दी के अधिकारी होते हैं। इसलिए उन्होंने पूर्ववर्ती सभो विद्वानो की इसी भ्रमात्मक विचार के अनुसार खतौनी कर डाली है और उन्हे पट्टधर बना डाला है। यह तो उन्हे मालूम नहीं था कि उमास्वाति और कुन्दकुन्द किस-किस समय में हुए हैं। परन्तु चूंकि वे बड़े आचार्य थे और प्राचीन थे, इसलिए उनका सम्बन्ध जोड़ दिया और गुरु-शिष्य या शिष्य-गुरु बना दिया । यह सोचने का उन्होंने कष्ट नहीं उठाया कि कुन्दकुन्द कर्नाटक देश के कुंडकुड ग्राम के निवासी थे और उमास्वाति बिहार मे भ्रमण करनेवाले। उनके सम्बन्ध की कल्पना भी एक तरह से असम्भव है।
श्रुतावतार, आदिपुराण, हरिवंशपुराण, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति आदि प्राचीन ग्रन्थों में जो प्राचीन आचार्य-परम्परा दी हुई है उसमें उमास्वाति का बिलकुल उल्लेख नहीं है। श्रुतावतार में कुंदकुद का उल्लेख है और उन्हे एक बड़ा टीकाकार बतलाया है परन्तु उनके आगे या पीछे उमास्वाति का कोई उल्लेख नहीं है । इन्द्रनन्दी का श्रु तावतार यद्यपि बहुत पुरान
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नहीं है फिर भी ऐसा जान पड़ता है कि वह किसी प्राचीन रचना का रूपान्तर है और इस दृष्टि से उसका कथन प्रमाणकोटि का है। 'दर्शनसार' ६६० संवत् का बनाया हुआ है, उसमें पद्मनन्दी या कुन्दकुन्द का उल्लेख है परन्तु उमास्वाति का नही । जिनसेन के समय राजवार्तिक और श्लोकवार्तिक बन चुके थे परन्तु उन्होने भी बीसों आचार्यों और ग्रन्थकर्ताओं की प्रशंसा के प्रसंग में उमास्वाति का उल्लेख नहीं किया, क्योंकि वे उन्हें अपनी परम्परा का नहीं समझते थे । एक बात और है । आदिपुराण, हरिवंशपुराण आदि के कर्ताओ ने कुन्दकुन्द का भी उल्लेख नही किया है, यह एक विचारणीय बात है ।
मेरी समझ में कुन्दकुन्द एक खास आम्नाय या सम्प्रदाय के प्रवर्तक थे । उन्होंने जैनधर्म को वेदान्त के साँचे में ढाला था। जान पड़ता है कि जिनसेन आदि के समय तक उ का मत सर्वमान्य नहीं हुआ और इसीलिए उनके प्रति उन्हें कोई आदरभाव नहीं था।
'तत्त्वार्थशास्त्रकर्तारं गृध्रपिच्छोपलक्षितम्' यह श्लोक मालूम नहीं कहाँ का है और कितना पुराना है। तत्त्वार्थसूत्र की मूल प्रतियों में यह पाया जाता है । कहीं-कही कुन्दकुन्द को भी गृध्रपिच्छ लिखा है । गृध्रपिच्छ नाम के एक और भी आचार्य का उल्लेख है। जैनहितैषी, भाग १०, पृष्ठ ३६९ और भाग १५, अंक ६ के कुन्दकुन्द सम्बन्धी लेख पढवा कर देख लीजिएगा।
षट्पाहुड की भूमिका भी पढ़वा लीजिएगा ।
श्रतसागर ने आशाधर के महाभिषेक की टीका संवत् १५८२ में समाप्त की है। अतएव ये विक्रम की सालहवी शताब्दी के है । तत्त्वार्थ की वत्ति के और पटनाहड की तथा यशस्तिलक की टीका के कर्ता भी यही है । दूसरे श्रुतसागर के विषय मे मुझे मालूम नही ।" ।
(ग) जुगलकिशोरजी मुख्तार का पत्र "आपके प्रश्नो का मै सरसरी तौर से कुछ उत्तर दिये देता हूँ :
१. अभी तक जो दिगम्बर पट्टालियां ग्रन्थादिकों में दी हुई गुर्वावलियों से भिन्न उपलब्ध हुई हैं वे प्राय. विक्रम को १२वीं शताब्दी के बाद की बनी हुई जान पड़ती हैं, ऐसा कहना ठीक होगा। उनमें सबसे पुरानी कौन-सी है और वह कब की बनी हुई है, इस विषय में मै इस समय कुछ नहीं कह सकता। अधिकांश पट्टावलियों पर निर्माण के सम
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यादि का कुछ उल्लेख नहीं है और ऐसा भी अनुभव होता है कि किसीकिसी में अंतिम आदि कुछ भाग पीछे से भी शामिल हुआ है।
कुन्दकुन्द तथा उमास्वाति के सम्बन्धवाले कितने ही शिलालेख तथा प्रशस्तियाँ हैं, परन्तु वे सब इस समय मेरे सामने नही हैं। हाँ, श्रवणबेल्गोल के जैन शिलालेखों का संग्रह इस समय मेरे सामने है, जो माणिकचंद्र दिग० जैन ग्रन्थमाला का २८ वॉ ग्रन्थ है । इसमें ४०,४२,४३, ४७, ५०, १०५ और १०८ नम्बर के ७ शिलालेख दोनो के उल्लेख तथा सम्बन्ध को लिये हुए है। पहले पॉच लेखो में 'तदन्वये' पद के द्वारा तथा नं० १०८ में 'वंशे तदीये' पदों के द्वारा उमास्वाति को कुन्दकुन्द के वश में लिखा है। प्रकृत वाक्यों का उल्लेख 'स्वामी समन्तभद्र' के प० १५८ पर फुटनोट में भी किया गया है। इनमें सबसे पुराना शिलालेख नं० ४७ है, जो शक सं० १०३७ का लिखा हुआ है।
२. पूज्यपाद का समय विक्रम की छठी शताब्दी है, इसकी विशेष जानकारी के लिए 'स्वामी समन्तभद्र' के पृ० १४१ से १४३ तक देखिए। तत्त्वार्थ के श्वेताम्बरीय भाष्य को मै अभी तक स्वोपज्ञ नहीं समझता हूँ। उस पर कितना ही संदेह है, जिस सबका उल्लेख करने के लिए मै इस समय तैयार नहीं हूँ।
३. दिगम्बरीय परम्परा में मुनियों की कोई उच्चनागर शाखा भी हुई है, इसका मुझे अभी तक कुछ पता नहीं है और न 'वाचकवश' या 'वाचक' पदधारी मुनियों का कोई विशेष हाल मालूम है । हाँ, 'जिनेन्द्रकल्याणाभ्युदय' ग्रन्थ में 'अन्वयावलि' का वर्णन करते हुए कुन्दकुन्द और उमास्वाति दोनों के लिए 'वाचक' पद का प्रयोग किया गया है, जना कि उसके निम्न पद्य से प्रकट है :
पुष्पदन्तो भूतबलिजिनचन्द्रो मुनिः पुनः।
कुन्दकुन्दमुनीन्द्रोमास्वातिवाचकसंज्ञितौ ॥ ४ कुन्दकुन्द और उमास्वाति के सम्बन्ध का उल्लेख किया जा चुका है । मै अभी तक उमास्वाति को कुन्दकुन्द का निकटान्वयी मानता हूँशिष्य नही । हो सकता है कि वे कुन्दकुन्द के प्रशिष्य रहे हों और इसका उल् देख मैने 'स्वामी समन्तभद्र' मे पृ० १५८-१५९ पर भी किया है। उक्त इतिहास में 'उमास्वाति-समय' और 'कुन्दकुन्द-समय' नामक दोनों लेखों को एक बार पढ़ जाना चाहिए।
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___ ५. विक्रम की १० वी शताब्दी से पहले का कोई उल्लेख मेरे देखने में ऐसा नही आया जिसमें उमास्वाति को कुन्दकुन्द का शिष्य लिखा हो ।
६. 'तत्त्वार्थसूत्रकर्तारं गृध्रपिच्छोपलक्षितम्' यह पद्य तत्त्वार्थसूत्र की बहुत-सी प्रतियों के अन्त मे देखा जाता है, परन्तु वह कहाँ का है और कितना पुराना है, यह अभी कुछ नही कहा जा सकता।
७. पूज्यपाद और अकलङ्कदेव के विषय में तो अभी ठीक नही कह सकता, परन्तु विद्यानन्द ने तो तत्त्वार्थसूत्र के कर्तारूप से उमास्वाति का उल्लेख किया है-श्लोकवार्तिक में उनका द्वितीय नाम गृध्रपिच्छाचार्य दिया है और शायद आप्तपरीक्षा-टीका आदि में 'उमास्वाति' नाम का भी उल्लेख है।
इस तरह यह आपके दोनों पत्रों का उत्तर है, जो इस समय बन सका है। विशेष विचार फिर किसी समय किया जाएगा।"
(घ) मेरी विचारणा विक्रम को ९-१०वीं शताब्दी के दिगम्बराचार्थ विद्यानन्द ने आप्तपरीक्षा ( श्लोक ११९ ) की स्वोपज्ञवृत्ति में तत्त्वार्थसूत्रकारैरुमास्वामिप्रभृतिभिः ऐसा कथन किया है और तत्त्वार्थ-श्लोकवार्तिक की स्वोपज्ञवृत्ति ( पृ० ६, पं० ३१) मे इन्हीं आचार्य ने एतेन गध्रपिच्छाचार्यपर्यन्तमुनिसूत्रेण व्यभिचारिता निरस्ता ऐसा कथन किया है । ये दोनों कथन तत्त्वार्थशास्त्र के उमास्वाति-रचित होने और उमास्वाति तथा गृध्रपिच्छ, आचार्य दोनों के अभिन्न होने को सूचित करते हैं ऐसी पं० जुगलकिशोरजी की मान्यता जान पड़ती है। परन्तु यह मान्यता विचारणीय है, अतः इस विषय में अपनी विचारणा को संक्षेप में बतला देना उचित होगा।
पहले कथन में 'तत्त्वार्थसत्रकार' यह उमास्वाति वगैरह आचार्यो का विशेषण है, न कि मात्र उमास्वाति का । अब यदि मुख्तारजी के कथनानुसार अर्थ किया जाए तो ऐसा फलित होता है कि उमास्वाति वगैरह आचार्य तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता हैं । यहाँ तत्त्वार्थसूत्र का अर्थ यदि तत्त्वार्थाधिगमशास्त्र किया जाए तो यह फलित अर्थ दूषित ठहरता है, क्योंकि तत्त्वार्थाधिगमशास्त्र अकेले उमास्वामी द्वारा रचित माना जाता है, न कि उमास्वामी आदि अनेक आचार्यो द्वारा । इससे विशेषणगत तत्त्वार्थसूत्र पद का अर्थ मात्र तत्त्वार्थाधिगमशास्त्र न करके 'जिन-कथित तत्त्वप्रतिपादक सभी ग्रन्थ' इतना करना चाहिए। इस अर्थ से
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फलित होता है जिन-कथित तत्त्वप्रतिपादक ग्रन्थ के रचनेवाले उमास्वामी वगैरह आचार्य । इस फलित अर्थ के अनुसार सोधे तौर पर इतना ही कह सकते है कि विद्यानन्द की दृष्टि में उमास्वामी भो जिनकथित तत्त्वप्रतिपादक किसी ग्रन्थ के प्रणेता है। यह ग्रन्थ भले ही विद्यानन्द की दृष्टि में तत्त्वार्थाधिगमशास्त्र ही हो, परन्तु इसका यह आशय उक्त कथन में से दूसरे आधारों के बिना सीधे तौर पर नही निकलता। इससे विद्यानन्द के आप्तपरीक्षागत पूर्वोक्त कथन से हम इतना ही आशय निकाल सकते हैं कि उमास्वामी ने जैन तत्त्व पर कोई ग्रन्थ अवश्य रचा है।
पूर्वोक्त दूसरा कथन तत्त्वार्थाधिगमशास्त्र का पहला मोक्षमार्गविषयक सूत्र सर्वज्ञवीतराग-प्रणीत है, इस बात को सिद्ध करनेवाली अनुमान-चर्चा में आया है। इस अनुमान-चर्चा में मोक्षमार्ग-विषयक सूत्र पक्ष है, सर्वज्ञवीतरागप्रणीतत्व साध्य है और सूत्रत्व हेतु है। इस हेतु में व्यभिचारदोष का निरसन करते हुए विद्यानन्द ने 'एतेन' इत्यादि कथन किया है। व्यभिचारदोष पक्ष से भिन्न स्थल मे संभवित होता है। पक्ष तो मोक्षमार्गविषयक प्रस्तुत तत्त्वार्थसत्र ही है, इससे व्यभिचार का विषयभूत माना जानेवाला गृध्रपिच्छाचाय पर्यन्त मुनियों को सूत्र विद्यानन्द की दृष्टि में उमास्वाति के पक्षभूत मोक्षमार्ग-विषयक प्रथम सूत्र से भिन्न ही होना चाहिए। यह बात ऐसी है कि न्यायविद्या के अभ्यासी को शायद ही समझानी पडे । विद्यानन्द की दृष्टि में पक्षरूप उमास्वाति के सूत्र की अपेक्षा व्यभिचार के विषयरूप से कल्पित किया सूत्र अलग ही है, इसीसे उन्होने इस व्यभिचारदोष का निवारण करने के बाद हेतु में असिद्धता दोष को दूर करते हुए 'प्रकृतसूत्रे' कहा है। प्रकृत अर्थात् जिसकी चर्चा प्रस्तुत है वह उमास्वामी का मोक्षमार्ग-विषयक सूत्र । असिद्धता दोष का निवारण करते हुए सूत्र को 'प्रकृत' विशेषण दिया है और व्यभिचार दोष को दूर करते हुए वह विशेषण नहीं दिया तथा पक्षरूप सूत्र में व्यभिचार नही आता, यह भी नही कहा, बल्कि स्पष्ट रूप से यह कहा है कि गृध्रपिच्छाचार्य पर्यन्त मुनियों के सूत्रों में व्यभिचार नही आता। यह सब निर्विवादरूप से यही सूचित करता है कि विद्यानन्द उमास्वामी से गृध्रपिच्छ को भिन्न ही समझते हैं, दोनों को एक नही । इसी अभिप्राय की पुष्टि में एक दलील यह भी है 'कि विद्यानन्द यदि गृध्रपिच्छ और उमास्वामी को अभिन्न ही समझते
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होते तो एक जगह उमास्वामी और दूसरी जगह 'गृध्रपिच्छ आचार्य' इतना विशेषण ही उनके लिए प्रयुक्त न करते बल्कि 'गृध्रपिच्छ' के बाद वे 'उमास्वामी' शब्द का प्रयोग करते । उक्त दोनों कथनों की मेरी विचारणा यदि असत्य न हो तो यह फलित होता है कि विद्यानन्द की दृष्टि में उमास्वामी तत्त्वार्थाधिगमशास्त्र के प्रणेता होगे, परन्तु उनकी दृष्टि मे गृध्रपिच्छ और उमास्वामो ये दोनो निश्चय ही भिन्न होने चाहिए। ___ गृध्रपिच्छ, बलाकपिच्छ, मयूगीच्छ आदि विशेषणों की सृष्टि नग्नत्वमलक वस्त्र-पात्र के त्यागवालो दिगम्बर भावना में से हुई है। यदि विद्यानन्द ने उमास्वामी को निश्चयपूर्वक दिगम्बर समझा होता तो वे उनके नाम के साथ प्राचीन समय मे लगाए जानेवाले गृध्रपिच्छ आदि विशेषण जरूर लगाते । अतएव कह सकते है कि विद्यानन्द ने उमास्वामी को श्वेताम्बर, दिगम्बर या किसी तीसरे सम्प्रदाय का सूचित ही नही किया है।
-सुखलाल
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अध्ययन विषयक सूचनाएँ जैन दर्शन का प्रामाणिक अध्ययन करने के इच्छुक जैन-जैनेतर विद्यार्थी एवं शिक्षक यह पूछते है कि ऐसी एक पुस्तक कौन-सी है जिसका संक्षिप्त तथा विस्तृत अध्ययन किया जा सके और उससे जैन दर्शन मे सन्निहित मुद्दों के प्रत्येक विषय का ज्ञान हो सके। इस प्रश्न के उत्तर में 'तत्त्वार्थ' के सिवाय अन्य किसी पुस्तक का निर्देश नहीं किया जा सकता। तत्त्वार्थ की इतनी योग्यता होने से आजकल जहाँ-तहाँ जैन दर्शन के पाठ्यक्रम में इसका सर्वप्रथम स्थान रहता है। फिर भी उसकी अध्ययन-परिपाटी की जो रूपरेखा है वह विशेष फलप्रद प्रतीत नहीं होती। इसलिए उसकी अध्ययन-पद्धति के विषय मे यहाँ पर कुछ सूचनाएँ देना अप्रासंगिक न होगा।
सामान्यतः तत्त्वार्थ के श्वेतांबर पाठक उसकी दिगम्बर टीकाओ को नहीं देखते और दिगम्बर पाठक श्वेताम्बर टीकाओं को नहीं देखते । इसका कारण सकूचित दृष्टि, साम्प्रदायिक अभिनिवेश, जानकारी का अभाव अथवा चाहे जो हो पर अगर यह धारणा सही हो तो इसके कारण पाठक का ज्ञान कितना सकूचित रहता है, उसकी जिज्ञासा कितनी अपरितृप्त रहती है और उसको तुलना तथा परोक्षण करने की शक्ति कितनी कुंठित रहती है तथा उसके परिणामस्वरूप तत्त्वार्थ के पाठक का प्रामाण्य कितना अल्प निर्मित होता है, इसे समझने के लिए वर्तमान को सभी जैन संस्थाओ के विद्यार्थियो से अधिक दूर जाने की आवश्यकता नहीं । ज्ञान के मार्ग में, जिज्ञासा के क्षेत्र मे और सत्यान्वेषण में चौकाबदी को अर्थात् दृष्टि-संकोच या सम्प्रदाय-मोह को स्थान हो तो उससे मूल वस्तु ही सिद्ध नहीं होती। जो तुलना के विचार मात्र से ही डर जाते है वे या तो अपने पक्ष की प्रामाणिकता तथा सबलता के विषय में शंकित होते हैं या दूसरे के पक्ष के सामने खड़े होने की शक्ति कम रखते हैं अथवा असत्य को छोड़कर सत्य को स्वीकार - रने में हिचकिचाते हैं तथा अपनी सत्य बात को भी सिद्ध करने के लिए पर्याप्त बुद्धिबल और धैर्य नहीं रखते। ज्ञान का अर्थ यही है कि संकुचितता, बधन और
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अवरोधों का अतिक्रमण कर आत्मा को विस्तृत किया जाए और सत्य के लिए गहरा उतरा जाए। इसलिए शिक्षकों के समक्ष निम्नोक्त पद्धति रखता हूँ। वे इस पद्धति को अन्तिम न मानकर उसमें भी अनुभव से सुधार करें और वास्तव मे तो अध्ययन करनेवाले अपने विद्यार्थियों को साधन बनाकर स्वयं तैयार हों।
१. मूलसूत्र का सरलतापूर्वक जो अर्थ हो वह किया जाय ।
२. भाष्य सर्वार्थसिद्धि इन दोनों में से किसी एक टीका को मुख्य रख उसे पहले पढ़ाया जाए और फिर तुरत ही दूसरी । इस वाचन में नीचे की खास बातों की ओर विद्यार्थियो का ध्यान आकर्षित किया जाए
(क) कौन-कौन से विषय भाष्य तथा सर्वार्थसिद्धि में एक समान है और समानता होने पर भी भाषा तथा प्रतिपादन-शैली में कितना अन्तर पड़ता है ?
( ख ) कौन-कौन से विषय एक में हैं और दूसरे में नहीं? अगर है तो रूपान्तर से जो विषय दूसरे में छोड़ दिए गए हो या जिनको नवीन रूप से चर्चा की गई हो वे कौन से है और इसका कारण क्या है ?
(ग) उपर्युक्त प्रणाली के अनुसार भाष्य और सर्वार्थसिद्धि इन दोनो का पृथक्करण करने के बाद जो विद्यार्थी अधिक योग्य हो उसे 'प्रस्तावना' में दो हुई तुलना के अनुसार अन्य भारतीय दर्शनों के साथ तुलना करने के लिए प्रेरित किया जाए और जो विद्यार्थी साधारण हो उसे भविष्य में ऐसी तुलना करने की दृष्टि से कुछ रोचक सूचनाएँ की जाएँ।
(घ) ऊपर दी हुई सचना के अनुसार पाठ पढ़ाने के बाद पढ़े हए उसी सत्र का राजवार्तिक स्वयं पढ़ जाने के लिए विद्यार्थियों से कहा जाए। वे यह सम्पूर्ण राजवार्तिक पढ़ कर उसमें से पूछने योग्य प्रश्न या समझने के विषय नोट करके दूसरे दिन शिक्षक के सामने रखें। इस चर्चा के समय शिक्षक यथासम्भव विद्यार्थियों में ही परस्पर चर्चा करा कर उनके द्वारा ही ( स्वय केवल तटस्थ सहायक रह कर ) कहलवाए। भाष्य और सर्वार्थसिद्धि की अपेक्षा राजवार्तिक में क्या कम हुआ है, कितनी वृद्धि हुई है, क्या-क्या नवीन है-यह जानने की दृष्टि विद्यार्थियों में परिमार्जित हो।
३. इस तरह भाष्य और सर्वार्थसिद्धि का अध्ययन राजवार्तिक के अवलोकन के बाद पुष्ट होने पर उक्त तीनों ग्रन्थों में नहीं हों, ऐसे और
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खास ध्यान देने योग्य जो-जो विषय श्लोकवार्तिक में चचित हों उन विषयों की सूची तैयार करके रखना एवं अनुकूलता के अनुसार उन्हें विद्यार्थियों को पढ़ाना या स्वयं पढ़ने के लिए कहना चाहिए। इतना होने के बाद सूत्र की उक्त चारों टीकाओं ने क्रमशः कितना और किसकिस प्रकार का विकास किया है और ऐसा करने में उन-उन टीकाओं ने अन्य दर्शनों से कितना लाभ उठाया है या अन्य दर्शनों को उनकी क्या देन है, ये सभी बातें विद्यार्थियों को समझानी चाहिए।
४. किसी परिस्थिति के कारण राजवार्तिक का पठन-पाठन सम्भव न हो तथापि श्लोकवार्तिक के समान राजवार्तिक में भी जो-जो विषय अधिक सुन्दर रूप में चचित हों और जिनका जैन-दर्शन के अनुसार बहुत अधिक महत्त्व हो उनकी एक सूची तैयार करना तो विद्यार्थियों को सिखाना ही चाहिए । भाष्य और सर्वार्थसिद्धि ये दो ग्रन्थ पाठ्यक्रम में नियत हों और राजवार्तिक तथा श्लोकवार्तिक के वे विशिष्ट प्रकरण भी सम्मिलित किए जाएँ जो उक्त दोनों ग्रन्थों मे अचित हों एवं शेष सभी अवशिष्ट विषय ऐच्छिक रहें। उदाहरणार्थ राजवार्तिक की सप्तभंगी और अनेकान्तवाद की चर्चा तथा श्लोकवार्तिक की सर्वज्ञ, आप्त, जगत्कर्ता आदि की, नय की, वाद की और पृथ्वी-भ्रमण की चर्चा । इसी प्रकार तत्त्वार्थभाष्य की सिद्धसेनीय वृत्ति से विशिष्ट चर्चावाले भागों को छांटकर उन्हें पाठ्यक्रम में रखना चाहिए। उदाहरणार्थ १. १; ५. २९, ३१ के भाष्य की वृत्ति में आई हुई चर्चाएँ ।
५. अध्ययन प्रारम्भ करने से पहले शिक्षक तत्त्वार्थ का बाह्य और आभ्यन्तरिक परिचय कराने के लिए विद्यार्थियों के समक्ष रुचिकर प्रवचन करे एवं उनमें दिलचस्पी पैदा करे। दर्शनों के इतिहास एवं क्रम-विकास की ओर विद्यार्थियों का ध्यान आकर्षित करने के लिए बीच-बीच में प्रसंगानुसार समुचित प्रवचनों की व्यवस्था भी की जानी चाहिए।
६. भूगोल, खगोल, स्वर्ग तथा पाताल विषयक विद्या के तीसरे एवं चौथे अध्याय के शिक्षण के विषय में दो विरोधी पक्ष हैं। एक पक्ष उसे शिक्षण में रखने का विरोध करता है, जब कि दूसरा उस शिक्षण के बिना सर्वज्ञ-दर्शन के अध्ययन को अधूरा मानता है। ये दोनों एकान्त ( आग्रह ) की अन्तिम सीमाएँ हैं । इसलिए शिक्षक के लिए यही समुचित है कि वह इन दोनों अध्यायों का शिक्षण देते हुए भी उसके पीछे
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रही हुई दृष्टि में परिवर्तन करे । तोसरे एवं चौथे अध्याय का सारा वर्णन सर्वज्ञ-कथित है, इसमें किंचित् भी परिवर्तन या सशोधन नही हो सकता, आजकल के सभी वैज्ञानिक अन्वेषण और विचार जैन-शास्त्रों के विरुद्ध होने के कारण सर्वथा मिथ्या एवं त्याज्य है-इस प्रकार का आग्रह रखने की अपेक्षा एक समय आर्यदर्शनों मे स्वर्ग-नरक, भूगोल-खगोल विषयक कैसी-कैसी मान्यताएं प्रचलित थी और इन मान्यताओं में जैनदर्शन का क्या स्थान है-इस ऐतिहासिक दृष्टि से इन अध्यायों का शिक्षण दिया जाए तो मिथ्या समझकर त्याग देने याग्य विषयो मे भी जानने योग्य बहुत-कुछ बच रहता है। इससे सत्य-शोधन के लिए जिज्ञासा का क्षेत्र तैयार होता है और जो सत्य है उसे बुद्धि की कसौटी पर कसने की विशेष प्रेरणा मिलती है।
७. उच्चस्तरीय विद्यार्थियो तथा गवेषकों के लिए मै कुछ सूचनाएँ और भी करना चाहता हूँ। पहली बात तो यह है कि तत्त्वार्थसूत्र और भाष्य आदि मे आए हुए मुद्दो का उद्गमस्थान किन-किन श्वेताम्बर तथा दिगम्बर प्राचीन ग्रन्थों मे है, यह ऐतिहासिक दृष्टि से देखना चाहिए और फिर उनकी तुलना करनी चाहिए। दूसरी बात यह है कि उन मुद्दों के विषय में बौद्ध पिटक तथा महायान शाखा के अमुक ग्रन्थ क्या कहते हैं, उनमें इस विषय का कैसा वर्णन है, यह देखना चाहिए। सभी वैदिक दर्शनों के मल सूत्रों और भाष्यो से एतद्विषयक सीधी जानकारी प्राप्त करके उनकी तुलना करनी चाहिए। मैने ऐसा किया है और मेरा अनुभव है कि तत्त्वज्ञान तथा आचार के क्षेत्र में भारतीय आत्मा एक है। अस्तु, ऐसा अध्ययन किए बिना तत्त्वार्थ का पूरा महत्त्व ध्यान में नहीं आ सकता।
८. यदि प्रस्तुत हिन्दी विवेचन द्वारा ही तत्त्वार्थसूत्र पढ़ाया जाए तो शिक्षक पहले एक-एक सूत्र लेकर उसके सभी विषय मौखिक रूप में समझा दे और उसमे विद्यार्थियों का प्रवेश हो जाने पर उस-उस भाग के प्रस्तुत विवेचन का वाचन स्वयं विद्यार्थियों से ही कराए और प्रश्नों के द्वारा विश्वास कर ले कि विषय उनकी समझ में आ गया है।
९. प्रस्तुत विवेचन द्वारा एक संदर्भ पर्यंत सूत्र अथवा संपूर्ण अध्याय की पढाई होने के बाद 'प्रस्तावना' में निर्दिष्ट तुलनात्मक दृष्टि के आधार पर शिक्षक सक्षम विद्यार्थियों के समक्ष पढाए गए विषयों की स्पष्ट तुलना करे।
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उपर्युक्त पद्धति के अनुसार शिक्षण देने में निःसंदेह शिक्षक पर भार बढता है, पर उस भार को उत्साह और बुद्धिपूर्वक उठाए बिना शिक्षक का स्थान उच्च नहीं बन सकता और विद्यार्थी-वर्ग भी विचारदरिद्र ही रह जाता है। इसलिए शिक्षक को अधिक से अधिक तैयारी करनी चाहिए और उसकी सफलता के लिए विद्यार्थियों का मानस तैयार करना चाहिए । ज्ञान प्राप्त करने की दृष्टि से तो ऐसा करना अनिवाय है ही, पर वर्तमान ज्ञान-प्रवाह को देखते हुए सबके साथ समान रूप से बैठने की व्यावहारिक दृष्टि से भी यह अनिवार्य है।
-सुखलाल
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तत्त्वार्थसूत्र का मूल पाठ
तत्त्वार्थसूत्र का कौन-सा पाठ मूल रूप मे दोनों परम्पराओं में विद्यमान है, यह कहना बहुत ही कठिन है। यदि साम्प्रदायिक भावना से अलग रहकर विचार किया जाए तो यह प्रश्न ऐतिहासिक महत्त्व का बन जाता है। तत्त्वार्थसत्र आगमिक काल के अन्त की रचना है। उसके तुरन्त बाद ही उत्तर से आकर पश्चिम और दक्षिण में केन्द्रित जैन-संघ निश्चित रूप से श्वेताम्बर और दिगम्बर सप्रदायों में विभक्त हो गया। दक्षिण में गये तत्त्वार्थसूत्र और उसके भाष्य मे काफी परिवर्तन हुए, जो इस समय दिगम्बर सूत्रपाठ और सर्वार्थसिद्धि के रूप में उपलब्ध हैं। इस प्रकार तत्त्वार्थसूत्र जैनधर्म के इतिहास के एक ऐसे मोड़ पर खड़ा हुआ जहां से उसने दोनों परम्पराओं को सहसा प्रभावित किया। ___कठिनाई यह है कि इस जटिल समस्या के समाधान के लिए प्रामाणिक साक्ष्यो का प्रायः अभाव है। यहाँ इसके समाधान का प्रयास निम्न तीन पहलुओं से किया जा रहा है-१. भाषागत परिवर्तन, २. प्रत्येक आवृत्ति में सूत्रों का विलोपन और ३ सूत्रगत मतभेद । यहाँ यह कहना अभीष्ट होगा कि इस समस्या के समाधान में मुख्यतया अतिम दो साधनो का उपयोग किया गया है परन्तु तार्किक दृष्टि से समुचित निर्णय के लिए वे पूर्णतः सक्षम सिद्ध नहीं हुए है। आश्चर्य की बात यह है कि भाषागत अध्ययन भी विशेष उपयोगी सिद्ध नही हुआ, यद्यपि यह साधन सर्वाधिक प्रामाणिक है। यहाँ यह सकेत करना आवश्यक प्रतीत होता है कि हमारी एक समस्या उसके भाष्य के विषय मे भी है। वह स्वोपज्ञ है या नहीं, इसका अध्ययन यहाँ अभीष्ट नहीं है, क्योकि यह स्वयं में एक बड़ी समस्या है और इस विषय पर स्वतंत्र रूप से लिखा जा सकता है।
हम इस विवेचन का श्रीगणेश तत्त्वार्थसूत्र के दोनों पाठों में आए हुए भाषागत परिवर्तन की छानबीन से करेंगे। इसके लिए संबंधित सूत्रों को उनकी विशेषताओं के आधार पर विभिन्न वर्गों में विभाजित किया गया है और उनका मूल्यांकन इस आधार पर किया गया है कि कहाँ
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संदर्भ की दृष्टि से अर्थ की स्पष्टता अधिक है । प्रत्येक वर्ग के अत में दी हुई संख्या इस प्रकार के मूल्यांकन की सूचक है । कोष्ठक के बाहर की संख्या श्वेताम्बर सूत्रों, छोटे कोष्टक ( ) के भीतर की संख्या दिगम्बर सूत्रों तथा बड़े कोष्ठक [ ] के भीतर की संख्या अनिर्णीत सूत्रों का निर्देश करती है । उदाहरणार्थ ३, ( २ ) [ १ ] का तात्पर्य यह है कि इस वर्ग के कुल छ' सूत्रों में से श्वेताम्बर सम्मत तीन सूत्र और दिगम्बर सम्मत दो सूत्र अर्थ की दृष्टि से अधिक स्पष्ट हैं तथा एक सूत्र के विषय में निश्चित रूप से कुछ भी कहना कठिन है । दिगम्बर सूत्रों को सर्वत्र श्वेताम्बर सूत्रों के अनन्तर रखा गया है तथा उनके सूत्रांक छोटे कोष्ठक में दिए गए हैं। सभी स्रोतों से जो भी सामग्री संकलित की गई है वह परिपूर्ण तो नहीं है तथापि किसी यथेष्ट निष्कर्ष पर पहुँचने के लिए अपर्याप्त भी नहीं है । इस विवेचन में निम्नोक्त ग्रंथों का उपयोग किया गया है— श्री केशवलाल प्रेमचन्द मोदी द्वारा संपादित तत्त्वार्थाधिगमसूत्र ( सभाष्य ), कलकत्ता, १९०३ और पं० फूलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री द्वारा संपादित सर्वार्थसिद्धि, बनारस, १९७१ । इस निबन्ध को तैयार करने में डा० कृष्णकुमार दीक्षित ने अनेक महत्त्वपूर्ण सुझाव दिए हैं । इसके लिए मैं उनकी अत्यन्त आभारी हूँ ।
१. शब्दों एवं सूत्रों का क्रम
१. १ : २२, २ : ३५नारक- देवानाम् नारक- देवानाम् (३४) देव-नारकाणाम् देव-नारकाणाम्
(२१),
आगम में चार गतियों का वर्णन नियमानुसार निम्न से उच्च की ओर किया गया है, क्योंकि तीन लोकों का वर्णन इसी क्रम से है । श्वेताम्बर पाठ आगम से साम्य रखता है, जब कि दिगम्बर पाठ व्याकरणानुसार है ।
०, ( ० ), [२]
२.
६ : ६
(५)
६:७
(६)
१. भाषागत परिवर्तन
अव्रत - कषायेन्द्रिय-क्रिया"
इन्द्रिय- कषायाव्रत- क्रियाः
भाव वीर्याधिकरण.... भावाधिकरण- वीर्य ...
...
For Private
Personal Use Only
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८:१० .."कषाय-नोकषाय....
(९) "अकषाय-कषाय सत्र ६ : (५) में शब्दक्रम मानसिक किंवा आत्मिक प्रक्रिया पर आधारित कार्य-कारणभाव के क्रमानुसार प्रतीत होता है अथवा साम्परायिक आस्रव के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कारण के रूप में इन्द्रिय पर बल दिया गया है। स्थानांग ५.२ ५१७ और समवायांग ५ में मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग ये पाँच आस्रव-द्वार बतलाए गए है । इन्हें तत्त्वार्थसूत्र ८ : १ मे बन्ध के कारण कहा गया है । बाद के ग्रंथों में प्रमाद को प्रायः अविरति अथवा कषाय के अंतर्गत रखा गया है। सत्र ६:६ से स्पष्ट प्रतीत होता है कि सत्रकार ने आगमिक परंपरा का अनुगमन किया है। सूत्र ६ : ७ में यह अधिक स्पष्ट है-प्रथम, क्योंकि भाव और वीर्य क्रिया के आत्मिक और कायिक रूप हैं; द्वितीय, क्योंकि अधिकरण का अगले ही सूत्र में प्रतिपादन किया गया है। सूत्र ८ : १० का श्वेताम्बर पाठ व्याकरण की दृष्टि से शुद्ध है। कर्मशास्त्रियों ने नोकषाय शब्द का एक पारिभाषिक शब्द के रूप में प्रयोग किया है। अकषाय शब्द अर्थ के विषय मे भ्रम में डालने वाला है।
२, ( ० ), [१] ३. ९:३१ (३२) वेदनायाश्च
३२ (३१) विपरीतं मनोज्ञस्य सूत्र ९ : ३१ (३२) अमनोज्ञ से संबंधित है, अतः द क्षण ( दिगम्बर ) पाठ का ठीक अर्थ नहीं निकलता है ।
१, ( ०), [ ] २. संयुक्तोकरण
५ : २२ वर्तना परिणामः क्रिया ...
(२२) वर्तनापरिणामकियाः .... ६ : १३ भूतव्रत्यनुकम्पा दानं सरागसंयम...
(१२) भूतव्रत्यनुकम्पादानसरागसंयम . शब्दों के संयुक्तीकरण से अभिव्यक्ति के अधिक सौष्ठव की प्रतीति के बावजूद प्रत्येक की महत्त्वपूर्ण अवधारणा की अनुभूति में कुछ कमी आ जाती है, अतः श्वेताम्बर पाठ अधिक उपयुक्त है।
२, ( ० ), [ ]
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३. शब्दविन्यास १. ६ : १६ बह्वारम्भपरिग्रहत्वं च नारकस्यायुषः (१५) ,
नारकस्यायुषः ७:४ "इहामुत्र च"
(९) "इहामुत्र" ७: ७ .."स्वभावौ च संवेग...
(१२) .... , वा ,.... सूत्र ६ : १६ एवं ७ : ४ में 'च' संयोजक अनावश्यक है, किन्तु सूत्र ७ : ७ (१२) में 'वा' के स्थान पर 'च' अधिक उपयुक्त है।
१, (२), [ ] २. १ : २७ .."सर्व-द्रव्येष्वसर्वपर्यायेषु [५:२ भाष्य-उक्तं
हि'द्रव्येष्वसर्वपर्यायेषु...] (२६) .."द्रव्येष्वसर्वपर्यायेषु २: ५ .."दानादि-लब्धय "
(५) ... लब्धय... २:७ जीव भव्याभव्यत्वादीनि च
(७) जीव-भव्याभव्यत्वानि च २:२१ ..शब्दास्तेषामर्थाः
(२०) "शब्दास्तदर्थाः ३:१ . "ऽधोऽधः पृथुतराः [भाष्य-रत्नप्रभा सप्त अधोऽधः]
(१) ...ऽधोऽधः ४ : ९ ..''प्रवीचाराः द्वयोर्द्वयोः
(८).."प्रवीचाराः ४ : १३ ..."सूर्याश्चन्द्रमसो...
(१२) ... सूर्याचन्द्रमसौ.... ४ : ५२ जघन्या त्वष्टभागः
(४१) तदष्ट-भागोऽपरा ६: १५ "तीवात्म-परिणाम .
(१४) ..."तीव्र परिणाम..." ६ : २३ "संघ-साधु-समाधि
(२४) ..साधु-समाधि .. ७: २९ आदान-निक्षेप ...
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- ८८ - (३४) ..' आदान... ७ : ३२ ..."निदान-करणानि
(३७) ... निदानानि १० : ६ ..परिणामाच्च तद्गतिः
(६) "परिणामाच्च सूत्र १: ( २६ ) में 'सर्व' शब्द जोड़ देने से उसके अर्थ की सदिग्धता दूर हो जाती है। 'लब्धि' शब्द अन्य अर्थो में भी प्रयुक्त होता है, अतः सूत्र २: ५ में 'दानादि' शब्द आवश्यक है। सूत्र २:७ में 'आदीनि' शब्द जीव के उन भावों के लिए प्रयुक्त किया गया है जिनका उल्लेख पूर्व के सूत्रों में नहीं हुआ है, उदाहरणार्थ कर्तृत्व, भोक्तृत्व आदि । 'च' शब्द से वैसा अर्थ प्रकट नहीं हो सकता। उससे द्रव्य के सामान्य स्वरूप जैसे अस्तित्व, गुणवत्त्व आदि का ही बोध होता है। इसलिए इस सत्र में 'आदीनि' शब्द अपेक्षित है। सत्र २: (२०) में 'तद्' शब्द से अस्पष्टता उत्पन्न होती है। सूत्र ३ : १ में 'पृथुतराः' शब्द होने से जैनमतानुसार अधोलोक की रचना का तात्पर्य बिलकुल स्पष्ट हो जाता है। सूत्र ४: ९ का श्वेताम्बर पाठ अर्थ को अधिक स्पष्ट करता है। सूत्र ४ : १३ मे जैनमतानुसार चन्द्र
और सूर्य की अनेकता को सुस्पष्ट किया गया है। सूत्र ४ : ५२ (४१) में श्वेताम्बर पाठ से अर्थ अधिक स्पष्ट होता है । 'परिणाम' शब्द कषायपरिणाम, लेश्या-परिणाम, योग-परिणाम आदि अर्थो में प्रयुक्त होता है, इसलिए सूत्र ६: १५ में 'आत्म परिणाम' शब्द अधिक स्पष्ट अर्थ का द्योतक है। 'संघ' एक स्वतंत्र अवधारणा है, अतः सूत्र ६ : (२४) में उसका समावेश आवश्यक है । 'आदान-निक्षेप' एक पारिभाषिक शब्द है, अतः यह उसी प्रकार रखा जाना चाहिए जैसे सत्र ७ : २९ में है। जहाँ तक सूत्र ७ : ३२ (३७) का प्रश्न है, शेष सभी शब्द संज्ञा और क्रिया के संयुक्त रूप में हैं, इसलिए 'निदान-करणानि' पाठ अधिक संगत है। सूत्र १० : ६ (६) का विषय 'तद्-गति' है, इसलिए उसका उल्लेख सूत्र में होना चाहिए।
१३, (०), [ ] ___३. १ : २३ यथोक्त-निमित्तः ......... [ भाष्य-यथोक्त-निमित्तः
क्षयोपशम-निमित्त इत्यर्थः ] (२२) क्षयोपशम-निमित्तः ....
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- ८९ - २ : ३८ तेषां परंपरं सूक्ष्मम्
(३७) परंपरं सूक्ष्मम् ३: १० तत्र भरत ।
(१०) भरत ... ६:२२ विपरीतं शुभस्य
(२३) तद्-विपरीतं शुभस्य ७:६ मैत्री-प्रमोद कारुण्य-माध्यस्थानि सत्त्व-गुण ...
(११) " " " च सत्त्व-गुण ... ८: ७
मत्यादीनाम (६) मति-श्रतावधि-मनःपर्यय-केवलानाम ८:१४ दानादीनाम [भाष्य-अन्तरायः पञ्चविधः/
तद्यथा-दानस्यान्तरायः,लाभस्यान्तरायः ....] (१३) दान-लाभ-भोगोपभोग-वीर्याणाम् ९ : १८ "यथाख्यातानि चारित्रम् ।
(१८) यथाख्यातमिति चारित्रम् यहाँ श्वेताम्बर पाठ में भाष्य के व्याख्यात्मक शब्द जोड़ देने से, या अनावश्यक शब्द निकाल देने से, या कम-से-कम शब्द बढा देने से बननेवाले दिगम्बर सूत्रों द्वारा अधिक स्पष्ट अर्थ प्रकट होता है। सत्र ८ : ७ और १४ में प्रयुक्त 'आदि' शब्द के लिए पिछले सूत्र १ : ९ और २ : ४ देखने चाहिए। सर्वार्थसिद्धि के उल्लेखानुसार सूत्र ९ : (१८) में प्रयुक्त 'इति' शब्द के समाप्तिसूचक होने से सूत्र ९ : २ (२) के व्याख्यान की समाप्ति का संकेत मिल जाता है जिससे स्पष्टीकरण मे निश्चित रूप से सुविधा होती है ।
____०, (८), [ ] ४. ३: २ तासु नरकाः [भाष्य-रत्नप्रभायां नरकवासानां त्रिंशच्छतसहस्राणि/शेषासु पञ्चविंशतिः ......नरक
शतसहस्रम्-इत्याषष्ठयाः ] (२) तासु त्रिंशत्-पंचविंशति यथाक्रमम् ७ : २७ ... पभोगाधिकत्वानि ।
(३२) पभोग-परिभोगानर्थक्यानि ८: ८ "स्त्यानगृद्धि वेदनीयानि च
(७) ""स्त्यानगृद्धयश्च
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ये सूत्र विभिन्न प्रकार के है । इनके पाठभेद का मूल्यांकन करना जरा कठिन है | सूत्र ८ : ८ में प्रत्येक प्रकार की निद्रा के साथ ' वेदनीय' शब्द जोड़ देने से उसकी अनुभूति का निश्चित भाव प्रकट होता है । वैसे इस शब्द को सूत्र से निकाल देने पर भी उसके भाव में कमी नहीं आती है ।
५ : २
४ दो सूत्रों की एक सूत्र में अभिव्यक्ति
१. दिगम्बर पाठ के दो सूत्रो का श्वेताम्बर पाठ के एक सूत्र में
समावेश
(२-३)
६ : १८
योग
द्रव्याणि जीवाश्च द्रव्याणि / जीवाश्च
अल्पारम्भ परिग्रहत्वं स्वभाव-म.
देवार्जवं च मानुषस्य (१७-१८) अल्पारम्भ - परिग्रहत्वं मानुषस्य / स्वभाव- मार्दवं च यहाँ सूत्र ५:२ का सूत्र ( २ ) और ( ३ ) में विभाजन उचित मालूम पड़ता है | सूत्र ६:१८ में 'आर्जव' शब्द का रहना ठीक ही है, क्योकि अल्पारम्भ आदि एव स्वभाव- मार्दव आदि की अवधारणा मे बहुत अन्तर नही है । ·, ( १ ), [ १ ] २. श्वेताम्बर पाठ के दो सूत्रों का दिगम्बर पाठ के एक सूत्र मे समावेश
०, ( ० ), [ ३ ]
१९, (१०), [ ६ ]........३५
१ : २१-२२ द्वि-विधोऽवधिः / भव-प्रत्ययो नारक- देवानाम् (२१) भव - प्रत्ययोऽवधिर्देव-नारकाणाम्
५ : ७८ असंख्येयाः प्रदेशा धर्माधर्मयो / जीवस्य
(८) असंख्येयाः प्रदेशा धर्माधर्मैकजीवानाम्
१० : २-३
६ : ३-४ शुभः पुण्यस्य / अशुभः पापस्य (३) शुभः पुण्यस्याशुभः पापस्य
८ : २-३ सकषायत्वाज्जीवः पुद्गलान् आदत्ते / स बन्धः (२) सकषायत्वाज्जीवः -ध्यानम् / आ-मुहूर्तात् ध्यानान्तर्मुहूर्तात्
पुद्गलान् आदत्ते स बन्धः
९ : २७-२८ (२७)
...
बन्ध- हेत्वभाव-निर्जराभ्याम् / कृत्स्न कर्म-क्षयो मोक्षः ( २ ) बन्ध हेत्वभाव-निर्जराभ्यां कृत्स्न- कर्म - विप्रमोक्षो मोक्षः
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इनमें दिगम्बर सूत्रकार का प्रयत्न एक ही विषय से संबंधित दो सूत्रो को एक सूत्र में निबद्ध करना रहा है। सूत्र १:२१-२२ अर्थ को अधिक स्पष्ट करते है । श्वेताम्बर सूत्र ५७-८ ठीक है, क्योंकि धर्म-अधर्म और जीव दो विभिन्न वर्गो से संबधित है। सूत्र ६:३-४ को एक सूत्र में भी रखा जा सकता है किन्तु जोर देने के लिए ही संभवतः इन्हे दो सत्रों में रखा गया है। इस ग्रन्थ मे जो शब्द 'स' सर्वनाम से प्रारम्भ होता है उससे बिना अपवाद के नए सत्र का निर्माण होता है, जैसे २:८-९ ( ८.९), ६:१-२ (१-२), ८:२२-२३ (२२-२३) तथा ९:१-२ (१-२)। यह निःसंदेह सूत्रकार की रचना-शैली है । यही शैली सत्र ८:२-३ में भी है। सूत्र ९२७-२८ या ९: (२७) में ध्याता, ध्यान एव उसके काल की परिभाषा दी गई है। इसमें तीन भिन्न-भिन्न बातें समाविष्ट है, अत: प्रत्येक का स्वतंत्र रूप से विचार करना उचित था । इस दृष्टि से कोई भी पाठ ठीक नही है । श्वेताम्बर सत्र १०:२ का कोई औचित्य नहीं है। इसके भाष्य से स्पष्ट है कि इसे सूत्र १०:१ के साथ होना चाहिए, क्योकि इसमें जीवन्मुक्ति के कारणो का उल्लेख है। केवलज्ञान के प्रकट होने के कारणों का उल्लेख सूत्र १०:१ में कर दिया गया है और वे ही जीवन्मुक्ति को अवस्था को व्यक्त करने के लिए पर्याप्त हैं। अतः सूत्र १०२ व्यर्थ प्रतीत होता है। इसके अतिरिक्त इससे विरोध भी उत्पन्न होता है। सयोग-केवली अवस्था में अन्त तक तोन प्रकार के योग रहते हैं, इसलिए ईर्यापथिक बन्ध का कारण उस समय भी उपस्थित रहता है, यद्यपि बन्ध की स्थिति अति अल्पकाल की होती है। अतः यह कथन कि 'बन्ध हेतु-अभाव' सयोग-केवलित्व के प्राप्त होने का कारण है, ठीक नहीं है। सूत्र १०:२ के भाष्य में हेत्व. भावाच्चोत्तरस्याप्रादुर्भावः लिखा है। इसमे हेत्वभावात् से बन्धहेत्व. भावात् अर्थ ही निकलता है, जिससे यह प्रकट होता है कि सूत्र १०२ भी विदेहमुक्ति के कारण के रूप में है। अत: सूत्र १०.२ संदिग्ध है। इसलिए स्पष्टता की दृष्टि से दिगम्बर पाठ ठीक है।
३, (१), [२] योग ३, (२), [३].... '८
कुल योग २२, (१२), [९]"४३ भाषागत परिवर्तन के विश्लेषण से प्रतीत होता है कि दोनों परंपराओ में मान्य तत्त्वार्थसूत्र के उपर्युक्त ४३ उदाहरणों में से २२
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श्वेताम्बर-सम्मत पाठ अधिक स्पष्ट अर्थवाले हैं, जब कि दिगम्बर पाठ में ऐसे केवल १२ ही उदाहरण हैं, शेष ९ उदाहरण अनिर्णीत है । व्याकरण और पदविन्यास की दृष्टि से पूज्यपाद ने तत्त्वार्थ के सूत्रों को निम्न रूप में परिमार्जित किया है - १. एक तरह के भावों का संयुक्तीकरण करने के लिए दो सूत्रों का एक सूत्र में समावेश, २. शब्दक्रम की समायोजना, ३ अनावश्यक शब्दों को निकालना एवं स्पष्ट भाव की अभिव्यक्ति के लिए कम से कम शब्दों को जोड़ना तथा ४. 'इति' शब्द द्वारा सूत्रों को वर्ग में बाँटना । ऐसा करने में तकनीकी दृष्टि से बहुत-सी गलतियाँ हुई हैं जिससे सूत्रों का ठीक-ठीक अर्थ समझने में कठिनाई होती है । इसका एक कारण है आगमिक परम्परा का दक्षिण भारत में अभाव और दूसरा है सूत्रकार की वास्तविक स्थिति को न समझना जिसने जैन सिद्धान्त को तथा अन्य मतों को बराबर ध्यान में रखकर इस ग्रन्थ की रचना की । फिर भी इस छानबीन से स्पष्ट है कि भाषागत अध्ययन से किसी ऐसे निष्कर्ष पर नहीं पहुँचा जा सकता जिसके यह कहा जा कि कि अमुक परंपरा में तत्त्वार्थसूत्र मूल रूप में है और अमुक ने दूसरे से लिया है । उपर्युक्त आधार पर निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि श्वेताम्बर पाठ आगमिक संदर्भ की दृष्टि से दिगम्बर पाठ से अधिक संगत है |
२. प्रत्येक आवृत्ति में सूत्रों का विलोपन
१. दिगम्बर पाठ में सूत्रों का विलोपन
२ : १९ उपयोगः स्पर्शादिषु
४ : ४९-५१ ग्रहाणामेकम् / नक्षत्राणामर्धम् / तारकाणां चतुर्भाग ४ : ५३ चतुर्भागः शेषाणाम्
५ : ४२-४४ अनादिरादिमांश्च / रूपिष्वादिमान् / योगोपयोगौ
जीवेषु
९ : ३८ उपशान्त क्षीणकषाययोश्च
तत्त्वार्थसूत्र के कलकत्ता-संस्करण में यह लिखा है कि हस्तप्रति 'के' के किनारे पर ऐसा उल्लेख है कि कुछ आचार्य सूत्र २:१९ को भाष्य का अंश मानते हैं, किन्तु सिद्धसेन ने इसे सूत्ररूप में ही स्वीकार किया है । संभवत: दिगम्बर पाठ में इसे भाष्य का अंश मानकर छोड़ दिया
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गया। सूत्र ४:४९-५१ और ५३ छोटे है जिन्हे निकाल देने पर सदर्भ में कोई कमी नही आती। सूत्र ५:४२-४४ में परिणाम की व्याख्या दोषपूर्ण है, अतः इनका विलोपन ठोक ही है जिसका विवेचन पं० सुखलालजी ने कर ही दिया है। सूत्र ९.३८ के विलोपन के सबध में तत्त्वार्थसूत्र के दिगम्बर टीकाकारो का अपना मत है। इस प्रकार श्वेताम्बर पाठ को दिगम्बर पाठ में साररूप से सुसमाहित किया गया है। किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि श्वेताम्बर पाठ मूल है और दिगम्बर पाठ में उसका परिष्कार किया गया है, क्योंकि बाद की आवृत्ति पूर्व आवृत्ति को परिष्कृत करने के बजाय बिगाड़ भी सकती है। २. श्वेताम्बर पाठ में सूत्रों का विलोपन १. ४ : (४२) लौकान्तिकानामष्टौ सागरोपमाणि सर्वेषाम्
६: (२१) सम्यक्त्वं च २. २: (४८) तैजसमपि [ ४९ भाष्य-तैजसमपि शरीरं लब्धि
प्रत्ययं भवति] २: (५२) शेषास्त्रिवेदाः[५१ भाष्य-परिशेष्याच्च गम्यन्ते जराय्वण्ड-पोतजास्त्रिविधा भवन्ति-स्त्रियः पुमांसो
नपंसकानीति] ७: (४-८) [ भावनाओ का वर्णन सूत्र ३ के भाष्य मे है,
यद्यपि दोनो पाठों मे थोड़ी भिन्नता है। ] ८: (२६) अतोऽन्यत्पापम् [ २६ भाष्य-अतोऽन्यत्पापम् ] १० : (७) आविद्ध-कुलाल - चक्रवद्-व्यपगत - लेपालाबुवद् -
एरण्ड-बीजवद्-अग्नि-शिखावच्च [ १० : ७ उपसहारकारिका १०-१२ और १४ मे नहीं अपितु ६ भाष्य में आत्मा के ऊर्ध्वगमन के दूसरे एवं चौथे
कारण की अभिव्यक्ति थोड़ी उलझनपूर्ण है।1 १० : (८) धर्मास्तिकायाभावात् [६ भाष्य और उपसंहार
कारिका २२-धर्मास्तिकायाभावात् ] ३. ३: (१२-३२) [ जम्बूद्वीप का वर्णन । दिगम्बर सूत्र ( २४ )
का भरतः षड्विंशति-पञ्च-योजन-शत-विस्तारः षड्-चैकोन-विंशति-भागा योजनस्य और ( २५) का तद्-द्विगुण-द्विगुण-विस्तारा वर्षधर-वर्षा विदे
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हान्ताः ११ भाष्य में इस प्रकार हैं-तत्र पंच योजनशतानि षड्विंशानि षट्चैकोन-विंशति-भागा भरतविष्कम्भः स द्विििहमवद्-धैमवतादीनामाविदेहेभ्यः । सूत्र (२७) का भरतैरावतयोर्वद्धिहासौ षट्-समयाभ्यामुत्सपिण्यवसर्पिणीभ्याम् ४ : १५ भाष्य में इस प्रकार है-ता अनुलोम-प्रतिलोमा अवसर्पिण्युत्सपिण्यो भरतैरावतेष्वनाद्यनन्तं परि
वर्तन्तेऽहो-रात्रवत् ।] ४. ५: (२९) सद्-द्रव्य-लक्षणम्
प्रथम वर्ग के सत्र छोटे हैं, इसलिए उनके विलोपन से संदर्भ में कमी नहीं आती। द्वितीय वर्ग के सभी दिगम्बर सूत्र भाष्य में उपलब्ध हैं, यहाँ तक कि कुछ तो शब्दशः हैं। भावनाओं के वर्णन से पूर्व सूत्र ७:३ (३) में इस प्रकार उल्लेख है-तत्स्थै र्याथं भावनाः पञ्च पञ्च । पदार्थो (भेदों ) के उपभेद गिनाते समय सूत्रकार यथाक्रमम् शब्द का प्रयोग करते हैं जिसका अर्थ होता है 'सत्रोक्त क्रम के अनुसार आगे का विवेचन करना।' सूत्र ७ : ३ ( ३ ) में यथाक्रमम् शब्द नहीं है, अतः भावनाओं का आगे विवेचन अभिप्रेत नही है। इससे यह प्रतीत होता है कि दिगम्बर सूत्र ७ : (३) मूल नहीं है। इसी प्रकार सूत्र ३ : (२) है जिसमें परिगणित नरकों का आगे विवेचन नही है ।
तृतीय वर्ग के दिगम्बर सूत्र ३ : (१२-३२) अर्थात् तीसरे अध्याय के ३९ सूत्रों में से २१ श्वेताम्बर आवृत्ति में अनुपलब्ध हैं। इनमें से तीन सत्र अर्थात् । २४,२५, २७) ३ : ११ और ४ : १५ के भाष्य में उपलब्ध है, यद्यपि उनमे शब्दशः साम्य नही है। यहाँ पर विलुप्त सत्रो की सख्या बहुत अधिक है, अतः श्वेताम्बर आवृत्ति में जम्बूद्वीप का वर्णन ऊर्ध्वलोक की तुलना में बहुत सक्षिप्त है। इन अतिरिक्त सत्रों मे निम्नोक्त बातें समाविष्ट है-१. जम्बूद्वीप का वर्णन जैसे पर्वत, ह्रद, सरित् और क्षेत्र-विस्तार (१२-२६ ); २. विभिन्न क्षेत्रों में उत्सर्पिणी और अवपिणी के आरों में वृद्धि और ह्रास तथा मनुष्यों की आयु (२७३१); ३. भरतक्षेत्र का विस्तार जम्बूद्वीप का एक सौ नब्बेवॉ भाग (३२)। इनमें से प्रथम वर्ग के सूत्रो से जम्बूद्वीप की भौगोलिक रचना के संबंध में निश्चित जानकारी प्राप्त होती है जिसका श्वेताम्बर आवृत्ति में क्षेत्रों और पर्वतों द्वारा केवल निर्देश किया गया है। द्वितीय एवं
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तृतीय वर्ग के सूत्र अधिक महत्त्व के है। इनमे से विशेष महत्त्वपूर्ण सभी सूत्र भाष्य में उपलब्ध है। समग्ररूप से देखा जाए तो इन सत्रो का अधिक महत्त्व है क्योंकि पश्चिमी परपरा की हस्तलिखित प्रतियो में इस अध्याय में इन दिगम्बर सूत्रों का अधिक से अधिक समावेश हुआ है। जम्बूद्वीपसमास नामक एक अन्य प्रकरण मे, जिसके रचयिता उमास्वाति ही माने जाते है, छ: क्षेत्रों और छ: पर्वतों का भौगोलिक वर्णन इसी क्रम से है । इसमे मध्य के कुरु और विदेह के चार क्षेत्रों का छोड़ दिया गया है जिनका वर्णन द्वितीय आह्निक में किया गया है। इसमें हिमवान् पर्वत के वर्णन में उसके रंग की चर्चा है [ तुलना करें--- सूत्र ३ : (१२)] । तत्पश्चात् उस पर अवस्थित ह्रद का नाम [ तुलना करे-सूत्र ( १४)], उसका विस्तार [ तुलना करें--सूत्र ( १५-१६ )], उसके बीच में एक योजन का पुष्कर [ तुलना करे-सूत्र (१७)], उसमें निवास करनेवाली देवी का नाम [ तुलना करे-सूत्र ( १९)], उससे प्रवहमान युग्म सरिताओं के नाम [ तुलना कर-सूत्र (२०)] और उनकी दिशाओं का वर्णन है [तुलना करे-सत्र (२१-२२)]। प्रत्येक वर्षधर पर्वत के वर्णन में उसके रंग एवं ह्रदों, देवियों और नदियों के नामों तथा नदियो की दिशाओं का निर्देश है। तत्त्वार्थसत्र में शिखरी पर्वत को हेम रंग का कहा गया है, जब कि जम्बूद्वीपसमास में उसे तपनीय रंगवाला माना गया है। सूत्र ३ : (१६) चतुर्थ आह्निक में भी है-वापी कुण्ड-ह्रदा दशावगाहाः। इसी प्रकार सूत्र ३ : (२६)
और (३२) भी इस आह्निक मे हैं-मेरूत्तरासु विपर्ययः तथा रूपादिद्विगुण-राशिगुणो द्वीप-व्यासो नवति-शत-विभक्तो भरतादिषु विष्कम्भः ।
उपर्युक्त विदलेषण से यह प्रतीत होता है कि दिगम्बर सूत्रों ३ : (१२-३२) की रचना भाष्य और जम्बूद्वीपसमास के आधार पर की गई है। ताकिक दृष्टि से दूसरे रूप में यह भी कहा जा सकता है कि भाष्य तथा जम्बूद्वीपसमास की रचना दिगम्बर पाठ के आधार पर की गई है । श्वेताम्बर पाठ के १-३ वर्गो के सूत्रों के विलोपन के आधार पर अब तक जो विश्लेषण किया गया उससे यह प्रमाणित होता है कि श्वेताम्बर पाठ मूल रूप में है, क्योंकि सूत्र-शैली में यथाक्रमम शब्द का प्रयोग उपलब्ध होता है। किन्तु इसके आधार पर संपूर्ण पक्ष की सिद्धि नहीं हो सकती। सामान्य तौर से देखा जाए तो शब्दों एवं सूत्रों के विलोपन या वृद्धिकरण से किसी एक पाठ की प्रामाणिकता निश्चित रूप से सिद्ध नहीं हो सकती जिससे यह कहा जा सके कि दूसरा पाठ उस
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- ९६ - पर आधृत है। अब तक का हमारा प्रयत्न अपने लक्ष्य की प्राप्ति में असफल रहा है।
अब चतुर्थ वर्ग के सूत्रों की छानबीन करें। श्वेताम्बर आवृत्ति में सद-द्रव्य-लक्षणम् ५ : (२९) सूत्र नहीं है, जब कि दिगम्बर आवृत्ति में उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य-युक्तं सत् [२९ (३०)] के ठीक पहले यह सूत्र आया है। यहाँ प्रश्न यह है कि सत् का यह कथन किस संदर्भ में है ? इसका पुद्गल के अन्तर्गत अर्थात् सूत्र ५ : २३-३६ के सन्दर्भ में निरूपण किया गया है जिनमे से सूत्र २५-२८ और ३२-३६ में अणु-स्कंधों का इस प्रकार वर्णन है :
अणु-स्कन्ध (२५-२८ (२५ अणु-स्कन्ध पुद्गल के भेदों के रूप में अणु-स्कन्ध (२५-२८७ अण-स्कन्ध की उत्पत्ति
।२८ स्कन्ध के चाक्षुष होने का हेतु (३२-३६ पौद्गलिक बन्ध की प्रक्रिया सत्-नित्यत्व (२९ सत् की त्रिरूपात्मक व्याख्या
२३० नित्यत्व की व्याख्या
(३१ सूत्र २९-३० की युक्तियुक्तता (द्रव्य ३७-४४ गुण-पर्याय-परिणाम, काल)
इन सूत्रों की समायोजना से आश्चर्य होता है कि सूत्र ५ : २९-३१ अणु-स्कन्ध के साथ क्यों रखे गए हैं जब कि द्रव्य के साथ उनका निरूपण करना उचित था । इस समस्या के हल के लिए इसका स्पष्टीकरण आवश्यक है कि सूत्र ५ : (२९) बाद मे जोड़ा गया या नहीं।
सूत्र ५ : २८ के भाष्य में लिखा है-धर्मादीनि सन्तीति कथं गात इति/अत्रोच्यते लक्षणतः। इसमें स्पष्ट उल्लेख नहीं है कि द्रव्य सत्लक्षणयुक्त है, जैसा कि सूत्र ५ : ( २९ ) की सर्वार्थसिद्धि मे यत् सत् तद् द्रव्यमित्यर्थः के रूप में है। भाष्य मे यह फलितार्थ है। भाष्य यह प्रतिपादित करता है कि सत् के स्वरूप के आधार पर ही इन द्रव्यों का अस्तित्व सिद्ध किया जा सकता है । इससे अगले सूत्र की भूमिका बनती है। पदार्थों की सत्ता सिद्ध करने की यह आनुमानिक पद्धति जैन आगम की नहीं है। इसका स्रोत उमास्वाति के समय विद्यमान जैनेतर साहित्य में ढूँढ़ना चाहिए । चन्द्रानन्दकृत वैशेषिकसूत्र के चतुर्थ अध्याय के प्रथम आह्निक में लिखा है-सदकारणवत् तन्नित्यम् । १ । तस्य कार्य लिङ्गम् । २। कारणाभावाद्धि कार्याभावः।३। अनित्यम्--- इति च विशेष-प्रतिषेध-भावः । ४। महत्यनेकद्रव्यत्वात् रूपाच्चोप
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लब्धिः। ६ । अद्रव्यवत्त्वात् परमाणवनुपलब्धिः १७ । संख्याः परिमाणानि पृथक्त्वं संयोग-विभागौ परत्वापरत्वे कर्म च रूपि-द्रव्य-समवायात् चाक्षुषानि । १२ । अरूपिष्वचाक्षुषत्वात् । १३ ।-परमाणु की सत्ता का अनुमान उसके कार्य से होता है, क्योंकि परमाणु नित्य और अचाक्षुष है। जो महत् है वह चाक्षुष होता है क्योंकि उसमें अनेक द्रव्य हैं और वह रूपी है । रूपी द्रव्य के साथ संख्या आदि विविध गुणों का जो समवाय सम्बन्ध है उसो के कारण पदार्थ दृष्टिगोचर होते हैं। जो सत् और कारणरहित है उसे नित्य कहा गया है । अतः यहाँ सत्-नित्य, अणु-स्कन्ध और चाक्षुष-अचाक्षुष की समस्या उठाई गई है और वस्तुतः परमाणुमहत् के इसी सन्दर्भ में सत्सामान्य का विषय लिया गया है। दूसरे शब्दों में, सूत्र ५ : २९-३१ में सत्-नित्य सम्बन्धी जो व्याख्या है वह अणु-स्कन्ध के उत्पाद और चाक्षुषत्व को लेकर है अर्थात् पुद्गल के हो सन्दर्भ में है, न कि द्रव्य के सम्बन्ध से सत् के स्वरूप के विषय में । यदि इस प्रकार के सत् का स्वरूप सूत्रकार को अभीष्ट होता तो द्रव्य के विषय में भी यही प्रश्न उठाया जाता, जैसा कि पंचास्तिकाय में है, किन्तु यहाँ वैसा अभीष्ट नहीं था। इसलिए सद् द्रव्य लक्षणम् सूत्र प्रस्तुत संदर्भ में उपयुक्त प्रतीत नहीं होता और बाद में जोड़ा गया मालूम होता है । इससे यह सिद्ध होता है कि सूत्र ५ : (२९) तत्त्वार्थसूत्र का मूल पाठ नहीं है।
जहाँ तक दोनों आवत्तियों में सत्रों के विलोपन का प्रश्न है जिनका कि ऊपर चार वर्गों में विचार किया गया है, दिगम्बर पाठ श्वेताम्बर पाठ से अधिक संशोधित प्रतीत होता है । यह संशोधन प्रथम वर्ग के सूत्र ५ : ४२-४४ के त्रुटिपूर्ण परिणाम-स्वरूप को हटाकर, द्वितीय वर्ग के सूत्र में भाष्य ७ : ३ की महत्त्वपूर्ण भावनाओं की वृद्धि करके और तृतीय एवं चतुर्थ वर्ग के सूत्र ३ : ( १२-३२) एवं ५ : ( २९ ) की पूर्ति करके किया गया है जो निश्चित रूप से महत्त्वपूर्ण है। पश्चिमी भारत की परम्परा की हस्तलिखित प्रतियों में भी द्वितीय वर्ग के दिगम्बर सूत्र ८ : ( २६ ) एवं १० : (७-८) का प्रायः सम्मिश्रण है। यों किसी भी पाठ की मौलिकता-अमौलिकता को सिद्ध करने का निश्चित आधार केवल चतुर्थ वर्ग का सूत्र ५ : ( २९ ) ही है किंतु गौण प्रमाण के रूप में सूत्रकार की शैली भी है जो द्वितीय वर्ग के सत्र ७ : ३ (३) और ७ : (४-८) के संबंध से ज्ञात होती है।
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३. सूत्रगत मतभेद निम्नोक्त आठ विषय और दो प्रकरण मुख्य मतभेद के विषय है, जिनका बाद में विस्तारपूर्वक विवेचन किया जाएगा। इनमें दोनो परम्पराओं की सैद्धान्तिक विषमताओं तथा तत्त्वार्थसूत्र के दोनों संस्करणों में उपलब्ध विभिन्न मतों का समावेश किया गया है। हम सर्वप्रथम दोनों संस्करणों में प्राप्त मतभेद के आठ विषयो की चर्चा करेंगे। १. १ : ३४-३५ नय पाँच प्रकार के हैं : नैगम, संग्रह, व्यवहार,
ऋजुसूत्र और शब्द ।।
-आवस्सय निज्जुत्ति १४४ से यह समर्थित है। (३३) समभिरूढ और एवंभूत के समाविष्ट करने पर
इनकी संख्या सात हो जाती है।
-अनुओगदार ९५३; आवस्सय निज्जुत्ति ७५४ सिद्धसेन दिवाकर ने छः नय भी माने हैं परन्तु दोनों परंपराओं के अधिकांश विद्वान् सात नय ही मानते है । अतः इस प्रकार की भिन्नता को, जिसका विकास विभिन्न स्तरों पर हुआ होगा, वस्तुतः मतभेद नहीं कहा जा सकता। २. २ : १३-१४ स्थावर तीन प्रकार के हैं : पृथ्वी, अप् और
वनस्पति । तेजस् और वायु त्रस हैं । -ठाण ३. ३. २१५; जीवाजीवाभिगम १. २२
आदि; उत्तरज्झयण ३६.६०-७० आदि । (१३) स्थावर पाँच प्रकार के है : पृथ्वी से वनस्पति
पर्यन्त ।
-ठाण ५. १. ४८८; प्रशमरति १९२ ३. २:३१ अन्तराल-गति में जीव तीन समय तक अना
हारक रहता है।
-भगवई ७. १. २५९; सूयगड निज्जुत्ति १७४ (३०) दो समय तक ही रहता है।
-पण्णवणा ११७५ अ ( दीक्षित, जैन ऑण्टोलॉजी, पृ० ८७)
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२:४९ आहारक-शरीर चतुर्दश-पूर्वधर के होता है। (४९) यह प्रमत्त-संयत के होता है ।
-पण्णवणा २१. ५७५. यथार्थत. यह मतभेद नही है अपितु व्याख्यात्मक भिन्नता है। श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों के अनुसार आहारक-शरीर केवल चतुर्दशपूर्वधर के ही होता है तथा उसके प्रयोग के समय वह अनिवार्यतः प्रमत्तसयत होता है। दोनों परंपराओं के अनुसार सभी प्रमत्त-संयत आहारकशरीरवाले नहीं होते।
४ : २ ज्योतिष्को के तेजोलेश्या होती है तथा भवन
वासी एवं व्यन्तरो के चार लेश्याएँ होती हैंकृष्ण से तेजस् तक।
-ठाण १. ७२ (२) चार लेश्याएँ तीन देव-निकायों में पायी जाती
हैं-भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिष्क। ६. ४ : ३, २० बारह कल्प।
---आगम में १२ कल्प एकमत से मान्य हैं :
पण्णवणा ५. २४३; उत्तरज्झयण ३६. २११-१२ (३. १९) सूत्र ४ : (३) में १२ कल्प माने गए हैं किन्तु
सूत्र ४ : ( १९ ) में १६ कल्प गिनाए गए है।
-तिलोयपण्णत्ति ८. ११४ में ५२ कल्पों की
गणना की गई है। ७. ५ : ३८ कोई आचार्य काल को भी द्रव्य कहते हैं।
(३९) काल भी द्रव्य है। आगमिक परंपरा में लोक का विवेचन पाँच अस्तिकायों अथवा छ: द्रव्यों के रूप में किया गया है। द्वितीय मत में काल को स्वतंत्र द्रव्य माना गया है, जैसे उत्तरज्झयण २८. ७-८ । प्रथम मत में काल को या तो पांच अस्तिकायों से बिलकुल अलग रखा गया या उसे जीव और अजीव के पर्याय के रूप में माना गया । अतएव इस विषय में कोई सैद्धान्तिक विषमता नही है ।
८:२६ सम्यक्त्व, हास्य, रति और पुरुषवेद का पुण्य
कर्मों में समावेश।
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(२५) इनका पुण्य कर्मो में असमावेश |
सिद्धसेनगणि ने इन चार कर्मो को पुण्य के अन्तर्गत रखना उचित नही माना है, किन्तु उन्होंने ऐसी कारिकाएँ उद्धृत की हैं जिनसे दोनों तो का समर्थन होता है ।
अर्थात् दूसरे, तीसरे और आठवें द्वारा होती है; तोन में अर्थात् मतभेद नहीं है; शेष दो अर्थात्
उपर्युक्त आठ विषयों में से तीन में में दोनों मतों की पुष्टि आगमिक परंपरा पहले, चौथे और सातवे मे वास्तव में पाँचवीं और छठा विशेष महत्त्व के नहीं है । दोनों परंपराओं के ग्रंथों में उपलब्ध इन विभिन्न मतो से यह निर्णय नही हो सकता कि कौन-सा पाठ मूल है । यहाँ भी हमें निशा ही होती है ।
अब हम मतभेद के दो प्रकरणों की छानबीन करेगे । ये इस प्रकार हैं - १. पौद्गलिक बन्ध के नियम और २. परीषह । द्वितीय प्रकरण में दोनों आवृत्तियों का सूत्र अभिन्न है, जब कि प्रथम प्रकरण में सूत्रों में थोड़ी भिन्नता है |
१. पोद्गलिक बन्ध के नियम
सूत्र ५ : ३२-३६ (३३ - ३७) मे पौद्गलिक बन्ध का निरूपण इस प्रकार किया गया है :
५ : ३२ (३३) स्निग्ध- रूक्षत्वाद्-बन्धः
३३ (३४) न जघन्य - गुणानाम् ३४ (३५) गुण साम्ये सदृशानाम् ३५ (३६) द्वयधिकादि-गुणानां तु ३६
बन्धे समाधिक पारिणामिकौ ( ३७ ) बन्धेऽधिकौ पारिणामिकौ च
दोनो पाठों में उपर्युक्त सूत्र अभिन्न रूप में हैं, केवल सूत्र ३६ ( ३७ ) में थोड़ी भिन्नता है। सूत्र ५ : ३३-३५ ( ३४-३६), जिनमें बन्ध के नियमों का पुद्गल के सदृश और विसदृश दोनों प्रकार के गुणांशों की दृष्टि से निरूपण किया गया है, दोनों परंपराओ में बिना किसी पाठ-भेद के उपलब्ध हैं, किन्तु अर्थ की दृष्टि से उनकी टीकाओं में अन्तर पाया जाता है । यह अन्तर निम्नलिखित तालिका से स्पष्ट है :
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did the ho ad ard to
है
- १०१ - गुणांश
श्वे० टीकाएँ दिग० टीकाएँ
सदृश असदृश सदृश असदश १. जघन्य+जघन्य
नही नहीं नहीं नहीं २. जघन्य+एकाधिक
नहीं है नही नहीं ३. जघन्य+द्वयधिक
है है नहीं नहीं ४. जघन्य+त्र्यादि अधिक
है है नहीं नहीं ५. जघन्येतर+सम जघन्येतर नही है नहीं नही ६. जघन्येतर+एकाधिक जघन्येतर नहीं
नही नहीं ७. जघन्येतर+द्वयधिक जघन्येतर है ८. जघन्येतर+त्र्यादि जघन्येतर है
नहीं नहीं ___ अभिन्न सत्रों के अर्थ में इतनी भिन्नता का होना आश्चर्य की बात है। सूत्र ३३-३५ (३४-३६ ) में प्रतिपादित पौद्गलिक बन्ध के नियमो के परिप्रेक्ष्य में आठों उदाहरणों में बन्ध की सम्भावना और असम्भावना की गवेषणा से यह बिलकुल स्पष्ट हो जाता है कि ये सत्र श्वेताम्बर परम्परा-सम्मत अर्थ के अनुरूप हैं, दिगम्बर परम्परा-सम्मत अर्थ से इनका तालमेल नही बैठता । इन सत्रों के भाष्य से सूत्रो से अधिक जानकारी प्राप्त नही होती, यद्यपि कुछ उदाहरणों के द्वारा उन्हें समझने में सहायता मिलती है। वास्तव में सूत्र ३३-३५ के लिए भाष्य की विशेष आवश्यकता नहीं है, क्योंकि अपना अर्थ स्पष्ट करने में ये स्वयं सक्षम हैं। तब प्रश्न उठता है कि दिगम्बर टीकाओं में इन सूत्रों का इतना भिन्न अर्थ क्यो किया गया है ? इसकी छानबीन सर्वार्थसिद्धि के अनुसार की जाएगी, क्योंकि राजवार्तिक और श्लोकवार्तिक में पूज्यपाद से भिन्न कुछ भी नही कहा गया है।
पूज्यपाद ने सूत्र ५ : ( ३५ ) के सदृश शब्द का अर्थ 'तुल्य-जातीय' किया है जो श्वेताम्बर परम्परा से असंगत नही है । 'समान गुणांश होने पर सदृश परमाणुओं का बन्ध नहीं होता'-सूत्र ( ३५ ) का यह अर्थ निम्नोक्त उदाहरणों से ज्ञात होता है :
१. असदृश दो स्निग्ध+दो रूक्ष, तीन स्निग्ध+तीन रूक्ष २. सदृश दो स्निग्ध+दो स्निग्ध; दो रूक्ष-+दो रूक्ष
यहाँ निषेध का नियम असदृश उदाहरणों पर भी लागू किया गया है जिससे सूत्र के कथन का निश्चित रूप से खण्डन होता है । अतएव
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- १०२ - यह प्रश्न उठता है—यद्येवं सदृश-ग्रहणं किमर्थम् ? जिसका यह उत्तर दिया गया है--गुण-वैषम्ये सदशानामपि बन्ध-प्रतिपत्त्यर्थं सदश-ग्रहणं क्रियते। यह उत्तर निःसंदेह सूत्र ५ : ३४ के भाष्य से लिया गया है। सदशानाम् शब्द की अस्पष्ट स्थिति को आगे छानबीन नहीं की गई है। पौदगलिक बन्ध के होने या न होने की बात सर्वार्थसिद्धि में संक्षेप में इस प्रकार है : १ सम गुणांश
S (अ ) सदृश परमाणुओं में (नहीं)
(ब ) असदृश परमाणुओं में ( नहीं) २. विषम गुणांश
S ( अ ) सदृश परमाणुओं में ( है )
। (ब ) असदृश परमाणुओं में ( है ) अंतिम अवस्था अर्थात् २ ( ब ) का इसमें प्रतिपादन नहीं किया गया है, किन्तु अगले सत्र से इस प्रकार के बन्ध की सम्भावना का बोध अवश्य हो जाता है । टीकाकार स्वयं यह स्वीकार करता है कि सदृशानाम शब्द का इस संदर्भ में कोई अर्थ नही है । वास्तव में यह अनावश्यक है क्योंकि इससे दिगम्बर सिद्धान्त के अनुसार होनेवाले पौद्गलिक बन्ध के स्वरूप के विषय में भ्रम पैदा होता है।
सत्र ( ३६ ) में दो गणांश अधिक वाले परमाणुओं का बन्ध माना गया है। यहाँ द्वयधिकादि शब्द का अर्थ 'द्वयधिकता' किया गया है । इस सूत्र में अभिप्रेत बन्ध का स्वरूप पूज्यपाद की दृष्टि में इस प्रकार है :
( दो स्निग्ध --चार स्निग्ध; तीन स्निग्ध + पाँच स्निग्य; १. असदृश २ चार स्निग्ध+छ: स्निग्ध....."
दो रूक्ष-+-चार रूक्ष आदि २. असदृश दो स्निग्ध + चार रूक्ष आदि
इस प्रकार सूत्र ( ३६ ) को टोकानुमार पौद्गलिक बन्ध के होने या न होने को स्थिति इस प्रकार है :
। अ) सदृश परमाणुओं में । १ दो गुणांश अधिक
( ब ) असदृश परमाणुओं में
(अ) सदृश परमाणुओं में २. अन्य गुणांश
( नहीं) (ब) असदृश परमाणुओं में (नहीं)
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- १०३ -
सत्र ( ३६ ) के इन नियमों द्वारा सूत्र (३५) के कथन का खण्डन होता है। सूत्र ( ३५ ) सर्वथा महत्त्वहीन एवं अनावश्यक है । पूज्यपाद ने दिगम्बर परम्परानुसार पौद्गलिक बन्ध के नियमों को स्पष्ट करने के लिए षट्खण्डागम ५. ६. ३६ से निम्न पद्य उद्धृत किया है :
गिद्धस्स णि ण दुराधिएण लुक्खस्स लुक्खेण दुराधिएण । णिद्धस्स लुक्खेण हवदि बंधो जहण्ण वज्जे विसमे समे वा ॥ इस पद्य में निम्न बातें समाविष्ट हैं : १. दो गुणांश अधिक वालों का बन्ध 5(अ) सदृश परमाणुओं में होता है:
(ब) असदृश परमाणुओं में २. इस नियम में जघन्य गुणांशवालों 5( अ ) सदृश परमाणुओं में
का समावेश नहीं होता है : (ब) असदृश परमाणुओं में इन नियमों का, जिनमें दिगम्बर परम्परा मान्य उपर्युक्त पौद्गलिक बन्ध के स्वरूप को भलीभाँति स्पष्ट किया गया है, सूत्र (३४) और (३६) के साथ तालमेल है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि सूत्र (३५) अनावश्यक है। चूंकि दिगम्बर दृष्टि से पौद्गलिक बन्ध के लिए सूत्र ५ : ( ३५ ) में प्रयुक्त गुण-साम्ये शब्द महत्त्वहीन है अतः सम शब्द को सूत्र ५ : ३६ से निकाल देना पड़ता है जिससे सूत्र (३७) के पाठ में थोड़ो-सी भिन्नता आ जाती है। इसी प्रकार सूत्र ५ : (३५) के सदृशानाम् शब्द का इन नियमों से कोई तालमेल नही है। इसीलिए सर्वार्थसिद्धि में इस शब्द की व्याख्या इतनी उलझनपूर्ण है।
सत्र ५ : ( ३५ ) का स्वरूप त्रुटिपूर्ण होने से दिगम्बर सिद्धान्तानुसार पौद्गलिक बन्ध के स्वरूप का स्पष्टीकरण करने के बजाय भ्रान्ति उत्पन्न करता है जिससे यह प्रमाणित होता है कि सर्वार्थसिद्धि के ये सूत्र मौलिक नही है। सूत्र ( ३५ ) बिना किसी विशेष विचार के अन्य सत्रों के साथ अपना लिया गया मालूम होता है। इसीलिए यधिकादि शब्द का अर्थ 'द्वयधिकता' किया गया प्रतीत होता है जो कि अप्रचलित और असंगत है। जहाँ 'द्वयधिक' शब्द किसी भ्रम को प्रश्रय देनेवाला नहीं है वहाँ उसे षट्खंडागम के अनुकूल बना दिया गया है।
२. परीषह
९ : ११ (११) एकादश जिने
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- १०४ -
सत्र ९ : ११ (११) इस प्रकार है-एकादश जिने अर्थात् जिन के ग्यारह परीषह होते है जो वेदनीय कर्म के कारण उत्पन्न होते हैं। वे ये हैं : क्षुत्, पिपासा, शीत, उष्ण, दंश-मशक, चर्या शय्या, वध, रोग, तृणस्पर्श और मल । सप्तमी के एकवचन में प्रयुक्त जिने शब्द से यह अभिव्यक्त नही होता कि वह केवल सयोग-केवली के लिए प्रयुक्न हुआ है अथवा सयोग-केवली एवं अयोग-केवली दोनों के लिए। इस सत्र की टीकाएँ अर्थात् भाष्य और सर्वार्थसिद्धि से लेकर श्रतसागर को वत्ति तक सभी इस विषय में मौन है। भगवतीसूत्र ८. ८. ३४२ में यह स्पष्ट उल्लेख है कि ये ग्यारह परीषह केवलित्व की दोनो अवस्थाओ में होते हैं । अयोग-केवली, जिसका काल अंतर्मुहूर्त मात्र होता है, योग से सर्वथा मुक्त होता है, अतः उसके परीषह होने की कोई सम्भावना ही नहीं। इसलिए 'जिन' शब्द केवल सयोग-केवली के लिए ही प्रयुक्त हुआ समझना चाहिए।
सूत्र ९ : ११ (११) दोनों परम्पराओं में समान रूप से प्रयुक्त हुआ है । श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार सयोग-केवली का वेदनीय कर्म उतना ही प्रभावकारी होता है जितने कि शेष तीन प्रकार के अघातिक कर्म, अतः इस सूत्र का श्वेताम्बार मान्यता से सर्वथा मेल है। दिगम्बर परम्परा में इस सूत्र का वही अर्थ नहीं हैं अपितु विपरीत अर्थ है अथवा तर्क के आधार पर सिद्धान्तरूप में यदि यह अर्थ मान लिया जाए तब भों उसमें 'उपचार' के रूप में ही यह स्वीकार किया गया है। दिगम्बर टीकाकार यह तर्क प्रस्तुत करते हैं कि जिनों के क्षुधा आदि परीषह नहीं होते क्योंकि उनके मोहनीय कर्म नहीं होता जो कि असातावेदना का सहायक कारण है, यद्यपि द्रव्यरूप में वेदनीय कर्म उनमे विद्यमान रहता है। दूसरे शब्दों में, उनमें वेदनीय कर्म द्रव्यरूप मे रहता है किन्तु भावरूप में नहीं रहता, इसलिए उनके असाता-वेदना नहीं होसी । सर्वार्थसिद्धि में इसके लिए 'उपचार' का सहारा लिया गया है
और इसी आधार पर सूत्र का तर्कसंगत अर्थ भी स्वीकार किया गया हैननु च मोहनीयोदय-सहायाभावात् क्षुदादि-वेदनाभावे परीषह-व्यपदे
शो न युक्तः ? सत्यमेवमेतत्-वेदनाभावेऽपि द्रव्य-कर्म-सद्-भावापेक्षया परीषहोपचार क्रियते, निरवशेषनिरस्त ....." ज्ञानातिशये चिन्ता-निरोधाभावेऽपि तत् फल-कर्म-निर्हरण-फलापेक्षया ध्यानोपचारवत् । अन्य दिगम्बर टीकाकारों ने पूज्यपाद का ही अनुसरण किया है। दोनों परंपराओं में
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१०५
सैद्धान्तिक भिन्नता होने के कारण ही इस सूत्र के अर्थ में मतभेद है । यह भिन्नता केवली में कक्लाहार मानने और न मानने के कारण है । दिगम्बर मतानुसार यह सूत्र ज्यों का त्यों स्वीकार नहीं किया जा सकता । वस्तुतः इस सूत्र में 'न' शब्द का अध्याहार करके उसका अर्थ करना चाहिए, जैसा कि सर्वार्थसिद्धि में किया गया है अथवा — एकादश जिने 'न सन्ति' इति वाक्यशेषः कल्पनीयः, सोपस्कारत्वात् सूत्राणाम् ।
तब इस संदर्भ में 'उपचार' की सार्थकता कैसे समझी जाए ? पूज्यपाद के कथनानुसार जिन के परीषद् परीषह नही होते क्योंकि उनमें वेदनारूप परीषह का अभाव होता है । मोहनीय कर्म की अनुपस्थिति में भाववेदनीय कर्म ( असाता - वेदना ) का उदय नही होता । उनमे द्रव्यवेदनीय कर्म की सत्ता होने से उन्हें परीषह कहा जाता है । उदाहरणार्थं सूक्ष्म- क्रिया और समुच्छिन्न-क्रिया ध्यान नही है क्योकि चिन्तानिरोधरूप ध्यान का लक्षण उन पर लागू नही होता, किन्तु 'उपचार' से इन्हें ध्यान कहा जाता है क्योकि इनसे कर्म निर्हरणरूप फल प्राप्त होता है । सूक्ष्म- क्रिया और समुच्छिन्न-क्रिया शुक्ल ध्यान के अंतिम दो भेद हैं जो दोनों परंपराओं में मान्य है । अतः यदि इन्हे ध्यान के रूप में माना जाए तो इसी तर्क के आधार पर दिगम्बर मतानुसार परीषहों की स्थिति माननी ही पड़ेगी, जैसा कि पूज्यपाद ने लिखा है ।
यह मान्यता कि 'शुक्लध्यान के अंतिम दो भेदों को इस आधार पर ध्यान की संज्ञा दी गई है कि इनसे कर्मो का क्षय होता है' सर्वथा सदेहपूर्ण है, क्योंकि जैन ध्यान के अंतर्गत आर्त और रौद्र ध्यानों का भी समावेश है जिनसे अशुभ कर्मो का आस्रव होता है । अतएव 'उपचार' की उक्ति के लिए यहाँ कोई अवकास नही है । संभवतः मोक्ष से संबंधित होने के कारण सूक्ष्म क्रिया और समुच्छन्न- - क्रिया को ध्यान मान लिया गया है, क्योंकि अधिकांश धार्मिक सप्रदायों में ध्यान अथवा समाधि के द्वारा मोक्ष की प्राप्ति मानी गई है । यथार्थतः सूक्ष्म - क्रिया केवल सूक्ष्म काय-योगपूर्वक होने से सयोग केवली के और तीनों प्रकार के योग से रहित होने से अयोग- केवली के ध्यानरूप नही होती । जो हो, उपचार की बात असिद्ध हो जाने से सूक्ष्म क्रिया और समुच्छिन्नक्रिया का उदाहरण प्रस्तुत करने का टीकाकार का प्रयोजन सार्थक सिद्ध नहीं होता । अतएव दिगम्बर टीकाकारो की परीषह-सम्बन्धी यह मान्यता युक्तिसंगत नही है ।
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- १०६ -
उपर्युक्त कथन से यह ज्ञात होता है कि मोहनीय कर्म के अभाव से जिन के भाव-वेदनीय कर्म नहीं होता। मोहनीय कर्म और वेदनीय कर्म दो अलग-अलग कर्म है। उनकी अपनी-अपनी विशेषताएँ हैं। उनकी प्रकृति एवं कार्य को मिश्रित नहीं किया जा सकता, अन्यथा कार्मिक भेदों में विशृंखलता उत्पन्न हो जाएगी। यदि उपर्युक्त कथन को स्वीकार किया जाए तो वही तर्क अन्य अघातिक कर्मों के विषय में भी प्रयुक्त किया जा सकता है। उदाहरणार्थ 'जिन के भाव-गोत्र कर्म नहीं होता, क्योंकि उसमें तदनुरूप मोहनीय कर्म का अभाव होता है।' टीकाकार यह भी कहते हैं कि जिन के भाव-वेदनीय कर्म नहीं होता किन्तु द्रव्यवेदनीय कर्म होता है । यह कथन तर्कसंगत प्रतीत नहीं होता, क्योंकि एक ही कर्म का द्रव्य और भाव इन दो दृष्टिकोणों से विचार किया गया है, अतएव जहाँ एक है वहाँ दूसरा भी होता ही है। अन्यथा यह तर्क अन्य अघातिक कर्मों के विषय में भी उसी प्रकार प्रयुक्त होना चाहिए। उदाहरणार्थ 'जिन के द्रव्य-औदारिक-शरीर-नामकर्म है किन्तु तत्सम्बद्ध भाव-कर्म नहीं होता।' ये सब तर्क निश्चित रूप से असगत प्रतीत होते है; कारण, किसी परम्परा का कोई रूढ़ विश्वास प्रायः सैद्धान्तिक निष्कर्ष के साथ नही चलता, क्योंकि वह धार्मिक भावनाओं में उलझ जाता है। दिगम्बर परम्परा में भी यह रूढ़ विश्वास ज्यों का त्यों रह गया। यह परम्परा इस तथ्य को स्वीकार न कर सकी कि जिन के भाववेदनीय कर्म होता है, परन्तु यह इनकार भी न कर सकी कि उसके द्रव्य-वेदनीय कर्म होता है। इसीलिए दिगम्बर आचार्यो ने सूत्र ९ : ११ (११) को बिना किसी प्रकार के परिवर्तन के स्वीकार कर लिया, परन्तु अपने रूढ़िगत विश्वास के अनुसार टोकाओं में अर्थ-संबंधी संशोधन कर डाला। उन्होंने यह संशोधन 'उपचार' की पद्धति से किया ताकि इस सूत्र का मूल अर्थ बिलकुल बिगड़ न जाए । इसमें वे असफल रहे । इससे यह निश्चित रूप से प्रमाणित हो जाता है कि सूत्र ९ : ११ (११) मूलरूप में दिगम्बर परम्परा का नहीं था।
ये दो प्रकरण, जिनमें दोनों परंपराओं के सैद्धान्तिक मतभेद का समावेश है, विचाराधीन मूल पाठ की यथार्थता की सिद्धि के लिए महत्त्वपूर्ण हैं । केवल इन्हीं सूत्रों की छानबीन से इस समस्या को हल करना असम्भव है। टीकाओ में इसके हल की कुंजी छिपी हुई है, अतः उन्हें सुस्पष्ट करना अत्यन्त आवश्यक है। इस प्रकार के और भी
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उदाहरण हो सकते हैं, तथापि मतभेद के इन उदाहरणों तथा श्वेताम्बर संस्करण में सूत्र ५ : ( २९ ) अर्थात् सद्-द्रव्य-लक्षणम् के विलोपन से यह प्रमाणित हो जाता है कि श्वेताम्बर पाठ मूल है और दिगम्बर पाठ उससे व्युत्पन्न हुआ है। इनके अतिरिक्त सूत्रकार को यथाक्रमम् शब्द द्वारा आगे के उपभेदात्मक सूत्र लिखने की शैली तथा 'स' सर्वनाम द्वारा हमेशा नए सूत्र प्रारम्भ करने की पद्धति जैसे कुछ छोटे प्रमाणों द्वारा भी इसी तथ्य की पुष्टि होती है। तब तत्त्वार्थसूत्र के तीसरे अध्याय के संशोधन का यह प्रश्न कि 'यह सामग्रो भाष्य और जम्बूद्वीपसमास से दिगम्बर संस्करण में ली गई अथवा दिगम्बर संस्करण से भाष्य और जम्बूद्वीपसमास में ली गई' स्वतः हल हो जाता है ।
-सुजुको ओहिरा
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मूल सूत्र
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कमे
"
सन्दर्भ-संकेत भा० भाष्य मे मुद्रित सूत्र रा० राजवार्तिक मे श्लो० श्लोकवार्तिक मे स० सर्वार्थसिद्धि मे , सि० सिद्धसेनीय टीका मे ,, हा० हारिभद्रीय टीका मे ,, टि० तत्त्वार्थ-टिप्पण ( अमुद्रित, अनेकान्त ३.१)
रा-पा० राजवार्तिक में निर्दिष्ट पाठान्तर स-पा० सर्वार्थसिद्धि मे , ,, सि-पा० सिद्धसेनीय वृत्ति का प्रत्यन्तर-पाठ सि-मा० सिद्धसेनीय वत्ति का भाष्य-पाठ सि वृ० सिद्धसेनीय वृत्तिसम्मत पाठ सि-व-पा० सिद्धसेनीय वृत्ति में निर्दिष्ट पाठान्तर
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प्रथमोऽध्यायः
सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः ॥ १ ॥
तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् ॥ २ ॥
तन्निसर्गादधिगमाद्वा ॥ ३ ॥ जीवाजीवात्रेवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्त्वम् ॥ ४ ॥
नामस्थापनाद्रव्यभावतस्तन्न्यासः ॥ ५ ॥
प्रमाणनयैरधिगमः ॥ ६ ॥
निर्देशस्वामित्वसाधनाऽधिकरणस्थितिविधानतः ॥ ७ ॥ सत्संख्याक्षेत्रस्पर्शनकालाऽन्तरभावाऽल्पबहुत्वैश्च ॥ ८ ॥
मतिश्रुताऽवधिमनः पर्यायकेवलानि ज्ञानम् ॥ ९॥
तत् प्रमाणे ॥ १० ॥
औधे परोक्षम् ॥ ११ ॥
प्रत्यक्षमन्यत् ॥ १२ ॥
मतिः स्मृतिः संज्ञा चिन्ताऽभिनिबोध इत्यनर्थान्तरम् ॥ १३ ॥ तदिन्द्रियाऽनिन्द्रियनिमित्तम् ॥ १४ ॥
अवग्रहेावायधारणाः ॥ १५ ॥ बहुबहुविधक्षिप्रानिश्रितोसन्दिग्धध्रुवाणां सेतराणाम् ॥ १६ ॥
अर्थस्य ॥ १७ ॥ व्यञ्जनस्याऽवग्रहः ॥ १८ ॥
१. श्राश्रव - हा० 1
२. मन. पर्यय - स० रा० श्लो० ।
३. तत्र आधे - हा० ।
४. हापाय - भा० हा० सि० । अकलंक ने 'अपाय' तथा 'अवाय' दोनों को संगत कहा है ।
५. नि. सृतानुक्तध्रु - स० रा० । - निसृतानुक्तध्रु - श्लो० । - क्षिप्रनिःसृतानुक्तध्रुस- पा० । - प्रानिश्रितानुक्तध्रु- भा० सि वृ० । - श्रितनिश्चितध्रु-सि वृ-पा० ।
-
१११ -
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- ११२ -
न चक्षुरनिन्द्रियाभ्याम् ॥ १९ ॥ श्रतं मतिपूर्वं द्वयनेकद्वादशभेदम् ॥ २० ॥ द्विविधोऽवधिः ॥२१॥ तेत्र भवप्रत्ययो नारकदेवानाम् ॥ २२॥ यथोक्तनिमित्तः षड्विकल्पः शेषाणाम् ॥ २३॥ ऋजुविपुलमती मनःपर्यायः ॥ २४ ॥ विशुद्धयप्रतिपाताभ्यां तद्विशेषः ॥ २५ ॥ विशुद्धिक्षेत्रस्वामिविषयेभ्योऽवधिमनःपर्याययोः ॥२६॥ मतिश्रुतयोनिबन्धः सर्वद्रव्येष्वसर्वपर्यायेषु ॥ २७॥ रूपिष्ववधेः ॥२८॥ तदनन्तभागे मनःपर्यायस्य ॥ २९ ॥ सर्वद्रव्यपर्यायेधु केवलस्य ॥ ३० ॥ एकादीनि भाज्यानि युगपदेकस्मिन्नाचतुभ्यः ॥३१॥ मतिश्रुताऽवधयो विपर्ययश्च ॥ ३२॥ सदसतोरविशेषाद् यदृच्छोपलब्धेसन्मत्तवत् ॥ ३३ ॥ नैगमसंग्रहव्यवहारजुसूत्रशब्दो नयाः ॥ ३४॥ आद्यशब्दौ द्वित्रिभेदौ ॥ ३५ ॥
१. स०रा० श्लो० मे सूत्ररूप नहीं है। स० और रा० की उत्थानिका में है। २. तत्र भव-सि० ।-भवत्ययोवधिवनारकाणाम्-स० रा० श्लो० । ३. क्षयोपशमनिमित्त -स०रा० श्लो० । भाष्य मे व्याख्या है.--'यथोक्त__निमित्तः क्षयोपशमनिमित्त इत्यर्थ ।' ४. मन पर्यय ---स० रा० श्लो० । ५. मन पर्थयो.-स० रा० श्लो० । ६. निबन्ध. द्रव्ये-स० रा० श्लो०। १ २० के भाष्य मे उद्धृत सूत्राश
मे 'सर्व' नही है। ७. मन पर्ययस्य-स० रा० श्लो० । ८. श्रताविभगा विप-हा० । ९. शब्दसमभिरूद्वैषम् भूता नया:-स० रा० श्लो० । १०. यह सूत्र स० रा० श्लो० में नही है।
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द्वितीयोऽध्यायः
औपशमिकक्षायिको भावौ मिश्रश्च जीवस्य स्वतत्त्वमौदयिकपारिणामिकौ च ॥१॥ द्विनवाष्टादशैकविंशतित्रिभेदा यथाक्रमम् ॥२॥ सम्यक्त्वचारित्रे ॥ ३.॥ ज्ञानदर्शनदानलाभभोगोपभोगवीर्याणि च ॥ ४॥ ज्ञानाज्ञानदर्शनंदानादिलब्धयश्चतुस्त्रित्रिपञ्चभेदाः यथाक्रम सम्यक्त्वचारित्रसंयमासंयमाश्च ॥५॥ गतिकषायलिङ्गमिथ्यादर्शनाऽज्ञानाऽसंयताऽसिद्धत्वैलेश्याश्चतुश्चतुस्त्र्येकैकैकैकषड्भेदाः ॥६॥ जीवभव्याभव्यत्वादीनि च ॥७॥ उपयोगो लक्षगम् ॥८॥ से द्विविधोऽष्टचतुर्भेदः ॥९॥ संसारिणो मुक्ताश्च ॥ १० ॥ समनस्काऽमनस्काः ॥११॥ संसारिणस्त्रसस्थावराः॥१२॥ पृथिव्यम्बुवनस्पतयः स्थावराः ॥१३॥ तेजोवायू द्वीन्द्रियादयश्च त्रसाः ॥१४॥ पञ्चन्द्रियाणि ॥१५॥
१. दर्शनलब्धय-स० रा० श्लो० । २. स० रा० श्लो० में 'यथाक्रम' नही है। ३. सिद्धलेश्या-स० रा० श्लो० । ४. त्वानि च-स० रा० श्लो० । ५. सि-बृ-पा० मे 'स' नहीं है। ६. किसी के द्वारा किए गए सूत्र-विपर्यास की आलोचना सिद्धसेन ने की है। ७. पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतयः स्थावरा:-स० रा० श्लो० । ८. द्वीन्द्रियादयस्त्रसा:-स० रा० श्लो० ।
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११४
द्विविधानि ॥ १६ ॥ निर्वृत्त्युपकरणे द्रव्येन्द्रियम् ॥ १७ ॥ लब्ध्युपयोगी भावेन्द्रियम् ॥ १८ ॥ उपयोग: स्पर्शादिषु ॥ १९ ॥ स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुः श्रोत्राणि ॥ २० ॥ स्पर्शरसगन्धवर्णशब्दास्तेषामर्थाः ॥ २१ ॥ श्रुतमनिन्द्रियस्य ॥ २२ ॥ वाय्वन्तानामेकम् ॥ २३ ॥
कृमिपिपीलिकाभ्रमर मनुष्यादीनामेकैक वृद्धानि ॥ २४ ॥
संज्ञिनः समनस्काः ।। २५ ।। विग्रहगतौ कर्मयोगः ॥ २६ ॥ अनुश्रेणि गतिः ॥ २७ ॥ अविग्रहा जीवस्य ॥ २८ ॥
६
विग्रहवती च संसारिणः प्राक् चतुर्भ्यः ॥ २९ ॥ एकसमयोऽविग्रहः ॥ ३० ॥ एकं द्वौ वाऽनाहारकः ॥ ३१ ॥ सम्मूर्छन गर्भोपपाती जन्म ॥ ३२ ॥
१. स० रा० श्लो० मे नही है । सिद्धसेन • कहते है - 'कोई इसको सूत्र नहीं मानते और वहते हैं कि भाष्यवाक्य को ही सूत्र बना दिया गया है ।'
— पृ० १६९। २. तदर्था - स०रा० श्लो० । 'तदर्थाः ' ऐसा समस्तपद ठीक नही, इस शंका का निराकरण अकलंक और विद्यानन्द ने दूसरी ओर श्वे० टीकाकारो ने इसका स्पष्टीकरण किया है कि असमस्त पद क्यो रखा गया है ।
किया है ।
३. वनस्पत्यन्तानामेकम् - स० रा० श्लो० ।
४. सिद्धसेन कहते है कि कोई सूत्र मे 'मनुष्य' पद को अनार्ष समझते है । ५. सिद्धसेन कहते है कि कोई इसके बाद प्रतीन्द्रिया. केवलिन. सूत्र रखते है ।
६. एकसमयाऽविग्रहा - स० रा० श्लो० ।
७. द्वौ त्रीन्वा - स० रा० श्लो० । सूत्रगत 'वा' शब्द से कोई 'तीन' का भी संग्रह करते थे, ऐसा हरिभद्र और सिद्धसेन का कहना है ।
८. पाताज्जन्म स० ।– पादा जन्म रा० श्लो० ।
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- ११५ - सचित्तशीतसंवृताः सेतरा मिश्राश्चैकशस्तद्योनयः ॥ ३३ ॥ जराय्वण्डपोतजानां गर्भः ॥ ३४ ॥ नारकदेवानामुपपातः ॥ ३५ ॥ शेषाणां सम्मूर्छनम् ॥ ३६॥ औदारिकवैक्रियाऽऽहारकतैजसकार्मणानि शरीराणि ॥ ३७॥ परं परं सूक्ष्मम् ॥ ३८॥ प्रदेशतोऽसंख्येयगुणं प्राक् तैजसात् ॥ ३९ ॥ अनन्तगुणे परे ॥४०॥ अप्रतिघाते ॥४१॥ अनादिसम्बन्धे च ॥४२॥ सर्वस्य ॥४३॥ तदादीनि भाज्यानि युगपदेकस्याचतुभ्यः ॥ ४४ ॥ निरुपभोगमन्त्यम् ॥ ४५ ॥ गर्भसम्मूर्छनजमाद्यम् ॥४६॥
१. जरायुजाण्डपोतजानां गर्भ-हा० । जरायुजाण्डपोतानां गर्भ.-स० रा०
श्लो० । रा० और श्लो० 'पोतज' पाठ पर आपत्ति करते है।
सिद्धसेन को यह आपत्ति ठीक नहीं मालूम होती। २. देवनारकाणामुपपाद:-स० रा० श्लो० । ३. वत्रियिका-स० रा० श्लो० । ४. सिद्धसेन का कहना है कि कोई 'शरीराणि' को अलग सूत्र समझते है । ५. भा० मे तेषां पद सूत्रांश के रूप मे छपा है, लेकिन भाष्यटीकाकारो
के मत में यह भाष्य का अंश है । ६. अप्रतीघाते-स० रा० श्लो० । ७. देकस्मिन्नाचतु-स० रा० श्लो० । लेकिन टीक्यों से मालूम होता है
कि एकस्य सूत्रपाठ अभिप्रेत है ।
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- ११६ - वैक्रियमौपपातिकम् ॥४७॥ लब्धिप्रत्ययं च ॥४८॥ शुभं विशुद्धमव्याधाति चाहारकं चतुर्दशपूर्वधरस्यैव ॥ ४९ ॥ नारकसम्मूछिनो नपुंसकानि ॥ ५० ॥ न देवाः ॥५१॥ औपपातिकैचरमदेहोत्तमपुरुषाऽसंख्येयवर्षायुषोऽनपवायुषः ॥५२॥
१. प्रौपपादिकं वैक्रियिकम्-स० रा० श्लो० । २. इसके बाद स० रा० श्लो० मे तैजसमपि सूत्र है । भा० मे तैजसमपि
सूत्र के रूप में नही है। हा० मे शुभम् .. इत्यादि सूत्र के बाद यह सूत्ररूप में है। सि० मे यह सूत्र क० ख० प्रति का पाठान्तर है। टि० मे यह स्वतंत्र सूत्र है, किन्तु अगले सूत्र के बाद है। उसका यहाँ
होना टिप्पणकार ने अनुचित माना है । ३. चतुर्दशपूर्वधर एव-सि० । प्रमत्तसंयतस्यैव-स० रा० श्लो० । सिद्धसेन
का कहना है कि कोई अकृत्स्नश्रुतद्धिमतः विशेषण और जोडते है । ४. इसके बाद स० रा० श्लो० मे शेषास्त्रिवेदाः सूत्र है। श्वेताम्बर । पाठ मे यह सूत्र नहीं है, क्यांकि इस अर्थ का भाष्यवाक्य है । ५. औपपादिकचरमोत्तमदेहाऽसं-स० रा० श्लो० । ६. चरमदेहोत्तमदेहपु-स-पा०, रा-पा० । सिद्धसेन का कहना है कि
इस सूत्र मे सूत्रकार ने 'उत्तमपुरुष' पद का ग्रहण नही किया है-ऐसा कोई मानते है । पूज्यपाद, अकलंक और विद्यानन्द 'चरम' को 'उत्तम' का विशेषण समझते है।
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तृतीयोऽध्यायः रत्नशर्करावालुकापङ्कधूमतमोमहातमःप्रभा भूमयो घनाम्बुवाताकाशप्रतिष्ठाः सप्ताधोऽधः पृथुतराः ॥१॥ तासु नरकाः ॥२॥ नित्याशुभतरलेश्यापरिणामदेहवेदनाविक्रियाः ॥३॥ परस्परोदीरितदुःखाः ॥४॥ संक्लिष्टासुरोदीरितदुःखाश्च प्राकचतुर्थ्याः ॥ ५॥ तेष्वेकत्रिसप्तदशसप्तदशद्वाविंशतित्रयस्त्रिशत्सागरोपमाः सत्त्वानां परा स्थितिः॥६॥ जम्बूद्वीपलवणोदयः शुभनामानो दीपसमुद्राः ॥७॥ द्विििवष्कम्भाः पूर्वपूर्वपरिक्षेपिणो वलयाकृतयः॥८॥ तन्मध्ये मेरुनाभिर्वत्तो योजनशतसहस्रविष्कम्भो जम्बूद्वीपः ॥९॥ तत्र भरतहैमवतहरिविदेहरम्यकहैरण्यवतैरावतवर्षाः क्षेत्राणि ॥१०॥ तद्विभाजिनः पूर्वापरायता हिमवन्महाहिमवनिषधनीलरुक्मिशिखरिणो वर्षधरपर्वताः ॥११॥
१. इसके विग्रह मे सिद्धान्त पाठ और सामर्थ्य गम्य पाठ की चर्चा सर्वार्थ
सिद्धि में है। २ पृथुतराः स० रा० श्लो० में नही। अकलङ्क पृथुतरा: पाठ को अनाव
श्यक मानते है । इस सूत्र के बाद टि० मे धर्मा वंशा शैलाजना रिष्टा माघव्या माधवीति च सूत्र है। ३. तासुत्रिशत्पञ्चविंशतिपञ्चदशत्रिपदोनेकनरकशतसहस्राणि पञ्च चैव
यथाक्रमम्-स० रा० श्लो० । इस सूत्र मे सन्निहित गणना भाष्य में है। ४. तेषु नारका नित्या-सि० । नारका नित्या-स० रा० श्लो० । ५. लवणोदादय:--स० रा० श्लो० । ६. 'तत्र' टि० स० रा० श्लो० मे नही है। ७. वंशधरपर्वता:-सि० । ८. सिद्धसेन का कहना है कि इस सूत्र के बाद तत्र पञ्च इत्यादि भाष्यवाक्य
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- ११८ - द्विर्धातकीखण्डे ॥१२॥ पुष्करार्धे च ॥ १३ ॥ प्राङ्मानुषोत्तरान् मनुष्याः ॥१४॥ आर्या म्लेच्छाश्च ॥१५॥ भरतैरावतविदेहाः कर्मभूमयोऽन्यत्र देवकुरुत्तरकुरुभ्यः ॥ १६ ॥ नृस्थिती परापरे त्रिपल्योपमान्तर्मुहूर्ते ॥ १७ ॥ तिर्यग्योनीनां च ॥ १८ ॥
को कोई सत्र समझते है। स० मे इस आशय का सूत्र २४वा है । हरिभद्र और सिद्धसेन कहते है कि यहाँ कोई विद्वान् बहुत से नये सूत्र अपने आप बनाकर विस्तार के लिए रखते है। उनका यह कथन संभवत. सर्वार्थसिद्धिमान्य सूत्रपाठ को लक्ष्य मे रखकर है, क्योकि उसमे इस सूत्र के बाद १२ सूत्र ऐसे है जो श्वे० सत्रपाठ में नही है । उसके बाद के सूत्र २४ और २५ भी भाष्यमान्य ११वें सूत्र के भाष्य-अंश ही है। स० रा० के सूत्र २६ से ३२ भी अधिक ही है । स० के १३वे सूत्र को तोड कर श्लो० में दो सूत्र बना दिए गए है ।
अधिक सूत्रों के पाठ के लिए स० रा० श्लो० द्रष्टव्य है । १ प्रार्या मिलशाच-भा० हा० । २. परावरे-रा० श्लो० । ३. तिर्यग्योनिजानां च-स० रा० श्लो० ।
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चतुर्थोऽध्यायः देवाश्चतुनिकायाः॥१॥ तृतीयः पीतलेश्यः ॥२॥ दशाष्टपंचद्वादशविकल्पाः कल्पोपपन्नपर्यन्ताः ॥३॥ इन्द्रसामानिकत्रास्त्रिशपारिषद्यात्मरक्षलोकपालानीकप्रकीर्णकाभि - योग्यकिल्विषिकाश्चैकशः॥४॥ त्रास्त्रिर्शलोकपालवा व्यन्तरज्योतिष्काः ॥५॥ पूर्वयो:न्द्राः ॥६॥ पीतान्तलेश्याः ॥७॥ कायप्रवीचारा आ-ऐशानात् ॥८॥ शेषाः स्पर्शरूपशब्दमनःप्रवीचारा द्वयोद्वयोः ॥९॥ परेऽप्रवीचाराः॥१०॥ भवनवासिनोऽसुरनागविद्युत्सुपर्णाग्निवातस्तनितोदधिद्वीपदिक्कूमाराः॥११॥ व्यन्तराः किन्नरकिंपुरुषमहोरगान्धर्वयक्षराक्षसभूतपिशाचाः ॥१२॥ १. देवाश्चतुर्णिकाया -स० रा० श्लो० । २. प्रादितस्त्रिषु पीतान्तले डा. स० रा० श्लो०। देखें-विवेचन,
पृ० ९५, टि० १ । ३. पारिषदा-स० रा० श्लो० । ४ -शल्लोक-स०। ५. वर्मा-सि० । ६. यह सूत्र स० रा० श्लो० में नही है । ७. दोर्द्वयोः स० रा० श्लो० में नही है। इन पदों को सूत्र में रखने
के विषय मे किसी की शंका का समाधान करते हुए अकलङ्क कहते है कि ऐसा करना आर्ष-विरोध है । ८ गन्धर्व -हा० स० रा० श्लो० ।
- ११९ -
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ज्योतिष्काः सूर्याचन्द्रमसो' ग्रहनक्षत्रप्रकीर्णताकाश्च ॥ १३ ॥ मेरुप्रदक्षिणा नित्यगतयो नृलोके ॥ १४ ॥
तत्कृतः कालविभागः ॥ १५ ॥
१२०
बहिरवस्थिताः ॥ १६ ॥ वैमानिकाः ॥ १७ ॥
कल्पोपपन्नाः कल्पातीताश्च ॥ १८ ॥
उपर्युपरि ॥ १९ ॥
सौधर्मेशा नसानत्कुमार माहेन्द्र ब्रह्मलोकलान्तक महाशुक्र सहस्रारेष्वानतप्राणतयोरारणाच्युतयोर्नवसु ग्रैवेयकेषु विजयवैजयन्तजयन्ताऽपराजितेषु सर्वार्थसिद्धे च ॥ २० ॥
५
स्थितिप्रभावसुखद्युतिलेश्या विशुद्धीन्द्रियावधिविषयतोऽधिकाः ॥ २१ ॥ गतिशरीरपरिग्रहाभिमानतो होनाः ॥ २२ ॥
पीतपद्मशुक्ललेश्या द्वित्रिशेषेषु ॥ २३ ॥ प्राग्ग्रैवेयकेभ्यः कल्पाः ॥ २४ ॥ ब्रह्मलोकाला लोकान्तिकाः ॥ २५ ॥
सारस्वतादित्यवह्नयरुणगर्दतोयतुषिताव्याबाधर्मरुतोऽरिष्टाच ॥ २६॥
विजयादिषु द्विचरमाः ॥ २७ ॥
१. - सूर्याचन्द्रमसौ - स० रा० इलो० ।
२. - प्रकीर्णकता - स० रा० इलो० ।
३. - ताराश्च - हा० ।
४. - माहेन्द्रब्रह्म ब्रह्मोत्तरलान्तवकापिष्ठशुक्र महा शुक्रशतारसहस्रा - स० रा० श्लो० । श्लो० में सतार पाठ है । दिगम्बर परम्परा के भी प्राचीन ग्रन्थों मे बारह कल्पों का कथन है । देखें -- जैन जगत, वर्ष ४, अंक ६, पृ० २०२; अनेकात, वर्ष ५, अंक १०-११, पृ० ३४२ ॥
५. - सिद्धौ च - स० रा० श्लो० ।
६. टि० में इसके बाद उच्छ्वासाहारवेदनोपपातानुभावतश्च साध्याः सूत्र है ।
७. पीतमिश्र पद्ममिश्र शुक्ललेश्या द्विद्विचतुश्चतुः शेषेष्विति - रा-पा० ।
८. -लया लौका स० रा० श्लो०; सि-पा० ।
९ - व्याबाधारिष्टाइच - स० रा०
टि० १ ।
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श्लो० । देखे - विवेचन, पृ० १०८,
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- १२१ - औपपातिकमनुष्येभ्यः शेषास्तिर्यग्योनयः॥२८॥ स्थितिः ॥ २९ ॥ भवनेषु दक्षिणार्धाधिपतीनां पल्योपममध्यर्धम् ॥ ३०॥ शेषाणां पादोने ॥३१॥ असुरेन्द्रयोः सागरोपममधिकं च ॥ ३२॥ सौधर्मादिषु यथाक्रमम् ॥ ३३ ॥ सागरोपमे ॥ ३४॥ अधिके च ॥ ३५ ॥ सप्त सानत्कुमारे ॥३६॥ विशेषत्रिसप्तदशैकादशत्रयोदशपञ्चदशभिरधिकानि च ॥३७॥ आरणाच्युतादूर्ध्वमेकैकेन नवसु ग्रैवेयकेषु विजयादिषु सर्वार्थसिद्धे च ॥३८॥ अपरा पल्योपममधिकं च ॥ ३९ ॥ सागरोपमे ॥४०॥ अधिके च ॥४१॥ परतः परतः पूर्वा पूर्वाऽनन्तरा॥४२॥ नारकाणां च द्वितीयादिषु ॥४३॥ दशवर्षसहस्राणि प्रथमायाम् ॥४४॥ भवनेषु च ॥ ४५ ॥ व्यन्तराणां च ॥४६॥
१. -पादिक-स० रा० श्लो० । २. इस सूत्र से ३२ वें सूत्र तक के लिए स्थितिरसुरनागसुपर्णद्वीपशेषाणां
सागरोपमत्रिपल्योपमार्द्धहीनमिता-यह एक ही सूत्र स० रा० श्लो० में है । श्वे० दि० दोनों परंपराओं मे भवनपति की उत्कृष्ट स्थिति के विषय
में मतभेद है। ३. इस सूत्र से ३५वे सूत्र तक के लिए एक ही सूत्र सौधर्मेशानयो. सागरोपमे
अधिके च स० रा० श्लो० में है। दोनों परंपराओं मे स्थिति के
परिमाण में भी अन्तर है । देखें-प्रस्तुत सूत्रों की टीकाएँ। ४. सानत्कुमारमाहेन्द्रयोः सप्त-स० रा० श्लो० । ५. त्रिसप्तनवैकादशपंचदशभिरधिकानि तु-स० रा० श्लो० । ६. सिद्धौ च-स०रा० श्लो० । ७. यह और इसके बाद का सूत्र स० रा० श्लो० में नही है ।
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- १२२ - परा पल्योपमम॥४७॥ ज्योतिष्काणामधिकम् ॥४८॥ ग्रहाणामेकम् ॥४९॥ नक्षत्राणामर्धम् ॥५०॥ तारकाणां चतुर्भागः॥५१॥ जघन्या त्वष्टभागः ॥५२॥ चतर्भागः शेषाणाम् ॥५३॥
१. परा पल्योपममधिकम्-स० रा० श्लो० । २ ज्योतिष्कारणां च -स० रा० श्लो० । ३. यह और ५०, ५१ सूत्र स० रा० श्लो० में नहीं है । ४. तदष्टभागोऽपरा-स० रा० श्लो० । ज्योतिष्कों की स्थिति विषयक जो
सूत्र दिगम्बर पाठ में नही है उन सूत्रों के विषय की पूर्ति राजवा
तिक कार ने इसी सूत्र के वार्तिकों में की है। ५. स० रा० श्लो० मे नहीं है। स० और रा० मे एक और अंतिम सूत्र
लौकान्तिकानामष्टो सागरोपमारिण सर्वेषाम-४२ है, जो श्लो० मे नही है।
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पञ्चमोऽध्यायः
अजोवकाया धर्माधर्माकाशपुद्गलाः ॥१॥ द्रव्याणि जीवाश्च ॥२॥ नित्यावस्थितान्यरूपाणि ॥३॥ रूपिणः पुद्गलाः॥४॥ आऽऽकाशादेकद्रव्याणि ॥५॥ निष्क्रियाणि च ॥६॥ असङ्ख्येयाः प्रदेशा धर्माधर्मयोः ॥७॥ जीवस्य ॥८॥ आकाशस्यानन्ताः ॥९॥ सङ्ख्येयाऽसङ्ख्येयाश्च पुद्गलानाम् ॥ १०॥
१ स० रा० श्लो० मे इस एक सूत्र के स्थान पर द्रव्याणि व जीवाश्च ये
दो सूत्र है। सिद्धसेन कहते है-'कोई इस सूत्र को उपयुक्त प्रकार से दो सत्र बनाकर पढते है जो ठीक नही है।' अकलङ्क के सामने भी किसी ने शङ्का उठाई है-द्रव्याणि जीदाः ऐसा 'च' रहित एक सूत्र ही क्यो नही रखते ?' विद्यानन्द का कहना
है कि स्पष्ट प्रतिपत्ति के लिए ही दो सूत्र बनाए गए है। २. सिद्धसेन कहते है-'कोई इस सूत्र को तोड़कर नित्यावस्थितानि
एवं प्ररूपाणि ये दो सूत्र बनाते है।' नित्यावस्थितान्यरूपाणि पाठान्तर भी उन्होने वृत्ति मे दिया है। नित्यावस्थितान्यरूपीणि ऐसे एक और पाठ का भी उन्होने निदेश किया है । 'कोई नित्यपद को अवस्थित का विशेषण समझते है' ऐसा भी वे कहते है। इस सूत्र की व्याख्या के मतान्तरों के लिए मिद्धसेनीय वृत्ति द्रष्टव्य है । ३ देखे--विवेचन, पृ० ११५, टि० १ । ४. -धर्माधर्मकजीनाम्-स० रा० श्लो० । ५. स० रा० श्लो० में यह पृथक सूत्र नहीं है। सिद्धसेन ने पृथक् सत्र
रखने के कारण का स्पष्टीकरण किया है ।
- १२३ -
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- १२४ -
नाणोः ॥११॥ लोकाकाशेऽवगाहः ॥ १२ ॥
धिर्मयोः कृत्स्ने ॥ १३॥ एकप्रदेशादिषु भाज्यः पुद्गलानाम् ॥ १४ ॥ असङ्ख्ययभागादिषु जीवानाम् ॥ १५ ॥ प्रदेशसंहारविसर्गोभ्यां प्रदीपवत् ॥ १६ ॥ गतिस्थित्युपग्रहो धर्माधर्मयोरुपकारः ॥१७॥ आकाशस्यावगाहः ॥१८॥ शरीरवाङ्मनःप्राणापानाः पुद्गलानाम् ॥ १९ ॥ सुखदुःखजीवितमरणोपग्रहाश्च ॥ २० ॥ परस्परोपग्रहो जीवानाम् ॥ २१ ॥ वर्तना परिणामः क्रिया परत्वापरत्वे च कालस्य ॥ २२॥ स्पर्शरसगन्धवर्णवन्तः पुद्गलाः ॥२३॥ शब्दबन्धसौक्षम्यस्थौल्यसंस्थानभेदतमश्छायाऽऽतपोद्योतवन्तश्च ॥२४॥ अणवः स्कन्धाश्च ॥ २५ ॥ सङ्कातभेदेभ्यं उत्पद्यन्ते ॥२६॥ भेदादणुः ॥ २७॥ भेदसङ्घाताभ्यां चाक्षुषोः ॥ २८॥ उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत् ॥ २९ ॥ तद्भावाव्ययं नित्यम् ॥ ३० ॥
१. -विसर्पा-स० रा० श्लो० । २. -पग्रहो-सि० स० रा० श्लो० । अकलंक ने द्विवचन का समर्थन
किया है । देखे--विवेवन, पृ० १२३, टि० १ । ३. वर्तनापरिणामक्रियाः पर-स० । वर्तनापरिणामक्रिया पर-रा० । ४. भेदसंघातेभ्य उ-स० रा० श्लो० । ५. -चाक्षुषः-स० रा० श्लो० । सिद्धसेन इस सूत्र के अर्थ मे किसी
का मतभेद बतलाते है । ६. इस सूत्र से पहले स० और श्लो० मे सद द्रव्यलक्षणम् सूत्र है।
लेकिन राल मे ऐसा अलग सूत्र नहीं है, उसमे तो यह बात उत्थानिका में ही कही गई है । भाष्य में इसका भावकथन है।
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• १२५
-
५
अर्पितार्नापितसिद्धेः ॥ ३१ ॥ स्निग्धरूक्षत्वाद्बन्धः ॥ ३२ ॥ न जघन्यगुणानाम् ॥ ३३ ॥ गुणसाम्ये सदृशानाम् ॥ ३४ ॥ द्वयधिकादिगुणानां तु ॥
३५ ॥ बन्धे समाधिकौ पारिणामिकौ ॥ ३६ ॥
3
४
गुणपर्यायवद् द्रव्यम् ॥ ३७ ॥ कालश्चेत्येके ॥ ३८ ॥ सोऽनन्तसमयः ॥ ३९ ॥ द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः ॥ ४० ॥ तद्भावः परिणामः ॥ ४१ ॥ अनादिरादिमां ॥ ४२ ॥ रूपिष्वादिमान् ॥ ४३ ॥ योगोपयोगी जीवेषु ॥ ४४ ॥
१. इस सूत्र की व्याख्या में
मतभेद है । हरिभद्र सबसे निराला ही अर्थ करते हैं । हरिभद्र की व्याख्या का सिद्धसेन ने मतान्तररूप में निर्देश किया है ।
२. बन्ध की प्रक्रिया मे श्वे० दि० मतभेद के लिए देखें - विवेचन, पृ०
१३९ ।
३. बन्धेधिक पारिणामिकौ - स० श्लो० । रा० मे सूत्र के अन्त मे 'च' हैं । अकलंक ने समाधिको पद का खण्डन किया है ।
४. देखें – विवेचन, पृ० १४४, टि० १ । कालश्च - स० २१० श्लो० ।
५.
मे
ये अन्तिम तीनों सूत्र स० रा० श्लो० भाष्य के मत का खण्डन किया है । पृ० १४६-१४७ । टि० में इसके पहले
नही है । राजवार्तिककार ने विस्तार के लिए देखें - विवेचन, स द्विविध. सूत्र है ।
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षष्ठोऽध्यायः कायवाङमनःकर्म योगः ॥१॥ स आस्रवः ॥२॥ शुभः पुण्यस्य ॥३॥ अशुभः पापस्य ॥४॥ सकषायाकषाययोः साम्परायिकर्यापथयोः ॥५॥ अवतकषायेन्द्रियक्रियाः पञ्चचतुःपञ्चपञ्चविंशतिसङ्ख्याः पूर्वस्य भेदाः ॥६॥ तीवमन्दज्ञाताज्ञातभाववीर्याऽधिकरणविशेषेभ्यस्तद्विशेषः ॥७॥ अधिकरणं जीवाजोवाः ॥ ८॥ आद्यं संरम्भसमारम्भारम्भयोगकृतकारितानुमतकषायविशेषैत्रिस्त्रि - स्त्रिश्चतुश्चैकशः ॥९॥ निर्वर्तनानिक्षेपसंयोगनिसर्गा द्विचतुर्द्वित्रिभेदाः परम् ॥१०॥ तत्प्रदोषनिह्नवमात्सर्यान्तरायासादनोपघाता ज्ञानदर्शनावरणयोः॥११॥ दुःखशोकतापाक्रन्दनवधपरिदेवनान्यात्मपरोभयस्थान्यसद्वद्यस्य ॥१२॥ भूतव्रत्यनुकम्पा दानं सरागसंयमादियोगः क्षान्तिः शौचमिति सद्वद्यस्य ॥१३॥
१ देखें-विवेचन, पृ० १४१, टि० १ । २. यह सूत्ररूप मे हाल में नहीं है। लेकिन शेष पापम् सूत्र है। सि० मे
अशुभ. पापस्य सूत्ररूप मे छपा है, लेकिन टीका से मालूम होता है कि
यह भाष्प-अश है। ३. इन्द्रिय कमायावतक्रिया:-हा० सि० टि०; स० रा० श्लो० । भाष्यमान्य
पाठ मे अवत हो पहले है । सूत्र की टीका करते समय सिद्धसेन के सामने इन्द्रिय पाठ प्रथम है । किन्तु सूत्र के भाष्य में अव्रत पाठ प्रथम है । सिद्धसेन को जब सूत्र और भाष्य की यह असंगति ज्ञात हुई तो
उन्होने इसे दूर करने की कोशिश भी की। ४. -भावाधिकरणवीर्यविशे-स० रा० श्लो० । ५. भूतवत्यनुकम्पादानसरागसंयमादियोगः-स० रा० श्लो० ।
- १२६ -
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- १२७ - केवलिश्रुतसङ्घधर्मदेवावर्णवादो दर्शनमोहस्य ॥ १४ ॥ कषायोदयात्तीवात्मपरिणामश्चारित्रमोहस्य॥ १५ ॥ बह्वारम्भपरिग्रहत्वं चे नारकस्यायुषः ॥१६॥ माया तैर्यग्योनस्य ॥१७॥ अल्पारम्भपरिग्रहत्वं स्वभावमार्दवार्जवं च मानुषस्य ॥ १८ ॥ निःशीलवतत्वं च सर्वेषाम् ॥ ११॥ सरागसंयमसंयमासंयमाकामनिर्जराबालतपांसि देवस्य ॥२०॥ योगवक्रता विसंवादनं चाशुभस्य नाम्नः ॥ २१ ॥ विपरीतं शुभस्य ॥२२॥ दर्शनविशुद्धिविनयसम्पन्नता शीलवतेष्वनतिचारोऽभीक्ष्णं ज्ञानोपयोगसंवेगौ शक्तितस्त्यागतपसी सद्धसाधुसमाधिवैयावृत्त्यकरणमहदाचार्यबहुश्रुतप्रवचनभक्तिरावश्यकापरिहाणिर्गिप्रभावना प्रवचनवत्सलत्वमिति तीर्थकृत्त्वस्य ॥२३॥ परात्मनिन्दाप्रशंसे सदसद्गुणाच्छादनोभावने च नीचैर्गोत्रस्य ॥२४॥ तद्विपर्ययो नीचैर्वृत्त्यनुत्सेको चोत्तरस्य ॥ २५ ॥ विघ्नकरणमन्तरायस्य ॥ २६ ॥
१. -तीवपरि-स० रा० श्लो० । २. स. रा० श्लो० मे 'च' नही है । ३. इसके स्थान पर अल्पारम्मपरिग्रहत्वं मानुषस्य और स्वभावमार्दवं च
ये दो सूत्र दिगम्बर परंपरा में है। एक ही सूत्र क्यो नही बनाया गया, इस शंका का समाधान भी दिगम्बर टीकाकारो ने किया है। ४. देखें--विवेचन, पृ० १५७, टि० १ । ५. देखें-विवेचन, पृ० १५७, टि० २। ६. इसके बाद टि० मे सम्यक्त्वं च सूत्र है। ७. तद्विप-स० रा० श्लो० । ८. भीक्ष्णज्ञा-स० रा० श्लो० ।। ९. स० रा० श्लो० मे 'सङ्घ' नही है । १०. तीर्थकरत्वस्य-स० रा० श्लो० । ११. -गुणोच्छा-स० । गुणच्छा-रा० श्लो ।
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सप्तमोऽध्यायः
हिंसाऽनृतस्तेयाऽब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिव्रतम् ॥१॥ देशसर्वतोऽणुमहती ॥२॥ तत्स्थैर्यार्थ भावनाः पञ्च पञ्च ॥३॥ हिंसादिष्विहामुत्र चौपायावद्यदर्शनम् ॥ ४ ॥ दुःखमेव वा ॥५॥ मैत्रीप्रमोदकारुण्यमाध्यस्यानि सत्त्वगुणाधिकक्लिश्यमानाविनेयेषु ॥६॥ जगत्कायस्वभावौ चे सवेगवैराग्यार्थम् ॥७॥ प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा ॥८॥ असदभिधानमनृतम् ॥९॥ अदत्तादानं स्तेयम् ॥१०॥ मैथुनमब्रह्म ॥११॥
१. -पञ्च पञ्चशः सि-वृ-पा० । अकलंक के सामने पञ्चशः पाठ होने
को आशंका की गई है । इस सूत्र के बाद वाङ्मनोगुप्तीर्यादाननिक्षेपणसमित्यालोकितपानभोजनानि पञ्च ॥४॥ क्रोधलोभ भीरु.वहास्यप्रत्याख्यानान्यनुवीचिभाषणं च पञ्च ॥५॥ शन्यागारविमोचितावासपरोपरोधाकरणभक्ष (क्ष्य-रा० ) शुद्धि सद्धर्मा ( सधर्मा-श्लो० ) विसंवादाः पञ्च ॥६॥ स्त्रीरागकथाश्रवणतन्मनोहराङ्गनिरीक्षण पूर्वरतानुस्मरणवृष्येष्टरसस्वशरीरसंस्कारत्यागा. पञ्च ॥७॥ मनोज्ञामनोजेन्द्रियविष्यरागद्वेषवर्जनानि पञ्च ॥८॥ ऐसे पाँच सूत्र स० रा० श्लो० मे है जिनका
भाव इसी सूत्र के भाष्य मे है। २. -मुत्रापाया-स० रा० श्लो० । ३. सिद्धसेन कहते है कि इसी सूत्र के व्याधिप्रतीकारत्वात् कडूपरिगतत्वा.
च्चाब्रह्म तथा परिग्रहेष्वाप्तप्राप्तनष्टेषु काङक्षाशोको प्राप्तेषु च रक्षणमुपभोगे वाऽवितृप्ति. इन भाष्यवाक्यों को कोई दो सूत्र मानते है । ४. -माध्यस्थानि च स-स० रा० श्लो० । ५. स० रा० श्लो० मे 'च' के स्थान मे 'वा' है ।
- १२८ -
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मुर्छा परिग्रहः ॥१२॥ निःशल्यो व्रती ॥१३॥ अगार्यनगारश्च ॥ १४ ॥ अणुव्रतोऽगारी ॥१५॥ दिग्देशानर्थदण्डविरतिसामायिकपौषधोपवासोपभोगपरिभोगेपरिमाणाऽतिथिसंविभागवतसम्पन्नश्च ॥ १६ ॥ मारणान्तिको संलेखनां जोषिता ॥ १७॥ शङ्काकाङ्क्षाविचिकित्साऽन्यदृष्टिप्रशंसासंस्तवाः सम्यग्दृष्टेरतिचाराः॥१८॥ व्रतशोलेषु पञ्च पञ्च यथाक्रमम् ॥ १९ ॥ बन्धवधच्छविच्छेदातिभारारोपणानपाननिरोधाः ॥२०॥ मिथ्योपदेशरहँस्याभ्याख्यानकूटलेखक्रियान्यासापहारसाकारमन्त्रभेदाः ॥२१॥ स्तेनप्रयोगतदाहृतादानविरुद्धराज्यातिक्रमहीनाधिकमानोन्मानप्रतिरूपकव्यवहाराः ।। २२॥ परविवाहकरणेत्वरंपरिगृहीताऽपरिगृहीतागमनानङ्गक्रीडातीवकामाभिनिवेशाः ॥ २३ ॥
१. प्रोषधो-स० रा० श्लो० । २. भोगातिथि-भा० । सिद्धसेन वृत्ति में भी इस सूत्र के भाष्य में परिमाण
शब्द नही है । देखें-प० ९३. पं० १२ । ३. देखे--विवेचन पृ० १८१, टि० १। ४. सल्लेखना-स० रा० श्लो० । ५. रतीचारा.- भा० सि०, रा० श्लो० । ६. -वधच्छेदाति-स० रा० श्लो० । ७. रहोभ्या-स० रा० श्लो० । ८. -त्वरिकापरि-स० रा० श्लो० । ९. - डाकामतीवाभि-स० रा० श्लो० । १०. इस सत्र के स्थान पर कोई परविवाहकरणेत्वरिकापरिगहीतापरिगही
तागमनानङ्गक्रीडातीवकामाभिनिवेशः ( शाः ) सूत्र मानते है, ऐसा सिद्धसेन का कहना है । यह सूत्र दिगम्बर पाठ से कुछ-कुछ मिलता है । देखे-ऊपर की टिप्पणी ।
कुछ लोग इसी सूत्र का पदविच्छेद परविवाहकरणं इत्वरिका
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- १३० - क्षेत्रवास्तुहिरण्यसुवर्णधनधान्यदासीदासकुप्यप्रमाणातिक्रमाः॥२४॥ ऊर्ध्वाधस्तिर्यग्व्यतिक्रमक्षेत्रवृद्धिस्मृत्यन्तर्धानानि ॥ २५ ॥ आनयनप्रेष्यप्रयोगशब्दरूपानुपातपुद्गलक्षेपाः ॥ २६ ॥ कन्दर्पकौत्कुच्यमौखर्यासमीक्ष्याधिकरणोपभोगाधिकत्वानि ॥ २७ ॥ योगदुष्प्रणिधानानादरस्मृत्यनुपस्थापनानि ॥२८॥ अप्रत्यवेक्षिताप्रमाजितोत्सर्गादाननिक्षेपसंस्तारोएक्रमणानादरस्मृत्यनुपस्थापनानि ॥२९॥ सचित्तसम्बद्ध संमिश्राभिषवदुष्पक्वाहाराः॥३०॥ सचित्तनिक्षेप पिधानपरव्यपदेशमात्सर्यकालातिक्रमाः ॥३१॥ जीवितमरणाशंसामित्रानुरागसुखानुबन्धनिदान करणानि ॥ ३२॥ अनुग्रहार्थं स्वस्यातिसर्गो दानम् ॥ ३३ ॥ विधिद्रव्यदातृपात्र विशेषात्तद्विशेषः ॥ ३४ ॥
गमनं परिगृहीतापरिगृहीतागमन अनङ्गक्रीडातीव्र माभिनिवेशः करते है, ऐसा सिद्धसेन कहते है । इस प्रकार पदच्छेद करने वाला इत्वरिका
पद का अर्थ करना भी सिद्धसेन को मान्य नही है । १. - स्मृत्यन्तराधानानि-स० रा० श्लो० । २. किसी के मत से आलयन पाठ है, ऐसा सिद्धनेन कहते है । ३. -पुद्गलप्रक्षेपाः-भा० हा० । हा० वृत्ति मै तो पुदगलक्षेपा ही पाठ है।
सि-वृ० मे पुदालप्रक्षेप पाठ है । ४. - कोकुव्य-भा० हा० । ५. -करगोपभोगपरिभोगानर्थक्यानि-स० रा० श्लो' । ६. स्मृत्यनुपस्थानानि -स० रा० श्लो० । ७. अप्रत्युपेक्षि-हा० । ८. -दानसंस्तरो-स० रा० श्लो० । ९ -स्मृत्यनुपस्थानानि-स० रा० श्लो० । १०. -सम्बन्ध-स० रा० श्लो० । ११. -क्षेपापिधान-स० रा० श्लो० । १२. टि० में यह सूत्र नही है । १३. -निदानानि-स० रा० श्लो० ।
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अष्टमोऽध्यायः मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगा बन्धहेतवः ॥१॥ सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान पुद्गलानादत्ते ॥२॥ स बन्धः ॥३॥ प्रकृतिस्थित्यनुभावप्रदेशास्तद्विधयः॥४॥ आद्यो ज्ञानदर्शनावरणवेदनीयमोहनीयायुष्कनामगोत्रान्तरायाः ॥५॥ पञ्चनवद्वयष्टाविंशतिचतुर्विचत्वारिंशद्विपञ्चभेदी यथाक्रमम् ॥६॥ मत्यादीनाम् ॥७॥ चक्षुरचक्षुरवधिकेवलानां निद्रानिद्रानिद्राप्रचलाप्रचलाप्रचलास्त्यानगद्धिवेदनोयानि च ॥८॥ सदसवेद्ये ॥९॥ दर्शनचारित्रमोहनीयकषायनोकषायवेदनीयाख्यास्त्रिद्विषोडशनवभेदाः १. यह सूत्र स० रा० श्लो० में दूसरे सूत्र के अन्त में ही समाहित है। २ -त्यनुभव-स० रा० श्लो० ।। ३. -तीयायुर्नाम-स० रा० श्लो० । ४. -भेदो-रा०। ५ मतिश्रुतावधिमन.पर्ययकेवलानाम्-स. रा० श्लो० । किन्तु यह पाठ सिद्धसेन को अपार्थक मालूम होता है । अकलङ्क और विद्यानन्द श्वे० परंपरा
सम्त लघुपाठ की अपेक्षा उपर्युक्त पाठ को ही ठीक समझते हैं। ६. -स्त्यानद्धि-सि० । सि-भा० का पाठ 'स्त्यानगृद्धि' मालूम होता है
क्योकि सिद्धसेन कहते है-स्त्यानद्धिरिति वा पाठः । ७. -स्त्यानगृद्धयश्च-स० रा० श्लो० । सिद्धसेन ने वेदनीय पद का समर्थन
किया है। ८. दर्शनचारित्रमोहनीयाकषायकषायवेदनीयाख्यास्त्रिद्विनवषोडशमेदाः
सम्यक्त्वमिथ्यात्वतदुभयान्यकषायक्षायो हास्यरत्यरतिशोकभयजुगुप्सास्त्रीपुन्नपुंसकवेदा अनन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानसंज्वलनविकल्पाश्चैकशः क्रोधमानमायालोभाः-स० रा० श्लो० ।
- १३१ -
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- १३२ - सम्यक्त्वमिथ्यात्वतदुभयानि कषायनोकषायावनन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणसंज्वलनविकल्पाश्चैकशः क्रोधमानमायालोमा हास्यरत्यरतिशोकभयजुगुप्सास्त्रीपुंनपुंसकवेदाः ॥ १० ॥ नारकतैर्यग्योनमानुषदैवानि ॥ ११ ॥ गतिजातिशरीराङ्गोपाङ्गनिर्माणबन्धनसङ्घातसंस्थानसंहननस्पर्शरस - गन्धवर्णानुपूर्व्यगुरुलघूपधातपराधातातपोद्योतोच्छवासविहायोगतयः प्रत्येकशरीरत्रससुभगसुस्वरशुभसूक्ष्मपर्याप्तस्थिरादेययशांसि सेतराणि तीर्थकृत्त्वं च ॥१२॥ उच्चैःचैश्च ॥ १३॥ दानादीनाम् ॥ १४ ॥ आदितस्तिसृणामन्तरायस्य च त्रिंशत्सागरोपमकोटीकोटयः परा स्थितिः ॥ १५ ॥ सप्ततिर्मोहनीयस्य ॥१६॥ नामगोत्रयोविशतिः ॥१७॥ त्रयस्त्रिशत्सागरोपमाण्यायुष्कस्य ॥१८॥ अपरा द्वादशमुहर्ता वेदनीयस्य ॥ १९ ॥ नामगोत्रयोरष्टौ ॥२०॥ शेषाणामन्तर्मुहूर्तम् ॥२१॥ १. किसी को यह इतना लम्बा सूत्र नही जंचता, इसका पूर्वाचार्य ने जो उत्तर दिया है वही सिद्धसेन ने उद्धृत किया है
दुर्याख्यानो गरीयाश्च मोहो भवति बन्धनः ।
न तत्र लाघवादिष्ट सूत्रकारेण दुर्वचम् ।। २ -नुपूर्व्यागु-स० रा० श्लो० । सि - वृ० मे आनुपूर्व्य पाठ है । अन्य
के मत से सिद्धसेन ने आनुपूर्वी पाठ बताया है। दोनो के मत से सूत्र का भिन्न-भिन्न रूप भी उन्होंने दर्शाया है। ३. -देययशस्की (श की) तिसेतराणि तीर्थकरत्व च-स० रा० श्लो० । ४. दानलाभभोगोपभोगवीर्याणाम् स० रा० श्लो० । ५ -विंशतिर्नामगोत्रयो -स. रा० श्लो० । ६. -ण्यायुष स० रा० श्लो० । ७. -मुहूर्ता-स० रा० श्लो० ।
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- १३३ - विपाकोऽनुभावः ॥ २२॥ स यथानाम ॥२३॥ ततश्च निर्जरा ॥२४॥ नामप्रत्ययाः सर्वतो योगविशेषात् सूक्ष्मैकक्षेत्रावगाढेस्थिताः सर्वात्मप्रदेशेष्वनन्तानन्तप्रदेशाः ॥ २५ ॥ सद्वद्यसम्यक्त्वहास्यरतिपुरुषवेदशुभायुर्नामगोत्राणि पुण्यम् ॥ २६ ॥
१. -नुभवः-स० रा० श्लो० । २. -वगाहस्थि-स० रा० ३लो० । ३. देखें-विवेचन, पृ० २०५, टि०१ । इसके स्थान पर स० रा० श्लो० __ में दो सूत्र है-सद्वेद्यशुभायुर्नामगोत्राणि पुण्यम् तथा अतोऽन्यत् पापम् ।
दूसरे सूत्र को अन्य टीकाकारों ने भाष्य-अंश माना है।
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नवमोऽध्यायः आस्रवनिरोधः संवरः ॥१॥ स गुप्तिसमितिधर्मानुप्रेक्षापरीषहजयचारित्रैः ॥२॥ तपसा निर्जरा च ॥३॥ सम्यग्योगनिग्रहो गुप्तिः॥४॥ ईर्याभाषणादाननिक्षेपोत्सर्गाः समितयः॥५॥ उत्तमः क्षमामार्दवार्जवशौचसत्यसंयमतपस्त्यागाकिञ्चन्यब्रह्मचर्याणि धर्मः॥६॥ अनित्याशरणसंसारैकत्वान्यत्वाशुचित्वानवसंवरनिर्जरालोकबोधिदुर्लभधर्मस्वाख्यातत्त्वानुचिन्तनमनुप्रेक्षाः ॥७॥ मार्गाऽच्यवननिर्जरार्थं परिसोव्याः परीषहाः॥८॥ क्षुत्पिपासाशीतोष्णदंशमशकनाग्न्यारतिस्त्रीचर्यानिषद्याशय्याक्रोशवधयाचनाऽलाभरोगतृणस्पर्शमलसत्कारपुरस्कारप्रज्ञाज्ञानोदर्शनानि ॥९॥ सूक्ष्मसंम्परायच्छद्मस्थवीतरागयोश्चतुर्दश ॥ १० ॥ एकादश जिने ॥११॥ बादरसम्पराये सर्वे ॥१२॥ ज्ञानावरणे प्रज्ञाज्ञाने ॥ १३ ॥
१. उत्तमक्ष-स० रा० श्लो० । २. -शुच्यास्रव-स० रा० श्लो० । ३. अपरे पठन्ति अनुप्रेक्षा इति अनुप्रेक्षितव्या इत्यर्थः । अपरे अनुप्रेक्षा
शब्दमेकवचनान्तमधीयते ।-सि-वृ० । ४. देखें-विवेचन, पृ० २१३, टि० १ । ५. -प्रज्ञाज्ञानसम्यक्त्वानि-हा० । ६. -साम्पराय-स० रा० श्लो० । ७. देखें-विवेचन, पृ० २१६, टि० १ । ८. देखें-विवेचन, पृ० २१६, टि० २ ।
- १३४ -
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- १३५ - दर्शनमोहान्तराययोरदर्शनालाभौ ॥ १४ ॥ चारित्रमोहे नाग्न्यारतिस्त्रीनिषद्याक्रोशयाचनासत्कारपुरस्काराः॥१५॥ वेदनीये शेषाः ॥ १६ ॥ एकादयो भाज्या युगपदैकोनविंशतः ॥ १७॥ सामायिकच्छेदोपस्थाप्येपरिहारविशुद्धिसूक्ष्मसम्पराययथाख्यातानि चारित्रम् ॥ १८॥ अनशनावमौदर्यवृत्तिपरिसंख्यानरसपरित्यागविविक्तशय्यासनकायक्लेशा बाह्यं तपः ॥१९॥ प्रायश्चित्तविनयवैयावृत्त्यस्वाध्यायव्युत्सर्गध्यानान्युत्तरम् ॥२०॥ नवचतुर्दशपञ्चद्विभेदं यथाक्रमं प्रारध्यानात् ॥२१॥ आलोचनप्रतिक्रमणतदुभयविवेकव्युत्सर्गतपश्छेदपरिहारोपस्थापनानि ॥२२॥ ज्ञानदर्शनचारित्रोपचाराः॥२३॥ आचार्योपाध्यायतपस्विशक्षकग्लानगणकुलसङ्घसाधुसंमनोज्ञानाम् ॥२४॥ वाचनाप्रच्छनानुप्रेक्षाम्नायधर्मोपदेशाः ॥ २५ ॥ बाह्याभ्यन्तरोपध्योः ॥ २६ ॥
१. -देकान्नविशते:-हा० । -युगपदेकस्मिन्नैकाविशते.-स० । युगपदेक
स्मिन्नेकोनविंशते:-रा० श्लो० । २. -पस्थापनापरि- स० रा० श्लो० । ३. सूक्ष्मसाम्पराययथाख्यातमिति--स० रा० श्लो०। राजवातिककार
को प्रथाख्यात पाठ इष्ट मालूम होता है क्योकि उन्होने ययाख्यात को विकल्प मे रखा है । सिद्धसेन को भी प्रथाख्यात पाठ इष्ट है ।
देखें-विवेचन, पृ० २१८ । ४. केचित् विच्छिन्नपदमेव सूत्रमधीयते-सि-वृ० । ५. -मोदर्य-स० रा० श्लो० । ६, -द्वि भेदा-स० श्लो० । ७. -स्थापनाः-स० रा० श्लो० । ८. - शैक्षग्ला-स० । शैक्ष्यग्ला-रा० श्लो० । ९. -धुमनोज्ञानाम्-स० रा० श्लो० ।
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- १३६ - उत्तमसंहननस्यैकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानम् ॥ २७ ॥ आमुहूर्तात् ॥२८॥ आर्तरौद्रधर्मशुक्लानि ॥२९॥ परे मोक्षहेतू ॥३०॥ आर्तममनोज्ञानां सम्प्रयोगे तद्विप्रयोगाय स्मृतिसमन्वाहारः ॥ ३१॥ वेदनायाश्च । ३२॥ विपरीतं मनोज्ञानाम् ॥ ३३ ॥ निदानं च ॥ ३४॥ तदविरतदेशविरतप्रमत्तसंयतानाम् ॥ ३५ ॥ हिंसाऽनृतस्तेयविषयसंरक्षणेभ्यो रौद्रमविरतदेशविरतयोः ॥ ३६ ॥ आज्ञाऽपायवियाकसंस्थानविचयाय धर्ममप्रमत्तसंयतस्य ॥ ३७॥ उपशान्तक्षीणकषाययोश्च ॥ ३८ ॥ शुक्ले चाद्ये पूर्वविदः ॥ ३९ ॥
१. स० रा० श्लो० मे ध्यानमान्तमुहूर्तात् है, अतः २८वा सूत्र उनमे ___ अलग नहीं है । देखें-विवेचन, पृ० २२२, टि० २ । २. -धयं-स० रा० श्लो० । ३. -नोज्ञस्य-स० रा० श्लो० । ४. यह सूत्र स० रा० श्लो० मे विपरीतं मनोज्ञानाम के बाद है अर्थात्
उनके मतानुसार यह ध्यान का द्वितीय नही, तृतीय भेद है । ५. मनोज्ञस्य • स० रा० श्लो० । ६. -धर्म्यम-हा० । -धर्म्यम्-स० रा० श्लो० । दिगम्बर सूत्रपाठ मे स्वामी
का विधान करनेवाला अप्रमत्तसंयतस्य अंश नही है। इतना ही नही, बल्कि इसके बाद का उपशान्तक्षीण सूत्र भी नही है। स्वामी का विधान सर्वार्थसिद्धि मे है। उसे लक्ष्य मे रखकर अकलंक ने श्वे० परंपरासम्मत सूत्रपाठ विषयक स्वामी के विधान का खण्डन भी किया है। उसी का अनुगमन विद्यानन्द ने भी किया है। देखें-विवेचन,
पृ० २२६-२७ । ७. देखें -विवेचन, पृ० २२७, टि० १। पूर्वविदः अंश भा० हा० मे न
तो इस सूत्र के अंश के रूप मे है और न अलग सूत्र के रूप में। सि० मे अलग सूत्र के रूप मे है, लेकिन टीकाकार की दृष्टि मे यह भिन्न नही है। दिगम्बर टीकाओं में इसी सूत्र के अंश के रूप मे है ।
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- १३७ -
परे केवलिनः ॥ ४० ॥ पृथक्त्वैकत्ववितर्कसूक्ष्म क्रियाप्रतिपातिव्युपरतक्रियानिवृत्तीनि ॥४१॥ तत्र्येककाययोगायोगानाम् ॥४२॥ एकाश्रये सवितर्के पूर्वे ॥४३॥ अविचारं द्वितीयम् ॥ ४४ ॥ वितर्कः श्रुतम् ॥ ४५ ॥ विचारोऽर्थव्यञ्जनयोगसङ्क्रान्तिः ॥४६॥ सम्यग्दृष्टिश्रावकविरतानन्तवियोजकदर्शनमोहक्षपकोपशमकोपशान्तमोहक्षपकक्षीणमोहजिनाः क्रमशोऽसंख्येयगुणनिर्जराः ॥४७॥ पुलाकबकुशकुशीलनिर्ग्रन्थस्नातका निर्ग्रन्थाः॥४८॥ संयमश्रुतप्रतिसेवनातीर्थलिङ्गलेश्योपपातस्थानविकल्पतः साध्याः ॥४९॥
१. निवर्तीनि हा० सि०; स० रा० श्लो० । स० की प्रत्यन्तर का पाठ
निवृत्तीनि भी है। ,२, -तर्कविचारे पूर्वे -स० । -तकवीचारे पूर्वे-रा० श्लो० । ३. संपादक की भ्रान्ति से यह सूत्र सि० मे अलग नहीं है।
रा० और श्लो० मे अवीचारं पाठ है । ४. -पादस्था -स० रा० श्लो० ।
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दशमोऽध्यायः मोहक्षयाज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षयाच्च केवलम् ॥१॥ बन्धहेत्वभावनिर्जराभ्याम् ॥२॥ कृत्स्नकर्मक्षयो मोक्षः ॥३॥
औपशमिकादिभव्यत्वाभावाच्चान्यत्र केवलसम्यक्त्वज्ञानदर्शनसिद्धत्वेभ्यः॥४॥ तदनन्तरमूवं गच्छत्यालोकान्तात् ॥५॥ पूर्वप्रयोगादसङ्गत्वाबन्धच्छेदात्तथागतिपरिणामाच्च तद्गतिः॥६॥ क्षेत्रकालगतिलिङ्गतीर्थचारित्रप्रत्येकबुद्धबोधितज्ञानावगाहनान्तरसङ्ख्याल्पबहुत्वतः साध्याः॥७॥
१. -भ्यां कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षो मोक्षः-स० रा० श्लो० । २. इसके स्थान पर स० रा० श्लो० में औपशमिकादिभव्यत्वानां च और
अन्यत्र केवलसम्यक्त्वज्ञानदर्शनसिद्धत्वेभ्यः ये दो सूत्र है। ३. तद्गतिः पद स० रा० श्लो० में नहीं है और इस सूत्र के बाद उनमें
आविद्धकुलालचक्रवद्व्यपगतलेपालाबुवदेरण्डबीजवदग्निशिखावच्च और धर्मास्तिकायाभावात् ये दो सूत्र और है जिनका मन्तव्य भाष्य मे ही आ जाता है । टि० में इसके बाद धर्मास्तिकायाभावात् सूत्र है।
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विवेचन
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:१ः
ज्ञान
संसार में अनन्त प्राणी है और वे सभी सुख के अभिलाषी है। यद्यपि सब की सुख की कल्पना एक सी नही है तथापि विकास की न्यूनाधिकता के अनुसार संक्षेप में प्राणियों के तथा उनके सुख के दो वर्ग किये जा सकते है । पहले वर्ग मे अल्प विकासवाले ऐसे प्राणी आते है जिनके सुख की कल्पना बाह्य साधनों तक ही सीमित है। दूसरे वर्ग में अधिक विकासवाले ऐसे प्राणी आते है जो बाह्य अर्थात् भौतिक साधनों की प्राप्ति मे सुख न मानकर आध्यात्मिक गुणों की प्राप्ति में सुख मानते है। दोनों वर्गों के माने हुए सुख में यही अन्तर है कि पहला सुख पराधीन है और दूसरा स्वाधीन । पराधीन सुख को काम और स्वाधीन सुख को मोक्ष कहते है । काम और मोक्ष-दो ही पुरुषार्थ है, क्योंकि उनके अतिरिक्त और कोई वस्तु प्राणिवर्ग के लिए मुख्य साध्य नहीं है । पुरुषार्थो मे अर्थ और धर्म की गणना मुख्य साध्यरूप से नही किन्तु काम और मोक्ष के साधन के रूप में है। अर्थ काम का और धर्म मोक्ष का प्रधान साधन है। प्रस्तुत शास्त्र का मुख्य प्रतिपाद्य विषय मोक्ष है। इसलिए उसी के साधनभूत धर्म को तीन विभागों में विभक्त करके शास्त्रकार प्रथम सूत्र में उनका निर्देश करते है
सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः।१। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र-ये तीनों मिलकर मोक्ष के साधन हैं।
इस सूत्र मे मोक्ष के साधनों का मात्र नाम-निर्देश है। उनके स्वरूप और भेदों का वर्णन आगे विस्तार से किया जानेवाला है, फिर भी यहाँ संक्षेप में स्वरूपविषयक संकेत किया जा रहा है ।
मोक्ष का स्वरूप-बन्ध और बन्ध के कारणों के अभाव से होनेवाला परिपूर्ण आत्मिक विकास मोक्ष है अर्थात् ज्ञान और वीतरागभाव की पराकाष्ठा ही मोक्ष है।
-
१
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तत्त्वार्थसूत्र
[ १. १ साधनों का स्वरूप-जिस गुण अर्थात् शक्ति के विकास से तत्त्व अर्थात् सत्य की प्रतीति हो, अथवा जिससे हेय (छोड़ने योग्य ) एव उपादेय ( ग्रहण करने योग्य ) तत्त्व के यथार्थ विवेक की अभिरुचि हो वह सम्यग्दर्शन है। नय और प्रमाण' से होनेवाला जीव आदि तत्त्वों का यथार्थ बोध सम्यग्ज्ञान है । सम्यग्ज्ञानपूर्वक काषायिक भाव अर्थात् रागद्वेष और योग की निवृत्ति से होनेवाला स्वरूप रमण सम्यक्चारित्र है।
साधनों का साहचर्य-जब उक्त तीनो साधन परिपूर्ण रूप मे प्राप्त होते है तभी सम्पूर्ण मोक्ष सम्भव है, अन्यथा नही । एक भी साधन के अपूर्ण रहने पर परिपूर्ण मोक्ष नहीं हो सकता। उदाहरणार्थ, सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान परिपूर्ण रूप में प्राप्त हो जाने पर भी सम्यक्चारित्र की अपूर्णता के कारण तेरहवें गुणस्थान में पूर्ण मोक्ष अर्थात् अशरीरसिद्धि या विदेहमुक्ति नही होती और चौदहवें गुणस्थान में शैलेशी-अवस्थारूप पूर्ण चारित्र के प्राप्त होते ही तीनो साधनो की परिपूर्णता से पूर्ण मोक्ष हो जाता है ।
साहचर्य-नियम-उक्त तीनों साधनो मे से पहले दो अर्थात् सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान अवश्य सहचारी होते है।
१. जो ज्ञान शब्द मे उतारा जाता है अर्थात् जिसमे उद्देश्य और विधेय रूप से वस्तु भासित होती है वह ज्ञान 'नय' है और जिसमे उद्देश्य-विधेय के विभाग के बिना ही अर्थात् अविभक्त वस्तु का सम्पूर्ण या असम्पूर्ण यथार्थ भान हो वह ज्ञान 'प्रमाण' है । विशेष स्पष्टीकरण के लिए देखे-अध्याय १, सूत्र ६; न्यायावतार, इलोक २६-३० का गुजराती अनुवाद ।
२. योग अर्थात् मानसिक, वाचिक और कायिक क्रिया ।
३. हिंसादि दोषो का त्याग और अहिंसादि महाव्रतों का अनुष्ठान सम्यकचारित्र कहलाता है क्योकि उसके द्वारा रागद्वेष की निवृत्ति की जाती है एवं इससे दोषो का त्याग और महाव्रतो का पालन स्वतः सिद्ध होता है।
४. यद्यपि तेरहवें गुणस्थान मे वीतरागभावरूप चारित्र तो पूर्ण ही है तथापि यहाँ वीतरागता और अयोगता-इन दोनों को पूर्ण चारित्र मानकर ही अपूर्णता कही गई है। ऐसा पूर्ण चारित्र चौदहवे गुणस्थान मे प्राप्त होता है और तुरन्त ही अशरीरसिद्धि होती है।
५. आत्मा की एक ऐसी अवस्था जिसमे ध्यान की पराकाष्ठा के कारण मेरुसदृश निप्रकम्पता व निश्चलता आती है, शैलेशी अवस्था है। विशेष स्पष्टीकरण के लिए देखेंहिन्दी दूसरा कर्मग्रन्थ, पृष्ठ ३० ।
६. एक ऐसा भी पक्ष है जो दर्शन और ज्ञान के अवश्यम्भावी साहचर्य को न मानकर वैकल्पिक साहचर्य को मानता है। उसके मतानुसार कभी दर्शनकाल मे ज्ञान नही भी
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मोक्ष और उसके साधन
जैसे सूर्य की उष्णता और प्रकाश एक-दूसरे के बिना नही रह सकते, वैसे ही. सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान एक-दूसरे के बिना नही रहते, पर सम्यकचारित्र के. साथ उनका साहचर्य अवश्यम्भावी नहीं है, क्योंकि सम्यकचारित्र के बिना भी कुछ काल तक सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान रहते है। फिर भी उत्क्रान्ति (विकास) के क्रमानुसार सम्यक्चारित्र का यह नियम है कि जब वह प्राप्त होता है तब उसके पूर्ववर्ती सम्यग्दर्शन आदि दो साधन अवश्य होते है ।
प्रश्न-यदि आत्मिक गुणों का विकास ही मोक्ष है और सम्यग्दर्शन आदि उसके साधन भी आत्मा के विशिष्ट गुणो का विकास ही है, तो फिर मोक्ष और उसके साधन मे क्या अन्तर हुआ ?
उत्तर-कुछ नही।
प्रश्न-यदि अन्तर नही है तो मोक्ष साध्य और सम्यग्दर्शन आदि रत्नत्रय उसके साधन--यह साध्य-साधनभाव कैसे ? क्योकि साध्य-साधनसम्बन्ध भिन्न वस्तुओं मे देखा जाता है।
उत्तर-साधक-अवस्था की अपेक्षा से मोक्ष और रत्नत्रय का साध्य-साधनभाव कहा गया है, सिद्ध-अवस्था की अपेक्षा से नही, क्योंकि साधक का साध्य परिपूर्ण दर्शनादि रत्नत्रयरूप मोक्ष होता है और उसकी प्राप्ति रत्नत्रय के क्रमिक विकास से ही होतो है । यह शास्त्र साधक के लिए है, सिद्ध के लिए नही । अतः इसमें साधक के लिए उपयोगी साध्य-साधन के भेद का ही कथन है।
प्रश्न-संसार मे तो धन-कलत्र-पुत्रादि साधनों से सुख-प्राप्ति प्रत्यक्ष देखी जाती है, फिर उसे छोडकर मोक्ष के परोक्ष सुख का उपदेश क्यों ?
उत्तर-मोक्ष का उपदेश इसलिए है कि उसमे सच्चा सुख मिलता है। संसार में जो सुख मिलता है वह सच्चा सुख नही, सुखाभास है ।
प्रश्न-मोक्ष में सच्चा सुख और संसार में सुखाभास कैसे है ? उत्तर-सांसारिक सुख इच्छा की पूर्ति से होता है । इच्छा का स्वभाव है
होता । तात्पर्य यह है कि सम्यक्त्व प्राप्त होने पर भी देव-नारक-तिर्यञ्च को तथा कुछ मनुष्यों को विशिष्ट श्रुतज्ञान अर्थात् आचाराङ्गादि अङ्गप्रविष्ट-विषयक ज्ञान नहीं होता। इस मत के अनुसार दर्शन के समय ज्ञान न पाने का मतलब विशिष्ट श्रुतज्ञान न पाने से है। परन्तु दर्शन और ज्ञान को अवश्य सहचारो माननेवाले पक्ष का आशय यह है कि दर्शन-प्राप्ति के पहले जीव मे जो मति आदि अज्ञान होता है वहीं सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति या मिथ्यादर्शन की निवृत्ति से सम्यक् रूप में परिणत हो जाता है और वह मति आदि लान कहलाता है। इस मत के अनुसार जो और जितना विशेष बोध सम्यक्त्व-प्राप्ति-काल मे हो वही सम्यग्ज्ञान है, विशिष्ट श्रुतमात्र नही ।
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तत्त्वार्थ सूत्र
[ १. २-३ कि एक इच्छा पूरी होते-न-होते दूसरी सैकडो इच्छाएँ उत्पन्न हो जाती है । उन सब इच्छाओ की तृप्ति सम्भव नही, अगर हो भी तो फिर तब तक हजारो इच्छाएँ और पैदा हो जाती है जिनका पूर्ण होना सम्भव नहीं । अतएव संसार में इच्छापूर्तिजन्य सुख के पलडे से अपूर्ण इच्छाजन्य दुख का पलड़ा भारी ही रहता है । इसीलिए उसमे सुखाभास कहा गया है । मोक्ष की स्थिति ऐसी है कि उसमें इच्छाओ का ही अभाव हो जाता है और स्वाभाविक संतोष प्रकट होता है । इसलिए उसमे सतोषजन्य सुख ही सुख है । यही सच्चा सुख है । १ ।
सम्यग्दर्शन का लक्षण
तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् । २ ।
यथार्थ रूप से पदार्थो का निश्चय करने की रुचि सम्यग्दर्शन है । सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति के हेतु तन्निसर्गादधिगमाद्वा । ३ ।
वह ( सम्यग्दर्शन ) निसर्ग अर्थात् परिणाम मात्र से अथवा अधिगम अर्थात् उपदेशादि वाह्य निमित्त से उत्पन्न होता है ।
जगत् के पदार्थो को यथार्थ रूप से जानने की रुचि सासारिक और आध्यास्मिक — दोनों प्रकार की महत्त्वाकाक्षा से होती है । धन, प्रतिष्ठा आदि सासारिक वासना के कारण जो तत्त्व - जिज्ञासा होती है वह सम्यग्दर्शन नही है, क्योंकि उसका परिणाम मोक्ष नही, संसार होता है । परन्तु तत्त्वनिश्चय की जो रुचि मात्र आत्मिक तृप्ति के लिए, आध्यात्मिक विकास के लिए होती है वही सम्यग्दर्शन है ।
निश्चय और व्यवहार सम्यक्त्व - - आध्यात्मिक विकास से उत्पन्न ज्ञेयमात्र को तात्त्विक रूप मे जानने की, हेय को त्यागने की और उपादेय को ग्रहण करने की रुचि के रूप में एक प्रकार का जो आत्मिक परिणाम है वही निश्चय सम्यक्त्व है । उस रुचि से होनेवाली धर्मतत्त्वनिष्ठा व्यवहार सम्यक्त्व है |
सम्यक्त्व के लिङ्ग - सम्यग्दर्शन की पहचान करानेवाले लिग पाँच हैप्रशम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा और आस्तिक्य । १. तत्त्वो के असत् पक्षपात से होनेवाले कदाग्रह आदि दोषो का उपशम प्रशम है । २. सासारिक बन्धनों का भय सवेग है | ३. विषयों में आसक्ति का कम होना निर्वेद है । ४. दु.खी प्राणियों का दुःख दूर करने की इच्छा अनुकम्पा है । ५. आत्मा आदि परोक्ष किन्तु युक्तिप्रमाण से सिद्ध पदार्थो का स्वीकार आस्तिक्य है ।
हेतुभेद - सम्यग्दर्शन के योग्य आध्यात्मिक उत्क्रान्ति होते ही सम्यग्दर्शन का
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१. ४]
तात्त्विक अर्थो का नाम-निर्देश आविर्भाव होता है । पर किसी आत्मा को उसके आविर्भाव में बाह्य निमित्त की अपेक्षा रहती है और किसी को नही। एक व्यक्ति शिक्षक आदि की मदद से शिल्प आदि कोई कला सीख लेता है और दूसरा बिना किसी की मदद के अपने-आप सीख लेता है। आन्तरिक कारण की समानता होने पर भी बाह्य निमित्त की अपेक्षा और अनपेक्षा को लेकर प्रस्तुत सूत्र में सभ्यग्दर्शन के निसर्ग-सम्यग्दर्शन और अधिगम-सम्यग्दर्शन ये दो भेद किये गये है। बाह्य निमित्त भी अनेक प्रकार के होते है। कोई प्रतिमा आदि धार्मिक वस्तु के अवलोकन से सम्यग्दर्शन प्राप्त करता है, कोई गुरु का उपदेश सुनकर, कोई शास्त्र पढ-सुनकर और कोई सत्संग के द्वारा।
उत्पत्ति-क्रम --अनादिकालीन संसार-प्रवाह में तरह-तरह के दु.खों का अनुभव करते-करते योग्य आत्मा मे कभी अपूर्व परिणामशुद्धि हो जाती है । इस परिणामशुद्धि को अपूर्वकरण कहते है । अपूर्वकरण से रागद्वेष की वह तीव्रता मिट जाती है जो तात्त्विक पक्षपात ( सत्य का आग्रह ) मे बाधक है। रागद्वेष की तीव्रता मिटते ही आत्मा सत्य के लिए जागरूक बन जाती है। यह आध्यात्मिक जागरण ही सम्यक्त्व है । २-३ ।
तात्त्विक अर्थो का नाम-निर्देश जीवाजीवात्रवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्त्वम् । ४। जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष-ये तत्त्व हैं ।
बहुत-से ग्रन्थों में पुण्य और पाप को मिलाकर नौ तत्त्व कहे गये है, परन्तु यहाँ पुण्य और पाप दोनो का आस्रव या बन्धतत्त्व मे समावेश करके सात तत्त्व ही कहे गये है । अन्तर्भाव को इस प्रकार समझना चाहिए-पुण्य-पाप दोनों द्रव्य और भाव रूप से दो-दो प्रकार के है । शुभ कर्मपुद्गल द्रव्यपुण्य और अशुभ कर्मपुद्गल द्रव्यपाप है। इसलिए द्रव्यरूप पुण्य तथा पाप बन्धतत्त्व मे अन्तर्भूत है, क्योंकि आत्मसम्बद्ध कर्मपुद्गल या आत्मा और कर्मपुद्गल का सम्बन्ध-विशेष ही द्रव्य-बन्ध तत्त्व है । द्रव्य-पुण्य का कारण शुभ अध्यवसाय जो भावपुण्य है और द्रव्यपाप का कारण अशुभ अध्यवसाय जो भावपाप है-दोनों ही बन्धतत्त्व में
१. उत्पत्ति-क्रम की स्पष्टता के लिए देखिए-हिन्दो दूसरा कर्मग्रन्थ, पृ० ७ तथा चौथा कर्मग्रन्थ, प्रस्तावना, पृ० १३ ।
२. बौद्धदर्शन मे जो दु.ख, समुदय, निरोध और मार्ग ये चार आर्यसत्य है, सांख्य तथा योगदर्शन मे जो हेय, हेयहेतु, हान और हानोपाय यह चतुव्यूह है, जिसे न्यायदर्शन में अर्थपद कहा है, उनके स्थान मे आस्रव से लेकर मोक्ष तक के पाँच तत्त्व जैनदर्शन मे प्रसिद्ध है।
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तत्त्वार्थसूत्र
अन्तर्भूत है, क्योकि वन्ध का कारणभूत कापायिक अध्यवसाय ( परिणाम ) हो भावबन्ध है।
प्रश्न-आस्रव से लेकर मोक्ष तक के पांच तत्त्व न तो जीव-अजीव की तरह स्वतंत्र है और न अनादि-अनन्त । वे तो यथासम्भव जीव या अजीव की अवस्थाविशेष ही है । अत. उन्हे जीव-अजीव के साथ तत्त्वरूप से क्यों गिना गया ?
उत्तर-वस्तुस्थिति यही है अर्थात् यहाँ तत्त्व शब्द का अर्थ अनादि-अनन्त और स्वतंत्र भाव नहीं है किन्तु मोक्ष-प्राप्ति में उपयोगी होनेवाला ज्ञेय भाव है । प्रस्तुत शास्त्र का मुख्य प्रतिपाद्य विषय मोक्ष होने से मोक्ष के जिज्ञासुओं के लिए जिन वस्तुओं का ज्ञान अत्यन्त आवश्यक है वे ही वस्तुएँ यहाँ तत्त्वरूप मे वर्णित है। मोक्ष तो मुख्य साध्य ही है, इसलिए उसको तथा उसके कारण को जाने बिना मोक्षमार्ग में मुमुक्षु की प्रवृत्ति हो ही नहीं सकती। इसी तरह यदि मुमुक्षु मोक्ष के विरोधी तत्त्व का और उसके कारण का स्वरूप न जाने तो भी वह अपने पथ मे अस्खलित प्रवृत्ति नही कर सकता। मुमुक्षु को सबसे पहले यह जान लेना जरूरी है कि अगर मैं मोक्ष का अधिकारी हूँ लो मुझमें पाया जानेवाला सामान्य स्वरूप किस-किसमे है और किसमे नही है। इसी ज्ञान की पूर्ति के लिए सात तत्त्वों का कथन है। जीव-तत्त्व के कथन का अर्थ है मोक्ष का अधिकारी । अजीव-तत्त्व से यह सूचित किया गया कि जगत् मे एक ऐसा भी तत्त्व है जो जड होने से मोक्षमार्ग के उपदेश का अधिकारी नही है । बन्ध-तत्त्व से मोक्ष का विरोधी भाव और आस्रव-तत्त्व से उस विरोधी भाव का कारण निर्दिष्ट किया गया। सवर-तत्त्व से मोक्ष का कारण और निर्जरा-तत्त्व से मोक्ष का क्रम सूचित किया गया है । ४ ।
निक्षेपो का नामनिर्देश
नामस्थापनाद्रव्यभावतस्तन्न्यासः । ५ । नाम, स्थापना, द्रव्य और भावरूप से उनका अर्थात् सम्यग्दर्शन आदि और जीव आदि का न्यास अर्थात् निक्षेप या विभाग होता है।
समस्त व्यवहार या ज्ञान के लेन-देन का मुख्य साधन भाषा है । भाषा शब्दों से बनती है । एक ही शब्द प्रयोजन या प्रसंग के अनुसार अनेक अर्थो मे प्रयुक्त होता है । प्रत्येक शब्द के कम से कम चार अर्थ मिलते है । वे ही चार अर्थ उस शब्द के अर्थ-सामान्य के चार विभाग है । ये विभाग ही निक्षेप या न्यास कहलाते हैं । इनको जान लेने से वक्ता का तात्पर्य समझने मे सरलता होती है । इसीलिए प्रस्तुत सूत्र मे चार अर्थनिक्षेप बतलाये गये है जिससे यह पृथक्करण स्पष्ट रूप
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१. ५ ]
निक्षेपों का नामनिर्देश से हो सके कि मोक्ष-मार्गरूप से सम्यग्दर्शन आदि अर्थ और तत्त्वरूप से जीवाजीवादि अर्थ अमुक प्रकार का लेना चाहिए, दूसरे प्रकार का नहीं। वे चार निक्षेप ये है : १. जो अर्थ व्युत्पत्ति-सिद्ध नहीं है, मात्र माता, पिता या अन्य लोगों के संकेत से जाना जाता है वह नामनिक्षेप है; जैसे, एक ऐसा व्यक्ति जिसमे सेवक-योग्य कोई गुण नहीं है, पर किसी ने जिसका नाम सेवक रख दिया है। २. जो वस्तु असली वस्तु की प्रतिकृति, मूर्ति या चित्र हो अथवा जिसमे असली वस्तु का आरोप किया गया हो वह स्थापना-निक्षेप है; जैसे, किसी सेवक का चित्र या मूर्ति । ३. जो अर्थ भावनिक्षेप का पूर्वरूप या उत्तररूप हो अर्थात् उसकी पूर्व या उत्तर अवस्थारूप हो वह द्रव्यनिक्षेप है; जैसे, एक ऐसा व्यक्ति जो वर्तमान में सेवाकार्य नही करता, पर या तो वह सेवा कर चुका है या आगे करने वाला है । ४. जिस अर्थ में शब्द की व्युत्पत्ति या प्रवृत्ति-निमित्त ठीकठीक घटित हो वह भावनिक्षेप है; जैसे, एक ऐसा व्यक्ति जो सेवक योग्य कार्य करता है।
सम्यग्दर्शन आदि मोक्षमार्ग के और जीव-अजीवादि तत्त्वों के भी चार-चार निक्षेप हो सकते है । परन्तु प्रस्तुत प्रकरण में वे भावरूप ही ग्राह्य है । ५ ।
१. संक्षेप में नाम दो तरह के होते हैं-यौगिक और रूढ । रसोइया, सुनार इत्यादि यौगिक शब्द हैं । गाय, घोडा इत्यादि रूढ शब्द हैं। रसोई बनानेवाला रसोइया
और सुवर्ण का काम करनेवाला सुनार । यहाँ रसोई और सुवर्ण का काम करने की क्रिया ही रसोइया और सुनार शब्दों की व्युत्पत्ति का निमित्त है। अर्थात् ये शब्द ऐसी क्रिया के आश्रय से ही बने है और इसीलिए वह क्रिया ऐसे शब्दों की व्युत्पत्ति का निमित्त कही जाती है। यदि यही बात संस्कृत शब्दों पर लागू करनी ही तो पाचक, कुम्भकार आदि शब्दो मे क्रमश. पाक-क्रिया और घट-निर्माण की क्रिया को व्युत्पत्तिनिमित्त समझना चाहिए। सारांश यह है कि यौगिक शब्दों मे व्युत्पत्ति का निमित्त ही उनकी प्रवृति का निमित्त बनता है। लेकिन रूढ शब्द व्युत्पत्ति के आधार पर व्यवहृत नहीं होते, रूढि के अनुसार उनका अर्थ होता है। गाय (गो), घोड़ा ( अश्व ) आदि शब्दो की कोई खास व्युत्पत्ति नहीं होती, लेकिन यदि कोई किसी प्रकार कर ले तो भी अन्न मे उसका व्यवहार तो रूढि के अनुसार ही होता है, व्युत्पत्ति के अनुसार नहीं । अमुक-अमुक प्रकार की आकृति-जाति ही गाय, घोडा आदि रूढ शब्दो के व्यवहार का निभित है। अतः उस आकृति-जाति को वैसे शब्दो का व्युत्पत्ति-निमित नहीं लेकिन प्रवृत्ति निमित्त ही कहा जाता है ।।
जहाँ यौगिक शब्द (विशेषणरूप) हो वहाँ व्युत्पत्ति-निमित्तवाले अर्थ को भावनिक्षेप और जहाँ रूढ शब्द ( जाति-नाम) हो वहाँ प्रवृत्ति-निमित्तवाले अर्थ को भावनिक्षेप समझना चाहिए।
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तत्त्वार्थसूत्र
[ १. ६-८ तत्त्वों को जानने के उपाय
प्रमाणनयैरधिगमः।६। प्रमाण और नयों से पदार्थों का ज्ञान होता है।
नय और प्रमारण का अन्तर-नय और प्रमाण दोनो ही ज्ञान है, परन्तु दोनों मे अन्तर यह है कि नय वस्तु के एक अंश का बोध कराता है और प्रमाण अनेक अंशों का । वस्तु मे अनेक धर्म होते है । किसी एक धर्म के द्वारा वस्तु का निश्चय करना, जैसे नित्यत्व-धर्म द्वारा 'आत्मा या प्रदीप आदि वस्तु नित्य है' ऐसा निश्चय करना नय है । अनेक धर्मो द्वारा वस्तु का अनेक रूप से निश्चय करना, जैसे नित्यत्व, अनित्यत्व आदि धर्मोद्वारा 'आत्मा या प्रदीप आदि वस्तु नित्यानित्य आदि अनेक रूप है' ऐसा निश्चय करना प्रमाण है। दूसरे शब्दों मे, नय प्रमाण का एक अंश मात्र है और प्रमाण अनेक नयों का समूह है, नय वस्तु को एक दृष्टि से ग्रहण करता है और प्रमाण अनेक दृष्टियों से । ६ ।
तत्त्वों के विस्तृत ज्ञान के लिए कुछ विचारणाद्वारो' का निर्देश निर्देशस्वामित्वसाधनाऽधिकरणस्थितिविधानतः।७।
सत्संख्याक्षेत्रस्पर्शनकालाऽन्तरभावाऽल्पबहुत्वैश्व । ८। निर्देश, स्वामित्व, साधन, अधिकरण, स्थिति और विधान से; तथा सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्प-बहत्व से सम्यग्दर्शन आदि विषयों का ज्ञान होता है।
कोई भी जिज्ञासु जब पहले-पहल विमान आदि किसी नई वस्तु को देखता या उसका नाम सुनता है तब उसकी जिज्ञासा-वृत्ति जाग उठती है और इससे वह उस अदृष्टपूर्व या अश्रुतपूर्व वस्तु के संबंध मे अनेक प्रश्न करने लगता है। वह उस वस्तु के स्वभाव, रूप-रंग, उसके मालिक, बनाने के उपाय, रखने का स्थान, उसके टिकाऊपन की अवधि, उसके प्रकार आदि के संबंध मे नानाविध प्रश्न करता है और उन प्रश्नों का उत्तर प्राप्त करके अपनी ज्ञानवृद्धि करता है। इसी तरह अन्तर्दृष्टि व्यक्ति भी मोक्षमार्ग को सुनकर या हेय-उपादेय
१. किसी भी वस्तु मे प्रवेश करने का मतलब है उसकी जानकारी प्राप्त करना और विचार करना । इसका मुख्य साधन उसके विषय मे विविध प्रश्न करना ही है। प्रश्नो का जितना स्पष्टीकरण मिले उतना ही उस वस्तु मे प्रवेश समझना चाहिए । अतः प्रश्न ही वस्तु में प्रवेश करने के अर्थात् विचारणा द्वारा उसकी तह तक पहुँचने के द्वार है। अतःविचारणा ( मीमांसा )-द्वार का मतलब हुआ प्रश्न । शास्त्रो मे उनको अनुयोगद्वार कहा गया है। अनुयोग अर्थात् व्याख्या या विवरण, उसके द्वार अर्थात् प्रश्न ।
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१. ६–८ ]
तत्त्वों को जानने के उपाय
आध्यात्मिक तत्त्व को सुनकर तत्सम्बन्धी विविध प्रश्नों के द्वारा अपना ज्ञान बढाता है । यही आशय प्रस्तुत दो सूत्रों में प्रकट किया गया है । निर्देश आदि सूत्रोक्त चौदह प्रश्नों को लेकर सम्यग्दर्शन पर संक्षेप में विचार किया जाता है ।
है, तथापि जहाँ
१. निर्देश ( तत्त्वरुचि ) – यह सम्यग्दर्शन का स्वरूप है । २ स्वामित्व ( अधिकारित्व ) - सम्यग्दर्शन का अधिकारी जीव ही है, अजीव नही, क्योकि वह जीव का ही गुण या पर्याय है । ३. साधन कारण ) - दर्शनमोहनीय कर्म का उपशम, क्षयोपशम और क्षय ये तीन सम्यग्दर्शन के अन्तरङ्ग कारण है । बहिरङ्ग कारण शास्त्रज्ञान, जातिस्मरण, प्रतिमादर्शन, सत्संग आदि अनेक है । ४. अधिकरण ( आधार ) -- सम्यग्दर्शन का आधार जीव ही है. क्योंकि वह उस का परिणाम होने के कारण उसो मे रहता है । सम्यग्दर्शन गुण है, इसलिए यद्यपि उसका स्वामी और अधिकरण अलग-अलग नही जीव आदि द्रव्य के स्वामी और अधिकरण का विचार करना हो वहाँ उन दोनों में भिन्नता भी पाई जाती है । जैसे, व्यवहारदृष्टि से देखने पर एक जीव का स्वामी कोई दूसरा जीव होगा, पर अधिकरण उसका कोई स्थान या शरीर ही कहा जायेगा । ५. स्थिति ( कालमर्यादा ) - सम्यग्दर्शन की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट स्थिति सादि-अनन्त है । तीनो प्रकार के सम्यक्त्व अमुक समय मे उत्पन्न होते है, इसलिए वे सादि अर्थात् पूर्वावधिवाले है । परन्तु उत्पन्न होकर भी औपशमिक और क्षायोपशमिक सम्यक्त्व कायम नही रहते, इसलिए वे दो तो सान्त अर्थात् उत्तर अवधिवाले भी है । पर क्षायिक सम्यक्त्व उत्पन्न होने के बाद नष्ट नही होता इसलिए वह अनन्त है । इसी अपेक्षा से सामान्यतया सम्यग्दर्शन को सादि- सान्त और सादि-अनन्त समझना चाहिए । ६ विधान ( प्रकार ) - सम्यक्त्व के औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिक ऐसे तीन प्रकार है ।
७. सत् ( सत्ता ) - यद्यपि सम्यक्त्व गुण सत्तारूप से सभी जीवो मे विद्यमान है, पर उसका आविर्भाव केवल भव्य जीवों में होता है, अभव्यो मे
८. संख्या ( गिनती ) – सम्यक्त्व की गिनती उसे प्राप्त करने वालों की संख्या पर निर्भर है । आज तक अनन्त जीवों ने सम्यक्त्व -लाभ किया है और आगे अनन्त जीव उसको प्राप्त करेंगे, इस दृष्टि से सम्यग्दर्शन संख्या मे अनन्त है । ९. क्षेत्र ( लोकाकाश ) -- सम्यग्दर्शन का क्षेत्र सम्पूर्ण लोकाकाश नहीं है किन्तु उसका असंख्यातवाँ भाग है । चाहे सम्यग्दर्शनी एक जीव को लेकर या अनन्त जीवों को लेकर विचार किया जाय तो भी सामान्य रूप से सम्यग्दर्शन का क्षेत्र लोक का असंख्यातवाँ भाग समझना चाहिए, क्योंकि सभी सम्यग्दर्शनवाले जीवों का
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तत्त्वार्थ सूत्र
[ १. ६-८
निवास क्षेत्र भी लोक का असंख्यातवां भाग ही है । फिर भी इतना अन्तर अवश्य होगा कि एक सम्यक्त्वी जीव के क्षेत्र की अपेक्षा अनन्त जीवों का क्षेत्र परिमाण मे बडा होगा, क्योंकि लोक का असख्यातवां भाग भी तरतमभाव से असंख्यात प्रकार का होता है । १०. स्पर्शन -- निवासस्थानरूप आकाश के चारों ओर के प्रदेशों को छूना स्पर्शन है । क्षेत्र मे केवल आधारभूत आकाश ही आता है । स्पर्शन मे आधार क्षेत्र के चारों तरफ के आधेय द्वारा स्पर्शित आकाश-प्रदेश भी आते है । यही क्षेत्र और स्पर्शन में अन्तर है । सम्यग्दर्शन का स्पर्शन-क्षेत्र भी लोक का असंख्यातवाँ भाग ही होता है, परन्तु यह भाग उसके क्षेत्र की अपेक्षा कुछ बड़ा होता है, क्योंकि इसमें क्षेत्रभूत आकाशपर्यन्त प्रदेश भी सम्मिलित है । ११. काल ( समय ) - एक जीव की अपेक्षा से सम्यग्दर्शन का काल सादि - सान्त या सादिअनन्त होता है, पर सब जीवों की अपेक्षा से अनादि-अनन्त समझना चाहिए, क्योंकि भूतकाल का कोई भी भाग ऐसा नही है कि जब सम्यक्त्वी बिलकुल न रहा हो । भविष्यत्काल के विषय में भी यही बात है अर्थात् अनादिकाल से सम्यग्दर्शन का आविर्भाव - क्रम जारी है जो अनन्तकाल तक चलता रहेगा ! १२ अन्तर ( विरहकाल ) - एक जीव को लेकर सम्यग्दर्शन का विरहकाल जघन्य अन्तर्मुहूर्त' और उत्कृष्ट अपार्धपुद्गलपरावर्त - जितना समझना चाहिए, क्योंकि एक बार सम्यक्त्व का वमन ( नाश ) हो जाने पर पुनः वह जल्दी से जल्दी अन्तर्मुहूर्त मे प्राप्त हो सकता है । ऐसा न हुआ तो भी अन्त में अपार्धपुद्गलपरावर्त के बाद अवश्य ही प्राप्त हो जाता है । परन्तु नाना जीवों की अपेक्षा से तो सम्यग्दर्शन का विरहकाल बिलकुल नही होता, क्योंकि नाना जीवो मे तो किसी-न-किसी को सम्यग्दर्शन होता ही रहता है । १३. भाव ( अवस्थाविशेष ) - - औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिक इन तीन अवस्थाओं मे सम्यक्त्व पाया जाता है । भाव सम्यक्त्व के आवरणभूत दर्शनमोहनीय कर्म के
१०
१. आवली से अधिक और मुहूर्त से न्यून काल अन्तर्मुहूर्त है । आव समय अधिक काल जघन्य अन्तर्मुहूर्त, मुहूर्त मे एक समय कम उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त और वीच का सब काल मध्यम अन्तर्मुहूर्त है । यह दिगम्बर परम्परा है । ( देखे - तिलोयपण्णत्त, ४.२८८; गो० जीवकांड, गा० ५७३ - ५१५ । ) श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार नौ समय का जघन्य अन्तर्मुहूर्त है। बाकी सब समान है ।
२. जीव पुद्गलों को ग्रहण करके उन्हें शरीर, भाषा, मन और श्वासोच्छ्वास के रूप मे परिणत करता है । किसी जीव को जगत् में विद्यमान समग्र पुद्गल - परमाणुओं को आहारक शरीर के सिवाय शेष सब शरीरों के रूप मे तथा भाषा, मन और श्वासोच्छ्वास के रूप में परिणत करके उन्हें छोड देने मे जितना काल लगता है उसे पुद्गलपरावर्त कहते हैं । इसमे कुछ ही काल कम हो तो उसे अपार्थपुद्गलपरावर्त कहते हैं ।
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१. ९ ]
सम्यग्ज्ञान के भेद
११
उपराम, क्षयोपशम और क्षय से उत्पन्न है । इन भावो से सम्यक्त्व की शुद्धि का तारतम्य जाना जा सकता है । औपशमिक की अपेक्षा क्षायोपशमिक और क्षायोपशमिक की अपेक्षा क्षायिक भाव वाला सम्यक्त्व उत्तरोत्तर विशुद्ध, विशुद्धतर होता है । उक्त तीन भावों के सिवाय दो भाव और भी है - औदयिक तथा पारिणामिक । इन भावो मे सम्यक्त्व नही होता । अर्थात् दर्शनमोहनीय को उदयावस्था मे सम्यक्त्व का आविर्भाव नही हो सकता । इसी तरह सम्यक्त्व अनादिकाल से जीवत्व के समान अनावृत अवस्था मे न पाये जाने के कारण पारिणामिक अर्थात् स्वाभाविक भी नही है । १४. अल्पबहुत्व ( न्यूनाधिकता ) - पूर्वोक्त तीन प्रकार के सम्यक्त्व मे औपशमिक सम्यक्त्वं सबसे अल्प है, क्योंकि ऐसे सम्यक्त्व वाले जीव अन्य प्रकार के सम्यक्त्व वालों से हमेशा थोड़े ही होते है । औपशमिक सम्यक्त्व से क्षायोपशमिक सम्यक्त्व असंख्यातगुणा और क्षायोपशमिक सम्यक्त्व से क्षायिक सम्यक्त्व अनन्तगुणा है । क्षायिक सम्यक्त्व के अनन्तगुणा होने का कारण यह है कि यह सम्यक्त्व समस्त मुक्त जीवों मे होता है और मुक्त जीव अनन्त हैं । ७-८ ।
सम्यग्ज्ञान के भेद
मतिश्रुताऽवधिमनः पर्यायकेवलानि ज्ञानम् । ९ ।
सम्यग्ज्ञान का लक्षण अपने
मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्याय और केवल —ये पाँच ज्ञान हैं । जैसे सूत्र में सम्यग्दर्शन का लक्षण बतलाया गया है वैसे नही । क्योकि सम्यग्दर्शन का लक्षण जान लेने से सम्यग्ज्ञान का आप ज्ञात किया जा सकता है । जीव कभी सम्यग्दर्शन- रहित तो होता है, पर ज्ञानरहित नही । किसी-न-किसी प्रकार का ज्ञान जीव मे अवश्य रहता है । वही ज्ञान सम्यक्त्व का आविर्भाव होते ही सम्यग्ज्ञान कहलाता है । सम्यग्ज्ञान और असम्यग्ज्ञान मे यही अन्तर है कि पहला सम्यक्त्व - सहचरित है और दूसरा सम्यक्त्वरहित अर्थात् मिथ्यात्व - सहचरित है ।
प्रश्न – सम्यक्त्व का ऐसा क्या प्रभाव है कि उसके अभाव में तो ज्ञान कितना ही अधिक और अभ्रान्त क्यों न हो, असभ्यग्ज्ञान या मिथ्याज्ञान कहलाता
१. यहाँ क्षायोपशमिक को औपशमिक की अपेक्षा जो शुद्ध कहा गया है वह परिणाम की अपेक्षा से नहीं, स्थिति को अपेक्षा से है। परिणाम की अपेक्षा से तो औपशमिक ही ज्यादा शुद्ध है । क्योकि क्षायोपशमिक सम्यक्त्व मे तो मिथ्यात्व का प्रदेशोदय हो सकता है किन्तु औपशमिक सम्यक्त्व के समय किसी तरह के मिथ्यात्वमोहनीय का उदय सम्भव नहीं । तथापि औपशमिक की अपेक्षा क्षायोपशमिक की स्थिति बहुत लंबी होती है। इसी अपेक्षा से इसे बिशुद्ध भी कह सकते है ।
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१२ तत्त्वार्थसूत्र
[ १. १०-१२ है और थोडा अस्पष्ट व भ्रमात्मक ज्ञान भी सम्यक्त्व के प्रकट होते ही सम्यग्ज्ञान हो जाता है ?
उत्तर-यह अध्यात्म-शास्त्र है। इसलिए सम्यग्ज्ञान और असम्यग्ज्ञान का विवेक आध्यात्मिक दृष्टि से किया जाता है, न्याय या प्रमाणशास्त्र की तरह विषय की दृष्टि से नही। न्यायशास्त्र मे जिस ज्ञान का विषय यथार्थ हो वही सम्यग्ज्ञानप्रमाण और जिसका विषय अयथार्थ हो वह असम्यग्ज्ञान-प्रमाणाभास कहलाता है। परन्तु इस आध्यात्मिक शास्त्र मे न्यायशास्त्रसम्मत सम्यग्ज्ञान-असम्यग्ज्ञान का वह विभाजन मान्य होने पर भी गौण है । यहाँ यही विभाजन मुख्य है कि जिस ज्ञान से आध्यात्मिक उत्क्रान्ति (विकास) हो वही सम्यग्ज्ञान है और जिससे संसार-वृद्धि या आध्यात्मिक पतन हो वही असम्यग्ज्ञान है । सम्भव है कि सामग्री की कमी के कारण सम्यक्त्वी जीव को कभी किसी विषय मे संशय भी हो, भ्रम भी हो, एवं ज्ञान भी अस्पष्ट हो; पर सत्यगवेषक और कदाग्रहरहित होने के कारण वह अपने से महान् , प्रामाणिक, विशेषदर्शी व्यक्ति के आश्रय से अपनी कमी को सुधार लेने के लिए सदैव उत्सुक रहता है, सुधार भी लेता है और अपने ज्ञान का उपयोग वासनापोषण में न कर मुख्यतया आध्यात्मिक विकास में ही करता है । सम्यक्त्वशून्य जीव का स्वभाव इससे विपरीत होता है । सामग्री की पूर्णता के कारण उसे निश्चयात्मक, अधिक और स्पष्ट ज्ञान होता है तथापि वह कदाग्रही प्रकृति के कारण घमंडी होकर किसी विशेषदर्शी के विचारो को भी तुच्छ समझता है और अन्त मे अपने ज्ञान का उपयोग आत्मिक प्रगति में न कर सासारिक महत्त्वाकाक्षा मे ही करता है । ९ ।
प्रमाण-चर्चा तत् प्रमाणे । १०। आद्ये परोक्षम् । ११ ।
प्रत्यक्षमन्यत् । १२ । वह अर्थात् पांचों प्रकार का ज्ञान दो प्रमाणरूप है। प्रथम दो ज्ञान परोक्ष प्रमाण हैं। शेष सब ( तीन ) ज्ञान प्रत्यक्ष प्रमाण है।
प्रमाण-विभाग–मति, श्रुत आदि ज्ञान के पाँचों प्रकार प्रत्यक्ष और परोक्ष इन दो प्रमाणों में विभक्त है ।
प्रमाण-लक्षण-प्रमाण का सामान्य लक्षण पहले बताया जा चुका है कि जो ज्ञान वस्तु को अनेकरूप से जानता है वह प्रमाण है। उसके विशेष लक्षण
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१३
१. १३ ]
मतिज्ञान के एकार्थक शब्द ये है-जो ज्ञान इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना ही केवल आत्मा को योग्यता से उत्पन्न होता है वह प्रत्यक्ष है, जो ज्ञान इन्द्रिय और मन की सहायता से उत्पन्न होता है वह परोक्ष है।
उक्त पाँच मे से पहले दो अर्थात् मतिज्ञान और श्रुतज्ञान परोक्ष-प्रमाण कहलाते है, क्योकि ये दोनों इन्द्रिय तथा मन की मदद से उत्पन्न होते है ।
अवधि, मन.पर्याय और केवल ये तीनों ज्ञान प्रत्यक्ष है, क्योकि ये इन्द्रिय तथा मन की मदद के बिना केवल आत्मा की योग्यता से उत्पन्न होते है ।।
न्यायशास्त्र मे प्रत्यक्ष और परोक्ष का लक्षण भिन्न प्रकार से किया गया है। उसमे इन्द्रियजन्य ज्ञान को प्रत्यक्ष और लिङ्ग ( हेतु ) तथा शब्दादिजन्य ज्ञान को परोक्ष कहा गया है; परन्तु वह लक्षण यहाँ स्वीकृत नही है। यहाँ तो आत्ममात्र सापेक्ष ज्ञान प्रत्यक्ष रूप से और इन्द्रिय तथा मन की अपेक्षा रखनेवाला ज्ञान परोक्ष रूप से इष्ट है। मति और श्रुत दोनो ज्ञान इन्द्रिय और मन की अपेक्षा रखनेवाले होने से परोक्ष समझने चाहिए और अवधि आदि तीनों ज्ञान इन्द्रिय तथा मन की मदद के बिना आत्मिक योग्यता से उत्पन्न होने से प्रत्यक्ष । इन्द्रिय तथा मनोजन्य मतिज्ञान को कही-कही पूर्वोक्त न्यायशास्त्र के लक्षणानुसार लौकिक दृष्टि की अपेक्षा से प्रत्यक्ष कहा गया है।' १०-१२ ।
मतिज्ञान के एकार्थक शब्द मतिः स्मृतिः संज्ञा चिन्ताऽभिनिबोध इत्यनर्थान्तरम् । १३ । मति, स्मृति, संज्ञा, चिन्ता, अभिनिबोध-ये शब्द पर्यायभूत (एकार्थवाचक) है।
प्रश्न-किस ज्ञान को मति कहते है ? उत्तर-जो ज्ञान वर्तमान-विषयक हो उसे मति कहते है। प्रश्न-क्या स्मृति, संज्ञा और चिन्ता भी वर्तमान-विषयक ही है ?
उत्तर-नहीं। पहले अनुभव की हुई वस्तु का स्मरण स्मृति है, इसलिए वह अतीत-विषयक है । पहले अनुभव की हुई और वर्तमान मे अनुभव की जाने वाली वस्तु की एकता का तालमेल संज्ञा या प्रत्यभिज्ञान है, इसलिए वह अतीत
१. प्रमाणमीमांसा आदि तर्कग्रन्थो मे सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष रूप से इन्द्रिय-मनोजन्य अवग्रह आदि ज्ञान का वर्णन है । विशेष स्पष्टीकरण के लिए देखे-न्यायावतार, गुजराती अनुवाद की प्रस्तावना मे जैन प्रमाणमीमांसा-पद्धति का विकासक्रम ।
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१४
तत्त्वार्थ सूत्र
[ १. १४
और वर्तमान उभय-विषयक है । चिन्ता भावी वस्तु की विचारणा ( चिन्तन ) है, इसलिए वह अनागत-विषयक है ।
प्रश्न- इस कथन से तो मति, स्मृति, संज्ञा और चिन्ता ये पर्यायवाची शब्द नही हो सकते, क्योकि इनके अर्थ भिन्न-भिन्न है ?
उत्तर - विषय-भेद और कुछ निमित्त भेद होने पर भी मति, स्मृति, संज्ञा और चिन्ता ज्ञान का अन्तरङ्ग कारण जो मतिज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम है वही सामान्य रूप से यहाँ विवक्षित है; इसी अभिप्राय से यहाँ मति आदि शब्दों को पर्यायवाची कहा गया है ।
प्रश्न- - अभिनिबोध शब्द के विषय मे तो कुछ नही कहा गया । वह किस प्रकार के ज्ञान का वाचक है ?
उत्तर- अभिनिबोध मतिज्ञानबोधक एक सामान्य शब्द है । वह मति, स्मृति, संज्ञा और चिन्ता इन सभी ज्ञानों के लिए प्रयुक्त होता है अर्थात् मति-ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से होनेवाले सब प्रकार के ज्ञानों के लिए अभिनिबोध शब्द सामान्य रूप में व्यवहृत होता है और मति आदि शब्द उस क्षयोपशमजन्य खास-खास ज्ञानों के लिए है ।
प्रश्न - इस तरह तो अभिनिबोध सामान्य शब्द हुआ और मति आदि उसके विशेष शब्द हुए, फिर ये पर्यायवाची शब्द कैसे ?
उत्तर - यहाँ सामान्य और विशेष की भेद-विवक्षा न करके सबको पर्यायवाची शब्द कहा गया है । १३ ।
मतिज्ञान का स्वरूप
तदिन्द्रियाऽनिन्द्रियनिमित्तम् । १४ ।
प्रश्न -
मतिज्ञान इन्द्रिय और अनिन्द्रिय के निमित्त से उत्पन्न होता है । - यहाँ मतिज्ञान के इन्द्रिय और अनिन्द्रिय ये दो कारण बतलाये गये है । इनमे चक्षु आदि इन्द्रिय तो प्रसिद्ध है, पर अनिन्द्रिय से क्या अभिप्राय है ?
उसर - अनिन्द्रिय अर्थात् मन ।
प्रश्न- जब चक्षु आदि तथा मन ये सभी मतिज्ञान के साधन है तब एक को इन्द्रिय और दूसरे को अनिन्द्रिय कहने का कारण ?
उत्तर - चक्षु आदि बाह्य साधन है और मन आभ्यन्तर साधन है । यही भेद इन्द्रिय और अनिन्द्रिय संज्ञाभेद का कारण है । १४ ।
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१. १५ ]
मतिज्ञान के भेद
मतिज्ञान के भेद
अवग्रहेहावायधारणाः । १५ । मतिज्ञान के अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणा—ये चार भेद हैं।
प्रत्येक इन्द्रियजन्य और मनोजन्य मतिज्ञान के चार-चार भेद है । अतएव पाँच इन्द्रियाँ और एक मन इन छहों के अवग्रह आदि चार-चार भेद गिनने से मतिज्ञान के चौबीस भेद होते है । उनके नाम इस प्रकार है
स्पर्शन
अवग्रह
ईहा
अवाय
धारणा
रसन
घ्राण चक्षु श्रोत्र
, ,, ,
, ,, ,
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, ,
मन
प्रवग्रह प्रादि उक्त चारों भेदों के लक्षण-१. नाम, जाति आदि की विशेष कल्पना से रहित सामान्य मात्र का ज्ञान अवग्रह है। जैसे, गाढ़ अन्धकार मे कुछ छू जाने पर यह ज्ञान होना कि यह कुछ है । इस ज्ञान में यह नहीं मालूम होता कि किस चीज का स्पर्श हुआ है, इसलिए वह अव्यक्त ज्ञान अवग्रह है। २. अवग्रह के द्वारा ग्रहण किये हुए सामान्य विषय को विशेष रूप से निश्चित करने के लिए जो विचारणा होती है वह ईहा है। जैसे, यह रस्सी का स्पर्श है या साँप का यह संशय होने पर ऐसी विचारणा होती है कि यह रस्सी का स्पर्श होना चाहिए, क्योंकि यदि साँप होता तो इतना सख्त आघात होने पर वह फुफकारे बिना न रहता। यही विचारणा सम्भावना या ईहा है । ३. ईहा के द्वारा ग्रहण किये हुए विशेष का कुछ अधिक अवधान ( एकाग्रतापूर्वक निश्चय ) अवाय है। जैसे, कुछ काल तक सोचने और जाँच करने पर निश्चय हो जाना कि यह साँप का स्पर्श नही, रस्सी का ही है, इसे अवाय कहते है । ४. अवायरूप निश्चय कुछ काल तक कायम रहता है, फिर मन के विषयान्तर मे चले जाने से वह निश्चय लुप्त तो हो जाता है पर ऐसा संस्कार छोड़ जाता है कि आगे कभी
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तत्त्वार्थसूत्र योग्य निमित्त मिलने पर उस निश्चित विषय का स्मरण हो आता है । इस निश्चय की सतत धारा, तज्जन्य संस्कार और संस्कारजन्य स्मरण-यह सब मतिव्यापार धारणा कहलाता है ।
प्रश्न-उक्त चारों भेदों का क्रम निर्हेतुक है या सहेतुक ?
उत्तर-सहेतुक है। सूत्र से स्पष्ट है कि सूत्र मे निर्दिष्ट क्रम से ही अवग्रहादि की उत्पत्ति होती है । १५ ।।
अवग्रह आदि के भेद बहुबहुविधक्षिप्रानिश्रितासन्दिग्धध्रुवाणां सेतराणाम् । १६ । सेतर ( प्रतिपक्षसहित ) बहु, बहुविध, क्षिप्र, अनिश्रित, असदिग्ध और ध्रुव रूप में अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणारूप मतिज्ञान होता है।
पाँच इन्द्रियाँ और मन इन छ: साधनो से होनेवाले मतिज्ञान के अवग्रह, ईहा आदि रूप मे जो चौबीस भेद कहे गये है वे क्षयोपशम और विषय की विविधता से बारह-बारह प्रकार के होते है । जैसे
छः अवग्रह छः ईहा छः अवाय छः धारणा
बहुग्राही अल्पग्राही बहुविधग्राही एकविधग्राही क्षिप्रग्राही अक्षिप्रग्राही अनिश्रितग्राही निश्रितग्राही असंदिग्धग्राही संदिग्धग्राही ध्रुवग्राही अध्रुवग्राही
बहु अर्थात् अनेक और अल्प अर्थात् एक । जैसे, दो या दो से अधिक पुस्तकों को जाननेवाले अवग्रह, ईहा आदि चारो क्रमभावी मतिज्ञान बहुग्राही अवग्रह, बहुग्राहिणी ईहा, बहुग्राही अवाय और बहुग्राहिणी धारणा कहलाते है और एक
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१. १६ ]
अवग्रह आदि के भेद
१७
पुस्तक को जाननेवाले अल्पग्राही अवग्रह, अल्पग्राहिणी ईहा, अल्पनाही अवाय और अल्पग्राहिणी धारणा कहलाते है ।
बहुविध अर्थात् अनेक प्रकार से और एकविध अर्थात् एक प्रकार से । जैसे आकार-प्रकार, रूप-रंग या मोटाई आदि मे विविधता रखनेवाली पुस्तकों को जाननेवाले उक्त चारों ज्ञान क्रम से बहुविधग्राही अवग्रह, बहुविधग्राहिणी ईहा, बहुविधग्राही अवाय तथा बहुविधग्राहिणी धारणा; और आकार-प्रकार, रूप-रंग तथा मोटाई आदि में एक ही प्रकार की पुस्तकों को जाननेवाले वे ज्ञान एकविधग्राही अवग्रह, एकविधग्राहिणी ईहा आदि कहलाते है । बहु तथा अल्प का अभिप्राय व्यक्ति की संख्या से है और बहुविध तथा एकविध का अभिप्राय प्रकार, किस्म या जाति की संख्या से है । यही दोनों में अन्तर है ।
शीघ्र जाननेवाले चारों मतिज्ञान क्षिप्रग्राही अवग्रह आदि और विलंब से जाननेवाले अक्षिप्रग्राही अवग्रह आदि कहलाते है । देखा जाता है कि इन्द्रिय, विषय आदि सब बाह्य सामग्री तुल्य होने पर भी मात्र क्षयोपशम की पटुता के कारण एक मनुष्य उस विषय का ज्ञान जल्दी प्राप्त कर लेता है और क्षयोपशम की मन्दता के कारण दूसरा मनुष्य देर से प्राप्त कर पाता है ।
अनिश्रित' अर्थात् लिंग-अप्रमित ( हेतु द्वारा असिद्ध ) और निश्रित अर्थात् लिंग-प्रमित वस्तु । जैसे पूर्व में अनुभूत शीत, कोमल और स्निग्ध स्पर्शरूप लिंग से वर्तमान में जूई के फूलों को जाननेवाले उक्त चारों ज्ञान क्रम से निश्रितग्राही (सलिंगग्राही ) अवग्रह आदि और उक्त लिंग के बिना ही उन फूलों को जाननेवाले अनिश्रितग्राही ( अलिंगग्राही ) अवग्रह आदि कहलाते है । संदिग्ध अर्थात् अनिश्चित । जैसे यह चन्दन
असंदिग्ध अर्थात् निश्चित और
१. अनिश्रित और निश्रित शब्द का यही अर्थ नन्दीसूत्र की टीका मे भी है; पर इसके सिवाय दूसरा अर्थ भी उस टीका मे श्री मलयगिरि ने बतलाया है; जैसे परधर्मों से मिश्रित ग्रहण निश्रितावग्रह और परधर्मी से अमिश्रित ग्रहण अनिश्रितावग्रह है । देखें - पृ० १८३, आगमोदय समिति द्वारा प्रकाशित ।
दिगम्बर ग्रन्थो मे ‘अनिःसृत' पाठ है। तदनुसार उनमे अर्थ किया गया है कि सम्पूर्णतया आविर्भूत नहीं ऐसे पुद्गलो का ग्रहण 'अनिःसृतावग्रह' और सम्पूर्णतया आविर्भूत पुद्गलो का ग्रहण ‘निःसृतावग्रह' है । देखें – इसी सूत्र पर राजवार्तिक टीका ।
२. इसके स्थान पर दिगम्बर ग्रन्थो मे 'अनुक्त' पाठ है । तदनुसार उनमे अर्थ किया गया है कि एक हो वर्ण निकलने पर पूर्ण अनुच्चारित शब्द को अभिप्रायमात्र से जान लेना कि आप अमुक शब्द बोलनेवाले है, अनुक्तावग्रह है । अथवा, स्वर का संचारण करने से पहले ही वीणा आदि वादित्र की ध्वनिमात्र से जान लेना कि आप अमुक स्वर
→>
२
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तत्त्वार्थसूत्र
[ १. १६ का ही स्पर्श है, फूल का नही। इस प्रकार से स्पर्श को निश्चित रूप से जाननेवाले उक्त चारों ज्ञान निश्चितग्राही अवग्रह आदि कहलाते है । यह चन्दन का स्पर्श होगा या फूल का, क्योकि दोनों शीतल होते है - इस प्रकार से विशेष की अनुपलब्धि के समय होनेवाले संदेहयुक्त चारो ज्ञान अनिश्चितग्राही अवग्रह आदि कहलाते है।
ध्रुव अर्थात् अवश्यम्भावी और अध्रुव अर्थात् कदाचिद्भावी । यह देखा गया है कि इन्द्रिय और विषय का सम्बन्ध तथा मनोयोगरूप सामग्री समान होने पर भी एक मनुष्य उस विषय को जान ही लेता है और दूसरा उसे कभी जान पाता है, कभी नही। सामग्री होने पर विषय को जाननेवाले उक्त चारों ज्ञान ध्रुवग्राही अवग्रह आदि कहलाते है और सामग्री होने पर भी क्षयोपशम की मन्दता के कारण विषय को कभी ग्रहण करनेवाले और कभी न ग्रहण करनेवाले उक्त चारों ज्ञान अध्रुवग्राही अवग्रह आदि कहलाते है ।
प्रश्न-उक्त बारह भेदो मे से कितने भेद विषय की विविधता और कितने भेद क्षयोपशम की पटुता-मन्दतारूप विविधता के आधार पर किये गये है ?
उत्तर-बहु, अल्प, बहुविध और अल्पविध ये चार भेद विषय की विविधता पर अवलम्बित है, शेष आठ भेद क्षयोपशम की विविधता पर ।
प्रश्न-अब तक कुल कितने भेद हुए ? उत्तर-दो सौ अट्ठासी भेद हुए। प्रश्न-कैसे ?
उत्तर-पाँच इन्द्रियाँ और मन इन छ: भेदो के साथ अवग्रह आदि के चार-चार भेदों का गुणा करने से चौबीस और बहु, अल्प आदि उक्त बारह प्रकारों के साथ चौबीस का गुणा करने से दो सौ अट्ठासी भेद हुए । १६ ।
निकालनेवाले है, अनुक्ता वग्रह है। इसके विपरीत उक्त/वग्रह है । देखे-इसी सूत्र पर राजवार्तिक टीका।
श्वेताम्बर ग्रन्थ नन्दीसूत्र मे 'असदिग्ध' ऐसा एकमात्र पाठ है । उसकी टीका मे उसका अर्थ ऊपर लिखे अनुसार ही है (देखें पृ० १८३)। परन्तु तत्त्वार्थभाष्य की वृत्ति में अनुक्त पाठ भी है । उसका अर्थ राजवार्तिक के अनुसार है। किन्तु वृत्तिकार ने लिखा है कि अनुक्त पाठ रखने से इसका अर्थ केवल शब्द-विषयक अवग्रह आदि पर ही लाग होता है, स्पर्श-विषयक अवग्रह आदि पर नही। इस अपूर्णता के कारण अन्य आचार्यों ने 'असंदिग्ध' पाठ रखा है। देखें-तत्त्वार्थभाष्यवृत्ति, पृ० ५८, मनसुख भगुभाई, अहमदाबाद द्वारा प्रकाशित ।
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१ १७ ]
सामान्य रूप से अवग्रह आदि का विषय
सामान्य रूप से अवग्रह आदि का विषय
अर्थस्य । १७। अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणा-ये चारों मतिज्ञान अर्थ ( वस्तु) को ग्रहण करते हैं।
अर्थ अर्थात् वस्तु । द्रव्य-सामान्य और पर्याय-विशेष इन दोनों को वस्तु कहते है । इसलिए प्रश्न होता है कि क्या इन्द्रियजन्य और मनोजन्य अवग्रह, ईहा आदि ज्ञान द्रव्यरूप वस्तु को विषय करते है या पर्यायरूप वस्तु को ? ___ उत्तर-उक्त अवग्रह, ईहा आदि ज्ञान मुख्यतः पर्याय को ग्रहण करते है, सम्पूर्ण द्रव्य को नहीं । द्रव्य को वे पर्याय द्वारा ही जानते है क्योकि इन्द्रिय और मन का मुख्य विषय पर्याय ही है । पर्याय द्रव्य का एक अंश है । इसलिए अवग्रह, ईहा आदि द्वारा जब इन्द्रियाँ और मन अपने-अपने विषयभूत पर्याय को जानते है तब वे उस-उस पर्यायरूप से द्रव्य को ही अंशत. जानते है; क्योंकि द्रव्य को छोड़कर पर्याय नही रहता और द्रव्य भी पर्याय-रहित नही होता, जैसे नेत्र का विषय रूप, संस्थान (आकार ) आदि है जो पुद्गल द्रव्य के पर्याय विशेष है। 'नेत्र आम्रफल आदि को ग्रहण करता है' इसका अर्थ इतना ही है कि वह उसके रूप तथा आकार-विशेष को जानता है। रूप और आकार-विशेष आम से भिन्न नही है इसलिए स्थूल दृष्टि से यह कहा जाता है कि नेत्र से आम देखा गया, परन्तु यह स्मरण रखना चाहिए कि उसने सम्पूर्ण आम को ग्रहण नही किया क्योंकि आम में तो रूप और संस्थान के अतिरिक्त स्पर्श, रस, गन्ध आदि अनेक पर्याय है जिनको जानने मे नेत्र असमर्थ है। इसी तरह स्पर्शन, रसन और घ्राण इन्द्रियाँ जब गरम-गरम जलेबी आदि वस्तु को ग्रहण करती है तब वे क्रमश. उस वस्तु के उष्ण स्पर्श, मधुर रस और सुगन्धरूप पर्याय को ही जानती है । कोई भी इन्द्रिय वस्तु के सम्पूर्ण पर्यायो को ग्रहण नही कर सकती । कान भी भाषात्मक पुद्गल के ध्वनि-रूप पर्याय को ही ग्रहण करता है, अन्य पर्याय को नही। मन भी किसी विषय के अमुक अश का ही विचार करता है । वह एक साथ संपूर्ण अंशो का विचार करने में असमर्थ है। इससे यह सिद्ध है कि इन्द्रियजन्य और मनोजन्य अवग्रह, ईहा आदि चारो ज्ञान पर्याय को ही मुख्यतया विषय करते है और द्रव्य को वे पर्याय द्वारा ही जानते है।
प्रश्न-पूर्व सूत्र और इस सूत्र मे क्या सम्बन्ध है ? ___ उत्तर-यह सूत्र सामान्य का वर्णन करता है और पूर्व सूत्र विशेष का अर्थात् इस सुत्र में पर्याय या द्रव्यरूप वस्तु को अवग्रह आदि ज्ञान का विषय जो
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तत्त्वार्थमूत्र
[ १. १८-१९
सामान्य रूप से बतलाया गया है उसी को संख्या, जाति आदि द्वारा पृथक्करण करके बहु, अल्प आदि विशेष रूप से पूर्व सूत्र मे बतलाया गया है । १७ ।
इन्द्रियो की ज्ञानोत्पत्ति-पद्धतिसम्बन्धी भिन्नता के कारण अवग्रह के अवान्तर भेद
व्यञ्जनस्याऽवग्रहः । १८ । न चक्षुरनिन्द्रियाभ्याम् । १९ ।
व्यञ्जन- - उपकरणेन्द्रिय का विषय के साथ संयोग होने पर अवग्रह ही होता है ।
नेत्र और मन से व्यञ्जन होकर अवग्रह नहीं होता ।
२०
जैसे लंगड़े मनुष्य को चलने मे लकडी का सहारा अपेक्षित है वैसे ही आत्मा की आवृत चेतना शक्ति को पराधीनता के कारण ज्ञान उत्पन्न करने में सहारे की अपेक्षा है । उसे इन्द्रिय और मन का बाहरी सहारा चाहिए । सब इन्द्रियों और मन का स्वभाव समान नही है, इसलिए उनके द्वारा होनेवाली ज्ञानधारा के आविर्भाव का क्रम भी समान नही होता । यह क्रम दो प्रकार का है- - मन्दक्रम और पटुक्रम ।
मन्दक्रम मे ग्राह्य विषय के साथ उस उस विषय की ग्राहक उपकरणेन्द्रिय का सयोग ( व्यञ्जन ) होते ही ज्ञान का आविर्भाव होता है । शुरू मे ज्ञान की मात्रा इतनी अल्प होती है कि उससे 'यह कुछ है' ऐसा सामान्य बोध भी नही हो पाता, परन्तु ज्योज्यो विषय और इन्द्रिय का सयोग पुष्ट होता जाता है, ज्ञान की मात्रा भी बढती जाती है । उक्त संयोग ( व्यंजन ) की पुष्टि के साथ कुछ काल में जनित ज्ञानमात्रा भी इतनी पुष्ट हो जाती है कि जिससे 'यह कुछ है' ऐसा विषय का सामान्य बोध ( अर्थावग्रह ) होता है । इस अर्थावग्रह का उक्त व्यञ्जन से उत्पन्न पूर्ववर्ती ज्ञानव्यापार, जो उस व्यञ्जन की पुष्टि के साथ ही क्रमशः पुष्ट होता जाता है, व्यञ्जनावग्रह कहलाता है, क्योंकि उसके होने में व्यञ्जन अपेक्षित है । यह व्यञ्जनात्रग्रह नामक दीर्घ ज्ञानव्यापार उत्तरोत्तर पुष्ट होने पर भी इतना अल्प होता है कि उससे विषय का सामान्य बोध भी नही होता । इसलिए उसको अव्यक्ततम, अव्यक्ततर, अव्यक्त ज्ञान कहते है । जब वह ज्ञानव्यापार इतना पुष्ट हो जाय कि उससे 'यह कुछ है' ऐसा सामान्य बोध हो सके तब वही सामान्य बोधकारक ज्ञानाश अर्थावग्रह कहलाता है । अर्थावग्रह भी व्यञ्जनावग्रह का एक चरम पुष्ट अंश है क्योंकि उसमे भी विषय और इन्द्रिय का संयोग अपेक्षित है । तथापि
१. इसके स्पष्टीकरण के लिए देखें - अ० २, सू० १७ ।
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१.१८-१९ ]
अवग्रह के अवान्तर भेद
२१
उसे व्यञ्जनावग्रह से अलग कहने का और अर्थावग्रह कहने का प्रयोजन यह है कि उस ज्ञानाश से होनेवाला विषय का बोध ज्ञाता के ध्यान मे आ सकता है । अर्थावग्रह के बाद उसके द्वारा सामान्य रूप से जाने हुए विषष की विशेष रूप से जिज्ञासा, उसका विशेष निर्णय, उस निर्णय की धारा, तज्जन्य संस्कार और संस्कारजन्य स्मृति-यह सब ज्ञानव्यापार ईहा, अवाय और धारणा रूप से तीन विभागों मे पहले बतलाया जा चुका है । यह बात नही भूलनी चाहिए कि इस मन्दक्रम मे जो उपकरणेन्द्रिय और विषय के संयोग की अपेक्षा कही गई है वह व्यञ्जनावग्रह के अन्तिम अंश अर्थावग्रह तक ही है। इसके बाद ईहा, अवाय आदि ज्ञानव्यापार में वह संयोग अनिवार्य रूप से अपेक्षित नहीं है, क्योकि उस ज्ञानव्यापार की प्रवृत्ति विशेष की ओर होने से उस समय मानसिक अवधान की प्रधानता रहती है । इसी कारण अवधारणयुक्त व्याख्यान करके प्रस्तुत सूत्र के अर्थ मे कहा गया है कि 'व्यञ्जनस्यावग्रह एव' व्यञ्जन का अवग्रह ही होता है अर्थात् अवग्रह ( अव्यक्त ज्ञान ) तक ही व्यञ्जन की अपेक्षा है, ईहा आदि मे नही । __ पटुक्रम में उपकरणेन्द्रिय और विषय के सग की अपेक्षा नही है । दूर, दूरतर होने पर भी योग्य सन्निधान मात्र से इन्द्रिय उस विषय को ग्रहण कर लेती है
और ग्रहण होते ही उस विषय का उस इन्द्रिय द्वारा शुरू मे ही अर्थावग्रहरूप सामान्य ज्ञान उत्पन्न होता है। इसके बाद क्रमशः ईहा, अवाय आदि ज्ञानव्यापार पूर्वोक्त मन्दक्रम की तरह ही प्रवृत्त होता है । सारांश यह है कि पटुक्रम मे इन्द्रिय के साथ ग्राह्य विषय का संयोग हुए बिना ही ज्ञानधारा का आविर्भाव होता है जिसका प्रथम अंश अर्थावग्रह और चरम अंश स्मृतिरूप धारणा है । इसके विपरीत मन्दकप मे इन्द्रिय के साथ ग्राह्य विषय का संयोग होने पर ही ज्ञानधारा का आविर्भाव होता है, जिसका प्रथम अंश अव्यक्ततम, अव्यक्ततररूप व्यञ्जनावग्रह नामक ज्ञान, दूसरा अंश अर्थावग्रहरूप ज्ञान और चरम अंश स्मृतिरूप धारणा ज्ञान है ।
दृष्टान्त-मन्दक्रम की ज्ञानधारा, जिसके आविर्भाव के लिए इन्द्रिय-विषयसंयोग की अपेक्षा है, को स्पष्टतया समझने के लिए सकोरे का दृष्टान्त उपयोगी है । जैसे आवाप-भट्ठ में से तुरन्त निकाले हुए अति रूक्ष सकोरे मे पानी की एक बंद डाली जाय तो सकोरा उसे तुरन्त ही सोख लेता है, यहाँ तक कि उसका कोई नामोनिशान नही रहता । इसी तरह आगे भी एक-एक कर डाली गयी अनेक जलबूंदों को वह सकोरा सोख लेता है। अन्त मे ऐसा समय आता है जब कि वह जलबूंदों को सोखने में असमर्थ होकर उनसे भीग जाता है और उसमे डाले हुए जलकण समूहरूप मे इकट्ठे होकर दिखाई देने लगते है। सकोरे की आर्द्रता पहले पहल जब मालूम होती है, उसके पूर्व भी उसमे जल था, पर उसने इस तरह जल को सोख लिया था कि जल के बिलकुल तिरोभूत हो जाने से
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२२
तत्त्वार्थसूत्र
[ १. १८-१९
दृष्टि मे आने जैसा नही था, पर सकोरे मे वह था अवश्य । जब जल की मात्रा बढ़ी और सकोरे की सोखने की शक्ति कम हुई, तब आर्द्रता दिखाई देने लगी और जो जल प्रथम सकोरे के पेट मे नही समा सका था वही अब उसके ऊपर के तल मे इकट्ठा होने लगा और दिखलाई देने लगा। इसी तरह जब किसी सुषुप्त व्यक्ति को पुकारा जाता है तब वह शब्द उसके कान मे गायब-सा हो जाता है दो-चार बार पुकारने से उसके कान मे जब पौद्गलिक शब्दों की मात्रा काफी मात्रा मे भर जाती है तब जलकणों से पहले पहल आर्द्र होनेवाले सकोरे की तरह उस सुषुप्त व्यक्ति के कान भी शब्दो से परिपूरित होकर उनको सामान्य रूप से जानने में समर्थ होते है कि 'यह क्या है। यही सामान्य ज्ञान है जो शब्द को पहले पहल स्फुट रूप मे जानता है । इसके बाद विशेष ज्ञान का क्रम शुरू होता है अर्थात् जैसे कुछ काल तक जलबिन्दु पडते रहने से रूक्ष सकोरा क्रमश आर्द्र बन जाता है और उसमें जल दिखाई देता है वैसे ही कुछ काल तक शब्दपुद्गलों का संयोग होते रहने से सुषुप्त व्यक्ति के कान परिपूरित होकर उन शब्दों को सामान्य रूप में जान पाते है और फिर शब्दों की विशेषताओ को जानते है । यद्यपि यह क्रम सुषुप्त की तरह जाग्रत व्यक्ति पर भी पूरी तरह लागू होता है पर वह इतना शीघ्र होता है कि साधारण लोगों के ध्यान मे मुश्किल से आता है। इसीलिए सकोरे के साथ सुषुप्त व्यक्ति का साम्य दिखलाया जाता है।।
पटुक्रम की ज्ञानधारा के लिए दर्पण का दृष्टान्त उपयुक्त है। जैसे दर्पण के सामने किसी वस्तु के आते ही तुरन्त उसका उसमे प्रतिबिंब पड़ जाता है और वह दिखाई देने लगता है । इसके लिए दर्पण के साथ प्रतिबिंबित वस्तु का साक्षात् संयोग आवश्यक नही है, जैसे कान के साथ शब्दों का साक्षात् संयोग । केवल प्रतिबिंबग्राही दर्पण और प्रतिबिंबित होनेवाली वस्तु का योग्य देश में सन्निधान आवश्यक है । ऐसा सन्निधान होते ही प्रतिबिंब पड जाता है और वह तुरन्त ही दीख पडता है। इसी तरह नेत्र के सामने रगवाली वस्तु के आते ही तुरन्त वह सामान्य रूप मे दिखाई देने लगती है । इसके लिए नेत्र और उस वस्तु का संयोग अपेक्षित नहीं है, जैसे कान और शब्द का संयोग । केवल दर्पण की तरह नेत्र का और उस वस्तु का योग्य सन्निधान चाहिए । इसीलिए पटुक्रम में पहले पहल अर्थावग्रह माना गया है ।
व्यञ्जनावग्रह का स्थान मन्दक्रमिक ज्ञानधारा मे है, पटुक्रमिक ज्ञानधारा में नहीं । इसलिए प्रश्न होता है कि व्यञ्जनावग्रह किस किस इन्द्रिय से होता है और किस-किस से नही होता ? इसी का उत्तर प्रस्तुत सूत्र मे दिया गया है । नेत्र और मन से व्यञ्जनावग्रह नहीं होता क्योकि ये दोनो सयोग विना ही क्रमशः किये हुए योग्य सन्निधान मात्र से और अवधान से अपने-अपने ग्राह्य विषय को जानते है ।
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१. १८-१९]
अवग्रह के अवान्तर भेद कौन नहीं जानता कि नेत्र दूर, दूरतरवर्ती वृक्ष व पर्वत आदि को ग्रहण कर लेता है और मन सुदूरवर्ती वस्तु का भी चिन्तन कर लेता है। इसीलिए नेत्र तथा मन अप्राप्यकारी माने गये है और उनसे होनेवाली ज्ञानधारा को पटुक्रमिक कहा गया है। कर्ण, जिह्वा, घ्राण और स्पर्शन ये चार इन्द्रियाँ मन्दक्रमिक ज्ञानधारा की कारण है क्योंकि ये चारों इन्द्रियाँ प्राप्यकारी ( ग्राह्य) विषयों को उनसे संयुक्त होकर ही ग्रहण करती है । जब तक शब्द कान में न पडे, शक्कर जीभ से न लगे, पुष्प का रजकण नाक में न घुसे और जल शरीर को न छुए तब तक न तो शब्द ही सुनाई देता है, न शक्कर का ही स्वाद आता है, न फूल की सुगन्ध ही आती है और न जल ही ठण्डा या गरम जान पड़ता है।
प्रश्न- मतिज्ञान के कुल कितने भेद है ? उत्तर-मतिज्ञान के कुल ३३६ भेद है। प्रश्न-किस प्रकार ।
उत्तर–पाँच इन्द्रियाँ और मन छहों के अर्थावग्रह आदि चार-चार के हिसाब से चौबीस भेद हुए तथा उनमें चार प्राप्यकारी इन्द्रियों के चार व्यञ्जनावग्रह जोडने से अट्ठाईस हुए । इन सबको बहु, अल्प, बहुविध, अल्पविध आदि बारह-बारह भेदों से गुणा करने पर ३३६ होते है । भेदों की यह गणना स्थूल दृष्टि से है। वास्तव में तो प्रकाश आदि की स्फुटता, अस्फुटता, विषयों की बिविधता और क्षयोपशम को विचित्रता के आधार पर तरतमभाववाले असंख्य होते है।
प्रश्न-पहले बहु, अल्प आदि जो बारह भेद कहे गये है वे विषयगत विशेषों पर ही लागू होते है, और अर्थावग्रह का विषय तो सामान्यमात्र है । इस तरह वे अर्थावग्रह में कैसे घटित हो सकते है ?
उत्तर–अर्थावग्रह दो प्रकार का माना गया है : व्यावहारिक और नैश्चयिक । बहु, अल्प आदि बारह भेद प्रायः व्यावहारिक अर्थावग्रह के ही है, नैश्चयिक के नही। नैश्चयिक अर्थावग्रह मे जाति-गुण-क्रिया से रहित सामान्यमात्र प्रतिभासित होता है इसलिए उसमे बहु, अल्प आदि विशेषों का ग्रहण सम्भव नही है।
प्रश्न-व्यावहारिक और नैश्चयिक में क्या अन्तर है ?
उत्तर-जो अर्थावग्रह पहले पहल सामान्यमात्र को ग्रहण करता है वह नैश्चयिक है और जिस-जिस विशेषग्राही अवायज्ञान के बाद अन्यान्य विशेषों की जिज्ञासा और अवाय होते रहते है वे सामान्य-विशेषग्राही अवायज्ञान व्यावहारिक अर्थावग्रह है । वही अवायज्ञान व्यावहारिक अर्थावग्रह नही है जिसके बाद अन्य विशेषों की जिज्ञासा न हो । अपने बाद नये-नये विशेषों की जिज्ञासा पैदा करने वाले अन्य सभी अवायज्ञान व्यावहारिक अर्थावग्रह हैं ।
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तत्वार्थ सूत्र
[ १.२०.
प्रश्न - अर्थावग्रह के बहु, अल्प आदि उक्त बारह भेदों के विषय में कहा गया कि वे भेद व्यावहारिक अर्थावग्रह के है, नैश्वयिक के नहीं । इस पर प्रश्न होता है कि यदि ऐसा ही मान लिया जाय तो फिर उक्त रीति से मतिज्ञान के ३३६ भेद कैसे होंगे ? क्योंकि अट्ठाईस प्रकार के मतिज्ञान के बारह - बारह भेदों के हिसाब से ३३६ भेद होते है और अट्ठाईस प्रकार में तो चार व्यञ्जनावग्रह भी आते है जो नैश्चयिक अर्थावग्रह के भी पूर्ववर्ती होने से अत्यन्त अव्यक्त है । इसलिए उन चारों के बारह-बारह यानी ४८ भेद अलग कर देने पड़ेंगे !
उत्तर - अर्थावग्रह में तो व्यावहारिक को लेकर उक्त बारह भेद स्पष्टतया घटित किये जा सकते हैं इसलिए वैसा उत्तर स्थूल दृष्टि से दिया गया है । वास्तव में नैचयिक अर्थावग्रह और उसके पूर्ववर्ती व्यञ्जनावग्रह के भी बारह-बारह भेद समझने चाहिए । कार्य-कारण की समानता के सिद्धान्त पर व्यावहारिक अर्थावग्रह का कारण नैश्चयिक अर्थावग्रह है और उसका कारण व्यञ्जनावग्रह है । अब यदि व्यावहारिक अर्थावग्रह मे स्पष्ट रूप से बहु, अल्प आदि विषयगत विशेषों का प्रतिभास होता है तो उसके साक्षात् कारणभूत नैश्चयिक अर्थावग्रह और व्यवहित कारण व्यञ्जनावग्रह में भी उक्त विशेषों का प्रतिभास मानना पड़ेगा, यद्यपि वह अस्फुट होने से दुर्ज्ञेय है । अस्फुट हो या स्फुट, यहाँ सिर्फ सम्भावना की अपेक्षा से उक्त बारह-बारह भेद गिनने चाहिए । १८-१९ । श्रुतज्ञान का स्वरूप और उसके भेद
२४
श्रुतं मतिपूर्वं यनेकद्वादशभेदम् । २० ।
श्रुतज्ञान मतिपूर्वक होता है । वह दो प्रकार का, अनेक प्रकार का और बारह प्रकार का है ।
तिज्ञान कारण है और श्रुतज्ञान कार्य क्योकि मतिज्ञान से श्रुतज्ञान उत्पन्न होता है । इसीलिए उसको मतिपूर्वक कहा गया है। किसी भी विषय का श्रुतज्ञान प्राप्त करने के लिए उसका मतिज्ञान पहले आवश्यक है । इसीलिए मतिज्ञान श्रुतज्ञान का पालन और पूरण करनेवाला कहलाता है । मतिज्ञान श्रुतज्ञान का कारण तो है, पर बहिरङ्ग कारण है, अन्तरङ्ग कारण तो श्रुतज्ञानावरण का क्षयोपशम है । क्योंकि किसी विषय का मतिज्ञान हो जाने पर भी यदि क्षयोपशम न हो तो उस विषय का श्रुतज्ञान नहीं हो सकता ।
प्रश्न - - मतिज्ञान की तरह श्रुतज्ञान की उत्पत्ति मे भी इन्द्रिय और मन की सहायता अपेक्षित है, फिर दोनों में अन्तर क्या है ? जब तक दोनों का भेद स्पष्ट न जाना जाय तब तक 'श्रुतज्ञान मतिपूर्वक होता है' यह कथन विशेष अर्थ नहीं रखता । मतिज्ञान का कारण मतिज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम और श्रुतज्ञान
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१. २०.] श्रुतज्ञान का स्वरूप और उसके भेद
२५ का कारण श्रुतज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम है । इस कथन से भी दोनों का भेद समझ में नही आता, क्योंकि क्षयोपशम-भेद साधारण बुद्धिगम्य नहीं है ।
उत्तर-- मतिज्ञान विद्यमान वस्तु मे प्रवृत्त होता है और श्रुतज्ञान अतीत, विद्यमान तथा भावी इन त्रैकालिक विषयों मे प्रवृत्त होता है। इस विषयकृत भेद के सिवाय दोनों में यह भी अन्तर है कि मतिज्ञान में शब्दोल्लेख नही होता
और श्रुतज्ञान में होता है । अतएव दोनो का फलित लक्षण यह है कि जो ज्ञान इन्द्रियजन्य और मनोजन्य होने पर भी शब्दोल्लेख' सहित है वह श्रुतज्ञान है, और शब्दोल्लेख रहित मतिज्ञान है। सारांश यह है कि दोनों मे इन्द्रिय और मन की अपेक्षा समान होने पर भी मति की अपेक्षा श्रुत का विषय अधिक है और स्पष्टता भी अधिक है, क्योंकि श्रुत में मनोव्यापार की प्रधानता होने से विचारांश अधिक व स्पष्ट होता है और पूर्वापर क्रम भी बना रहता है। दूसरे शब्दो मे, इन्द्रिय तथा मनोजन्य दीर्घ ज्ञानव्यापार का प्राथमिक अपरिपक्व अश मतिज्ञान और उत्तरवर्ती परिपक्व व स्पष्ट अंश श्रुतज्ञान है । अतः यो भी कहा जाता है कि जो ज्ञान भाषा में उतारा जा सके वह श्रुतज्ञान है और जो भाषा मे उतारने लायक परिपाक को प्राप्त न हो वह मतिज्ञान है । श्रुतज्ञान खीर है तो मतिज्ञान दूध ।
प्रश्न -श्रुत के दो, अनेक और बारह प्रकार कैसे है ?
उत्तर-अङ्गबाह्य और अङ्गप्रविष्ट के रूप मे श्रुतज्ञान दो प्रकार का है । इनमे से अङ्गबाह्य श्रुत उत्कालिक-कालिक के भेद से अनेक प्रकार का है। अङ्गप्रविष्ट श्रुत आचाराङ्ग, सूत्रकृताङ्ग आदि के रूप मे बारह प्रकार का है।
प्रश्न-अङ्गबाह्य और अङ्गप्रविष्ट का अन्तर किस अपेक्षा से है ?
उत्तर-वक्तृभेद की अपेक्षा से । तीर्थङ्करो द्वारा प्रकाशित ज्ञान को उनके परम मेधावी साक्षात् शिष्य गणधरों ने ग्रहण करके जो द्वादशाङ्गी रूप मे सूत्रबद्ध किया वह अङ्गप्रविष्ट है; और कालदोषकृत बुद्धि, बल और आयु की कमी को देखकर सर्वसाधारण के हित के लिए उसी द्वादशाङ्गी मे से भिन्न-भिन्न विषयों पर गणधरों के पश्चाद्वर्ती शुद्ध-बुद्धि आचार्यो के शास्त्र अङ्गबाह्य है, अर्थात् जिन शास्त्रों के रचयिता गणधर है वह अङ्गप्रविष्ट श्रुत है और जिनके रचयिता अन्य आचार्य है वह अङ्गबाह्य श्रुत है ।
प्रश्न-बारह अङ्ग कौन से है ? अनेकविध अङ्गबाह्य में मुख्यतः कौन-कौन से प्राचीन ग्रन्थ है ?
१. शब्दोल्लेख का मतलब व्यवहारकाल भे शब्दशक्तिग्रहजन्यत्व मे है अर्थात् जैसे श्रुतज्ञान की उत्पत्ति के समय संकेत, स्मरण और श्रतग्रन्थ का अनुसरण अपेक्षित है वैसे ईहा आदि मतिज्ञान की उत्पत्ति मे अपेक्षित नही है ।
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तत्त्वार्थसूत्र
[ १. २०. उत्तर-आचार, सूत्रकृत, स्थान, समवाय, व्याख्याप्रज्ञप्ति ( भगवतीसूत्र ), ज्ञाताधर्मकथा, उपासकदशा, अन्तकृद्दशा, अनुत्तरौपपातिकदशा, प्रश्नव्याकरण, विपाक और दृष्टिवाद ये बारह अङ्ग है । सामायिक, चतुर्विशतिस्तव, वन्दनक, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग और प्रत्याख्यान ये छः आवश्यक तथा दशवकालिक, उत्तराध्ययन, दशाश्रुतस्कंध, कल्प, व्यवहार, निशीथ और ऋषिभाषित' आदि शास्त्र अङ्गबाह्य हैं।
प्रश्न-ये भेद तो ज्ञान को व्यवस्थितरूप में संगृहीत करनेवाले शास्त्रों के है, तो क्या शास्त्र इतने ही है ?
उत्तर-नहीं। शास्त्र अनेक थे, अनेक है, अनेक बनते है और आगे भी बनते ही रहेगे । वे सभी श्रुत-ज्ञानान्तर्गत है । यहाँ केवल वे ही गिनाये गये है जिन पर प्रधानतया जैनशासन आधृत है। इनके अतिरिक्त और भी अनेक शास्त्र बने है और बनते रहते है। इन सभी को अङ्गबाह्य में समाविष्ट कर लेना चाहिए, यदि वे शुद्ध-बुद्धि और समभावपूर्वक रचे गये हों।।
प्रश्न--आजकल विविध विज्ञान विषयक तथा काव्य, नाटक आदि लौकिक विषयक जो अनेक शास्त्र रचे जाते है, क्या वे भी श्रुत है ?
उत्तर-अवश्य, वे भी श्रुत है । प्रश्न-तब तो श्रुतज्ञान होने से वे भी मोक्ष के लिए उपयुक्त हो सकेंगे ?
उत्तर-मोक्ष मे उपयोगी होना या न होना किसी शास्त्र का नियत स्वभाव नहीं है, पर अधिकारी की योग्यता उसका आधार है । अगर अधिकारी योग्य
और मुमुक्षु है तो लौकिक शास्त्रो को भी मोक्षोपयोगी बना सकता है और अयोग्य पात्र आध्यात्मिक कहे जानेवाले शास्त्रों से भी अपने को नीचे गिराता है । तथापि विषय और प्रणेता की योग्यता की दृष्टि से लोकोत्तर श्रुत का विशेषत्व अवश्य है।
प्रश्न-'श्रुत' ज्ञान है, फिर भाषात्मक शास्त्रो को या जिन पर वे लिखे जाते है उन कागज आदि साधनो को श्रुत क्यों कहा जाता है ? ___ उत्तर-केवल उपचार से । वास्तव मे श्रुत तो ज्ञान ही है । पर ऐसे ज्ञान को प्रकाशित करने का साधन भाषा है और भाषा भी ऐसे ज्ञान से ही उत्पन्न होती है तथा कागज आदि भी उस भाषा को लिपिबद्ध करके व्यवस्थित रखने के साधन है। इसीलिए भाषा या कागज आदि को उपचार से श्रुत कहा जाता है । २० ।
१. प्रत्येक बुद्ध आदि ऋषियो द्वारा जो कथन किया गया हो उसे ऋषिभाषित कहते है । जैसे उत्तराध्ययन का आठवाँ कापिलीय अध्ययन इत्यादि।
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१. २१-२३. ] अवधिज्ञान के प्रकार और उनके स्वामी
२७ अवधिज्ञान के प्रकार और उनके स्वामी
द्विविधोऽवधिः। २१ । तत्र भवप्रत्ययो नारकदेवानाम् । २२ ।
यथोक्तनिमित्तः षड्विकल्पः शेषाणाम् । २३ । अवधिज्ञान दो प्रकार का है। उन दो में से भवप्रत्यय नारक और देवों को होता है।
यथोक्तनिमित्त-क्षयोपशमजन्य अवधि छः प्रकार का है जो तिर्यञ्च तथा मनुष्यों को होता है ।
अवधिज्ञान के भवप्रत्यय और गुणप्रत्यय ये दो भेद है । जो अवधिज्ञान जन्म लेते ही प्रकट होता है वह भवप्रत्यय है। जिसके आविर्भाव के लिए व्रत, नियम आदि अनुष्ठान अपेक्षित नही है उस जन्मसिद्ध अवधिज्ञान को भवप्रत्यय कहते है । जो अवधिज्ञान जन्मसिद्ध नही है किन्तु जन्म लेने के बाद व्रत, नियम आदि गुणों के अनुष्ठान से प्रकट किया जाता है वह गुणप्रत्यय अथवा क्षयोपशमजन्य है।
प्रश्न-क्या भवप्रत्यय अवधिज्ञान बिना क्षयोपशम के ही उत्पन्न होता है ? उत्तर-नहीं, उसके लिए भी क्षयोपशम अपेक्षित है।
प्रश्न-तब तो भवप्रत्यय भी क्षयोपशमजन्य ही हुआ। फिर भवप्रत्यय और गुणप्रत्यय दोनों में क्या अन्तर है ?
उत्तर-कोई भी अवधिज्ञान योग्य श्रयोपशम के बिना नही हो सकता। अवधि-ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम तो अवधिज्ञानमात्र का साधारण कारण है। क्षयोपशम सबका समान कारण है, फिर भी किसी अवधिज्ञान को भवप्रत्यय और किसी को क्षयोपशमजन्य ( गुणप्रत्यय) क्षयोपशम के आविर्भाव के निमित्तभेद की अपेक्षा से कहा गया है। देहधारियों की कुछ जातियाँ ऐसी है जिनमे जन्म लेते ही योग्य क्षयोपशम और तद्द्वारा अवधिज्ञान की उत्पत्ति हो जाती है अर्थात् उन्हे अपने जीवन में अवधिज्ञान के योग्य क्षयोपशम के लिए तप आदि अनुष्ठान नही करना पडता । ऐसे सभी जीवों को न्यूनाधिक रूप में जन्मसिद्ध अवधिज्ञान अवश्य होता है और वह जीवनपर्यन्त रहता है । इसके विपरीत कुछ जातियाँ ऐसी भी है जिन्हे जन्म के साथ अवधिज्ञान प्राप्त होने का नियम नही है । इनको अवधिज्ञान के योग्य क्षयोपशम के लिए तप आदि का अनुष्ठान करना पडता है। ऐसे सभी जीवों मे अवधिज्ञान सम्भव नही होता, केवल उन्ही मे सम्भव होता है जिन्होंने उस ज्ञान के योग्य गुण पैदा किये हों । इसीलिए क्षयोपशमरूप अन्तरङ्ग कारण समान होने पर भी उसके लिए किसी जाति में केवल जन्म की और किसी जाति मे तप आदि गुणों की अपेक्षा
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तत्त्वार्थसूत्र
[ १. २१-२३ होने से सुविधा की दृष्टि से अवधिज्ञान के भवप्रत्यय और गुणप्रत्यय ये दो नाम रखे गये है।
देहधारी जीवों के चार वर्ग है-नारक, देव, तिर्यञ्च और मनुष्य । इनमे से पहले दो वर्गवाले जीवों मे भवप्रत्यय अर्थात् जन्म से ही अवधिज्ञान होता है और पिछले दो वर्गवालों मे गुणप्रत्यय अर्थात् गुणों से अवधिज्ञान होता है ।
प्रश्न-जब सभी अवधिज्ञानवाले देहधारी ही है तब ऐसा क्यों है कि किसी को तो बिना प्रयत्न के ही जन्म से वह प्राप्त हो जाता है और किसी को उसके लिए विशेष प्रयत्न करना पडता है ?
उत्तर-कार्य की विचित्रता अनुभवसिद्ध है । सब जानते है कि पक्षियों को जन्म लेते ही आकाश में उडने की शक्ति प्राप्त हो जाती है और मनुष्य आकाश मे उड नहीं सकता जब तक कि वह विमान आदि का सहारा न ले। हम यह भी देखते है कि कितने ही लोगों मे काव्यशक्ति जन्मसिद्ध होती है और कितने ही लोगों को वह बिना प्रयत्न के प्राप्त ही नही होती।
तिर्यञ्चों और मनुष्यों के अवधिज्ञान के छः भेद है-आनुगामिक, अनानुगामिक, वर्धमान, हीयमान, अवस्थित और अनवस्थित ।
१. जैसे वस्त्र आदि किसी वस्तु को जिस स्थान पर रंग लगाया है वहाँ से उसे हटा लेने पर भी रंग कायम ही रहता है वैसे ही जो अवधिज्ञान अपने उत्पत्तिक्षेत्र को छोड़कर दूसरी जगह चले जाने पर भी कायम रहता है उसे आनुगामिक कहते है ।
२. जैसे किसी का ज्योतिष-ज्ञान ऐसा होता है कि वह प्रश्न का ठीक-ठीक उत्तर अमुक स्थान मे ही दे सकता है, दूसरे स्थान मे नही, वैसे ही जो अवधिज्ञान अपने उत्पत्तिस्थान को छोड देने पर कायम नहीं रहता उसे अनानुगामिक कहते है।
३. जैसे दियासलाई या अरणि आदि से उत्पन्न आग की चिनगारी बहुत छोटी होने पर भी अधिकाधिक सूखे इंधन आदि को पाकर क्रमशः बढती जाती है वैसे ही जो अवधिज्ञान उत्पत्तिकाल मे अल्पविषयक होने पर भी परिणामशुद्धि के बढ़ते जाने से क्रमश. अधिकाधिक विषयक होता जाता है उसे वर्धमान कहते है।
४. जैसे परिमित दाह्य वस्तुओं में लगी हुई आग नया दाह्य न मिलने से क्रमश. घटती जाती है वैसे ही जो अवधिज्ञान उत्पत्ति के समय अधिक विषयक होने पर भी परिणाम-शुद्धि कम होते जाने से क्रमश. अल्प-अल्प दिपयक होता जाता है उसे हीयमान कहते है।
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२९
१. २४-२५.] मन.पर्याय के भंद और उनका अन्तर ।
५. जैसे किसी प्राणी को एक जन्म मे प्राप्त पुरुष आदि वेद' या दूसरे अनेक तरह के शुभ-अशुभ संस्कार दूसरे जन्म मे साथ जाते है या आजन्म कायम रहते है वैसे ही जो अवधिज्ञान जन्मान्तर होने पर भी आत्मा मे कायम रहता है या केवलज्ञान की उत्पत्ति तक अथवा आजन्म टिकता है उसे अवस्थित कहते है।
६. जलतरङ्ग की तरह जो अवधिज्ञान कभी घटता है, कभी बढ़ता है, कभी आविर्भूत होता है और कभी तिरोहित होता है उसे अनवस्थित कहते है।
यद्यपि तीर्थङ्कर मात्र को तथा किसी अन्य मनुष्य को भी अवधिज्ञान जन्म से प्राप्त होता है तथापि उसे गुणप्रत्यय ही समझना चाहिए, क्योकि योग्य गुण न होने पर अवधिज्ञान आजन्म नही रहता, जैसे कि देव या नरकगति मे रहता है । २१-२३ ।
मनःपर्याय के भेद और उनका अन्तर ऋजुविपुलमती मनःपर्यायः । २४ ।
विशुद्धचप्रतिपाताभ्यां तद्विशेषः । २५ । ऋजुमति और विपुलमति ये दो मनःपर्यायज्ञान हैं। विशुद्धि से और पतन के अभाव से उन दोनों का अन्तर है।
मनवाले (संज्ञी) प्राणी किसी भी वस्तु या पदार्थ का चिन्तन मन द्वारा करते है । चिन्तनीय वस्तु के भेद के अनुसार चिन्तन मे प्रवृत मन भिन्न-भिन्न आकृतियों को धारण करता रहता है । वे आकृतियाँ ही मन के पर्याय है और उन मानसिक आकृतियों को साक्षात् जाननेवाला ज्ञान मन पर्याय है। इस ज्ञान से चिन्तनशील मन की आकृतियाँ जानी जाती है पर चिन्तनीय वस्तुएँ नही जानी जा सकती।
प्रश्न-तो फिर क्या चिन्तनीय वस्तुओं को मनःपर्यायज्ञानवाला जान नही सकता ?
उत्तर-जान सकता है, पर बाद में अनुमान के द्वारा । प्रश्न-किस प्रकार ?
उत्तर-जैसे मानसशास्त्री किसी का चेहरा या हावभाव देखकर उस व्यक्ति के मनोभावों तथा सामर्थ्य का ज्ञान अनुमान से करता है वैसे ही मनःपर्यायज्ञानी मनःपर्याय-ज्ञान से किसी के मन की आकृतियों को प्रत्यक्ष देखकर बाद मे अभ्यासवश अनुमान कर लेता है कि इस व्यक्ति ने अमुक वस्तु का चिन्तन किया, क्योंकि इसका मन उस वस्तु के चिन्तन के समय अवश्य होनेवाला अमुकअमुक प्रकार की आकृतियों से युक्त है ।
१. देखें-अ० २, सू० ६ ।
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तत्त्वार्थ सूत्र
प्रश्न - ऋजुमति और विपुलमति का क्या अर्थ है ?
उत्तर - जो विषय को सामान्य रूप से जानता है वह ऋजुमति मन पर्यायज्ञान है और जो विशेष रूप से जानता है वह विपुलमति मनःपर्यायज्ञान है । प्रश्न- जब ऋजुमति ज्ञान सामान्यग्राही है तब तो उसे 'दर्शन' ही कहना चाहिए, ज्ञान क्यों कहा जाता है ?
उत्तर
-
- उसे सामान्यग्राही कहने का अभिप्राय इतना ही है कि वह विशेषों को तो जानता है पर विपुलमति के जितने विशेषों को नही जानता ।
ऋजुमति की अपेक्षा विपुलमति मन पर्यायज्ञान विशुद्धतर होता है क्योकि वह सूक्ष्मतर और अधिक विशेषो को स्फुटलया जान सकता है । इसके अतिरिक्त दोनो मे यह भी अन्तर है कि ऋजुमति उत्पन्न होने के बाद कदाचित् नष्ट भी हो जाता है, पर विपुलमति केवलज्ञान की प्राप्तिपर्यन्त बना ही रहता है । २४-२५ । अवधि और मनःपर्याय में अन्तर
३०
विशुद्धिक्षेत्र स्वामिविषयेभ्योऽवधिमनः पर्याययोः । २६ ।
विशुद्धि, क्षेत्र, स्वामी और विषय के द्वारा अवधि और मनःपर्याय में अन्तर होता है ।
यद्यपि अवधि और मन. पर्याय दोनों पारमार्थिक विकल ( अपूर्ण ) प्रत्यक्ष रूप से समान है तथापि दोनो मे कई प्रकार का अन्तर है, जैसे विशुद्धिकृत, क्षेत्रकृत, स्वामिकृत और विषयकृत । १. मनः पर्यायज्ञान अवधिज्ञान की अपेक्षा अपने विषय को बहुत विशद रूप से जानता है इसलिए उससे विशुद्धतर हैं । २. अवधिज्ञान का क्षेत्र अंगुल के असंख्यातवे भाग से लेकर सम्पूर्ण लोक तक है और मनःपर्यायज्ञान का क्षेत्र मानुषोत्तर पर्वतपर्यन्त ही है । ३. अवधिज्ञान के स्वामी चारों गतिवाले हो सकते है पर मन पर्याय के स्वामी केवल संयत मनुष्य ही है । ४. अवधि का विषय कतिपय पर्यायसहित रूपी द्रव्य है पर मनःपर्याय का विषय तो केवल उसका अनन्तवाँ भाग है, मात्र मनोद्रव्य है । प्रश्न - विषय कम होने पर भी मन पर्यान जाता है ?
१
अवधि से विशुद्धतर कैसे माना
[ १ २६.
उत्तर -- त्रिशुद्धि का आधार विषय की न्यूनाधिकता नही है, विषयगत न्यूनाधिक सूक्ष्मताओ को जानना है । जैसे दो व्यक्तियो मे से एक अनेक शास्त्रों को जानता है और दूसरा केवल एक शास्त्र, तो भी अनेक शास्त्रों के ज्ञाता की अपेक्षा एक शास्त्र को जाननेवाला व्यक्ति अपने विषय को सूक्ष्मताओ को अधिक जानता हो तो उसका ज्ञान पहले की अपेक्षा विशुद्धतर कहलाता है । वैसे ही विषय १. देखे -
-- अ० १, सू० २६ ।
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३१
१. २७-३०.] पाँचों ज्ञानो के ग्राह्य विषय अल्प होने पर भी उसकी सूक्ष्मताओं को अधिक जानने के कारण मनःपर्याय को अवधि से विशुद्धतर कहा गया है । २६ ।
पाँचों ज्ञानों के ग्राह्य विषय मतिश्रुतयोनिबन्धः सर्वद्रव्येष्वसर्वपर्यायेषु । २७ । रूपिष्ववधेः । २८॥ तदनन्तभागे मनःपर्यायस्य । २९ ।
सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य । ३० । मतिज्ञान और श्रुतज्ञान की प्रवृत्ति (ग्राह्यता ) सर्व-पर्यायरहित अर्थात् परिमित पर्यायों से युक्त सब द्रव्यों में होती है । ___ अवधिज्ञान की प्रवृत्ति सर्वपर्यायरहित केवल रूपो ( मूर्त ) द्रव्यों में होती है।
मनःपर्यायज्ञान की प्रवृत्ति उस रूपी द्रव्य के सर्वपर्यायरहित अनन्तवें भाग में होती है।
केवलज्ञान की प्रवृत्ति सभी द्रव्यों में और सभी पर्यायों में होती है ।
मति और श्रुतज्ञान के द्वारा रूपी, अरूपी सभी द्रव्य जाने जा सकते है पर पर्याय उनके कुछ ही जाने जा सकते है, सब नही ।।
प्रश्न उक्त कथन से ज्ञात होता है कि मति और श्रुत के ग्राह्य विषयो में न्यूनाधिकता है ही नहीं, क्या यह सही है ?
उत्तर-द्रव्यरूप ग्राह्य की अपेक्षा से तो दोनों के विषयों में न्यूनाधिकता नही है । पर पर्यायरूप ग्राह्य की अपेक्षा से दोनों के विषयो मे न्यूनाधिकता अवश्य है। ग्राह्य पर्यायो की न्यूनाधिकता होने पर भी समानता इतनी ही है कि वे दोनों ज्ञान द्रव्यो के परिमित पर्यायों को ही जान सकते है, सम्पूर्ण पर्यायों को नही । मतिज्ञान वर्तमानग्राही होने से इन्द्रियों की शक्ति और आत्मा की योग्यता के अनुसार द्रव्यों के कुछ-कुछ वर्तमान पर्यायों को ही ग्रहण करता है पर श्रुतज्ञान त्रिकालग्राही होने से तीनों कालों के पर्यायों को थोडेबहुत प्रमाण मे ग्रहण करता है।
प्रश्न-मतिज्ञान चक्षु आदि इन्द्रियों से पैदा होता है और इन्द्रियाँ केवल मूर्त द्रव्य को ही ग्रहण कर सकती है। फिर मतिज्ञान के ग्राह्य सब द्रव्य किस प्रकार माने गए ?
उत्तर-मतिज्ञान इन्द्रियों की तरह मन से भी होता है और मन स्वानुभूत या शास्त्रश्रुत सभी मूर्त-अमूर्तद्रव्यों का चिन्तन करता है। इसलिए मनोजन्य
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३२ तत्त्वार्थसूत्र
[ १. ३१. मतिज्ञान की अपेक्षा से मतिज्ञान के ग्राह्य सब द्रव्य मानने में कोई विरोध नही है।
प्रश्न-स्वानुभूत या शास्त्रश्रुत विषयों मे मन के द्वारा मतिज्ञान भी होगा और श्रुतज्ञान भी, तब दोनों मे अन्तर क्या है ?
उत्तर-जब मानसिक चिन्तन शब्दोल्लेख सहित हो तब वह श्रुतज्ञान है और जब शब्दोल्लेख रहित हो तब मतिज्ञान है।
परम प्रकर्षप्राप्त परमावधि-ज्ञान जो अलोक में भी लोकप्रमाण असंख्यात खण्डो को देखने का सामर्थ्य रखता है, वह भी मात्र मूर्त द्रव्यों का साक्षात्कार कर पाता है, अमूर्त द्रव्यों का नहीं। इसी तरह वह मूर्त द्रव्यों के भी सम्पूर्ण पर्यायो को नही जान सकता।
मनःपर्याय-ज्ञान भी मूर्त द्रव्यों का ही साक्षात्कार करता है, पर अवधिज्ञान के बराबर नही। अवधिज्ञान के द्वारा सब प्रकार के पुद्गलद्रव्य ग्रहण किये जा सकते हैं, पर मन पर्यायज्ञान के द्वारा केवल मनरूप बने हुए पुद्गल और वे भी मानुषोत्तर क्षेत्र के अन्तर्गत ही ग्रहण किये जा सकते है। इसी कारण मनःपर्यायज्ञान का विषय अवधिज्ञान के विषय का अनन्तवा भाग है । मन.पर्यायज्ञान कितना ही विशुद्ध हो, अपने ग्राह्य द्रव्यों के सम्पूर्ण पर्यायो को नही जान सकता । यद्यपि मनःपर्यायज्ञान के द्वारा साक्षात्कार तो केवल चिन्तनशील मूर्त मन का ही होता है पर बाद मे होनेवाले अनुमान से तो उस मन के द्वारा चिन्तन किये गये मूर्त-अमूर्त सभी द्रव्य जाने जा सकते है ।
मति आदि चारों ज्ञान कितने ही शुद्ध हों पर वे चेतनाशक्ति के अपूर्ण विकसितरूप होने से एक वस्तु के भी समग्र भावों को जानने में असमर्थ है। नियम यह है कि जो ज्ञान किसी एक वस्तु के सम्पूर्ण भावो को जान सकता है वह सब वस्तुओ के सम्पूर्ण भावों को भी ग्रहण कर सकता है । वही ज्ञान पूर्णज्ञान कहलाता है, उसी को केवलज्ञान कहते है । यह ज्ञान चेतनाशक्ति के सम्पूर्ण विकास के समय प्रकट होता है । अतः इसके अपूर्णताजन्य भेद-प्रभेद नही है । कोई भी वस्तु या भाव ऐसा नही है जो इसके द्वारा प्रत्यक्ष न जाना जा सके । इसीलिए केवलज्ञान की प्रवृत्ति सब द्रव्यों और सब पर्यायो में मानी गई है । २७-३० ।
__ एक आत्मा में एक साथ पाये जानेवाले ज्ञान एकादीनि भाज्यानि युगपदेकस्मिन्नाचतुर्व्यः । ३१ । एक आत्मा में एक साथ एक से लेकर चार तक ज्ञान विकल्प सेअनियत रूप से होते हैं।
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१. ३१ ]
एक आत्मा में एक साथ पाये जानेवाले ज्ञान
३३
किसी आत्मा में एक साथ एक, किसी में दो, किसी में तीन और किसी में चार ज्ञान तक सम्भव है पर पांचों ज्ञान एक साथ किसी में नहीं होते । जब एक ज्ञान होता है, तब केवलज्ञान ही होता है क्योंकि परिपूर्ण होने से कोई अन्य अपूर्ण ज्ञान सम्भव ही नही है । जब दो ज्ञान होते है तब मति और श्रुत, क्योंकि पाँच ज्ञानों मे से नियत सहचारी ये ही दो ज्ञान है। शेष तीनों ज्ञान एक-दूसरे को छोड़कर भी रह सकते है । जब तीन ज्ञान होते है तब मति, श्रुत और अवधिज्ञान या मति, श्रुत और मनःपर्यायज्ञान होते है । तीन ज्ञान अपूर्ण अवस्था में ही सम्भव है और तब चाहे अवधिज्ञान हो या मनःपर्यायज्ञान, मति और श्रुत दोनों तो अवश्य होते है। जब चार ज्ञान होते है तब मति, श्रुत, अवधि और मन पर्याय होते है, क्योंकि ये ही चारों ज्ञान अपूर्ण अवस्थाभावी होने से एक साथ हो सकते है । केवलज्ञान का अन्य किसी ज्ञान के साथ साहचर्य नहीं है क्योंकि वह पूर्ण अवस्थाभावी है और शेष सभी ज्ञान अपूर्ण अवस्थाभावी हैं । पूर्णता तथा अपूर्णता दोनों अवस्थाएँ आपस में विरोधी होने से एक साथ आत्मा मे नहीं होती । दो, तीन या चार ज्ञानों को एक साथ शक्ति की अपेक्षा से सम्भव कहा गया है, प्रवृत्ति की अपेक्षा से नहीं ।
प्रश्न-इसे ठीक तरह से समझाइए।
उत्तर-जैसे मति और श्रुत दो ज्ञानवाला या अवधिसहित तीन ज्ञानवाला कोई आत्मा जिस समय मतिज्ञान के द्वारा किसी विषय को जानने में प्रवृत्त हो, उस समय वह अपने में श्रुत की शक्ति या अवधि की शक्ति होने पर भी उसका उपयोग करके तद्द्वारा उसके विषयों को नही जान सकता । इसी तरह वह श्रुतज्ञान की प्रवृत्ति के समय मति या अवधि की शक्ति को भी काम में नही ला सकता । यही बात मनःपर्याय की शक्ति के विषय मे है । सारांश यह है कि एक आत्मा में एक साथ अधिक-से-अधिक चार ज्ञान-शक्तियाँ हों तब भी एक समय में कोई एक ही शक्ति जानने का काम करती है, अन्य शक्तियाँ निष्क्रिय रहती है। ___ केवलज्ञान के समय मति आदि चारों ज्ञान नहीं होते । यह सिद्धान्त सामान्य होने पर भी उसकी उपपत्ति दो तरह से की जाती है। कुछ आचार्य कहते है कि केवलज्ञान के समय भी मति आदि चारों ज्ञान-शक्तियाँ रहती है पर वे सूर्यप्रकाश के समय ग्रह-नक्षत्र आदि के प्रकाश की तरह केवलज्ञान की प्रवृत्ति से अभिभूत हो जाने के कारण अपना-अपना ज्ञानरूप कार्य नहीं कर सकती । इसीलिए शक्तियां होने पर भी सवलज्ञाम के समय मति आदि ज्ञानपर्याय नहीं होते।
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तत्त्वार्थसूत्र
[१. ३२-३३ दूसरे आचार्यो का कथन है कि मति आदि चार ज्ञानशक्तियाँ आत्मा में स्वाभाविक नहीं है, किन्तु कर्म-क्षयोपशमरूप होने से औपाधिक अर्थात् कर्मसापेक्ष है । इसलिए ज्ञानावरणीय कर्म का सर्वथा अभाव हो जाने पर-जब कि केवलज्ञान प्रकट होता है--औपाधिक शक्तियाँ सम्भव हो नही है। इसलिए केवलज्ञान के समय कैवल्यशक्ति के सिवाय न तो अन्य ज्ञानशक्तियाँ ही रहती है और न उनका मति आदि ज्ञानपर्यायरूप कार्य ही रहता है । ३१ ।
विपर्यय ज्ञान का निर्धारण और विपर्ययता के हेतु मतिश्रुताऽवधयो विपर्ययश्च । ३२ ।
सदसतोरविशेषाद् यदृच्छोपलब्धरुन्मत्तवत् । ३३ । मति, श्रुत और अवधि ये तीनों विपर्यय ( अज्ञानरूप ) भी हैं।
वास्तविक और अवास्तविक का अन्तर न जानने से यदृच्छोपलब्धि (विचारशून्य उपलब्धि ) के कारण उन्मत्त की तरह ज्ञान भी अज्ञान ही है।
मति, श्रुत आदि पाँचों ज्ञान चेतनाशक्ति के पर्याय है । इनका कार्य अपनेअपने विषय को प्रकाशित करना है । अतः ये सब ज्ञान कहलाते है । परन्तु इनमे से पहले तीनों को ज्ञान व अज्ञानरूप माना गया है । जैसे मतिज्ञान, मति-अज्ञान, श्रुतज्ञान, श्रुत-अज्ञान, अवधिज्ञान, अवधि-अज्ञान अर्थात् विभङ्गज्ञान ।
प्रश्न-मति, श्रुत और अवधि ये तीनों पर्याय जब अपने-अपने विषय का बोध कराने के कारण ज्ञान है, तब उन्ही को अज्ञान क्यों कहा जाता है ? क्योंकि ज्ञान और अज्ञान दोनों शब्द परस्परविरुद्ध अर्थ के वाचक होने से प्रकाश और अन्धकार शब्द की तरह एक ही अर्थ में लागू नहीं हो सकते ।
उत्तर-उक्त तीनों पर्याय लौकिक संकेत के अनुसार तो ज्ञान ही है, परन्तु यहाँ उन्हे ज्ञान और अज्ञानरूप शास्त्रीय संकेत के अनुसार ही कहा जाता है । आध्यात्मिक शास्त्र का संकेत है कि मति, श्रुत और अवधि ये तीनो ज्ञानात्मक पर्याय मिथ्यादृष्टि के अज्ञान है और सम्यग्दृष्टि के ज्ञान ।।
प्रश्न-यह कैसे कह सकते है कि केवल सम्यग्दृष्टि आत्मा ही प्रामाणिक व्यवहार चलाते है और मिथ्यादृष्टि नही चलाते ? यह भी नहीं कहा जा सकता कि सम्यग्दृष्टि को संशय या भ्रमरूप मिथ्याज्ञान बिलकुल नहीं होता और मिथ्यादृष्टि को ही होता है । यह भी सम्भव नही कि इन्द्रिय आदि साधन सम्यग्दृष्टि के तो पूर्ण तथा निर्दोष ही हो और मिथ्यादृष्टि के अपूर्ण तथा दुष्ट हों। यह भी कैसे कहा जा सकता है कि विज्ञान व साहित्य आदि विषयों पर अपूर्व प्रकाश डालनेवाले
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१. ३४-३५ ]
नय के भेद
३५
और उनका यथार्थ निर्णय करनेवाले सभी सम्यग्दृष्टि है । इसलिए प्रश्न उठता है कि अध्यात्मशास्त्र के पूर्वोक्त ज्ञान-अज्ञान सम्बन्धी संकेत का आधार क्या है ?
उत्तर - अध्यात्मशास्त्र का आधार आध्यात्मिक दृष्टि है, लौकिक दृष्टि नहीं । जीव दो प्रकार के है -- मोक्षाभिमुख और ससाराभिमुख । मोक्षाभिमुख जीव या आत्मा में समभाव और आत्मविवेक होता है, इसलिए वे अपने सभी ज्ञानों का उपयोग समभाव की पुष्टि मे करते है, सासारिक वासना की पुष्टि मे नही । लौकिक दृष्टि से उनका ज्ञान चाहे अल्प ही हो पर उसे ज्ञान कहा जाता है । संसाराभिमुख आत्मा का ज्ञान लौकिक दृष्टि से कितना ही विशाल और स्पष्ट हो, वह समभाव का पोपक न होने से जितने परिमाण में सांसारिक वासना का पोषक होता है उतना अज्ञान कहलाता है । जैसे उन्मत्त मनुष्य भी सोने को सोना और लोहे को लोहा जानकर कभी यथार्थ ज्ञान प्राप्त कर लेता है, पर उन्माद के कारण वह सत्य-असत्य का अन्तर जानने में असमर्थ होता है । इसलिए उसका सच्चाझूठा सम्पूर्ण ज्ञान विचारशून्य या अज्ञान ही कहलाता है । वैसे ही संसाराभिमुख आत्मा को कितना ही अधिक ज्ञान हो, पर आत्मा के विषय में अंधेरा होने के कारण उसका सम्पूर्ण लौकिक ज्ञान आध्यात्मिक दृष्टि से अज्ञान ही है ।
सारांश, उन्मत्त मनुष्य के अधिक विभूति भी हो जाय और कभी वस्तु का यथार्थ बोध भी हो जाय तथापि उसका उन्माद ही बढता है, वैसे ही मिथ्यादृष्टि आत्मा, जिसके राग-द्वेष की तीव्रता और आत्मा का अज्ञान होता है, वह अपनी विशाल ज्ञानराशि का भी उपयोग केवल सांसारिक वासना के पोषण में ही करता है । इसीलिए उसके ज्ञान को अज्ञान कहा जाता है । इसके विपरीत सम्यग्दृष्टि आत्मा, जिसमें राग-द्वेष की तीव्रता न हो और आत्मज्ञान हो, वह अपने अल्प लौकिक ज्ञान का उपयोग भी आत्मिक तृप्ति मे करता है । इसलिए उसके ज्ञान को ज्ञान कहा गया है । यह आध्यात्मिक दृष्टि है । ३२-३३ ।
नय के भेद
नैगमसङ्ग्रह्व्यवहारर्जसूत्रशब्दा नयाः । ३४ ।
आद्यशब्दौ द्वित्रिभेदौ । ३५ ।
नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र और शब्द ये पाँच नय हैं । आद्य अर्थात् प्रथम नैगम नय के दो और शब्द नय के तीन भेद है । नय के भेदों की संख्या के विषय में कोई एक निश्चित परम्परा नही है । इनकी तीन परम्पराएँ देखने में आती है । एक परम्परा तो सीधे तौर पर पहले से ही सात भेदों को मानती है, जैसे नैगम, संग्रह, व्यवहार,
ऋजुसूत्र, शब्द,
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तत्त्वार्थसूत्र
[ १. ३४-३५ समभिरूढ और एवंभूत । यह परम्परा जैनागमो और दिगम्बर ग्रन्थों की है । दूसरी परम्परा सिद्धसेन दिवाकर की है। वे नैगम को छोडकर शेष छः भेदो को मानते है । तीसरी परम्परा प्रस्तुत सूत्र और उसके भाष्य की है। इसके अनुसार नय के मूल पाँच भेद है और बाद मे प्रथम नैगम नय के (भाष्य के अनुसार) देशपरिक्षेपी और सर्वपरिक्षेपी ये दो तथा पांचवें शब्द नय के साम्प्रत, समभिरूढ़ और एवंभूत ये तीन भेद है ।
नयों के निरूपण का भाव-कोई भी एक या अनेक वस्तुओ के विषय मे एक या अनेक व्यक्तियों के अनेक विचार होते है । एक ही वस्तु के विषय मे भिन्नभिन्न विचारों की संख्या अपरिमित हो जाती है । तद्विषयक प्रत्येक विचार का बोध होना असम्भव हो जाता है । अतएव उनका अतिसंक्षिप्त और अतिविस्तृत प्रतिपादन छोडकर मध्यम-मार्ग से प्रतिपादन करना ही नयो का निरूपण है । इसी को विचारों का वर्गीकरण कहते है। नयवाद का अर्थ है विचारो की मीमासा । नयवाद में मात्र विचारों के कारण उनके परिणाम या उनके विषयों की ही चर्चा नहीं आती। जो विचार परस्परविरुद्ध दिखाई पड़ते है पर वास्तव मे जिनका विरोध नहीं है, उन विचारो के अविरोध के बीज की गवेषणा करना ही नयवाद का मुख्य उद्देश्य है । अत. नयवाद की संक्षिप्त व्याख्या इस तरह हो सकती है-'परस्परविरुद्ध दिखाई देनेवाले विचारो के वास्तविक अविरोध के बीज की गवेषणा करके उन विचारो का समन्वय करनेवाला शास्त्र ।' जैसे आत्मा के विपय में ही परस्परविरुद्ध मन्तव्य मिलते है। कही 'आत्मा एक है ऐसा कथन है, तो कही 'अनेक है' ऐसा कथन भी मिलता है । एकत्व और अनेकत्व परस्परविरुद्ध दिखाई पडते है। ऐसी स्थिति मे प्रश्न होता है कि इन दोनों का यह विरोध वास्तविक है या नही ? यदि वास्तविक नहीं तो कैसे ? इसका उत्तर नयवाद ने ढूंढ निकाला है और ऐसा समन्वय किया है कि व्यक्तिरूप से देखा जाय तो आत्मतत्त्व अनेक है, किन्तु शुद्ध चैतन्य की दृष्टि से वह एक ही है। इस तरह का समन्वय करके नयवाद परस्परविरोधी वाक्यों में भी अविरोध या एकवाक्यता सिद्ध करता है। इसी तरह आत्मा के विषय में परस्परविरुद्ध दिखाई देनेवाले नित्यत्व-अनित्यत्व, कर्तृत्व-अकर्तृत्व आदि मतो का भी अविरोध नयवाद से ही सिद्ध होता है। ऐसे अविरोध का बीज विचारक की दृष्टि ( तात्पर्य ) में ही है । इसी दृष्टि के लिए प्रस्तुत शास्त्र में “अपेक्षा' शब्द है । अतः नयवाद को अपेक्षावाद भी कहा जाता है।
नयवाद की देशना और उसकी विशेषता-ज्ञान-निरूपण मे श्रुत' की १. देखें-१० १, सू० २० ।।
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१ ३४-३५ ]
नय के भेद चर्चा आ चुकी है । श्रुत विचारात्मक ज्ञान है और नय भी एक तरह का विचारात्मक ज्ञान होने से श्रुत में ही समा जाता है। इसीलिए प्रथम यह प्रश्न उपस्थित होता है कि श्रुत के निरूपण के बाद नयों को उससे भिन्न करके नयवाद की देशना अलग से क्यों की जाती है ? जैन तत्त्वज्ञान की एक विशेषता नयवाद मानी जाती है, लेकिन नयवाद तो श्रुत है और श्रुत कहते है आगम-प्रमाण को । जैनेतर दर्शनों मे भी प्रमाण-चर्चा और उसमे भी आगम-प्रमाण का निरूपण है ही । अल. सहज ही दूसरा प्रश्न यह उपस्थित होता है कि जब आगम-प्रमाण की चर्चा अन्य दर्शनो मे भी है, तब आगम-प्रमाण मे समाविष्ट नयवाद की स्वतन्त्र देशना करने से ही वह जैनदर्शन की अपनी विशेषता कैसे मानी जाय ? अथवा श्रुतप्रमाण के अतिरिक्त नयवाद की स्वतत्र देशना करने मे जैनदर्शन के प्रवर्तको का क्या उद्देश्य था ?
श्रुत और नय दोनो विचारात्मक ज्ञान है ही। किन्तु दोनों मे अन्तर यह है कि किसी भी विषय को सर्वाश मे स्पर्श करनेवाला अथवा सर्वाश मे स्पर्श करने का प्रयत्न करनेवाला विचार श्रुत है और किसी एक अंश को स्पर्श करनेवाला विचार नय है । इस तरह नय को स्वतन्त्र रूप से प्रमाण नही कहा जा सकता, फिर भी वह अप्रमाण नही है। जैसे अगुली का अग्रभाग अंगुली नहीं है, फिर भी उसे 'अंगुली नही है' यह भी नही कह सकते क्योकि वह अगुली का अश तो है ही। इसी तरह नय भी श्रुत-प्रमाण का अंश है। विचार की उत्पत्ति का क्रम और तत्कृत व्यवहार इन दो दृष्टियों से नय का निरूपण श्रुत-प्रमाण से भिन्न करके किया गया है। किसी भी पदार्थ के विभिन्न अंगो के विचार ही अन्त में विशालता या समग्रता मे परिणत होते है । विचार जिस क्रम से उत्पन्न होते है, उसी क्रम से तत्त्वबोध के उपायरूप से उनका वर्णन होना चाहिए। इसे मान लेने से स्वाभाविक तौर से नय का निरूपण श्रुत-प्रमाण से अलग करना संगत हो जाता है और किसी एक विषय का समग्ररूप से कितना भी ज्ञान हो तो भी व्यवहार मे उस ज्ञान का उपयोग एक-एक अंश को लेकर ही होता है। इसीलिए समग्र विचारात्मक श्रुत से अश-विचारात्मक नय का निरूपण भिन्न किया जाता है।
यद्यपि जैनेतर दर्शनों मे आगम-प्रमाण की चर्चा है तथापि उसी प्रमाण में समाविष्ट नयवाद की जैनदर्शन ने जो स्वतन्त्र रूप से प्रतिष्ठा की है उसका अपना कारण है और वही इसकी विशेषता के लिए पर्याप्त है। सामान्यत मनुष्य की ज्ञानवृत्ति अधूरी होती है और अस्मिता ( अभिनिवेश) अत्यधिक होता है । जब वह किसी विषय में कुछ भी सोचता है तब वह उसको ही अन्तिम व
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३८
तत्त्वार्थमुत्र
[ १.३४-३५
सम्पूर्ण मानने को प्रेरित होता है और इसी प्रेरणावश वह दूसरे के विचारों को समझने का धैर्य खो बैठता है । अन्तत वह अपने आशिक ज्ञान में ही सम्पूर्णता का आरोप कर लेता है । इस आरोप के कारण एक ही वस्तु के विषय मे सच्चे लेकिन भिन्न-भिन्न विचार रखनेवालो के बीच सामंजस्य नही रहता । फलत. पूर्ण और सत्य ज्ञान का द्वार बन्द हो जाता है ।
आत्मा आदि किसी भी विषय में अपने आप्तपुरुष के आशिक विचार को ही जब कोई दर्शन सम्पूर्ण मानकर चलता है तब वह विरोधी होने पर भी यथार्थ विचार रखनेवाले दूसरे दर्शनो को अप्रमाण कहकर उनकी अवगणना करता है । इसी तरह दूसरा दर्शन उसकी और फिर दोनो किसी तीसरे की अवगणना करते है । परिणामत. समता की जगह विषमता और विवाद खड़े हो जाते है । इसीलिए सत्य और पूर्ण ज्ञान का द्वार खोलने और विवाद मिटाने के लिए ही नयवाद की प्रतिष्ठा की गई है । उससे यह सूचित किया गया है कि प्रत्येक विचारक को चाहिए कि वह अपने विचार को आगम प्रमाण कहने के पूर्व यह देख ले कि उसका विचार प्रमाण कोटि में आने योग्य सर्वाशी है अथवा नही है । नयवाद के द्वारा ऐसा निर्देश करना ही जैनदर्शन की विशेषता है ।
सामान्य लक्षरण -- किसी भी विषय का सापेक्ष निरूपण करनेवाला विचार न है ।
संक्षेप मे नय के दो भेद है - द्रव्याथिक और पर्यायार्थिक ।
जगत् मे छोटी या बडी सभी वस्तुएँ एक-दूसरे से न तो सर्वथा असमान ही होती है, न सर्वथा समान । इनमे समानता और असमानता दोनो अंश रहते है । इसीलिए 'वस्तुमात्र 'सामान्य - विशेष (उभयात्मक) है,' ऐसा कहा जाता है । मनुष्य की बुद्धि कभी तो वस्तुओं के सामान्य अंश की ओर झुकती है और कभी विशेष अंश की ओर । जब वह सामान्य अंश को ग्रहण करती है तब उसका वह विचार द्रव्यार्थिक नय कहलाता है और जब वह विशेष अंश को ग्रहण करती है तब पर्यायार्थिक नय कहलाता है । सभी सामान्य और विशेष दृष्टियाँ भी एक-सी नही होती, उनमें भी अन्तर रहता है । यही बतलाने के लिए इन दो दृष्टियो के फिर संक्षेप मे भाग किये गये है । द्रव्यार्थिक के तीन और पर्यायार्थिक के चारइस तरह कुल सात भाग बनते है और ये ही सात नय है । द्रव्यदृष्टि मे विशेष पर्याय ) और पर्यायदृष्टि मे द्रव्य ( सामान्य ) आता ही नही, ऐसी बात नहीं है । यह दृष्टिविभाग तो केवल गौण-प्रधान भाव की अपेक्षा से ही है ।
प्रश्न - ऊपर निरूपित दोनों नयों को सरल उदाहरणों द्वारा समझाइए । उत्तर -- कही भी, कभी भी और किसी भी अवस्था में रहकर समुद्र की
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१. ३४-३५ ]
नय के भेद
तरफ दृष्टि डालने पर जब जल के रंग, स्वाद, उसकी गहराई या छिछलापन, विस्तार तथा सीमा इत्यादि विशेषताओं की ओर ध्यान न जाकर केवल जल-हीजल ध्यान मे आता है तब वह मात्र जल का सामान्य विचार कहलाता है और यही जल-विषयक द्रव्यार्थिक नय है । लेकिन जब रंग, स्वाद आदि विशेषताओं की ओर ध्यान जाता है तब वह विचार जल की विशेषताओं का होने से जलविषयक पर्यायार्थिक नय कहा जायेगा ।
इसी तरह अन्य सभी भौतिक पदार्थो के विषय मे समझना चाहिए । विभिन्न स्थलो मे फैली हुई जल जैसी एक ही तरह की नाना वस्तुओं के विषय में जिस प्रकार सामान्य और विशेष विचार करना सम्भव है, वैसे ही भूत, वर्तमान और भविष्य इस त्रिकालरूप अपार पट पर फैले हुए आत्मादि किसी एक पदार्थ के विषय मे भी सामान्य और विशेष विचार सर्वथा सम्भव है | काल तथा अवस्थाभेदकृत चित्रों पर ध्यान न देकर जब केवल शुद्ध चैतन्य की ओर ध्यान जाता है, तब वह उसके विषय का द्रव्यार्थिक नय कहा जायेगा । चैतन्य की देश कालादिकृत विविध दशाओं पर जब ध्यान जायेगा तब वह चैतन्य विषयक पर्यायार्थिक नय कहा जायेगा ।
विशेष भेदों का स्वरूप - १. जो विचार लौकिक रूढ़ि अथवा लौकिक संस्कार के अनुसरण से पैदा होता है वह नैगमनय है ।
३९
-
श्री उमास्वाति द्वारा निर्देशित नैगम नय के दो भेदों की व्याख्या इस प्रकार है - घट-पट जैसे सामान्यबोधक नाम से जब एकाध घट-पट जैसी अर्थवस्तु ही विचार में ग्रहण की जाती है तब वह विचार देश- परिक्षेपी नैगम कहलाता है और जब उस नाम से विवक्षित होनेवाले अर्थ की सम्पूर्ण जाति विचार में ग्रहण की जाती है तब वह विचार सर्वपरिक्षेपी नैगम कहलाता है ।
२. जो विचार भिन्न-भिन्न प्रकार की वस्तुओं को तथा अनेक व्यक्तियों को किसी भी सामान्य तत्त्व के आधार पर एक रूप में संकलित करता है वह संग्रहनय है ।
३. जो विचार सामान्य तत्त्व के आधार पर एक रूप मे संकलित वस्तुओं का व्यावहारिक प्रयोजन के अनुसार पृथक्करण करता है वह व्यवहारनय है ।
इन तीनों नयों का उद्गम द्रव्यार्थिक की भूमिका में निहित है, अतः ये तीनों न द्रव्यार्थिक प्रकृतिवाले कहलाते है ।
प्रश्न - शेष नयों की व्याख्या करने से पहले उपर्युक्त तीन नयों को ही उदाहरणों द्वारा अच्छी तरह स्पष्ट कीजिए ।
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४०
तत्त्वार्थसूत्र
[ १. ३४-३५
उत्तर
नैगमनय-देश-काल एवं लोक-स्वभाव सम्बन्धी भेदों की विविधता के कारण लोकरूढ़ियाँ तथा तज्जन्य संस्कार भी अनेक तरह के होते है, अतः उनसे उद्भूत नैगमनय भी अनेक तरह का होता है और उसके उदाहरण विविध प्रकार के मिल जाते है, वैसे ही अन्य उदाहरण भी बनाये जा सकते है ।
किसी काम के संकल्प से जानेवाले से कोई पूछता है कि 'आप कहाँ जा रहे है ?' तब वह कहता है कि 'मै कुल्हाड़ी या कलम लेने जा रहा हूँ।'
उत्तर देनेवाला वास्तव मे तो कुल्हाडी के हत्थे ( बेट ) के लिए लकडी अथवा कलम के लिए किलक लेने ही जा रहा होता है, लेकिन पूछनेवाला भी तत्क्षण उसके भाव को समझ जाता है । यह एक लोकरूढि है ।।
जात-पात छोड़कर भिक्षु बने हुए व्यक्ति का परिचय जब कोई पूर्वाश्रम के ब्राह्मण-वर्ण द्वारा कराता है तब भी वह ब्राह्मण श्रमण है' यह कथन तत्काल स्वीकार कर लिया जाता है । इसी तरह लोग चैत्र शुक्ला नवमी व त्रयोदशी को हजारों वर्ष पूर्व के राम तथा महावीर के जन्मदिन के रूप मे मानते है तथा उत्सवादि भी करते है । यह भी एक लोकरूढि है ।
जब कभी कुछ लोग समूहरूप मे लड़ने लगते है तब दूसरे लोग उनके क्षेत्र को ही लड़नेवाला मानकर कहने लगते है कि 'हिन्दुस्तान लड रहा है', 'चीन लड़ रहा है' इत्यादि; ऐसे कथन का आशय सुननेवाले समझ जाते है ।
इस प्रकार लोकरूढ़ियों के द्वारा पड़े संस्कारों के कारण जो विचार उत्पन्न होते है वे सभी नैगमनय के नाम से पहली श्रेणी मे गिन लिये जाते है ।
संग्रहनय-जड, चेतनरूप अनेक व्यक्तियों में जो सद्प एक सामान्य तत्त्व है, उसी पर दृष्टि रखकर दूसरे विशेषों को ध्यान में न रखकर सभी व्यक्तियों को एकरूप मानकर ऐसा विचार करना कि सम्पूर्ण जगत् सद्रूप है, क्योकि सत्तारहित कोई वस्तु है ही नही, यही संग्रहनय है । इसी तरह वस्त्रो के विविध प्रकारों तथा विभिन्न वस्त्रों की ओर लक्ष्य न देकर मात्र वस्त्ररूप सामान्य तत्त्व को ही दृष्टि मे रखकर विचार करना कि 'यहाँ केवल वस्त्र है', यही संग्रहनय है ।
सामान्य तत्त्व के अनुसार तरतमभाव को लेकर संग्रहनय के अनन्त उदाहरण बन सकते है । जितना विशाल सामान्य होगा उतना ही विशाल संग्रहनय भी होगा तथा जितना छोटा सामान्य होगा उतना ही संक्षिप्त संग्रहनय होगा। साराश, जो भी विचार सामान्य तत्त्व के आश्रय से विविध वस्तुओ का एकीकरण करके प्रवृत्त होते है, वे सभी संग्रहनय की कोटि मे आते है ।
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१. ३४-३५ ]
नय के भेद
४१
बाद भी
करने का
पडता है ।
व्यवहारनय- विविध वस्तुओं को एक रूप में संकलित करने के जब उनका विशेष रूप में बोध आवश्यक हो या व्यवहार में उपयोग प्रसंग हो तब उनका विशेष रूप से भेद करके पृथक्करण करना 'वस्त्र' कहने मात्र से भिन्न-भिन्न प्रकार के वस्त्रों का अलग-अलग बोध नही होता । जो केवल खादी चाहता है वह वस्त्रों का विभाग किये बिना खादी नही पा सकता, अतः खादी का कपड़ा, मिल का कपडा इत्यादि भेद भी करने पडते है । इसी प्रकार तत्त्वज्ञान के क्षेत्र मे सद्रूप वस्तु भी जड़ और चेतन दो प्रकार की है और चेतन तत्त्व भी संसारी और मुक्त दो प्रकार का है, इस तरह के पृथक्करण करने पड़ते है । ऐसे पृथक्करणोन्मुख सभी विचार व्यवहारनय की कोटि में आते है |
ऊपर के उदाहरणों से स्पष्ट है कि नैगमनय का आधार लोकरूढि है | लोकरूढि आरोप पर आश्रित होती है और आरोप सामान्य तत्त्वाश्रयी होता है । इस तरह यह बात भी स्पष्ट हो जाती है कि नैगमनय सामान्यग्राही है । संग्रहनय तो स्पष्ट रूप से एकीकरणरूप बुद्धि-व्यापार होने से सामान्यग्राही है ही । व्यवहारनय में बुद्धि-व्यापार पृथक्करणोन्मुख होने पर भी उसकी क्रिया का आवार सामान्य होने से वह भी सामान्यग्राही ही है । इसीलिए ये तीनो नय द्रव्यार्थिक नय के भेद है ।
प्रश्न- इन तीनों का पारस्परिक भेद और उनका सम्बन्ध क्या है ?
उत्तर -- नैगमनय का विषय सबसे अधिक विशाल है क्योकि वह सामान्य और विशेष दोनों का ही लोकरूढि के अनुसार कभी गौणरूप से और कभी मुख्यरूप से अवलंबन करता है । केवल सामान्यलक्षी होने से सग्रह का विषय नैगम से कम है और व्यवहार का विषय तो संग्रह से भी कम हैं, क्योकि वह संग्रह द्वारा संकलित विषय का ही मुख्य-मुख्य विशेषताओं के आधार पर पृथक्करण करता है, अतः केवल विशेषगामी है । इस तरह विषय क्षेत्र उत्तरोत्तर कम होने से इन तीनों का पारस्परिक पौर्वापर्य सम्बन्ध है । नैगमनय सामान्य, विशेष और इन दोनो के सम्बन्ध की प्रतीति कराता है । इसी मे से संग्रह का उद्भव होता है और संग्रह की भित्ति पर ही व्यवहार का चित्र खीचा जाता है ।
प्रश्न - इसी प्रकार शेष चार नयो की व्याख्या कीजिए, उनके उदाहरण दीजिए तथा दूसरी जानकारी कराइए ।
उत्तर – १. जो विचार भूतकाल और भविष्यत्काल का ध्यान न करके केवल वर्तमान को ही ग्रहण करता है वह ऋजुसूत्र है ।
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तत्त्वार्थसूत्र
[१. ३४-३५ २. जो विचार शब्द-प्रधान होकर अनेक शाब्दिक धर्मो की ओर झुककर तदनुसार अर्थ-भेद की कल्पना करता है वह शब्दनय है।।
श्री उमास्वाति द्वारा सूत्र मे निर्देशित शब्दनय के तीन भेदों में से प्रथम भेद साम्प्रत है । अर्थात् शब्दनय यह सामान्य पद साम्प्रत, समभिरूढ और एवंभूत इन तीनों भेदों को व्याप्त कर लेता है, परन्तु प्रचलित सब परम्पराओं में साम्प्रत नामक पहले भेद में ही 'शब्दनय' यह सामान्य पद रूढ हो गया है और साम्प्रतनय पद का स्थान शब्दनय पद ने ले लिया है। इसलिए यहाँ पर साम्प्रत नय की सामान्य व्याख्या न कर आगे विशेष स्पष्टीकरण करते समय शब्दनय पद का ही व्यवहार किया गया है । उसका जो स्पष्टीकरण किया गया है वही भाष्यकथित साम्प्रत नय का स्पष्टीकरण है।
३. जो विचार शब्द की व्युत्पत्ति के आधार पर अर्थ-भेद की कल्पना करता है वह समभिरूढ़नय है ।
४. जो विचार शब्द से फलित होनेवाले अर्थ के घटने पर ही वस्तु को उस रूप मे मानता है, अन्यथा नहीं, वह एवंभूतनय है ।
ऋजुसूत्रनय यद्यपि मनुष्य की कल्पना भूत और भविष्य की सर्वथा उपेक्षा करके नही चलती तथापि मनुष्य की बुद्धि कई बार तात्कालिक परिणाम की ओर झुककर वर्तमान में ही प्रवृत्ति करने लगती है। ऐसी स्थिति में मनुष्य-बुद्धि ऐसा मानने लगती है कि जो उपस्थित है वही सत्य है, वही कार्यकारी है
और भूत तथा भावी वस्तु वर्तमान मे कार्यसाधक न होने से शून्यवत् है । वर्तमान समृद्धि ही सुख का साधन होने से समृद्धि कही जा सकती है । भूत-समृद्धि का स्मरण या भावी-समृद्धि की कल्पना वर्तमान मे सुख-साधक न होने से समृद्धि नहीं कही जा सकती । इसी तरह पुत्र मौजूद हो और वह माता-पिता की सेवा करे, तब तो पुत्र है । किन्तु जो पुत्र अतीत हो या भावी हो पर मौजूद न हो, वह पुत्र ही नही । इस तरह केवल वर्तमानकाल से सम्बन्ध रखनेवाले विचार ऋजुसूत्रनय की कोटि मे आते है ।
शब्दनय-जब विचार की गहराई मे उतरनेवाली बुद्धि एक बार भूत और भविष्यत् की जड़ काटने पर उतारू हो जाती है तब वह उससे भी आगे बढ़कर किसी दूसरी जड को भी काटने को तैयार होने लगती है । वह भी मात्र शब्द को पकड़कर प्रवृत्त होती है और ऐसा विचार करने लगती है कि यदि भूत या भावी से पृथक् होने के कारण केवल वर्तमानकाल मान लिया जाय, तब तो एक ही अर्थ मे व्यवहृत होनेवाले भिन्न-भिन्न लिङ्ग, काल, सख्या, कारक, पुरुष और उपसर्गयुक्त शब्दों के अर्थ भी अलग-अलग क्यों न माने जायें ? जैसे तीनों कालों
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१. ३४-३५ ]
नय के भेद
में कोई सूत्ररूप एक वस्तु नही है, किन्तु वर्तमान स्थित वस्तु ही एकमात्र वस्तु कहलाती है, वैसे ही भिन्न-भिन्न लिङ्ग, संख्या और कालादि से युक्त शब्दों द्वारा कही जानेवाली वस्तुएँ भी भिन्न-भिन्न ही मानी जानी चाहिए । ऐसा विचार करके बुद्धि काल और लिङ्गादि के भेद से अर्थ में भी भेद मानने लगती है ।
उदाहरणार्थ, शास्त्र मे एक ऐसा वाक्य मिलता है कि 'राजगृह नाम का नगर था' । इस वाक्य का मोटे तौर पर यह अर्थ होता है कि राजगृह नाम का नगर भूतकाल मे था, वर्तमानकाल मे नही है; जब कि लेखक के समय मे भी राजगृह विद्यमान है । यदि वर्तमान मे है, तब उसको 'था' क्यों इसका उत्तर शब्दनय देता है कि वर्तमान मे विद्यमान राजगृह से राजगृह तो भिन्न ही है और उसी का वर्णन प्रस्तुत होने से 'राजगृह था' कहा गया है । यह कालभेद से अर्थभेद का उदाहरण है ।
लिखा गया ?
भूतकाल का
४३
लिङ्गभेद से अर्थभेद : जैसे कुआँ, कुई । यहाँ पहला शब्द नर जाति का और दूसरा नारी जाति का है । इन दोनों का कल्पित अर्थभेद भी व्यवहार मे प्रसिद्ध है । कितने ही तारे नक्षत्र नाम से पुकारे जाते हैं, फिर भी इस शब्दनय के अनुसार 'अमुक तारा नक्षत्र है' अथवा 'यह मघा नक्षत्र है' ऐसा शब्द - व्यवहार नहीं किया जा सकता । क्योंकि इस नय के अनुसार लिङ्गभेद से अर्थभेद माने जाने के कारण 'तारा और नक्षत्र' एवं 'मघा और नक्षत्र' इन दोनों शब्दों का एक ही अर्थ में प्रयोग नही कर सकते ।
संस्थान (आकार), प्रस्थान ( गमन ), उपस्थान ( उपस्थिति ) इसी प्रकार आराम, विराम इत्यादि शब्दों में एक ही धातु होने पर भी उपसर्ग के लग जाने से जो अर्थ-भेद हो जाता है उसी से शब्दनय की भूमिका बनती है ।
इस तरह विविध शाब्दिक धर्मों के आधार पर जो अर्थ-भेद की अनेक मान्यताएँ प्रचलित है, वे सभी शब्दनय की कोटि मे आती है ।
समभिरूढ़नय -- शाब्दिक धर्मभेद के आधार पर अर्थभेद करनेवाली बुद्धि ही जब और आगे बढकर व्युत्पत्तिभेद का आश्रय लेने लगती है और ऐसा मानने पर उतारू हो जाती है कि जहाँ अनेक भिन्न-भिन्न शब्दों का एक अर्थ मान लिया जाता है, वहाँ भी वास्तव मे उन सभी शब्दों का एक अर्थ नही हो सकता, किन्तु अलग-अलग अर्थ है । यदि लिङ्गभेद और संख्याभेद आदि से अर्थभेद मान सकते है, तब शब्दभेद भी अर्थ का भेदक क्यो नही दलील से वह बुद्धि राजा, नृप, अनुसार अलग-अलग अर्थ करती
मान लिया जाता ? इस भूपति आदि एकार्थक शब्दों के भी व्युत्पत्ति के है और कहती है कि राजचिह्नों से शोभित
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तत्वार्थ सूत्र
[ १. ३४-३५
'राजा', मनुष्यों का रक्षण करनेवाला 'नृप' तथा पृथ्वी का पालन - संवर्धन करनेवाला 'भूपति' है । इस तरह उक्त तीनों नामों के एक ही अर्थ में व्युत्पत्ति के अनुसार अर्थभेद माननेवाला विचार समभिरूढनय है । पर्याय-भेद से की जानेवाली अर्थभेद की सभी कल्पनाएँ समभिरूढ़नय की कोटि में आती है ।
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एवंभूतनय - विशेष रूप से गहराई मे जानेवाली बुद्धि अन्तिम गहराई में पहुँचने पर विचार करती है कि यदि व्युत्पत्तिभेद से अर्थभेद माना जा सकता है, तब तो ऐसा भी मानना चाहिए कि जब व्युत्पत्ति- सिद्ध अर्थ घटित होता हो, तभी उस शब्द का वह अर्थ स्वीकार करना चाहिए तथा उस शब्द के द्वारा उस अर्थ का प्रतिपादन करना चाहिए, अन्यथा नही । इस कल्पना के अनुसार किसी समय राजचिह्नों से शोभित होने की योग्यता को धारण करना, अथवा मनुष्यरक्षण के उत्तरदायित्व को प्राप्त करना मात्र ही 'राजा' या 'नृप' कहलाने के लिए पर्याप्त नही । 'राजा' तो वास्तव मे तभी कहला सकता है जब राजदण्ड धारण करता हुआ उससे शोभायमान हो रहा हो; इसी तरह 'नृप' तब कहना चाहिए जब वह मनुष्यों का रक्षण कर रहा हो । साराश, किसी व्यक्ति के लिए राजा या नृप शब्द का प्रयोग करना तभी ठीक है जब उसमे शब्द का व्युत्पत्ति- सिद्ध अर्थ भी घटित होता हो ।
इसी तरह जब कोई सेवा कर रहा हो, उसी समय या उतनी बार ही उसे 'सेवक' नाम से पुकारा जा सकता है । वास्तव मे जब कोई क्रिया हो रही हो तभी उनसे सम्बन्धित विशेषण या विशेष्य नाम का व्यवहार एवंभूतनय कहलाता है ।
शेष वक्तव्य-उक्त चारो प्रकार की विचार- कोटियों का अन्तर तो उदाहरणों से ही स्पष्ट हो सकता है । उसे अलग से लिखने की आवश्यकता नही । हाँ, इतना अवश्य है कि पूर्व - पूर्व नय की अपेक्षा उत्तर-उत्तर नय सूक्ष्म और सूक्ष्मतर होता जाता है | अतएव उत्तर-उत्तर नय का विषय पूर्व-पूर्व नय के विषय पर ही अवलम्बित रहता है । इन चारो नयों का मूल पर्यायार्थिक नय है । यह बात इसलिए कही गई है कि ऋजुसूत्र केवल वर्तमान को ही स्वीकार करता है, भूत और भविष्यत् को नही । अतः यह स्पष्ट है कि इसका विषय सामान्य न रहकर विशेष रूप से ही ध्यान मे आता है; अर्थात् वास्तव मे ऋजुसूत्र से ही पर्यायार्थिक नय - विशेषगामिनी दृष्टि- का आरम्भ माना जाता है । ऋजुसूत्र के बाद के तीन यतो उत्तरोत्तर और भी अधिक विशेषगामी बनते जाते है । इस तरह उनका पर्यायार्थिक होना तो स्पष्ट ही है ।
इन चार नयों में भी, जब कि उत्तर नय को पूर्व नय की अपेक्षा सूक्ष्म कहा जाता है, तब वह पूर्व नय उतने अश मे तो उत्तर नय की अपेक्षा सामान्यगामी ही
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१. ३४-३५ ]
नय के भेद
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है । इसी तरह द्रव्यार्थिक नय की भूमिका पर स्थित नैगमादि तीन नय भी पूर्व की अपेक्षा उत्तरोत्तर सूक्ष्म होने से उतने अश मे तो पूर्व की अपेक्षा विशेषगामी है ।
इतने पर भी पहले तीन नयो को द्रव्यार्थिक और बाद के चार नयों को पर्यायार्थिक कहने का तात्पर्य यही है कि प्रथम तीनों में सामान्य तत्त्व और उसका विचार अधिक स्पष्ट है, क्योंकि वे तीनों अधिक स्थूल है । बाद के चार नय विशेष सूक्ष्म है, उनमे विशेष तत्त्व व उसका विचार भी ज्यादा स्पष्ट है । सामान्य और विशेष की इसी स्पष्टता अथवा अस्पष्टता के कारण तथा उनकी मुख्यतागौणता को ध्यान में रखकर ही सात नयों के द्रव्याथिक और पर्यायार्थिक ये दो विभाग किये गए है । पर वास्तव मे सामान्य और विशेष ये दोनो एक ही वस्तु के अविभाज्य दो पहलू है, अतः एकान्तरूप मे एक नय के विषय को दूसरे नय के विषय से सर्वथा अलग नही किया जा सकता ।
नयदृष्टि, विचारसरणी या सापेक्ष अभिप्राय इन सभी शब्दों का एक ही अर्थ है । पूर्वोक्त वर्णन से इतना अवश्य पता चलता है कि किसी भी एक विषय को लेकर अनेक विचारसरणियाँ हो सकती है | विचारसरणियाँ चाहे जितनी हों, पर संक्षिप्त करके अमुक दृष्टि से उनके सात ही भाग किये गए है । उनमे भी पहली विचारसरणी की अपेक्षा दूसरी मे और दूसरी की अपेक्षा तीसरी में उत्तरोत्तर अधिकाधिक सूक्ष्मत्व आता जाता है। एवंभूत नाम की अन्तिम विचारसरणी में सबसे अधिक सूक्ष्मत्व दिखाई देता है । इसीलिए उक्त चार विचारसरणियों के अन्य प्रकार से भी दो भाग किये गए है -व्यवहारनय और निश्चयनय । व्यवहार अर्थात् स्थूलगामी या उपचार -प्रधान और निश्चय अर्थात् सूक्ष्मगामी या तत्त्वस्पर्शी । वास्तव में एवभूत ही निश्चय की पराकाष्ठा है ।
पूर्वोक्त दृष्टियों के अतिरिक्त और भी अनेक
एक तीसरे प्रकार से भी सात नयो के दो विभाग किये जाते है - शब्दनय और अर्थनय | जिसमे अर्थ का प्राधान्य हो वह अर्थनय और जिसमें शब्द का प्राधान्य हो वह शब्दनय । पहले चार नय अर्थनय है और शेष तीन शब्दनय है । दृष्टियाँ है । जीवन के दो भाग - एक सत्य को पहचानने का और दूसरा सत्य को केवल सत्य का विचार करता है अर्थात् तत्त्वस्पर्शी ( ज्ञाननय ) है और जो भाग तत्त्वानुभव को पचाने में ही पूर्णता समझता है वह क्रियादृष्टि ( क्रियानय ) है ।
पचाने का । जो भाग होता है, वह ज्ञानदृष्टि
ऊपर वर्णित सातों नय तत्त्व-विचारक होने से ज्ञाननय में समा जाते हैं । इन नयो के द्वारा शोधित सत्य को जीवन मे उतारने की दृष्टि ही क्रियादृष्टि है । क्रिया का अर्थ है जीवन को सत्यमय बनाना । ३४-३५ ।
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जीव
प्रथम अध्याय मे सात पदार्थो का नामनिर्देश किया गया है। आगे के नौ अध्यायों में क्रमश. उनका विशेष विचार किया गया है । इस अध्याय मे 'जीव' पदार्थ का तत्त्वस्वरूप उसके भेद-प्रभेद आदि विषयों का वर्णन किया जा रहा है।
पाँच भाव, उनके भेद और उदाहरण औपशमिकक्षायिकौ भावौ मिश्रश्च जीवस्य स्वतत्त्वमौदयिकपारिणामिकौ च । १। द्विनवाष्टादशैकविंशतित्रिभेदा यथाक्रमम् । २ । सम्यक्त्वचारित्रे । ३। ज्ञानदर्शनदानलाभभोगोपभोगवीर्याणि च । ४। ज्ञानाज्ञानदर्शनदानादिलब्धयश्चतुस्त्रित्रिपञ्चभेदाः यथाक्रमं सम्यक्त्वचारित्रसंयमासंयमाश्च । ५। गतिकषायलिङ्गमिथ्यादर्शनाऽज्ञानाऽसंयताऽसिद्धत्वलेश्याश्चतुश्चतुस्त्र्येकैकैकैकषड्भेदाः।६। जीवभव्याभव्यत्वादीनि च । ७।
औपशमिक, क्षायिक और मिश्र (क्षायोपशमिक ) ये तीन तथा औदयिक, पारिणामिक ये दो, कुल पाँच भाव हैं । ये जीव के स्वरूप हैं। __उक्त पाँच भावों के अनुक्रम से दो, नौ, अठारह, इक्कीस और तीन भेद हैं।
सम्यक्त्व और चारित्र ये दो औपशमिक भाव हैं ।
ज्ञान, दर्शन, दान, लाभ, भोग, उपभोग, वीर्य, सम्यक्त्व और चारित्र ये नौ क्षायिक भाव हैं।
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४७
२. १-७]
पाँच भावों के भेद और उदाहरण चार ज्ञान, तीन अज्ञान, तीन दर्शन, पांच दानादि लब्धियाँ, सम्यक्त्व, चारित्र ( सर्वविरति ) और संयमासंयम ( देशविरति ) ये अठारह क्षायोपशमिक भाव हैं।
चार गतियां, चार कषाय, तीन लिङ्ग (वेद), एक मिथ्यादर्शन, एक अज्ञान, एक असंयम, एक असिद्धभाव और छः लेश्याएं ये इक्कीस औदयिक भाव हैं।
जीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्व ये तीन तथा अन्य भी पारिणामिक भाव हैं।
आत्मा के स्वरूप के सम्बन्ध मे जैनदर्शन का अन्य दर्शनों के साथ कैसा मन्तव्य-भेद है यही बतलाना प्रस्तुत सूत्र का उद्देश्य है । सांख्य और वेदान्त-दर्शन आत्मा को कूटस्थनित्य मानते है तथा उसमें कोई परिणाम नहीं मानते । वे ज्ञान, सुख-दु.खादि परिणामों को प्रकृति या अविद्या के ही मानते है । वैशेषिक और नैयायिक ज्ञान आदि को आत्मा का गुण मानते है सही, फिर भी वे आत्मा को एकान्त नित्य (अपरिणामी) मानते है । नव्य-मीमांसक मत वैशेषिक और नैयायिक जैसा ही है । बौद्ध-दर्शन के अनुसार आत्मा एकान्तक्षणिक अर्थात् निरन्वय' परिणामों का प्रवाह मात्र है । जैनदर्शन का कथन है कि जैसे प्राकृतिक जड़ पदार्थों में न तो कूटस्थनित्यता है और न एकान्तक्षणिकता, किन्तु परिणामिनित्यता है, वैसे ही आत्मा भी परिणामिनित्य है। अतएव ज्ञान, सुख, दुख आदि पर्याय आत्मा के ही है।
आत्मा के सभी पर्याय एक ही अवस्था के नही होते; कुछ पर्याय किसी एक अवस्था के होते है तो दूसरे कुछ पर्याय किसी दूसरी अवस्था के । पर्यायों की वे भिन्न-भिन्न अवस्थाएं ही भाव कहलाती है। आत्मा के पर्याय अधिक से-अधिक पाँच भाववाले हो सकते है । वे पाँच भाव ये है-१. औपशमिक, २. क्षायिक, ३. क्षायोपशमिक, ४. औदयिक और ५. पारिणामिक।
१. विभिन्न क्षणों मे सुख-दुःख अथवा थोडे-बहुत भिन्न विषयक ज्ञानादि परिणामों का जो अनुभव होता है, उन्ही परिणामो को मानना और उनके बीच मत्ररूप मे किसी भी अखण्ड स्थिर तत्त्व को स्वीकार न करना ही निरन्वय परिणामो का प्रवाह है।
२. हथौडे की चाहे जितनी चोटे लगे, तब भी निहाई जैसे स्थिर ही रहती है, वैसे ही देश-कालादि सम्बन्धी विविध परिवर्तनो के होने पर भी जिसमे किचिन्मात्र भी परिवर्तन नही होता वही कटस्थनित्यता है।
३. तीनो कालो मे मूल वस्तु के कायम रहने पर भी देश-कालादि के निमित्त से जो परिवर्तन होता रहता है वह परिणामिनित्यता है ।
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४८ तत्त्वार्थसूत्र
[२. १-७ मावों का स्वरूप-१. औपशमिक भाव उपशम से उत्पन्न होता है। उपशम एक प्रकार की आत्म-शुद्धि है जो सत्तागत कर्म का उदय बिलकुल रुक जाने पर होती है, जैसे मैल तल मे बैठ जाने पर जल स्वच्छ हो जाता है।
२. क्षायिक भाव क्षय से उत्पन्न होता है । क्षय आत्मा की वह परमविशुद्धि है जो कर्म का सम्बन्ध बिलकुल छूट जाने पर प्रकट होती है, जैसे सर्वथा मैल के निकल जाने पर जल नितान्त स्वच्छ हो जाता है।
३. क्षायोपशमिक भाव क्षय और उपशम से उत्पन्न होता है । क्षयोपशम एक प्रकार की आत्मिकशुद्धि है, जो कर्म के एक अश का उदय सर्वथा रुक जाने पर और दूसरे अंश का प्रदेशोदय' द्वारा क्षय होते रहने पर प्रकट होती है । यह विशुद्धि मिश्रित है, जैसे कोदों को धोने से उसकी मादक शक्ति कुछ क्षीण हो जाती है और कुछ रह जाती है।
४. औदयिक भाव उदय से पैदा होता है । उदय एक प्रकार का आत्मिक कालुष्य ( मालिन्य ) है, जो कर्म के विपाकानुभव से होता है, जैसे मैल के मिल जाने पर जल मलिन हो जाता है।
५. पारिमाणिक भाव द्रव्य का परिणाम है, जो द्रव्य के अस्तित्व से अपने आप होता है अर्थात् किसी भी द्रव्य का स्वाभाविक स्वरूप-परिणमन ही पारिणामिक भाव है।
ये पांचों भाव ही आत्मा के स्वरूप है। संसारी या मुक्त कोई भी आत्मा हो, उसके सभी पर्याय इन पाँच भावो मे से किसी-न-किसी भाववाले ही होंगे। अजीव मे पाँचों भाववाले पर्याय सम्भव नहीं है, इसलिए ये भाव अजीव के स्वरूप नही है । उक्त पाँचों भाव सभी जीवों मे एक साथ होने का भी नियम नही है । मुक्त जीवों में दो भाव होते हैं-क्षायिक और पारिणामिक । संसारी जीवों में कोई तीन भाववाला, कोई चार भाववाला, कोई पांच भाववाला होता है, पर दो भाववाला कोई नहीं होता। अर्थात् मुक्त आत्मा के पर्याय दो भावों तक और संसारी आत्मा के पर्याय तीन से लेकर पाँच भावों तक पाये जाते हैं। अतएव पाँच भावों को जीव का स्वरूप जीवराशि की अपेक्षा से या किसी जीवविशेष मे सम्भावना की अपेक्षा से कहा गया है।
औदयिक भाववाले पर्याय वैभाविक और शेष चारों भाववाले पर्याय स्वाभाविक है । १।
१. नीरस किये गये कर्मदलिकों का वेदन प्रदेशोदय है और रस विशिष्ट दलिकों का विपाकवेदन विपाकोदय है ।
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२. १-७ ] पाँच भावों के भेद और उदाहरण
४९ उक्त पांचों भावों के कुल ५३ भेदों का निर्देश इस सूत्र में है, जो आगे के सूत्रों मे नामपूर्वक क्रमशः इस प्रकार बतलाये गए है कि किस भाववाले कितनेकितने पर्याय है और कौन-कौन-से है । २।।
प्रौपशमिक भाव के भेद-दर्शन-मोहनीय कर्म के उपशम से सम्यक्त्व का और चारित्र-मोहनीय कर्म के उपशम से चारित्र का आविर्भाव होता है। इसलिए सम्यक्त्व और चारित्र ये दो ही पर्याय औपशमिक भाववाले है । ३ ।
क्षायिक भाव के भेद--केवलज्ञानावरण के क्षय से केवलज्ञान, केवलदर्शनावरण के क्षय से केवलदर्शन, पंचविध अन्तराय के क्षय से दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य ये पाँच लब्धियाँ, दर्शन-मोहनीय कर्म के क्षय से सम्यक्त्व तथा चारित्र-मोहनीय कर्म के क्षय से चारित्र का आविर्भाव होता है । इसीलिए केवलज्ञानादि नवविध पर्याय क्षायिक कहलाते हैं । ४ ।
क्षायोपशमिक भाव के भेद-मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण और मनःपर्यायज्ञानावरण के क्षयोपशम से मति, श्रुत, अवधि और मनपर्यायज्ञान का आविर्भाव होता है। मति-अज्ञानावरण, श्रुत-अज्ञानावरण और विभङ्ग-ज्ञानावरण के क्षयोपशम से मति-अज्ञान, श्रुत-अज्ञान और विभङ्गज्ञान का आविर्भाव होता है । चक्षुर्दर्शनावरण, अचक्षुर्दर्शनावरण और अवधिदर्शनावरण के क्षयोपशम से चक्षुर्दर्शन, अचक्षुर्दर्शन और अवधिदर्शन का आविर्भाव होता है । पञ्चविध अन्तराय के क्षयोपशम से दान, लाभ आदि पाँच लब्धियों का आविर्भाव होता है । अनन्तानुबन्धी चतुष्क तथा दर्शनमोहनीय के क्षयोपशम से सम्यक्त्व का आविर्भाव होता है । अनन्तानुबन्धी आदि बारह प्रकार के कषायों के क्षयोपशम से चारित्र ( सर्वविरति ) का आविर्भाव होता है । अनन्तानुबन्धी आदि अष्टविध कषाय के क्षयोपशम से संयमासंयम ( देशविरति ) का आविर्भाव होता है । इस तरह मतिज्ञान आदि अठारह पर्याय क्षायोपशमिक है । ५ ।।
प्रौदयिक भाव के भेद-गति नाम-कर्म के उदय का फल नरक, तिर्यश्च, मनुष्य और देव ये चार गतियाँ है। कषायमोहनीय के उदय से क्रोध, मान, माया व लोभ ये चार कषाय पैदा होते है । वेदमोहनीय के उदय से स्त्री, पुरुष और नपुसक बेद होता है । मिथ्यात्वमोहनीय के उदय से मिथ्यादर्शन ( तत्त्व का अश्रद्धान ) होता है। अज्ञान ( ज्ञानाभाव ) ज्ञानावरणीय कर्म के उदय का फल है । असंयतत्व( विरति का सर्वथा अभाव ) अनन्तानुबन्धी आदि बारह प्रकार के चारित्र-मोहनीय के उदय का परिणाम है । असिद्धत्व (शरीरधारण) वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र कर्म के उदय का परिणाम है । कृष्ण, नील, कापोत, तेजः, पद्म और शुक्ल ये छः लेश्याएँ ( कषायोदयरञ्जित योगपरिणाम) कषाय
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५०
तत्त्वार्थसूत्र
[२.८
के उदय अथवा योगजनक शरीरनामकर्म के उदय का परिणाम है । इस तरह ये गति आदि इक्कीस पर्याय औदयिक है । ६ ।
पारिणामिक भाव के भेद-जीवत्व ( चैतन्य ), भव्यत्व (मक्ति की योग्यता), अभव्यत्व (मुक्ति की अयोग्यता ) ये तीन भाव स्वाभाविक है अर्थात् न तो वे कर्म के उदय से, न उपशम से, न क्षय से और न क्षयोपशम से उत्पन्न होते है; वे अनादिसिद्ध आत्मद्रव्य के अस्तित्व से ही सिद्ध है, इसी कारण वे पारिणामिक है।
प्रश्न--क्या पारिणामिक भाव तीन ही है ? उत्तर-नहीं, और भी है। प्रश्न--कौन-से है ?
उत्तर-अस्तित्व, अन्यत्व, कर्तृत्व, भोक्तृत्व, गुणत्व, प्रदेशत्व, असंख्यातप्रदेशत्व, असर्वगतत्व, अरूपत्व आदि अनेक है ।
प्रश्न-फिर तीन ही क्यों बतलाये गए ?
उत्तर-यहाँ जीव का स्वरूप-कथन ही अभीष्ट है जो उसके असाधारण भावों द्वारा ही बतलाया जा सकता है। इसलिए औपशमिक आदि भावों के साथ पारिणामिक भाव भी वे ही बतलाये है जो असाधारण है । अस्तित्व आदि पारिणामिक है अवश्य, पर वे जीव की भांति अजीव में भी होते है। अत वे जीव के असाधारण भाव नही है। इसीलिए यहाँ उनका निर्देश नही किया गया तथापि अन्त के 'आदि' शब्द द्वारा उन्ही को सूचित किया गया है और दिगम्बर सम्प्रदाय मे यही अर्थ 'च' शब्द से लिया गया है। ७ ।
जीव का लक्षण
उपयोगो लक्षणम् । ८। जीव का लक्षण उपयोग है।
जीव, जिसे आत्मा या चेतन भी कहते है, अनादिसिद्ध, स्वतन्त्र द्रव्य है। तात्त्विक दृष्टि से अरूपी होने से उसका ज्ञान इन्द्रियो द्वारा नहीं हो सकता, पर स्वसंवेदन, प्रत्यक्ष तथा अनुमान आदि से उसका ज्ञान हो सकता है । तथापि सामान्य जिज्ञासुओं के लिए एक ऐसा लक्षण बतला देना उचित है जिससे आत्मा की पहचान हो सके। इसी अभिप्राय से प्रस्तुत सूत्र मे जीव का लक्षण बतलाया गया है । आत्मा लक्ष्य ( ज्ञेय ) है और उपयोग लक्षण ( जानने का उपाय ) है । जगत् अनेक जड़-चेतन पदार्थों का मिश्रण है। उसमें से जड़ और
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२. ८]
जीव का लक्षण
चेतन का विवेकपूर्वक निश्चय उपयोग के द्वारा ही हो सकता है, क्योंकि उपयोग तरतमभाव से सभी आत्माओ मे अवश्य होता है। जड ही उपयोगरहित होता है।
प्रश्न-उपयोग किसे कहते है ? उत्तर ---बोधरूप व्यापार को उपयोग कहते है । प्रश्न-आत्मा मे बोध की क्रिया होती है और जड मे नही, ऐसा क्यों ?
उत्तर-बोध का कारण चेतनाशक्ति है । जिसमे चेतनाशक्ति हो उसी में बोधक्रिया सम्भव है । चेतनाशक्ति आत्मा मे ही होती है, जड़ में नही ।
प्रश्न-आत्मा स्वतन्त्र द्रव्य है इसलिए उसमे अनेक गुण होने चाहिए, फिर उपयोग को ही लक्षण क्यों कहा गया ?
उत्तर-निःसन्देह आत्मा मे अनन्त गुण-पर्याय है, पर उन सब मे उपयोग ही मुख्य है, क्योकि स्व-परप्रकाशरूप होने से उपयोग ही अपना तथा अन्य पर्यायों का ज्ञान कराता है । इसके सिवाय आत्मा जो कुछ अस्ति-नास्ति जानता है, ननु-नच करता है, सुख दु.ख का अनुभव करता है वह सब उपयोग के द्वारा हो । अतएव उपयोग ही सब पर्यायो मे प्रधान है।
प्रश्न-क्या लक्षण स्वरूप से भिन्न है ? उत्तर-नही।
प्रश्न-तब तो पहले जिन पाँच भावों को जीव का स्वरूप कहा गया है वे भी लक्षण हुए, फिर दूसरा लक्षण बतलाने का प्रयोजन क्या है ?
उत्तर-सब असाधारण धर्म भी एक-से नही होते । कुछ तो ऐसे हैं जो लक्ष्य में होते है अवश्य, पर कभी होते है और कभी नही। कुछ ऐसे भी है जो समग्र लक्ष्य में नही रहते और कुछ ऐसे भी होते है जो तीनों कालों में समग्र लक्ष्य में रहते है । समग्र लक्ष्य में तीनो कालो मे उपयोग ही होता है । इसलिए लक्षणरूप से उसी का पृथक् रूप से कथन किया गया और उससे यह सूचित किया गया है कि औपशमिक आदि भाव जीव के स्वरूप है अवश्य, पर वे न तो सब आत्माओं में पाये जाते है और न त्रिकालवर्ती ही है। त्रिकालवर्ती और सब आत्माओं में पाया जानेवाला एक जीवत्वरूप पारिणामिक भाव ही है, जिसका फलित अर्थ उपयोग ही है। इसलिए उसी का कथन अलग से यहाँ लक्षणरूप में किया गया है । दूसरे सब भाव कादाचित्क (कभी होनेवाले, कभी नही होनेवाले), कतिपय लक्ष्यवर्ती और कर्म-सापेक्ष होने से जीव के उपलक्षण हो सकते है, लक्षण नहीं।
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तत्त्वार्थसूत्र
[२.९
लक्षण और उपलक्षण में यही अन्तर है कि जो प्रत्येक लक्ष्य मे सर्वात्मभाव से तीनो कालो मे पाया जाय, वह लक्षण है, जैसे अग्नि मे उष्णत्व; और जो किसी लक्ष्य मे हो और किसी मे न हो, कभी हो और कभी न हो तथा स्वभाव सिद्ध न हो, वह उपलक्षण है, जैसे अग्नि के लिए धूम । जीवत्व को छोड़कर भावो के बावन भेद आत्मा के उपलक्षण ही है । ८ ।
उपयोग की विविधता
स द्विविधोऽष्टचतुर्भेदः । ९ । वह उपयोग दो प्रकार का है तथा आठ और चार प्रकार का है।
जानने की शक्ति ( चेतना ) समान होने पर भी जानने की क्रिया ( बोधव्यापार या उपयोग ) सब आत्माओं मे समान नहीं होती। उपयोग की यह विविधता बाह्य-आभ्यन्तर कारणकलाप की विविधता पर अवलम्बित है। विषयभेद, इन्द्रिय आदि साधन-भेद, देश-काल-भेद इत्यादि विविधता बाह्य सामग्री की है । आवरण की तीव्रता-मन्दता का तारतम्य आन्तरिक सामग्री की विविधता है । इस सामग्री-वैचित्र्य के कारण एक आत्मा भिन्न-भिन्न समय मे भिन्न-भिन्न प्रकार की बोधक्रिया करती है और अनेक आत्माएँ एक ही समय में भिन्न-भिन्न बोधक्रियाएँ करती है। बोध की यह विविधता अनुभवगम्य है। इसको संक्षेप में वर्गीकरण द्वारा बतलाना ही इस सूत्र का प्रयोजन है।
उपयोगराशि के सामान्य रूप से दो विभाग किये जाते है-१. साकार, २. अनाकार । विशेष रूप से साकार-उपयोग के आठ और अनाकार-उपयोग के चार विभाग किये गए है। इस तरह उपयोग के कुल बारह भेद है।
साकार-उपयोग के आठ भेद ये है-मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्यायज्ञान, केवलज्ञान, मति-अज्ञान, श्रुत-अज्ञान और विभङ्गज्ञान । अनाकार-उपयोग के चार भेद ये है-चक्षुर्दर्शन, अचक्षुर्दर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन ।
प्रश्न-साकार और अनाकार उपयोग का अर्थ क्या है ?
उत्तर-जो बोध ग्राह्यवस्तु को विशेष रूप से जाननेवाला है वह साकारउपयोग है और जो बोध ग्राह्यवस्तु को सामान्य रूप से जाननेवाला है वह अनाकार-उपयोग है । साकार-उपयोग को ज्ञान या सविकल्पक बोध और अनाकारउपयोग को दर्शन या निर्विकल्पक बोध कहते है ।
प्रश्न-उक्त बारह भेदो मे से कितने भेद पूर्ण विकसित चेतनाशक्ति के व्यापार हैं और कितने अपूर्ण विकसित चेतनाशक्ति के ?
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२. १०]
जीवराशि के विभाग
५३
उत्तर-केवलज्ञान और केवलदर्शन ये दो पूर्ण विकसित चेतना के व्यापार है और शेष सब अपूर्ण विकसित चेतना के व्यापार है।
प्रश्न-विकास की अपूर्णता के समय तो अपूर्णता की विविधता के कारण उपयोग-भेद सम्भव है, पर विकास की पूर्णता के समय उपयोग-भेद कैसे ?
उत्तर--विकास की पूर्णता के समय केवलज्ञान और केवलदर्शन रूप से उपयोग-भेद मानने का कारण केवल ग्राह्य-विषय की द्विरूपता है अर्थात् प्रत्येक विषय सामान्य और विशेष रूप से उभयस्वभावी है, इसलिए उसको जाननेवाला चेतनाजन्य व्यापार भी ज्ञान और दर्शन के रूप में दो प्रकार का होता है ।
प्रश्न-साकार-उपयोग के आठ भेदों मे ज्ञान और अज्ञान का अन्तर क्या है ?
उत्तर-और कुछ नहीं, केवल सम्यक्त्व के सहभाव अथवा असहभाव का अन्तर है।
प्रश्न--तो फिर शेष दो ज्ञानों के प्रतिपक्षी अज्ञान और दर्शन के प्रतिपक्षी अदर्शन क्यों नही?
उत्तर-मन.पर्याय और केवल ये दो ज्ञान सम्यक्त्व के बिना होते ही नही, इसलिए उनका प्रतिपक्ष सम्भव नही । दर्शनों में केवलदर्शन सम्यक्त्व के बिना नही होता पर शेष तीन दर्शन सम्यक्त्व के अभाव मे भी होते है तथापि उनके प्रतिपक्षी तीन अदर्शन न कहने का कारण यह है कि दर्शन सामान्यमात्र का बोध है । इसलिए सम्यक्त्वी और मिथ्यात्वी के दर्शन में कोई भेद नही बतलाया जा सकता।
प्रश्न--उक्त बारह भेदों की व्याख्या क्या है ?
उत्तर--ज्ञान के आठ भेदो का स्वरूप पहले ही बतलाया जा चुका है। दर्शन के चार भेदों का स्वरूप इस प्रकार है-१. नेत्रजन्य सामान्यबोध चक्षुर्दर्शन, २. नेत्र के सिवाय अन्य किसी इन्द्रिय से या मन से होनेवाला सामान्यबोध अचक्षुर्दर्शन, ३. अवधिलब्धि से मूर्त पदार्थो का सामान्यबोध अवधिदर्शन और ४. केवललब्धि-जन्य समस्त पदार्थो का सामान्यबोध केवलदर्शन है । ९ ।
जीवराशि के विभाग
संसारिणो मुक्ताश्च । १०।। संसारी और मुक्त ये दो विभाग हैं ।
जीव अनन्त है। चैतन्य रूप से सब जीव समान है। यहाँ उनके दो भेद पर्याय-विशेष के सद्भाव-असद्भाव की अपेक्षा से किये गए है, अर्थात् एक संसार
१. देखें-अ० १, सू० १ से ३३ तक ।
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५४
तत्त्वार्थ सूत्र
[ २. ११-१४
रूप पर्यायसहित और दूसरे संसाररूप पर्याय से रहित । पहले प्रकार के जीव संसारी और दूसरे प्रकार के मुक्त कहलाते हैं ।
प्रश्न -- संसार क्या है ?
उत्तर- द्रव्य और भावबन्ध ही संसार है । कर्मदल का विशिष्ट सम्बन्ध द्रव्यबन्ध है । राग-द्वेष आदि वासनाओ का सम्बन्ध भावबन्ध है । १० । संसारी जीवों के भेद-प्रभेद
समनस्काऽमनस्काः । ११ । संसारिणस्त्र सस्थावराः । १२ । पृथिव्यम्बुवनस्पतयः स्थावराः । १३ । तेजोवायू द्वीन्द्रियादयश्च त्रसाः । १४ ।
संसारी जीव मनसहित और मनरहित हैं
तथा वे स और स्थावर हैं ।
पृथिवीकाय, जलकाय और वनस्पतिकाय ये तीन स्थावर हैं | तेजःकाय, वायुकाय और द्वीन्द्रिय आदि त्रस हैं ।
संसारी जीव अनन्त है । संक्षेप में उनके दो विभाग है, वे भी दो तरह से । पहला विभाग मन के सम्बन्ध और असम्बन्ध पर निर्भर हैं, अर्थात् मनसहित और मनरहित - इस तरह दो विभाग किये गए हैं, जिनमे सकल संसारी जीवों का समावेश हो जाता है । दूसरा विभाग त्रसत्व और स्थावरत्व के आधार पर है । इस विभाग में भी सकल ससारी जीवों का समावेश हो जाता है ।
प्रश्न - मन किसे कहते है ?
उत्तर — जिससे विचार किया जा सके वह आत्मिक शक्ति मन है और इस शक्ति से विचार करने में सहायक होनेवाले एक प्रकार के सूक्ष्म परमाणु भी मन कहलाते है । पहले को भावमन और दूसरे को द्रव्यमन कहते है ।
प्रश्न - सत्व और स्थावरत्व क्या है ?
उत्तर- - उद्देश्यपूर्वक एक जगह से दूसरी जगह जाने या हिलने-डुलने की शक्ति त्रसत्व है और इस शक्ति का न होना स्थावरत्व है ।
प्रश्न - मनरहित जीवों के क्या द्रव्य या भाव में से कोई मन नही होता ? उत्तर— होता है, केवल भावमन ।
प्रश्न - तब तो सभी जीव मनसहित हुए, फिर मनसहित और मनरहित का भेद क्यों ?
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२. ११ - १४ ]
संसारी जीवों के भेद-प्रभेद
५५
उत्तर - द्रव्यमन की अपेक्षा से, अर्थात् जैसे अत्यन्त बूढ़ा मनुष्य पाँव और चलने की शक्ति होने पर भी लकडी के सहारे के बिना नही चल सकता, वैसे ही भावमन होने पर भी द्रव्यमन के बिना स्पष्ट विचार नहीं किया जा सकता । इसी कारण द्रव्यमन की प्रधानता मानकर उसके भाव और अभाव की अपेक्षा से मनसहित और मनरहित विभाग किये गए है ।
प्रश्न- दूसरा विभाग करने का यह अर्थ तो नही है कि सभी त्रस समनस्क और सभी स्थावर अमनस्क है ?
उत्तर——नहीं, त्रस में भी कुछ ही समनस्क होते हैं, सब नहीं । स्थावर तो सभी अमनस्क ही होते है । ११-१२ ।
स्थावर जीवों के पृथिवीकाय, जलकाय और वनस्पतिकाय ये तीन भेद है और त्रस जीवों के तेजःकाय, वायुकाय ये दो भेद तथा द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय ये चार भेद भी है ।
प्रश्न - त्रस और स्थावर का अर्थ क्या है ?
उत्तर — जिसके त्रस नाम-कर्म का उदय हो वह त्रस जीव और जिसके स्थावर नाम कर्म का उदय हो वह स्थावर जीव ।
प्रश्न - त्रस नाम-कर्म के उदय की और स्थावर नाम-कर्म के उदय की पहचान क्या है ?
उत्तर- - दु.ख त्यागने और सुख दिखाई देना और न दिखाई देना ही स्थावर नाम-कर्म के उदय की पहचान है ।
प्राप्त करने की प्रवृत्ति का स्पष्ट रूप मे क्रमशः त्रस नाम-कर्म के उदय की और
प्रश्न -- क्या द्वीन्द्रिय आदि जीवों की तरह तेजःकायिक और वायुकायिक जीव भी उक्त प्रवृत्ति करते हुए स्पष्ट दिखाई देते हैं कि उनको त्रस माना जाय ?
उत्तर- - नहीं ।
प्रश्न - तो फिर पृथिवीकायिक आदि की तरह उनको स्थावर क्यों नहीं कहा गया ?
उत्तर—उक्त लक्षण के अनुसार वे वास्तव में स्थावर ही है । यहाँ द्वीन्द्रिय आदि के साथ गति का सादृश्य देखकर उनको त्रस कहा गया है अर्थात् त्रस दो प्रकार के है -- लब्धित्रस और गतित्रस । त्रस नाम-कर्म के उदयवाले लब्धित्रस हैं, ये ही मुख्य त्रस है जैसे द्वीन्द्रिय से पञ्चेन्द्रिय तक के जीव । स्थावर नाम-कर्म का उदय होने पर भी त्रस जैसी गति होने के कारण जो त्रस कहलाते हैं वे
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तत्त्वार्थसूत्र
[२. १५-२० गतित्रस हैं। ये उपचार मात्र से त्रस है जैसे तेजःकायिक और वायुकायिक । १३-१४ ।
इन्द्रियों की संख्या, उनके भेद-प्रभेद और नाम-निर्देश
पञ्चेन्द्रियाणि । १५ । द्विविधानि । १६ । निर्वृत्त्युपकरणे द्रव्येन्द्रियम् । १७ । लब्ध्युपयोगौ भावेन्द्रियम् । १८ । उपयोगः स्पर्शादिषु । १९ ।
स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुःश्रोत्राणि । २० । इन्द्रियां पांच हैं। प्रत्येक इन्द्रिय दो-दो प्रकार की है। द्रव्येन्द्रिय निवृत्ति और उपकरणरूप है । भावेन्द्रिय लब्धि और उपयोगरूप है। उपयोग स्पर्श आदि विषयों में होता है। स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र ये इन्द्रियों के नाम हैं।
यहां इन्द्रियों की संख्या के निर्देश का उद्देश्य यह है कि यह ज्ञात किया जा सके कि संसारी जीवों के कितने विभाग हो सकते है । इन्द्रियाँ पाँच है । सभी संसारी जीवों के पाँच इन्द्रियाँ नहीं होती। कुछ के एक, कुछ के दो, इस तरह एक-एक बढ़ाते-बढ़ाते कुछ के पाँच इन्द्रियाँ तक होती है। एक इन्द्रियवाले एकेन्द्रिय, दो वाले द्वीन्द्रिय, इसी तरह त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय इस प्रकार संसारी जीवों के पाँच भेद होते है।
प्रश्न--इन्द्रिय का क्या अर्थ है ? उत्तर--जिससे ज्ञान प्राप्त हो वह इन्द्रिय है । प्रश्न--क्या इन्द्रियाँ पांच से अधिक नही है ?
उत्तर---नही, ज्ञानेन्द्रियाँ पाँच ही है । यद्यपि सांख्य आदि शास्त्रों में वाक, पाणि, पाद, पायु ( गुदा ) और उपस्थ ( लिङ्ग या जननेन्द्रिय ) को भी इन्द्रिय कहा गया है, परन्तु वे कर्मेन्द्रियाँ हैं । ज्ञानेन्द्रियाँ पाँच से अधिक नही है और यहाँ उन्हीं का उल्लेख है ।
प्रश्न--ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्द्रिय का क्या अर्थ है ?
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२. १५-२०.] इन्द्रियों की संख्या, भेद-प्रभेद और नाम-निर्देश
५७
उत्तर--जिससे मुख्यतया जीवन-यात्रोपयोगी ज्ञान हो वह ज्ञानेन्द्रिय और जिससे जीवन-यात्रोपयोगी आहार, विहार, निहार आदि क्रिया हो वह कर्मेन्द्रिय है । १५ ।
पाँचों इन्द्रियों के द्रव्य और भाव रूप से दो-दो भेद है। पुद्गलमय जड इन्द्रिय द्रव्येन्द्रिय है और आत्मिक परिणामरूप इन्द्रिय भावेन्द्रिय है । १६ ।
द्रव्येन्द्रिय निर्वृत्ति और उपकरण रूप से दो प्रकार की है। शरीर पर दीखनेवाली इन्द्रियों की पुद्गलस्कन्धों की विशिष्ट रचना के रूप मे जो आकृतियाँ है उनको निर्वृत्ति-इन्द्रिय तथा निर्वृत्ति-इन्द्रिय की बाहरी व भीतरी पौद्गलिक शक्ति को उपकरणेन्द्रिय कहते है जिसके बिना निर्वृत्ति-इन्द्रिय ज्ञान पैदा करने में असमर्थ है । १७ ।
भावेन्द्रिय के भी लब्धि और उपयोग ये दो प्रकार है । मतिज्ञानावरणीयकर्म आदि का क्षयोपशम जो एक प्रकार का आत्मिक परिणाम है वह लब्धीन्द्रिय है । लब्धि, निर्वृत्ति तथा उपकरण इन तीनों के मिलने से जो रूपादि विषयों का सामान्य और विशेष बोध होता है वह उपयोगेन्द्रिय है । उपयोगेन्द्रिय मतिज्ञानरूप तथा चक्षु-अचक्षु दर्शनरूप है । १८ ।
मतिज्ञानरूप उपयोग जिसे भावेन्द्रिय कहा गया है वह अरूपी ( अमूर्त ) पदार्थो को जान सकता है पर उनके सकल गुण व पर्यायों को नही जान सकता, मात्र स्पर्श, रस, गन्ध, रूप और शब्द पर्यायों को ही जान सकता है।
प्रश्न-प्रत्येक इन्द्रिय के द्रव्य-भावरूप से दो-दो और द्रव्य के तथा भाव के भी अनुक्रम से निर्वृत्ति-उपकरणरूप तथा लब्धि-उपयोगरूप दो-दो भेद तो ज्ञात हुए, किन्तु इनका प्राप्तिक्रम क्या है ?
उत्तर-लब्धीन्द्रिय होने पर ही निर्वृत्ति सम्भव है। निर्वृत्ति के बिना उपकरण नही अर्थात् लब्धि प्राप्त होने पर निर्वृत्ति, उपकरण और उपयोग हो सकते है । इसी तरह निर्वृत्ति प्राप्त होने पर उपकरण और उपयोग तथा उपकरण प्राप्त होने पर उपयोग सम्भव है। सारांश यह है कि पूर्व-पूर्व इन्द्रिय प्राप्त होने पर उत्तर-उत्तर इन्द्रिय की प्राप्ति होती है। पर ऐसा कोई नियम नही है कि उत्तरउत्तर इन्द्रिय के प्राप्त होने पर ही पूर्व-पूर्व इन्द्रिय प्राप्त हो । १९ ।
इन्द्रियों के नाम-१. स्पर्शनेन्द्रिय ( त्वचा), २ रसनेन्द्रिय (जिह्वा), ३. घ्राणेन्द्रिय ( नासिका), ४. चक्षुरिन्द्रिय ( आँख ), ५. श्रोत्रेन्द्रिय ( कान)। पाँचों इन्द्रियों के लब्धि, निर्वृत्ति, उपकरण और उपयोग ये चार-चार प्रकार हैं
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५८
तत्त्वार्थसूत्र
[२. २१-२२
अर्थात इन चार प्रकारों की समष्टि ही स्पर्शन आदि एक-एक पूर्ण इन्द्रिय है। इस समष्टि में जितनी न्यूनता है उतनी ही इन्द्रिय की अपूर्णता है।'
प्रश्न-उपयोग तो ज्ञान-विशेष है जो इन्द्रिय का फल है; उसको इन्द्रिय कैसे कहा गया ?
उत्तर-यद्यपि लब्धि, निर्वृत्ति और उपकरण इन तीनों को समष्टि का कार्य उपयोग है तथापि यहाँ उपचार से अर्थात् कार्य में कारण का आरोप करके उसे भी इन्द्रिय कहा गया है । २० ।
___ इन्द्रियो के ज्ञेय अर्थात् विषय स्पर्शरसगन्धवर्णशब्दास्तेषामर्थाः । २१ ।
श्रुतमनिन्द्रियस्य । २२। स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण ( रूप ) और शब्द ये पाँच क्रमशः पाँच इन्द्रियों के अर्थ ( ज्ञेय या विषय ) हैं ।
अनिन्द्रिय ( मन ) का विषय श्रुत है।
जगत् के सब पदार्थ एक-से नहीं है। कुछ पदार्थ मूर्त है और कुछ अमूर्त । वे मूर्त है जिनमे वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श आदि हों। मूर्त पदार्थ ही इन्द्रियों से जाने जा सकते है, अमूर्त पदार्थ नही। पांचो इन्द्रियो के जो भिन्न-भिन्न विषय बतलाये गए है वे आपस में सर्वथा भिन्न और मूलतत्त्व (द्रव्यरूप) नही किन्तु एक ही द्रव्य के भिन्न-भिन्न अश ( पर्याय ) है अर्थात् पाँचों इन्द्रियाँ एक ही द्रव्य की पारस्परिक भिन्न-भिन्न अवस्था-विशेष को जानने में प्रवृत्त होती है । अतएव इस सूत्र मे पाँच इन्द्रियों के जो पाँच विषय बतलाये गए है उन्हे स्वतन्त्र या अलग-अलग नहीं, अपितु एक ही मूर्त (पौद्गलिक ) द्रव्य के अंश समझना चाहिए । जैसे एक लड्डू को पाँचों इन्द्रियाँ भिन्न-भिन्न रूप मे जानती है । अगुली छकर उसके शीत-उष्ण आदि स्पर्श का ज्ञान कराती है। जीभ चखकर उसके खट्टे-मीठे आदि रस का ज्ञान कराती है। नाक संघकर उसकी खुशबू या बदबू का ज्ञान कराता है। आँख देखकर उसके लाल, सफेद आदि रंग का ज्ञान कराती है। कान उस कडे लडडू को खाने आदि से उत्पन्न शब्दों या ध्वनि का ज्ञान कराता है । यह बात नहीं है कि उस लड्डू में स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण, और शब्द इन पाँचों विषयों का स्थान अलग-अलग होता है । वे सभी उसके सब भागों
१. इनके विशेष विचार के लिए देखे-हिन्दी चौथा कर्मग्रन्थ, पृ० ३६, 'इन्द्रिय' शब्दविषयक परिशिष्ट ।
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२. २१-२२ ]
इन्द्रियों के ज्ञेम अर्थात् विषय
में एक साथ रहते है, क्योंकि वे सभी एक ही द्रव्य के उनका विभाग केवल बुद्धि द्वारा इन्द्रियो से होता है । अलग है । वे कितनी ही पटु हों, अपने ग्राह्यविषय के को जानने में समर्थ नही है । इसीलिए पाँचों इन्द्रियों के ( पृथक्-पृथक् ) है ।
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प्रश्न – स्पर्श आदि पाँचो सहचरित है, तब ऐसा क्यों है कि किसी-किसी वस्तु मे उन पाँचों की उपलब्धि न होकर केवल एक या दो की ही होती है, जैसे सूर्य आदि की प्रभा का रूप तो मालूम होता है, पर स्पर्श, रस, गन्ध आदि नही । इसी तरह पुष्पादि से अमिश्रित वायु का स्पर्श ज्ञात होने पर भी रस, गन्ध आदि ज्ञात नहीं होते ।
अविभाज्य पर्याय है । इन्द्रियों की शक्ति अलगअतिरिक्त अन्य विषय पाँच विषय असंकीर्ण
उत्तर—प्रत्येक भौतिक द्रव्य मे स्पर्श आदि उक्त सभी पर्याय होते है, पर उत्कट पर्याय ही इन्द्रियग्राह्य होता है । किसी मे स्पर्श आदि पाँचों पर्याय उत्कट - तया अभिव्यक्त होते है और किसी में एक-दो आदि । शेष पर्याय अनुत्कट
अवस्था मे होने के कारण इन्द्रियो से नही जाने जाते, पर होते अवश्य है । इन्द्र की पटुता ( ग्रहणशक्ति ) भी सब जाति के प्राणियों की समान नहीं होती । एकजातीय प्राणियों मे भी इन्द्रिय की पटुता विविध प्रकार की देखने मे आती है । इसलिए स्पर्श आदि को उत्कटता या अनुत्कटता का विचार इन्द्रिय की पटुता के तरतमभाव पर भी निर्भर करता है । २१ ।
इन पाँचों इन्द्रियों के अतिरिक्त मन भी एक इन्द्रिय है । मन ज्ञान का साधन तो है, पर स्पर्शन आदि इन्द्रियों की तरह बाह्य साधन नही है । वह आन्तरिक साधन है, अतः उसे अन्तःकरण भी कहते है । मन का विषय परिमित नही है । बाह्य इन्द्रियाँ केवल मूर्त पदार्थ को और वह भी अंश रूप मे ग्रहण करती है, जब कि मन मूर्त-अमूर्त सभी पदार्थो को अनेक रूपो मे ग्रहण करता है । मन का कार्य विचार करना है, जिसमे इन्द्रियो के द्वारा ग्रहण किये
गए और न ग्रहण
।
किये गए, विकास की योग्यता के अनुसार सभी विषय आते है है । इसीलिए कहा गया है कि अनिन्द्रिय का विषय श्रुत है सभी तत्त्वों का स्वरूप मन का प्रवृत्ति क्षेत्र है ।
यह विचार ही श्रुत अर्थात् मूर्त-अमूर्त
प्रश्न- -श्रुत यदि मन का कार्य है और वह एक प्रकार का स्पष्ट तथा विशेषग्राही ज्ञान है, तो फिर मन से मतिज्ञान क्यो नही होता ?
उत्तर- - होता है, किन्तु मन के द्वारा पहले पहल सामान्य रूप से वस्तु का जो ग्रहण होता है तथा जिसमे शब्दार्थ - सम्बन्ध, पौर्वापर्य श्रृंखला और विकल्प
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तत्त्वार्थसूत्र
[२. २३-२५
रूप विशेषता न हो वही मतिज्ञान है। इसके बाद होनेवाली उक्त विशेषतायुक्त विचारधारा श्रुतज्ञान है, अर्थात् मनोजन्य ज्ञान-व्यापार की धारा में प्राथमिक अल्प अंश मतिज्ञान है और बाद का अधिक अंश श्रुतज्ञान है । साराश, यह है कि स्पर्शन आदि पाँच इन्द्रियों से केवल मतिज्ञान होता है, पर मन से मति और श्रुत दोनों होते है। इनमे भी मति की अपेक्षा श्रुत की ही प्रधानता है । इसी कारण श्रुत को यहाँ मन का विषय कहा गया है ।
प्रश्न-मन को अनिन्द्रिय कहने का क्या कारण है ?
उत्तर-यद्यपि वह भी ज्ञान का साधन होने से इन्द्रिय ही है, परन्तु रूप आदि विषयों मे प्रवृत्त होने के लिए उसको नेत्र आदि इन्द्रियो का सहारा लेना पड़ता है । इसी पराधीनता के कारण उसे अनिन्द्रिय या नोइन्द्रिय (ईषइन्द्रिय या इन्द्रिय-जैसा ) कहा गया है।
प्रश्न- क्या मन भी नेत्र आदि की तरह शरीर के किसी विशिष्ट स्थान में रहता है या सर्वत्र रहता है ?
उत्तर-वह शरीर के भीतर सर्वत्र' रहता है, किसी विशिष्ट स्थान में नही; क्योंकि शरीर के भिन्न-भिन्न स्थानों में स्थित इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण किये गए सभी विषयों मे मन की गति है जो उसे देहव्यापी माने बिना सम्भव नही । इसीलिए कहा जाता है 'यत्र पवनस्तत्र मनः' । २१-२२ ।
इन्द्रियों के स्वामी वाय्वन्तानामेकम् । २३ । कृमिपिपीलिकाभ्रमरमनुष्यादीनामेकैकवृद्धानि । २४ ।
संज्ञिनः समनस्काः । २५ । वायुकाय तक के जीवों के एक इन्द्रिय होती है।
कृमि, पिपीलिका ( चींटी), भ्रमर और मनुष्य आदि के क्रमशः एकएक इन्द्रिय अधिक होती है ।
संज्ञी मनवाले होते है।
सूत्र १३ व १४ मे संसारी जीवों के स्थावर और त्रस ये दो भेद बतलाये गए है । उनके नौ निकाय ( जातियाँ ) है जैसे पृथिवीकाय, जलकाय, वनस्पति
१. यह मत श्वेताम्बर परम्परा का है , दिगम्बर परम्परा के अनुसार द्रव्य मन का स्थान सम्पूर्ण शरीर नही है, केवल हृदय है।
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२. २३-२५ ]
इन्द्रियो के स्वामी काय, तेज.काय, वायुकाय ये पांच स्थावर तथा द्वीन्द्रिय आदि चार त्रस । इनमे से वायुकाय तक के पाँच निकायों के केवल एक स्पर्शन इन्द्रिय होती है ।
कृमि, जलौका, लट आदि के दो इन्द्रियाँ होती है-स्पर्शन और रसन । चीटी, कुथु, खटमल आदि के तीन इन्द्रियाँ होती है-स्पर्शन, रसन और घ्राण । भौरे, मक्खी, बिच्छू, मच्छर आदि के चार इन्द्रियाँ होती है--स्पर्शन, रसन, प्राण और नेत्र । मनुष्य, पशु, पक्षी तथा देव-नारक के पाँच इन्द्रियाँ होती है-स्पर्शन, रसन, घ्राण, नेत्र तथा श्रोत्र ।
प्रश्न-यह संख्या द्रव्येन्द्रिय की है या भावेन्द्रिय की अथवा उभयेन्द्रिय की ?
उत्तर-उक्त संख्या केवल द्रव्येन्द्रिय की है, कुछ जीवों में द्रव्येद्रियाँ कम होने पर भी पांचों भावेन्द्रियाँ तो सभी जीवों के होती है।
प्रश्न-तो क्या कृमि आदि जीव भावेन्द्रिय के बल से देख या सुन लेते हैं ?
उत्तर-नहीं, केवल भावेन्द्रिय काम करने में समर्थ नहीं, उसे द्रव्येन्द्रिय का सहारा चाहिए । इसीलिए भावेन्द्रियों के होने पर भी कृमि या चीटी आदि नेत्र तथा कर्ण द्रव्येन्द्रिय न होने से देखने-सुनने में असमर्थ है। फिर भी वे जीव अपनीअपनी द्रव्येन्द्रिय की पटुता के कारण जीवन-यात्रा चला ही लेते है ।
पृथिवीकाय से लेकर चतुरिन्द्रिय पर्यन्त आठ निकायों के तो मन होता ही नहीं, पञ्चेन्द्रियों में भी सबके मन नही होता । पञ्चेन्द्रिय जीवों के चार वर्ग हैदेव, नारक, मनुष्य और तिर्यश्च । पहले दो वर्गों मे तो सभी के मन होता है और शेष दो वर्गो मे से उन्हीं के होता है जो गर्भोत्पन्न हों। मनुष्य और तिर्यञ्च गर्भोत्पन्न तथा संमूछिम दो-दो प्रकार के होते है । संमूछिम मनुष्य और तिर्यञ्च के मन नही होता । सारांश, यह है कि पञ्चेन्द्रियों में सब देवों, सब नारकों, गर्भजमनुष्यों तथा गर्भज-तिर्यश्चों के ही मन होता है ।
प्रश्न-- इसकी क्या पहचान है कि किस के मन है और किस के नही है ? उत्तर---इसकी पहचान संज्ञा का होना या न होना है।
प्रश्न-वृत्ति को संज्ञा कहते है। न्यूनाधिक रूप मे किसी-न-किसी प्रकार की वृत्ति सभी में होती है, क्योंकि कृमि, चीटी आदि मे भी आहार, भय आदि वृत्तियाँ है । फिर इन जीवों में मन क्यों नही माना जाता ?
उत्तर--यहाँ संज्ञा का अर्थ साधारण वृत्ति नहीं, विशिष्ट वृत्ति है ।' वह १. इसके स्पष्टीकरण के लिए देखे-हिन्दी चौथा कर्मग्रन्थ, पृ० ३८ पर 'संज्ञा' शब्द का परिशिष्ट ।
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६२
तत्त्वार्थसूत्र
[ २. २६-३१
विशिष्ट वृत्ति गुण-दोष की विचारणा है, जिससे हित की प्राप्ति और अहित का परिहार हो सके । इस विशिष्ट वृत्ति को शास्त्र मे सम्प्रधारण संज्ञा कहते है। यह संज्ञा मन का कार्य है जो देव, नारक, गर्भज मनुष्य और गर्भज तिर्यञ्च मे ही स्पष्ट रूप से होती है । इसलिए वे ही मनवाले माने जाते है ।
प्रश्न-क्या कृमि, चीटी आदि जीव अपने-अपने इष्ट को पाने तथा अनिष्ट को त्यागने का प्रयत्न नही करते ?
उत्तर- करते है। प्रश्न--तब उनमे सम्प्रधारण संज्ञा और मन क्यों नही माना जाता ?
उत्तर---कृमि आदि मे भी अत्यन्त सूक्ष्म मन' विद्यमान है, इसीलिए वे हित में प्रवृत्ति और अनिष्ट से निवृत्ति करते है । पर उनका वह कार्य केवल देहयात्रोपयोगी है, अधिक नहीं । यहाँ इतना पुष्ट मन विवक्षित है जिससे निमित्त मिलने पर देह-यात्रा के अतिरिक्त और भी अधिक विचार किया जा सके अर्थात् जिससे पूर्वजन्म का स्मरण तक हो सके-विचार की इतनी योग्यता ही संप्रधारण संज्ञा कहलाती है। इस संज्ञावाले देव, नारक, गर्भज मनुष्य और गर्भज तिर्यञ्च ही होते है । अतएव उन्ही को समनस्क कहा गया है । २३-२५ ।
अन्तराल२ गति सम्बन्धी योग आदि पांच बातें
विग्रहगतौ कर्मयोगः । २६ । अनुश्रेणि गतिः । २७॥ अविग्रहा जीवस्य । २८ । विग्रहवती च संसारिणः प्राक् चतुर्व्यः । २९ । एकसमयोऽविग्रहः । ३०।
एकं द्वौ वाऽनाहारकः । ३१ । विग्रहगति में कर्मयोग ( कार्मणयोग ) ही होता है। गति, श्रेणि ( सरलरेखा ) के अनुसार होती है। जोव ( मुच्यमान आत्मा ) की गति विग्रहरहित ही होती है । संसारी आत्मा की गति अविग्रह और सविग्रह होती है।
१. देखे--ज्ञानबिन्दुप्रकरण, यशोविजय जैन ग्रन्थमाला, १० १४४ ।
२. इसे विशेष स्पष्टतापूर्वक समझने के लिए देखें-हिन्दी चौथा कर्मग्रन्थ मे, 'अनाहारक' शब्द का परिशिष्ट, पृ० १४३ ।
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२. २६-३१ ] अन्तराल गति सम्बन्धी योग आदि पाँच बातें
विग्रह चार से पहले अर्थात् तीन तक हो सकते है। विग्रह का अभाव एक समय परिमित है अर्थात् विग्रहाभाववालो गति एक समय परिमाण है।
जीव एक या दो समय तक अनाहारक रहता है। पुनर्जन्म माननेवाले प्रत्येक दर्शन के सामने अन्तराल गति सम्बन्धी पाँच प्रश्न उपस्थित होते है .
१ जब जीव जन्मान्तर के लिए या मोक्ष के लिए गति करता है तब अर्थात् अन्तराल गति के समय स्थूल शरीर न होने से जीव किस तरह प्रयत्न करता है ?
२. गतिशील पदार्थ किस नियम से गतिक्रिया करते है ?
३. गतिक्रिया के कितने प्रकार है और कौन-कौन जीव किस-किस गतिक्रिया के अधिकारी है ?
४. अन्तराल गति का जघन्य या उत्कृष्ट कालमान कितना है और यह कालमान किस नियम पर अवलम्बित है ?
५. अन्तराल गति के समय जीव आहार करता है या नही ? अगर नही करता तो जघन्य या उत्कृष्ट कितने काल तक और अनाहारक स्थिति का कालमान किस नियम पर अवलम्बित है ?
आत्मा को व्यापक माननेवाले दर्शनों को भी इन पाँच प्रश्नो पर विचार करना चाहिए, क्योंकि उन्हे भी पुनर्जन्म की उपपत्ति के लिए सूक्ष्म शरीर का गमन और अन्तराल गति माननी ही पड़ती है। किन्तु जैनदर्शन तो देहव्यापी आत्मवादी है, अतः उसे तो उक्त प्रश्नों पर विचार करना ही चाहिए। यहाँ क्रमश. यही विचार किया जा रहा है ।
योग–अन्तराल गति दो प्रकार की है-ऋजु और वक्र । ऋजुगति से स्थानान्तर जाते हुए जीव को नया प्रयत्न नही करना पडता, क्योकि जब वह पूर्व-शरीर छोड़ता है तब उसे पूर्व-शरीरजन्य वेग मिलता है । इस तरह वह दूसरे प्रयत्न के बिना ही धनुष से छूटे हुए बाण की तरह सीधे नये स्थान को पहुँच जाता है। दूसरी गति वक्र ( घुमावदार ) होती है, इसलिए जाते समय जीव को नये प्रयत्न की अपेक्षा होती है, क्योकि पूर्व-शरीरजन्य प्रयत्न वही तक काम करता है जहाँ से जीव को घूमना पडता है। घूमने का स्थान आते ही पूर्वदेहजनित प्रयत्न मन्द पड़ जाता है, अतः वहाँ से सूक्ष्म-शरीर से प्रयत्न होता है जो जीव के साथ उस समय भी रहता है । वही सूक्ष्म-शरीरजन्य प्रयत्न कार्मण
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तत्त्वार्थसूत्र
[ २. २६-३१
योग कहलाता है । इसी आशय से सूत्र मे विग्रहगति मे कार्मणयोग होने की बात कही गई है । सारांश, यह है कि वक्रगति से जानेवाला जीव केवल पूर्व-शरीरजन्य प्रयत्न से नये स्थान को नही पहुंच सकता, इसके लिए नया प्रयत्न कार्मण (सूक्ष्म) शरीर से ही साध्य है, क्योकि उस समय दूसरा कोई स्थूल शरीर नहीं होता है । स्थूल शरीर न होने से मनोयोग और वचनयोग भी नही होते । २६ ।।
गति का नियम-गतिशील पदार्थ दो ही है--जीव और पुद्गल । इन दोनों में गतिक्रिया की शक्ति है, इसलिए वे निमित्तवश गतिक्रिया में परिणत होकर गति करने लगते है। बाह्य उपाधि से भले ही वे वक्रगति करे, पर उनकी स्वाभाविक गति तो सीधी ही होती है । सीधी गति का आशय यह है कि पहले जिस आकाश-क्षेत्र मे जीव या परमाणु स्थित हों, वहाँ से गति करते हुए वे उसी आकाश-क्षेत्र की सरल रेखा मे ऊँचे, नीचे या तिरछे चाहे जहाँ चले जाते है । इसी स्वाभाविक गति को लेकर सूत्र में कहा गया है कि गति अनुश्रेणि होती है । श्रेणि अर्थात् पूर्वस्थान-प्रमाण आकाश की अन्यूनाधिक सरल रेखा । इस स्वाभाविक गति के वर्णन से सूचित होता है कि जब कोई प्रतिघातक कारण हो तब जीव या पुद्गल श्रेणि ( सरल रेखा) को छोड़कर वक्र-रेखा से भी गमन करते है । साराश, यह है कि गतिशील पदार्थो की गतिक्रिया प्रतिघातक निमित्त के अभाव मे पूर्वस्थान-प्रमाण सरल रेखा से ही होती है और प्रतिघातक निमित्त होने पर वक्ररेखा से भी होती है । २७ ।
गति का प्रकार--पहले कहा गया है कि गति ऋजु और वक्र दो प्रकार की है । ऋजुगति वह है जिसमे पूर्वस्थान से नये स्थान तक जाने मे सरल रेखा का भंग न हो अर्थात् एक भी घुमाव न हो। वक्रगति वह है जिसमे पूर्वस्थान से नये स्थान तक जाने मे सरल रेखा का भंग हो अर्थात् कम-से-कम एक घुमाव अवश्य हो । यह भी कहा गया है कि जीव और पुद्गल दोनो इन दोनों गतियों के अधिकारी है । यहाँ मुख्य प्रश्न जीव का है । पूर्व-शरीर छोड़कर स्थानान्तर जानेवाले जीव दो प्रकार के है । एक तो वे जो स्थूल और सूक्ष्म शरीर को सदा के लिए छोडकर जाते है, ये जीव मुच्यमान ( मोक्ष जानेवाले ) कहलाते है । दूसरे वे जो पूर्व-स्थूलशरीर को छोड़कर नये स्थूलशरीर को प्राप्त करते है। वे अन्तराल गति के समय सूक्ष्मशरीर से अवश्य वेष्टित होते है। ये जीव संसारी कहलाते है । मुच्यमान जीव मोक्ष के नियत स्थान पर ऋजुगति से ही जाते है, वक्रगति से नही, क्योंकि वे पूर्वस्थान की सरल रेखावाले मोक्षस्थान मे ही प्रतिष्ठित होते है, किंचित् भी इधर-उधर नही । परन्तु संसारी जीव के उत्पत्तिस्थान का कोई नियम नहीं है। कभी तो उनको जहां उत्पन्न होना हो वह नया स्थान पूर्वस्थान
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२. २६-३१] अन्तराल गति सम्बन्धी योग आदि पाँच बातें
की बिलकुल सरल रेखा मे होता है और कभी वक्र रेखा में, क्योंकि पुनर्जन्म के नवीन स्थान का आधार पूर्वकृत कर्म है और कर्म विविध प्रकार का होता है। इसलिए संसारी जीव ऋजु और वक्र दोनों गतियों के अधिकारी है । सारांश यह है कि मुक्तिस्थान को जानेवालो आत्मा की एकमात्र सरलगति होती है और पुनर्जन्म के लिए स्थानान्तर को जाने वाले जीवों की सरल तथा वक्र दोनों गतियाँ होती है । ऋजुगति का दूसरा नाम इषुगति भी है, क्योंकि वह धनुष के वेग से प्रेरित बाण की गति की तरह पूर्व-शरीरजनित वेग के कारण सीधी होती है। वक्रगति के पाणिमुक्ता, लाङ्गलिका और गोमूत्रिका ये तीन नाम है। जिसमे एक बार सरल रेखा का भङ्ग हो वह पाणिमुक्ता, जिसमें दो बार हो वह लाङ्गलिका
और जिसमे तीन बार हो वह गोमूत्रिका । जीव को कोई भी ऐसी वक्रगति नहीं होती जिसमें तीन से अधिक घुमाव करने पड़ें, क्योंकि जीव का नया उत्पत्तिस्थान कितना ही विश्रेणिपतित ( वक्र रेखा स्थित ) क्यों न हो, वह तीन घुमाव मे तो अवश्य ही प्राप्त हो जाता है । पुद्गल की वक्रगति में घुमाव की सख्या का कोई नियम नही है, उसका आधार प्रेरक निमित्त है । २८-२९ ।
गति का कालमान-अन्तराल गति का कालमान जघन्य एक समय और उत्कृष्ट चार समय है। जब ऋजुगति हो तब एक ही समय और जब वक्रगति हो तब दो, तीन या चार समय समझना चाहिए। समय को संख्या की वृद्धि घुमाव की संख्या की वृद्धि पर आधृत है। जिस वक्रगति मे एक घुमाव हो उसका कालमान दो समय का, जिसमें दो घुमाव हो उसका कालमान तीन समय का और जिसमे तीन घुमाव हों उसका कालमान चार समय का है। संक्षेप मे, जब एक विग्रह की गति से उत्पत्तिस्थान मे जाना हो तब पूर्वस्थान से घुमाव के स्थान तक पहुँचने में एक समय और घुमाव के स्थान से उत्पत्तिस्थान तक पहुँचने में दूसरा समय लग जाता है । इसी नियम के अनुसार दो विग्रह की गति में तीन समय और तीन विग्रह की गति में चार समय लग जाते है । यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि ऋजुगति से जन्मान्तर करनेवाले जीव के पूर्वशरीर त्यागते समय ही नये आयु और गति कर्म का उदय हो जाता है और वक्रगतिवाले जीव के प्रथम वक्र स्थान से नवीन आयु, गति और आनुपूर्वी नामकर्म का यथासम्भव उदय हो जाता है, क्योंकि प्रयम वक्रस्थान तक ही पूर्वभवीय आयु आदि का उदय रहता है । ३० ।
अनाहार का कालमान-मुच्यमान जीव के लिए तो अन्तराल गति मे आहार का प्रश्न ही नहीं रहता, क्योंकि वह सूक्ष्म व स्थूल सब शरीरों से मुक्त है। पर
१. ये पाणिमुक्ता आदि संज्ञाएं दिगम्बर व्याख्या-ग्रन्थो मे प्रसिद्ध है।
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तत्त्वार्थसूत्र
[२. २६-३१
संसारी जीव के लिए आहार का प्रश्न है, क्योकि उसके अन्तराल गति मे भो सूक्ष्मशरीर होता ही है। आहार का अर्थ है स्थूलशरीर के योग्य पुद्गलो को ग्रहण करना । ऐसा आहार संसारी जीवो मे अन्तराल गति के समय मे पाया भी जाता है और नही भी पाया जाता। ऋजुगति से या दो समय की एक विग्रहवाली गति से जानेवाले अनाहारक नही होते, क्योकि ऋजुगतिवाले जिस समय मे पूर्वशरीर छोड़ते है उसी समय मे नया स्थान प्राप्त करते है, समयान्तर नही होता। इसलिए उनकी ऋजुगति का समय त्यागे हुए पूर्वभवीय शरीर के द्वारा ग्रहण किये गए आहार का या नवीन जन्मस्थान मे ग्रहण किये गए आहार का समय है। यही स्थिति एक विग्रहवाली गति की है, क्योकि इसके दो समयों में से पहला समय पूर्वशरीर के द्वारा ग्रहण किये हुए आहार का है और दूसरा समय नये उत्पत्तिस्थान में पहुंचने का है, जिसमे नवीन शरीर धारण करने के लिए आहार किया जाता है। परन्तु तीन समय की दो विग्रहवाली और चार समय की तीन विग्रहवाली गति मे अनाहारक स्थिति होती है, क्योंकि इन दोनों गतियों के क्रमशः तीन और चार समयों में से पहला समय त्यक्त शरीर के द्वारा लिये हुए आहार का और अन्तिम समय उत्पत्तिस्थान में लिये हुए आहार का है । पर प्रथम तथा अन्तिम इन दो समयो को छोडकर बीच का काल आहारशून्य होता है। अतएव द्विविग्रह गति में एक समय और त्रिविग्रह गति में दो समय तक जीव अनाहारक माने गए है। प्रस्तुत सूत्र में यही भाव प्रकट किया गया है । साराश यह है कि ऋजुगति और एकविग्रह गति में आहारक दशा ही रहती है और द्विविग्रह तथा त्रिविग्रह गति में प्रथम और चरम इन दो समयों को छोडकर अनुक्रम से मध्यवर्ती एक तथा दो समय पर्यन्त अनाहारक दशा रहती है। कही-कही तीन समय भी अनाहारक दशा के पाँच समय की चार विग्रहवाली गति की सम्भावना की अपेक्षा से माने गए है।
प्रश्न-अन्तराल गति मे शरीर-पोषक आहाररूप से स्थूल पुद्गलो के ग्रहण का अभाव तो ज्ञात हुआ, पर प्रश्न यह है कि उस समय कर्मपुद्गल ग्रहण किये जाते हैं या नही ?
उत्तर-किये जाते है । प्रश्न-किस प्रकार किये जाते है ?
उत्तर-अन्तराल गति में भी संसारी जीवों के कार्मणशरीर अवश्य होता है । अतएव यह शरीरजन्य आत्मप्रदेश-कम्पन, जिसको कार्मण-योग कहते है, अवश्य होता है । जब योग है तब कर्मपुद्गल का ग्रहण भी अनिवार्य है, क्योंकि योग ही कर्मवर्गणा के आकर्षण का कारण है। जैसे जल की वृष्टि के समय फेंका
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२. ३२-३६ ]
जन्म और योनि के भेद तथा उनके स्वामी
गया संतप्त बाण जलकणों को ग्रहण करता हुआ तथा उन्हे सोखता हुआ चला जाता है, वैसे ही अन्तराल गति के समय कार्मणयोग से चञ्चल जीव भी कर्मवर्गणाओं को ग्रहण करता है और उन्हे अपने साथ मिलाता हुआ स्थानान्तर की ओर गतिमान होता है । ३१ ।
जन्म और योनि के भेद तथा उनके स्वामी सम्मूर्छनगर्भोपपाता जन्म । ३२ । सचित्तशीतसंवृताः सेतरा मिश्राश्चैकशस्तद्योनयः । ३३ । जराय्वण्डपोतजानां गर्भः । ३४ । नारकदेवानामुपपातः । ३५। शेषाणां सम्मूर्छनम् । ३६ । सम्मूर्छन, गर्भ और उपपात ये जन्म के तीन प्रकार है।
सचित्त, शीत और सवृत ये तीन तथा इन तीनों से विपरीत अचित्त, उष्ण और विवृत एवं मिश्र अर्थात् सचित्ताचित्त, शीतोष्ण और संवृतविवृत-जन्म की कुल नौ योनियाँ है।
जरायुज, अण्डज और पोतज प्राणियों का गर्भ-जन्म होता है । नारक और देवों का उपपात-जन्म होता है। शेष सब प्राणियों का सम्मर्छन-जन्म होता है।
जन्म-भेद-पूर्वभव समाप्त होने पर संसारी जीव नया भव धारण करते है । इसके लिए उन्हे जन्म लेना पडता है पर जन्म सबका एक-सा नही होता, यही बात यहाँ बतलाई गई है । पूर्व भव का स्थूल शरीर छोड़ने के बाद अन्तराल गति से केवल कार्मणशरीर के साथ आकर नवीन भव के योग्य स्थूल शरीर के लिए पहले पहल योग्य पुद्गलों को ग्रहण करना जन्म है । जन्म के तीन प्रकार हैसम्मूर्छन, गर्भ और उपपात । माता-पिता के सम्बन्ध के बिना ही उत्पत्तिस्थान में स्थित औदारिक पुद्गलों को पहले पहल शरीररूप मे परिणत करना सम्मूर्छनजन्म है। उत्पत्तिस्थान मे स्थित शुक्र और शोणित के पुद्गलों को पहले पहल शरीर के लिए ग्रहण करना गर्भ-जन्म है । उत्पतिस्थान मे स्थित वैक्रिय पुद्गलों को पहले पहल शरीररूप मे परिणत करना उपपात-जन्म है । ३२ ।
योनि-भेद-जन्म के लिए स्थान आवश्यक है । जिस स्थान में पहले पहल स्थूल शरीर के लिए ग्रहण किये गए पुद्गल कार्मणशरीर के साथ गरम लोहे में
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तत्त्वार्थ सूत्र
[ २. ३२-३६
पानी की तरह मिल जाते है, उसी को योनि कहते है । योनि नौ प्रकार की हैसक्ति, शीत, संवृत, अचित्त, उष्ण, विवृत, सचित्ताचित्त, शीतोष्ण और संवृतविकृत । १. सचित्त - जो जीव- प्रदेशो से अधिष्ठित हो, २. अचित्त - जो अधिछित न हो, ३. मिश्र — जो कुछ भाग मे अधिष्ठित हो, कुछ भाग में न हो, ४. खोत - जिस उत्पत्तिस्थान में शीत स्पर्श हो, ५. उष्ण — जिसमे उष्ण स्पर्श हो, ६. मिश्र - जिसके कुछ भाग मे शीत कुछ भाग मे उष्ण स्पर्श हो, ७. संवृत — जो उत्पत्तिस्थान ढका या दबा हो, ८. विवृत — जो ढका न हो, खुला हो, ९. मिश्र - जो कुछ ढका तथा कुछ खुला हो ।
तथा
६८
किस-किस योनि मे कौन-कौन से जीव उत्पन्न होते हैं, इसका विवरण इस
अमर है :
जीव
नारक और देव
मर्मच मनुष्य और तिर्यंच
शेष सब अर्थात् पाँच स्थावर, तीन विकलेन्द्रिय और अगर्भज पञ्चेन्द्रिय तिर्यच तथा मनुष्य
गर्मन मनुष्य और तिर्यच तथा देव ' वेब: कायिक ( अग्निकायिक )
शेष सब अर्थात् चार स्थावर, तीन विकलेन्द्रिय, अगर्भज पञ्चेन्द्रिय तिर्यच और मनुष्य तथा नारक
नारक, देव और एकेन्द्रिय
गर्भज पञ्चेन्द्रिय तिर्यच और मनुष्य
शेष सब अर्थात् तीन विकलेन्द्रिय, अपर्भन पञ्चेन्द्रिय मनुष्य व तिर्यच
प्रश्न
}
योनि
अचित्त
मिश्र ( सचित्ताचित्त )
त्रिविध - सचित्त, अचित्त तथा मिश्र ( सचित्ताचित्त )
-योनि और जन्म मे क्या अन्तर है ?
मिश्र (शीतोष्ण )
उष्ण
त्रिविध - शीत, उष्ण और मिश्र ( शीतोष्ण )
संवृत
मिश्र ( संवृतविवृत )
} विवृत
५. दिगम्बर टीका ग्रन्थों में शीत और उग योनियो के स्वामी देव और नारक माने गए हैं । चदनुसार वहा शीत, ष्ण आदि विविध योनियों के स्वाभियों में नारक जीवो को न गिनकर गर्भज मनुष्यो और तिर्यचो को गिनना चाहिए 1
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२. ३७-४९ ]
शरीरों के विषय
उत्तर-योनि आधार है और जन्म आधेय, अर्थात् स्थूल शरीर के लिए योग्य पुद्गलों का प्राथमिक ग्रहण जन्म है और वह ग्रहण जिस जगह हो वह योनि है।
प्रश्न-योनियां तो चौरासी लाख मानी जाती है, फिर यहाँ नौ ही क्यों कही गईं ?
उत्तर-चौरासी लाख योनियों का कथन विस्तार की अपेक्षा से किया गया है। पृथिवीकाय आदि जिस-जिस निकाय के वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श के तरतमभाववाले जितने-जितने उत्पत्तिस्थान है उस-उस निकाय की उतनी ही योनियाँ चौरासी लाख में गिनी गई है । यहाँ उन्ही चौरासी लाख योनियों के सचित्त आदि रूप से संक्षेप में नौ विभाग कहे गए है । ३३ ।
जन्म के स्वामी-ऊपर कहे हुए तीन प्रकार के जन्म में से कौन-कौन-सा जन्म किन-किन जीवों का होता है, इसका विभाग नीचे लिखे अनुसार है :
जरायुज, अण्डज और पोतज प्राणियों का गर्भजन्म होता है। देव बोर नारक का उपपातजन्म होता है । शेष सब अर्थात् पाँच स्थावर, तीन विकलेन्द्रिय और अगर्भज पञ्चेन्द्रिय तिर्यच तथा मनुष्य का सम्मूर्छन जन्म होता है। बण्यूब वे है जो जरायु से पैदा हो, जैसे मनुष्य, गाय, स, बकरी आदि जाति के जीव । जरायु एक प्रकार का जाल ( झिल्ली ) जैसा आवरण है जो रक्त और मांस से भरा होता है और जिसमें गर्भस्थ शिशु लिपटा रहता है । अण्डे से पैदा होनेवाले अण्डज है, जैसे साँप, मोर, चिडिया, कबूतर आदि जाति के जीव । जो किसी प्रकार के आवरण से वेष्टित नही होते वे पोतज है, जैसे हाथी, शशक, नेक्ला, चूहा आदि जाति के जीव । ये न तो जरायु से ही लिपटे हुए पैदा होते हैं बौर न अण्डे से, अपितु खुले शरीर पैदा होते है । देवों और नारको के जन्म के लिए विशेष नियत स्थान होता है, जिसे उपपात कहते है। देवशय्या के ऊपर का दिव्यवस्त्र से आच्छन्न भाग देवो का उपपात क्षेत्र है और वज्रमय भीत का गवाक्ष ( कुम्भी) नारको का उपपात क्षेत्र है, क्योकि इस उपपात क्षेत्र में स्थित वैक्रियपुद्गलो को वे शरीर के लिए ग्रहण करते है । ३४-३६ ।
शरीरो के विषय औदारिकवैक्रियाऽऽहार कतैजसकार्मणानि शरीराणि । ३७ । परं परं सूक्ष्मम् । ३८ । प्रदेशतोऽसंख्येयगुणं' प्राक् तैजसात् । ३९ ।
१. भाष्य की वृत्ति मे प्रदेश शब्द का अर्थ 'अनन्ताणक स्कन्ध किया गया है, परन्तु सर्वार्थसिद्धि आदि में 'परमाणु' अर्थ किया गया है।
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७०
तत्त्वार्थसूत्र
[२. ३७-४९
अनन्तगुणे परे । ४०। अप्रतिघाते । ४१ । अनादिसम्बन्धे च । ४२ । सर्वस्य । ४३। तदादीनि भाज्यानि युगपदेकस्याचतुर्व्यः । ४४ । निरुपभोगमन्त्यम् । ४५ । गर्भसम्मूर्छनजमाद्यम् । ४६ । वैक्रियमौपपातिकम् । ४७। लब्धिप्रत्ययं च । ४८। शुभं विशुद्धमव्याधाति चाहारकं चतुर्दशपूर्वधरस्यैव । ४९ ।
औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस और कार्मण ये पाँच प्रकार के शरीर हैं।
इन पाँच प्रकारों में पर पर अर्थात् आगे-आगे का शरीर पूर्व-पूर्व से सूक्ष्म है।
तैजस के पूर्ववर्ती तीन शरीरों में पूर्व-पूर्व की अपेक्षा उत्तर-उत्तर शरीर प्रदेशों ( स्कन्धों) से असंख्यातगुण होता है।
परवर्ती दो अर्थात् तैजस और कार्मण शरीर प्रदेशों से अनन्तगुण होते हैं।
तैजस और कार्मण दोनों शरीर प्रतिघात-रहित हैं । आत्मा के साथ अनादि सम्बन्धवाले हैं। सब संसारी जीवों के होते है ।
एक साथ एक जीव के तैजस और कार्मण से लेकर चार तक शरीर विकल्प से होते हैं।
अन्तिम अर्थात् कार्मण शरीर उपभोग ( सुख दुःखादि के अनुभव ) से रहित है।
१. इस सत्र के बाद 'तैजसमपि' सत्र दिगम्बर परम्परा मे है, श्वेताम्बर परम्परा मे नहीं है । सर्वार्थसिद्धि आदि मेउसका अर्थ इस प्रकार है-'तैजस शरीर भी लब्धिजन्य है अर्यात् जैसे वैक्रिय शरीर लब्धि से उत्पन्न किया जा मकता है वैसे ही लब्धि से तैजस शरीर भी बनाया जा सकता है । इस अर्थ से यह फलित नहीं होता कि तैजस शरीर लब्धिजन्य ही है।
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२. ३७-४९]
शरीरो के विषय पहला अर्थात् औदारिक शरीर सम्मूर्छनजन्म और गर्भजन्म से ही होता है।
वैक्रिय शरीर उपपातजन्म से होता है । वह लब्धि से भी होता है।
आहारक शरीर शुभ (प्रशस्त पुद्गल द्रव्यजन्य), विशुद्ध (निष्पाप कार्यकारी ) और व्याघात (बाधा) रहित होता है तथा वह चौदह पूर्वधारी मुनि के ही होता है ।
जन्म ही शरीर का आरम्भ है, इसलिए जन्म के बाद शरीर का वर्णन किया गया है । शरीर से सम्बन्धित अनेक प्रश्नों पर आगे क्रमशः विचार किया जा रहा है।
शरीर के प्रकार तथा व्याख्या-देहधारी जीव अनन्त है, उनके शरीर भी अलग-अलग है । अतः वे व्यक्तिशः अनन्त है । पर कार्य-कारण आदि के सादृश्य की दृष्टि से संक्षेप में उनके पाँच प्रकार बतलाये गए है, जैसे औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस और कार्मण ।
शरीर जीव का क्रिया करने का साधन है। १. जो शरीर जलाया जा सके व जिसका छेदन-भेदन हो सके वह औदारिक है। २. जो शरीर कभी छोटा, कभी बडा, कभी पतला, कभी मोटा, कभी एक, कभी अनेक इत्यादि रूपों को धारण कर सके वह वैक्रिय है। ३. जो शरीर मात्र चतुर्दशपूर्वी मुनि के द्वारा ही निर्मित किया जा सके वह आहारक है । ४. जो शरीर तेजोमय होने से खाये हुए आहार आदि के परिपाक का हेतु और दीप्ति का निमित्त हो वह तैजस है । ५ कर्मसमूह ही कार्मण शरीर है । ३७ ।
स्थूल-सूक्ष्म भाव--उक्त पाँचो शरीरो मे औदारिक शरीर सबसे अधिक स्यूल है, वैक्रिय उससे सूक्ष्म है, आहारक वैक्रिय से भी सूक्ष्म है। इसी तरह आहारक से तैजस और तैजस से कार्मण सूक्ष्म व सूक्ष्मतर है।
प्रश्न-यहाँ स्थूल और सूक्ष्म से क्या तात्पर्य है ?
उत्तर-स्थूल और सूक्ष्म का अर्थ है रचना की शिथिलता और सघनता, परिमाण नही। औदारिक से वैक्रिय सूक्ष्म है, पर आहारक से स्थूल है । इसी प्रकार आहारक आदि शरीर भी पूर्व-पूर्व की अपेक्षा सूक्ष्म और उत्तर-उत्तर की अपेक्षा स्थूल है; अर्थात् यह स्थूल-सूक्ष्म भाव अपेक्षाकृत है । तात्पर्य यह है कि जिस शरीर की रचना जिस दूसरे शरीर की रचना से शिथिल हो वह उससे स्थूल है और दूसरा उससे सूक्ष्म है। रचना की शिथिलता और सघनता पौद्गलिक परिणति
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तत्त्वार्थ सूत्र
[ २. ३७-४९
पर निर्भर है। पुद्गलों में अनेक प्रकार के परिणमन की शक्ति होती है, अतः परिमाण में अल्प होने पर भी जब वे शिथिल रूप में परिणत होते है तब स्थूल कहलाते है और परिमाण मे बहुत होने पर भी जैसे-जैसे सघन होते जाते है वैसे-वैसे वे सूक्ष्म-सूक्ष्मतर कहलाते है । उदाहरणार्थ, भिडी की फली और हाथी के दाँत को ले | दोनों समान आकार के होने पर भी भिडी की रचना शिथिल होगी और दाँत की रचना ठोस । इस प्रकार परिमाण ( आकार ) तुल्य होने पर भी स्पष्ट है कि भिडी की अपेक्षा दाँत का पौद्गलिक द्रव्य अधिक है । ३८ |
७२
प्रारम्भक या उपादान द्रव्य का परिमारण - स्थूल सूक्ष्म भाव की उक्त व्याख्या के अनुसार उत्तर-उत्तर शरीर का आरम्भक द्रव्य पूर्व- पूर्व शरीर की अपेक्षा परिमाण मे अधिक होता है, यह बात स्पष्ट हो जाती है, पर वह परिमाण जितनाजितना पाया जाता है उसी को यहाँ दो सूत्रो मे बतलाया गया है ।
परमाणुओं से बने जिन स्कन्धों से शरीर निर्मित होता है वे ही स्कन्ध शरीर के आरम्भक द्रव्य है । जब तक परमाणु अलग-अलग हों तब तक उनसे शरीर नही बनता । परमाणुपुञ्ज, जो कि स्कन्ध कहलाते हैं, से ही शरीर बनता है । वे स्कन्ध भी अनन्त परमाणुओं के बने हुए होने चाहिए । औदारिक शरीर के आरम्भक स्कन्धों से वैक्रिय शरीर के आरम्भक स्कन्ध असंख्यात गुण होते है, अर्थात् औदारिक शरीर के आरम्भक स्कन्ध अनन्त परमाणुओं के होते है और वैक्रिय शरीर के आरम्भक स्कन्ध भी अनन्त परमाणुओं के; पर वैक्रिय शरीर के स्कन्धगत परमाणुओं की अनन्त संख्या औदारिक शरीर के स्कन्धगत परमाणुओं की अनन्त संख्या से असंख्यात - गुण अधिक होती है । यही अधिकता वैक्रिय और आहारक शरीर के स्कन्धगत परमाणुओ की अनन्त सख्या मे होती है ।
संख्या से तैजस के स्कन्धगत
।
आहारक स्कन्धगत परमाणुओं की अनन्त परमाणुओं की अनन्त संख्या अनन्तगुण होती है इसी तरह तैजस से कार्मण के स्कन्धगत परमाणु भी अनन्तगुण अधिक होते है । इस प्रकार यह स्पष्ट है कि पूर्व - पूर्व शरीर की अपेक्षा उत्तर-उत्तर शरीर का आरम्भक द्रव्य अधिक-अधिक होता है । फिर भी परिणमन की विचित्रता के कारण ही उत्तर-उत्तर शरीर निबिड, निबिडतर, निबिडतम बनता जाता है और सूव्म, सूक्ष्मतर, सूक्ष्मतम कहलाता है ।
प्रश्न- जब औदारिक के स्कन्ध भी अनन्त परमाणुवाले और वैक्रिय आदि के स्कन्ध भी अनन्त परमाणुवाले है, तो फिर उन स्कन्धो में न्यूनाधिकता कैसे समझी जाय ?
उत्तर—अनन्त संख्या अनन्त प्रकार की है । इसलिए अनन्त रूप मे समानता
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२. ३७-४९ ]
शरीरों के विषय
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होने पर भी औदारिक आदि के स्कन्ध से वैक्रिय आदि के स्कन्ध का असंख्यातगुण अधिक होना असम्भव नहीं है । ३९-४० ।
अन्तिम दो शरीरों का स्वभाव, कालमर्यादा और स्वामी-उक्त पाँचों शरीरों मे से पहले तीन की अपेक्षा अन्तिम दो शरीरों में कुछ विशेषता है, जो क्रमशः तीन सूत्रों में तोन बातों के द्वारा बतलाई गई है।
स्वभाव-तैजस और कार्मण इन दो शरीरों का सारे लोक मे कही भी प्रतिघात नही होता अर्थात् वज्र जैसी कठिन वस्तु भी उन्हे प्रवेश करने से रोक नही सकती, क्योंकि वे अत्यन्त सूक्ष्म है । यद्यपि एक मूर्त वस्तु का दूसरी मूर्त वस्तु से प्रतिघात होता है, तथापि यह प्रतिघात का नियम स्थूल वस्तुओं पर लागू होता है, सूक्ष्म पर नही । सूक्ष्म वस्तु बिना रुकावट के सर्वत्र प्रवेश कर जाती है, जैसे लौहपिण्ड में अग्नि ।
प्रश्न-तब तो सूक्ष्म होने से वैक्रिय और आहारक को भी अप्रतिघाती ही कहना चाहिए?
उत्तर--अवश्य, वे भी बिना प्रतिघात के प्रवेश करते है । पर यहाँ अप्रतिघात का अर्थ लोकान्त पर्यन्त अव्याहतगति है। वैक्रिय और आहारक अव्याहतगतिवाले है, पर तैजस व कार्मण की भाँति सम्पूर्ण लोक मे नही, किन्तु लोक के विशिष्ट भाग अर्थात् त्रसनाडी में ही।
__ कालमर्यादा-तैजस और कार्मण का सम्बन्ध आत्मा के साथ प्रवाहरूप से जैसा अनादि है वैसा पहले तीन शरीरो का नही है, क्योकि वे तीनो शरीर अमुक काल के बाद कायम नही रहते । इसलिए औदारिक आदि तोनो शरीर कदाचित् ( अस्थायी ) सम्बन्धवाले कहे जाते है और तैजस व कार्मण अनादि सम्बन्धवाले ।
प्रश्न---जब कि वे जीव के साथ अनादि सम्बद्ध है, तब तो उनका अभाव कभी न होना चाहिए, क्योंकि अनादिभाव' का नाश नही होता?
उत्तर-उक्त दोनों शरीर व्यक्ति की अपेक्षा से नही, प्रवाह की अपेक्षा से अनादि है । अतएव उनका भी अपचय-उपचय होता है। जो भावात्मक पदार्थ व्यक्तिरूप से अनादि होता है वही नष्ट नहीं होता, जैसे परमाणु ।
स्वामी-तैजस और कार्मण शरीर सभी संसारी जीव धारण करते है, पर औदारिक, वैक्रिय और आहारक शरीर नही । अत तैजस व कार्मण के स्वामी सभी संसारी जीव है, जब कि औदारिक आदि के स्वामी कुछ ही जीव होते है ।
प्रश्न-तैजस और कार्मण मे कुछ अन्तर तो होगा ही? १. तुलना करें-नासतो वियते भावो नाभावो विद्यते सतः।-गीता, २.१६ ।
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1७४
तत्त्वार्थसूत्र
[२. ३७-४९
उत्तर-कार्मण शरीर समस्त शरीरों की जड है, क्योंकि वह कर्मस्वरूप है और कर्म ही सब कार्यो का निमित्त कारण है। तैजस शरीर सबका कारण नहीं । वह सबके साथ अनादिसम्बद्ध रहकर भुक्त-आहार के पाचन आदि मे सहायक होता है । ४१-४३ ।
एक साथ लभ्य शरीरों की संख्या-तैजस और कार्मण ये दो शरीर सभी संसारी जीवों के संसारकाल पर्यन्त अवश्य होते है, पर औदारिक आदि बदलते रहते है, इस प्रकार वे कमी होते है और कभी नही । अतएव यह प्रश्न उठता है कि प्रत्येक जीव के कम-से-कम और अधिक-से-अधिक कितने शरीर हो सकते है ? इसका उत्तर प्रस्तुत सूत्र मे दिया गया है । एक साथ एक संसारी जीव के कमसे-कम दो और अधिक-से-अधिक चार शरीर तक हो सकते है, पॉच कभी नही होते । जब दो होते है तब तैजस और कार्मण, क्योंकि ये दोनों यावत् संसारभावी है। ऐसी स्थिति अन्तराल गति मे ही पाई जाती है, क्योंकि उस समय अन्य कोई शरीर नहीं होता। जब तीन होते है तब तैजस, कार्मण और औदारिक या तैजस, कार्मण और वैक्रिय । पहला प्रकार मनुष्य व तिर्यञ्च में और दूसरा प्रकार देव व नारक मे जन्मकाल से मरण पर्यन्त पाया जाता है। जब चार होते है तब तैजस, कार्मण, औदारिक और वैक्रिय अथवा तैजस, कार्मण, औदारिक और आहारक । पहला विकल्प वैक्रिय-लब्धि के प्रयोग के समय कुछ ही मनुष्यों तथा तिर्यचों में पाया जाता है। दूसरा विकल्प आहारक-लब्धि के प्रयोग के समय चतुर्दश पूर्वधारी मुनि में ही होता है । पाँच शरीर एक साथ किसी के भी नही होते, क्योकि वैक्रिय-लब्धि और आहारक-लब्धि का प्रयोग एक साथ सम्भव नही है।
प्रश्न-उक्त रीति से जब दो, तीन या चार शरीर हों तब उनके साथ एक ही समय मे एक जीव का सम्बन्ध कैसे घटित होगा?
उत्तर-जैसे एक ही प्रदीप का प्रकाश एक साथ अनेक वस्तुओं पर पड़ सकता है, वैसे ही एक जीव के प्रदेश अनेक शरीरों के साथ अविच्छिन्न रूप से सम्बद्ध हो सकते है।
प्रश्न-क्या किसी के कोई एक ही शरीर नही होता ?
उत्तर-नही । सामान्य सिद्धान्त यह है कि तैजस और कार्मण ये दो शरीर कभी अलग नही होते । अतएव कोई एक शरीर कभी सम्भव नहीं, पर किसी आचार्य का मत है कि तेजस शरीर कार्मण की तरह यावत्-संसार-भावी नहीं है,
१. यह मत भाष्य मे निर्दिष्ट है ।
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२. ३७-४९ ]
शरीरों के विषय
वह आहारक की तरह लब्धिजन्य ही है । इस मत के अनुसार अन्तराल गति में केवल कार्मण शरीर होता है । अतएव उस समय एक शरीर का होना सम्भव है ।
प्रश्न--जो यह कहा गया कि वैक्रिय और आहारक इन दो लब्धियों का युगपत् अर्थात् एक साथ प्रयोग नहीं होता, इसका क्या कारण है ?
उत्तर-वैक्रियलब्धि के प्रयोग के समय और उस लब्धि से शरीर बना लेने पर नियम से प्रमत्तदशा होती है। परन्तु आहारक के विषय मे ऐसा नहीं है, क्योंकि आहारकलब्धि का प्रयोग तो प्रमत्तदशा मे होता है, पर उससे शरीर बना लेने के बाद शुद्ध अध्यवसाय सम्भव होने के कारण अप्रमत्तभाव पाया जाता है । अतः उक्त दो लब्धियो का प्रयोग एक साथ असिद्ध है। सारांश यह है कि आविर्भाव की अपेक्षा से युगपत् पाँच शरीरो का न होना कहा गया है। शक्तिरूप से तो पांचों शरीर भी हो सकते है, क्योकि आहारकलब्धिवाले मुनि के वैक्रियलब्धि भी सम्भव है। ४४ ।
प्रयोजन-प्रत्येक वस्तु का कोई-न-कोई प्रयोजन होता है । इसलिए शरीर भी सप्रयोजन होने चाहिए, पर प्रश्न यह है कि उनका मुख्य प्रयोजन क्या है और वह सब शरीरों के लिए समान है या कुछ विशेषता भी है ? शरीर का मुख्य प्रयोजन उपभोग है जो पहले चार शरीरों से सिद्ध होता है। केवल अन्तिम कार्मण शरीर से सिद्ध नहीं होता, इसीलिए उसको निरुपभोग कहा गया है।
प्रश्न-उपभोग का क्या अर्थ है ?
उत्तर-कर्ण आदि इन्द्रियों से शुभ-अशुभ शब्द आदि विषय ग्रहण करके सुखदु.ख का अनुभव करना; हाथ, पांव आदि अवयवो से दान, हिंसा आदि शुभ-अशुभ कर्म का बंध करना; बद्धकर्म के शुभ-अशुभ विपाक का अनुभव करना; पवित्र अनुष्ठान द्वारा कर्म की निर्जरा ( क्षय ) करना-यह सब उपभोग कहलाता है।
प्रश्न-औदारिक, वैक्रिय और आहारक शरीर सेन्द्रिय तथा सावयव है, इसलिए उक्त प्रकार का उपभोग उनसे साध्य हो सकता है। पर तैजस शरीर न तो सेन्द्रिय है और न सावयव, अत. उससे उक्त उपभोग कैसे सम्भव है ?
उत्तर-यद्यपि तैजस शरीर सेन्द्रिय और सावयव ( हस्तपादादियुक्त ) नही है तथापि उसका उपभोग पाचन आदि ऐसे कार्य मे हो सकता है जिससे सुख दु ख का अनुभव आदि उक्त उपभोग सिद्ध हो । उसका अन्य कार्य शाप और अनुग्रह भी है। अर्थात् अन्न-पाचन आदि कार्य मे तैजस शरीर का उपभोग तो सभी करते है, पर जो विशिष्ट तपस्वी तपस्याजन्य विशिष्ट लब्धि प्राप्त कर
१. यह विचार अ० २, सू० ४४ की भाष्यवृत्ति मे है ।
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तत्त्वार्थ सूत्र
[ २. ३७-४९
लेते है वे कुपित होकर उस शरीर के द्वारा अपने कोपभाजन को जला भी सकते है और प्रसन्न होकर उस शरीर से अनुग्रह-पात्र को शान्ति भी पहुँचा सकते है । इस प्रकार तैजस शरीर का उपभोग शाप, अनुग्रह आदि मे हो सकता है, अत. सुखदु.ख का अनुभव, शुभाशुभ कर्म का बन्ध आदि उसका उपभोग माना गया है ।
प्रश्न --यों सूक्ष्मतापूर्वक देखा जाय तो कार्मण शरीर का भी, जो कि तेजस के समान ही सेन्द्रिय और सावयव नही है, उपभोग हो सकेगा, क्योंकि वही अन्य सब शरीरों की जड है । इसलिए अन्य शरीरो का उपभोग वास्तव में कार्मण का ही उपभोग मानना चाहिए, फिर उसे निरुपभोग क्यो कहा गया है ?
उत्तर—ठीक है, उक्त रीति से कार्मण भी सोपभोग अवश्य है । यहाँ उसे निरुपभोग कहने का अभिप्राय इतना ही है कि जब तक अन्य शरीर सहायक न हों तब तक मात्र कार्मणशरीर से उक्त प्रकार का उपभोग साध्य नहीं हो सकता; अर्थात् उक्त विशिष्ट उपभोग को सिद्ध करने मे औदारिक आदि चार शरीर साक्षात् साधन है । इसीलिए वे सोपभोग कहे गए है और परम्परया साधन होने से कार्मण को निरुपभोग कहा गया है । ४५ ।
जन्मसिद्धता और कृत्रिमता - एक प्रश्न यह भी उठता है कि कितने शरीर जन्मसिद्ध है और कितने कृत्रिम है तथा जन्मसिद्ध मे कौन-सा शरीर किस जन्म से पैदा होता है और कृत्रिम होने का कारण क्या है ? इसी प्रश्न का उत्तर यहाँ चार सूत्रों मे दिया गया है ।
और देवो तथा नारकों के ही
तैजस और कार्मण ये दो शरीर न तो जन्मसिद्ध है और न कृत्रिम अर्थात् वे जन्म के बाद भी होते है, फिर भी अनादिसम्बद्ध है । औदारिक जन्मसिद्ध ही है जो गर्भ तथा सम्मूर्छन इन दो जन्मों से पैदा होता है तथा जिसके स्वामी मनुष्य और तिर्यञ्च है । वैक्रिय शरीर जन्मसिद्ध और कृत्रिम दो प्रकार का है । जो जन्मसिद्ध है वह उपपातजन्म के द्वारा पैदा होता है होता है । कृत्रिम वैक्रिय शरीर का कारण लब्धि है । लब्धि एक प्रकार की तपोजन्य शक्ति है, जो कुछ ही गर्भज मनुष्यों और तिर्यञ्चों में सम्भव है । इसलिए वैसी लब्धि से होनेवाले वैक्रिय शरीर के अधिकारी गर्भज मनुष्य और तिर्यञ्च ही है । कृत्रिम वैक्रिय शरीर की कारणभूत एक अन्य प्रकार की भी लब्धि है, जो तपोजन्य न होकर जन्म से ही मिलती है । ऐसी लब्धि कुछ बादर वायुकायिक जीवों में ही मानी गई है । इसलिए वे भी लब्धिजन्य (कृत्रिम) वैक्रिय शरीर के अधिकारी है । आहारक शरीर कृत्रिम ही है । इसका कारण विशिष्ट लब्धि ही है, जो मनुष्य के सिवाय अन्य जातियो मे नही होती और मनुष्य मे भी विशिष्ट मुनि के ही होती है । प्रश्न-कौन से विशिष्ट मुनि के होती है ?
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२. ५०-५१ ]
वेद (लिंग) के प्रकार उत्तर-चतुर्दश पूर्वधारी मुनि के होती है । प्रश्न-वे उस लब्धि का प्रयोग कब और किसलिए करते है ?
उत्तर-किसी सूक्ष्म विषय मै सन्देह होने पर उसके निवारण के लिए अर्थात् जब कभी किसी चतुर्दश पूर्वधारी मुनि को गहन विषय मे सन्देह हो और सर्वज्ञ का सन्निधान न हो तब वे औदारिक शरीर से क्षेत्रान्तर मे जाना असम्भव देखकर अपनी विशिष्ट लब्धि का प्रयोग करते है और हस्तप्रमाण छोटा-सा शरीर बनाते है, जो शुभ पुद्गल-जन्य होने से सुन्दर होता है, प्रशस्त उद्देश्य से बनाये जाने के कारण निरवद्य होता है और अत्यन्त सूक्ष्म होने के कारण अव्याघाती अर्थात् किसी को रोकनेवाला या किसी से रुकनेवाला नहीं होता। ऐसे शरीर से वे क्षेत्रान्तर मे सर्वज्ञ के निकट पहुँचकर अपने सन्देह का निवारण कर फिर अपने स्थान पर लौट आते है। यह कार्य केवल अन्तर्मुहूर्त मे हो जाता है ।
प्रश्न-अन्य कोई शरीर लब्धिजन्य नही है ? उत्तर-नही।
प्रश्न-शाप और अनुग्रह के द्वारा तैजस का जो उपभोग बतलाया गया, उससे तो वह लब्धिजन्य स्पष्ट मालूम होता है, फिर अन्य कोई शरीर लब्धिजन्य नही है, ऐसा क्यों ?
उत्तर-यहाँ लब्धिजन्य का अर्थ उत्पत्ति है, प्रयोग नही । तैजस की उत्पत्ति लब्धि से नहीं होती, जैसे वैक्रिय और आहारक की होती है, पर उसका प्रयोग कभी-कभी लब्धि से किया जाता है। इसी आशय से तैजस शरीर को यहाँ लब्धिजन्य ( कृत्रिम ) नहीं कहा गया । ४६-४९ ।
वेद ( लिंग ) के प्रकार नारकसम्मूछिनो नपुंसकानि । ५०।
न देवाः । ५१ । नारक और संमूछिम नपुंसक ही होते है । देव नपुंसक नहीं होते।
शरीरों के वर्णन के बाद वेद या लिग का प्रश्न उठता है । इसी का स्पष्टी. करण यहाँ किया गया है । चिह्न को लिग कहते है । वह तीन प्रकार का है । यह बात पहले औदयिक भावो की सख्या बतलाते समय कही जा चुकी है।'
१. देखें-अ० २, सू०६ ।
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७८
तत्त्वार्थसूत्र
[२. ५२
लिग तीन है-पुलिग, स्त्रीलिंग और नपुसकलिंग । लिंग का दूसरा नाम वेद भी है। ये तीनो वेद द्रव्य और भाव रूप से दो-दो प्रकार के है ।' द्रव्यवेद अर्थात् ऊपर का चिह्न और भाववेद अर्थात् अभिलाषा-विशेष । १ जिस चिह्न से पुरुष की पहचान होती है वह द्रव्य-पुरुषवेद है और स्त्री के संसर्ग-सुख की अभिलाषा भाव-पुरुषवेद है। २ स्त्री की पहचान का साधन द्रव्य-स्त्रीवेद और पुरुष के संसर्ग-सुख की अभिलाषा भाव-स्त्रीवेद है। ३. जिसमें कुछ स्त्री के चिह्न और कुछ पुरुष के चिह्न हो वह द्रव्य-नपुसकवेद और स्त्री-पुरुष दोनों के संसर्ग-सुख की अभिलाषा भाव-नपुसकवेद है। द्रव्यवेद पौद्गलिक आकृतिरूप है जो नामकर्म के उदय का फल है । भाववेद एक मनोविकार है जो मोहनीय कर्म के उदय का फल है । द्रव्यवेद और भाववेद मे साध्य-साधन या पोष्य-पोषक का सम्बन्ध है।
बिभाग--नारक और सम्मूर्छिम जीवों के नपुसकवेद होता है। देवो के नपुसकवेद नहीं होता, शेष दो होते है । शेष सब अर्थात् गर्भज मनुष्यों तथा तिर्यञ्चों के तीनों वेद होते है ।
विकार की तरतमता-पुरुष-वेद का विकार सबसे कम स्थायी होता है । स्त्रीवेद का विकार उससे अधिक स्थायी और नपुसक-वेद का विकार स्त्रीवेद के विकार से भी अधिक स्थायी होता है । यह बात उपमान से इस तरह समझी जा सकती है :
पुरुषवेद का विकार घास की अग्नि के समान है जो शीघ्र शान्त हो जाता है और प्रकट भी शीघ्र होता है। स्त्री वेद का विकार अंगारे के समान है जो जल्दी शान्त नही होता और प्रकट भी जल्दी नही होता। नपुसकवेद का विकार सन्तप्त ईंट के समान है जो बहुत देर मे शान्त होता है तथा प्रकट भी बहुत देर मे होता है।
स्त्री मे कोमल भाव मुख्य है जिसे कठोर तत्त्व की अपेक्षा रहती है। पुरुष मे कठोर भाव मुख्य है जिसे कोमल तत्त्व की अपेक्षा रहती है। पर नपुसक मे दोनों भावों का मिश्रण होने से उसे दोनों तत्त्वों की अपेक्षा रहती है । ५०-५१ ।
आयुष के प्रकार और उनके स्वामी औपपातिकचरमदेहोत्तमपुरुषाऽसंख्येयवर्षायुषोऽनपवायुषः । ५२ ।
औपपातिक (नारक और देव ), चरमशरीरी, उत्तमपुरुष और असंख्यातवर्षजीवी-ये अनपवर्तनीय आयुवाले ही होते हैं ।
१. द्रव्य और भाव वेद का पारस्परिक सम्बन्ध तथा तत्सम्बन्धी अन्य आवश्यक बातें जानने के लिए देखें-हिन्दी चौथा कर्मग्रन्थ, पृ० ५३ की टिप्पणी।
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२ ५२]
वेद (लिंग) के प्रकार
युद्ध आदि विप्लव मे हजारों नौजवानों को एक साथ मरते देखकर और बूढे तथा जर्जर देहवालो को भी भयानक विपदाओ से बचते देखकर यह सन्देह होता है कि क्या अकालमृत्यु भी है, जिससे अनेक लोग एक साथ मर जाते है और कोई नही भी मरता ? इसका उत्तर हाँ और ना मे यहाँ दिया गया है ।
आयु के दो प्रकार है- अपवर्तनीय और अनपवर्तनीय । जो आयु बन्धकालीन स्थिति के पूर्ण होने से पहले ही शीघ्र भोगी जा सके वह अपवर्तनीय है और जो आयु बन्धकालीन स्थिति के पूर्ण होने से पहले न भोगी जा सके वह अनपवर्तनीय है, अर्थात् जिस आयु का भोगकाल बन्धकालीन स्थितिमर्यादा से कम हो वह अपवर्तनीय और जिसका भोगकाल उक्त मर्यादा के समान ही हो वह अनपवर्तनीय है।
अपवर्तनीय और अनपवर्तनीय आयु का बन्ध स्वाभाविक नही है किन्तु परिणाम के तारतम्य पर अवलम्बित है। भावी जन्म की आयु वर्तमान जन्म मे निर्माण की जाती है। उस समय यदि परिणाम मन्द हों तो आयु का बन्ध शिथिल हो जाता है, जिससे निमित्त मिलने पर बन्धकालीन कालमर्यादा घट जाती है । इसके विपरीत यदि परिणाम तीव्र हों तो आयु का बन्ध गाढ़ होता है, जिससे निमित्त मिलने पर भी बन्धकालीन कालमर्यादा नही घटती और न आयु एक साथ भोगी जा सकती है। जैसे अत्यन्त दृढ होकर खडे पुरुषो की पंक्ति अभेद्य और शिथिल रूप मे खड़े पुरुषों की पक्ति भेद्य होती है, अथवा जैसे सघन बोये हुए बीजों के पौधे पशुओ के लिए दुष्प्रवेश्य और दूर-दूर बोये हुए बीजों के पौधे सुप्रवेश्य होते है, वैसे ही तीव्र परिणाम से गाढ रूप में बद्ध आयु शस्त्र-विष आदि का प्रयोग होने पर भी अपनी नियत कालमर्यादा से पहले पूर्ण नही होती और मन्द परिणाम से शिथिल रूप में बद्ध आयु उक्त प्रयोग होते ही अपनी नियत कालमर्यादा समाप्त होने के पहले ही अन्तर्मुहूर्त मात्र मे भोग ली जाती है । आयु के इस शीघ्र भोग को ही अपवर्तना या अकालमृत्यु कहते है और नियत स्थिति के भोग को अनपवर्तना या कालमृत्यु कहते है । अपवर्तनीय आयु सोपक्रमउपक्रम सहित ही होती है। तीव्र शस्त्र, तीव्र विष, तीव्र अग्नि आदि जिन निमित्तों से अकालमृत्यु होती है उनका प्राप्त होना उपक्रम है । यह अपवर्तनीय
आयु के अवश्य होता है, क्योकि वह आयु नियम से कालमर्यादा समाप्त होने के पहले ही भोगने योग्य होती है। परन्तु अनपवर्तनीय आयु सोपक्रम और निरुपक्रम दो प्रकार की होती है अर्थात् उस आयु को अकालमृत्यु लानेवाले उक्त निमित्तों का सन्निधान होता भी है और नही भी होता। उक्त निमित्तों का सन्निधान होने पर भी अनपवर्तनीय आयु नियत कालमर्यादा के पहले पूर्ण नहीं
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८०
तत्त्वार्थ सूत्र
[ २.५२
होती । साराश यह है कि अपवर्तनीय आयुवाले प्राणियों को शस्त्र आदि कोई-नकोई निमित्त मिल ही जाता है जिससे वे अकाल में ही मर जाते है और अनपवर्तनीय आयुवालों को कैसा भी प्रबल निमित्त क्यों न मिले, वे अकाल मे नही मरते ।
श्रधिकारी- - उपपात जन्मवाले नारक और देव ही होते है । मनुष्य ही चरमदेह तथा उत्तमपुरुष होते हैं । बिना जन्मान्तर के उसी शरीर से मोक्ष पानेवाले चरमदेह कहलाते है । तीर्थंकर, चक्रवर्ती, वासुदेव आदि उत्तमपुरुष कहलाते है । असंख्यातवर्षजीवी कुछ मनुष्य और कुछ तिर्यच ही होते है ।" इनमे से औपपातिक और असंख्यातवर्षजीवी निरुपक्रम अनपवर्तनीय आयुवाले ही होते हैं । चरमदेह और उत्तमपुरुष सोपक्रम अनपवर्तनीय तथा निरुपक्रम अनपवर्तनीय दोनों आयुवाले होते है । इनके अतिरिक्त शेष सभी मनुष्य व तिर्यच अपवर्तनीय आयुवाले होते है ।
प्रश्न – नियत कालमर्यादा के पहले आयु का भोग हो जाने से कृतनाश, अकृतागम और निष्फलता ये दोष लगेंगे, जो शास्त्र मे इष्ट नही है; इनका निवारण कैसे होगा ?
उत्तर - शीघ्र भोग होने मे उक्त दोष नही है, क्योंकि जो कर्म चिरकाल तक भोगा जा सकता है वह एक साथ भोग लिया जाता है । उसका कोई भी भाग बिना विपाकानुभव के नही छूटता । इसलिए न तो कृतकर्म का नाश है और न बद्धकर्म की निष्फलता ही है । इसी प्रकार मृत्यु कर्मानुसार ही आती है, अतएव अकृतकर्म का आगम भी नही है । जैसे घास की सघनराशि मे एक ओर से छोटा अग्निकण छोड़ दिया जाय तो वह अग्निकण एक-एक तिनके को क्रमशः जलाते हुए उस सारी राशि को कुछ देर में भस्म कर सकता है । वे ही अग्निकण घास की शिथिल राशि में चारों ओर से छोड़ दिये जायँ तो एक साथ उसे जला डालते है ।
इस बात के विशेष स्पष्टीकरण के लिए शास्त्र में और भी दो दृष्टान्त दिये गए है : पहला गणितक्रिया का और दूसरा वस्त्र सुखाने का । जैसे किसी विशिष्ट संख्या का लघुतम छेद निकालना हो तो गणितप्रक्रिया में इसके लिए अनेक उपाय है । निपुण गणितज्ञ ऐसी रीति का उपयोग करता है कि बहुत शीघ्र अभीष्ट
१. असंख्यातवर्षजीवी मनुष्य तीस अकर्मभूमियो, छप्पन अन्तद्वीपो और कर्मभूमियों मे उत्पन्न युगलिक ही हैं । परन्तु असंख्यातवर्षजीवी तिर्यच तो उक्त क्षेत्रो के अतिरिक्त ढाई द्वीप के बाहर के द्वीप - समुद्रो मे भी होते है ।
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२. ५२]
वेद ( लिंग ) के प्रकार
परिणाम निकल आता है और दूसरा साधारण जानकार मनुष्य भागाकार आदि विलम्ब-साध्य क्रिया द्वारा देरी से अभीष्ट परिणाम निकाल पाता है । परिणाम तुल्य होने पर भी दक्ष गणितज्ञ उसे शीघ्र निकाल लेता है और साधारण गणितज्ञ देरी से निकालता है । इसी तरह समान रूप मे भीगे हुए दो कपड़ों में से एक को समेटकर और दूसरे को फैलाकर सुखाने पर पहला देरी से सूखता है और दूसरा जल्दी । पानी का परिमाण और शोषणक्रिया समान होने पर भी कपड़े के संकोच
और विस्तार के कारण सूखने में देरी और जल्दो का अन्तर पड़ता है । समान परिमाणयुक्त अपवर्तनीय और अनपवर्तनीय आयु के भोगने मे भी केवल देरी
और जल्दी का ही अन्तर पड़ता है। इसलिए कृत का नाश आदि उक्त दोष नही आते । ५२।
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अधोलोक-मध्यलोक द्वितीय अध्याय मे गति की अपेक्षा से संसारी जीवों के नारक, मनुष्य, तिच और देव ऐसे चार प्रकार कहे गए है । स्थान, आयु, अवगाहना आदि के वर्णन द्वारा उनका विशेष स्वरूप तीसरे और चौथे अध्याय मे निरूपित है । प्रस्तुत तृतीय अध्याय में नारक, तिर्यंच और मनुष्य का वर्णन है ।
नारकों का वर्णन रत्नशर्करावालुकापङ्कधूमतमोमहातमःप्रभा भूमयो घनाम्बुवाताकाशप्रतिष्ठाः सप्ताधोऽधः पृथुतराः।१। तासु नरकाः ।२। नित्याशुभतरलेश्यापरिणामदेहवेदनाविक्रियाः । ३ । परस्परोदीरितदुःखाः । ४। संक्लिष्टासुरोदीरितदुःखाश्च प्राक्चतुर्थ्याः । ५। तेष्वेकत्रिसप्तदशसप्तदशद्वाविंशतित्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाः सत्त्वानां परा स्थितिः।६। रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, वालुकाप्रभा, पङ्कप्रभा, धूमप्रभा, तमःप्रभा और महातमःप्रभा ये सात भूमियाँ हैं । ये भूमियाँ घनाम्बु, वात और आकाश पर स्थित हैं, एक-दूसरे के नीचे हैं और नीचे को ओर अधिकअधिक विस्तीर्ण हैं।
उन भूमियों में नरक हैं। वे नरक नित्य ( निरन्तर ) अशुभतर लेश्या, परिणाम, देह, वेदना और विक्रिया वाले हैं। परस्पर उत्पन्न किये गए दुःखवाले हैं ।
चौथी भूमि से पहले अर्थात् तीन भूमियों तक संक्लिष्ट असुरों के द्वारा उत्पन्न किये गए दुःखवाले भी है।
उन नरकों में स्थित प्राणियों की उकृष्ट स्थिति क्रमशः एक, तीन, सात, दस, सतरह, बाईस और तैंतीस सागरोपम है।
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३.१-६]
नारको का वर्णन
८३
लोक के अधः, मध्य और ऊर्ध्व तीन भाग है। अधोभाग मेरुपर्वत के समतल के नीचे नौ सौ योजन की गहराई के बाद गिना जाता है, जो आकाश में
औधे किये हुए सकोरे के समान है अर्थात् नीचे-नीचे विस्तीर्ण है। समतल के नीचे तथा ऊपर के नौ सौ-नौ सौ योजन अर्थात् कुल अठारह सौ योजन का मध्यलोक है, जो आकार मे झालर के समान बराबर आयाम-विष्कम्भ ( लम्बाईचौडाई ) वाला है । मध्यलोक के ऊपर ऊर्ध्वलोक है जो आकार में पखावज ( मृदङ्गविशेष ) के समान है। ___ नारको के निवासस्थान अधोलोक में है जहाँ को भूमियाँ 'नरकभूमि' कहलाती है। ये भूमियाँ सात है जो समश्रेणि मे न होकर एक-दूसरी के नीचे है। उनका आयाम ( लम्बाई ) और विष्कम्भ ( चौडाई ) समान नही है, किन्तु नीचेनीचे की भूमि की लम्बाई-चौडाई अधिक-अधिक है; अर्थात् पहली भूमि से दूसरी की लम्बाई-चौडाई अधिक है, दूसरी से तीसरी की । इसी प्रकार छठी से सातवीं तक की लम्बाई-चौड़ाई अधिक-अधिक होती गई है।
ये सातों भूमियाँ एक-दूसरी के नीचे है, किन्तु विलकुल सटी हुई नहीं हैं, एक-दूसरी के बीच बहुत अन्तर है । इस अन्तर मे घनोदधि, घनवात, तनुवात और आकाश क्रमशः नीचे-नीचे है अर्थात् पहली नरक भूमि के नीचे घनोदधि है, इसके नीचे घनवात, धनवात के नीचे तनुवात और तनुवात के नीचे आकाश है। आकाश के बाद दूसरी नरकभूमि है । दूसरी भूमि और तीसरी भूमि के बीच भी क्रमशः घनोदधि आदि है। इसी तरह सातवी भूमि तक सब भूमियों के नीचे उसी क्रम से घनोदधि आदि है ।' ऊार की अपेक्षा नीचे का पृथ्वीपिंड-भूमि
१. भगवतीसूत्र मे लोक स्थिति का स्वरूप वर्णन बहुत स्पष्ट रूप में इस प्रकार है
"त्रस-रथावरादि प्राणियो का आधार पृथ्वी है, पृथ्वी का आधार उदधि है, उदधि का आधार वायु है और वायु का आधार आकाश है। बायु के आधार पर उदधि और उसके आधार पर पृथ्वी कैसे ठहर सकती है ? इस प्रश्न का स्पष्टीकरण यह है : कोई पुरुष चमडे की मशक को हवा भरकर फुला दे। फिर उसके मुह को चमडे के फीते से मउबत गॉठ देकर बॉध दे। इस मरक के बीच के भाग को भी बॉध दे। ऐसा करने से मशक में भरे हुए पवन के दो भाग हो जाएंगे, जिससे मशक डुगडुगी जैसी लगेगी। तब मराक का मुंह खोलकर ऊपर के भाग मे से हवा निकाल दे और उसकी जगह पानी भर कर फिर मशक का मुह बन्द कर दे और बीच का बन्धन खोल दे। फिर ऐसा लगेगा कि जो पानी मशक के ऊपर के भाग मे भरा गया है वह ऊपर के भाग मे ही रहेगा अर्थात् वायु के ऊपर के भाग में ही रहेगा, वायु के ऊपर ही ठहरेगा, नीचे नही जा सकता, क्योकि ऊपर के भाग मे जो पानी है, उसका आधार मशक के नीचे के भाग की वायु है। जैसे मशक में हवा के आधार पर पानी ऊपर रहता है वैसे ही पृथ्वी आदि भी हवा के आधार पर प्रतिष्ठित है।" देखें-भगवतीसूत्र, शतक १, उद्देशक ६ ।
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तत्त्वार्थ सूत्र
[ ३. १-६
को मोटाई अर्थात् ऊपर से लेकर नीचे के तल तक का भाग कम-क्रम है । प्रथम भूमि की मोटाई एक लाख अस्सी हजार योजन, दूसरी की एक लाख बत्तीस हजार, तीसरी की एक लाख अट्ठाईस हजार, चौथी की एक लाख बीस हजार, पाँचवी की एक लाख अठारह हजार, छठी की एक लाख सोलह हजार तथा सातवी की एक लाख आठ हजार योजन है । सातो भूमियो के नीचे जो सात घनोदधि-वलय है उन सबकी मोटाई समान अर्थात् बीस-बीस हजार योजन है और जो सात घनवात तथा सात तनुवात-वलय है उनकी मोटाई सामान्य रूप से असंख्यात योजन की होने पर भी तुल्य नही है, अर्थात् प्रथम भूमि के नीचे के घनवात-वलय तथा तनुवात वलय की असंख्यात योजन की मोटाई से दूसरी भूमि के नीचे के घनवात वलय तथा तनुवात - वलय की असंख्यात योजन की मोटाई विशेष है । इसी क्रम से उत्तरोत्तर छठी भूमि के घनवात-तनुवातवलय से सातवी भूमि के घनवात-तनुवातवलय की मोटाई विशेष - विशेष है । यही बात आकाश के विषय में भी है ।
८४
पहली भूमि रत्नप्रधान होने से रत्नप्रभा कहलाती है । इसी तरह दूसरी शर्करा ( कंकड ) के सदृश होने से शर्कराप्रभा है । तीसरी वालुका ( रेती ) की मुख्यता होने से वालुकाप्रभा है । चौथी पङ्क ( कीचड ) की अधिकता होने से पङ्कप्रभा है । पाँचवी धूम ( धूऍ ) की अधिकता होने से धूमप्रभा है । छठी तमः ( अंधकार ) की विशेषता से तम प्रभा और सातवी महातम: ( घनअन्धकार ) की प्रचुरता से महातम प्रभा है । इन सातो के नाम क्रमश. घर्मा, वंशा, शैला, अञ्जना, रिष्टा, माघव्या और माववी है ।
नीचे का तीसरा
तीनों काण्डों की
रत्नप्रभा भूमि के तीन काण्ड ( हिस्से ) है । सबसे ऊपर का प्रथम खरकाण्ड रत्नप्रचुर है, जो मोटाई मे १६ हजार योजन है । उसके नीचे का दूसरा काण्ड पबहुल है, जिसकी मोटाई ८४ हजार योजन है । उसके काण्ड जलबहुल है, जिसकी मोटाई ८० हजार योजन है । मोटाई कुल मिलाकर १ लाख ८० हजार योजन होती है । दूसरी से लेकर सातवी भूमि तक ऐसे काण्ड नही है, क्योकि उनमे शर्करा, वालुका आदि पदार्थ सर्वत्र एक-से है । रत्नप्रभा का प्रथम काण्ड दूसरे पर और दूसरा तोसरे पर स्थित है । तीसरा काण्ड घनोदधिवलय पर, घनोदधि घनवातवलय पर, घनवात तनुवातवलय पर और तनुवात आकाश पर प्रतिष्ठित है । परन्तु आकाश किसी पर स्थित न होकर आत्म-प्रतिष्ठित है, क्योकि आकाश को स्वभावत दूसरे आधार की अपेक्षा नही होती । दूसरी भूमि का आधार उसका घनोदधिवलय है, वह अपने नीचे के घनवातवलय पर आश्रित है, घनवात अपने नीचे के तनुवात पर आश्रित है,
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३. १-६ ]
नारकों का वर्णन
ሪ
तनुवात नीचे के आकाश पर प्रतिष्ठित है और आकाश स्वाश्रित है । यही क्रम सातवी भूमि तक प्रत्येक भूमि और उसके घनोदधिवलय की स्थिति का है ।
ऊपर-ऊपर की भूमि से नीचे-नीचे की भूमि का बाहुल्य कम होने पर भी उसका आयाम - निष्कम्भ बढता जाता है, इसलिए उनका संस्थान छत्रातिछत्रवत् अर्थात् उत्तरोत्तर पृथु पृथुतर ( विस्तीर्ण - विस्तीर्णतर ) कहा गया है । १ ।
सात भूमियों की जितनी - जितनी मोटाई ऊपर कही गई है, उसके ऊपर तथा नीचे के एक-एक हजार योजन को छोडकर शेष मध्यभाग मे नरकावास है, जैसे रत्नप्रभा की १ लाख ८० हजार योजन मोटाई मे से ऊपर-नीचे एक-एक हजार योजन छोडकर बीच के १ लाख ७८ हजार योजन के हिस्से में नरक है । यही क्रम सातत्री भूमि तक है । नरकों के रौरव, रौद्र, घातन, शोचन आदि अशुभ नाम है, जिनको सुनने मात्र से भय होता है । रत्नप्रभा के सीमान्तक नामक नरकावास से लेकर महातम प्रभा के अप्रतिष्ठान नामक नरकावास तक के सभी नरकावास वज्र के छुरे के सदृश तलवाले है । संस्थान ( आकार ) सबका समान नही हैं— कुछ गोल है, कुछ त्रिकोण है, कुछ चतुष्कोण है, कुछ हाँडी जैसे है और कुछ लोहे के घड़े जैसे है । प्रस्तर ( प्रतर ) जो कि मंजिलवाले घर के तले के समान है, उनकी संख्या इस प्रकार है - रत्नप्रभा मे प्रस्तर है । इस प्रकार नीचे की प्रत्येक भूमि मे प्रभा भूमि में एक ही प्रस्तर है । इन्ही प्रस्तरो मे
तेरह और शर्कराप्रभा में ग्यारह दो-दो घटते हुए सातवी महातम:नरक है ।
नरकावासों की संख्या प्रथम भूमि मे तीस लाख, दूसरी मे पचीस लाख, तीसरी में पन्द्रह लाख, चौथी मे दस लाख, पाँचवी मे तीन लाख, छठी में पाँच कम एक लाख और सातवी मे केवल पाँच नरकावास है ।
प्रश्न -- प्रस्तरों में नरक कहने का क्या प्रयोजन है ?
उत्तर—एक प्रस्तर और दूसरे प्रस्तर के बीच जो अवकाश ( अन्तर ) है उसमे नरक नही है, किन्तु प्रत्येक प्रस्तर की तीन-तीन हजार योजन की मोटाई मे ये विविध संस्थानवाले नरक है ।
प्रश्न – नरक और नारक मे क्या सम्बन्ध है ?
उत्तर - नारक जीव है और नरक उनके स्थान है । नरक नामक स्थान के सम्बन्ध से ही वे जीव नारक कहलाते है । २ ।
पहली भूमि से दूसरी और दूसरी से तीसरी इसी प्रकार सातवी भूमि तक के नरक अशुभ, अशुभतर, अशुभतम रचनावाले है । इसी प्रकार उन नरकों में स्थित नारको की लेश्या, परिणाम, देह, वेदना और विक्रिया भी उत्तरोत्तर अशुभ है ।
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८६
तत्त्वार्थसूत्र
[ ३. १-६
_ लेश्या-रत्नप्रभा मे कापोत लेश्या है। शर्कराप्रभा मे भी कापोत है, पर रत्नप्रभा से अधिक तीव्रसंक्लेशकारी है। वालुकाप्रभा मे कापोत-नील लेश्या है । पङ्कप्रभा मे नील लेश्या है । धूमप्रभा मे नील-कृष्ण लेश्या है, तम.प्रभा में कृष्ण लेश्या है और महातम.प्रभा मे भी कृष्ण लेश्या है, पर तम.प्रभा से तीव्रतम है।
परिणाम - वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, शब्द, सस्थान आदि अनेक प्रकार के पौद्गलिक परिणाम सातो भूमियों मे उत्तरोत्तर अशुभ है।
शरीर-सातो भूमियो के नारकों के शरीर अशुभ नामकर्म के उदय से उत्तरोत्तर अशुभ वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, शब्द, संस्थानवाले तथा अशुचिपूर्ण और बीभत्स है।
वेदना-सातो भूमियों के नारको की वेदना उत्तरोत्तर तोव है । पहली तीन भूमियों मे उष्ण वेदना, चौथी मे उष्ण-शीत, पाँचवी मे शीतोष्ण, छठी मे शीत और सातवी में शीततर वेदना है । यह उष्ण और शीत वेदना इतनी तीव्र है कि नारक जीव यदि मर्त्यलोक की भयंकर गरभी या ठण्ड में आ जाये तो उन्हे बड़े सुख को नीद आ सकती है।
विक्रिया-उनकी विक्रिया भी उत्तरोत्तर अशुभ होती है । वे दुःख से घबरा कर छुटकारे के लिए प्रयत्न करते है, पर होता है उलटा । सुख के साधन जुटाने में उनको दु ख के साधन ही प्राप्त होते है। वे वैक्रियलब्धि से बनाने लगते है कुछ शुभ, किन्तु बन जाता है अशुभ ही ।
प्रश्न-लेश्या आदि अशुभतर भावो को नित्य कहने का प्रयोजन क्या है ?
उत्तर-नित्य अर्थात् निरन्तर । गति, जाति, शरीर और अङ्गोपाङ्ग नामकर्म के उदय से नरकगति मे लेश्या आदि भाव जीवन-पर्यन्त अशुभ ही बने रहते है, बीच में एक पल का भी अन्तर नही पड़ता और न कभी वे शुभ ही होते है । ३ ।
एक तो नरक मे क्षेत्र-स्वभाव से सरदी-गरमी का भयंकर दुःख है ही,भूखप्यास का दुःख तो और भी भयंकर है । भूख इतनी सताती है कि अग्नि की भांति सर्व-भक्षण से भी शान्त नही होती, अपितु और भी बढती जाती है । प्यास इतनी लगती है कि चाहे जितना जल पिया जाय तो भी तृप्ति नही होती । इसके अतिरिक्त बड़ा भारी दु ख तो आपसी वैर और मारपीट का है । जैसे कौआ और उल्लू तथा सांप और नेवला जन्मजात शत्रु है, वैसे ही नारक जीव जन्मजात शत्रु होते है। इसलिए वे एक-दूसरे को देखकर कुत्तो की तरह आपस मे लडते है, काटते है और गुस्से से जलते है; इसीलिए वे परस्परजनित दु.खवाले कहे गए है । ४ ।
नारको मे तीन प्रकार को वेदना मानी गई है, जिनमे क्षेत्रस्वभावजन्य और
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३. १-६ ]
नारकों का वर्णन
परस्परजन्य वेदनाओं का वर्णन ऊपर आ गया है । तीसरी वेदना उत्कट अधर्मजन्य है । प्रथम दो वेदनाएँ सातों भूमियों में साधारण है । तीसरी वेदना केवल पहली तीन भूमियों में होती है, क्योंकि उन्हीं भूमियों में परमाधार्मिक असुर है । ये बहुत क्रूर स्वभाववाले और पापरत होते हैं । इनकी अम्ब, अम्बरीष आदि पन्द्रह जातियाँ है । ये स्वभावतः इतने निर्दय और कुतूहली होते है कि इन्हें दूसरों को सताने में ही आनन्द आता है । इसलिए नारको को ये अनेक प्रकार के प्रहारों से दुखी करते रहते है । उन्हे आपस मे कुत्तों, भैसों और मल्लों की तरह लड़ाते है । नारको को आपस में लड़ते, मार-पीट करते देखकर इन्हे बड़ा आनन्द आता है । यद्यपि ये परमाधार्मिक एक प्रकार के देव है, इन्हे और भी अनेक प्रकार के सुख-साधन प्राप्त है, तथापि पूर्वजन्मकृत तीव्र दोष के कारण इन्हें दूसरों को सताने मे ही प्रसन्नता होती है । नारक भी बेचारे कर्मवश असहाय होकर सम्पूर्ण जीवन तीव्र वेदनाओं के अनुभव में ही बिताते है | वेदना कितनी ही अधिक हो, पर नारकों के लिए न तो कोई शरण है और अनपवर्तनीय आयु के कारण जीवन भी जल्दी समाप्त नही होता । ५ ।
नारकों की स्थिति - प्रत्येक गति के जीवों की स्थिति ( आयुमर्यादा ) जघन्य और उत्कृष्ट दो प्रकार की है । जिससे कम न हो वह जघन्य और जिससे अधिक न हो वह उत्कृष्ट स्थिति है । यहाँ नारकों की उत्कृष्ट स्थिति का ही निर्देश है । जघन्य स्थिति का वर्णन आगे किया जायगा ।" पहली भूमि में एक सागरोपम की, दूसरी में तीन, तीसरी में सात, चौथी मे दस, पाँचवी में सतरह, छठी में बाईस और सातवी में तैतीस सागरोपम की उत्कृष्ट आयु-स्थिति कही गई है । यहाँ अधोलोक का सामान्य वर्णन पूरा होता है । इसमे दो बातें विशेष ज्ञातव्य है - गति - आगति और द्वीप समुद्र आदि की सम्भावना |
८७
गति - असंज्ञी प्राणी मरने पर पहली भूमि में उत्पन्न हो सकते है । भुजपरिसर्प पहली दो भूमियो तक, पक्षी तीन भूमियो तक, सिंह चार भूमियों तक, उरग पाँच भूमियों तक, स्त्री छः भूमियों तक और मत्स्य व मनुष्य सातवी भूमि तक जा सकते है । साराश यह है कि तिर्यच और मनुष्य ही नरक-भूमि में पैदा हो सकते है, देव और नारक नही । कारण यह है कि उनमे वैसे अध्यवसाय का अभाव होता है । नारक मरकर पुनः तत्काल न तो नरक गति में ही पैदा होते है और न देव गति मे । वे तिर्यंच एवं मनुष्य गति में ही पैदा हो सकते है ।
प्रगति — पहली तीन भूमियों के नारक जीव मनुष्य गति में आकर तीर्थङ्कर पद तक प्राप्त कर सकते है । चार भूमियों के नारक जीव मनुष्य गति में आकर
१. देखें - अ० ४, मू० ४३-४४ ।
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८८
तत्त्वार्थसूत्र
[ ३. ७-१८
निर्वाण भी प्राप्त कर सकते है । पाँच भूमियों के नारक मनुष्य गति में संयम धारण कर सकते है । छः भूमियों से निकले हुए नारक जीव देशविरति और सात भमियों से निकले हुए सम्यक्त्व प्राप्त कर सकते है।
द्वीप-समुद्र प्रादि की अवस्थिति-रत्नप्रभा भूमि को छोड शेष छः भूमियों में न तो द्वीप, समुद्र, पर्वत और सरोवर ही है; न गाँव, शहर आदि है; न वृक्ष, लता आदि बादर वनस्पतिकाय है; न द्वीन्द्रिय से लेकर पञ्चेन्द्रिय तक तिर्यच है; न मनुष्य है और न किसी प्रकार के देव ही है। रत्नप्रभा का कुछ भाग मध्यलोक मे सम्मिलित है, अत. उसमें द्वीप, समुद्र, ग्राम, नगर, वनस्पति, तिर्यच, मनुष्य, देव होते है । रत्नप्रभा के अतिरिक्त शेष छ. भूमियों में केवल नारक और कुछ एकेन्द्रिय जीव ही है । इस सामान्य नियम का भी अपवाद है, क्योंकि उन भूमियों मे कभी किसी स्थान पर कुछ मनुष्य, देव और पञ्चेन्द्रिय तिर्यंचों का होना भी सम्भव है। मनुष्य तो इस अपेक्षा से सम्भव है कि केवली समुद्घात करनेवाला मनुष्य सर्वलोकव्यापी होने से उन भूमियों में भी आत्मप्रदेश फैलाता है। वैक्रियलब्धिवाले मनुष्य की भी उन भूमियो तक पहुँच है। तिर्यचों की पहुँच भी उन भूमियों तक है, परन्तु यह केवल वैक्रियलब्धि की अपेक्षा से ही मान्य है । कुछ देव कभीकभी अपने पूर्वजन्म के मित्रो को दुःखमुक्त करने के उद्देश्य से नरकों में पहुँच जाते है। किन्तु देव भी केवल तीन भूमियों तक ही जा पाते है। नरकपाल कहे जानेवाले परमाधार्मिक देव जन्म से ही पहली तीन भूमियो मे रहते हैं, अन्य देव जन्म से केवल पहली भूमि मे पाये जाते है । ६ ।
मध्यलोक जम्बूद्वीपलवणादयः शुभनामानो द्वीपसमुद्राः । ७। द्विद्विविष्कम्भाः पूर्वपूर्वपरिक्षेपिणो वलयाकृतयः। ८। तन्मध्ये मेरुनाभित्तो योजनशतसहस्रविष्कम्भो जम्बूद्वीपः। ९ । तत्र भरतहैमवतहरिविदेहरम्यकहैरण्यवतैरावतवर्षाः क्षेत्राणि । १० । तद्विभाजिनः पूर्वापरायता हिमवन्महाहिमवन्निषधनीलरुक्मिशिखरिणो वर्षधरपर्वताः । ११ । द्विर्धातकीखण्डे । १२ । पुष्करार्धे च । १३। प्राङ्मानुषोत्तरान् मनुष्याः । १४ । आर्या म्लेच्छाश्च । १५ । भरतैरावतविदेहाः कर्मभूमयोऽन्यत्र देवकुरूत्तरकुरुभ्यः । १६ ।
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३. ७-१८ ]
मध्यलोक
नृस्थिती परापरे त्रिपल्योपमान्तमुहूर्ते । १७ । तिर्यग्योनीनां च । १८ ।
जम्बूद्वीप आदि शुभ नामवाले द्वीप तथा लवण आदि शुभ नामवाले समुद्र हैं।
वे सभी द्वीप और समुद्र वलय ( चूड़ी ) को आकृतिवाले, पूर्व-पूर्व को वेष्टित करनेवाले और दुगुने-दुगुने विष्कम्भ (व्यास या विस्तार) वाले हैं। __ उन सबके मध्य में जम्बूद्वीप है जो गोल है, एक लाख योजन विष्कम्भवाला है और जिसके मध्य में मेरुपर्वत है।
जम्बूद्वीप में भरतवर्ष, हैमवतवर्ष, हरिवर्ष, विदेहवर्ष, रम्यकवर्ष, हैरण्यवतवर्ष और ऐरावतवर्ष नामक सात क्षेत्र हैं।
उन क्षेत्रों को पृथक् करनेवाले और पूर्व-पश्चिम लम्बे हिमवान्. महाहिमवान्, निषध, नील, रुक्मी और शिखरी-ये छः वर्षधर पर्वत हैं।
धातकीखण्ड में पर्वत तथा क्षेत्र जम्बूद्वीप से दुगुने हैं । पुष्करार्धद्वीप में भी उतने (धातकीखण्ड जितने ) ही हैं। मानुषोत्तर नामक पर्वत के पहले तक ( इस ओर ) ही मनुष्य हैं । वे आर्य और म्लेच्छ हैं।
देवकुरु और उत्तरकुरु को छोड़ भरत, ऐरावत तथा विदेह-ये सभी कर्मभूमियाँ है।
मनुष्यों की स्थिति ( आयु) उत्कृष्ट तीन पल्योपम और जघन्य अन्तमुहूर्त है।
तिर्यचों की स्थिति ( आयु ) भी उतनी ही है ।
द्वीप और समुद्र--मध्यलोक की आकृति झालर के समान है । यह बात द्वीएसमुद्रों के वर्णन से स्पष्ट है।
मध्यलोक में असंख्यात द्वीप-समुद्र है, जो द्वीप के बाद समुद्र और समुद्र के बाद द्वीप इस क्रम से अवस्थित है । उन सबके नाम शुभ ही है । यहाँ द्वीप-समुद्रों के व्यास, उनकी रचना और आकृति सम्बन्धी तीन बातें वर्णित है, जिनसे मध्यलोक का आकार ज्ञात होता है।
व्यास-जम्बूद्वीप का पूर्व-पश्चिम तथा उत्तर-दक्षिण विस्तार एक-एक लाख योजन है, लवणसमुद्र का उससे दुगुना है। इसी प्रकार धातकीखण्ड का लवणसमुद्र से, कालोदधि का धातकीखण्ड से, पुष्करवरद्वीप का कालोदधि से, पुष्करोदधि का पुष्करवरद्वीप से दुगुना-दुगुना विष्कम्भ है । विष्कम्भ का यही क्रम
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तत्त्वार्थसूत्र
[ ३. ७-१८
अन्त तक चलता है । अन्तिम द्वीप स्वयम्भूरमण है, जिससे अंतिम समुद्र स्वयम्भूरमण का विष्कम्भ दुगुना है ।
रचना-द्वीप-समुद्रों की रचना चक्की के पाट और उसके थाल के समान है। जम्बूद्वीप लवणसमुद्र से वेष्टित है। इसी प्रकार लवणसमुद्र धातकीखण्ड से, धातकीखण्ड कालोदधि से, कालोदधि पुष्करवरद्वीप से और पुष्करवरद्वीप पुष्करोदधि से वेष्टित है । यही क्रम स्वयम्भूरमण समुद्र पर्यंत है।
प्राकृति-जम्बूद्वीप थाली के समान गोल है और अन्य सब द्वीप-समुद्रों की आकृति वलय ( चूडी) के समान है । ७-८ ।
जम्बू द्वीप के क्षेत्र और प्रधान पर्वत-जम्बूद्वीप सबसे प्रथम और सब द्वीपसमुद्रों के मध्य मे है अर्थात् उसके द्वारा कोई द्वीप या समुद्र वेष्टित नहीं है। जम्बूद्वीप का विष्कम्भ एक लाख योजन है । वह कुम्हार के चाक की भांति गोल है, लवणादि की तरह वलयाकृति नही । उसके बीच में मेरुपर्वत है । संक्षेप में मेरु का वर्णन इस प्रकार है :
मेरु की ऊँचाई एक लाख योजन है, जिसमें एक हजार योजन का भाग भूमि के अन्दर अर्थात् अदृश्य है । निन्यानबे हजार योजन का भाग भूमि के ऊपर है। जमीन के अन्दरवाले भाग की लम्बाई-चौडाई सब जगह दस हजार योजन है। बाहरी भाग के ऊपर का अंश, जहाँ से चूलिका निकलती है, एक-एक हजार योजन लम्बा-चौडा है। मेरु के तीन काण्ड है । वह तीनों लोकों में अवगाहित होकर स्थित है और चार वनों से घिरा है । प्रथम काण्ड एक हजार योजन का है जो जमीन में है। दूसरा तिरसठ हजार योजन का और तीसरा छत्तीस हजार योजन का है । पहले काण्ड में शुद्ध पृथिवी तथा कंकड़ आदि की, दूसरे मे चाँदी, स्फटिक आदि की और तीसरे मे स्वर्ण की प्रचुरता है । क्रमशः चार वनों के नाम भद्रशाल, नन्दन, सौमनस और पाण्डुक हैं । एक लाख योजन की ऊंचाई के बाद सबसे ऊपर एक चूलिका ( चोटी ) है, जो चालीस योजन ऊँची है । वह मूल में बारह योजन, बीच मे आठ योजन और ऊपर चार योजन लम्बी-चौडी है ।
जम्बूद्वीप मे मुख्यतया सात क्षेत्र है जो वंश, वर्ष या वास्य कहलाते है। इनमे पहला भरत दक्षिण की ओर है। भरत के उत्तर में हैमवत, हैमवत के उत्तर में हरि, हरि के उत्तर मे विदेह, विदेह के उत्तर मे रम्यक, रम्यक के उत्तर में हैरण्यवत और हैरण्यवत के उत्तर मे ऐरावतवर्ष है। व्यवहारसिद्ध दिशा के नियम' के अनुसार मेरु पर्वत सातों क्षेत्रो के उत्तरी भाग मे अवस्थित है ।
१ दिशा का नियम सर्य के उदयास्त पर निर्भर है। सर्योदय की ओर मुख करके खडे होने पर बायीं ओर उत्तर दिशा मे मेरु पडता है । भरतक्षेत्र में सूर्यास्त की दिशा ही
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३. ७-१८ ]
मध्यलोक
सातों क्षेत्रों को एक-दूसरे से अलग करनेवाले छ: पर्वत है जो वर्षधर कहलाते हैं । ये सभी पूर्व-पश्चिम लम्बे है । भरत और हैमवत क्षेत्र के बीच हिमवान् पर्वत है । हैमवत और हरिवर्ष का विभाजक महाहिमवान् है । हरिवर्ष और विदेह का विभाजक निषधपर्वत है । विदेह और रम्पकवर्ष का विभाजक नीलपर्वत है । रम्यक और हैरण्यवत का विभाजक रुक्मीपर्वत है । हैरण्यवत और ऐरावत का विभाजक शिखरीपर्वत है ।
ऊपर निर्दिष्ट सातों क्षेत्र थाली की आकृति के जम्बूद्वीप में पूर्वी छोर से पश्चिमी छोर तक विस्तृत लम्बे पट के रूप मे एक के बाद एक अवस्थित हैं । विदेहक्षेत्र इन सबके मध्य में हैं, इसलिए मेरुपर्वत भी उस क्षेत्र के ठीक मध्य में अवस्थित है | विदेहक्षेत्र को रम्यकक्षेत्र से नीलपर्वत विभक्त करता है और हरिवर्षक्षेत्र को निषधपर्वत विभक्त करता है । विदेहक्षेत्र मे मेह और नीलपर्वत के बीच का अर्धचन्द्राकार भाग उत्तरकुरु है जिसकी पूर्व-पश्चिम सीमा वहाँ के दो पर्वत से निश्चित होती है ; तथा मेरु तथा निषधपर्वत के बीच का वैसा ही अर्धचन्द्राकार भाग देवकुरु है । देवकुरु और उत्तरकुरु ये दोनों क्षेत्र विदेह अर्थात् महाविदेह के ही भाग है; परन्तु उन क्षेत्रो मे युगलियों की आबादी होने के कारण वे भिन्न रूप से पहचाने जाते है । देवकुरु और उत्तरकुरु के भाग का क्षेत्र छोडने पर महाविदेह के अवशिष्ट पूर्व और पश्चिम भाग में सोलह-सोलह विभाग है । ये विभाग विजय कहलाते है । इस प्रकार सुमेरपर्वत के पूर्व और पश्चिम दोनों ओर कुल मिलाकर ३२ विजय है ।
जम्बूद्वीप में भरतक्षेत्र की सीमा पर स्थित हिमवान्पर्वत के दोनों छोर पूर्वपश्चिम लवणसमुद्र में फैले हुए है । इसी प्रकार ऐरावतक्षेत्र की सीमा पर स्थित शिखरीपर्वत के दोनो छोर भी लवणसमुद्र मे फैले हुए है । प्रत्येक छोर दो भागों मे विभाजित होने से कुल मिलाकर दोनो पर्वतो के आठ भाग लवणसमुद्र मे आते है । दाढों की आकृति के होने से उन्हें दाढ़ा कहा जाता है । प्रत्येक दाढ़ा पर मनुष्यों की आबादीवाले सात-सात क्षेत्र है । ये क्षेत्र लवणसमुद्र मे आने के कारण अतद्वीप के रूप मे प्रसिद्ध हैं, जिनकी संख्या छप्पन है । उनमे भी युगलिया मनुष्य रहते है । ९-११ ।
Prastaण्ड और पुष्करार्धद्वीप - जम्बूद्वीप की वर्ष और वर्षधर की संख्या दुगुनी है, अर्थात् वहाँ दो
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ऐरावत क्षेत्र मे सूर्योदय की दिशा है । इसलिए वहाँ भी सूर्योदय की ओर मुख करने से मेरुपर्वत उत्तर दिशा में ही पडता है। इसी प्रकार दूसरे क्षेत्रों में भी मेरु उत्तर में ही पडता है ।
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अपेक्षा धातकीखण्ड में मेरु, मेरु, चौदह वर्ष और बारह
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९२
तत्त्वार्थसूत्र
[३.७-१८
वर्षधर है, परन्तु सबके नाम जम्बूद्वीपवर्ती मेरु, वर्षधर और वर्ष के समान ही है । वलयाकृति धातकीखण्ड के पूर्वार्ध और पश्चिमार्ध दो भाग है । यह विभाग दो पर्वतो से होता है, जो दक्षिणोत्तर विस्तृत है और इष्वाकार ( बाण के समान सीधे ) है । प्रत्येक विभाग मे एक-एक मेरु, सात-सात वर्ष और छ:-छः वर्षधर है। साराश यह है कि नदी, क्षेत्र, पर्वत आदि जो कुछ जम्बूद्वीप मे है वे सब धातकीखण्ड मे दुगुने है । धातकीखण्ड को पूर्वार्ध और पश्चिमार्ध मे विभक्त करनेवाले दक्षिणोत्तर विस्तृत और इष्वाकार दो पर्वत है तथा पूर्वार्ध और पश्चिमार्ध में पूर्व-पश्चिम मे फैले हुए छ.-छ. वर्षधर ( पर्वत ) है । ये सभी एक ओर से कालोदधि को और दूसरी ओर से लवणोदधि को स्पर्श करते है । पूर्वार्ध और पश्चिमार्ध मे स्थित छ.-छः वर्षधरों को पहिये की नाभि में लगे हुए आरों की उपमा दी जाय तो उन वर्षधरों से विभक्त होनेवाले भरत आदि सात क्षेत्रो को आरों के बीच के अन्तर की उपमा दी जा सकती है ।
धातकीखण्ड मे मेरु, वर्ष और वर्षधरों की जो संख्या है वही पुष्करार्ध द्वीप में भी है । वहाँ भी दो मेरु, चौदह वर्ष तथा बारह वर्षधर है जो इष्वाकार पर्वतो द्वारा विभक्त पूर्वार्ध और पश्चिमार्ध मे अवस्थित है । इस प्रकार ढाई द्वीप मे पाँच मेरु, तीस वर्षधर ( पर्वत ) और पैतीस वर्ष (क्षेत्र ) है । उक्त पैंतीस क्षेत्रों के पाँच महाविदेह क्षेत्रों में पांच देवकुरु, पाँच उत्तरकुरु और एक सौ साठ विजय है । अन्तर्वीप केवल लवणसमुद्र मे ही है, अतः छप्पन ही है । पुष्करवरद्वीप मे मानुषोत्तर नाम का एक पर्वत है, जो पुष्करवरदीप के ठोक मध्य मे किले की तरह गोलाकार खडा है और मनुष्यलोक को घेरे हुए है । जम्बूद्वीप, धातकीखण्ड
और आधा पुष्करवर द्वीप ये ढाई तथा लवण, कालोदधि ये दो समुद्र--यही क्षेत्र 'मनुष्यलोक' कहलाता है। उक्त क्षेत्र का नाम मनुष्यलोक और उक्त पर्वत का नाम मानुषोत्तर इसलिए पडा है कि इससे बाहर मनुष्य का जन्म-मरण नही होता । विद्यासम्पन्न मुनि या वैक्रिय लब्धिधारी मनुष्य ही ढाई द्वीप के बाहर जा सकते है, कितु उनका भी जन्म-मरण मानुषोत्तर पर्वत के अंदर ही होता है । १२-१३ । __मनुष्यजाति का क्षेत्र और प्रकार-मानुपोत्तर पर्वत के पहले जो ढाई द्वीप और दो समुद्र है उनमे मनुष्य की स्थिति है अवश्य, पर वह सार्वत्रिक नही। जन्म से तो मनुष्यजाति का स्थान मात्र ढाई द्वीप के अन्तर्गत पैतीस क्षेत्रों और छप्पन अन्तर्वीपों मे ही है परन्तु संहरण, विद्या या लब्धि के निमित्त से मनुष्य ढाई द्वीप तथा दो समुद्रो के किसी भी भाग में रह सकता है । इतना ही नही, मेरुपर्वत की चोटी पर भी वह उक्त निमित्त से रह सकता है। फिर भी यह
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३. ७-१८]
मध्यलोक
भारतीय है, यह हैमवतीय है इत्यादि व्यवहार क्षेत्र के सम्बन्ध से और यह जम्बूद्वीपीय है, यह धातकोखण्डीय है इत्यादि व्यवहार द्वीप के सम्बन्ध से होता
मनुष्यजाति के मुख्यतः आर्य और म्लेच्छ ये दो भेद है । निमित्तभेद की दृष्टि से छः प्रकार के आर्य है जैसे क्षेत्र, जाति, कुल,कर्म, शिल्प और भाषा । १. क्षेत्रआर्य वे है, जो पन्द्रह कर्मभूमियों मे और उनमे भी आर्यदेशों मे उत्पन्न होते है।' २. जाति-आर्य वे है जो इक्ष्वाकु, विदेह, हरि, ज्ञात, कुरु, उग्र आदि वंशों में उत्पन्न होते है । ३. कुल-आर्य वे है जो कुलकर, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव आदि के रूप मे विशुद्ध कुल में उत्पन्न होते है । ४. कर्म-आर्य वे है जो यजन, याजन, पठन, पाठन, कृषि, लिपि, वाणिज्य आदि द्वारा आजीविका चलाते है । ५. शिल्पआर्य जुलाहा, नाई, कुम्हार आदि है जो अल्प आरम्भवाली और अनिन्द्य आजीविकावाले है। ६. भाषा आर्य वे है जो शिष्टपुरुषमान्य भाषाओं मे सुगम रीति से वचन आदि का व्यवहार करते है। इनसे विपरीत लक्षणोंवाले सभी मनुष्य म्लेच्छ है, जैसे शक, यवन, कम्बोज, शबर, पुलिन्द आदि । छप्पन अन्तर्वीपों मे रहनेवाले सभी मनुष्य तथा कर्मभूमियों मे भी अनार्य देशोत्पन्न म्लेच्छ ही है । १५ । ___ कर्मभूमियाँ-कर्मभूमि वही है जहाँ मोक्षमार्ग के ज्ञाता और उपदेष्टा तीर्थङ्कर उत्पन्न होते है । ढाई द्वीप मे मनुष्य की उत्पत्ति के पैतीस क्षेत्र और छप्पन अन्तर्वीप है। उनमें ऐसो कर्मभूमियाँ पन्द्रह ही है और वे है पाँच भरत, पाँच ऐरावत और पाँच विदेह । इनके अतिरिक्त शेष बी स क्षेत्र तथा सब अन्तर्वीप अकर्मभूमि ( भोगभूमि ) ही है। यद्यपि देवकुरु और उत्तरकुरु ये दो क्षेत्र विदेह के अन्तर्गत ही है तथापि वे कर्मभूमियाँ नहीं है, क्योकि उनमे युगलिक-धर्म होने से चारित्र धारण करना सम्भव नही है, जैसे हैमवत आदि अकर्मभूमियो में । १६ । __मनुष्य और तिर्यञ्चों की स्थिति-मनुष्य की उत्कृष्ट स्थिति (आयुमर्यादा)
१. प्रत्येक क्षेत्र मे साढे पच्चीस आर्यदेश के हिसाब से पाँच भरत और पॉच ऐरावत मे दो सौ पचपन आर्य देश है और पाँच विदेह के एक सौ साठ चक्रवती-विजय आर्यदेश है। इन्ही मे तीर्थकर उत्पन्न होते है और धर्मप्रवर्तन करते है। इनको छोडकर पन्द्रह कर्मभूमियो का शेष क्षेत्र आर्यदेश नही माना जाता।
२. तीर्थकर, गणधर आदि जो अतिशयसम्पन्न है वे शिष्ट है, उनकी भाषा संस्कृत व अर्धमागधी आदि होती है ।
३. इस व्याख्या के अनुसार हैमवत आदि तोस भोगभूमियो ( अकर्मभूगियो ) के निवासी म्लेच्छ ही है।
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तत्त्वार्थसूत्र
[ ३. ७-१८
तीन पल्योपम और जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त है । तिर्यञ्चों की स्थिति भी मनुष्य के बराबर उत्कृष्ट तीन पल्योपम और जघन्य अन्तर्मुहूर्त है।
भव और कायभेद से स्थिति दो प्रकार की है। कोई भी जन्म पाकर उसमें जघन्य अथवा उत्कृष्ट जितने काल तक जी सकता है वह भवस्थिति है और बीच मे किसी दूसरी जाति मे जन्म न ग्रहण करके किसी एक ही जाति मे बारबार उत्पन्न होना कायस्थिति है । ऊपर मनुष्यों और तिर्यञ्चों की जघन्य तथा उत्कृष्ट भवस्थिति का निर्देश किया गया है। मनुष्य हो या तिर्यञ्च, सबकी जघन्य कायस्थिति तो भवस्थिति को भांति अन्तर्मुहूर्त ही है । मनुष्य की उत्कृष्ट कायस्थिति सात अथवा आठ भवग्रहण की है, अर्थात् किसी भी मनुष्य को लगातार सात अथवा आठ जन्म तक रहने के बाद अवश्य मनुष्यजाति छोड़ देनी पड़ती है।
सब तिर्यञ्चों की कायस्थिति भवस्थिति की तरह समान नही है । अतः तिर्यञ्चों की दोनों स्थितियों का विस्तृत वर्णन यहाँ आवश्यक है। पृथ्वीकाय की भवस्थिति बाईस हजार वर्ष, जलकाय की भवस्थिति सात हजार वर्ष, वायुकाय की भवस्थिति तीन हजार वर्ष और तेजःकाय की भवस्थिति तीन अहोरात्र है । इन चारों की कायस्थिति असंख्यात अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी प्रमाण है । वनस्पतिकाय की भवस्थिति दस हजार वर्ष और कायस्थिति अनन्त उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी प्रमाण है। द्वीन्द्रिय की भवस्थिति बारह वर्ष, त्रीन्द्रिय की उनचास अहोरात्र और चतुरिन्द्रिय की छ: मास है। इन तीनों की कायस्थिति संख्यात हजार वर्ष है। पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चों में गर्भज और संमूछिम की भवस्थिति भिन्न-भिन्न है । गर्भजों में जलचर, उरग और भुजग की भवस्थिति करोडपूर्व, पक्षियों की भवस्थिति पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग और चतुष्पद स्थलचर की भवस्थिति तीन पल्योपम है । संमूछिम जीवों मे जलचर को भवस्थिति करोड़पूर्व, उरग की भवस्थिति त्रेपन हजार वर्ष, भुजग को भवस्थिति बयालीस हजार वर्ष, पक्षियों की भवस्थिति बहत्तर हजार वर्ष और स्थलचरो की भवस्थिति चौरासी हजार वर्ष है। गर्भज पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चों की कायस्थिति सात या आठ जन्मग्रहण और संमूछिम जीवों की कायस्थिति सात जन्मग्रहण प्रमाण है । १७-१८ ।
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:४:
देवलोक
तृतीय अध्याय में मुख्यरूप से नारकों, मनुष्यों और तिर्यञ्चो की स्थिति, क्षेत्र आदि का वर्णन किया गया है। इस चतुर्थ अध्याय मे देवों के निकायों, उनकी स्थिति, उनकी विशेषताओं आदि का वर्णन किया जा रहा है।
देवों के प्रकार
देवाश्चतुनिकायाः।१। देव चार निकायवाले हैं।
समूह विशेष या जाति को निकाय कहते है । देवों के चार निकाय या प्रकार है-१. भवनपति, २. व्यन्तर, ३ ज्योतिष्क और ४. वैमानिक ।१।
तृतीय निकाय की लेश्या
तृतीयः पीतलेश्यः' ।२। तीसरा निकाय पीतलेश्यावाला है।
उक्त चार निकायों में ज्योतिष्क तीसरे निकाय के देव है। उनमे केवल पीत (तेजः ) लेश्या होती है । यहाँ लेश्या' का अर्थ द्रव्यलेश्या अर्थात् शारीरिक वर्ण है, अध्यवसाय-विशेष के रूप मे भावलेश्या नहीं; क्योकि छहों भावलेश्याएँ तो चारों निकायों के देवों में होती है । २ ।
१. दिगम्बर परम्परा में भवनपति, व्यन्तर और ज्योतिष्क इन तीन निकायो मे कृष्ण से तेजः पर्यन्त चार लेश्याएँ मानी गयी है, पर श्वेताम्बर परम्परा में भवनपति व व्यन्तर दो निकायों में ही उक्त चार लेश्याएं मानी गयी है और ज्योतिष्क निकाय मे केवल तेजोलेश्या। इसी मतभेद के कारण श्वेताम्बर परम्परा मे यह दसरा और आगे सातवाँ दोनो सत्र भिन्न है। दिगम्बर परम्परा मे इन दोनो सत्रो के स्थान पर एक ही सूत्र 'आदितस्त्रिषु पीतान्तलेश्याः' प्रचलित है ।
२. लेश्या के विशेष स्पष्टीकरण के लिए देखें-हिन्दी 'चौथा कर्मग्रन्थ' में 'लेश्या' शब्द-विषयक परिशिष्ट, पृ० ३३ ।
- ९५ -
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तत्त्वार्थ सूत्र
चार निकायों के भेद
दशाष्टपञ्चद्वादशविकल्पाः कल्पोपपन्नपर्यन्ताः । ३ । कल्पोपपन्न देवों तक चतुर्निकायिक देवों के क्रमशः दस, आठ, पाँच और बारह भेद है |
९६
भवनपति निकाय के दस, व्यन्तरनिकाय के आठ, ज्योतिष्क निकाय के पाँच और वैमानिकनिकाय के बारह भेद है, जिनका वर्णन आगे आयेगा । वैमानिक निकाय के बारह भेद कल्पोपपन्न वैमानिक देव तक के है, क्योंकि कल्पातीत देव वैमानिकनिकाय के तो है, पर उनकी गणना उक्त बारह भेदों मे नही है । सौधर्म से अच्युत तक बारह स्वर्ग ( देवलोक ) है, जिन्हे कल्प कहा जाता है । ३ ।
चतुर्निकाय के अवान्तर भेद
इन्द्रसामानिकत्रास्त्रशपारिषद्यात्मरक्षलोकपालानीकप्रकीर्णकाभियोग्य किल्विषिकाचैकशः । ४ ।
त्रायस्त्रशलोकपालवर्ज्या व्यन्तरज्योतिष्काः । ५ ।
चतुर्निकाय के उक्त दस आदि एक-एक इन्द्र, सामानिक, त्रायस्त्रिश, पारिषद्य, आत्मरक्ष, लोकपाल, अनीक, प्रकीर्णक, आभियोग्य और किल्विषिकरूप हैं ।
व्यन्तर और ज्योतिष्क देव त्रायस्त्रिश तथा लोकपाल-रहित हैं ।
भवनपतिनिकाय के असुरकुमार आदि दस प्रकार के देव है । ये सब देव इन्द्र, सामानिक आदि दस भागों में विभक्त है । १. इन्द्र - सामानिक आदि सब प्रकार के देवो के स्वामी । २. सामानिक—– आयु आदि मे इन्द्र के समान अर्थात् अमात्य, पिता, गुरु आदि की तरह पूज्य, पर इनमे मात्र इन्द्रत्व नहीं होता । ३. त्रायस्त्रिश
-मंत्री या पुरोहित का काम करनेवाले । ४. पारिषद्य - मित्र का काम करने - वाले । ५. आत्मरक्षक — शस्त्र धारण करके आत्मरक्षक के रूप मे पीठ की ओर खड़े रहनेवाले । ६. लोकपाल - सीमाके रक्षक । ७. अनीक - सैनिक और सेनाधिपति । ८. प्रकीर्णक नगरवासी और देशवासी के समान । ९. आभियोग्य सेवक या दास के तुल्य । १०. किल्विषिक - अन्त्यजों के समान । बारह देवलोकों में अनेक प्रकार के वैमानिक देव भी इन्द्र, सामानिक आदि दस भागों में विभक्त है ।
व्यन्तरनिकाय के आठ और आठ विभागों में ही विभक्त है, लोकपाल जाति के देव नही होते
[ ४. ४-५
ज्योतिष्क निकाय के पाँच प्रकार के देव इन्द्र आदि क्योकि इन दोनों निकायों में त्रायस्त्रिश और
। ४-५ ।
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४. ७-१०]
प्रथम दो निकायों में लेश्या
.
इन्द्रों की संख्या
पूर्वयोर्द्वान्द्राः।६। प्रथम दो निकायों में दो-दो इन्द्र हैं।
भवनपतिनिकाय के असुरकुमार आदि दस प्रकार के देवों में तथा व्यन्तरनिकाय के किन्नर आदि आठ प्रकार के देवों में दो-दो इन्द्र है। जैसे चमर और बलि असुरकुमारों के, धरण और भूतानन्द नागकुमारों के, हरि और हरिसह विद्युत्कुमारों के, वेणुदेव और वेणुदारी सुपर्णकुमारों के, अग्निशिख और अग्निमाणव अग्निकुमारों के, वेलम्ब और प्रभञ्जन वातकुमारों के, सुघोष और महाघोष स्तनितकुमारों के जलकान्त और जलप्रभ उदधिकुमारों के, पूर्ण और वासिष्ठ द्वीपकुमारों के, तथा अमितगति और अमितवाहन दिक्कुमारों के इन्द्र है । इसी तरह व्यन्तरनिकाय मे भी है जैसे किन्नरों के किन्नर और किंपुरुष, किंपुरुषों के सत्पुरुष और महापुरुष, महोरग के अतिकाय और महाकाय, गन्धर्वो के गीतरति और गीतयश, यक्षों के पूर्णभद्र और मणिभद्र, राक्षसों के भीम और महाभीम, भूतों के प्रतिरूप और अप्रतिरूप तथा पिशाचों के काल और महाकाल ये दो-दो इन्द्र है।
भवनपति और व्यन्तर इन दोनों निकायों मे दो-दो इन्द्र बतलाकर शेष दो निकायो में दो-दो इन्द्रो का अभाव दर्शाया गया है । ज्योतिष्कनिकाय में तो चन्द्र
और सूर्य ही इन्द्र है । चन्द्र और सूर्य असंख्यात है, इसलिए ज्योतिष्कनिकाय मे इन्द्र भी इतने ही है । वैमानिकनिकाय में प्रत्येक कल्प में एक-एक इन्द्र है । सौधर्म कल्प मे शक्र, ऐशान मे ईशान, सानत्कुमार मे सनत्कुमार नामक इन्द्र है । इसी प्रकार ऊपर के देवलोकों मे उन देवलोको के नामवाला एक-एक इन्द्र है । विशेषता इतनी ही है कि आनत और प्राणत इन दो कल्पों का प्राणत नामक एक ही इन्द्र है। आरण और अच्युत इन दो कल्पों का भी अच्युत नामक एक ही इन्द्र है । ६।
प्रथम दो निकायों मे लेश्या
पीतान्तलेश्याः । ७॥ प्रथम दो निकायों के देव पीत ( तेजः ) पर्यन्त लेश्यावाले हैं।
भवनपति और व्यन्तर जाति के देवो मे शारीरिक वर्णरूप द्रव्यलेश्या चार ही मानी जाती है, जैसे कृष्ण, नील, कापोत और पीत ( तेजः ) । ७ ।
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32
तत्त्वार्थ सूत्र
देवों का कामसुख
कायप्रवीचारा आ-ऐशानात् । ८ ।
शेषाः स्पर्शरूपशब्दमनः प्रवीचारा द्वयोर्द्वयोः । २ ।
परेऽप्रवीचाराः । १० ।
ऐशान कल्प तक के देव कायप्रवीचार होते हैं अर्थात् शरीर से विषयसुख भोगते हैं ।
[ ४. ८-१०
शेष देव दो-दो कल्पों में क्रमशः स्पर्श, रूप, शब्द और संकल्प द्वारा विषयसुख भोगते हैं ।
अन्य सब देव प्रवीचार से रहित अर्थात् वैषयिक सुखभोग से मुक्त होते हैं ।
भवनपति, व्यन्तर, ज्योतिष्क तथा पहले व दूसरे कल्प के वैमानिक ये सब देव मनुष्य की भाँति शरीर से कामसुख का अनुभव करके प्रसन्न होते है ।
तीसरे कल्प तथा ऊपर के सभी कल्पों के वैमानिक देव मनुष्य के समान सर्वाङ्गीण शरीरस्पर्श द्वारा कामसुख नही भोगते, अपितु अन्यान्य प्रकार से वैषयिक सुख भोगते है । तीसरे और चौथे कल्प के देवो की तो देवियो के स्पर्शमात्र से कामतृप्ति हो जाती है । पाँचवें और छठे स्वर्ग के देव देवियों के सुसज्जित ( श्रृंगारित ) रूप को देखकर ही विषयसुख प्राप्त कर लेते है। सातवे और आठवें स्वर्ग के देवों की कामवासना देवियो के विविध शब्दो को सुनने से पूरी हो जाती है । नवें और दसवे तथा ग्यारहवें और बारहवे इन दो जोड़ों अर्थात् चार स्वर्गो के देवों की वैषयिक तृप्ति देवियो का चिन्तन करने मात्र से हो जाती है । इस तृप्ति के लिए उन्हें न तो देवियो के स्पर्श की, न उनका रूप देखने की और न गीत आदि सुनने की आवश्यकता रहती है । सारांश यह है कि दूसरे स्वर्ग तक ही देवियाँ हैं, ऊपर के कल्पों में नही है । वे जब तृतीय आदि ऊपर के स्वर्गो के देवों को विषयसुख के लिए उत्सुक अर्थात् अपनी ओर आदरशील जानती है तभी वे उनके निकट पहुँचती है । देवियो के हस्त आदि के स्पर्श मात्र से तीसरे चौथे स्वर्ग के देवों की कामतृप्ति हो जाती है । उनके श्रृंगारसज्जित मनोहर रूप को देखने मात्र से पाँचवें और छठे स्वर्ग के देवो की कामलालसा पूर्ण हो जाती है । इसी प्रकार उनके सुन्दर संगीतमय शब्दों के श्रवण मात्र से सातवें और आठवे स्वर्ग के देव वैषयिक आनन्द का अनुभव प्राप्त कर लेते है । देवियों की पहुँच आठवे स्वर्ग तक ही है, ऊपर नही । नवे से बारहवे स्वर्ग तक के देवो की काम-सुखतृप्ति केवल देवियों का चिन्तन करने से ही हो जाती है । बारहवें स्वर्ग से ऊपर के देव शान्त और
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४. ११-२०]
चतुनिकाय के देवों के भेद
कामलालसा से परे होते है । उन्हे देवियों के स्पर्श, रूप, शब्द या चिन्तन द्वारा कामसुख भोगने की अपेक्षा नहीं रहती, फिर भी वे नीचे के देवो से अधिक सन्तुष्ट और अधिक सुखो होते है । इसका स्पष्ट कारण यह है कि ज्यों-ज्यों कामवासना प्रबल होती है त्यो-त्यों चित्तसंक्लेश अधिक बढता है तथा ज्यों-ज्यो चित्तसंक्लेश बढता है त्यों-त्यो उसके निवारण के लिए विषयभोग भो अधिकाधिक आवश्यक होता है। दूसरे स्वर्ग तक के देवो की अपेक्षा तीसरे और चौथे स्वर्ग के देवो की, उनकी अपेक्षा पाँचवें-छठे स्वर्ग के देवों की और इस तरह कार-ऊपर के स्वर्गों के देवों की कामवासना मन्द होती जाती है। इसलिए उनका चित्तसंक्लेश भी कम होता जाता है। उनके कामभोग के साधन भी अल्प होते है । बारहवें स्वर्ग से ऊपर के देवो की कामवासना शान्त होती है, अत उन्हे स्पर्श, रूप, शब्द, चिन्तन आदि किसी भी प्रकार के भोग की कामना नहीं होती। वे संतोषजन्य परमसुख मे निमग्न रहते है। यही कारण है कि नीचे-नीचे की अपेक्षा ऊपर-ऊपर के देवों का सुख अधिकाधिक माना गया है । ८-१० ।
चनुनिकाय के देवों के भेद भवनवासिनोऽसुरनागविद्युत्सुपर्णाग्निवातस्तनितोदधिद्वीपदिक्कुमाराः।११। व्यन्तराः किन्नरकिंपुरुषमहोरगगान्धर्वयक्षराक्षसभूतपिशाचाः । १२ । ज्योतिष्काः सूर्याश्चन्द्रमसो ग्रहनक्षत्रप्रकीर्णतारकाश्च । १३ । मेरुप्रदक्षिणा नित्यगतयो नृलोके । १४ । तत्कृतः कालविभागः । १५ । बहिरवस्थिताः । १६ । वैमानिकाः । १७॥ कल्पोपपन्नाः कल्पातीताश्च । १८ । उपयु परि । १९ । सौधर्मेशानसानत्कुमारमाहेन्द्रब्रह्मलोकलान्तकमहाशुक्रसहस्रारेष्वानतप्राणतयोरारणाच्युतयोर्नवसु प्रैवेयकेषु विजयवैजयन्तजयन्ताऽपराजितेषु सर्वार्थसिद्ध च' । २० ।
१. श्वेताम्बर परम्परा में बारह कल्प माने गए है । दिगम्बर परम्परा मे सोलह कल्पों की मान्यता है, अतः उनमे ब्रह्मोत्तर, कापिष्ठ, शक्र और शतार ये चार कल्प अधिक हैं, जो क्रमशः छठे, आठवे, नवे और ग्यारहवे है।
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तत्त्वार्थसूत्र
[ ४. ११-२० असुरकुमार, नागकुमार, विद्युत्कुमार, सुपर्णकुमार, अग्निकुमार, वासकुमार, स्तनितकुमार, उदधिकुमार, द्वीपकुमार और दिक्कुमार-ये (दस ) भवनवासीनिकाय है।
किन्नर, किपुरुष, महोरग, गान्धर्व, यक्ष, राक्षस, भूत और पिशाच--- ये ( आठ ) व्यन्तरनिकाय हैं ।
सूर्य, चन्द्र तथा ग्रह, नक्षत्र और प्रकीर्ण तारा-ये (पाँच) ज्योतिष्कनिकाय है।
वे मनुष्यलोक में मेरु के चारों ओर प्रदक्षिणा करते हैं तथा नित्य गतिशील है।
काल का विभाग उनके ( चरज्योतिष्कों) द्वारा किया हुआ है। ज्योतिष्क मनुष्यलोक के बाहर स्थिर होते हैं। चतुर्थ निकायवाले वैमानिक देव हैं। वे कल्पोपपन्न और कल्पातीत है । ऊपर-ऊपर रहते हैं।
सौधर्म, ऐशान, सानत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्मलोक, लान्तक, महाशुक्र, सहस्रार, आनत, प्राणत, आरण और अच्युत ( इन १२ कल्पों) तथा नौ अवेयक और विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित एवं सर्वार्थसिद्ध में उनका निवास है।
भानपति-दसो प्रकार के भवनपति देव जम्बूद्वीपवर्ती सुमेरुपर्वत के नीचे, उसके दक्षिण और उत्तर भाग मे तिरछे अनेक कोटाकोटि लक्ष योजन तक रहते है । असुरकुमार प्राय आवासो मे और कभी भवनों में बसते है तथा नागकुमार आदि सब प्रायः भवनों में ही बसते है । आवास रत्नप्रभा के पृथ्वीपिड मे ऊपरनीचे के एक-एक हजार योजन को छोडकर बीच के एक लाख अठहत्तर हजार योजन के भाग मे सब जगह है, पर भवन तो रत्नप्रभा के नीचे नब्बे हजार योजन के भाग में ही होते है। आवास बडे मण्डप जैसे होते है और भवन नगर के समान । भवन बाहर से गोल, भीतर से समचतुष्कोण और तल मे पुष्करकणिका जैसे होते है।
सभी भवनपति इसलिए कुमार कहे जाते है कि वे कुमार की तरह मनोहर तथा सुकुमार दीखते है। उनकी गति मृदु व मधुर होती है तथा वे क्रीडाशील होते है । दस प्रकार के भवनपति देवो की चिह्नादि स्वरूपसम्पत्ति जन्मना अपनी-अपनी जाति में भिन्न भिन्न है । जैसे असुरकुमारों के मुकुट में चूडामणि का, नागकुमारों के
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चतुर्निकाय के देवो के भेद
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नाग का, विद्युत्कुमारों के वज्र का, सुपर्णकुमारो के गरुड का, अग्निकुमारो के घट का, वातकुमारों के अश्व' का, स्तनितकुमारों के वर्धमान सकोरापुट ( सकोरायुगल) का, उदधिकुमारों के मकर का द्वीपकुमारो के सिंह का और दिक्कुमारों के हस्ति का चिह्न होता है । नागकुमार आदि सभी के चिह्न उनके आभरण मे होते है । सभी के वस्त्र, शस्त्र, भूषण आदि विविध होते है । ११ ।
४. ११ -२०
व्यन्तरों के भेद-प्रभेद - सभी व्यन्तरदेव ऊर्ध्व, मध्य और अध तीनों लोकों मे भवनों तथा आवासो मे बसते है । वे स्वेच्छा से या दूसरों की प्रेरणा से भिन्न-भिन्न स्थानों पर जाते रहते हैं । उनमे से कुछ तो मनुष्यो की भी सेवा करते हैं । विविध पहाड़ों और गुफाओं के अन्तरो मे तथा वनो के अन्तरो मे बसने के कारण उन्हे व्यन्तर कहा जाता है । इनमे से किन्नर नामक व्यन्तरदेव दस प्रकार के है— किन्नर, किपुरुष, किपुरुषोत्तम, किन्नरोत्तम, हृदयंगम, रूपशाली, अनिन्दित, मनोरम, रतिप्रिय और रतिश्रेष्ठ । किंपुरुष नामक व्यन्तरदेव दस प्रकार के है - पुरुष, सत्पुरुष, महापुरुष, पुरुषवृषभ, पुरुषोत्तम, अतिपुरुष, मरुदेव, मरुत, मेरुप्रभ और यशस्वान् । महोरग दस प्रकार के है- भुजंग, भोगशाली, महाकाव्य, अतिकाय, स्कन्धशाली, मनोरम, महावेग, महेष्वक्ष, मेरुकान्त और भास्वान् । गान्धर्व बारह प्रकार के है- हाहा, हूहू, तुम्बुरव, नारद, ऋषिवादिक, भूतवादिक, कादम्ब, महाकादम्ब, रैवत, विश्वावसु, गीतरति और गीतयश । यक्ष तेरह प्रकार के है- पूर्णभद्र, मणिभद्र, श्व ेतभद्र, हरिभद्र, सुमनोभद्र, व्यतिपातिकभद्र, सुभद्र, सर्वतोभद्र, मनुष्ययक्ष, वनाधिपति, वनाहार, रूपयक्ष और यक्षोत्तम । राक्षस सात प्रकार के है- भीम, महाभीम, विघ्न, विनायक, जलराक्षस, राक्षस और ब्रह्मराक्षस - भूत नौ प्रकार के है- सुरूप, प्रतिरूप, अतिरूप, भूतोत्तम, स्कन्दिक, महास्कन्दिक, महावेग, प्रतिच्छन्न और आकाशग । पिशाच पन्द्रह प्रकार के है - कूष्माण्ड, पटक, जोष, आह्नक, काल, महाकाल, चौक्ष, अचौक्ष, तालपिशाच, मुखरपिशाच, अधस्तारक, देह, महाविदेह, तूष्णीक और वनपिशाच ।
२
आठों प्रकार के व्यन्तरो के चिह्न क्रमश: अशोक, चम्पक, नाग, तुम्बरु, वट, खट्वाङ्ग, सुलस और कदम्बक है । खट्वाङ्ग के अतिरिक्त शेष सब चिह्न वृक्ष जाति के है जो उनके आभूषण आदि में होते है । १२ ।
पञ्चविध ज्योतिष्क- - मेरु के समतल भूभाग से सात सौ नब्बे योजन की १. संग्रहणी ग्रन्थ मे उदधिकुमारो के अश्व का और वातकुमारो के मकर का चिन्ह उल्लिखित है । देखें — गा० २६ ।
२. तापस का उपकरण विशेष ।
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तत्त्वार्थसूत्र
[४. ११-२० ऊँचाई पर ज्योतिश्चक्र का क्षेत्र आरम्भ होता है जो वहाँ से ऊँचाई मे एक सौ दस योजन का है और तिरछे असंख्यात द्वीपसमुद्र तक है । दस योजन की ऊँचाई पर अर्थात् उक्त समतल से आठ सौ योजन की ऊँचाई पर सूर्य के विमान है । वहाँ से अस्सी योजन ऊँचे अर्थात् समतल से आठ सौ अस्सी योजन ऊपर चन्द्र के विमान है। वहाँ से बीस योजन की ऊँचाई तक अर्थात् समतल से नौ सौ योजन की ऊँचाई तक ग्रह, नक्षत्र और प्रकीर्ण तारागण है । प्रकीर्ण तारों से आशय यह है कि कुछ तारे ऐसे भी है जो अनियतचारी होने से कभी सूर्य-चन्द्र के नीचे चलते है और कभी ऊपर । चन्द्र के ऊपर बीस योजन की ऊँचाई मे पहले चार योजन की ऊँचाई पर नक्षत्र है, फिर चार योजन की ऊँचाई पर बुधग्रह, बुध से तीन योजन की ऊँचाई पर शुक, शुक्र से तीन योजना की ऊँचाई पर गुरु, गुरु से तीन योजन ऊपर मङ्गल और मङ्गल से तीन योजन ऊपर शनैश्चर है । अनियतचारी तारा सूर्य के नीचे चलते समय ज्योतिष-क्षेत्र में सूर्य के नीचे दस योजन तक रहता है। ज्योतिष ( प्रकाशमान ) विमान मे रहने से सूर्य आदि ज्योतिष्क कहलाते हैं । इन सबके मुकुटों मे प्रभामण्डल जैसा उज्ज्वल, सूर्यादिमण्डल जैसा चिह्न होता है । सूर्य के सूर्यमण्डल जैसा, चन्द्र के चन्द्रमण्डल जैसा और तारा के तारामण्डल जैसा चिह्न होता है । १३ ।
चरज्योतिष्क-मानुषोत्तर पर्वत तक मनुष्यलोक होने की बात पहले कही जा चुकी है। मनुष्यलोक के ज्योतिष्क सदा मेरु के चारों ओर भ्रमण करते रहते है । मनुष्यलोक मे एक सौ बत्तीस सूर्य और चन्द्र है-जम्बूद्वीप मे दो-दो, लवणसमुद्र मे चार-चार, धातकीखण्ड मे बारह-बारह, कालोदधि मे बयालीसबयालीस और पुष्करार्ध मे बहत्तर-बहत्तर है । एक चन्द्र का परिवार २८ नक्षत्र, ८८ ग्रह और ६६९७५ कोटाकोटि तारों का है। यद्यपि लोकमर्यादा के स्वभावानुसार ज्योतिष्कविमान सदा अपने-आप घूमते रहते है तथापि समृद्धि-विशेष प्रकट करने के लिए और आभियोग्य ( सेवक ) नामकर्म के उदय से क्रीडाशील कुछ देव उन विमानों को उठाते है । सामने के भाग में सिहाकृति, दाहिने गजाकृति, पीछे वृषभाकृति और बाये अश्वाकृतिवाले ये देव विमान को उठाकर चलते रहते है । १४ ।
कालविभाग-मुहूर्त, अहोरात्र, पक्ष, मास आदि, अतीत, वर्तमान आदि एवं संख्येय-असख्येय आदि के रूप मे अनेक प्रकार का कालव्यवहार मनुष्यलोक में होता है, उसके बाहर नहीं होता। मनुष्यलोक के बाहर यदि कोई कालव्यवहार करनेवाला हो और व्यवहार करे तो मनुष्यलोक प्रसिद्ध व्यवहार के अनुसार ही
१ देखें-अ० ३, सू० १४ ।
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४. ११-२०]
चतुनिकाय के देवों के भेद
१०३
होगा, क्योंकि व्यावहारिक कालविभाग का मुख्य आधार नियत क्रिया मात्र है। ऐसी क्रिया सूर्य, चन्द्र आदि ज्योतिष्कों की गति ही है। यह गति भी ज्योतिष्कों की सर्वत्र नही, केवल मनुष्यलोक में वर्तमान ज्योतिष्कों में ही मिलती है। इसीलिए माना गया है कि काल का विभाग ज्योतिष्कों की विशिष्ट गति पर ही निर्भर है । दिन, रात, पक्ष आदि स्थूल कालविभाग सूर्य आदि ज्योतिष्कों की नियत गति पर अवलम्बित होने के कारण उससे ज्ञात हो सकते है; समय, आवलिका आदि सूक्ष्म कालविभाग उससे ज्ञात नहीं हो सकते । स्थान-विशेष में सूर्य के प्रथम दर्शन से लेकर स्थान-विशेष में सूर्य का जो अदर्शन होता है उस उदय और अस्त के बीच सूर्य की गतिक्रिया से ही दिन का व्यवहार होता है । इसी प्रकार सूर्य के अस्त से उदय तक की गतिक्रिया से रात्रि का व्यवहार होता है। दिन और रात्रि का तीसवाँ भाग मुहूर्त कहलाता है। पन्द्रह दिनरात का पक्ष होता है। दो पक्ष का मास, दो मास की ऋतु, तीन ऋतु का अयन, दो अयन का वर्ष, पाँच वर्ष का युग इत्यादि अनेक प्रकार का लौकिक कालविभाग सूर्य की गतिक्रिया से किया जाता है । जो क्रिया चालू है वह वर्तमानकाल, जो होनेवाली है वह अनागतकाल और जो हो चुकी है वह अतीतकाल है । जो काल गणना में आ सकता है वह संख्येय है, जो गणना मे न आकर केवल उपमान से जाना जाता है वह असंख्येय है, जैसे पल्योपम, सागरोपम आदि और जिसका अन्त नहीं है वह अनन्त' है । १५ ।।
स्थिरज्योतिष्क-मनुष्यलोक से बाहर के सूर्य आदि ज्योतिष्क विमान स्थिर हैं, क्योकि उनके विमान स्वभावतः एक स्थान पर स्थिर रहते है, यत्र-तत्र भ्रमण नही करते । अतः उनकी लेश्या और प्रकाश भी एक रूप में स्थिर है, वहाँ राहु आदि की छाया न पड़ने से ज्योतिष्कों का स्वाभाविक पीतवर्ण ज्यों का त्यों बना रहता है और उदय-अस्त न होने से उनका लक्ष योजन का प्रकाश भी एक-सा स्थिर रहता है । १६ ।
वैमानिक देव-चतुर्थ निकाय के देव वैमानिक है। उनका वैमानिक नाम पारिभाषिक मात्र है, क्योंकि विमान से तो अन्य निकायों के देव भी चलते है । १७ ।
वैमानिक देवों के दो भेद हैं-कल्पोपपन्न और कल्पातीत । कल्प में रहनेवाले कल्पोपपन्न और कल्प के ऊपर रहनेवाले कल्पातीत । ये समस्त वैमानिक न तो एक ही स्थान में है और न तिरछे हैं किन्तु एक-दूसरे के ऊपर-ऊपर स्थित है । १८-१९ ।
१. यह अनन्त का शब्दार्थ है। उसका पूरा भाव जानने के लिए देखें-हिन्दी चौथा कर्मग्रन्थ।
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तत्त्वार्थसूत्र
[४. २१-२२
सौधर्म, ऐशान आदि बारह कल्प (स्वर्ग) है। प्रथम सौधर्म कल्प ज्योतिश्चक्र के असख्यात योजन ऊपर मेरुपर्वत के दक्षिण भाग से उपलक्षित आकाशप्रदेश में स्थित है। उसके बहुत ऊपर किन्तु उत्तर की ओर ऐशान कल्प है । सौधर्म कल्प के बहुत ऊपर समश्रेणि में सानत्कुमार कल्प है और ऐशान के ऊपर समश्रेणि में माहेन्द्र कल्प है । इन दोनों के मध्य में किन्तु ऊपर ब्रह्मलोक कल्प है । इसके ऊपर समश्रेणि में क्रमशः लान्तक, महाशुक्र और सहस्रार ये तीन कल्प एक-दूसरे के ऊपर है । इनके ऊपर सौधर्म और ऐशान की तरह आनत और प्राणत ये दो कल्प है। इनके ऊपर समश्रेणि में सानत्कुमार और माहेन्द्र की तरह आरण और अच्युत कल्प है। कल्पों से ऊपर-ऊपर अनुक्रम से नौ विमान है जो पुरुषाकृति लोक के ग्रीवास्थानीय भाग मे होने से 'वेयक' कहलाते है । इनसे ऊपर-ऊपर विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित और सर्वार्थसिद्ध ये पाँच अनुत्तर विमान है । सबसे उत्तर (प्रधान ) होने के कारण ये 'अनुत्तर' कहलाते है। ___ सौधर्म कल्प से अच्युत कल्प तक के देव कल्पोपपन्न है और इनसे ऊपर के सभी देव कल्पातीत है । कल्पोपपन्न देवों में स्वामि-सेवकभाव होता है, कल्पातीत में नही । सभी कल्पातीत देव इन्द्रवत् होते है, अतः वे अहमिन्द्र कहलाते है। मनुष्यलोक में किसी निमित्त से आवागमन का कार्य कल्पोपपन्न देव ही करते है, कल्पातीत देव अपना स्थान छोड़कर कहीं नही जाते । २० ।
देवो की उत्तरोत्तर अधिकता और हीनता विषयक बातें स्थितिप्रभावसुखद्युतिलेश्याविशुद्धीन्द्रियावधिविषयतोऽधिकाः । २१ । गतिशरीरपरिग्रहाभिमानतो होनाः । २२ ।
स्थिति, प्रभाव, सुख, द्युति, लेश्याविशुद्धि, इन्द्रियविषय और अवधिविषय की ऊपर-ऊपर के देवों में अधिकता होती है ।
गति, शरीर, परिग्रह और अभिमान की ऊपर-ऊपर के देवों में हीनता होती है।
नीचे-नीचे के देवों से ऊपर-ऊपर के देव सात बातों में अधिक ( बढे हुए) होते है। ये सात बाते निम्नलिखित है :
१. स्थिति-इसका विशेष स्पष्टीकरण आगे सूत्र ३० से ५३ तक किया गया है।
२. प्रमाव-निग्रह-अबुग्रह करने का सामर्थ्य, अणिमा-महिमा आदि सिद्धियों का सामर्थ्य और आक्रमण करके दूसरों से काम करवाने का बल यह सब प्रभाव के
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४. २१-२२ ] देवों की उत्तरोत्तर अधिकता और हीनता बिषयक बातें १०५
अन्तर्गत है । यह प्रभाव ऊपर-ऊपर के देवों में अधिक है, फिर भी उनमें उत्तरोत्तर अभिमान व संक्लेश परिणान कम होने से वे अपने प्रभाव का उपयोग कम ही करते हैं ।
३.४. सुख और द्युति - इन्द्रियों द्वारा ग्राह्य विषयों का अनुभव करना सुख है | शरीर, वस्त्र और आभरण आदि की दीप्ति द्युति है । यह सुख और द्युति ऊपर-ऊपर के देवों में अधिक होने से उनमे उत्तरोत्तर क्षेत्रस्वभावजन्य शुभ पुद्गल - परिणाम की प्रकृष्टता होती है |
५. लेश्या - विशुद्धि — लेश्या के नियम की स्पष्टता सूत्र २३ में की जायेगी । यहाँ इतना ज्ञातव्य है कि जिन देवों की लेश्या समान है उनमे भी नीचे की अपेक्षा ऊपर के देवों की लेश्या संक्लेश परिणाम की न्यूनता के कारण उत्तरोत्तर विशुद्ध, विशुद्धतर होती है ।
६. इन्द्रिय विषय — दूर से इष्टविषयों को ग्रहण सामर्थ्य भी उत्तरोत्तर गुण की वृद्धि और संक्लेश की ऊपर के देवों में उत्तरोत्तर अधिक होता है ।
चार बातें ऐसी है जो नीचे की होती है । वे ये है :
७. प्रवधिविषय-- अवधिज्ञान का सामर्थ्य भी ऊपर-ऊपर के देवो मे अधिक होता है । पहले दूसरे स्वर्ग के देव अधोभूमि में रत्नप्रभा तक, तिरछे क्षेत्र में असंख्यात लाख योजन तक और ऊर्ध्वलोक में अपने-अपने भवन तक के क्षेत्र को अवधिज्ञान से जानते है । तीसरे चौथे स्वर्ग के देव अधोभूमि में तिरछे क्षेत्र में असंख्यात लाख योजन तक और ऊर्ध्वलोक में तक अवधिज्ञान से देख सकते है । इसी प्रकार क्रमशः बढते बढते अनुत्तर-विमानवासी देव सम्पूर्ण लोकनाली को अवधिज्ञान से देख सकते है । जिन देवो का अवधिज्ञान क्षेत्र समान होता है उनमे भी नीचे की अपेक्षा ऊपर के देवों में विशुद्ध, विशुद्धतर ज्ञान का सामर्थ्य होता है । २१ ।
अपेक्षा ऊपर के देवों में उत्तरोत्तर कम
करने का न्यूनता के
इन्द्रियों का कारण ऊपर
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१. गति - - गमनक्रिया की शक्ति और गमनक्रिया में प्रवृत्ति ये दोनो बाते ऊपर-ऊपर के देवों में कम होती है, क्योकि उनसे उत्तरोत्तर महानुभावत्व और उदासीनत्व अधिक होने से देशान्तर विषयक क्रीडा करने की रति ( रुचि ) कम होती जाती है । सानत्कुमार आदि कल्पों के देव जिनकी जघन्य आयुस्थिति दो सागरोपम होती है, अधोभूमि में सातवें नरक तक और तिरछे क्षेत्र में असंख्यात हजार कोटाकोटि योजन पर्यन्त जाने का सामर्थ्य रखते है । इनके ऊपर के
शर्कराप्रभा तक, अपने-अपने भवन
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तत्त्वार्थसूत्र
[ ४. २१-२२
जघन्य स्थितिवाले देवों का गतिसामर्थ्य इतना घट जाता है कि वे अधिक-सेअधिक तीसरे नरक तक हो जा पाते है। शक्ति चाहे अधिक हो, पर कोई देव तीसरे नरक से नीचे न गया है और न जायेगा।
२ शरीर--शरीर का परिमाण पहले-दूसरे स्वर्ग में सात हाथ का, तीसरेचौथे स्वर्ग में छः हाय का, पाँचवें-छठे स्वर्ग मे पाँच हाथ का, सातवें-आठवें स्वर्ग में चार हाथ का, नवे से बारहवे स्वर्ग तक मे तीन-तीन हाथ का, नौ ग्रैवेयकों मे दो हाथ का और अनुत्तरविमानो में एक हाथ का होता है।
३. परिग्रह-स्वर्गो में विमानों का परिग्रह ऊपर-ऊपर कम होता जाता है। वह इस प्रकार है-पहले स्वर्ग मे बत्तीस लाख, दूसरे मे अट्ठाईस लाख, तीसरे में बारह लाख, चौथे में आठ लाख, पाँचवे में चार लाख, छठे में पचास हजार, सातवें मे चालीस हजार, आठवें में छः हजार, नवें से बारहवे तक में सात सौ, अधोवर्ती तीन ग्रेवेयकों में एक सौ ग्यारह, मध्यवर्ती तीन गवेयकों में एक सौ सात, ऊार के तीन ग्रैवेयकों मे सौ और अनुत्तर में केवल पाँच विमान है।
४. अभिमान-अभिमान अर्थात् अहंकार । स्थान, परिवार, शक्ति, विषय, विभूति, स्थिति आदि के कारण अभिमान उत्पन्न होता है । यह अभिमान कषायों की मन्दता के कारण ऊपर-ऊपर के देवों में उत्तरोत्तर कम होता जाता है।
इनके अतिरिक्त और भी पांच बातें देवों के सम्बन्ध में ज्ञातव्य है जो सूत्र मे नही कही गई है-१. उच्छवास, २. आहार, ३. वेदना, ४. उपपात और ५. अनुभाव वे इस प्रकार है :
१. उच्छवास-जैसे-जैसे देवों की आयुस्थिति बढ़ती जाती है वैसे-वैसे उच्छ्वास का समय भी बढ़ता जाता है, जैसे दस हजार वर्ष की आयुवाले देवों का एक-एक उच्छ्वास सात-सात स्तोक में होता है । एक पल्योपम की आयुवाले देवों का उच्छ्वास एक दिन में एक ही होता है। सागरोपम की आयुवाले देवों के विषय में यह नियम है कि जिनकी आयु जितने सागरोपम की हो उनका एकएक उच्छ्वास उतने पक्ष में होता है ।
२ प्राहार-आहार के विषय में यह नियम है कि दस हजार वर्ष की आयुवाले देव एक-एक दिन बीच मे छोड़कर आहार ग्रहण करते है । पल्योपम की आयुवाले दिनपृथक्त्व' के बाद आहार लेते है । सागरोपम की स्थितिवाले देवों के विषय में यह नियम है कि जिनकी आयु जितने सागरोपम की हो वे देव उतने हजार वर्ष के बाद आहार ग्रहण करते है ।
१. दो की संख्या से लेकर नौ की संख्या तक पृथक्त्व का व्यवहार होता है ।
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४. २३-२४ ]
वैमानिकों में लेश्या-कल्पों की परिगणना
१०७
३. वेदना-सामान्यतः देवों के साता ( सुख-वेदना ) ही होती है। कभी असाता ( दुःख-वेदना ) हो जाय तो वह अन्तर्मुहूर्त से अधिक काल तक नही रहती । साता-वेदना भी लगातार छ: महीने तक एक-सी रहकर बदल जाती है ।
४. उपपात-उपपात अर्थात् उत्पत्तिस्थान की योग्यता। पर अर्थात् जैनेतरलिङ्गिक मिथ्यात्वी बारहवें स्वर्ग तक ही उत्पन्न हो सकते है । स्व अर्थात् जैनलिङ्गिक मिथ्यात्वी ग्रेवेयक तक जा सकते है । सम्यग्दृष्टि पहले स्वर्ग से सर्वार्थसिद्ध तक कहीं भी जा सकते है, परन्तु चतुर्दश पूर्वधारी संयत पाँचवें स्वर्ग से नीचे उत्पन्न नहीं होते।
५ अनुभाव-अनुभाव अर्थात् लोकस्वभाव ( जगद्धर्म )। इसी के कारण सब विमान तथा सिद्धशिला आदि आकाश में निराधार अवस्थित है।
अरिहन्त भगवान् के जन्माभिषेक आदि प्रसंगों पर देवों के आसन का कम्पित होना भी लोकानुभाव का ही कार्य है । आसनकम्प के अनन्तर अवधिज्ञान के उपयोग से तीर्थङ्कर की महिमा को जानकर कुछ देव उनके निकट पहुँचकर उनकी स्तुति, वन्दना, उपासना आदि करके आत्मकल्याण करते है। कुछ देव अपने ही स्थान पर प्रत्युत्थान, अञ्जलिकर्म, प्रणिपात, नमस्कार, उपहार आदि द्वारा तीर्थङ्कर की अर्चा करते है। यह भी लोकानुभाव का ही कार्य है । २२ ।
वैमानिकों में लेश्या पीतपद्मशुक्ललेश्या द्वित्रिशेषेषु । २३ । दो, तीन और शेष स्वर्गों में क्रमशः पीत, पद्म और शुक्ल लेश्यावाले देव हैं।
पहले दो स्वर्गों के देवों में पीत ( तेजः ) लेश्या होती है। तीसरे से पांचवें स्वर्ग तक के देवों में पद्मलेश्या और छठे से सर्वार्थसिद्ध तक के देवों मे शुक्ललेश्या होती है। यह विधान शरीरवर्णरूप द्रव्यलेश्या के विषय मे है, क्योंकि अध्यवसायरूप छहों भावलेश्याएँ तो सब देवों में होती है । २३ ।
_कल्पों की परिगणना
प्रागद्मवेयकेभ्यः कल्पाः। २४ । ग्रेवेयकों से पहले कल्प हैं ।
जिनमें इन्द्र, सामानिक, त्रायस्त्रिश आदि रूप में देवों के विभाग की कल्पना है वे कल्प कहलाते है । ऐसे कल्प बारह है जो ग्रैवेयक के पहले तक अर्थात् सौधर्म से अच्युत तक है । ग्रैवेयक से लेकर ऊपर के सभी देवलोक कल्पातीत हैं,
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तत्त्वार्थसूत्र
[ ४. २५-२६
क्योकि उनमें इन्द्र, सामानिक, त्रायस्त्रिश आदि की विभाग-कल्पना नही है; वे सभी समान होने से अहमिन्द्र है । २४ ।
लोकान्तिक देव ब्रह्मलोकालया लोकान्तिकाः । २५ । सारस्वतादित्यवह्नयरुणगर्दतोयतुषिताव्याबाधमरुतोऽरिष्टाश्च ।२६। ब्रह्मलोक ही लोकान्तिक देवों का आलय (निवासस्थान ) है ।
सारस्वत, आदित्य, वह्नि, अरुण, गर्दतोय, तुषित, अव्याबाध, मरुत और अरिष्ट ये लोकान्तिक है ।
लोकान्तिक देव विषयरति से परे होने से देवर्षि कहलाते है, आपस में छोटे-बडे न होने के कारण सभी स्वतन्त्र है और तीर्थङ्कर के निष्क्रमण ( गृहत्याग ) के समय उनके समक्ष उपस्थित होकर 'बुज्झह बुज्झह' शब्द द्वारा प्रतिबोधन के रूप में अपने आचार का पालन करते है। ये ब्रह्मलोक नामक पाँचवें स्वर्ग के ही चारों ओर दिशाओ-विदिशाओं में रहते है, अन्यत्र कहीं नहीं रहते । ये सभी वहाँ से च्युत होकर मनुष्य-जन्म धारण कर मोक्ष प्राप्त करते है ।
प्रत्येक दिशा, प्रत्येक विदिशा और मध्यभाग में एक-एक जाति के बसने के कारण लोकान्तिकों की कुल नौ जातियाँ है, जैसे पूर्वोत्तर अर्थात् ईशानकोण में सारस्वत, पूर्व मे आदित्य, पूर्वदक्षिण ( अग्निकोण ) मे वह्नि, दक्षिण मे अरुण, दक्षिणपश्चिम (नैऋत्यकोण ) मे गर्दतोय, पश्चिम मे तुषित, पश्चिमोत्तर ( वायव्यकोण ) में अव्याबाध, उत्तर मे मरुत और बीच मे अरिष्ट। इनके सारस्वत आदि नाम विमानों के नाम के आधार पर ही प्रसिद्ध है। हाँ, इतनी विशेषता और है कि इन दो सूत्रों के मूल भाष्य में लोकान्तिक देवो के आठ ही भेद निर्दिष्ट है, नौ नही । दिगम्बर संप्रदाय के सूत्रपाठ मे भी आठ की संख्या ही उपलब्ध
१. रायल एशियाटिक सोसायटी की मुद्रित पुस्तक मे 'अरिष्टाश्च' इस अंश को निश्चित रूप से सूत्र में न रखकर कोष्ठक मे रखा गया है, परन्तु मनसुख भगुभाई की मुद्गित पुस्तक मे यही अंश 'रिष्टाश्च' पाठ के रूप में सूत्रगत ही छपा है। यद्यपि वेताम्बर संप्रदाय के मूल सूत्र में 'ऽरिष्टाश्च' पाठ है तथापि इस सत्र के भाष्य की टीका मे 'सारिणोपात्ताः रिष्टविमानप्रस्तारवतिभिः' आदि का उल्लेख है । इससे 'अरिष्ट' के स्थान पर 'रिष्ट' होने का भी तर्क हो सकता है। परन्तु दिगम्बर संप्रदाय मे इस सत्र का अन्तिम अंश 'ऽव्याबाधारिष्टाश्च' पाठ के रूप में मिलता है । इससे यहाँ स्पष्टतः 'अरिष्ट' ही निष्पन्न होता है, 'रिष्ट' नहीं, साथ ही 'मरुत' का भी विधान नहीं है।
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४. २७-२१ ]
अनुत्तर विमानो के देव, तिथंच, अधिकार-सूत्र
१०९
होती है, उसमें 'मरुत' का उल्लेख नही है। स्थानाङ्ग आदि सूत्रों में नौ भेद मिलते है । उत्तमचरित्र में तो दस भेदों का भी उल्लेख मिलता है । इससे ज्ञात होता है कि मूल सूत्र में 'मरुतो' पाठ बाद मे प्रक्षिप्त हुआ है । २५-२६ ।
अनुत्तर विमानों के देवो की विशेषता
विजयादिषु द्विचरमाः। २७ । विजयादि के देव द्विचरम होते है अर्थात् दो बार मनुष्यजन्म धारण कर मोक्ष प्राप्त करते हैं ।
अनुत्तर विमान पाँच है । उनमे से विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित इन चार विमानों के देव द्विचरम होते है । वे अधिक-से-अधिक दो बार मनुष्यजन्म धारण करके मोक्ष प्राप्त कर लेते है । इसका क्रम इस प्रकार है कि चार अनुत्तर विमानों से च्युत होने के बाद मनुष्यजन्म, उसके बाद अनुत्तर विमान मे देवजन्म, वहाँ से फिर मनुष्यजन्म और उसी जन्म से मोक्ष । परन्तु सर्वार्थसिद्ध विमानवासी देव च्युत होने के बाद केवल एक बार मनुष्यजन्म धारण करके उसी जन्म से मोक्ष प्राप्त करते है। अनुत्तर विमानवासी देवों के अतिरिक्त अन्य सब देवों के लिए कोई नियम नहीं है, क्योकि कोई तो एक ही गर मनुष्यजन्म लेकर मोक्ष जाते है, कोई दो बार तीन बार, चार बार या और भी अधिक बार मनुष्यजन्म धारण करते है । २७ ।
तिर्यचो का स्वरूप __ औपपातिकमनुष्येभ्यः शेषास्तिर्यग्योनयः । २८ । औपपातिक और मनुष्य से जो शेष हैं वे तिर्यच योनिवाले हैं।
'तिर्यच कौन है ?' इस प्रश्न का उत्तर इस सूत्र में वर्णित है । औपपातिक ( देव तथा नारक ) तथा मनुष्य को छोडकर शेष सभी संसारी जीव तिर्यच है । देव, नारक और मनुष्य केवल पञ्चेन्द्रिय होते है, पर तिर्यंच मे एकेंद्रिय से पचेद्रिय तक सब जीव आ जाते है । देव, नारक और मनुष्य लोक के विशेष भागों मे ही होते है, तिर्यञ्च नहीं, क्योकि उनका स्थान लोक के सब भागों में है । २८ ।
अधिकार-पूत्र
स्थितिः । २९ । आयु का वर्णन किया जाता है ।
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११०
तत्त्वार्थसूत्र
[ ४. ३०-३८
___ मनुष्यों और तिर्यञ्चों की जघन्य और उत्कृष्ट आयु बतलाई गई है । देवों और नारकों की आयु बतलाना शेष है, जो इस अध्याय की समाप्ति तक वणित है। २९ ।
भवनपतिनिकाय की उत्कृष्ट स्थिति भवनेषु दक्षिणार्धाधिपतीनां पल्योपममध्यर्धम् । ३० । शेषाणां पादोने । ३१ । असुरेन्द्रयोः सागरोपममधिकं च । ३२ । भवनों में दक्षिणार्ध के इन्द्रों की स्थिति डेढ़ पल्योपम है। शेष इन्द्रों की स्थिति पौने दो पल्योपम है।
दो असुरेन्द्रों की स्थिति क्रमशः सागरोपम और कुछ अधिक सागरोपम है।
यहाँ भवनपतिनिकाय की उत्कृष्ट स्थिति बतलाई गई है, क्योकि जघन्यस्थिति का वर्णन आगे सूत्र ४५ मे आया है। भवनपतिनिकाय के असुरकुमार, नागकुमार आदि दस भेद है । प्रत्येक वर्ग के दक्षिणार्ध के अधिपति और उत्तरार्ध के अधिपति के रूप मे दो-दो इन्द्र है। उनमे से दक्षिण और उत्तर के दो असुरेन्द्रो की उत्कृष्ट स्थिति इस प्रकार है-दक्षिणार्ध के अधिपति चमर नामक असुरेन्द्र की स्थिति एक सागरोपम और उत्तरार्ध के अधिपति बलि नामक असुरेन्द्र की स्थिति एक सागरोपम से कुछ अधिक है । असुरकुमार को छोड़कर नागकुमार आदि शेष नौ प्रकार के भवनपति देवो के दक्षिणार्ध के धरण आदि नौ इन्द्रों की स्थिति डेढ़ पल्योपम और उत्तरार्ध के भूतानन्द आदि नौ इन्द्रों की स्थिति पौने दो पल्योपम है । ३०-३२ ।
वैमानिकों की उत्कृष्ट स्थिति सौधर्मादिषु यथाक्रमम् । ३३ । सागरोपमे । ३४। अधिके च । ३५ । सप्त सानत्कुमारे । ३६ ॥ विशेषत्रिसप्तदशैकादशत्रयोदशपञ्चदशभिरधिकानि च । ३७ । आरणाच्युतादूर्ध्वमेकैकेन नवसु प्रैवेयकेषु विजयादिषु सर्वार्थसिद्धे च । ३८॥
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४. ३९-४२ ]
वैमानिक देवों की जधन्य स्थिति
सौधर्म आदि देवलोकों में क्रमशः निम्नोक्त स्थिति है। सौधर्म में स्थिति दो सागरोपम है। ऐशान में स्थिति कुछ अधिक दो सागरोपम है। सानत्कुमार में स्थिति सात सागरोपम है।
माहेन्द्र से आरण-अच्युत तक क्रमशः कुछ अधिक सात सागरोपम, तीन से अधिक सात सागरोपम, सात से अधिक सात सागरोपम, दस से अधिक सात सागरोपम, ग्यारह से अधिक सात सागरोपम, तेरह से अधिक सात सागरोपम, पन्द्रह से अधिक सात सागरोपम स्थिति है।
आरण-अच्युत के ऊपर नौ अवेयक, चार विजयादि और सर्वार्थसिद्ध में स्थिति अनुक्रम से एक-एक सागरोपम अधिक है।
यहाँ वैमानिक देवों की क्रमशः जो स्थिति वर्णित है वह उत्कृष्ट है । पहले स्वर्ग मे दो सागरोपम, दूसरे मे दो सागरोपम से कुछ अधिक, तीसरे मे सात सागरोपम, चौथे में सात सागरोपम से कुछ अधिक, पांचवें मे दस सागरोपम, छठे मे चौदह सागरोपम, सातवें में सत्रह सागरोपम, आठवें मे अठारह सागरोपम, नवें-दसवें मे बीस सागरोपम और ग्यारहवें-बारहवे मे बाईस सागरोपम की स्थिति है । प्रथम प्रैवेयक मे तेईस सागरोपम, दूसरे मे चौबीस सागरोपम, इसी प्रकार एक-एक बढ़ते-बढते नवे प्रैवेयक मे इकतीस सागरोपम की स्थिति है। पहले चार अनुत्तर विमानों में बत्तीस' और सर्वार्थसिद्ध मे तैतीस सागरोपम की स्थिति है। ३३-३८ ।
वैमानिक देवों की जघन्य स्थिति अपरा पल्योपममधिकं च । ३९ । सागरोपमे । ४०। अधिके च । ४१॥
परतः परतः पूर्वा पूर्वाऽनन्तरा । ४२ । अपरा ( जघन्य स्थिति ) पल्योपम और कुछ अधिक पल्योपम की है।
दो सागरोपम की है।
१. दिगम्बर टीकाओ मे और कही-कही श्वेताम्बर ग्रन्थो मे भी विजयादि चार विमानों में उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागरोपम मानी गई है। देखे-इसी अध्याय के सत्र ४२ का भाष्य । संग्रहणी ग्रन्थ मे भी उत्कृष्ट स्थिति तैतीस सागरोपम कही गई है।
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११२
तत्त्वार्थसूत्र
कुछ अधिक दो सागरोपम की है ।
पहले-पहले की उत्कृष्ट स्थिति आगे-आगे की जघन्य स्थिति है ।
सौधर्मादि कल्पो की जघन्य स्थिति क्रमशः इस प्रकार है— पहले स्वर्ग में एक पल्योपम, दूसरे में एक पल्योपम से कुछ अधिक, तीसरे में दो सागरोपम, चौथे में दो सागरोपम से कुछ अधिक, पाँचवें से आगे-आगे सभी देवलोकों में जघन्य स्थिति वही है जो अपनी-अपनी अपेक्षा पूर्व-पूर्व के देवलोकों में उत्कृष्ट स्थिति है । इसके अनुसार चौथे देवलोक की कुछ अधिक सात सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति ही पाँचवें देवलोक मे जघन्य स्थिति है; पाँचवें की दस सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति छठे में जघन्य है, छठे की चौदह सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति सातवें में जघन्य है, सातवें की सत्रह सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति, आठवें में जघन्य है, आठवें की अठारह सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति नवें - दसवें में जघन्य है, नवें -दसर्वे की बीस सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति ग्यारहवें - बारहवे में जघन्य है, ग्यारहवें - बारहवें की बाईस सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति प्रथम ग्रैवेयक में जघन्य है । इसी प्रकार नीचे-नीचे के ग्रैवेयक की उत्कृष्ट स्थिति ऊपर-ऊपर के ग्रैवेयक में जघन्य है । इस क्रम से नवे ग्रैवेयक की जघन्य स्थिति तीस सागरोपम है । चार अनुत्तर विमानों में जघन्य स्थिति इकतीस सागरोपम है । सर्वार्थसिद्ध की उत्कृष्ट और जघन्य स्थिति में कोई अन्तर नही है, वहाँ तैतीस सागरोपम की स्थिति है । ३९-४२ ।
नारकों की जघन्य स्थिति
[ ४. ४३–४४
नारकाणां च द्वितीयादिषु । ४३ ।
दशवर्षसहस्राणि प्रथमायाम् । ४४ ।
नारकों की दूसरी आदि भूमियों में पूर्व-पूर्व की उत्कृष्ट स्थिति ही अनन्तर- अनन्तर की जघन्य स्थिति है ।
पहली भूमि मे जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष की है ।
सूत्र ४२ मे देवो की जघन्य स्थिति का जो क्रम है वही क्रम दूसरी से लेकर सातवी भूमि तक के नारकों को जघन्य स्थिति का है । इसके अनुसार पहली भूमि की एक सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति दूसरी की जघन्य स्थिति है । दूसरी की तीन सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति तीसरी की जघन्य है । तीसरी की सात सागरोपम उत्कृष्ट स्थिति चौथी की जघन्य है । चौथी की दस सागरोपम उत्कृष्ट स्थिति पाँचवी की जघन्य है । पाँचदी की सत्रह सागरोपम उत्कृष्ट स्थिति छठी की जघन्य है । छठी की बाईस सागरोपम उत्कृष्ट स्थिति सातवी की जघन्य है । पहली भूमि मे नारकों की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष की है । ४३-४४ ।
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४. ४५-५३] भवनपति, व्यन्तर तथा ज्योतिष्कों की स्थिति ११३
भवनपतियों की जघन्य स्थिति
भवनेषु च । ४५ ॥ भवनपतियों की भी जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष ही है।
व्यन्तरों की स्थिति व्यन्तराणां च । ४६ ।
परा पल्योपमम् । ४७ ॥ व्यन्तर देवों की भी जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष ही है। उत्कृष्ट स्थिति एक पल्योपम प्रमाण है । ४६-४७ ।
ज्योतिष्कों की स्थिति ज्योतिष्काणामधिकम् । ४८ । ग्रहाणामेकम् । ४९ । नक्षत्राणामर्धम् । ५०। तारकाणां चतुर्भागः । ५१। जघन्या त्वष्टभागः। ५२ ॥
चतुर्भागः शेषाणाम् । ५३ । ज्योतिष्क अर्थात् सूर्य व चन्द्र की उत्कृष्ट स्थिति कुछ अधिक एक पल्योपम प्रमाण है।
ग्रहों की उत्कृष्ट स्थिति एक पल्योपम है। नक्षत्रों की उत्कृष्ट स्थिति अर्ध पल्योपम है । तारों को उत्कृष्ट स्थिति पल्योपम का चतुर्थाश है । जघन्य स्थिति पल्योपम का अष्टमांश है।
शेष ज्योतिष्कों अर्थात् ग्रहों व नक्षत्रों की ( तारों को छोड़कर ) जघन्य स्थिति पल्योपम का चतुर्थांश है । ४८-५३ ।
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अजीव
द्वितीय से चतुर्थ अध्याय तक जीव तत्त्व का निरूपण हुआ। प्रस्तुत अध्याय मे अजीव तत्त्व का निरूपण किया जा रहा है ।
अजीव के भेद ___अजीवकाया धर्माधर्माकाशपुद्गलाः । १। धर्मास्तिकाय,अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय ये चार अजीवकाय है।
निरूपणनियम के अनुसार पहले लक्षण का और फिर भेदों का कथन होना चाहिए, फिर भी यहाँ सूत्रकार ने अजीव तत्त्व का लक्षण न बतलाकर उसके भेदों का कथन किया है । इसका आशय यह है कि अजीव का लक्षण जीव के लक्षण से ही ज्ञात हो जाता है, उसका अलग से वर्णन करने की विशेष आवश्यकता नही । अ+जीव अर्थात् जो जीव नही है वह अजीव । जीव का लक्षण उपयोग है। जिसमें उपयोग न हो वह तत्त्व अजीव है। इस प्रकार अजीव का लक्षण उपयोग का अभाव ही फलित होता है ।
अजीव जीव का विरोधी भावात्मक तत्त्व है, केवल अभावात्मक नहीं।
धर्म आदि चार अजीव तत्त्वों को अस्तिकाय कहने का अभिप्राय यह है कि ये तत्त्व एक प्रदेशरूप या एक अवयवरूप नही है, अपितु प्रचय अर्थात् समूहरूप है। धर्म, अधर्म और आकाश ये तीन तत्त्व तो प्रदेशप्रचयरूप है तथा पुद्गल तत्त्व अवयवरूप व अवयवप्रचयरूप है।
अजीव तत्त्व के भेदों मे काल की गणना नही की गई है, क्योंकि काल को तत्त्व मानने में मतभेद है । काल को तत्त्व माननेवाले आचार्य भी उसे केवल प्रदेशात्मक मानते है, प्रदेशप्रचयरूप नही मानते; अतः उनके मत से भी अस्तिकायों के साथ काल का परिगणन युक्त नही है और जो आचार्य काल को स्वतन्त्र तत्त्व नही मानते उनके मत से तो तत्त्व के भेदों में काल का परिगणन सम्भव ही नहीं है।
- ११४ -
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५. २-६ ]
मूल द्रव्य तथा उनका साधर्म्य - वैधर्म्य
प्रश्न- उक्त चार अजीव तत्त्व क्या अन्य दर्शनों में भी मान्य है ?
उत्तर -- नही । आकाश और पुद्गल इन दो तत्त्वों को तो वैशेषिक, न्याय, सांख्य आदि दर्शनों ने भी माना है, परन्तु धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय इन दो तत्त्वों को जैन दर्शन के अतिरिक्त अन्य किसी भी दर्शन ने नही माना है । जिस तत्त्व को जैन दर्शन मे आकाशास्तिकाय कहा गया है उसे जैनेतर दर्शनों मे आकाश कहा गया है । 'पुद्गलास्तिकाय' संज्ञा केवल जैन शास्त्रों मे प्रसिद्ध है । जैनेसर शास्त्रो में पुद्गलस्थानीय तत्त्व प्रधान, प्रकृति, परमाणु आदि शब्दों से व्यवहृत है । १ ।
मूलद्रव्य
द्रव्याणि जीवाश्च । २ ।
धर्मास्तिकाय आदि चार अजीव तत्त्व और जीव ये पांच द्रव्य हैं ।
जैन दृष्टि के अनुसार यह जगत् केवल पर्याय अर्थात् परिवर्तनरूप नही है, किन्तु परिवर्तनशील होने पर भी अनादि-निधन है । इस जगत् में जैन दर्शन के अनुसार अस्तिकायरूप पाँच मूल द्रव्य है, वे ही इस सूत्र में निर्दिष्ट है ।
इस सूत्र तथा आगे के कुछ सूत्रों मे द्रव्यो के सामान्य तथा विशेष धर्म का वर्णन करके उनके पारस्परिक साधर्म्य - वैधर्म्य का वर्णन किया गया है । साधर्म्य अर्थात् समानधर्म ( समानता ) और वैधर्म्य अर्थात् विद्धधर्म ( असमानता ) । इस सूत्र में द्रव्यत्व अर्थात् धर्मास्तिकाय आदि पाँचों के द्रव्यरूप साधर्म्य का विधान है । वैधर्म्य तो गुण या पर्याय का हो सकता है, क्योकि गुण और पर्याय स्वयं द्रव्य नही है । २ ।
I
मूल द्रव्यों का साधर्म्य और वैधर्म्य नित्यावस्थितान्यरूपाणि । ३ ।
रूपिणः पुद्गलाः । ४। rssकाशादेकद्रव्याणि । ५ । निष्क्रियाणि च । ६।
१
उक्त द्रव्य नित्य हैं, स्थिर हैं और अरूपी ( अमूर्तं ) हैं |
पुद्गल रूपी ( मूर्त ) हैं |
११५
१. भाष्य में ‘आ आकाशात्' ऐसा सन्धिरहित पाठ है । दिगम्बर परम्परा में भी सूत्र - पाठ सन्धिरहित ही है।
I
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११६
तत्त्वार्थसूत्र
[ ५. २-६
उक्त पाँच में से आकाश तक के द्रव्य एक-एक हैं। तथा निष्क्रिय है।
धर्मास्तिकाय आदि पाँचों द्रव्य नित्य है और अपने सामान्य तथा विशेष स्वरूप से कदापि च्युत नही होते । पाँचो स्थिर भी है, क्योकि उनकी संख्या मे न्यूनाधिकता नही होती, परन्तु अरूपी तो धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और जीवास्तिकाय ये चार ही द्रव्य है । पुद्गल द्रव्य अरूपी नहीं है। सारांश यह है कि नित्यत्व तथा अवस्थितत्व दोनो ही पाँचो द्रव्यों के साधर्म्य है, परन्तु अरूपित्व पुद्गल के अतिरिक्त शेष चार द्रव्यो का साधर्म्य है ।
प्रश्न-नित्यत्व और अवस्थितत्व के अर्थ मे क्या अन्तर है ?
उत्तर-अपने सामान्य तथा विशेष स्वरूप से च्युत न होना नित्यत्व है और अपने स्वरूप मे स्थिर रहते हुए भी अन्य तत्त्व के स्वरूप को प्राप्त न करना अवस्थितत्व है। जैसे जीव तत्त्व अपने द्रव्यात्मक सामान्य रूप और चेतनात्मक विशेष रूप को कभी नही छोडता, यह उसका नित्यत्व है और अपने इस स्वरूप को न छोडते हुए भी अजीव तत्त्व के स्वरूप को प्राप्त नहीं करता, यह उसका अवस्थितत्व है। सारांश यह है कि स्व-स्वरूप को न त्यागना और पर-स्वरूप को प्राप्त न करना ये दो अश (धर्म) सभी द्रव्यों मे समान है । पहला अंश नित्यत्व और दूसरा अंश अवस्थितत्व कहलाता है । द्रव्यों के नित्यत्वकथन से जगत् की शाश्वतता प्रकट की जाती है और अवस्थितत्वकथन से उनका पारस्परिक असाकर्य प्रकट किया जाता है अर्थात् वे सब परिवर्तनशील होते हुए भी अपने स्वरूप मे सदा स्थित है और एक साथ रहते हुए भी एक-दूसरे के स्वभाव ( लक्षण ) से अस्पृष्ट है । इस प्रकार यह जगत् अनादि-निधन भी है और जगत् के मूल तत्त्वों की संख्या भी समान रहती है।
प्रश्न-जब धर्मास्तिकाय आदि अजीव द्रव्य और तत्त्व है तब उनका कोईन-कोई स्वरूप अवश्य मानना पड़ेगा, फिर उन्हे अरूपी क्यों कहा गया ? ।
उत्तर-यहाँ अरूपी कहने का आशय स्वरूपनिषेध नही है, स्त्ररूप तो धर्मास्तिकाय आदि तत्त्वो का भी होता ही है। उनका कोई स्वरूप न हो तो वे घोडे के सीग की तरह वस्तु ही सिद्ध न हों। यहाँ अरूपित्व के कथन का तात्पर्य रूप का निषेध है । यहाँ रूप का अर्थ मूर्ति है । रूप आदि संस्थान-परिणाम को अथवा रूप, रस, गन्ध और स्पर्श के समुदाय को मूर्ति कहते है जिसका धर्मास्तिकाय आदि चार तत्त्वों में अभाव होता है। यही बात 'अरूपी' पद द्वारा कही गई है। ३।
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५ ७-११ ]
प्रदेशो की संख्या
११७
रूप, मूर्तत्व, मूर्ति ये सब शब्द समानार्थक है । रूप, रस आदि इन्द्रियग्राह्य गुण ही मूर्ति कहे जाते है । पुद्गलो के गुण इन्द्रियग्राह्य है इसलिए पुद्गल ही मूर्त ( रूपी) है । पुद्गल के अतिरिक्त अन्य द्रव्य मूर्त नही है, क्योकि वे इन्द्रियों द्वारा गृहीत नही होते । अतः रूपित्व गुण पुद्गल को छोड़कर धर्मास्तिकाय आदि चार तत्त्वो का वैधर्म्य है।
अतीन्द्रिय होने से परमाणु आदि अनेक सूक्ष्म द्रव्य और उनके गुण इन्द्रियग्राह्य नही है, फिर भी विशिष्ट परिणामरूप अवस्था-विशेष में वे इन्द्रियो द्वारा गृहीत होने की योग्यता रखते है, अतः अतीन्द्रिय होते हुए भी वे रूपी ( मूर्त ) ही है। धर्मास्तिकाय आदि चार अरूपी द्रव्यों मे तो इन्द्रिय-विषय बनने की योग्यता ही नही है । अतीन्द्रिय पुद्गल और अतीन्द्रिय धर्मास्तिकायादि द्रव्यों मे यही अन्तर है । ४ । ___ इन पाँच द्रव्यों मे से आकाश तक के तीन द्रव्य अर्थात् धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय एक-एक इकाईरूप है। इनके दो या दो से अधिक विभाग नही है।
इसी प्रकार तीनों निष्क्रिय ( क्रियारहित ) है। एक इकाई और निष्क्रियता ये दोनो उक्त तीनों द्रव्यों का साधर्म्य और जीवास्तिकाय तथा पुद्गलास्तिकाय का वैधर्म्य है। जीव और पुद्गल द्रव्य की अनेक इकाइयाँ है और वे क्रियाशील भी है । जैन दर्शन मे आत्म द्रव्य को वेदान्त की भाँति एक इकाईरूप नहीं माना गया और साख्य-वैशेषिक आदि सभी वैदिक दर्शनो की तरह उसे निष्क्रिय भी नही माना गया।
प्रश्न-जैन दर्शन के अनुसार सभी द्रव्यों में पर्यायपरिणमन ( उत्पाद-व्यय) माना जाता है । यह परिणमन क्रियाशील द्रव्यों में ही हो सकता है । धर्मास्तिकाय आदि तीन द्रव्यों को निष्क्रिय मानने पर उनमें पर्यायपरिणमन कैसे घटित हो सकेगा?
उत्तर-यहाँ निष्क्रियत्व से अभिप्राय गतिक्रिया का निषेध है, क्रियामात्र का नही । जैन दर्शन के अनुसार निष्क्रिय द्रव्य का अर्थ 'गतिशून्य द्रव्य' है । गतिशून्य धर्मास्तिकाय आदि द्रव्यों मे भी सदृशपरिणमनरूप क्रिया जैन दर्शन को मान्य
प्रदेशों की संख्या असङ्घय याः प्रदेशा धर्माधर्मयोः । ७। जोवस्य । ८॥
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११८
तत्त्वार्थसूत्र
[ ५.७-११
आकाशस्यानन्ताः ।९। सङ्घय याऽसङ्घय याश्च पुद्गलानाम् । १० ।
नाणोः।११। धर्म और अधर्म के प्रदेश असंख्यात है। एक जीव के प्रदेश असख्यात है। आकाश के प्रदेश अनन्त हैं ।
पुदगल द्रव्य के प्रदेश संख्यात, असंख्यात और अनन्त है । अणु ( परमाणु ) के प्रदेश नहीं होते ।
धर्म, अधर्म आदि चार अजोव और जीव इन पाँच द्रव्यो को 'काय' कहकर पहले यह निर्दिष्ट किया गया है कि पाँच द्रव्य अस्तिकाय अर्थात् प्रदेशप्रचयरूप है । परन्तु उनके प्रदेशों की विशेष सख्या यहाँ पहले-पहल दर्शायी गई है ।
धर्मास्तिकाय और अधर्मास्किाय दोनों द्रव्यों के प्रदेश असंख्यात है। प्रदेश अर्थात् एक ऐसा सूक्ष्म अंश जिसके दूसरे अंश की कल्पना भी नही की जा सकती । ऐसे अविभाज्य सूक्ष्म को निरंश-अंश भी कहते है । धर्म व अधर्म ये दोनों द्रव्य एक-एक इकाईरूप है और उनके प्रदेश ( अविभाज्य अंश ) असंख्यातअसंख्यात है। उक्त दोनों द्रव्य ऐसे अखंड स्कन्धरूप है जिनके असंख्यात अविभाज्य सूक्ष्म अंश केवल बुद्धि से कल्पित किये जा सकते है, वे वस्तुभूत स्कन्ध से पृथक नही किये जा सकते ।
जीव द्रव्य इकाईरूप मे अनन्त है। प्रत्येक जीव एक अखंड इकाई है, जो धर्मास्तिकाय की तरह असंख्यात-प्रदेशी है।
आकाश द्रव्य अन्य सब द्रव्यों से बड़ा स्कन्ध है क्योकि वह अनन्तप्रदेशी है ।
पुद्गल द्रव्य के स्कन्ध अन्य चार द्रव्यो की तरह नियत रूप नही है, क्योंकि कोई पुद्गल-स्कन्ध संख्यात प्रदेशों का होता है, कोई असंख्यात प्रदेशों का, कोई अनन्त प्रदेशो का और कोई अनन्तानन्त प्रदेशो का ।
पुद्गल तथा अन्य द्रव्यों मे अन्तर यह है कि पुद्गल के प्रदेश अपने स्कन्ध से अलग-अलग हो सकते है, पर अन्य चार द्रव्यों के अपने प्रदेश अपने-अपने स्कन्ध से अलग नही हो सकते, क्योंकि पुद्गल के अतिरिक्त चारो द्रव्य अमूर्त है, और अमूर्त का स्वभाव है खण्डित न होना । पुद्गल द्रव्य मूर्त है, मूर्त के खंड हो सकते है, क्योकि संश्लेष और विश्लेष के द्वारा मिलने की तथा अलग होने की
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५. १२-१६ ]
द्रव्यों का स्थितिक्षेत्र
शक्ति मर्त द्रव्य में होती है । इसी अन्तर के कारण पुद्गलस्कन्ध के छोटे-बड़े सभी अंशों को अवयव कहते हैं । अवयव अर्थात् अलग होनेवाला अंश ।
परमाणु भी पुद्गल होने से मूर्त है किन्तु उसका विभाग नहीं होता, क्योंकि वह आकाश के प्रदेश की तरह पुद्गल का छोटे-से-छोटा अंश है । परमाणु का परिमाण सबसे छोटा है, अतः वह भी अविभाज्य अंश है ।।
यहाँ परमाणु के खंड या अंश न होने की बात द्रव्य ( इकाई ) रूप से कही गई है, पर्यायरूप से नही। पर्यायरूप में तो उसके भी अंशों की कल्पना की गई है, क्योंकि एक ही परमाणु मे वर्ण, गन्ध, रस आदि अनेक पर्याय है और वे सभी उस द्रव्य के भावरूप अंश ही है। इसलिए एक परमाणु के भी अनेक भावपरमाणु माने जाते है ।
प्रश्न-धर्म आदि के प्रदेश और पुद्गल के परमाणु में क्या अन्तर है ?
उत्तर-परिमाण की दृष्टि से कोई अन्तर नही है। जितने क्षेत्र में परमाणु रह सकता है उसे प्रदेश कहते है । परमाणु अविभाज्य अंश होने से उसके समाने योग्य क्षेत्र भी अविभाज्य ही होगा । अतः परमाणु और तत्परिमित प्रदेशसंज्ञक क्षेत्र दोनों ही परिमाण की दृष्टि से समान है, तो भी उनमें यह अन्तर है कि परमाणु अपने अंशीभूत स्कन्ध से पृथक हो सकता है, परन्तु धर्म आदि द्रव्यों के प्रदेश अपने स्कन्ध से पृथक नही हो सकते ।
प्रश्न-नवें सूत्र में 'अनन्त' पद है उससे पुद्गल द्रव्य के अनेक अनन्त प्रदेश होने का अर्थ तो निकल सकता है, परन्तु अनन्तानन्त प्रदेश होने का अर्थ किस पद से निकाला गया है ?
उत्तर-'अनन्त' पद सामान्य है, वह सब प्रकार की अनन्त संख्याओं का बोध कराता है । अतः उसी से अनन्तानन्त अर्थ प्राप्त हो जाता है । ७-११ ।
द्रव्यों का स्थितिक्षेत्र लोकाकाशेऽवगाहः। १२ । धर्माधर्मयोः कृत्स्ने । १३ । एकप्रदेशादिषु भाज्यः पुद्गलानाम् । १४ । असङ्ख्य यभागादिषु जीवानाम् । १५ ।
प्रदेशसंहारविसर्गाभ्यां प्रदीपवत् । १६ । आधेय ( ठहरनेवाले ) द्रव्यों की स्थिति लोकाकाश में ही है। धर्म और अधर्म द्रव्यों की स्थिति समग्र लोकाकाश में है।
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१२०
तत्त्वार्थसूत्र
[५. १२-१६
पुद्गलों की स्थिति लोकाकाश के एक प्रदेश आदि में विकल्प ( अनिश्चित रूप ) से है ।
जीवों की स्थिति लोक के असख्यातवे भाग आदि में होती है।
क्योकि प्रदीप की भाँति उनके प्रदेशों का सकोच और विस्तार होता है।
जगत् पाँच अस्तिकायरूप है, इसलिए प्रश्न उठता है कि इन अस्तिकायों का आधार ( स्थितिक्षेत्र ) क्या है ? उनका आधार अन्य कोई द्रव्य है अथवा पाँचों मे से ही कोई एक द्रव्य है ? इस प्रश्न का उत्तर यहाँ यह दिया गया है कि आकाश ही आधार है और शेष सब द्रव्य आधेय है। यह उत्तर व्यवहारदृष्टि से है, निश्चयदृष्टि से तो सभी द्रव्य स्वप्रतिष्ठ ( अपने-अपने स्वरूप मे स्थित ) है, एक द्रव्य दूसरे द्रव्य मे तात्त्विक दृष्टि से नही रहता । प्रश्न हो सकता है कि जब धर्म आदि चार द्रव्यों का आधार व्यवहारदृष्टि से आकाश माना गया है तो आकाश का आधार क्या है ? इसका उत्तर यही है कि आकाश का अन्य कोई आधार नहीं है, क्योंकि उससे बड़ा या उसके तुल्य परिमाण का अन्य कोई तत्त्व नहीं है । इस प्रकार व्यवहार एवं निश्चय दोनों दृष्टियों से आकाश स्वप्रतिष्ठ ही है । आकाश को अन्य द्रव्यों का आधार इसीलिए कहा गया है कि वह सब द्रव्यों से महान् है ।
आधेयभूत धर्म आदि चार द्रव्य भी समग्र आकाश मे नही रहते । वे आकाश के एक परिमित भाग में ही स्थित है और आकाश का यह भाग 'लोक' कहलाता है। लोक का अर्थ है पांच अस्तिकाय । इस भाग के बाहर चारो ओर अनन्त आकाश फैला है। उसमें अन्य द्रव्यों की स्थिति न होने से वह भाग अलोकाकाश कहलाता है। यहाँ अस्तिकायो के आधाराधेय सम्बन्ध का विचार लोकाकाश को लेकर ही किया गया है।
धर्म और अधर्म ये दोनों अस्तिकाय ऐसे अखण्ड स्कन्ध है जो सम्पूर्ण लोकाकाश में स्थित है । वस्तुतः अखण्ड आकाश के लोक और अलोक भागो की कल्पना भी धर्म-अधर्म द्रव्य-सम्बन्ध के कारण ही है । जहाँ धर्म-अधर्म द्रव्यो का सम्बन्ध न हो वह अलोक और जहाँ तक सम्बन्ध हो वह लोक ।
पुद्गल द्रव्य का आधार सामान्यतः लोकाकाश ही नियत है, तथापि विशेष रूप से भिन्न-भिन्न पुद्गलों के आधारक्षेत्र के परिमाण मे अन्तर पडता है। पुद्गल द्रव्य धर्म-अधर्म द्रव्य की तरह एक इकाई तो है नही कि उसके एकरूप आधारक्षेत्र की सम्भावना मानी जा सके । भिन्न-भिन्न इकाई होते हुए भी पुद्गलों के परिमाण मे विविधता है, एकरूपता नही है। इसीलिए यहाँ उसके आधार
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५. १२-१६ ]
द्रव्यों क स्थितिक्षेत्र
१२१
का परिमाण अनेकरूप कहा गया है । कोई पुद्गल लोकाकाश के एक प्रदेश मे और कोई दो प्रदेशों मे रहता है । कोई पुद्गल असख्यात प्रदेश परिमित लोकाकाश में भी रहता है । साराश यह है कि आधारभूत क्षेत्र के प्रदेशो को संख्या आधेयभूत पुद्गलद्रव्य के परमाणुओं की संख्या से न्यून या तुल्य हो सकती है, अधिक नही । एक परमाणु एक ही आकाश-प्रदेश मे स्थित रहता है, पर द्व्यणुक एक प्रदेश मे भी ठहर सकता है और दो मे भी । इसी प्रकार उत्तरोत्तर संख्या बढ़ते-बढते त्र्यणुक, चतुरणुक यावत् संख्याताणुक स्कन्ध एक प्रदेश, दो प्रदेश तीन प्रदेश, यावत् संख्यात प्रदेश परिमित क्षेत्र मे ठहर सकते है । संख्याताणुक द्रव्य की स्थिति के लिए असंख्यात प्रदेशवाले क्षेत्र की आवश्यकता नही होती । असंख्याताणुक स्कन्ध एक प्रदेश से लेकर अधिक-से-अधिक अपने बराबर की असंख्यात संख्यावाले प्रदेशों के क्षेत्र मे ठहर सकता है । अन्न्ताणुक और अनन्तानन्ताणुक स्कन्ध भी एक प्रदेश, दो प्रदेश इत्यादि क्रमशः बढते - बढते संख्यात प्रदेश और असंख्यात प्रदेशवाले क्षेत्र मे ठहर सकते हैं । उनकी स्थिति के लिए अनन्त प्रदेशात्मक क्षेत्र आवश्यक नही है । पुद्गल द्रव्य का एक अनन्तानन्त अणुओं का बना हुआ सबसे बडा अचित्त महास्कन्ध भी असंख्यात प्रदेश लोकाकाश मे ही समा जाता है ।
जैन दर्शन के अनुसार आत्मा का परिमाण न तो आकाश की भाँति व्यापक है और न परमाणु की तरह अणु, किन्तु मध्यम माना जाता है । सब आत्माओं का मध्यम परिमाण प्रदेश - संख्या की दृष्टि से समान है, तो भी लम्बाई, चौडाई आदि सबकी समान नही है । इसलिए प्रश्न उठता है कि जीव द्रव्य का आधारक्षेत्र कम-से-कम और अधिक से अधिक कितना है ? इसका उत्तर यह है कि एक जीव का आधारक्षेत्र लोकाकाश के असंख्यातवे भाग से लेकर सम्पूर्ण लोकाकाश तक हो सकता है । यद्यपि लोकाकाश असंख्यात प्रदेश परिमाण है, तथापि असख्यात संख्या के भी असंख्यात प्रकार होने से लोकाकाश के ऐसे असख्यात भागो की कल्पना को जा सकती है जो अंगुलासंख्येय भाग परिमाण हो असंख्यात प्रदेशात्मक ही होता है । कोई एक जीव है, उतने उतने दो भागों मे भी रह सकता है । इस बढ़ते अन्तत. सर्वलोक मे भी एक जीव रह सकता है
। इतना छोटा एक भाग भी उस एक भाग में रह सकता प्रकार एक-एक भाग बढ़तेअर्थात् जीव द्रव्य का छोटे
१. दो परमाणुओ से बना हुआ स्कन्ध द्वणुक, इसी प्रकार तीन परमाणुओं का स्कन्ध व्यणुक, चार परमाणुओं का चतुरणुक, संख्यात परमाणुओं का संख्याताणुक: असंख्यात का असंख्याताणुक, अनन्त का अनन्ताणुक ओर अनन्तानन्त परमाणुजन्य स्कन्ध अनन्तानन्ताणुक ।
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१२२
सस्वार्थसूत्र
[५. १२-१६
से-छोटा आधारक्षेत्र अंगुलासंख्येय भाग परिमाण होता है, जो समन लोकाकाश का असंख्यातवाँ भाग है। उसी जीव का कालान्तर में अथवा उसी समय जीवान्तर का कुछ बडा आधारक्षेत्र उक्त भाग से दुगुना भी होता है। इसी प्रकार उसी जीव का या जीवान्तर का आधारक्षेत्र उक्त भाग से तिगुना, चौगुना, पाँचगुना आदि क्रमशः बढ़ते-बढते कभी असख्यातगुना अर्थात् सर्व लोकाकाश हो सकता है । एक जीव का आधारक्षेत्र सर्व लोकाकाश तभी सम्भव है जब वह जीव केवलिसमुद्घात की स्थिति मे हो। जीव के परिमाण की न्यूनाधिकता के अनुसार उसके आधारक्षेत्र के परिमाण की न्यूनाधिकता एक जीव की अपेक्षा से कही गई है। सर्व जीवराशि की अपेक्षा से तो जीव तत्त्व का आधारक्षेत्र सम्पूर्ण लोकाकाश ही है।
अब प्रश्न यह उठता है कि एक जीव द्रव्य के परिमाण मे कालभेदगत जो न्यूनाधिकता है, या तुल्य प्रदेशवाले भिन्न-भिन्न जीवों के परिमाण मे एक ही समय मे जो न्यूनाधिकता है, उसका कारण क्या है ? यहाँ इसका उत्तर यह है कि अनादि काल से जीव के साथ लगा हुआ कार्मणशरीर जो कि अनन्तानन्त अणुप्रचयरूप होता है, उसके सम्बन्ध से एक ही जीव के परिमाण मे या नाना जीवों के परिमाण मे विविधता आती है। कार्मणशरीर सदा एक-सा नही रहता। उसके सम्बन्ध से औदारिक आदि जो अन्य शरीर प्राप्त होते है वे भी कार्मण के अनुसार छोटे-बड़े होते है । जीव द्रव्य वस्तुतः है तो अमूर्त, पर वह शरीरसम्बन्ध के कारण मूर्तवत् बन जाता है। इसलिए जब जितना बड़ा शरीर उसे प्राप्त होता है । तब उसका परिमाण उतना हो जाता है ।
धर्मास्तिकाय आदि द्रव्यों की भांति जीव द्रव्य भी अमूर्त है, फिर एक का परिमाण नही घटता-बढता और दूसरे का घटता-बढता है ऐसा क्यो ? इसका कारण स्वभावभेद के अतिरिक्त और कुछ नही है । जीव तन्ध का स्वभाव निमित्त मिलने पर प्रदीप की तरह सकोच और विकास को प्राप्त करना है, जैसे खुले आकाश मे रखे हुए प्रदीप के प्रकाश का कोई एक परिमाण होता है, पर कोठरी मे उसका प्रकाश कोठरी भर ही बन जाता है, कुण्डे के नीचे रखने पर वह कुण्डे के नीचे के भाग को ही प्रकाशित करता है, लोटे के नीचे उसका प्रकाश उतना ही हो जाता है। इसी प्रकार जीव द्रव्य भी संकोच-विकासशील है । वह जब जितना छोटा या बडा शरीर धारण करता है तब उस शरीर के परिमाणानुसार उसके परिमाण में संकोच-विकास हो जाता है।
यहाँ प्रश्न उठता है कि जीव यदि संकोचस्वभाव के कारण छोटा होता है तो वह लोकाकाश के प्रदेशरूप असंख्यातवें भाग से छोटे भाग मे अर्थात् आकाश
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५. १७-१८ ]
कार्य द्वारा धर्म, अधर्म और आकाश के लक्षण
१२३
के एक प्रदेश पर या दो, चार, पाँच आदि प्रदेशों पर क्यो नही समा सकला ? इसी प्रकार यदि उसका स्वभाव विकासशील है तो वह सम्पूर्ण लोकाकाश की तरह अलोकाकाश को भी व्याप्त क्यो नहो करता ? इसका उत्तर यह है कि संकोच की मर्यादा कार्मणशरीर पर निर्भर है । कार्मणशरीर तो किसी भी अंगुलासंख्यात भाग से छोटा हो ही नही सकता, इसलिए जीव का संकोच-कार्य भी वही तक परिमित रहता है। विकास की मर्यादा भी लोकाकाश तक मानी गई है। इसके दो कारण है । पहला तो यह कि जीव के प्रदेश उतने ही है जितने लोकाकाश के है । अधिकसे-अधिक विकास-दशा मे जीव का एक प्रदेश आकाश के एक ही प्रदेश को व्याप्त कर सकता है, दो या अधिक को नही । इसलिए सर्वोत्कृष्ट विकासदशा मे भी वह लोकाकाश के बाहर के भाग को व्याप्त नही करता । दूसरा कारण यह है कि विकास करना गति का कार्य है और गति धर्मास्ति काय के बिना नहीं हो सकती, अत. लोकाकाश के बाहर जीव के फैलने का कोई कारण ही नही है ।
प्रश्न-असंख्यात प्रदेशवाले लोकाकाश मे शरीरधारी अनन्त जीव कैसे समा सकते है ?
उत्तर--सूक्ष्मभाव में परिणत होने से निगोद-शरीर से व्याप्त एक ही आकाशक्षेत्र मे साधारणशरीरी अनन्त जीव एक साथ रहते है और मनुष्य आदि के एक औदारिक शरीर के ऊपर तथा अन्दर अनेक संमूछिम जीवों की स्थिति देखने मे आती है । इसलिए लोकाकाश मे अनन्तानन्त जीवो का समावेश असंमत नही है ।
यद्यपि पुद्गल द्रव्य अनन्तानन्त और मूर्त है, तथापि उनका लोकाकाश मे समा जाने का कारण यह है कि पुद्गलो मे सूक्ष्म रूप से परिणत होने की शक्ति है । जब ऐसा परिणमन होता है तब एक ही क्षेत्र मे एक-दूसरे को व्याघात पहुँचाए बिना अनन्तानन्त परमाणु और अनन्तानन्त स्कन्ध स्थान पा सकते है, जैसे एक ही स्थान मे हजारों दोपको का प्रकाश व्याधात के बिना समा जाता है । मूर्त होने पर भी पुद्गल द्रव्य व्याघातशील तभी होता है जब वह स्थूलभाव मे परिणत हो । सूक्ष्मत्वपरिणामदशा मे वह न किसी को व्याघात पहुंचाता है और न स्वयं किसी से व्याघातित होता है । १२-१६ ।
कार्य द्वारा धर्म, अधर्म और आकाश के लक्षण गतिस्थित्युपग्रहो' धर्माधर्मयोरुपकारः । १७ ।
आकाशस्यावगाहः । १८ । १. 'गतिस्थित्युपग्रहो' पाठ भी कही-कही मिलता है, तथापि भाष्य के अनुसार 'गतिस्थित्युपग्रहो' पाठ अधिक संगत प्रतीत होता है। दिगम्बर परम्परा मे तो 'गतिस्थित्युपग्रहौ' पाठ ही निर्विवाद रूप में प्रचलित है ।
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तत्त्वार्थ सूत्र
[ ५.१७-१८
गति और स्थिति में निमित्त बनना क्रमश धर्म और अधर्म द्रव्यों का कार्य है ।
१२४
अवकाश में निमित्त होना आकाश का कार्य है ।
धर्म, अधर्म और आकाश तीनों द्रव्य अमूर्त है अतः इन्द्रियगम्य नही है । इसलिए इनकी सिद्धि लौकिक प्रत्यक्ष द्वारा सम्भव नही | आगम प्रमाण से इनका अस्तित्व मान्य है, फिर भी आगम-पोषक ऐसी युक्ति भी है जो उक्त द्रव्यों के अस्तित्व को सिद्ध करती है । जगत् में गतिशील और गतिपूर्वक स्थितिशील जीव और पुद्गल ये दो पदार्थ है । गति और स्थिति इन दोनो द्रव्यों के परिणाम व कार्य है और उन्ही से पैदा होते है अर्थात् गति और स्थिति के उपादान कारण जीव और पुद्गल ही है, तो भी कार्य की उत्पत्ति में अपेक्षित निमित्त कारण तो उपादान कारण से भिन्न ही सम्भव है । इसीलिए जीव एवं पुद्गल की गति में निमित्त रूप से धर्मास्तिकाय की और स्थिति में निमित्त रूप से अधर्मास्तिकाय की सिद्धि हो जाती है । इसी अभिप्राय से शास्त्र मे धर्मास्तिकाय का लक्षण 'गतिशील पदार्थो की गति में निमित्त होना' कहा गया और अधर्मास्तिकाय का लक्षण 'स्थिति में निमित्त होना ।
धर्म, अधर्म, जीव और पुद्गल ये चारों द्रव्य कही न कही स्थित है अर्थात् आधेय बनना या अवकाश प्राप्त करना उनका कार्य है । पर अपने में अवकाश ( स्थान ) देना आकाश का कार्य है । इसीलिए आकाश का लक्षण अवगाह प्रदान करना माना गया है ।
प्रश्न – साख्य, न्याय, वैशेषिक आदि दर्शनो मे आकाश द्रव्य तो माना गया है परन्तु धर्म और अधर्म द्रव्यो को तो अन्य किसी ने नही माना, फिर जैन दर्शन में ही क्यो स्वीकार किया गया है ?
उत्तर- जड़ और चेतन द्रव्य की गतिशीलता तो अनुभव सिद्ध है जो दृश्यादृश्य विश्व के विशिष्ट अग है । कोई नियामक तत्त्व न रहे तो वे द्रव्य अपनी सहज गतिशीलता से अनन्त आकाश मे कही भी चले जा सकते है । सचमुच यदि वे अनन्त आकाश मे चले हो जायें तो इस दृश्यादृश्य विश्व का नियत संस्थान कभी सामान्य रूप से एक-सा दिखाई नही देगा, क्योकि इकाईरूप मे अनन्त पुद्गल और अनन्त जीव अनन्त परिमाण विस्तृत आकाश क्षेत्र मे बेरोकटोक सचार के कारण इस तरह पृथक् हो जायेंगे जिनका पुनः मिलना और नियत सृष्टिरूप मे दिखाई देना असम्भव नहीं तो दुष्कर अवश्य हो जायगा । यही कारण है कि उक्त गतिशील द्रव्यों की गतिमर्यादा के नियामक तत्त्व को जैन दर्शन ने स्वीकार किया है । यही
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५. १९-२० ]
कार्य द्वारा पुद्गल का लक्षण
१२५
तत्त्व धर्मास्तिकाय है । इस तत्त्व को स्वीकार कर लेने पर तुल्य युक्ति से स्थितिमर्यादा के नियामक अधर्मास्तिकाय तत्त्व को भी जैन दर्शन ने स्वीकार कर लिया है।
दिग्द्रव्य के कार्यरूप पूर्व-पश्चिम आदि व्यवहार की उपपत्ति आकाश के द्वारा सम्भव होने से दिग्द्रव्य को आकाश से अलग मानना आवश्यक नही । किंतु धर्म-अधर्म द्रव्यो का कार्य आकाश से सिद्ध नही हो सकता, क्योकि आकाश को गति और स्थिति का नियामक मानने पर वह अनन्त और अखंड होने से जड तथा चेतन द्रव्यो को अपने मे सर्वत्र गति व स्थिति करने से रोक नही सकेगा और इस तरह नियत दृश्यादृश्य विश्व के संस्थान की अनुपपत्ति बनी ही रहेगी। इसलिए धर्म-अधर्म द्रव्यो को आकाश से भिन्न एवं स्वतन्त्र मानना न्यायसंगत है। जब जड़ और चेतन गतिशील है तब मर्यादित आकाशक्षेत्र मे नियामक के बिना उनकी गति अपने स्वभाववश नही मानी जा सकती । इसलिए धर्म-अधर्म द्रव्यों का अस्तित्व युक्तिसिद्ध है । १७-१८ ।
___ कार्य द्वारा पुद्गल का लक्षण शरीरवाङ्मनःप्राणापानाः पुद्गलानाम् । १९ ।
सुखदुःखजीवितमरणोपग्रहाश्च । २० । शरीर, वाणी, मन, निःश्वास और उच्छ्वास ये पुद्गलों के उपकार ( कार्य ) हैं।
सुख, दुःख, जीवन और मरण भी पुद्गलो के उपकार है।
अनेक पौद्गलिक कार्यो मे से कुछ का यहाँ निर्देश किया गया है, जो जीवों पर अनुग्रह-निग्रह करते है। औदारिक आदि सब शरीर पौद्गलिक ही है । कार्मणशरीर अतीन्द्रिय है, किन्तु वह औदारिक आदि मूर्त द्रव्य के सम्बन्ध से सुखदुःखादि विपाक देता है, जैसे जलादि के सम्बन्ध से धान । इसलिए वह भी पौद्गलिक ही है।
भाषा दो प्रकार की है-भावभाषा और द्रव्यभाषा । भावभाषा तो वीर्यान्तराय, मतिज्ञानावरण और श्रुतज्ञानावरण के क्षयोपशम से तथा अंगोपांग नामकर्म के उदय से प्राप्त होनेवाली एक विशिष्ट शक्ति है जो पुद्गल-सापेक्ष होने से पौद्गलिक है और ऐसी शक्तिमान् आत्मा से प्रेरित होकर वचनरूप मे परिणत होनेवाले भाषावर्गणा के स्कन्ध ही द्रव्यभाषा है।
लब्ध तथा उपयोगरूष भावमन पुद्गलाबलम्बी होने से पौद्गलिक है । ज्ञानावरण तथा वीर्यान्तराय के क्षयोपशम से और अंगोपांग नामकर्म के उदय से
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१२६
तत्त्वार्थसूत्र
[५. २१-२२
मनोवर्गणा के जो स्कन्ध गुणदोषविवेचन, स्मरण आदि कार्याभिमुख आत्मा के अनुग्राहक अर्थात् सामर्थ्य के उत्तेजक होते हैं वे द्रव्यमन हैं । इसी प्रकार आत्मा द्वारा उदर से बाहर निकाला जानेवाला निःश्वासवायु ( प्राण ) और उदर के भीतर पहुँचाया जानेवाला उच्छ्वासवायु ( अपान ) ये दोनों पौद्गलिक हैं और जीवनप्रद होने से आत्मा के अनुग्रहकारी हैं।
भाषा, मन, प्राण और अपान इन सबका व्याघात और अभिभव देखने में आता है । इसलिए वे शरीर की भाँति पोद्गलिक ही हैं।
जीव का प्रीतिरूप परिणाम सुख है, जो सातावेदनीय कर्मरूप अन्तरंग कारण और द्रव्य, क्षेत्र आदि बाह्य कारणों से उत्पन्न होता है। परिताप ही दुःख है, जो असातावेदनीय कर्मरूप अन्तरंग कारण और वन्य आदि बाह्य निमित्तों से उत्पन्न होता है ।
आयुकर्म के उदय से देहधारी जीव के प्राण और अपान का चलते रहना जीवित ( जीवन ) है और प्राणापान का उच्छेद मरण है। ये सब सुख, दुःख आदि पर्याय जीवों में पुद्गलों के द्वारा ही उत्पन्न होते हैं । इसलिए वे जीवों के प्रति पौद्गलिक उपकार कहे गए हैं। १९-२० ।
कार्य द्वारा जीव का लक्षण
परस्परोपग्रहो जीवानाम् । २१ । परस्पर के कार्य में निमित्त (सहायक) होना जीवों का उपकार है।
पारस्परिक उपकार करना जीवों का कार्य है। इस सूत्र में इसी का निर्देश है । एक जीव हित-अहित के उपदेश द्वारा दूसरे जीव का उपकार करता है। मालिक पैसे से नौकर का उपकार करता है और नौकर हित या अहित की बात के द्वारा या सेवा करके मालिक का उपकार करता है । आचार्य सत्कर्म का उपदेश करके उसके अनुष्ठान द्वारा शिष्य का उपकार करता है और शिष्य अनुकूल प्रवृत्ति द्वारा आचार्य का उपकार करता है । २१ ।
कार्य द्वारा काल का लक्षण वर्तना परिणामः क्रिया परत्वापरत्वे च कालस्य । २२ । वर्तना, परिणाम, क्रिया और परत्व-अपरत्व ये काल के उपकार हैं।
काल को स्वतन्त्र द्रव्य मानकर यहाँ उसके उपकार गिमाये गए हैं । अपनेअपने पर्याय की उत्पत्ति में स्वयमेव प्रवर्तमाम धर्म मादि द्रव्यों को निमित्तरूप
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५. २१-२२]
कार्य द्वारा काल का लक्षण
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से प्रेरणा करना वर्तना है । स्वजाति का त्याग किये बिना होनेवाला द्रव्य का अपरिस्पन्द पर्याय परिणाम है जो पूर्वावस्था की निवृत्ति और उत्तरावस्था की उत्पत्तिरूप है। ऐसा परिणाम जीव में ज्ञानादि तथा क्रोधादिरूप, पुद्गल में नील-पीत वर्णादिरूप और धर्मास्तिकाय आदि शेष द्रव्यों में अगरुलघु गुण की हानि-वृद्धिरूप है। गति (परिस्पन्द ) ही क्रिया है । ज्येष्ठत्व परत्व है और कनिष्ठत्व अपरत्व । यद्यपि वर्तना आदि कार्य यथासम्भव धर्मास्तिकाय आदि द्रव्यों के ही हैं, तथापि काल सबका निमित्त कारण होने से यहाँ उनका वर्णन काल के उपकाररूप से किया गया है । २२ ।
१. अगुरुलधु शब्द जैन परम्परा में तीन प्रसंगों पर भिन्न-भिन्न अर्थ में व्यवहृत है :
(क) आश्मा के शान-दर्शन आदि जो आठ गुण आठ कर्म से आवार्य (आवरणयोग्य) माने गए है उनमें एक अगुरुलधुत्व नामक आत्मगुण है जो गोत्रकर्म से आवार्य है । गोत्र. कर्म का कार्य जीवन में उच्च-मीच भावं आरोपित करना है। लोकन्यवहार में जीव जन्म, जातिकुल देश, रूपरंप और अन्य अनेक निमित्तों से उच्च या नीच रूप में व्यवहृत होते हैं। परंतु सब आत्माएँ समान हैं, उनमें उच्च-नीचपन नहीं हैं। इस शक्ति और योग्यतामूलक साम्य को स्थिर रखनेवाले सहजगुण या शक्ति को अगुरुलघुत्व कहते हैं।
( ख ) अगुरुलघु-नाम नाम-कर्म का एक भेद है। उसका कार्य आगे नामकर्म की चर्चा में आया है।
(ग) 'क' क्रम पर की गई व्याख्यावाला अगुरुलघुत्व केवल आत्मगत है, जब कि प्रस्तुत अगुरुलधु गुण सभी जीव-अजीव द्रव्यों पर लागू होता है। यदि द्रव्य स्वतः परिणमनशील हो तो किसी समय भी. ऐसा क्यों नहीं होता कि वह द्रव्य अन्य द्रव्यरूप से भी परिणाम को प्राप्त करे ? इसी प्रकार यह प्रश्न भी उटता है कि एक द्रव्य में निहित भिन्न-भिन्न शक्तियाँ (गुण) अपने-अपने परिणाम उत्पन्न करती ही रहती हैं तो कोई एक शक्ति अपने परिणाम की नियतधारा की सीमा से बाहर जाकर अन्य शक्ति के परिणाम को क्यों नहीं पैदा करती ? इसी तरह यह प्रश्न भी उठता है कि एक द्रव्य में जो अनेक शक्तियाँ स्वीकृत की गई हैं वे अपना नियत सहचरत्व छोड़कर बिखर क्यों नहीं जातों ? इन तीनो प्रश्नों का उत्तर अगुरुलघु गुण से दिया जाता है। यह गुण सभी गव्यों में नियामक पद भोगता है, जिससे एक भी द्रव्य द्रव्यान्तर नहीं होता, एक भी गुण गुणान्तर का कार्य नहीं करता और नियत सहभावी परस्पर पृथक नहीं होते। __ अन्थों के सुस्पष्ट आधार के अतिरिक्त भी मैंने अगुरुलघु गुण की अंतिम व्याख्या का विचार किया। मैं इसका समाधान हूँढ़ रहा था। मुझसे जब कोई पूछता तब यह व्याख्या बतला देता। परंतु समाधान प्राप्त करने की जिज्ञासा तो रहती ही थी। प्रस्तुत टिप्पणी लिखते समय एकाएक स्व. पंडित गोपालदासजी बरैया की जैनसिद्धान्तप्रवेशिका पुस्तक मिल गई । इसमें श्रीयुत बरैयाजी ने भी यही विचार व्यक्त किया है। इसलिए यह कहा जा सकता है कि इतने अंश में मेरे इस विचार को समर्थन प्राप्त हुआ । अतएब
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तत्त्वार्थसूत्र
[५. २३-२४
पुद्गल के असाधारण पर्याय स्पर्शरसगन्धवर्णवन्तः पुद्गलाः । २३ । शब्दबन्धसौम्यस्थौल्यसंस्थानभेदतमश्छायाऽऽतपोद्द्योतवन्तश्च । २४ । पुद्गल स्पर्श, रस, गन्ध और वर्णवाले होते हैं।
वे शब्द, बन्ध, सूक्ष्मत्व, स्थूलत्व, सस्थान, भेद, अन्धकार, छाया, आतप और उद्योतवाले भी होते है।
बौद्ध दर्शन में पुद्गल शब्द का व्यवहार जीव के अर्थ मे किया जाता है तथा वैशेषिक आदि दर्शनो मे पृथ्वी आदि मूर्त द्रव्यो को समान रूप से स्पर्श, रस आदि चतुर्गुण युक्त नही माना गया है किन्तु पृथ्वी को चतुर्गुण, जल को गन्धरहित त्रिगुण, तेज को गन्ध-रसरहित द्विगुण और वायु को मात्र स्पर्शगुण युक्त माना गया है। इसी तरह उन्होने मन मे स्पर्श आदि चारों गुण नही माने है । इस प्रकार बौद्ध आदि दर्शनों से मतभेद दर्शाना प्रस्तुत सूत्र का उद्देश्य है। इस सूत्र द्वारा यह प्रकट किया गया है कि जैन दर्शन मे जीव और पुद्गल तत्त्व भिन्न है । इसीलिए पुद्गल शब्द का प्रयोग जीव तत्त्व के लिए नही होता। इसी
मैने यहाँ इसका उल्लेख किया है। विशिष्ट अभ्यासी अविक अन्वेषण करें । स्व० बरैयाजी जैन तत्त्वज्ञान के असाधारण ज्ञाता थे।
ऊपर अगुरुलघु गुण के लिए दी गई युक्ति के समान ही एक युक्ति जैन परम्परा मे मान्य धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय के समर्थन मे दी जाती है। वह तुलनात्मक दृष्टि से जानने योग्य है । जड और चेतन गतिशील होने के कारण आकाश मे चाहे जहाँ न चले जाय इसके लिए उक्त दोनो काय नियामक रूप से माने गए है और कहा गया है कि इनके कारण गतिशील द्रव्यो की गतिस्थिति लोकक्षेत्र तक मर्यादित रहती है। जिस प्रकार ये दोनो काय गतिस्थिति के नियामक माने गए है उसी प्रकार अगुरुलघु गुण को मानना चाहिए।
गतिस्थिति की मर्यादा के लिए गतिस्थितिशील पदार्थी का स्वभाव ही माना जाय या आकाश का ऐसा रत्रभाव माना जाय और उक्त दोनो कायो को न माने तो क्या असंगति है ? ऐसा प्रश्न सहज उठता है । परन्तु यह विषय अहेतुवाद का होने से इसमे केवल सिद्ध का समर्थन करने की बात है। यह विषय हेतुवाद या तर्कवाद का नहीं है कि केवल तर्क से इन कायो को स्वीकार या अस्वीकार किया जाय। अगुरुलघु गुण के समर्थन के विषय मे भी मुख्यरूप से अहेतुवाद का ही आश्रय लेना पडता है। हेतुवाद अन्त मे अहेतुवाद की पुष्टि के लिए ही है, यह स्वीकार किये बिना नहीं चलता। इस प्रकार सब दर्शनो मे कुछ विषय हेतुवाद और अहेतुवाद की मर्यादा मे आ जाते है।
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५. २३-२४ ]
पुद्गल के असाधारण पर्याय
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तरह पृथ्वी, जल, तेज और वायु ये सभी पुद्गल के रूप में समान है अर्थात् ये सभी स्पर्श आदि चतुर्गुण से युक्त है। जैन-दर्शन मे मन भी पौद्गलिक होने से स्पर्श आदि गुणवाला ही है । स्पर्श आठ प्रकार का है-कठिन, मृदु, गुरु, लघु, शीत, उष्ण, स्निग्ध और रूक्ष । रस पाँच है-कडुवा, चरपरा, कसैला, खट्टा और मीठा । गन्ध दो है--सुगन्ध और दुर्गन्ध । वर्ण पाँच है--काला, नीला ( हरा), लाल, पीला और सफेद । इस तरह स्पर्श आदि के कुल बीस भेद है, पर इनमें से प्रत्येक के संख्यात, असंख्यात और अनन्त भेद तरतमभाव से होते है । मृदु तो एक गुण है, पर प्रत्येक मृदु वस्तु की मृदुता मे कुछ-न-कुछ तरतम्ता होती है । इस कारण सामान्य रूप से मृदुत्व का स्पर्श एक होने पर भी तारतम्य के अनुसार उसके संख्यात, असख्यात और अनन्त भेद हो जाते है । यही बात कठिन आदि अन्य स्पर्श तथा रस आदि अन्य गुणों के विषय में है।
शब्द कोई गुण नहीं है, जैसे कि वैशेषिक, नैयायिक आदि दर्शनों में माना जाता है । वह भाषावर्गणा के पुद्गलों का एक विशिष्ट प्रकार का परिणाम है। निमित्त-भेद से उसके अनेक भेद हो जाते है । जो शब्द आत्मा के प्रयत्न से उत्पन्न होता है वह प्रयोगज है और जो किसी के प्रयत्न के बिना ही उत्पन्न होता है वह वैस्रसिक है, जैसे बादलों की गर्जना । प्रयोगज शब्द के छः प्रकार है-१. भाषामनुष्य आदि की व्यक्त और पशु, पक्षी आदि की अव्यक्त ऐसी अनेकविध भाषाएँ, २. तत-चमडे से लपेटे हुए वाद्यों का अर्थात् मृदंग, पटह आदि का शब्द; ३. वितत--तारवाले वीणा, सारंगी आदि वाद्यों का शब्द; ४. घनझालर, घंट आदि का शब्द, ५. शुषिर-फूंककर बजाये जानेवाले शंख, बाँसुरी आदि का शब्द; ६. संघर्ष-लकड़ी आदि के घर्षण से उत्पन्न शब्द ।
परस्पर आश्लेषरूप बन्ध के भी प्रायोगिक और वैस्रसिक ये दो भेद हैं। जीव और शरीर का सम्बन्ध तथा लाख और लकड़ी का सम्बन्ध प्रयत्नसापेक्ष होने से प्रायोगिक बन्ध है । बिजली, मेघ, इन्द्रधनुष आदि का प्रयत्न-निरपेक्ष पौद्गलिक संश्लेष वैनसिक बन्ध है ।
सूक्ष्मत्व और स्थूलत्व के अन्त्य तथा आपेक्षिक ये दो-दो भेद है । जो सूक्ष्मत्व तथा स्थूलत्व दोनों एक ही वस्तु में अपेक्षा-भेद से घटित न हों वे अन्त्य और जो घटित हों वे आपेक्षिक है । परमाणुओं का सूक्ष्मत्व और जगद्-व्यापी महास्कन्ध का स्थूलत्व अन्त्य है, क्योंकि अन्य पुद्गल की अपेक्षा परमाणुओं मे स्थूलत्व और महास्कन्ध में सूक्ष्मत्व घटित नही होता । द्वयणुक आदि मध्यवर्ती स्कन्धों के सूक्ष्मत्व व स्थूलत्व दोनों आपेक्षिक है, जैसे आँवले का सूक्ष्मत्व और बिल्व का स्थूलत्व । आँवला बिल्व से छोटा है अतः सूक्ष्म है और बिल्व आंवले से बड़ा है अतः स्थूल
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१३०
तत्त्वार्थ सूत्र
[ ५. २३-२४
है । परन्तु वही आँवला बेर की अपेक्षा स्थूल है और वही बिल्व कूष्माण्ड की अपेक्षा सूक्ष्म है । इस तरह जैसे आपेक्षिक होने से एक ही वस्तु विरुद्ध पर्याय होते हैं, वैसे अन्त्य सूक्ष्मत्व और स्थूलत्व एक वस्तु मे नही होते ।
सूक्ष्मत्व-स्थूलत्व दोनों
संस्थान इत्थंत्व और अनित्थंत्व दो प्रकार का है । जिस आकार की किसी के साथ तुलना की जा सके वह इत्थंत्वरूप है और जिसकी तुलना न की जा सके वह अनित्थं स्वरूप है । मेघ आदि का संस्थान ( रचना - विशेष ) अनित्थंत्वरूप है, क्योंकि अनियत होने से किसी एक प्रकार से उसका निरूपण नही किया जा सकता और अन्य पदार्थो का संस्थान इत्थंत्वरूप है, जैसे गेंद, सिंघाडा आदि । गोल, त्रिकोण, चतुष्कोण, दीर्घ, परिमण्डल ( वलयाकार ) आदि रूप मे इत्थंत्वरूप संस्थान के अनेक भेद है ।
एकत्व अर्थात् स्कन्धरूप में परिणत पुद्गलपिण्ड का विश्लेष ( विभाग ) होना भेद है । इसके पाँच प्रकार है- १. औत्करिक - चीरे या खोदे जाने पर होने वाला लकड़ी, पत्थर आदि का भेदन; २. चौणिक - कण-कण रूप से चूर्ण हो जाना, जैसे जौ आदि का सत्तू, आटा आदि; ३ खण्ड-टुकड़े-टुकड़े होकर टूट जाना, जैसे घड़े का कपालादि; ४. प्रतर - परतें या तो निकलना, जैसे अभ्रक, भोजपत्र आदि; ५. अनुतट - छाल निकलना, जैसे बाँस, ईख आदि ।
तम अर्थात् अन्धकार, जो देखने मे रुकावट डालनेवाला, प्रकाश का विरोधी एक परिणाम विशेष है ।
छाया प्रकाश के ऊपर आवरण आ जाने से होती है । इसके दो प्रकार हैदर्पण आदि स्वच्छ पदार्थो मे पड़नेवाला बिम्ब जिसमे मुखादि का वर्ण, आकार आदि ज्यों-का-त्यों दिखाई देता है और अन्य अस्वच्छ वस्तुओं पर पड़नेवाली परछाई प्रतिबिम्बरूप छाया है ।
सूर्य आदि का उष्ण प्रकाश आतप और चन्द्र, मणि, खद्योत आदि का अनुष्ण ( शीतल ) प्रकाश उद्योत है ।
स्पर्श आदि तथा शब्द आदि उपर्युक्त सभी पर्याय पुद्गल के कार्य होने से पौद्गलिक माने जाते है ।
सूत्र २३ और २४ को अलग करके यह बतलाया गया है कि स्पर्श आदि पर्याय परमाणु और स्कन्ध दोनों में होते है, परन्तु शब्द, बन्ध आदि पर्याय केवल स्कन्ध में होते है । सूक्ष्मत्व यद्यपि परमाणु व स्कन्ध दोनों का पर्याय है, तथापि उसका परिगणन स्पर्श आदि के साथ न करके शब्द आदि के साथ किया गया है वह इसलिए कि प्रतिपक्षी स्थूलत्व पर्याय के साथ उसके कथन का औचित्य है । २३-२४ ।
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५. २५-२७ ] पुद्गल के मुख्य प्रकार व उनकी उत्पत्ति के कारण १३१
पुद्गल के मुख्य प्रकार
अणवः स्कन्धाश्च । २५ ।
पुद्गल परमाणु और स्कन्धरूप हैं ।
पुद्गल द्रव्य इकाईरूप मे अनन्त है और उनका वैविध्य भी अपरिमित है, तथापि आगे के दो सूत्रों में पौद्गलिक परिणाम की उत्पत्ति के भिन्न-भिन्न कारण दर्शाने के लिए यहाँ तदुपयोगी परमाणु और स्कन्ध ये दो प्रकार संक्षेप मे निर्दिष्ट है । सम्पूर्ण पुद्गलराशि का इन दो प्रकारों मे समावेश हो जाता है ।
जो पुद्गल द्रव्य कारणरूप है पर कार्यरूप नही है, द्रव्य परमाणु है, जो नित्य, सूक्ष्म और किसी एक रस, दो स्पर्श से युक्त होता है । ऐसे परमाणु द्रव्य का ज्ञान इन्द्रियो से नही होता । उसका ज्ञान आगम या अनुमान से साध्य है । परमाणु का अनुमान कार्यहेतु से माना गया है। जो-जो पौद्गलिक कार्य दृष्टिगोचर होते है, वे सब सकारण हैं । इसी प्रकार जो अदृश्य अन्तिम कार्य होगा, उसका भी कारण होना चाहिए, वही कारण परमाणु द्रव्य है । उसका कारण अन्य द्रव्य न होने से उसे अन्तिम कारण कहा गया है । परमाणु द्रव्य का कोई विभाग नहीं होता और न हो सकता है। इसलिए उसका आदि, मध्य और अन्त वह स्वयं ही होता है । परमाणु द्रव्य अबद्ध ( असमुदायरूप ) होता है ।
वह अन्त्य द्रव्य है । ऐसा एक गन्ध, एक वर्ण और
स्कन्ध दूसरे प्रकार का पुद्गल द्रव्य है । सभी स्कन्ध बद्ध — समुदायरूप होते है और वे अपने कारणद्रव्य की अपेक्षा से कार्यद्रव्यरूप तथा कार्यद्रव्य की अपेक्षा से कारणद्रव्यरूप है, जैसे द्विप्रदेश आदि स्कन्ध परमाणु आदि के कार्य हैं और त्रिप्रदेश आदि के कारण है । २५ ।
स्कन्ध और अणु की उत्पत्ति के कारण सङ्घातभेदेभ्य उत्पद्यन्ते । २६ । भेदादणुः । २७ ।
संघात से, भेद से और संघात-भेद दोनों से स्कन्ध उत्पन्न होते है । अणु भेद से ही उत्पन्न होता है ।
स्कन्ध ( अवयवी ) द्रव्य की उत्पत्ति तीन प्रकार से होती है । कोई स्कन्ध संघात ( एकत्वपरिणति ) से उत्पन्न होता है, कोई भेद से और कोई एक साथ भेद-संघात दोनों निमित्तों से । जब अलग-अलग स्थित दो परमाणुओं के मिलने पर द्विप्रदेशिक स्कन्ध होता है तब वह संघातजन्य कहलाता है । इसी प्रकार तीन,
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तत्त्वार्थसूत्र
[५. २८
चार, संख्यात, असंख्यात, अनन्त और अनन्तानन्त परमाणुओं के मिलने मात्र से त्रिप्रदेश, चतुष्प्रदेश, संख्यातप्रदेश, असंख्यातप्रदेश, अनन्तप्रदेश तथा अनन्तानन्तप्रदेश स्कन्ध बनते है जो सभी संघातजन्य है । किसी बडे स्कन्ध के टूटने मात्र से जो छोटे-छोटे स्कन्ध होते हैं वे भेदजन्य है। ये भी द्विप्रदेश से अनन्तानन्तप्रदेश तक होते है । जब किसी एक स्कन्ध के टूटने पर उसके अवयव के साथ उसी समय दूसरा कोई द्रव्य मिल जाने से नया स्कन्ध बनता है तब वह स्कन्ध भेद-सघातजन्य कहलाता है। ऐसे स्कन्ध भी द्विप्रदेश से लेकर अनन्तानन्तप्रदेश तक हो सकते है । दो से अधिक प्रदेशवाले स्कन्ध जैसे तीन, चार आदि अलग-अलग परमाणुओं के मिलने से भी त्रिप्रदेश, चतुष्प्रदेश आदि स्कन्ध होते है और द्विप्रदेश स्कन्ध के साथ एक परमाणु मिलने से भी त्रिप्रदेश तथा द्विप्रदेश या त्रिप्रदेश स्कन्ध के साथ अनुक्रम से दो या एक परमाणु मिलने से भी चतुष्प्रदेश स्कन्ध बनता है।
अणु द्रव्य किसी द्रव्य का कार्य नहीं है, इसलिए उसकी उत्पत्ति मे दो द्रव्यों का संघात सम्भव नही । यों तो परमाणु नित्य माना गया है, तथापि यहाँ उसकी उत्पत्ति पर्यायदृष्टि से कही गई है, अर्थात् परमाणु द्रव्यरूप मे तो नित्य ही है, पर पर्यायदृष्टि से जन्य भी है। परमाणु का कभी स्कन्ध का अवयव बनकर सामुदायिक अवस्था मे रहना और कभी स्कन्ध से अलग होकर विशकलित अवस्था में रहना ये सभी परमाणु के पर्याय ( अवस्थाविशेष ) है । विशकलित अवस्था स्कन्ध के भेद से ही उत्पन्न होती है । इसलिए यहाँ भेद से अणु की उत्पत्ति के कथन का अभिप्राय इतना ही है कि विशकलित अवस्थावाला परमाणु भेद का कार्य है, शुद्ध परमाणु नही । २६-२७ ।
अचाक्षुष स्कन्ध के चाक्षुष बनने मे हेतु
भेदसंघाताभ्यां चाक्षुषाः । २८ । भेद और संघात से ही चाक्षुष स्कन्ध बनते हैं। अचाक्षुष स्कन्ध निमित्त पाकर चाक्षुष बन सकता है, इसी का निर्देश इस सूत्र
पुद्गल के परिणाम त्रिविध है, अतः कोई पुद्गल-स्कन्ध अचाक्षुष (चक्षु से अग्राह्य ) होता है तो कोई चाक्षुष ( चक्षु-ग्राह्य ) । जो स्कन्ध पहले सूक्ष्म होने से अचाक्षुष हो वह निमित्तवश सूक्ष्मत्व परिणाम छोडकर बादर (स्थूल ) परिणामविशिष्ट बनने से चाक्षुष हो सकता है। उस स्कन्ध के ऐसा होने मे भेद तथा संघात दोनों हेतु अपेक्षित हैं । जब किसी स्कन्ध में सूक्ष्मत्व परिणाम की निवृत्ति
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५. २८ ]
अचाक्षुष स्कन्ध के चाक्षुष बनने मे हेतु
१३३
से स्थूलत्व परिणाम उत्पन्न होता है तब कुछ नये अणु उस स्कन्ध मे मिल जाते है । मिलते ही नही, कुछ अणु उस स्कन्ध से अलग भी हो जाते है | सूक्ष्मत्व परिणाम की निवृत्तिपूर्वक स्थूलत्व परिणाम की उत्पत्ति न केवल संघात अर्थात् अणुओं के मिलने मात्र से होती है और न केवल भेद अर्थात् अणुओ के अलग होने मात्र से । स्थूलत्व ( बादरत्व ) परिणाम के अतिरिक्त कोई स्कन्ध चाक्षुष होता ही नही । इसीलिए यहाँ नियमपूर्वक कहा गया है कि चाक्षुष स्कन्ध भेद और संघात दोनों से बनता है ।
'भेद' शब्द के दो अर्थ है- - १. स्कन्ध का टूटना अर्थात् उसमे से अणुओं का अलग होना और २. पूर्व - परिणाम निवृत्त होने से दूसरे परिणाम का उत्पन्न होना । इनमे से पहले अर्थ के अनुसार ऊपर सूत्रार्थ लिखा गया है । दूसरे अर्थ के अनुसार सूत्र की व्याख्या इस प्रकार है—– जब कोई सूक्ष्म स्कन्ध नेत्र-ग्राह्य बादर परिणाम को प्राप्त करता है, अर्थात् अचाक्षुष न रहकर चाक्षुष बनता है, तब उसके ऐसा होने मे स्थूल परिणाम अपेक्षित है जो विशिष्ट अनन्ताणु संख्या ( संघात ) सापेक्ष है । केवल सूक्ष्मत्वरूप पूर्व - परिणाम की निवृत्तिपूर्वक नवीन स्थूलत्व - परिणाम चाक्षुष बनने का कारण नही और केवल विशिष्ट अनन्त संख्या भी चाक्षुष बनने में कारण नही, किन्तु परिणाम ( भेद ) और उक्त संख्या संघात दोनों ही स्कन्ध के चाक्षुष बनने कारण है ।
यद्यपि सूत्रगत 'चाक्षुष' पद से तो चक्षु ग्राह्य स्कन्ध का ही बोध होता है, तथापि यहाँ चक्षु पद से समस्त इन्द्रियो का लाक्षणिक बोध अभिप्रेत है । तदनुसार सूत्र का अर्थ यह होता है कि सभी अतीन्द्रिय स्कन्धो के इन्द्रियग्राह्य बनने में भेद और संघात दो ही हेतु अपेक्षित है । पौद्गलिक परिणाम की अमर्यादित विचित्रता के कारण जैसे पहले के अतीन्द्रिय स्कन्ध भी बाद मे भेद तथा संघातरूप निमित्त से इन्द्रियग्राह्य बन जाते है, वैसे ही स्थूल स्कन्ध सूक्ष्म बन जाते हैं । इतना ही नही, पारिणामिक विचित्रता के कारण अधिक इन्द्रियों के द्वारा ग्राह्य स्कन्ध अल्प इन्द्रियग्राह्य बन जाता है । जैसे लवण, हिगु आदि पदार्थ नेत्र, स्पर्शन, रसना और घ्राण इन चारो इन्द्रियो द्वारा ग्राह्य होते हैं, परन्तु जल में गल जाने से केवल रसना और घ्राण इन दो इन्द्रियो से ही ग्रहण हो सकते है ।
प्रश्न – स्कन्ध के चाक्षुष बनने में दो कारण बतलाये गए, पर अचाक्षुष स्कन्ध की उत्पत्ति के कारण क्यों नही बतलाये गए ?
उत्तर — सूत्र २६ मे सामान्य रूप से स्कन्ध मात्र की उत्पत्ति के तीन हेतुओं का कथन है । यहाँ तो केवल विशेष स्कन्ध की उत्पत्ति के अर्थात् अचाक्षुष से
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१३४
तत्त्वार्थसूत्र
[५. २९
चाक्षुष बनने के हेतुओं का विशेष कथन हुआ है । अतः उस सामान्य विधान के अनुसार अचाक्षुष स्कन्ध की उत्पत्ति के तीन ही हेतु होते है। सारांश यह है कि सूत्र २६ के अनुसार भेद, संघात और भेद-संघात इन तीनों हेतुओं से अचाक्षुष स्कन्ध बनते है । २८ ।
'सत्' की व्याख्या
उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत् । २९ । जो उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य इन तीनों से युक्त है वही सत् है ।
'सत' के स्वरूप के विषय मे विभिन्न दर्शनों मे मतभेद है। एक दर्शन' सम्पूर्ण सत् पदार्थ (ब्रह्म) को केवल ध्रुव (नित्य) ही मानता है। दूसरा दर्शन पदार्थ को निरन्वय क्षणिक ( मात्र उत्पाद-विनाशशील ) मानता है। तीसरा दर्शन चेतनतत्त्वरूप सत् को तो केवल ध्रुव ( कूटस्थनित्य ) और प्रकृति तत्त्वरूप सत् को परिणामिनित्य (नित्यानित्य ) मानता है। चौथा दर्शन अनेक सत् पदार्थों मे से परमाणु, काल, आत्मा आदि कुछ सत् तत्त्वों को कूटस्थनित्य और घट-पट आदि कुछ सत् को मात्र उत्पाद-व्ययशील ( अनित्य ) मानता है । परन्तु जैनदर्शन का सत् के स्वरूप से सम्बद्ध मन्तव्य इन मतों से भिन्न है और वही इस सूत्र का विषय है।
जैनदर्शन के अनुसार जो सत् ( वस्तु ) है वह पूर्ण रूप से केवल कूटस्थनित्य या केवल निरन्वयविनाशी या उसका अमुक भाग कूटस्थनित्य और अमुक भाग परिणामिनित्य अथवा उसका कोई भाग मात्र नित्य और कोई भाग मात्र अनित्य नही हो सकता। इसके अनुसार चेतन और जड़, अमूर्त और मूर्त, सूक्ष्म और स्थूल, सभी सत् पदार्थ उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य रूप से त्रिरूप है।
प्रत्येक वस्तु मे दो अंश होते है । एक अंश तो तीनों कालो मे शाश्वत रहता है और दुसरा अंश सदा अशाश्वत होता है । शाश्वत अंश के कारण प्रत्येक वस्तु ध्रोव्यात्मक ( स्थिर ) और अशाश्वत अंश के कारण उत्पाद-व्ययात्मक ( अस्थिर ) कहलाती है। इन दो अंशों मे से किसी एक की ओर दृष्टि जाने और दूसरे की ओर न जाने से वस्तु केवल स्थिररूप या केवल अस्थिररूप प्रतीत होती है । परन्तु दोनो अंशो पर दृष्टि डालने से ही वस्तु का पूर्ण और यथार्थ स्वरूप
१. वेदान्त-ओपनिषदिक शा करमत । २. बौद्ध । ३. सांख्य । ४. न्याय, वैशेषिक ।
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५. ३० ] विरोध-परिहार एवं परिणामिनित्यत्व का स्वरूप १३५ ज्ञात हो सकता है इसलिए दोनों दृष्टियों के अनुसार ही इस सूत्र में सत् ( वस्तु) का स्वरूप प्रतिपादित है । २९ ।
विरोध-परिहार एवं परिणामिनित्यत्व का स्वरूप
तद्भावाव्ययं नित्यम् । ३०। जो अपने भाव से ( अपनी जाति से ) च्युत न हो वही नित्य है।
पिछले सूत्र मे कहा गया कि एक ही वस्तु उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक है अर्थात् स्थिरास्थिर (उभयरूप) है। परन्तु प्रश्न होता है कि यह कैसे सम्भव है ? जो स्थिर है वह अस्थिर कैसे ? जो अस्थिर है वह स्थिर कैसे ? एक ही वस्तु में स्थिरत्व और अस्थिरत्व दोनों अंश शीत-उष्ण की भांति परस्परविरुद्ध होने से एक ही समय मे हो नहीं सकते। इसलिए क्या सत् की उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक व्याख्या विरुद्ध नही है ? इस विरोध के परिहारार्थ जैन दर्शन सम्मत नित्यत्व का स्वरूप प्रतिपादित करना ही इस सूत्र का उद्देश्य है । ____ यदि कुछ अन्य दर्शनों की भाँति जैन दर्शन भी वस्तु का स्वरूप यह मानता कि "किसी भी प्रकार से परिवर्तन को प्राप्त किये बिना ही वस्तु सदा एक रूप में अवस्थित रहती है तो इस कूटस्थनित्यत्व में अनित्यत्व सम्भव न होने से एक ही वस्तु मे स्थिरत्व और अस्थिरत्व का विरोध आता। इसी प्रकार अगर जैन दर्शन वस्तु को मात्र क्षणिक अर्थात् प्रति क्षण उत्पन्न तथा नष्ट होनेवाली मानकर उसका कोई स्थायी आधार न मानता तो भी उत्पाद-व्ययशील अनित्यपरिणाम मे नित्यत्व सम्भव न होने से उक्त विरोध आता । परन्तु जैन दर्शन किसी वस्तु को केवल कूटस्थनित्य या परिणामिमात्र न मानकर परिणामिनित्य मानता है। इसलिए सभी तत्त्व अपनी-अपनी जाति मे स्थिर रहते हुए भी निमित्त के अनुसार परिवर्तन ( उत्पाद-व्यय) प्राप्त करते है। अतएव प्रत्येक वस्तु मे मूल जाति ( द्रव्य) की अपेक्षा से ध्रौव्य और परिणाम की अपेक्षा से उत्पाद-व्यय के घटित होने में कोई विरोध नही है । जैन दर्शन का परिणामिनित्यत्ववाट साख्य दर्शन की तरह केवल जड़ ( प्रकृति ) तक ही सीमित नहीं है, किन्तु वह चेतन तत्त्व पर भी घटित होता है।
सब तत्त्वों में व्यापक रूप से परिणामिनित्यत्ववाद को स्वीकार करने के लिए मुख्य साधक प्रमाण अनुभव है। सूक्ष्म दृष्टि से देखने पर कोई ऐसा तत्त्व अनुभव में नहीं आता जो केवल अपरिणामी हो या मात्र परिमाणरूप हो। बाह्य और आभ्यन्तरिक सभी वस्तुएँ परिणामिनित्य ही प्रतीत होती है । यदि सभी वस्तुएँ मात्र क्षणिक हों तो प्रत्येक क्षण में नई-नई वस्तु उत्पन्न तथा नष्ट होने तथा उसकी
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तत्त्वार्थसूत्र
[५. ३१ कोई स्थायी आधार न होने से उस क्षणिक परिणाम-परम्परा मे सजातीयता का कभी अनुभव नही होगा अर्थात् पहले देखी हुई वस्तु को फिर से देखने पर जो 'यह वही है' ऐसा प्रत्यभिज्ञान होता है वह न होगा, क्योकि जैसे प्रत्यभिज्ञान के लिए उसकी विषयभूत वस्तु का स्थिरत्व आवश्यक है, वैसे ही द्रष्टा आत्मा का स्थिरत्व भी आवश्यक है। इसी प्रकार यदि जड या चेतन तत्त्व मात्र निर्विकार हो तो इन दोनो तत्त्वो के मिश्रणरूप जगत् मे प्रतिक्षण दिखाई देनेवाली विविधता कभी उत्पन्न न होगी। अतः परिणामिनित्यत्ववाद को जैन दर्शन युक्तिसंगत मानता है।
व्याख्यान्तर से सत् का नित्यत्व
तद्भावाव्ययं नित्यम् सत् अपने भाव से च्युत न होने से नित्य है ।
उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक होना ही वस्तुमात्र का स्वरूप है और यही सत् है । सत्-स्वरूप नित्य है अर्थात् वह तीनो कालों मे एक-सा अवस्थित रहता है। ऐसा नहीं है कि किसी वस्तु मे या वस्तुमात्र मे उत्पाद, व्यय तथा ध्रौव्य कभी हो और कभी न हों । प्रत्येक समय में उत्पादादि तीनों अंश अवश्य होते है । यही सत् का नित्यत्व है।
अपनी-अपनी जाति को न छोडना सभी द्रव्यों का ध्रौव्य है और प्रत्येक समय मे भिन्न-भिन्न परिणामरूप से उत्पन्न और नष्ट होना उत्पाद-व्यय है। ध्रौव्य तथा उत्पाद-व्यय का चक्र द्रव्यमात्र में सदा चलता रहता है। उस चक्र मे से कभी कोई अंश लुप्त नहीं होता, यही इस सूत्र में कहा गया है । पूर्व सूत्र में ध्रौव्य का कथन द्रव्य के अन्वयी ( स्थायी ) अंश मात्र को लेकर है और इस सूत्र मे नित्यत्व का कथन उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य इन तीनों अंशों के अविच्छिन्नत्व को लेकर है । यही पूर्व सूत्र में कथित ध्रौव्य और इस सूत्र मे कथित नित्यत्व में अन्तर है । ३० ।
अनेकान्त-स्वरूप का समर्थन
अर्पितानर्पितसिद्धेः । ३१ । प्रत्येक वस्तु अनेकधर्मात्मक है, क्योंकि अर्पित-अर्पणा अर्थात् अपेक्षा-विशेष से और अनर्पित-अनर्पणा अर्थात् अपेक्षान्तर से विरोधी स्वरूप सिद्ध होता है।
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५. ३१ ]
अनेकान्त-स्वरूप का समर्थन : व्याख्यान्तर
१३७
परस्पर विरुद्ध किन्तु प्रमाण-सिद्ध धर्मो का समन्वय एक वस्तु मे कैसे हो सकता है, तथा विद्यमान अनेक धर्मो मे से कभी एक का और कभी दूसरे का प्रतिपादन क्यों होता है, यही इस सूत्र में दर्शाया गया है ।
_ 'आत्मा सत् है' इस प्रतीति या उक्ति मे सत्व का जो भान होता है वह सब प्रकार से घटित नहीं हो सकता । यदि ऐसा हो तो आत्मा चेतना आदि स्व-रूप की भाँति घटादि पर-रूप से भी सत् सिद्ध होगी अर्थात् उसमे चेतना की तरह घटत्व भी भासमान होगा जिससे उसका विशिष्ट स्वरूप सिद्ध ही न होगा। विशिष्ट स्वरूप का अर्थ ही यह है कि वह स्व-रूप से सत् और पर-रूप से असत् है । इस प्रकार अपेक्षा-विशेष से सत्त्व और अपेक्षान्तर से असत्त्व ये दोनो धर्म आत्मा मे सिद्ध होते है । सत्त्व-असत्त्व की भांति नित्यत्व-अनित्यत्व धर्म भी उसमें सिद्ध है। द्रव्य ( सामान्य ) दृष्टि से नित्यत्व और पर्याय (विशेष ) दृष्टि से अनित्यत्व सिद्ध होता है। इसी प्रकार परस्पर विरुद्ध दिखाई देनेवाले, परन्तु अपेक्षाभेद से सिद्ध और भी एकत्व-अनेकत्व आदि धर्मो का समन्वय आत्मा आदि सब वस्तुओं में अबाधित है। इसलिए सभी पदार्थ अनेकधर्मात्मक माने जाते है ।
व्याख्यान्तर
अपितानपितसिद्धेः प्रत्येक वस्तु अनेक प्रकार से व्यवहार्य है, क्योंकि अर्पणा और अनपणा से अर्थात् विवक्षा के अनुसार प्रधान एवं अप्रधान भाव से व्यवहार की सिद्धि ( उपपत्ति ) होती है ।
अपेक्षाभेद से सिद्ध अनेक धर्मों में से भी कभी किसी एक धर्म द्वारा और कभी उसके विरोधी दूसरे धर्म द्वारा वस्तु का व्यवहार होता है जो अप्रामाणिक या बाधित नहीं है, क्योंकि विद्यमान सब धर्म भी एक साथ विवक्षित नहीं होते । प्रयोजनानुसार कभी एक की और कभी दूसरे की विवक्षा होती है। जिस समय जिसकी विवक्षा हो उस समय वह प्रधान और दूसरा अप्रधान होता है। जो कर्म का कर्ता है वही उसके फल का भोक्ता होता है । इस कर्म और तज्जन्य फल के सामान्याधिकरण्य को दिखाने के लिए आत्मा मे द्रव्यदृष्टि से सिद्ध नित्यत्व की विवक्षा की जाती है। उस समय उसका पर्यायदृष्टि से सिद्ध अनित्यत्व विवक्षित न होने से गौण होता है, परन्तु कर्तृत्वकाल की अपेक्षा भोक्तृत्व काल मे आत्मा की अवस्था में परिवर्तन हो जाता है । इस कर्मकालीन और फलकालीन अवस्थाभेद को दिखाने के लिए जब पर्यायदृष्टि से सिद्ध अनित्यत्व का प्रतिपादन किया जाता है तब द्रव्यदृष्टि से सिद्ध नित्यत्व प्रधान नही रहता । इस
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तत्त्वार्थसुत्र
[५. ३२-३५
प्रकार विवक्षा और अविवक्षा के कारण कभी आत्मा को नित्य कहा जाता है और कभी अनित्य । जब दोनों धर्मो की विवक्षा एक साथ की जाती है तब दोनों का युगपत् प्रतिपादन करनेवाला वाचक शब्द न होने के कारण आत्मा को अवक्तव्य कहा जाता है। विवक्षा, अविवक्षा और सहविवक्षा के आश्रित उक्त तीन वाक्यरचनाओं के पारस्परिक विविध मिश्रण से और भी चार वाक्य-रचनाएँ बनती हैं। जैसे नित्य-अनित्य, नित्य-अवक्तव्य, अनित्य-अवक्तव्य और नित्य-अनित्य-अवक्तव्य । इन सात वाक्य-रचनाओं को सप्तभंगी कहा जाता है। इनमें प्रथम तीन वाक्य और इनमें भी दो वाक्य मूलभूत है । जैसे भिन्न-भिन्न दृष्टि से सिद्ध नित्यत्व और अनित्यत्व को लेकर विवक्षावश किसी एक वस्तु में सप्तभंगी घटित की जा सकती है, वैसे और भी भिन्न-भिन्न दृष्टिसिद्ध किन्तु परस्पर विरुद्ध दीखनेवाले सत्त्व असत्त्व, एकत्व-अनेकत्व, वाच्यत्व-अवाच्यत्व आदि धर्मयुग्मों को लेकर सप्तभंगी घटित करनी चाहिए। इस प्रकार एक ही वस्तु अनेकधर्मात्मक एवं अनेक व्यवहारों की विषय मानी गई है । ३१ ।
पौद्गलिक बन्ध के हेतु
स्निग्धरूक्षत्वाद् बन्धः । ३२ । स्निग्धत्व और रूक्षत्व से बन्ध होता है।
पौद्गलिक स्कन्ध की उत्पत्ति उसके अवयवभूत परमाणु आदि के पारस्परिक संयोग मात्र से नहीं होती। इसके लिए संयोग के अतिरिक्त और भी कुछ अपेक्षित होता है। यही इस सूत्र में दर्शाया गया है । अवयवों के पारस्परिक संयोग के उपरान्त उनमें स्निग्धत्व (चिकनापन), रूक्षत्व (रूखापन ) गुण का होना भी आवश्यक है । जब स्निग्ध और रूक्ष अवयव आपस में मिलते है तब उनका बन्ध ( एकत्वपरिणाम ) होता है, इसी बन्ध से द्वचणुक आदि स्कन्ध बनते है ।
स्निग्ध और रूक्ष अवयवो का श्लेष सदृश और विसदृश दो प्रकार का होता है। स्निग्ध का स्निग्ध के साथ और रूक्ष का रूक्ष के साथ श्लेष सदृश श्लेष है । स्निग्ध का रूक्ष के साथ श्लेष विसदृश श्लेष है । ३२ ।
बन्ध के सामान्य विधान के अपवाद
न जघन्यगुणानाम् । ३३ । गुणसाम्ये सदृशानाम् । ३४।
द्वयधिकादिगुणानां तु । ३५ । जघन्य गुण अर्थात् अंशवाले स्निग्ध और रूक्ष अवयवों का बन्ध नहीं होता।
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५. ३२-३५ ]
बन्ध के सामान्य विधान के अपवाद
१३९
समान अंश होने पर सदृश अर्थात् स्निग्ध के साथ स्निग्ध अवयवों का तथा रूक्ष के साथ रूक्ष अवयवों का बन्ध नहीं होता।
दो अंश अधिकवाले आदि अवयवों का बन्ध होता है।
इन सूत्रों में से पहला सूत्र बन्ध का निषेधक है। इसके अनुसार जिन परमाणुओं में स्निग्धत्व या रूक्षत्व का अंश जघन्य हो उन जघन्यगुण परमाणुओं का पारस्परिक बन्ध नही होता। इस निषेध से यह फलित होता है कि मध्यम और उत्कृष्टसंख्यक अंशोंवाले स्निग्ध व रूक्ष सभी अवयवों का पारस्परिक बन्ध हो सकता है । परन्तु इसमे भी अपवाद है, जिसका वर्णन आगे के सूत्र में है। उसके अनुसार समान अंशवाले सदृश अवयवों का पारस्परिक बन्ध नहीं होता। इससे समान अंशोंवाले स्निग्ध तथा रुक्ष परमाणुओं का स्कन्ध नहीं बनता। इस निषेध का भी फलित अर्थ यह है कि असमान गुणवाले सदृश अवयवों का बन्ध होता है । इस फलित अर्थ का संकोच करके तीसरे सूत्र मे सदृश अवयवों के असमान अंशों की बन्धोपयोगी मर्यादा नियत की गई है। तदनुसार असमान अंशवाले सदृश अवयवों मे भी जब एक अवयव का स्निग्धत्व या रूक्षत्व दो अंश, तीन अंश, चार अंश आदि अधिक हो तभी उन दो सदृश अवयवों का बन्ध होता है। इसलिए यदि एक अवयव के स्निग्धत्व या रूक्षत्व की अपेक्षा दूसरे अवयव का स्निग्धत्व या रूक्षत्व केवल एक अंश अधिक हो तो उन दो सदृश अवयवों का बन्ध नहीं होता।
श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं में प्रस्तुत तीनों सूत्रों मे पाठभेद नही है, पर अर्थभेद अवश्य है। अर्थभेद की दृष्टि से ये तीन बातें ध्यान देने योग्य है--- १ जघन्यगुण परमाणु एक संख्यावाला हो, तब बन्ध का होना या न होना, २ सूत्र ३५ के 'आदि' पद से तीन आदि संख्या ली जाय या नही, ३. सूत्र ३५ का बन्धविधान केवल सदृश अवयवों के लिए माना जाय अथवा नही।
१. भाष्य और वृत्ति के अनुसार दोनो परमाणु जब जघन्य गुणवाले हों तभी उनका बन्ध निषिद्ध है, अर्थात् एक परमाणु जघन्यगुण हो और दूसरा जघन्यगुण न हो तभी उनका बन्ध होता है । परन्तु सर्वार्थसिद्धि आदि सभी दिगम्बर व्याख्याओं के अनुसार जघन्यगुण युक्त दो परमाणुओ के पारस्परिक बन्ध की तरह एक जघन्यगुण परमाणु का दूसरे अजघन्यगुण परमाणु के साथ भी बन्ध नहीं होता।
२. भाष्य और वृत्ति के अनुसार सूत्र ३५ के 'आदि' पद का तीन आदि संख्या अर्थ लिया जाता है । अतएव उसमे किसी एक अवयव से दूसरे अवयव मे स्निग्धत्व या रूक्षत्व के अंश दो, तीन, चार तथा बढ़ते-बढ़ते संख्यात, असंख्यात,
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तत्त्वार्थ सूत्र
[ ५. ३२-३५
अनन्त अधिक होने पर भी बन्ध माना जाता है; केवल एक अंश अधिक होने पर बन्ध नही माना जाता । परन्तु सभी दिगम्बर व्याख्याओ के अनुसार केवल दो अंश अधिक होने पर ही बन्ध माना जाता है, अर्थात् एक अंश की तरह तीन, चार और संख्यात, असंख्यात, अनन्त अंश अधिक होने पर बन्ध नही माना जाता ।
१४०
३. भाष्य और वृत्ति के अनुसार सूत्र ३५ में दो, तीन आदि अंशों के अधिक होने पर बन्ध का विधान सदृश अवयवों पर ही लागू होता है, परन्तु दिगम्बर व्याख्याओं में वह विधान सदृश की भांति असदृश परमाणुओं के बन्ध पर भी लागू होता है ।
इस अर्थभेद के कारण दोनों परम्पराओं मे बन्ध विषयक जो विधि-निषेध फलित होता है वह आगे के कोष्ठको से स्पष्ट है :
भाष्य-वृत्त्यनुसार
गुरण-श्रंश
१. जघन्य + जघन्य
२. जघन्य + एकाधिक
३. जघन्य - द्वयधिक
४. जघन्य + त्र्यादि अधिक
५. जघन्येतर + सम जघन्येतर
६. जघन्येतर + एकाधिक जघन्येतर
७. जघन्येतर + द्वयधिक जघन्येतर
८. जघन्येतर + व्यादि अधिक जघन्येतर
गुण-श्रंश
१. जघन्य + जघन्य
२. जघन्य + एकाधिक
३. जघन्य + द्वयधिक
४. जघन्य + त्र्यादि अधिक
५. जघन्येतर + सम जघन्येतर
६. जघन्येतर + एकाधिक जघन्येतर
७. जघन्येतर + द्वयधिक जघन्येतर ८. जघन्येतर + व्यादि अधिक जघन्येतर
सदृश
नहीं
नही
सर्वार्थसिद्धि आदि दिगम्बर व्याख्या-ग्रन्थों के अनुसार
सदृश
नही
नही
नही
नही
नही
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है
नही
नही
The the
the are the
विसदृश
नही
है
नहीं
The the the the the the she
विसदृश
नही
नहीं
नही
नही
नही
नही
है
नही
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५. ३६ ]
परिणाम का स्वरूप
१४१
स्निग्धत्व और रूक्षत्व दोनों स्पर्श-विशेष है । ये अपनी-अपनी जाति की अपेक्षा एक-एक रूप होने पर भी परिणमन की तरतमता के कारण अनेक प्रकार के होते है । तरतमता यहाँ तक होती है कि निकृष्ट स्निग्धत्व और निकृष्ट रूक्षत्व तथा उत्कृष्ट स्निग्धत्व और उत्कृष्ट रूक्षत्व के बीच अनन्तानन्त अशों का अन्तर रहता है, जैसे बकरी और ऊँटनी के दूध के स्निग्धत्व में । स्निग्धत्व दोनों मे ही होता है परन्तु एक मे अत्यल्प होता है और दूसरे मे अत्यधिक । तरतमतावाले स्निग्धत्व और रूक्षत्व परिणामों में जो परिणाम सबसे निकृष्ट अर्थात् अविभाज्य हो उसे जचन्य अंश कहते है । जघन्य को छोडकर शेष सभी जघन्येतर कहे जाते है । जघन्येतर में मध्यम और उत्कृष्ट संख्या आ जाती है । सबसे अधिक स्निग्धत्व परिणाम उत्कृष्ट है और जघन्य तथा उत्कृष्ट के बीच के सभी परिणाम मध्यम है । जघन्य स्निग्धत्व की अपेक्षा उत्कृष्ट स्निग्धत्व अनन्तानन्त गुना अधिक होने से यदि जघन्य स्निग्धत्व को एक अंश कहा जाय तो उत्कृष्ट स्निग्धत्व को अनन्तानन्त अंशपरिमित मानना चाहिए । दो, तीन यावत् संख्यात, असंख्यात, अनन्त और एक कम उत्कृष्ट तक के सभी अंश मध्यम है ।
यहाँ सदृश का अर्थ है स्निग्ध का स्निग्ध के साथ या रूक्ष का रूक्ष के साथ बन्ध होना और विसदृश का अर्थ है स्निग्ध का रूक्ष के साथ बन्ध होना । एक अश जघन्य है और उससे एक अधिक अर्थात् दो अंश एकाधिक है । दो अंश अधिक हों तब द्वयधिक और तीन अंश अधिक हो तब त्र्यधिक। इसी तरह चार अंश अधिक होने पर चतुरधिक यावत् अनन्तानन्त - अधिक कहलाता है । सम अर्थात् समसंख्या । दोनों ओर अशो की संख्या समान हो तब वह सम है । दो अंश जघन्येतर का सम जघन्येतर दो अंश है, दो अंश जघन्येतर का एकाधिक जघन्येतर तीन अंश है, दो अंश जघन्येतर का द्वयधिक जघन्येतर चार अंश है, दो अंश जघन्येतर का त्र्यधिक जघन्येतर पाँच अंश है और चतुरधिक जघन्येतर छः अंश है । इसी प्रकार तीन आदि से अनन्तांश जघन्येतर तक के सम, एकाधिक, द्वयधिक और त्र्यादि अधिक जघन्येतर होते है । ३३-३५ । परिणाम का स्वरूप
बन्धे समाधिक पारिणामिकौ' । ३६ ।
बन्ध के समय सम और अधिक गुण, सम तथा हीन गुण के परिणमन करानेवाले होते हैं ।
१. दिगम्बर परम्परा मे 'बन्धेऽधिको पारिणामिको च' सूत्रपाठ है । तदनुसार एक सम का दूसरे सम को अपने स्वरूप मे मिलाना इष्ट नही है । केवल अधिक का हीन को अपने स्वरूप मे मिला लेना ही इष्ट है ।
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१४२
तत्त्वार्थसूत्र
[५. ३७ प्रश्न-बन्ध के विधि और निषेध का वर्णन तो हुआ, किन्तु जिन सदृश परमाणुओं का या विसदृश परमाणुओं का बन्ध होता है उनमे कौन किसको परिणत करता है ?
उत्तर-समाश स्थल मे सदृश बन्ध तो होता ही नही, विसदृश होता है, जैसे दो अंश स्निग्ध का दो अंश रूक्ष के साथ या तीन अश स्निग्ध का तीन अंश रूक्ष के साथ । ऐसे स्थल मे कोई एक सम दूसरे सम को अपने रूप में परिणत कर लेता है अर्थात् द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के अनुसार कभी स्निग्धत्व रूक्षत्व को स्निग्धत्व मे बदल देता है और कभी रूक्षत्व स्निग्धत्व को रूक्षत्व मे बदल देता है। परंतु अधिकांश स्थल में अधिकांश ही हीनाश को अपने स्वरूप मे बदल सकता है, जैसे पंचाश स्निग्धत्व तीन अंश स्निग्धत्व को अपने रूप में परिणत करता है अर्थात् तीन अंश स्निग्धत्व भी पाँच अंश स्निग्धत्व के सम्बन्ध से पाँच अंश परिमाण हो जाता है। इसी प्रकार पाँच अंश स्निग्धत्व तीन अंश रूक्षत्व को भी स्व-स्वरूप मे मिला लेता है अर्थात् रूक्षत्व स्निग्धत्व मे बदल जाता है। रूक्षत्व अधिक हो तो वह अपने से कम स्निग्धत्व को अपने रूप का बना लेता है । ३६ ।
द्रव्य का लक्षण
गुणपर्यायवद् द्रव्यम् । ३७। द्रव्य गुण-पर्यायवाला है ।
द्रव्य का उल्लेख पहले अनेक बार आया है, इसलिए उसका लक्षण यहाँ बतलाया गया है।
जिसमे गुण और पर्याय हों वह द्रव्य है। प्रत्येक द्रव्य अपने परिणामी स्वभाव के कारण समय-समय मे निमित्तानुसार भिन्न-भिन्न रूप में परिणत होता रहता है अर्थात् विविध परिणामों को प्राप्त करता रहता है । द्रव्य में परिणामजनन को शक्ति ही उसका गुण है और गुणजन्य परिणाम पर्याय है । गुण कारण है और पर्याय कार्य । एक द्रव्य मे शक्ति-रूप अनन्त गुण होते है जो वस्तुतः आश्रयभूत द्रव्य से या परस्पर में अविभाज्य है। प्रत्येक गुण-शक्ति के भिन्न-भिन्न समयों में होनेवाले त्रैकालिक पर्याय अनन्त है । द्रव्य और उसकी अंशभूत शक्तियाँ उत्पन्न तथा विनष्ट न होने से नित्य अर्थात् अनादि-अनन्त है, परन्तु सभी पर्याय प्रतिक्षण उत्पन्न तथा नष्ट होते रहने से व्यक्तिश. अनित्य अर्थात् सादि-सान्त है
और प्रवाह की अपेक्षा से अनादि-अनन्त है । कारणभूत एक शक्ति के द्वारा द्रव्य में होनेवाला त्रैकालिक पर्याय-प्रवाह भी सजातीय है। द्रव्य में अनन्त शक्तियों से तज्जन्य अनन्त पर्याय-प्रवाह भी एक साथ चलते रहते है । भिन्न
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५. ३७ ]
द्रव्य का लक्षण
१४३
भिन्न शक्तिजन्य विजातीय पर्याय एक समय मे एक द्रव्य मे होते है, परन्तु एक शक्तिजन्य भिन्न-भिन्न समयभावी सजातीय पर्याय एक द्रव्य मे एक समय मे नही होते ।।
आत्मा और पुद्गल द्रव्य है, क्योकि उनमे क्रमशः चेतना आदि तथा रूप आदि अनन्त गुण है और ज्ञान-दर्शनरूप विविध उपयोग आदि तथा नील, पीत आदि विविध अनन्त पर्याय है। आत्मा चेतनाशक्ति द्वारा भिन्न-भिन्न उपयोगरूप में और पुद्गल रूपशक्ति द्वारा भिन्न भिन्न नील, पीत आदि के रूप में परिणत होता रहता है। चेतनाशक्ति आत्म द्रव्य से और आत्मगत अन्य शक्तियों से अलग नहीं की जा सकती। इसी प्रकार रूपशक्ति पुद्गल द्रव्य से तथा पुद्गलगत अन्य शक्तियों से पृथक् नही हो सकती । ज्ञान, दर्शन आदि भिन्नभिन्न समयवर्ती विविध उपयोगों के त्रैकालिक प्रवाह की कारणभूत एक चेतनाशक्ति है और उस शक्ति का कार्यभूत पर्याय-प्रवाह उपयोगात्मक है। पुद्गल मे भी कारणभूत रूपशक्ति और नील, पीत आदि विविध वर्णपर्यायप्रवाह उस एक शक्ति का कार्य है । आत्मा मे उपयोगात्मक पर्याय-प्रवाह की तरह सुख-दु.ख वेदनात्मक पर्याय-प्रवाह, प्रवृत्त्यात्मक पर्याय-प्रवाह आदि अनन्त पर्याय-प्रवाह एक साथ चलते है । इसलिए उसमे चेतना की भांति उस-उस सजातीय पर्यायप्रवाह की कारणभूत आनन्द, वीर्य आदि एक-एक शक्ति के मानने से अनन्त शक्तियाँ सिद्ध होती है । इसी प्रकार पुद्गल मे भी रूपपर्याय-प्रवाह की भांति गन्ध, रस, स्पर्श आदि अनन्त पर्याय-प्रवाह सतत चलते है। इसलिए प्रत्येक प्रवाह की कारणभूत एक-एक शक्ति के मानने से उसमे रूपशक्ति की भाँति गन्ध, रस, स्पर्श आदि अनन्त शक्तियाँ सिद्ध होती है । आत्मा मे चेतना, आनन्द, वीर्य आदि शक्तियों के भिन्न-भिन्न विविध पर्याय एक समय मे हो सकते है परन्तु एक चेतनाशक्ति या एक आनन्दशक्ति के विविध उपयोग पर्याय या विविध वेदना पर्याय एक समय मे नही हो सकते, क्योंकि प्रत्येक शक्ति का एक समय मे एक ही पर्याय व्यक्त होता है। इसी प्रकार पुद्गल मे भी रूप, गन्ध आदि भिन्न-भिन्न शक्तियो के भिन्न-भिन्न पर्याय एक समय मे होते है परन्तु एक रूपशक्ति के नील, पीत आदि विविध पर्याय एक समय मे नहीं होते । जिस प्रकार आत्मा और पुद्गल द्रव्य नित्य है उसी प्रकार उनकी चेतना आदि तथा रूप आदि शक्तियाँ भी नित्य है । चेतनाजन्य उपयोग-पर्याय या रूपशक्तिजन्य नील-पीतपर्याय नित्य नही है, किन्तु सदैव उत्पत्ति-विनाशशील होने से इकाई के रूप में अनित्य है और उपयोग-पर्याय-प्रवाह तथा रूप-पर्याय-प्रवाह त्रैकालिक होने से नित्य है ।
अनन्त गुणों का अखंड समुदाय ही द्रव्य है, तथापि आत्मा के चेतना, आनन्द
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१४४
तत्त्वार्थ सूत्र
[ ५. ३८-३९
चारित्र, वीर्य आदि परिमित गुण ही साधारणबुद्धि छद्मस्थ की कल्पना में आते है, सब गुण नही । इसी प्रकार पुद्गल के भी रूप-रस- गन्ध-स्पर्श आदि कुछ ही गुण कल्पना मे आते है, सब गुण नही । कारण यह है कि आत्मा या पुद्गल द्रव्य के समस्त पर्यायप्रवाहों को जानना विशिष्ट ज्ञान के बिना सम्भव नही । जो-जो पर्याय- प्रवाह साधारण बुद्धिगम्य है उनके कारणभूत गुणो का व्यवहार किया जाता है, इसलिए वे गुण विकल्प्य है । आत्मा के चेतना, आनन्द, चारित्र, वीर्य आदि गुण विकल्प्य अर्थात् विचार व वाणी के पुद्गल के रूप आदि गुण विकल्प्य है । शेष सब अविकल्प्य ज्ञानगम्य ही है ।
गोचर है और हैं जो केवल
त्रिकालवर्ती अनन्त पर्यायों के एक-एक प्रवाह की कारणभूत ( गुण ) और ऐसी अनन्त शक्तियों का समुदाय द्रव्य है, यह सापेक्ष है । अभेददृष्टि से पर्याय अपने-अपने कारणभूत गुणस्वरूप स्वरूप होने से द्रव्य गुणपर्यायात्मक ही कहा जाता है ।
द्रव्य में सब गुण समान नही है । कुछ साधारण होते है अर्थात् सब द्रव्यों में पाये जाते है, जैसे अस्तित्व, प्रदेशत्व, ज्ञेयत्व आदि और कुछ असाधारण होते है अर्थात् एक-एक द्रव्य मे पाये जाते है जैसे चेतना, रूप आदि । असाधारण गुण और तज्जन्य पर्याय के कारण ही प्रत्येक द्रव्य एक-दूसरे से भिन्न है ।
धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय द्रव्यों के गुण तथा पर्यायों का विचार भी इसी प्रकार करना चाहिए । यहाँ यह बात ज्ञातव्य है कि पुद्गल द्रव्य मूर्त है, अतः उसके गुण तथा पर्याय गुरु लघु कहे जाते है । परन्तु शेष सब द्रव्य अमूर्त है अतः उनके गुण और पर्याय अगुरुलघु कहे जाते है । ३७ । काल तथा उसके पर्याय
१
कालश्चेत्येके । ३८ । सोऽनन्तसमयः । ३९ ।
कोई आचार्य काल को भी द्रव्य कहते हैं ।
वह अनन्त समयवाला है ।
१. दिगम्बर परम्परा मे 'कालश्च' सूत्रपाठ है । तदनुसार वहाँ काल को स्वतन्त्र द्रव्य माना गया है । वहाँ प्रस्तुत सूत्र को एकदेशीय मत-परक न मानकर सिद्धान्तरूप से ही काल को स्वतन्त्र द्रव्य मानने का सूत्रकार का तात्पर्य बतलाया गया है । जो काल को स्वतन्त्र द्रव्य नही मानते और जो मानते है वे सब अपने-अपने मन्तव्य की पुष्टि किस प्रकार करते है, काल का स्वरूप कैसा बतलाते है, इसमे और भी कितने मतभेद है। इत्यादि बातो को विशेष रूप से जानने के लिए देखे – हिन्दी चौथा कर्मग्रन्थ, कालविषयक परिशिष्ट, पृ० १५७ ।
एक-एक शक्ति कथन भी भेद
और गुण द्रव्य
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५. ४०-४१] गुण तथा परिणाम का स्वरूप
१४५ पहले काल के वर्तना आदि अनेक पर्याय कहे गए है, परन्तु धर्मास्तिकाय आदि की भांति उसमे द्रव्यत्व का विधान नहीं किया गया।' इसलिए प्रश्न उठता है कि क्या पहले विधान न करने से काल द्रव्य नहीं है ? अथवा वर्तना आदि पर्यायों का वर्णन करने से काल की गणना द्रव्य में हो जाती है ? इन प्रश्नों का उत्तर यहाँ दिया जा रहा है।
सूत्रकार कहते है कि कोई आचार्य काल को द्रव्य मानते है। सूत्रकार का सात्पर्य यह प्रतीत होता है कि काल का स्वतन्त्र द्रव्यत्व सर्वसम्मत नहीं है।
काल को स्वतन्त्र द्रव्य माननेवाले आचार्य के मत का निराकरण सूत्रकार ने नहीं किया, उसका उल्लेखमात्र कर दिया है। यहाँ सूत्रकार कहते है कि काल अनन्त पर्यायवाला है। काल के वर्तना आदि पर्यायों का कथन तो पहले हो चुका है। समयरूप पर्याय भी काल के ही है । वर्तमानकालीन समयपर्याय तो एक ही होता है, परन्तु अतीत, अनागत समय के पर्याय अनन्त होते है । इसीलिए काल को अनन्त समयवाला कहा गया है । ३८-:९ ।
गुण का स्वरूप
द्रव्याश्रया निगुणा गुणाः । ४० । जो द्रव्य में सदा रहनेवाले और गुणरहित हैं वे गुण हैं ।
द्रव्य के लक्षण मे गुण का कथन आ गया है, इसलिए यहाँ उसका स्वरूप बतलाया जा रहा है।
पर्याय भी द्रव्य के ही आश्रित और निर्गुण है फिर भी उत्पाद-विनाशशील होने से द्रव्य मे सदा मही रहते, पर गुण तो नित्य होने से सदा द्रव्याश्रित होते है । गुण और पर्याय मे यही अन्तर है।
द्रव्य में सदा वर्तमान शक्तियां ही गुण है, जो पर्याय की जनक मानी जाती है। उन गुणो मे पुन. गुणान्तर या शक्त्यन्तर मानने से अनवस्था दोष आता है, इसलिए द्रव्य निष्ठ शक्तिरूप गुण निर्गुण ही माने गए है । आत्मा के गुण चेतना, सम्यक्त्व, चारित्र, आनन्द, वीर्य आदि और पुमल के गुण रूप, रस, गन्ध, स्पर्श आदि है।
परिणाम का स्वरूप
तिनाबपरिणामः । ४१ । उसका होना अर्थात् स्वरूप में स्थित रहते हुए उत्पन्न तथा नष्ट होना परिणाम है। १. देखें-अ० ५, सू० २२ । २. देखें-अ० ५, स० ३७ ।
१०
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१४६
तत्त्वार्थसुत्र
[५. ४२-४४ पहले कई स्थलो पर परिणाम का भी कथन आ चुका है। अतः यहाँ उसका स्वरूप दर्शाया जा रहा है ।।
बौद्ध दर्शन के अनुसार वस्तुमात्र क्षणस्थायी और निरन्वयविनाशी है । इसके अनुसार परिणाम का अर्थ उत्पन्न होकर सर्वथा नष्ट हो जाना अर्थात् नाश के बाद किसी तत्त्व का स्थित न रहना फलित होता है। नैयायिक आदि भेदवादी दर्शनों के अनुसार-जो कि गुण और द्रव्य का एकान्त भेद मानते है'सर्वथा अविकृत द्रव्य में गुणों का उत्पन्न तथा नष्ट होना' परिणाम का अर्थ फलित होता है । इन दोनों मतों से भिन्न परिणाम के स्वरूप के सम्बन्ध मे जैन दर्शन का मन्तव्यभेद ही इस सूत्र मे दर्शाया गया है।
कोई द्रव्य अथवा गुण सर्वथा अविकृत नही होता। विकृत अर्थात् अवस्थान्तरों को प्राप्त होते रहने पर भी कोई द्रव्य अथवा गुण अपनी मूल जाति ( स्वभाव ) का त्याग नहीं करता । साराश यह है कि द्रव्य या गुण अपनी-अपनी जाति का त्याग किये बिना प्रतिसमय निमित्तानुसार भिन्न भिन्न अवस्थाओं को प्राप्त होते रहते है । यही द्रव्यो तथा गुणो का परिणाम है ।
आत्मा मनुष्य के रूप में हो या पशु-पक्षो के रूप मे, चाहे जिन अवस्थाओं में रहने पर भी उसमे आत्मत्व बना रहता है । इसी प्रकार ज्ञानरूप साकार उपयोग हो या दर्शनरूप निराकार उपयोग, घट-विषयक ज्ञान हो या पट-विषयक, सब उपयोग-पर्यायो मे चेतना बनी ही रहती है । चाहे द्वयणुक अवस्था हो या त्र्यणक आदि, पर उन अनेक अवस्थाओं में भी पुद्गल अपने पुद्गलपन को नहीं छोड़ता। इसी प्रकार शुक्ल रूप बदलकर कृष्ण हो, या कृष्ण बदलकर पीत हो, उन विविध वर्णपर्यायों मे रूपत्व-स्वभाव स्थित रहता है । यही बात प्रत्येक द्रव्य और उसके प्रत्येक गुण के विषय मे है । ४१ ।
परिणाम के भेद तथा आश्रयविभाग
अनादिरादिमांश्च । ४२ । रूपिष्वादिमान् । ४३॥
योगोपयोगी जीवेषु । ४४ । वह अनादि और आदिमान् दो प्रकार का है । रूपी अर्थात् पूद्गलों में आदिमान है।
जीवों में योग और उपयोग आदिमान् हैं। १. देखें-अ० ५, सू० २२, ३६ ।
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५ ४२-४४]
परिणाम के भेद तथा आश्रयविभाग
१४७
जिसके काल को पूर्वकोटि ज्ञात न हो सके वह अनादि तथा जिसके काल को पूर्वकोटि ज्ञात हो सके वह आदिमान् है। अनादि और आदिमान् शब्द का सामान्य रूप से सर्वत्र प्रसिद्ध उक्त अर्थ मान लेने पर द्विविध परिणाम के आश्रय का विचार करते समय यही सिद्धान्त स्थिर होता है कि रूपी या अरूपी सभी द्रव्यों मे अनादि और आदिमान् दोनो प्रकार के परिणाम होते है । प्रवाह की अपेक्षा से अनादि और व्यक्ति की अपेक्षा से आदिमान् परिणाम सबमे समान रूप से घटित किया जा सकता है। ऐसा होने पर भी प्रस्तुत सूत्रों में तथा इनके भाष्य में भी उक्त अर्थ सम्पूर्णतया तथा स्पष्टतया क्यों नहीं निरूपित किया गया ? यह प्रश्न वृत्तिकार ने भाष्य की वृत्ति मे उठाया है और अन्त मे स्वीकार किया है कि वस्तुतः सब द्रव्यों में अनादि तथा आदिमान् दोनों परिणाम होते है । ___सर्वार्थसिद्धि आदि दिगम्बर व्याख्या-ग्रन्थों मे तो सब द्रव्यो मे दोनों प्रकार के परिणाम होने का स्पष्ट निरूपण है और इसका समर्थन भी किया है कि द्रव्यसामान्य की अपेक्षा से अनादि और पर्याय-विशेष की अपेक्षा से आदिमान् परिणाम होता है।
दिगम्बर व्याख्याकारों ने ४२ से ४४ तक के तीन सूत्र मूलपाठ मे न रखकर 'तभाव. परिणामः' सूत्र की व्याख्या में ही परिणाम के भेद और उनके आश्रय का कथन सम्पूर्णतया तथा स्पष्ट रूप मे किया है । इससे ज्ञात होता है कि उनको भी परिणाम के आश्रयविभागपरक प्रस्तुत सूत्रों तथा उनके भाष्य मे अर्थत्रुटि अथवा अस्पष्टता अवश्य प्रतीत हुई होगी। इसीलिए उन्होने अपूर्णार्थक सूत्रों को पूर्ण करने की अपेक्षा अपने वक्तव्य को स्वतन्त्र रूप से कहना ही उचित समझा।
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: ६ :
आस्त्रव
जोव और बेजीवं का निरूपण समाप्त कर अब इस अध्याय में आस्रव का निरूपण किया जाता है ।
योग अर्थात् आस्रव का स्वरूप
कायवाङ्मनः कर्म योगः । १ । । २ ।
S
काय, वचन और मन की क्रिया योग है ।
वही आस्रव है अर्थात् कर्म का सम्बन्ध करानेवाला है ।
वीर्यान्तराय के क्षयोपशम या क्षय से तथा पुद्गलों के आलम्बन से होनेवाले आत्मप्रदेशों के परिस्पन्द ( कम्पनव्यापार ) को योग कहते है । आलम्बनभेद से इसके तीन भेद है— काययोग, बचनयोग और मनोयोग । १ काययोग – औदारि - कादि शरीर वर्गणा के पुद्गलों के आलम्बन से प्रवर्तमान योग; २. वचनयोग-मतिज्ञानावरण, अक्षर- श्रुतावरण आदि कर्मों के क्षयोपशम से उत्पन्न आन्तरिक वालब्धि होने पर भाषावर्गणा के आलम्बन से भाषा-परिणाम के अभिमुख आत्मा का प्रदेश -परिस्पन्द; ३. मनोयोग - नोइन्द्रिय मतिज्ञानावरण के क्षयोपशमरूप आन्तरिक मनोलब्धि होने पर मनोवर्गणा के अवलम्बन से मन परिणाम के अभिमुख आत्मा का प्रदेशकम्पन |
उक्त तीनों प्रकार के योग को ही आस्रव कहते है, क्योंकि योग के द्वारा ही आत्मा मे कर्मवर्गणा का आस्रवण ( कर्मरूप से सम्बन्ध ) होता है । जैसे जलाशय में जल को प्रवेश करानेवाले नाले आदि का मुख आस्रव अर्थात् वहन का निमित्त होने से आस्रव कहा जाता है, वैसे ही कर्मास्रव का निमित्त होने से योग को आस्रव कहते है । १-२ ।
rail
१४८
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१४९
६. ३-४] योग के भेद और उनका कार्यभेद
योग के भेद और उनका कार्यभेद
शुभः पुण्यस्य । ३।
अशुभः पापस्य' । ४। शुभ योग पुण्य का आस्रव (बन्धहेतु) है। अशुभ योग पाप का आस्रव है। काययोग आदि तीनों योग शुभ भी है और अशुभ भी।
योग के शुभत्व और अशुभत्व का आधार भावना की शुभाशुभता है । शुभ उद्देश्य से प्रवृत्त योग शुभ और अशुभ उद्देश्य से प्रवृत्त योग अशुभ है। कार्यकर्मबन्ध की शुभाशुभता-पर योग की शुभाशुभता अवलम्बित नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने से सभी योग अशुभ ही हो जायँगे, कोई योग शुभ न रह जायेगा, जब कि शुभ योग भी आठवें आदि गुणस्थानों में अशुभ ज्ञानावरणीय आदि कर्मों के बन्ध का कारण होता है ।
हिंसा, चोरी, अब्रह्म आदि कायिक व्यापार अशुभ काययोग और दया, दान, ब्रह्मचर्यपालन आदि शुभ काययोग है । सत्य किन्तु सावध भाषण, मिथ्या भाषण, कठोर भाषण आदि अशुभ वाग्योग और निरवद्य सत्य भाषण, मृदु तथा सभ्य आदि भाषण शुभ वाग्योग है । दूसरों की बुराई का तथा उनके वध आदि का चिन्तन करना अशुभ मनोयोग और दूसरों की भलाई का चिन्तन आदि करना तथा उनके उत्कर्ष से प्रसन्न होना शुभ मनोयोग है।
शुभ-योग का कार्य पुण्य प्रकृति का बन्ध और अशुभ-योग का कार्य पापप्रकृति का बन्ध है । प्रस्तुत सूत्रों का यह विधान आपेक्षिक है, क्योंकि संक्लेश ( कषाय ) की मन्दता के समय होनेवाला योग शुभ और संक्लेश की तीव्रता के समय होनेवाला योग अशुभ है। जैसे अशुभ योग के समय प्रथम आदि गुणस्थानों में ज्ञानावरणीय आदि सभी पुण्य-पाप प्रकृतियों का यथासम्भव बन्ध होता
१. सत्र ३ व ४ के स्थान पर 'शुभ पुण्यस्याशुभः पापस्य' यह एक ही सत्र दिगम्बर ग्रन्थो में सत्र ३ के रूप में है। परंतु राजवार्तिक में 'ततः सत्रद्वयमनर्थकम्' उल्लेख प्रस्तुत सत्रो की चर्चा मे मिलता है : देखें--पृष्ठ २४८ वात्तिक ७ की टीका । इस उल्लेख से ज्ञात होता है कि व्याख्याकारों ने दोनों सत्र साथ लिखकर उन पर एक साथ ही व्याख्या की होगी और लिपिकारों या प्रकाशकों ने एक साथ सत्र-पाठ और व्याख्या देखकर दोनों सूत्रों को अलग-अलग न मानकर एक ही सूत्र सम्झ लिया होगा और एक ही संख्या लिख दी होगी।
२. इसके लिए देखें--हिदी चौथा कर्मग्रन्थ, गुणस्थानों मे बन्धविचार; तथा हिंदी दूसरा कर्मग्रन्थ।
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१५०
तत्त्वार्थ सूत्र
[ ६.५
है, वैसे ही छठे आदि गुणस्थानों मे शुभ योग के समय भी सभी पुण्य-पाप प्रकृतियों का यथासम्भव बन्ध होता है । फिर शुभयोग का पुण्य-बन्ध के कारणरूप मे और अशुभयोग का पाप-बन्ध के कारणरूप मे अलग-अलग विधान कैसे सगत हो सकता है ? इसलिए प्रस्तुत विधान मुख्यतया अनुभागबन्ध की अपेक्षा से है । शुभयोग की तीव्रता के समय पुण्य - प्रकृतियो के अनुभाग ( रस ) की मात्रा अधिक और पाप-प्रकृतियो के 'अनुभाग की मात्रा अल्प निष्पन्न होती है । इससे उलटे अशुभयोग की तीव्रता के समय पाप-प्रकृतियो का अनुभागबन्ध अधिक और पुण्य - प्रकृतियो का अनुभागबन्ध अल्प होता है । इसमे जो शुभयोगजन्य पुण्यानुभाग की अधिक मात्रा तथा अशुभयोगजन्य पापानुभाग की अधिक मात्रा है, उसे प्रधान मानकर सूत्रो मे अनुक्रम से शुभयोग को पुण्य का और अशुभयोग को पाप का कारण कहा गया है। शुभयोगजन्य पापानुभाग की अल्प मात्रा और अशुभयोगजन्य पुण्यानुभाग की अल्प मात्रा विवक्षित नही है, क्योकि लोक की भाँति शास्त्र में भी प्रधानतापूर्वक व्यवहार का विधान प्रसिद्ध है ।' ३-४ । स्वामिभेद से योग का फलभेद
सकषायाकषाययोः साम्परायिकेर्यापथयोः । ९ ।
कषायसहित और कषायरहित आत्मा का योग अनुक्रम से साम्परायिक कर्म और ईर्यापथ कर्म का बन्धहेतु ( आस्रव ) होता है ।
जिनमे क्रोध लोभ आदि कषायों का उदय हो वे कषायसहित है और जिनमे न हो वे कषायरहित है । पहले से दसवे गुणस्थान तक के सभी जीव न्यूनाधिक प्रमाण में सकषाय होते है और ग्यारहवे तथा आगे के गुणस्थानवर्ती अकषाय होते है ।
आत्मा का पराभव करनेवाला कर्म साम्परायिक कहलाता है । जैसे गीले चमडे के ऊपर हवा द्वारा पडी हुई रज उससे चिपक जाती है, वैसे ही योग द्वारा आकृष्ट होनेवाला जो कर्म कषायोदय के कारण आत्मा के साथ सम्बद्ध होकर स्थिति पा लेता है वह साम्परायिक कर्म है । सूखी दीवाल के ऊपर लगे हुए लकड़ी के गोले की तरह योग से आकृष्ट जो कर्म कषायोदय न होने से आत्मा के साथ लगकर तुरन्त ही छूट जाता है वह ईर्यापथ कर्म कहलाता है । ईर्यापथ कर्म की स्थिति केवल एक समय की मानी गई है ।
१. 'प्राधान्येन व्यपदेशा भवन्ति' का न्याय । जैसे जहाँ ब्राह्मणो की प्रधानता हो या उनकी संख्या अधिक हो वहाँ अन्य वर्ण के लोगो के होने पर भी वह गाँव ब्राह्मणो का कहलाता है ।
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६. ६) साम्परायिक कर्मास्रव के भेद
१५१ कषायोदयवाली आत्माएँ काययोग आदि तीन प्रकार के शुभ अशुभ योग से जो कर्म बाँधती है वह साम्परायिक अर्थात् कषाय की तीव्रता या मन्दता के अनुसार अधिक या अल्प स्थितिवाला होता है और यथासम्भव शुभाशुभ विपाक का कारण भी। परन्तु कषायमुक्त आत्माएँ तीनो प्रकार के योग से जो कर्म बाँधती है वह कषाय के अभाव के कारण न तो विपाकजनक होता है और न एक समय से अधिक स्थिति ही प्राप्त करता है। एक समय की स्थितिवाले इस कर्म को ईर्यापथिक कहने का कारण यह है कि वह कर्म कषाय के अभाव मे केवल ईर्या ( गमनागमनादि क्रिया) के पथ द्वारा ही बाँधा जाता है । साराश यह है कि तीनों प्रकार का योग समान होने पर भी कषाय न हो तो उपाजित कर्म मे स्थिति या रस का बन्ध नही होता। स्थिति और रस दोनो के बन्ध का कारण कषाय ही है । अतएव कषाय ही संसार की मूल जड़ है । ५ ।
साम्परायिक कर्मास्रव के भेद अव्रतकषायेन्द्रियक्रियाः पञ्चचतुःपञ्चपञ्चविंशतिसंख्याः पूर्वस्य भेदाः।६।
पूर्व के अर्थात् साम्परायिक कर्मास्रव के अव्रत, कषाय, इन्द्रिय और क्रियारूप भेद है जिनकी सख्या क्रमशः पॉच, चार, पॉच और पच्चीस है।
जिन हेतुओ से साम्परायिक कर्म का बन्ध होता है वे साम्परायिक कर्म के आस्रव है । ऐसे आस्रव सकषाय जीवो मे ही होते है। प्रस्तुत सूत्र मे साम्परायिक कर्मास्रव के भेदो का ही कथन है, क्योकि वे कषायमूलक है ।
__ हिंसा, असत्य, चोरी, अब्रह्म और परिग्रह ये पॉच अव्रत है, जिनका निरूपण सातवें अध्याय के सूत्र ८ से १२ तक मे है। क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार कषाय है, जिनका विशेष स्वरूप अध्याय ८, सूत्र १० मे वर्णित है। स्पर्शन आदि पाँच इन्द्रियो का वर्णन अध्याय २, सूत्र २० मे हो चुका है। यहाँ इन्द्रिय का अर्थ राग-द्वेषयुक्त प्रवृत्ति है, क्योकि स्वरूप मात्र से कोई इन्द्रिय कर्मबन्ध का कारण नही होती और न इन्द्रियों की राग-द्वेषरहित प्रवृत्ति ही कर्मबन्ध का कारण होती है।
पच्चीस क्रियाओं के नाम और लक्षण-१. सम्यक्त्वक्रिया--देव, गुरु व शास्त्र की पूजाप्रतिपत्तिरूप होने से सम्यक्त्व पोषक, २. मिथ्यात्वक्रियामिथ्यात्व-मोहनीय कर्म से होनेवाली सराग देव की स्तुति-उपासना आदिरूप, ३. प्रयोगक्रिया-शरीर आदि द्वारा जाने-आने आदि मे कषाययुक्त प्रवृत्ति, ४. समादानक्रिया-त्यागी होते हुए भोगवृत्ति की ओर झुकाव, ५. ईर्यापथक्रियाएक सामयिक कर्म के बन्धन या वेदन की कारणभूत क्रिया ।
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१५२
तत्वार्थसूत्र
[ ६.६
१. कायिकी क्रिया — दुष्टभाव से युक्त होकर प्रयत्न करना अर्थात् किसी काम के लिए तत्पर होना, २. आधिकरणिकी क्रिया - हिंसाकारी साधनों को ग्रहण करना, ३. प्रादोषिकी क्रिया - क्रोध के आवेश से होनेवाली क्रिया, ४ पारितापनिकी क्रिया --- प्राणियों को सतानेवाली क्रिया, ५. प्राणातिपातिकी क्रियाप्राणियों को प्राणों' से वियुक्त करने की क्रिया ।
१. दर्शन क्रिया - रागवश रमणीय रूप को देखने की वृत्ति, २. स्पर्शन क्रिया - प्रमादवश स्पर्श करने योग्य वस्तुओं के स्पर्शानुभव की वृत्ति, ३. प्रात्ययिकी क्रिया - नये शस्त्रों का निर्माण, ४. समन्तानुपातन क्रिया —स्त्री, पुरुष और पशुओं के जाने-आने की जगह पर मल-मूत्र आदि त्यागना, ५. अनाभोग क्रिया - जिस जगह का अवलोकन और प्रमार्जन नहीं किया गया है वहाँ शरीर आदि रखना ।
१. स्वहस्त क्रिया — दूसरे के करने की क्रिया को स्वयं कर लेना, २ . निस क्रिया - पापकारी प्रवृत्ति के लिए अनुमति देना ३ विदार क्रिया दूसरे के किये गए पापकार्य को प्रकट करना, ४ . आज्ञाव्यापादिकी क्रिया - व्रत पालन करने की शक्ति के अभाव मे शास्त्रोक्त आज्ञा के विपरीत प्ररूपणा करना, ५. अनवकांक्ष क्रिया - धूर्तता और आलस्य से शास्त्रोक्त विधि का अनादर करना ।
१. आरम्भ क्रिया-काटने-पीटने और घात करने मे स्वयं रत रहना और are लोगों में वैसी प्रवृत्ति देखकर प्रसन्न होना, २. पारिग्रहिकी क्रिया --- परिह का नाश न होने के लिए की जानेवाली क्रिया, ३. माया क्रिया--ज्ञान, दर्शन आदि के विषय मे दूसरो को ठगना, ४ . मिथ्यादर्शन क्रिया -- मिथ्यादृष्टि के अनुकूल प्रवृत्ति करने-कराने मे निरत मनुष्य को 'तू ठीक करता है' इत्यादि रूप मे प्रशंसा आदि द्वारा मिथ्यात्व मे दृढ करना, ५ . अप्रत्याख्यान क्रिया-संयम घातिकर्म के प्रभाव के कारण पापध्यापार से निवृत्त न होना ।
पाँच-पांच क्रियाओ के उक्त पाँच पञ्चकों में से केवल ईर्यापथिकी क्रिया साम्परायिक कर्म के आसव की कारण नही है, शेष सब क्रियाएँ कषायप्रेरित होने के कारण साम्परायिक कर्म के बन्ध की कारण है । यहाँ उक्त सब क्रियाओं का निर्देश साम्परायिक कर्मास्रव - बाहुल्य की दृष्टि से किया गया है । यद्यपि अव्रत, इन्द्रियप्रवृत्ति और उक्त क्रियाओं की बन्धकारणता रागद्वेष पर अवलम्बित है, इसलिए कस्बुकः रागद्वेष - कषाय ही साम्परायिक कर्म का बन्धकारण है, तथापि कषाय से अम अव्रत आदि का बन्धकारणरूप से कथन सूत्र में इसलिए है कि कषायजन्य कौन
१. पाँच इन्द्रियों, मन-वचन-काय ये तीन बल, उच्छ्वासनिःश्वास और आयु ये दस प्राण है ।
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६. ७ ]
परिणाम-भेद से कर्मबन्ध मे विशेषता
१५३
कौन सी प्रवृत्ति व्यवहार में मुख्यतया दिखाई पड़ती है और संवर के अभिलाषी को कौन-कौन सी प्रवृत्ति रोकने की ओर ध्यान देना चाहिए । ६ ।
बन्ध का कारण समान होने पर भी परिणामभेद से कर्मबन्ध में विशेषता तीव्रमन्दज्ञाताज्ञातभाववीर्याऽधिकरणवि शेषेभ्यस्तद्विशेषः । ७ । तीव्रभाव, मन्दभाव, ज्ञातभाव, अज्ञातभाव, वीर्य और अधिकरण के भेद से उसकी ( कर्मबन्ध की ) विशेषता होनी है ।
प्राणातिपात, इन्द्रियव्यापार और सम्यक्त्वक्रिया आदि उक्त आस्रव ( बन्धकारण ) समान होने पर भी तज्जन्य कर्मबन्ध में किस-किस कारण से विशेषता होती है यही इस सूत्र में प्रतिपादित है ।
बाह्य बन्धकारण समान होने पर भी परिणाम की तीव्रता और मन्दता के कारण कर्मबन्ध भिन्न-भिन्न प्रकार का होता है । जैसे एक ही दृश्य के दो दर्शकों मे से मंद आसक्तिवाले की अपेक्षा तीव्र आसक्तिवाला कर्म का तीव्र बन्ध ही करता है । इच्छापूर्वक प्रवृत्ति करना ज्ञातभाव है और बिना इच्छा के कृत्य का हो जाना अज्ञातभाव है । ज्ञातभाव और अज्ञातभाव मे बाह्य व्यापार समान होने पर भी कर्मबन्ध में अन्तर पडता है । जैसे एक व्यक्ति हरिण को हरिण समझकर बाण से बींध डालता है और दूसरा निशाना साधता तो है किसी निर्जीव पदार्थ पर किन्तु भूल से हरिण बिंध जाता है । भूल से मारनेवाले की अपेक्षा समझपूर्वक मारनेवाले का कर्मबन्ध उत्कट होता है । वीर्य ( शक्तिविशेष ) भी कर्म - बन्ध की विचित्रता का कारण होता है । जैसे द्रान, सेवा आदि शुभ कार्य हो या हिंसा, चोरी आदि अशुभ कार्य, सभी शुभाशुभ कार्य बलवान् मनुष्य जिस सहजता और उत्साहू से कर सकता है, निर्बल मनुष्य वही कार्य बडी कठिनाई से कर पाता है, इसलिए बलवान् की अपेक्षा निर्बल का शुभाशुभ कर्मबन्ध मन्द होता है ।
जीवाजीवरूप अधिकरण के अनेक भेद है । उनकी विशेषता से भी कर्मबन्ध मे विशेषता आती है । जैसे हत्या, चोरी आदि अशुभ और पर-रक्षण आदि शुभ कार्य करनेवाले दो मनुष्यो मे से एक के पास अधिकरण ( शस्त्र ) उग्र हो और दूसरे के पास साधारण हो तो सामान्य शस्त्रधारी की अपेक्षा उग्र शस्त्रवारी का कर्मबन्ध तीव्र होना सम्भव है, क्यं कि उग्र शस्त्र के सन्निधान से उसमें एक प्रकार का तीव्र आवेश रहता है ।
बाह्य कासव की समानता होने पर भी कर्मबन्ध मे असमानता के कारण रूप - से सूत्र में बीर्य, अधिकरण आदि की विशेषता का कथन किया गया है । फिर
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१५४
तत्त्वार्थसूत्र
[६. ८-१०
भी कर्मबन्ध की विशेषता का विशेष निमित्त काषायिक परिणाम का तीव्र-मन्द भाव ही है। परन्तु सज्ञानप्रवृति और शक्ति की विशेषता कर्मबन्ध की विशेषता की कारण काषायिक परिणाम की विशेषता के द्वारा ही होती है। इसी प्रकार कर्मबन्ध की विशेषता मे शस्त्र को विशेषता के निमित्तभाव का कथन भी काषायिक परिणाम की तीव्र-मन्दता के अनुसार ही है । ७ ।
अधिकरण के भेद अधिकरणं जीवाजीवाः । ८। आद्यं संरम्भसमारम्भारम्भयोगकृतकारितानुमतकषायविशेषैस्त्रिस्त्रिस्त्रिश्चतुश्चैकशः।९।
निर्वर्तनानिक्षेपसंयोगनिसर्गा द्विचतुद्वित्रिभेदाः परम् । १० । अधिकरण जीव और अजीवरूप है।
आद्य अर्थात् जीव-अधिकरण क्रमशः संरम्भ, समारम्भ, आरभ्भ के. रूप मे तीन प्रकार का, योगरूप में तीन प्रकार का, कृत कारित, अनुमत के रूप में तीन प्रकार का और कषाय रूप में चार प्रकार का है।
पर अर्थात् अजीवाधिकरण निर्वर्तना, निक्षेप, सयोग और निसर्ग के अनुकम से दो, चार, दो और तीन भेदरूप है।
शुभ-अशुभ सभी कार्य जीव और अजीव से ही सिद्ध होते है। अकेला जीव या अकेला अजीव कुछ नही कर सकता । इसलिए जीव और अजीव दोनो अधिकरण है अर्थात् कर्मबन्ध के साधन, उपकरण या शस्त्र है । दोनो अधिकरण द्रव्यभाव रूप मे दो दो प्रकार के है। जीव व्यक्ति या अजीव वस्तु द्रव्याधिकरण है और जीवगत कषाय आदि परिणाम तथा छुरी आदि निर्जीव वस्तु की तीक्ष्णतारूप शक्ति आदि भावाधिकरण है । ८ ।
ससारी जीव शुभ या अशुभ प्रवृत्ति करते समय एक सौ आठ अवस्थाओ मे से किसी-न-किसी अवस्था में अवश्य रहता है । इसलिए वे अवस्थाएं भावाधिकरण है, जैसे क्रोधकृत कायसरम्भ, मानकृत कायसंरम्भ, मायाकृत कायसंरम्भ, लोभकृत कायसंरम्भ ये चार । इसी प्रकार कृत पद के स्थान पर कारित तथा अनुमत पद लगाने से क्रोधकारित कायसंरम्भ आदि चार तथा क्रोध-अनुमत कायसरम्भ आदि चार-कुल बारह भेद होते है । इसी प्रकार काय के स्थान पर वचन और मन पद लगाने पर दोनो के बारह-बारह भेद होते है, जैसे क्रोधकृत वचनसंरम्भ आदि तथा क्रोधकृत मनःसंरम्भ आदि । तीनों के इन छत्तीस भेदों में
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६. ८-१० ]
अधिकरण के भेद संरम्भ पद के स्थान पर समारम्भ और आरम्भ पद लगाने से छत्तीस-छत्तीस भेद और जुड़ जाते है । कुल मिलाकर ये १०८ भेद होते है ।
हिंसा आदि कार्यों के लिए प्रमादी जीव का प्रयत्न--आवेश संरम्भ कहलाता है, उसी कार्य के लिए साधन जुटाना समारम्भ और अन्त मे कार्य करना आरम्भ अर्थात् कार्य की संकल्पात्मक सूक्ष्म अवस्था से लेकर उसे प्रकट रूप में पूरा कर देने तक तीन अवस्थाएँ अनुक्रम से सरम्भ, समारम्भ और आरम्भ है । योग के तीन प्रकारो का वर्णन पहले हो चुका है । कृत अर्थात् स्वयं करना, कारित अर्थात् दूसरे से कराना और अनुमत अर्थात् किसी के कार्य का अनुमोदन करना । क्रोध, मान, माया और लोभ ये चारो कषाय प्रसिद्ध है ।
जब कोई संसारी जीव दान आदि शुभ कार्य अथवा हिसा आदि अशुभ कार्य से सम्बन्ध रखता है तब वह क्रोध या मान आदि किसी कषाय से प्रेरित होता है । कषायप्रेरित होने पर भी कभी वह स्वय करता है या दूसरे से करवाता है अथवा दूसरे के काम का अनुमोदन करता है। इसी प्रकार वह कभी उस काम के लिए कायिक, वाचिक और मानसिक सरम्भ, समारम्भ या आरम्भ से युक्त अवश्य होता है । ९।
परमाणु आदि मूर्त वस्तु द्रव्य-अजीवाधिकरण है। जीव की शुभाशुभ प्रवृत्ति मे उपयोगी मूर्त द्रव्य जिस अवस्था मे वर्तमान होता है वह भाव-अजीवाधिकरण है । यहाँ इस भावाधिकरण के मुख्य चार भेद बतलाए गये है। जैसे निर्वर्तना ( रचना ), निक्षेप ( रखना ), संयोग ( मिलना ) और निसर्ग (प्रवर्तन ) । निर्वर्तना के दो भेद है-मलगुणनिर्वर्तना और उत्तरगुणनिर्वर्तना । पुद्गल द्रव्य को जो औदारिक आदि शरीररूप रचना अन्तरङ्ग साधनरूप से जीव की शुभाशुभ प्रवृत्ति मे उपयोगी होती है वह मूलगुणनिर्वर्तना है तथा पुद्गल द्रव्य की जो लकडी, पत्थर आदि रूप परिणति बाह्य साधनरूप मे जीव की शुभाशुभ प्रवृत्ति मे उपयोगी होती है वह उत्तरगुण निर्वर्तना है ।
निक्षप के चार भेद है-अप्रत्यवेक्षितनिक्षेप, दुष्प्रमाजित निक्षेप, सहसानिक्षेप और अनाभोगनिक्षेप । प्रत्यवेक्षण किये बिना अर्थात् अच्छी तरह देखे बिना ही किसी वस्तु को कही रख देना अप्रत्यवेक्षितनिक्षेप है। प्रत्यवेक्षण करने पर भीठीक तरह प्रमार्जन किये बिना ही वस्तु को जैसे-तैसे रख देना दुष्प्रमाजित निक्षेप है। प्रत्यवेक्षण और प्रमार्जन किये बिना ही सहसा अर्थात् जल्दी से वस्तु को रख देना सहसानिक्षेप है। उपयोग के बिना ही किसी वस्तु को कही रख देना अनाभोगनिक्षेप है।
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तत्त्वार्थ सूत्र
[ ६. ११-२६
सयोग के दो भेद है --अन्न, जल आदि का संयोजन करना तथा वस्त्र, पात्र आदि उपकरण का संयोजन करना अनुक्रम से भक्तपान-संयोगाधिकरण और उपकरण-संयोगाधिकरण है ।
१५६
निसर्ग के तीन प्रकार है- शरीर, वचन और मन का प्रवर्तन अनुक्रम से - कायनिसर्ग, वचननिसर्ग और मनोनिसर्ग कहलाता है । १० ।
आठ प्रकार के साम्परायिक कर्मो मे से प्रत्येक के भिन्न-भिन्न बन्धहेतु तत्प्रदोषनिह्नवमात्सर्यान्तरायासादनोपघाता ज्ञानदर्शनावरणयोः ॥ १.१ ॥ दुःखशोकतापाक्रन्दनवधपरिदेवनान्यात्सपरोभयस्थान्यसास्य । १३ । भूतव्रत्यनुकम्पा दानं सरागसंयसादियोगः क्षान्तिः शौचमिति सद्वेद्यस्य । १३ ।
केवलिश्रुतसङ्घधर्मदेवावर्णवादी दर्शनमोहस्य | १४ | कषायोदयात्तीव्रपरिणामश्चारित्रमोहस्य । १५ ।
बह्वारम्भपरिग्रहत्वं च नारकस्यायुषः । १६ । माया तैर्यग्योनस्य । १७ ।
अल्पारम्भपरिग्रहत्वं स्वभावमार्दवार्जवं च मानुषस्य । १८ । निःशीलव्रतत्वं च सर्वेषाम् । ११ ।
सरागसंयम संयमासंयमाकामनिर्जराबालतपांसि दैवस्य । २० । योगवक्रता विसंवादनं चाशुभस्य नाम्नः । २१ ।
विपरीतं शुभस्य । २२ ।
दर्शन विशुद्धिविनयसम्पन्नता शीलव्रतेष्वनतिचारोऽभीक्ष्णं ज्ञानोपयोगसंवेगो शक्तितस्त्यागतपसी सङ्घसाघुसमाधिवैयावृत्यकरण महंदाचार्यबहुश्रुतप्रवचनभक्तिरावश्यका परिहाणिर्मार्गप्रभावना प्रवचनवत्सलत्वमिति तीर्थकृत्त्वस्य । २३ ॥
परात्मनिन्दाप्रशंसे सदसद्गुणाच्छादनोद्भावने च नोचैर्गोत्रस्य ॥ २४ ॥ तद्विपर्ययो नीचैर्वृत्त्यनुत्सेको चोत्तरस्य । २५ ॥
विघ्नकरणमन्तरायस्य । २६ ।
तत्प्रदोष, निह्नव मात्सर्य, अन्तराय, आसादन तथा उपघात ये ज्ञानावरण व दर्शनावरण कर्म के बन्धहेतु ( आस्रव ) है ।
स्व-आत्मा मे;पर-आत्मा में या दोनों में स्थित दुःख, शोक, ताप, आकेन्द्दन; बध और परिदेवन ये असातावेदनीय कर्म के बन्धहेतु हैं ।
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६. ११-२६ ] आठ मूल कर्मप्रकृतियो के भिन-भिन्न बन्धहेतु १५७
भूत-अनुकम्पा, व्रती-अनुकम्पा, दान, सगगसयमादि योग, क्षान्ति और शौच ये सातावेदनीय कर्म के बन्धहेतु है।
केवलज्ञानी, श्रुत, संघ, धर्म एवं देव का अवर्णवाद दर्शनमोहनीय कर्म के बन्धहेतु है।
कषाय के उदय से होनेवाला तोब आत्मपरिणाम चारित्रमोहनीय कर्म का बन्धहेतु है।
बहु-आरम्भ और बहु-परिग्रह नरकायु के बन्धहेतु है । माया तिर्यंच-आयु का बन्धहेतु है ।
अल्प-आरम्भ, अल्प-परिग्रह, स्वभाव में मृदुता और सरलता ये मनुष्य-आयु के बन्धहेतु है।
शीलरहितता' और व्रतरहितता तथा पूर्वोक्त अल्प आरम्भ आदि सभी आयुओं के बन्धहेतु है।
सरांगसंयम, संयमासंयम, अकामनिर्जरा और बालतप ये देवायु के बन्धहेतु हैं।
योग की वक्रता और विसवाद अशुभ नामकर्म के बन्धहेतु है।
विपरीत अर्थात् योग की अवक्रता और अविसंवाद शुभ नामकर्म के बन्धहेतु है।
दर्शनविशुद्धि, विनयसम्पन्नता, शील और व्रतों में अत्यन्त अप्रमाद, ज्ञान में सतत उपयोग तथा सतत सवेग, यथाशक्ति त्याग और तप, संघ और साधु की समाधि और वैयावृत्त्य करना, अरिहंत, आचार्य, बहुश्रुत,
१, दिगम्बर परम्परा के अनुसार इस सूत्र का अर्थ है--निःशीलत्व और निव्र तत्व । ये दोनों नारक आदि तीन आयुओ के आस्रव है और भोगभूमि मे उत्पन्न मनुष्यो की अपेक्षा से निःशीलत्व और निव्र तत्व ये दोनो देवायु के भी आस्रव है । इस अर्थ मे देवायु के आस्रव का समावेश होता है, जिसका वर्णन भाष्य में नहीं है । परन्तु भाष्य की वृत्ति मे वृत्तिकार ने विचारपूर्वक भाष्य की यह त्रुटि जानकर इस बात की पूर्ति आगमानुसार कर लेने का निर्देश किया है। ____२. दिगम्बर परम्परा में देवायु के प्रस्तुत सत्र में इन आस्रवों के अतिरिक्त एक दूसरा भी आस्रव गिनाया है और उसके लिए इस सत्र के बाद ही 'सम्यक्त्वं च' सत्र है। इस परम्परा के अनुसार इस सत्र का अर्थ यह है कि सम्यक्त्व सौधर्म आदि कल्पवासी देवों की आयु का आस्रव है। भाष्य मे यह बात नहीं है । फिर भी वृत्तिकार ने भाष्यवृत्ति में अन्य कई आस्रवो के साथ-साथ सम्यक्त्व को भी गिन लिया है ।
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तत्त्वार्थमूत्र
[ ६. ११-२६ तथा प्रवचन की भक्ति, आवश्यक क्रिया को न छोड़ना, मोक्षमार्ग की प्रभावना और प्रवचनवात्सल्य ये सब तीर्थकर नामकर्म के बन्धहेतु हैं।
परनिन्दा, आत्मप्रशंसा, सद्गुणो का आच्छादन और असद्गुणों का प्रकाशन ये नीत्र गोत्रकर्म के बन्वहेतु हैं।
उनका विपर्यय अर्थात् परप्रशंसा, आत्मनिन्दा आदि तथा नम्रवृत्ति और निरभिमानता ये उच्च गोत्रकर्म के बन्धहेतु है।
दानादि में विघ्न डालना अन्तरायकर्म का बन्धहेतु है।
सूत्र ११ से अध्याय के अन्त तक प्रत्येक मूल कर्मप्रकृति के बन्धहेतुओं का क्रमशः वर्णन किया गया है। सामान्य रूप से योग और कषाय ही सब कर्मप्रकृतियो के बन्धहेतु है, फिर भी कषायजन्य अनेकविध प्रवृत्तियों में से कौनकौन-सी प्रवृत्ति किस-किस कर्म के बन्ध का हेतु होती है, यहो विभागपूर्वक प्रस्तुत प्रकरण मे बतलाया गया है ।
ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय कर्मों के बन्धहेतु-१. तत्प्रदोष--ज्ञान, ज्ञानी और ज्ञान के साधनों के प्रति द्वेष करना अथवा रखना अर्थात् तत्त्वज्ञान के निरूपण के समय मन मे तत्त्वज्ञान के प्रति, उसके वक्ता के प्रति अथवा उसके साधनों के प्रति डाह रखना । इसे ज्ञानप्रद्वेष भी कहते है। २. ज्ञान-
निवकोई किसी से पूछे या ज्ञान के साधन की माँग करे तब ज्ञान तथा ज्ञान के साधन पास में होने पर भी कलुषित भाव से यह कहना कि 'मै नही जानता अथवा मेरे पास वह वस्तु है ही नही'। ३. ज्ञानमात्सर्य---ज्ञान अभ्यस्त व परिपक्व हो एवं देने योग्य हो तो भी उसके अधिकारी ग्राहक के मिलने पर उसे न देने की कलुषित वृत्ति । ४. ज्ञानान्तराय--कलुषित भाव से ज्ञानप्राप्ति में किसी को बाधा पहुँचाना । ५. ज्ञानासादन--दूसरा कोई ज्ञान दे रहा हो तब वाणी अथवा शरीर से उसका निषेध करना। ६. उपघात--किसी ने उचित ही कहा हो फिर भी अपनी विपरीत मति के कारण अयुक्त भासित होने से उलटे उसी के दोष निकालना।
पूर्वोक्त प्रदोष, निह्नव आदि जब ज्ञान, ज्ञानी या उसके साधन के साथ सम्बन्ध रखते हो तब वे ज्ञानप्रदोष, ज्ञाननिह्नव आदि कहलाते है और दर्शन ( सामान्य बोध ), दर्शनी अथवा दर्शन के साधन के साथ सम्बन्ध रखते हों तब दर्शनप्रदोष, दर्शननिह्नव आदि कहलाते है ।
प्रश्न-आसादन और उपघात मे क्या अन्तर है ? उत्तर-ज्ञान के होने पर भी उसकी विनय न करना, दूसरे के सामने उसे
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६. ११-२६ ]
आठ मूल कर्मप्रकृतियो के भिन्न-भिन्न बन्धहेतु
१५९
प्रकाशित न करना, उसके गुणों को न दरसाना आसादन है और ज्ञान को ही अज्ञान मानकर उसे नष्ट करने का विचार रखना उपघात है । ११ ।
असातावेदनीय कर्म के बन्धहेतु - १. दु.ख -- बाह्य या आन्तरिक निमित्त से पीडा होना । २. शोक -- किसी हितैषी का सम्बन्ध टूटने से चिन्ता और खेद होना । ३. ताप -- अपमान से मन के कलुषित होने से तीव्र संताप होना । ४. आक्रन्दन-- गद्गद स्वर से आँसू गिराने के साथ रोना पीटना । ५ वध-किसी के प्राण लेना । ६. परिदेवन - - वियुक्त व्यक्ति के गुणों के स्मरण से होने
वाला करुणाजनक रुदन ।
उक्त दुःख आदि छ. और ऐसे ही ताड़न तर्जन आदि अनेक निमित्त अपने करने पर उत्पन्न करनेवाले के असातावेदनीय
में, दूसरे मे या दोनों में पैदा कर्म के बन्धहेतु बनते है ।
प्रश्न - यदि दुःख आदि पूर्वोक्त निमित्त अपने में या दूसरे में उत्पन्न करने से असातावेदनीय कर्म के बन्धहेतु होते है तो फिर लोच, उपवास, व्रत तथा इस तरह के दूसरे नियम भी दुःखद होने से असातावेदनीय के बन्धहेतु होने चाहिए । यदि ऐसी बात हो तो उन व्रत आदि नियमों का अनुष्ठान करने की अपेक्षा उनका त्याग करना ही क्या उचित नही होगा ?
उत्तर—उक्त दुःख आदि निमित्त जब क्रोध आदि आवेश से उत्पन्न होते हैं तभी आस्रव ( बन्ध ) के हेतु बनते है, न कि केवल सामान्य रूप मे दुःखद होने से । सच्चे त्यागी या तपस्वी को कठोर व्रत नियमो का पालन करने पर भी असातावेदनीय कर्म का बन्ध नही होता । इसके दो कारण है । पहला तो यह कि सच्चा त्यागी कठोर व्रतों का पालन करते हुए क्रोध या वैसे ही अन्य किसी दुष्ट भाव से नहीं बल्कि सद्वृत्ति और सद्बुद्धि से प्रेरित होकर ही चाहे जितना दुःख उठाता है । वह कठिन व्रतों को धारण करता है, पर चाहे जितने दुःखद प्रसंग आ जायँ उनमे क्रोध, संताप आदि कषाय का अभाव होने से वे प्रसंग उसके लिए बन्धक नहीं बनते । दूसरा कारण यह है कि कई बार तो वैसे त्यागियों को कठोरतम व्रत तथा नियमों का पालन करने मे वास्तविक प्रसन्नता अनुभव होती है और इसीलिए वैसे प्रसंगों में उनको दुःख या शोक आदि का होना सम्भव हो नही । यह तो सर्वविदित है कि एक को जिन प्रसंगों में दुःख होता है, उसी प्रसंग मे दूसरे को भी दुख हो यह आवश्यक नही है । इसलिए ऐसे नियम व्रतों का पालन मानसिक रति ( रुचि ) होने से उनके लिए सुखरूप ही होता है । जैसे कोई दयालु वैद्य चीरफाड के द्वारा किसी को दुःख देने का निमित्त बनने पर भी करुणावृत्ति से प्रोस्त होने से प्रापभागी नही होता वैसे ही सांसारिक दुःख दूर करने
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तत्त्वार्थ मूत्र
[६.११-२६ के लिए उसके ही उपायों को प्रसन्नतापूर्वक करता हुआ त्यागी भी सद्धृत्ति के कारण पाप का बन्ध नहीं करता।
सातावेदनीय कर्म के बन्धहेतु-१. अनुकम्पा--प्राणि-मात्र के प्रति अनुकम्पा ही भूतानुकम्पा है अर्थात् दूसरे के दुख को अपना दुःख मानने का भाव । २. वत्यनुकम्पा-अल्पांश में प्रतधारी गृहस्थ और सर्वाश में व्रतधारी त्यागी दोनों पर विशेष अनुकम्पा रखना । ३. दान-- अपनी वस्तु दूसरों को नम्रभाव से अर्पित करना। ४. सरागसंयमादि योग'सरागसयम, संयमासंयम, अकामनिर्जरा और बालतप इन सबमे यथोचित ध्यान देना । संसार की कारणरूप तृष्णा को दूर करने के लिए तत्पर होकर संयम स्वीकार कर लेने पर भी जब मन से राग के संस्कार क्षीण नहीं होते तब वह सरागसंयम कहलाता है। आशिक संयम का स्वीकार संयमासंयम है । स्वेच्छापूर्वक नही किन्तु परतंत्रता से भोगों का त्याग करना अकामनिर्जरा है। बाल अर्थात् यथार्थ ज्ञान से शून्य मिथ्यादृष्टिवालों का अग्निप्रवेश, जलपतन, गोबर आदि का भक्षण, अनशन आदि तप बालतप है । ५. क्षान्ति-धर्मदृष्टि से क्रोधादि दोषो का शमन । ६. शौच- लोभवृत्ति और ऐसे ही अन्य दोषों का शमन । १३ ।
दर्शनमोहनीय कर्म के बन्धहेतु-१. केवली का अवर्णवाद--दुर्बुद्धिपूर्वक केवली के असत्य दोषों को प्रकट करना, जैसे सर्वज्ञता की संभावना को स्वीकार न करना और कहना कि 'सर्वज्ञ होकर भी उसने मोक्ष के सरल उपाय न बतलाकर जिनका आचरण शक्य नही ऐसे दुर्गम उपाय क्यों बतलाए है' इत्यादि । २. श्रुत का अवर्णवाद-शास्त्र के मिथ्या दोषों का द्वेषबुद्धि से वर्णन करना, जैसे कहना कि 'यह शास्त्र अनपढ लोगो की प्राकृत भाषा मे अथवा पण्डितों को जटिल संस्कृत भाषा मे होने से तुच्छ है, अथवा इसमे विविध व्रत, नियम तथा प्रायश्चित्त आदि का अर्थहीन एवं कष्टप्रद वर्णन है' । ३. संघ का अवर्णवाद-साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविकारूप चतुर्विध संघ के मिथ्या दोष प्रकट करना, जैसे यह कहना कि 'साधु लोग व्रत-नियम आदि का व्यर्थ क्लेश उठाते है, साधुत्व तो संभव ही नहीं तथा उसका कोई अच्छा परिणाम भी नहीं निकलसा' । श्रावको के विषय मे कहना कि 'वे स्नान, दान आदि शिष्ट प्रवृत्तियाँ नहीं करते और म पवित्रता ही मानते है' इत्यादि । ४. धर्म का अवर्णवाद--अहिंसा आदि महान् धर्मों के मिथ्या दोष बतलाना या यह कहना कि 'धर्म प्रत्यक्ष कहाँ दीखता है और जो प्रत्यक्ष नहीं दीखता उसका अस्तित्व कैसे संभव है तथा यह कहना कि 'अहिसा से मनुष्य जाति अथवा राष्ट्र का पतन हुआ है' इत्यादि । ५. देवों का अपर्णवाद-देवों की निन्दा करना, जैसे यह कहना कि 'देव तो है ही नहीं, और हों तो भी व्यर्थ है, क्योंकि
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६. ११-२६ ] आठ मूल कर्म-प्रकृतियो के भिन्न-भिन्न बन्धहेतु १६१ वे शक्तिशाली होकर भी यहाँ आकर हम लोगो की मदद क्यो नही करते तथा सम्बन्धियों का दुख दूर क्यो नही करते' इत्यादि । १४ ।
चारित्रमोहनीर कर्म के बन्धहेतु-१. स्वयं कपाय करना, दूसरों मे भी कषाय जगाना तथा कषाय के वशवर्ती होकर अनेक तुच्छ प्रवृत्तियाँ करना ये सब कषायमोहनीय कर्म के बन्ध के कारण है। २. सत्य-धर्म का उपहास करना, गरीब या दीन मनुष्य की हँसो उड़ाना आदि हास्य-वृत्तियाँ हास्य-मोहनीय कर्म के बन्ध के कारण है । ३ विविध क्रीडाओ मे रत रहना, व्रत-नियम आदि योग्य अंकुश में अरुचि रखना आदि रतिमोहनीय कर्म के बन्ध के कारण है । ४. दूसरों को व्याकुल करना, किसी की शाति मे विघ्न डालना, नोच लोगों की संगति करना आदि अरतिमोहनीय कर्म के बन्ध के कारण है। ५ स्वयं शोकातुर रहना तथा दूसरों की शोक-बृत्ति को उत्तेजित करना आदि शाकमोहनीय कर्म के बन्ध के कारण है। ६. स्वयं डरना और दूसरो को डराना भयमोहनीय कर्म के बन्ध के कारण है । ७. हितकर क्रिया और हितकर आचरण से घृणा करना आदि जुगुप्सामोहनीय कर्म के बन्ध के कारण है । ८-१०. स्त्री-जाति के योग्य, पुरुष-जाति के योग्य तथा नपुसक-जाति के योग्य संस्कारो का अभ्यास करना क्रमशः स्त्री, पुरुष और नपु सक वेद के बन्ध के कारण है । १५ ।
नरक प्रायु कर्म के बन्धहेतु-१ आरम्भ-प्राणियो को दुख पहुँचे ऐसी कषायपूर्वक प्रवृत्ति । २ परिग्रह--यह वस्तु मेरी है और मैं इसका स्वामी हूँ ऐसा संकल्प । आरम्भ और परिग्रह-वृत्ति बहुत तीव्र होना तथा हिसा आदि क्रूर कामों मे सतत प्रवृत्ति होना, दूसरे के धन का अपहरण करना अथवा भोगो में अत्यन्त आसक्ति रहना नरकायु के बन्ध के कारण है । १६ ।
तिर्यञ्च-पायु कर्म के बन्धहेतु-माया अर्थात् छलप्रपञ्च करना अथवा कुटिल भाव रखना । जैसे धर्मतत्त्व के उपदेश मे धर्म के नाम से मिथ्या बातो को मिलाकर उनका स्वार्थ-बुद्धि से प्रचार करना तथा जीवन को शोल से दूर रखना आदि सब भाया है । यही तिथंच आयु के बन्ध का कारण है । १७ ।
मनुष्य-मायु कर्म के बन्धहेतु-आरम्भ-वृत्ति तथा परिग्रह-वृत्ति कम रखना, स्वभावत. अर्थात् बिना कहे जुने मृदुता और सरलता का होना मनुष्य आयु के बन्ध के कारण है । १८ ।
उक्त तीनों प्रायुकर्मो के सामान्य बन्धहेतु-नरक, तिर्यच और मनुष्य इन तीनों आयुओं के जो भिन्न-भिन्न बन्धहेतु कहे गए है उनके अतिरिक्त तीनो
११
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१६२
तत्त्वार्थमूत्र
[ ६ ११-२६
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आयुओं के सामान्य बन्धुहेतु भी है । प्रस्तुत सूत्र मे उन्ही का कथन है । वे बन्धहेतु ये है . नि. शीलत्व-शील से रहित होना और निर्व्रतत्व - व्रतो से रहित होना । १. व्रत --- अहिंसा, सत्य आदि पाँच मुख्य नियम । २. शील - व्रतों की पुष्टि के लिए अन्य उपवतों का पालन, जैसे तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत । उक्त व्रतो के पालनार्थ क्रोध, लोभ आदि के त्याग को भी शील कहते है । व्रत का न होना निव्रतत्व एवं शील का न होना नि.शीलत्व है । १९ ।
२.
देवा कर्म के बन्धहेतु – १. हिंसा, असत्य, चोरी आदि महान् दोषों से विरतिरूप संयम अंगीकार कर लेने के बाद भी कषायों के कुछ अंश का शेष रहना सरागसंयम है । हिंसाविरति आदि व्रतों का अल्पाश में धारण करना संयमासंयम है । ३. पराधीनता के कारण या अनुसरण के लिए अहितकर प्रवृत्ति अथवा आहार आदि का त्याग अकाम निर्जरा है । ४. बालभाव से अर्थात् बिना विवेक के अग्निप्रवेश, जलप्रवेश, पर्वत-प्रपात, विषभक्षण, अनशन आदि देहदमन की क्रियाएँ करना बालतप है । २० ।
अशुभ एव शुभ नामकर्म के बन्धहेतु - १. योगवक्रता - मन, वचन और काय की कुटिलता । कुटिलता का अर्थ है सोचना कुछ बोलना कुछ और करना कुछ । २. विसंवादन - अन्यथा प्रवृत्ति कराना अथवा दो स्नेहियों के बीच भेद पैदा करना । ये दोनो अशुभ नाम कर्म के बन्ध के कारण है ।
प्रश्न -- इन दोनो मे क्या अन्तर है ?
उत्तर-- 'स्व' और 'पर' की अपेक्षा से अन्तर है । अपने ही विषय मे मन, वचन और काय की प्रवृत्ति भिन्न पडे तब योगवक्रता और यदि दूसरे के विषय मे ऐसा हो तो वह विसंवादन है । जैसे कोई रास्ते से जा रहा हो तो उसे 'ऐसे नही, पर ऐसे' इस प्रकार उलटा समझाकर कुमार्ग की ओर प्रवृत्त करना ।
इससे विपरीत अर्थात् मन, वचन, काय की सरलता ( प्रवृत्ति की एकरूपता ) तथा संवादन अर्थात् दो व्यक्तियों के भेद को मिटाकर एकता करा देना अथवा गलत रास्ते पर जानेवाले को सही रास्ते लगा देना दोनो शुभ नाम-कर्म के बन्ध के कारण है । २१-२२ ।
तीर्थंकर नामकर्म के बन्धहेतु -- १. दर्शन विशुद्धि - वीतरागकथित तत्त्वों मे निर्मल और दृढ़ रुचि । २. विनयसम्पन्नता -- ज्ञानादि मोक्षमार्ग और उसके साधनों के प्रति समुचित आदरभाव । ३. शीलव्रतानतिवार - अहिंसा, सत्यादि मूल व्रत तथा उनके पालन मे उपयोगी अभिग्रह आदि दूसरे नियम या शील के पालन मे प्रमाद न करना । ४. अभीक्ष्णज्ञानोपयोग - तत्त्वविषयक ज्ञान में सदा जागरित रहना ।
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६. ११-२६ ] आठ मूल कर्म - प्रकृतियों के भिन्न-भिन्न बन्धहेतु
१६३
५. अभोक्ष्ण-संवेग -- सासारिक भोगों से जो वास्तव मे सुख के स्थान पर दुःख के ही साधन बनते हैं, डरते रहना अर्थात् कभी भी लालच मे न पड़ना । ६. यथाशक्ति त्याग -- अपनी अल्पतम शक्ति को भी बिना छिपाए आहारदान, अभयदान, ज्ञानदान आदि विवेकपूर्वक करते रहना । ७ यथाशक्ति तप - शक्ति छिपाए बिना विवेकपूर्वक हर तरह की सहनशीलता का अभ्यास । ८. संघसाधुसमाधिकरणचतुर्विध संघ और विशेषकर साधुओ को समाधि पहुँचाना अर्थात् ऐसा करना जिससे कि वे स्वस्थ रहे । ९. वैयावृत्त्यकरण — कोई भी गुणी यदि कठिनाई में पड जाय तो उस समय योग्य ढंग से उसकी कठिनाई दूर करने का प्रयत्न करना । १०-१३. चतुःभक्ति- अरिहंत, आचार्य, बहुश्रुत और शास्त्र इन चारों में शुद्ध निष्ठापूर्वक अनुराग रखना । १४. आवश्यका परिहाणि - सामायिक आदि षड्आवश्यको के अनुष्ठान को भाव से न छोडना । १५. मोक्षमार्गप्रभावना -- अभिमान तजकर ज्ञानादि मोक्षमार्ग को जीवन में उतारना तथा दूसरों को उसका उपदेश देकर प्रभाव बढ़ाना | १६. प्रवचनवात्सल्य -- जैसे गाय बछडे पर स्नेह
रखती है वैसे ही साधर्मियों पर निष्काम स्नेह रखना । २३ ।
नीच गोत्रकर्म के बन्धहेतु --- १. परनिन्दा -- दूसरों की निन्दा करना । निन्दा का अर्थ है सच्चे या झूठे दोषों को दुर्बुद्धिपूर्वक प्रकट करने की वृत्ति । २. आत्मप्रशंसा -- अपनी बडाई करना अर्थात् अपने सच्चे या झूठे गुणो को प्रकट करने की वृत्ति | ३. आच्छादन -- - दूसरे के गुणों को छिपाना और प्रसंग आने पर भी द्वेष से उन्हे न कहना । ४. उद्भावन -- अपने मे गुण न होने पर भी उनका प्रदर्शन करना अर्थात् निज के असद्गुणों का उद्भावन । २४ ।
उच्च गोत्रकर्म के बन्धहेतु -- १. आत्मनिन्दा -- अपने दोषो का अवलोकन । २. परप्रशंसा -- दूसरो के गुणों की सराहना । ३. असद्गुणोद्भावन -- अपने दुर्गुणों को प्रकट करना । ४. स्वगुणाच्छादन -- अपने विद्यमान गुणों को छिपाना । ५. नम्रवृत्ति -- पूज्य व्यक्तियों के प्रति विनम्रता । ६. अनुत्सेक -- ज्ञान, सम्पत्ति आदि मे दूसरे से अधिकता होने पर भी उसके कारण गर्व न करना । २५ ।
अन्तराय कर्म के बन्धहेतु -- किसी को दान देने मे या किसी को कुछ लेने मे अथवा किसी के भोग एवं उपभोग आदि मे बाधा डालना अथवा मन में वैसी वृत्ति पैदा करना विघ्नकरण है । २६ ।
साम्परायिक कर्मों के प्रसव के विषय में विशेष वक्तव्य --सूत्र ११ से २६ तक साम्परायिक कर्म की प्रत्येक मूल प्रकृति के भिन्न-भिन्न आस्रव या बन्धहेतु उपलक्षण मात्र है । अर्थात् प्रत्येक मूलप्रकृति के गिनाए गए आस्रवों के अतिरिक्त अन्य भी वैसे ही उन प्रकृतियों के आस्रव न कहने पर भी समझे जा
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तत्त्वार्थ सूत्र
[६.११-२६
सकते है । जैसे कि आलस्य, प्रमाद, मिथ्योपदेश आदि ज्ञानावरणीय अथवा दर्शनावरणीय के आस्रव के रूप मे नही गिनाए गए है, फिर भी वे उनके आस्रव है। इसी तरह वध, बन्धन, ताडन आदि तथा अशुभ प्रयोग आदि असातावेदनीय के आस्रवों मे नही गिनाए गये है, फिर भी वे उसके आस्रव है ।
प्रश्न-प्रत्येक मूलप्रकृति के आस्रव भिन्न-भिन्न दर्शाए गये है। इससे यह प्रश्न उपस्थित होता है कि क्या ज्ञानप्रदोष आदि आस्रव केवल ज्ञानावरणीय आदि कर्म के ही बन्धक है अथवा इनके अतिरिक्त अन्य कर्मों के भी बन्धक है ? एक कर्मप्रकृति के आस्रव यदि अन्य प्रकृति के भी बन्धक हो सकते है तो प्रकृतिविभाग से आस्रवों का अलग-अलग वर्णन करना ही व्यर्थ है क्योंकि एक प्रकृति के आस्रव दूसरी प्रकृति के भी तो आस्रव है। और यदि यह माना जाय कि किसी एक प्रकृति के आस्रव केवल उसी प्रकृति के आस्रव है, दूसरी के नहीं तो शास्त्र-नियम में विरोध आता है। शास्त्र का नियम यह है कि सामान्य रूप से आयु को छोड़कर शेष सातो प्रकृतियों का बन्ध एक साथ होता है । इस नियम के अनुसार जब ज्ञानावरणीय का बन्ध होता है तब अन्य वेदनीय आदि छहों कर्मप्रकृतियों का भी बन्ध होता है । आस्रव तो एक समय मे एक-एक कर्मप्रकृति का ही होता है, किन्तु बन्ध तो एक समय मे एक प्रकृति के अतिरिक्त दूसरी अविरोधी प्रकृतियो का भी होता है । अर्थात् अमुक आस्रव अमुक प्रकृति का हो बन्धक है, यह मत शास्त्रीय नियम से बाधित हो जाता है। अत. प्रकृतिविभाग से आस्रवो के विभाग करने का प्रयोजन क्या है ?
उत्तर-यहाँ आस्रवो का विभाग अनुभाग अर्थात् रसबन्ध की अपेक्षा से बतलाया गया है । अभिप्राय यह है कि किसी भी एक कर्मप्रकृति के आस्रव के सेवन के समय उस कर्मप्रकृति के अतिरिक्त अन्य कर्म-प्रकृतियो का भी बन्ध होता है, यह शास्त्रीय नियम केवल प्रदेश-बन्ध के विषय मे ही घटित करना चाहिए, न कि अनुभाग-बन्ध के विषय मे । साराश यह है कि आस्रवो का विभाग प्रदेशबन्ध की अपेक्षा से नही, अनुभागबन्ध की अपेक्षा से है । अतः एक साथ अनेक कर्मप्रकृतियों का प्रदेशबन्ध मान लेने के कारण पूर्वोक्त शास्त्रीय नियम में कठिनाई नही आती तथा प्रकृतिविभाग से उल्लिखित आस्रव भी केवल उन-उन प्रकृतियो के अनुभागबन्ध मे ही निमित्त बनते है । इसलिए यहाँ आस्रवो का जो विभाग निर्दिष्ट है वह भी बाधित नही होता ।
इस व्यवस्था से पूर्वोक्त शास्त्रीय-नियम और प्रस्तुत आस्रवो का विभाग दोनों अबाधित बने रहते है । फिर भी इतनी बात विशेष है कि अनुभागबन्ध को आश्रित करके आस्रव के विभाग का समर्थन भी मुख्य भाव की अपेक्षा से ही
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६. ११-२६ ]
आठ मूल कर्म - प्रकृतियों के भिन्न-भिन्न बन्धहेतु
१६५
किया गया है । अर्थात् ज्ञानप्रदोष आदि आस्रवों के सेवन के समय ज्ञानावरणीय के अनुभाग का बन्ध मुख्य रूप से होता है और उसी समय बँधनेवाली अन्य कर्म - प्रकृतियों के अनुभाग का बन्ध गौण रूप से होता है । यह तो माना ही नही जा सकता कि एक समय मे एक प्रकृति के ही अनुभाग का बन्ध होता है और अन्य कर्मप्रकृतियों के अनुभाग का बन्ध होता ही नही । क्योकि जिस समय जितनी कर्मप्रकृतियों का प्रदेशबन्ध योग द्वारा सम्भव है उसी समय कषाय द्वारा उतनी ही प्रकृतियों का अनुभागबन्ध भी सम्भव है । इसलिए मुख्य रूप से अनुभागबन्ध की अपेक्षा को छोडकर आस्रव के विभाग का समर्थन अन्य प्रकार से ध्यान मे नही आता । २६ ।
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व्रत
साता-वेदनीय के आस्रवों में व्रती पर अनुकम्पा और दान ये दोनो गिनाए गए है । प्रसङ्गवश उन्ही के विशेष स्पष्टीकरण के लिए जैन परम्परा मे महत्त्वपूर्ण स्थान रखनेवाले व्रत और दान का विशेष निरूपण इस अध्याय मे किया जा रहा है।
व्रत का स्वरूप हिंसाऽनृतस्तेयाऽब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिव्रतम् । १ । हिंसा, असत्य, चोरी, मैथुन और परिग्रह से ( मन, वचन, काय द्वारा ) निवृत्त होना व्रत है।
हिंसा, असत्य आदि दोषों के स्वरूप का वर्णन आगे किया गया है। दोषो को समझकर उनके त्याग की प्रतिज्ञा करने के बाद पुन. उनका सेवन न करने को व्रत कहते है। ____ अहिसा अन्य व्रतो की अपेक्षा प्रधान है अतः उसका स्थान प्रथम है। खेत की रक्षा के लिए जैसे बाड़ होती है वैसे ही अन्य सभी व्रत अहिंसा की रक्षा के लिए है । इसीलिए अहिसा की प्रधानता मानी गई है।
- व्रत के दो पहलू है-निवृत्ति और प्रवृत्ति । इन दोनो के होने से ही व्रत पूर्ण होता है। सत्कार्य में प्रवृत्त होने का अर्थ है असत्कार्या से पहले निवृत्त हो जाना । यह अपने आप प्राप्त होता है । इसी प्रकार असत्कार्यो से निवृत्त होने का अर्थ है सत्कार्यो में मन, वचन और काय की प्रवृत्ति करना । यह भी स्वत. प्राप्त है। यद्यपि यहाँ स्पष्ट रूप से दोषनिवृत्ति को ही व्रत कहा गया है तथापि उसमे सत्प्रवृत्ति का अंश आ ही जाता है। इसलिए व्रत केवल निष्क्रियता नही है।
प्रश्न-'रात्रिभोजनविरमण' नामक व्रत प्रसिद्ध है। सूत्र मे उसका निर्देश क्यो नही किया गया ?
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७. १ ]
वत का स्वरूप
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उत्तर - दीर्घकाल से रात्रिभोजनविरमण नामक व्रत प्रसिद्ध है, पर वास्तव मे वह मूल व्रत नहीं हैं, अपितु मूल व्रत से निष्पन्न एक प्रकार का आवश्यक व्रत है । ऐसे अवांतर व्रत कई है और उनको कल्पना भी कर सकते है । किन्तु यहाँ तो मूल व्रत का निरूपण इष्ट है । मूल व्रत से निष्पन्न होनेवाले अवान्तर व्रत तो उसके व्यापक निरूपण में आ ही जाते है । रात्रिभोजनविरमणव्रत अहिंसाव्रत मे से निष्पन्न होनेवाले अनेक व्रतों में से एक है ।
प्रश्न - अन्धेरे मे दिखाई न देनेवाले जन्तु नाश के कारण और दीपक जलाने से होनेवाले अनेक प्रकार के आरम्भ को दृष्टि में रखकर ही रात्रिभोजनविरमण को अहिंसाव्रत का अंग माना जाता है, पर जहाँ अन्धेरा भी न हो और दीपक से होनेवाले आरम्भ का प्रसंग भी नही आता वैसे शीतप्रधान देश में तथा जहाँ बिजली का प्रकाश सुलभ हो वहाँ रात्रिभोजन और दिवा भोजन में हिसा की दृष्टि से क्या अन्तर है
2
उत्तर - उष्णप्रधान देश तथा पुराने ढंग के दीपक आदि की व्यवस्था मे साफ दीखनेवाली हिसा की दृष्टि से ही रात्रिभोजन को दिवाभोजन की अपेक्षा अधिक हिसायुक्त कहा गया है । यह बात स्वीकार कर लेने पर और साथ ही किसी विशेष परिस्थिति में दिन की अपेक्षा रात्रि में विशेष हिसा का प्रसग न भी आता हो, इस कल्पना को समुचित स्थान देने पर भी साधारण समुदाय की दृष्टि से और विशेषकर त्यागी जीवन की दृष्टि से रात्रिभोजन की अपेक्षा दिवाभोजन ही विशेष प्रशसनीय है इस मान्यता के सक्षेप में निम्न कारण है .
१. बिजली या चन्द्रमा आदि का प्रकाश भले ही अच्छा लगता हो, लेकिन वह सूर्य के प्रकाश जैसा सार्वत्रिक, अखण्ड तथा आरोग्यप्रद नही होता । इसलिए जहाँ दोनों सम्भव हों वहाँ समुदाय के लिए आरोग्य की दृष्टि से सूर्य प्रकाश ही अधिक उपयोगी होता है ।
२. त्यागधर्म का मूल सन्तोष है, इस दृष्टि से भी दिन की अन्य सभी प्रवृत्तियों के साथ भोजन प्रवृत्ति को भी समाप्त कर लेना तथा संतोपपूर्वक रात्रि के समय जठर को विश्राम देना हो उचित है । इससे ठीक-ठीक निद्रा आती है और ब्रह्मचर्यपालन में सहायता मिलती है । फलस्वरूप आरोग्य की वृद्धि भी होती है ।
३. दिवाभोजन और रात्रिभोजन दोनो मे से सतोष के विचार से यदि एक का ही चुनाव करना हो तब भी जाग्रत और कुशलबुद्धि का झुकाव दिवाभोजन की ओर ही होगा । आज तक के महान् संतो का जीवन - इतिहास यही बात कहता है । १ ।
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१६८
तत्त्वार्थसूत्र
[ ७. २-३ व्रत के भेद
देशसर्वतोऽणुमहती।२। अल्प अंश में विरति अणुव्रत और सर्वाश में विरति महावत है।
प्रत्येक त्यागाभिलापी व्यक्ति दोषो से निवृत्त होता है। किन्तु सबका त्याग समान नहीं होता और यह विकास-क्रम की दृष्टि से स्वाभाविक भो है । इसलिए यहाँ हिमा आदि दोषों की थोडी या बहुत सभी निवृत्तियो को ब्रत मानकर उनके संक्षेप मे दो भेद किए गए है—महाब्रत और अणुव्रत ।
१. हिसा आदि दोषो से मन, वचन, काय द्वारा सब प्रकार से छूट जाना, यह हिसाविरमण ही महावत है ।
२. चाहे जितना हो, लेकिन किसी भी अंश मे कम छूटना -ऐसा हिसाविरमण अणुव्रत है।
_ व्रतो की भावनाएँ
तत्स्थैर्यार्थ भावनाः पञ्च पञ्च । ३ । उन ( व्रतों ) को स्थिर करने के लिए प्रत्येक व्रत की पाँच-पांच भावनाएं हैं।
अत्यन्त सावधानीपूर्वक विशेष-विशेष प्रकार की अनुकूल प्रवृत्तियों का सेवन न किया जाय तो स्वीकार करने मात्र से ही व्रत आत्मा मे नही उतर जाते। ग्रहण किए हुए व्रत जीवन मे गहरे उतरे, इसीलिए प्रत्येक व्रत के अनुकूल थोडी-बहुत प्रवृत्तियाँ स्थूल दृष्टि से विशेष रूप मे गिनाई गई है, जो भावना के नाम से प्रसिद्ध है । यदि इन भावनाओं के अनुसार ठीक-ठीक बर्ताव किया जाय तो अंगीकृत व्रत प्रयत्नशील के लिए उत्तम औषधि के समान सुन्दर परिणामकारक सिद्ध होते है । वे भावनाएँ क्रमशः इस प्रकार है :
१. ईर्यासमिति, मनोगुप्ति, एषणासमिति, आदाननिक्षेपणसमिति और आलोकितपानभोजन-ये अहिसाव्रत की पाँच भावनाएँ है ।
२ अनुवीचिभाषण, क्रोधप्रत्याख्यान, लोभप्रत्याख्यान, निर्भयता और हास्यप्रत्याख्यान--ये सत्यव्रत की पाँच भावनाएं हैं।
३. अनुवीचिअवग्रहयाचन, अभीक्ष्णअवग्रहयाचन, अवग्रहावधारण, सार्मिक से अवग्रहयाचन और अनुज्ञापितपानभोजन-ये अचौर्यव्रत की पाँच भावनाएँ है ।
४. स्त्री, पशु अथवा नपुसक द्वारा सेवित शयन आदि का वर्जन, रागपूर्वक स्त्रीकथा का वर्जन, स्त्रियों के मनोहर अंगों के अवलोकन का वर्जन, पहले के
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व्रतों की भावनाएँ
१६९ रतिविलास के स्मरण का वर्जन और प्रणीतरस-भोजन का वर्जन-ये ब्रह्मचर्य व्रत की पाँच भावनाएँ है ।
५. मनोज्ञ या अमनोज्ञ स्पर्श, रस, गन्ध, रूप तथा शब्द पर समभाव रखना-ये अपरिग्रह व्रत की पाँच भावनाएं हैं।
__ भावनाओं का स्पष्टीकरण---१ स्व-पर को क्लेग न हो, इस प्रकार यत्नपूर्वक गमन करना ईर्यासमिति है । मन को अशुभ ध्यान मे बचाकर शुभ ध्यान मे लगाना मनोगुप्ति है । वस्तु का गवेषण, उसका ग्रहण या उपय ग इन तीन एषणाओं मे दोष न लगने देने का ध्यान रखना एषणासमिति है। वस्तु को लेतेछोडते समय अवलोकन व प्रमार्जन आदि द्वारा उठाना रखना आदान-निक्षेपणसमिति है । खाने-पीने की वस्तु को भलीभाँति देख-भालकर लेना और बाद मे भी देख-भालकर खाना-पीना आलोकितपानभोजन है।
२ विचारपूर्वक बोलना अनुवीचिभाषण है । क्रोध, लोभ, भय तथा हास्य का त्याग करना ये चार भावनाएँ और है ।
३ सम्यक विचार करके ही उपयोग के लिए आवश्यक अवग्रह-स्थान की याचना करना अनुवीचिअवग्रहयाचन है । राजा, कुटुम्बपति, शय्यातर--जिसकी भी जगह माँगकर ली गई हो, ऐसे साधर्मिक आदि अनेक प्रकार के स्वामी हो सकते है । उनमे से जिस-जिस स्वामी से जो-जो स्थान माँगने मे विशेष औचित्य प्रतीत हो उनसे वही स्थान मांगना तथा एक बार देने के बाद मालिक ने वापिस ले लिया हो, फिर भी रोग आदि के कारण विशेष आवश्यक होने पर उसके स्वामी से इस प्रकार बार-बार लेना कि उसको क्लेश न होने पावे--यह अभीक्ष्णअवग्रहयाचन है । मालिक से मॉगते समय ही अवग्रह का परिमाण निश्चित कर लेना अवग्रहावधारण है । अपने से पहले दूसरे किसी समानधर्मी ने कोई स्थान ले लिया हो और उसी स्थान को उपयोग मे लाने का प्रसंग आ जाय तो उस सार्मिक से ही स्थान माँ..ना सार्मिकअवग्रहयाचन है। विधिपूर्वक अन्नपानादि लाने के बाद गुरु को दिखाकर उनकी अनुज्ञापूर्वक ही उपयोग करना अनुज्ञापितपानभोजन है ।
४. ब्रह्मचारी पुरुष या स्त्री का अपने से विजातीय व्यक्ति द्वारा सेवित शयन व आसन का त्याग करना स्त्रीप-नुषण्डकसेवितशयनासन-वर्जन है । ब्रह्मचारी का कामवर्धक बाते न करना रागसयुक्त स्त्रीकथा-वर्जन है । ब्रह्मचारी का अपने विजातीय व्यक्ति के कामोद्दीपक अंगों को न देखना मनोहरेन्द्रियावलोकन-वर्जन है । ब्रह्मचर्य स्वीकार करने से पहले के भोगो का स्मरण न करना पूर्वरतिविलासस्मरण-वर्जन है। कामोद्दीपक रसयुक्त खानपान का त्याग करना प्रणीतरसभोजन-वर्जन है।
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तत्त्वार्थसूत्र
[७. ४-७ ५. राग उत्पन्न करनेवाले स्पर्श, रस, गन्ध, रूप और शब्द पर न ललचाना और द्वेषोत्पादक हो तो रुष्ट न होना ये क्रमशः मनोज्ञामनोज्ञस्पर्शसमभाव एवं मनोज्ञामनोज्ञरससमभाव आदि पांच भावनाएँ है।
जैनधर्म त्यागलक्षी है, अत. जैन-संघ में महाव्रतधारी साधु का स्थान ही प्रथम है । यही कारण है कि यहाँ महाव्रत को लक्ष्य मे रखकर साधुधर्म के अनुसार ही भावनाओ का वर्णन किया गया है । फिर भी इतना तो है ही कि कोई भी व्रतधारी अपनी भूमिका के अनुसार इनमे सकोचविस्तार कर सके इसलिए देश-काल की परिस्थिति और आन्तरिक योग्यता को ध्यान में रखकर व्रत की स्थिरता के शुद्ध उद्देश्य से ये भावनाएँ संख्या तथा अर्थ मे घटाई-बढ़ाई तथा पल्लवित की जा सकती है।
कई अन्य भावनाएँ हिंसादिष्विहामुत्र चापायावद्यदर्शनम् । ४ । दुःखमेव वा ।५। मैत्रीप्रमोदकारुण्यमाध्यस्थ्यानि सत्त्वगुणाधिकक्लिश्यमानाविनेयेषु ।। जगत्कायस्वभावौ च संवेगवैराग्यार्थम् । ७।।
हिंसा आदि पाँच दोषो में ऐहिक आपत्ति और पारलौकिक अनिष्ट का दर्शन करना।
अथवा हिंसा आदि दोषों मे दुःख ही है, ऐसी भावना करना।
प्राणिमात्र के प्रति मैत्री-वृत्ति, गुणिजनों के प्रति प्रमोद-वृत्ति, दुःखी जनों के प्रति करुणा-वृत्ति और अयोग्य पात्रों के प्रति माध्यस्थ्यवृत्ति रखना।
सवेग तथा वैराग्य के लिए जगत् के स्वभाव और शरीर के स्वरूप का चिन्तन करना।
जिसका त्याग किया जाता है उसके दोषो का यथार्थ दर्शन होने से ही त्याग टिकता है। यही कारण है कि अहिसा आदि व्रतो की स्थिरता के लिए हिंसा आदि मे उनके दोषो का दर्शन करना आवश्यक माना गया है। यह दोषदर्शन यहाँ दो प्रकार से बताया गया है। हिंसा, असत्य आदि के सेवन से जो ऐहिक आपत्तियाँ स्वयं को अथवा दूसरों को अनुभव करनी पडती है उनका भान सदा ताजा रखना ही ऐहिक दोषदर्शन है । इन्हीं हिंसा आदि दोषों से'
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७. ४-७ ]
कई अन्य भावनाएँ
१७१
पारलौकिक अनिष्ट की जो सम्भावना होती है उसका ध्यान रखना पारलौकिक दोषदर्शन है । इन दोनों प्रकार के दोषदर्शन के संस्कारों को बढाते रहना अहिंसा आदि व्रतों की भावनाएं है ।
पहले की ही भाँति त्याज्य वृत्तियों में दुख के दर्शन का अभ्यास किया हो तभी उनका त्याग भलीभाँति टिक सकता है। इसके लिए हिसा आदि दोषों को दुःखरूप मानने की वृत्ति के अभ्यास ( दु.ख - भावना ) का यहाँ उपदेश दिया गया है । अहिंसादि व्रतों का धारक हिसा आदि से अपने को होनेवाले दुःख के समान दूसरों को होनेवाले ख की कल्पना करे, यही दुःख-भावना है । यह भावना इन व्रतों के स्थिरीकरण मे भी उपयोगी है |
मैत्री, प्रमोद आदि चार भावनाएँ तो किसी सद्गुण के अभ्यास के लिए अधिक-से-अधिक उपयोगी होने से अहिंसा आदि व्रतो को स्थिरता में विशेष उपयोगी हैं । इसी विचार से यहाँ पर इन चार भावनाओ का उल्लेख किया गया है । इन चार भावनाओं का विषय अमुक अंश मे तो अलग-अलग ही है, क्योंकि उस-उस विषय मे इन भावनाओ का अभ्यास किया जाय तभी वास्तविक परिणाम आता है । इसीलिए इन भावनाओं के साथ इनका विषय भी अलग-अलग दर्शाया गया है ।
प्राणी के प्रति अहिंसक
,
१. प्राणिमात्र के साथ मैत्रीवृत्ति हो तभी प्रत्येक तथा सत्यवादी के रूप मे बर्ताव किया जा सकता है अतः मैत्री का विषय प्राणिमात्र है | मैत्री का अथ है दूसरे मे अपनेपन की बुद्धि और इसीलिए अपने समान ही दूसरे को दुःखी न करने की वृत्ति अथवा भावना !
२. कई बार मनुष्य को अपने से आगे बढे हुए व्यक्ति को देखकर ईर्ष्या होती है । जब तक इस वृत्ति का नाश नही हो जाता तब तक अहिंसा, सत्य आदि व्रत टिकते ही नही । इसीलिए ईर्ष्या के विपरीत प्रमोद गुण की भावना के लिए कहा गया है । प्रमोद अर्थात् अपने से अधिक गुणवान् के प्रति आदर रखना तथा उसके उत्कर्ष को देखकर प्रसन्न होना । इस भावना का विषय अधिक गुणवान् ही है, क्योंकि उसके प्रति ही ईर्ष्या या असूया आदि दुर्वृत्तियाँ सम्भव है । ३ किसी को पीडित देखकर भी यदि अहिंसा आदि व्रत कभी निभ नही सकते, मानी गई है । इस भावना का विषय केवल क्योकि दुःखी, दीन व अनाथ को ही अनुग्रह तथा मदद की अपेक्षा रहती है । ४. सर्वदा और सर्वत्र मात्र प्रवृत्तिपरक भावनाएँ ही साधक नही होतीं, कई बार अहिंसा आदि व्रतों को स्थिर करने के लिए तटस्थ भाव धारण करना बड़ा
अनुकम्पा का भाव पैदा न हो तो इसलिए करुणा की क्लेश से पीडित
भावना आवश्यक दुःखी प्राणी है,
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१७२
तत्त्वार्थसूत्र
[७. ८
उपयोगी होता है । इसी कारण यहाँ माध्यस्थ्य-भावना का उपदेश किया गया है । माध्यस्थ्य का अर्थ है उपेक्षा या तटस्थता। जब नितात संस्कारहीन अथवा किसी तरह की भी सद्वस्तु ग्रहण करने के अयोग्य पात्र मिल जाय और यदि उसे सुधारने के सभी प्रयत्नों का परिणाम अन्तत शून्य ही दिखाई दे तो ऐसे व्यक्ति के प्रति तटस्थ भाव रखना ही उचित है । अत. माध्यस्थ्यभावना का विषय अविनेय या अयोग्य पात्र ही है। ___ संवेग तथा वैराग्य न हों तो अहिसा आदि व्रतो का पालन सम्भव ही नही है। अतः इस व्रत के अभ्यासी में संवेग और वैराग्य का होना पहले आवश्यक है। सवेग अथवा वैराग्य का बीजवपन जगत्स्वभाव एव शरीरस्वभाव के चिन्तन से होता है, इसीलिए इन दोनो के स्वभाव के चिन्तन का भावनारूप मे यहाँ उपदेश किया गया है।
प्राणिमात्र को थोडे-बहुत दु.ख का अनुभव तो निरन्तर होता ही रहता है। जीवन सर्वथा विनश्वर है, अन्य वस्तुएँ भी टिकती नही । इस जगत्स्वभाव के चिन्तन से ही संसार का मोह दूर होता है और उससे भय या सवेग उत्पन्न होता है। इसी प्रकार शरीर के अस्थिर, अशुचि और असारता के स्वभावचिन्तन से बाह्याभ्यन्तर विषयो के प्रति अनासक्ति या वैराग्य उत्पन्न होता है । ४-७ ।
हिसा का स्वरूप प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा। ८। प्रमत्तयोग से होनेवाला प्राणवध हिंसा है।
अहिसा आदि जिन पाँच व्रतों का निरूपण पहले किया गया है उनको भली-भांति समझने और जीवन में उतारने के लिए विरोधी दोषों का यथार्थ स्वरूप जानना आवश्यक है । अतः यहाँ इन पाँच दोषो के निरूपण का प्रकरण प्रारम्भ होता है । इस सूत्र मे प्रथम दोष हिसा की व्याख्या की गई है।
हिसा की व्याख्या दो अशों द्वारा पूरी की गई है। पहला अश है प्रमत्तयोग अर्थात् रागद्वेषयुक्त अथवा असावधान प्रवृति और दूसरा है प्राणवध । पहला अश कारण-रूप है और दूसरा कार्य-रूप । इसका फलितार्थ यह है कि जो प्राणवध प्रमत्तयोग से हो वह हिसा है ।
प्रश्न-किसी के प्राण लेना या किसी को दुःख देना हिंसा है। हिसा का यह अर्थ सबके जानने योग्य है और बहुत प्रसिद्ध भी है। फिर भी इस अर्थ में 'प्रमत्तयोग' अंश जोड़ने का कारण क्या है ?
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७. ८ ] हिमा का स्वरूप
१७३ उत्तर--जब तक मानव-समाज के विचार और व्यवहार मे उच्च संस्कार का प्रवेश नही होता तब तक मानव-समाज तथा अन्य प्राणियों के बीच जीवनव्यवहार मे विशेष अन्तर नही पडता । पशु-पक्षी की भाँति असंस्कृत समाज के मनुष्य मी मानसिक वृत्तियो से प्रेरित होकर जाने-अनजाने जीवन की आवश्यकताओं के लिए अथवा बिना आवश्यकताओं के ही दूसरे जीवों के प्राण लेते है । मानव-समाज की हिंसा-मय इस प्राथमिक दशा मे जब एकाध मनुष्य के विचार मे हिंसा के स्वरूप के बारे मे जागृति होती है तब वह प्रचलित हिसा को दोषरूप कहता है और दूसरे के प्राण न लेने की प्रेरणा करता है। एक ओर हिंसा जैसी प्रथा के पुराने संस्कार और दूसरी ओर अहिंसा की नवीन भावना का उदय. इन दोनो के बीच संघर्ष होते समय हिसकवृत्ति की ओर से हिंसा-निषेधक के समक्ष अनेक प्रश्न अपने-आप खडे होने लगते है और वे उसके सामने रखे जाते है । संक्षेप मे वे प्रश्न तीन है
१. अहिंसा के समर्थक भी जीवन-धारण तो करते ही है और यह जीवन किसी-न-किसी प्रकार की हिसा किये बिना निभने योग्य न होने से उनसे जो हिसा होती है उसे दोष कहा जाय या नही ?
२. भूल और अज्ञान का जब तक मानवीय वृत्ति में सर्वथा अभाव सिद्ध न हो जाय तब तक अहिंसा के समर्थकों के हाथो अनजाने या भूल से किसी का प्राणनाश होना तो सम्भव ही है, अतः ऐसा प्राण नाश हिंसा दोष मे आयेगा या नही ?
३. कई बार अहिसक वृत्ति का मनुष्य किसी को बचाने या उसको सुख-सुविधा पहुँचाने का प्रयत्न करता है, परन्तु परिणाम उलटा हो आता है, अर्थात् जिसको बचाना था उसी के प्राण चले जाते है। यह प्राणनाश हिंसा-दोष मे आयेगा या नही ?
ऐसे प्रश्न उपस्थित होने पर उनके समाधान मे हिसा और अहिसा के स्वरूप का विचार गम्भीर हो जाता है। फलत हिसा और अहिसा का अर्थ विशाल हो जाता है। किसी के प्राण लेना या बहुत हुआ तो उसके निमित्त किसी को दु.ख देना यह जो हिमा का अर्थ समझा जाता था तथा किसी के प्राण न लेना और उसके निमित्त किसी को दु ख ल देना यह जो अहिंसा का अर्थ समझा जाता था उसके स्थान पर अहिसा के विचारको ने सूक्ष्मतापूर्वक विचार करके निश्चय किया कि केवल किसी के प्राण लेने या किसी को दुःख देने मे हिंसा-दोष है ही, यह नही कह सकते, क्योकि प्राणवध या दुःख देने के साथ ही उसके पीछे वैसा करनेवाले की भावना का विचार करके ही हिंसा की सदोषता या निर्दोषता का
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१७४ तत्त्वार्थसूत्र
[७.८ निर्णय किया जा सकता है । वह भावना अर्थात् राग-द्वेष की विविध मियाँ तथा असावधानता, जिसको शास्त्रीय परिभाषा मे प्रमाद कहते है, ऐसी अशुभ अथवा क्षुद्र भावना से हो यदि प्राणनाश हुआ हो या दु.ख दिया गया हो तो वह हिंसा है और वही दोप-रूप भी है। ऐसी भावना के बिना यदि प्राणनाश हुआ हो या दुःख दिया गया हो तो वह देखने मे भले हो हिसा हो लेकिन दोषकोटि में नही आती। इस प्रकार हिसक समाज मे अहिसा के सस्कारों के फैलने और उनके कारण विचार का विकास होने से दोषरूप हिसा की व्याख्या के लिए केवल 'प्राणनाश' अर्थ ही पर्याप्त नहो हुआ, इसीलिए उसमे 'प्रमत्तयोग' जैसा महत्त्व पूर्ण अंश बढाया गया ।
प्रश्न -- हिंसा की इस व्याख्या से यह प्रश्न उठता है कि प्रमत्तयोग के बिना ही यदि प्राणवध हो जाय तो उसे हिंसा कहेगे या नही ? इसी प्रकार प्राण वध तो न हुआ हो लेकिन प्रमत्तयोग हो तब भी उसे हिसा मानेंगे या नहीं ? यदि इन दोनों स्थलों में हिंसा मानी जाय तो वह हिंसा प्रमत्तयोगजनित प्राणवधरूप हिसा-कोटि की ही होगी या उससे भिन्न प्रकार की ?
उत्तर-केवल प्राण वध स्थूल होने से दृश्य-हिसा तो है ही, जब कि प्रमत्तयोग सूक्ष्म होने से अदृश्य है। इन दोनों मे दृश्यत्व-अदृश्यत्व के अन्तर के अतिरिक्त ध्यान देने योग्य एक महत्त्वपूर्ण अन्तर दूसरा भी है और उसी पर हिसा की सदोषता या निर्दोषता निर्भर करती है। प्राणनाश देखने में भले ही हिंसा हो फिर भी वह सर्वथा दोषरूप नहीं है, क्योंकि यह दोषरूपता स्वाधीन नही है । हिसा की सदोषता हिसक की भावना पर अवलम्बित होती है, अतः वह पराधीन है । भावना स्वयं बुरी हो तभी प्राणवध दोषरूप होगा, भावना बुरी न हो तो वह प्राणवध भी दोषरूप नहीं होगा। इसीलिए शास्त्रीय परिभाषा मे ऐसी हिसा को द्रव्य-हिसा अथवा व्यावहारिक हिंसा कहा गया है । द्रयहिंसा अथवा व्यावहारिक हिसा का अर्थ यही है कि उसकी दोषरूपता अबाधित नहीं है । इसके विपरीत प्रमत्तयोगरूप जो सूक्ष्म भावना है वह स्वयं ही सदोष है, जिससे उसकी सदोषता स्वाधीन है अर्थात् वह स्थूल प्राणनाश या किसी अन्य बाह्य वस्तु पर अवलम्बित नही है । स्थूल प्राणनाश करने या दुःख देने का प्रयत्न होने पर उलटा दूसरे का जीवन बढ गया हो या उसको सुख ही पहुंच गया हो, फिर भी यदि उसके पीछे भावना अशुभ रही हो तो वह सब एकान्त दोष-रूप ही समझा जायगा। यही कारण है कि ऐसी अशुभ भावना को शास्त्रीय परिभाषा में भावहिंसा अथवा निश्चय-हिंसा कहा गया है । इसका अर्थ यही है कि उसकी दोषरूपता स्वाधीन होने से तीनों कालों में अबाधित रहती है। केवल प्रमत्तयोग या केवल प्रामात्र
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७. ८ ]
हिंसा का स्वरूप इन दोनों को स्वतन्त्र ( अलग-अलग ) हिंसा मान लेने और दोनों की दोषरूपता का पूर्वोक्त रीति से तारतम्य जान लेने के बाद इस प्रश्न का उत्तर स्पष्ट हो जाता है कि ये दोनों प्रकार की हिंसाएँ प्रमत्तयोग-जनित प्राणवध जैसी हिसा की कोटि की ही है या भिन्न प्रकार की । यह भी स्पष्ट हो जाता है कि भले ही स्थूल आँख न देख सके लेकिन तात्त्विक रूप से तो प्रमत्तयोग ही प्रमत्तयोगजनित प्राणनाश की कोटि की हिंसा है और केवल प्राणनाश ऐसी हिंसा नही है जो उक्त कोटि मे आ सके ।
प्रश्न-यदि प्रमत्तयोग ही हिंसा की सदोषता का मूल बीज है तब तो हिसा की व्याख्या इतनी ही पर्याप्त होगी कि 'प्रमत्तयोग हिसा है।' यदि ऐसा हो तो यह प्रश्न स्वाभाविक ही उठता है कि फिर हिंसा की व्याख्या मे 'प्राणनाश' को स्थान देने का क्या कारण है ?
उत्तर-तात्त्विक रूप मे तो प्रमत्तयोग ही हिसा है लेकिन समुदाय द्वारा सम्पूर्णतया और बहुत अंशों मे उसका त्याग करना सम्भव नही। इसके विपरीत स्थूल होने पर भी प्राणवध का त्याग सामुदायिक जीवनहित के लिए वांछनीय है और यह बहुत अंशों मे सम्भव भी है। प्रमत्तयोग न भी छूटा हो लेकिन स्थूल प्राणवधवृत्ति के कम हो जाने से भी प्रायः सामुदायिक जीवन में सुख-शान्ति रहती है। अहिंसा के विकास-क्रम के अनुसार भी समुदाय मे पहले स्थूल प्राणनाश का त्याग और बाद में धीरे-धीरे प्रमत्तयोग का त्याग सम्भव होता है। इसीलिए आध्यात्मिक विकास में सहायक रूप में प्रमत्तयोगरूप हिंसा का ही त्याग इष्ट होने पर भी सामुदायिक जीवन की दृष्टि से हिंसा के स्वरूप के अन्तर्गत स्थूल प्राणनाश को स्थान दिया गया है तथा उसके त्याग को भी अहिसा की कोटि में रखा गया है।
प्रश्न-यह तो सही है कि शास्त्रकार ने जिसे हिंसा कहा है उससे निवृत्त होना ही अहिंसा है। पर ऐसे अहिसाव्रती के लिए जीवन-निर्माण की दृष्टि से क्या-क्या कर्तव्य अनिवार्य है ?
उत्तर-१. जीवन को सादा बनाना और आवश्यकताओ को कम करना ।
२. मानवीय वृत्ति मे अज्ञान की चाहे जितनी गुंजाइश हो लेकिन पुरुषार्थ के अनुसार ज्ञान का भी स्थान है ही। इसलिए प्रतिक्षण सावधान रहना और कही भूल न हो जाय, इसका ध्यान रखना और यदि भूल हो जाय तो वह ध्यान से ओझल न हो सके, ऐसी दृष्टि बनाना ।
३. आवश्यकताओं को कम करने और सामान रहने का लक्ष्य रखने पर
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तत्त्वार्थसूत्र भी चित्त के मूल दोष, जैसे स्थूल जोवन की तृष्णा और उसके कारण पैदा होनेवाले दूसरे रागद्वेषादि दोषों को कम करने का सतत प्रयत्न करना ।
प्रश्न-ऊपर हिमा की जो दोषरूपता बतलाई गई है उसका क्या अर्थ है ?
उत्तर-जिममे चित्त की कोमलता कम हो और कठोरता बढे तथा स्थूल जीवन की तृष्णा बड़े वही हिमा की सदोषता है। जिससे कठोरता न बढे एव सहज प्रेममय वृत्ति व अतर्मुख जीवन मे तनिक भी बाधा न पहुँचे, तब भले ही देखने मे हिसा हो, लेकिन वही हिसा की अदोषता है ।
असत्य का स्वरूप
असदभिधानमनृतम् ।९।। असत् बोलना अनृत ( असत्य ) है ।
सूत्र मे असत्-कथन को असत्य कहा गया है, फिर भी उसका भाव व्यापक होने से उसमे असत्-चिन्तन, असत्-भाषण और असत्-आचरण इन सबका समावेश है। ये सभी असत्य है। जैसे अहिसा की व्याख्या मे 'प्रमत्तयोग' विशेषण लगा है वैसे ही अमत्य तथा अदत्तादानादि दोषों की व्याख्या में भी यह विशेषण जोड लेना चाहिए। इसलिए प्रमत्तयोगपूर्वक जो असत्-कथन है वह असत्य है, यह असत्य-दोष का फलित अर्थ है ।।
'असत्' शब्द के मुख्यतः दो अर्थ यहाँ अभिप्रेत है :
१. जो वस्तु अस्तित्व मे हो उसका सर्वथा निषेध करना अथवा निषेध न करने पर भी जिस रूप में वस्तु हो उसको उस रूप मे न कहकर उसका अन्यथा कथन करना अरत् है ।
२ गहित असत् अर्थात् जो सत्य होने पर भी दूसरे को पीडा पहुंचाता हो ऐसा दुर्भावयुक्त कथन अमत् है ।
पहले अर्थ के अनुसार पाम मे पूँजी होने पर भी जब लेनदार ( साहूकार ) माँग करे तब कह देना कि कुछ भी नहीं है, यह असत्य है। इसी प्रकार पास में पूजी है, यह स्वीकार कर लेने पर भी लेनदार सफल न हो सके इस प्रकार का वक्तव्य देना भी असत्य है ।
१. अब्रह्म में 'प्रमत्तयोग' विशेषण नही लगता, क्योकि यह दोष अप्रमत्त दशा मे सम्भव ही नहीं है। इसीलिए तो ब्रह्मचर्य को निरपवाद कहा गया है। विशेष स्पष्टीकरण के लिए देखे-'जैन दृष्ठिए ब्रह्मचर्य' नामक गुजराती निबन्ध ।
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७. १०-११] चोरी व अब्रह्म का स्वरूप
१७७ दूसरे अर्थ के अनुसार किसी भी अनपढ या मूढ को नीचा दिखाने के लिए अथवा ऐसे ढंग से कि उसे दुख पहुँचे, सत्य होने पर भी 'अनपढ' या 'मूढ़' कहना असत्य है।
असत्य के उक्त अर्थ से सत्यव्रतधारी के लिए निम्न अर्थ फलित होते है : १. प्रमत्तयोग का त्याग करना । २. मन, वचन और काय की प्रवृत्ति में एकरूपता रखना ।
३. सत्य होने पर भी दुर्भाव से न तो अप्रिय मोचना, न बोलना और न करना।९।
चोरी का स्वरूप
अदत्तादानं स्तेयम् । १० । बिना दिये लेना स्तेय ( चोरी ) है।
जिस वस्तु पर किसी दूसरे का स्वामित्व हो, भले ही वह वस्तु तृणवत् या मूल्यरहित हो, उसके स्वामी की आज्ञा के बिना चौर्य-बुद्धि से ग्रहण करना स्तेय है।
इस व्याख्या से अचौर्यव्रतधारी के लिए निम्न अर्थ फलित होते है : १. किसी भी वस्तु के प्रति लालची वृत्ति दूर करना।
२. जब तक ललचाने की आदत न छूटे तब तक लालच की वस्तु न्यायपूर्वक अपने आप ही प्राप्त करना और दूसरे की ऐसी वस्तु आज्ञा के बिना लेने का विचार तक न करना । १० ।
अब्रह्म का स्वरूप
मैथुनमब्रह्म।११। मैथुन-प्रवृत्ति अब्रह्म है।
मैथुन अर्थात् मिथुन की प्रवृत्ति । 'मिथुन' शब्द सामान्य रूप से स्त्री और पुरुष के 'जोडे' के अर्थ मे प्रसिद्ध है। फिर भी इसके अर्थ को कुछ विस्तृत करना आवश्यक है । जोडा स्त्री-पुरुष का, पुरुष-पुरुष का या स्त्री-स्त्री का भी हो सकता है। वह सजातीय--मनुष्य आदि एक जाति का अथवा विजातीय-मनुष्य, पशु आदि भिन्न-भिन्न जातियों का भी हो सकता है। ऐसे जोडे की काम-राग के आवेश से उत्पन्न मानसिक, वाचिक अथवा कायिक कोई भी प्रवृत्ति मैथुन अर्थात अब्रह्म है।
१२
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तत्त्वार्थ सूत्र
[ ७. १२
प्रश्न - जहाँ जोड़ा न हो किन्तु स्त्री या पुरुष मे से कोई एक ही व्यक्ति
कामराग के आवेश में जड़ वस्तु के आलम्बन से अथवा द्वारा मिथ्या आचार का सेवन करे तो ऐसी चेष्टा को क्या मैथुन कह सकते है ?
अपने हस्त आदि अवयवों उपर्युक्त व्याख्या के अनुसार
१७८
उत्तर——हीं, अवश्य कह सकते है । क्योंकि मैथुन का मूल भावार्थ तो कामरागजनित चेष्टा ही हैं । यह अर्थ तो किसी एक व्यक्ति की वैसी दुश्चेष्टाओं पर भी लागू हो सकता है, अतः उसमे भी मैथुन का दोष है ही ।
प्रश्न - मैथुन को अब्रह्म कहने का क्या कारण है ?
उत्तर—जो ब्रह्म न हो वह अब्रह्म है । ब्रह्म का अर्थ है —— जिसके पालन और अनुसरण से सद्गुणो की वृद्धि हो । जिस ओर जाने से सद्गुणों की वृद्धि न हो, बल्कि दोषों का ही पोषण हो वह अब्रह्म है । मैथुन प्रवृत्ति ऐसी है कि उसमे पड़ते ही सारे दोषों का पोषण और सद्गुणों का ह्रास प्रारम्भ हो जाता है । इसीलिए मैथुन को अब्रह्म कहा गया है । ११ ।
परिग्रह का स्वरूप
मूर्च्छा परिग्रहः । १२ ॥
मूर्च्छा ही परिग्रह है ।
मूर्च्छा अर्थात् आसक्ति । वस्तु छोटी-बड़ी, जड़-चेतन, बाह्य या आन्तरिक चाहे जो हो या न भी हो तो भी उसमे बँध जाना अर्थात् उसकी लगन में विवेकशून्य हो जाना परिग्रह है ।
प्रश्न- - हिंसा से परिग्रह तक के पाँच दोषों का स्वरूप ऊपर-ऊपर से भिन्न प्रतीत होता है, पर सूक्ष्मतापूर्वक विचार करने पर उसमें कोई विशेष भेद नहीं 1 वस्तुतः इन पांचों दोषों की सदोषता का आधार राग, द्वेष और मोह ही है और यही हिसा आदि वृत्तियों का जहर है । इसी से वे वृत्तियाँ दोषरूप है । यदि यह बात सत्य है तब 'राग-द्वेष आदि ही दोष है' इतना कहना ही काफी होगा । फिर दोष के हिंसा आदि पाँच या न्यूनाधिक भेदों का वर्णन क्यों किया जाता है ?
उत्तर -- निःसन्देह कोई भी प्रवृत्ति राग-द्वेष आदि के कारण ही होती है । अतः मुख्य रूप से राग-द्वेष आदि ही दोष है और इन दोषों से विरत होना ही मुख्य व्रत है । फिर भी राग-द्वेषादि तथा ऐसी प्रवृत्तियों के त्याग का उपदेश तभी किया जा सकता है जब कि तज्जन्य प्रवृत्तियों के विषय में समझा दिया गया हो । स्थूल दृष्टिवाले लोगों के लिए दूसरा क्रम अर्थात् सीधे राग-द्वेषादि के त्याग का उपदेश सम्भव नही है । रागद्वेषजन्य असंख्य प्रवृत्तियों में से हिंसा, असत्य आदि
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७. १३ ]
यथार्थ व्रती की प्राथमिक योग्यता
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मुख्य है और वे प्रवृत्तियाँ ही मुख्य रूप से आध्यात्मिक या लौकिक जीवन को कुरेद डालती है । इसीलिए हिसा आदि प्रवृत्तियों को पांच भागों में बाँटकर पांच दोषों का वर्णन किया गया है ।
दोषों को इस संख्या में समय-समय पर और देश-भेद से परिवर्तन होता रहा है और होता रहेगा, फिर भी संख्या और स्थूल नाम के मोह में न पड़कर इतना जान लेना पर्याप्त है कि इन प्रवृत्तियों के राग, द्वेष व मोह आदि दोषों का त्याग करने की ही बात मुख्य है । अतः हिंसा आदि पाँच दोषों में कौन-सा दोष प्रधान है, किसका पहले या बाद मे त्याग करना चाहिए यह प्रश्न ही नहीं रहता। हिसादोष की व्यापक व्याख्या में असत्य आदि सभी दोष आ जाते हैं । इसी प्रकार असत्य या चोरी आदि किसी भी दोष की व्यापक व्याख्या में शेष सब दोष आ जाते है। यही कारण है कि अहिसा को मुख्य धर्म माननेवाले हिंसादोष में असत्यादि सब दोषों को समाहित कर लेते है और केवल हिंसा के त्याग मे ही अन्य सभी दोषों का त्याग भी समझते है। सत्य को परमधर्म माननेवाले असत्य में शेष सब दोषों को घटित कर केवल असत्य के त्याग में ही सब दोषों का त्याग समझते है। इसी प्रकार संतोष, ब्रह्मचर्य आदि को मुख्य धर्म माननेवाले भी समझते है । १२ ।
यथार्थ व्रती की प्राथमिक योग्यता
निःशल्यो व्रती। १३ । शल्यरहित ही प्रत्ती होता है।
अहिसा, सत्य आदि व्रतों के ग्रहण करने मात्र से कोई सच्चा व्रती नहीं बन जाता । सच्चा व्रती बनने के लिए छोटी-से-छोटी और सबसे पहली शर्त एक ही है कि 'शल्य' का त्याग किया जाय । संक्षेप में शल्य तीन है : १. दम्भ-कपट, ढोंग अथवा ठगवृत्ति, २. निदान-भोगो को लालसा, ३. मिथ्यादर्शन-सत्य पर श्रद्धा न रखना अथवा असत्य का आग्रह । ये तीनों दोष मानसिक है। ये मन और तन दोनों को कुरेद डालते है और आत्मा भी कभी स्वस्थ नही रह पाती। शल्ययुक्त आत्मा किसी कारण से व्रत ग्रहण कर भी ले, किंतु वह उनके पालन में एकाग्र नहीं हो पाती । जैसे किसी अंग मे काँटा या तीक्ष्ण वस्तु चुभ जाय तो वह शरीर और मन को व्याकुल बना डालती है और आत्मा को भी कार्य में एकाग्र नही होने देती, वैसे ही ये मानसिक दोष भी उसी प्रकार की व्यग्रता पैदा करते है। इसीलिए व्रती बनने के लिए उनका त्याग प्रथम शर्त के रूप में आवश्यक माना गया है । १३ ।
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१८०
तत्त्वार्थसूत्र
[७.१४-१७ व्रती के भेद
अगार्यनगारश्च । १४ । व्रती के अगारी ( गृहस्थ ) और अनगार ( त्यागी ) ये दो भेद हैं।
प्रत्येक व्रतधारी की योग्यता समान नहीं होती। इसीलिए यहाँ योग्यता के तारतम्य के अनुसार संक्षेप में व्रती के दो भेद किए गए है-१. अगारी और २. अनगार । अगार अर्थात् घर । जिसका घर के साथ सम्बन्ध हो वह अगारी सर्थात् गृहस्थ । जिसका घर के साथ सम्बन्ध न हो वह अनगार अर्थात् त्यागी, मुनि ।
अगारी और अनगार इन दोनों शब्दों का सरल अर्थ घर मे रहना या न रहना ही है । लेकिन यहाँ इनका यह तात्पर्य अपेक्षित है कि विषयतृष्णा से युक्त अगारी है तथा विषयतृष्णा से मुक्त अनगार । इसका फलितार्थ यह है कि कोई घर में रहता हुआ भी विषयतृष्णा से मुक्त हो तो अनगार ही है तथा कोई घर छोड़कर जंगल मे जा बसे लेकिन विषयतृष्णा से मुक्त नही है तो वह अगारी ही है । अगारीपन और अनगारपन की एक यही सच्ची एवं प्रमुख कसौटी है तथा उसके आधार पर ही यहाँ व्रती के दो भेद वर्णित है।
प्रश्न-यदि कोई विषयतृष्णा होने के कारण अगारी है तो फिर उसे व्रती कैसे कहा जा सकता है ?
उत्तर--स्थूल दृष्टि से कहा जा सकता है । जैसे कोई व्यक्ति अपने घर आदि किसी नियत स्थान में ही रहता है और फिर भी अमुक शहर मे रहता हैऐसा व्यवहार अपेक्षाविशेष से करते है, वैसे ही विषयतृष्णा के रहने पर भी अल्पांश मे व्रत का सम्बन्ध होने से उसे व्रती कहा जा सकता है । १४ ।
अगारी व्रती अणुव्रतोऽगारी। १५ । दिग्देशानर्थदण्डविरतिसामायिकपौषधोपवासोपभोगपरिभोगपरिमाणाऽतिथिसंविभागवतसम्पन्नश्च।१६।
मारणान्तिकों संलेखनां जोषिता । १७ । अणुव्रतधारी अगारी व्रती कहलाता है ।
वह व्रती दिग्विरति, देशविरति अनर्थदण्डविरति, सामायिक, पौषधोपवास, उपभोगपरिभोगपरिमाण और अतिथिसंविभाग-इन व्रतों से भी सम्पन्न होता है।
वह मारणान्तिक संलेखना का भी आराधक होता है ।
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७. १५-१७ ]
अगारी व्रती
१८१
जो अहिंसा आदि व्रतों को सम्पूर्ण रूप से स्वीकार करने में समर्थ नही है, फिर भी त्यागवृत्तियुक्त है, वह गार्हस्थिक मर्यादा मे रहकर अपनी त्यागवृत्ति के अनुसार इन व्रतों को अल्पाश मे स्वीकार करता है । ऐसा गृहस्थ 'अणुव्रतधारी श्रावक' कहा जाता है ।
सम्पूर्णरूप से स्वीकार किये जानेवाले व्रत महाव्रत कहलाते है । उनके स्वीकरण की प्रतिज्ञा मे सम्पूर्णता के कारण तारतम्य नहीं रखा जाता । जब व्रतों को अल्पाश में स्वीकार किया जाता है, तब अल्पता की विविधता के कारण प्रतिज्ञा भी अनेक प्रकार से अलग-अलग ली जाती है । फिर भी एक-एक अणुव्रत की विविधता में न जाकर सूत्रकार ने सामान्यतः गृहस्थ के अहिंसा आदि व्रतों का एक-एक अणुव्रत के रूप मे वर्णन किया है । ये अणुव्रत पाँच है, जो भूलभूत है अर्थात् त्याग के प्रथम स्तम्भ होने से मूलगुण या मूलव्रत कहलाते है । इनकी रक्षा, पुष्टि अथवा शुद्धि के निमित्त गृहस्थ अन्य भी अनेक व्रत स्वीकार करता है, जो उत्तरगुण' या उत्तरव्रत के नाम से प्रसिद्ध है । ऐसे उत्तरव्रत संक्षेप में सात है तथा गृहस्थ व्रती जीवन के अन्तिम समय में जिस एक व्रत को लेने के लिए प्रेरित होता है, उसे संलेखना कहा जाता है । यहाँ उसका भी निर्देश है । इन सभी व्रतों का स्वरूप यहाँ संक्षेप मे बतलाया जा रहा है ।
पाँच प्ररण, व्रत-२. छोटे-बड़े प्रत्येक जीव की मानसिक, वाचिक, कायिक हिंसा का पूर्णतया त्याग सम्भव न होने के कारण अपनी निश्चित की हुई गृहस्थमर्यादा. जितनी अल्प- हिसा से निभ सके उससे अधिक हिंसा का त्याग करना
१. सामान्यतः भ० महावीर की समग्र परम्परा मे अणव्रतों की पॉच संख्या, उनके नाम तथा क्रम मे कोई अन्तर नही है। हॉ, दिगम्बर परम्परा में कुछ आचार्यों ने रात्रिभोजन के त्याग को छठे अणुव्रत के रूप में गिना है । परन्तु उत्तरगुण के रूप में माने हुए श्रावक के व्रतों के विषय में प्राचीन व नवीन अनेक परम्पराएँ हैं । तत्त्वार्थसूत्र में दिग्विरमण के बाद उपभोगपरिभोगपरिमाणव्रत के स्थान पर देशविरमणव्रत को रखा गया है, जब कि आगमों में दिग्विरमण के बाद उपभोगपरिभोगपरिमाणव्रत है तथा देशविरमणव्रत को सामायिकव्रत के बाद गिना है । ऐसे क्रम-भेद के बावजूद जो तीन व्रत गुणव्रत के रूप में और चार व्रत शिक्षाव्रत के रूप मे माने जाते हैं उनमे कोई अन्तर नहीं है । उत्तरगुणों के विषय मे दिगम्बर सम्प्रदाय मे छः विभिन्न परम्पराएँ देखने मे आती है I कुन्दकुन्द, उमास्वाति, समन्तभद्र, स्वामी कार्तिकेय, जिनसेन और वसुनन्दी इन आचार्यों की भिन्न-भिन्न मान्यताएँ है । इस मतभेद में कहीं नाम का, कहीं क्रम का, कही संख्या का और कही अर्थविकास का अन्तर है । यह सब स्पष्टरूप से जानने के लिए देखें-पं० जुगलकिशोरजी मुख्तार को जैनाचार्यों का शासन-भेद नामक पुस्तक, पृ० २१ से आगे ।
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९८२ तत्त्वार्धसूत्र
[७. १५-१७ अहिंसाणुव्रत है। इसी प्रकार असत्य, चोरी, कामाचार और परिग्रह का अपनी परिस्थिति के अनुसार मर्यादित रुप में त्याग करना-२. सत्य, ३. अस्तेय, ४. ब्रह्मचर्य और ५. अपरिग्रह अणुव्रत है।
तीन गुणवत-६. अपनी त्यागवृत्ति के अनुसार पूर्व व पश्चिम आदि सभी दिशाओं का परिमाण निश्चित करके उस सीमा के बाहर सब प्रकार के अधर्म-कार्यो से निवृत्त होना दिग्विरतिव्रत है । ७. सर्वदा के लिए दिशा का परिमाण निश्चित कर लेने के बाद भी उसमें से प्रयोजन के अनुसार समय-समय पर क्षेत्र का परिमाण निश्चित करके उसके बाहर अधर्म-कार्य से सर्वथा निवृत्त होना देशविरतिव्रत है । ८. अपने भोगरूप प्रयोजन के लिए होनेवाले अधर्म-व्यापार के अतिरिक्त शेष सम्पूर्ण अधर्म-व्यापार से निवृत्त होना अर्थात् कोई निरर्थक प्रवृत्ति न करना अनर्थदण्डविरतिव्रत है।
चार शिक्षाप्रत–९. काल का अभिग्रह लेकर अर्थात् अमुक समय तक अधर्मप्रवृत्ति का त्याग करके धर्मप्रवृत्ति में स्थिर होने का अभ्यास करना सामायिक व्रत है । १०. अष्टमी, चतुर्दशी, पूर्णिमा या किसी दूसरी तिथि मे उपवास करके और सब प्रकार की शरीर-विभूषा का त्याग करके धर्म-जागरण में तत्पर रहना पौषधोपवासव्रत है । ११. अधिक अधर्म की संभावनावाले खान-पान, आभूषण, वस्त्र, बर्तन आदि का त्याग करके अल्प अधर्मवाली वस्तुओ की भी भोग के लिए मर्यादा बाँधमा उपभोगपरिभोगपरिमाणवत है। १२. न्याय से उपार्जित और खपनेवाली खान-पान आदि के योग्य वस्तुओं का शुद्ध भक्तिभावपूर्वक सुपात्र को इस प्रकार दान देना कि उससे उभय पक्ष का हित हो–अतिथिसंविभागवत है ।
संलेखना-कषायों को नष्ट करने के लिए उनके निर्वाहक और पोषक कारणों को कम करते हुए कषायों को मन्द करना संलेखनावत है। यह व्रत वर्तमान शरीर का अन्त होने तक के लिए लिया जाता है । इसको मारणान्तिक संलेखना कहते है। गृहस्थ भी श्रद्धापूर्वक सलेखनाव्रत स्वीकार करके उसका सम्पूर्णतया पालन करते है, इसीलिए उन्हे इस व्रत का आराधक कहा गया है।
प्रश्न--संलेखनावत धारण करनेवाला मनुष्य अनशन आदि द्वारा शरीर का अन्त करता है। यह तो आत्महत्या है और यह स्वहिंसा ही है। फिर इसको व्रत मानकर त्यागधर्म मे स्थान देना कहाँ तक उचित है ?
उत्तर-यह भले ही दुःख या प्राणनाश दिखाई दे, पर इतने मात्र से यह व्रत हिंसा की कोटि में नहीं आता। वास्तविक हिसा का स्वरूप तो राग, द्वेष एवं मोह की वृत्ति से ही बनता है। संलेखनावत मे प्राणनाश है, पर वह राग, द्वेष एवं मोह के न होने से हिंसा की कोटि मे नही आता, अपितु निर्मो
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७. १८] सम्यग्दर्शन के अतिचार
१८३ हत्व और वीतरामत्व साधने की भावना में से ही यह व्रत उत्पन्न होता है और इस भावना की सिद्धि के प्रयत्न के कारण ही यह व्रत पूर्ण बनता है । इसलिए यह हिंसा नही है, अपितु शुभध्यान अथवा शुद्धध्यान की कोटि का होने से इसको त्यागधर्म में स्थान प्राप्त है।
प्रश्न-जनेतर पन्थों में प्राणनाश करने की और धर्म मानने की कमलपूजा, भैरवजप, जलसमाधि आदि अनेक प्रथाएँ प्रचलित थी एवं है; उनमे और सलेखना में क्या अन्तर है ?
उतर-प्राणनाश की स्थूल दृष्टि से भले ही ये समान दिखाई दें, किन्तु भेद तो उनमें निहित भावना मे ही होता है । कमलपूजा आदि के पीछे कोई भौतिक आशम या दूसरा प्रलोभन न हो और केवल भक्ति का आवेश या अर्पण की वृत्ति हो, ऐसी स्थिति मे तथा आवेश या प्रलोभन से रहित संलेखना की स्थिति में अगर कोई अन्तर कहा जा सकता है तो वह भिन्न-भिन्न तत्त्वज्ञान पर अवलम्बित भिन्न-भिन्न उपासनाओं में निहित भावनाओं का ही है। जैन-उपासना का ध्येय उसके तत्त्वज्ञान के अनुसार परार्पण या परप्रसन्नता नहीं है, अपितु यात्मशोधन मात्र है। पुराने समय से चली आई धर्म्य प्राणनाश की विविध प्रथावों का उसी ध्येय की दृष्टि से संशोधित रूप जो कि जैन संप्रदाय मे प्रचलित है, संसलावत है। इसीलिए संलेखनावत का विधान विशिष्ट संयोगों में किया गया है।
जब जीवन का अन्त निश्चित रूप से समीप दिखाई दे, धर्म एवं आवश्यक कर्तव्यों का नाश हो रहा हो तथा किसी तरह का दुर्ध्यान न हो उसी स्थिति में यह व्रत विधेय माना गया है। १५-१७ ।
सम्यग्दर्शन के अतिचार शङ्काकाङ्क्षाविचिकित्साऽन्यदृष्टिप्रशंसासंस्तवाः
सम्यग्दृष्देरतिचाराः। १८ । शङ्का, कांक्षा, विचिकित्सा, अन्यदृष्टिप्रशंसा तथा अन्यदृष्टिसंस्तव ये पाँच सम्यग्दर्शन के अतिचार हैं।
ऐसे स्खलन अतिचार कहलाते है जिनसे कोई भी स्वीकार किया हुआ गुण मलिन हो जाता है और धीरे-धीरे ह्रास होते-होते नष्ट हो जाता है ।
सम्यक्त्व हो चारित्रधर्म का मूल आधार है। उसकी शुद्धि पर ही चारित्रशुद्धि अवलम्बित है। इसलिए जिनसे सम्यक्त्व की शुद्धि में विघ्न पहुँचने की
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१८४ तत्त्वार्थसूत्र
[७. १८ सम्भावना है ऐसे अतिचारो का यहाँ पाँच भागों मे वर्णन किया गया है। वे इस प्रकार है:
१. शङ्कातिचार--आर्हत्-प्रवचन की दृष्टि स्वीकार करने के बाद उसमे वर्णित अनेक सूक्ष्म और अतीन्द्रिय पदार्थो ( जो केवल केवलज्ञानगम्य तथा आगमगम्य हों) के विषय मे शङ्का करना कि 'वे ऐसे होंगे या नही ?' संशय और तत्पूर्वक परीक्षा का जैन तत्त्वज्ञान मे पूर्ण स्थान होने पर भी यहाँ शङ्का को अतिचार कहने का अभिप्राय इतना ही है कि तर्कवाद से परे के पदार्थो को तर्कदृष्टि से कसने का प्रयत्ल नही होना चाहिए। क्योकि साधक श्रद्धागम्य प्रदेश को बुद्धिगम्य नही कर सकता, जिससे अन्त में वह बुद्धिगम्य प्रदेश को भी छोड़ देता है । अतः जिससे साधना के विकास में बाधा आती हो वैसी शङ्का अतिचार के रूप मे त्याज्य है।
२. कांक्षातिचार-ऐहिक और पारलौकिक विषयों की अभिलाषा करना। यदि ऐसी कांक्षा होगी तो साधक गुणदोष का विचार किए बिना ही चाहे जब अपना सिद्धान्त छोड़ देगा, इसीलिए उसे अतिचार कहा गया है।
३. विचिकित्सातिचार-जहाँ भी मतभेद या विचारभेद का प्रसंग उपस्थित हो वहाँ अपने-आप कोई निर्णय न करके केवल मतिमन्दता या अस्थिर-बुद्धि के कारण यह सोचना कि 'यह बात भी ठीक है और वह बात भी ठीक हो सकती है। बुद्धि की यह अस्थिरता साधक को किसी एक तत्त्व पर कभी स्थिर नहीं रहने देती, इसीलिए इसे अतिचार कहा गया है।
४-५. मिथ्यादृष्टिप्रशंसा व मिथ्यादृष्टिसंस्तव अतिचार-जिसकी दृष्टि मिथ्या हो उसकी प्रशंसा करना या उससे परिचय करना । भ्रान्तदृष्टि से युक्त व्यक्तियों मे भी कई बार विचार, त्याग आदि गुण मिलते है । गुण और दोष का भेद किए बिना उन गुणों से आकृष्ट होकर वैसे व्यक्ति की प्रशंसा करने अथवा उससे परिचय करने से अविवेकी साधक के सिद्धान्त से स्खलित होने का डर रहता है। इसीलिए अन्यदृष्टिप्रशंसा और अन्यदृष्टिसंस्तव को अतिचार माना गया है। मध्यस्थता और विवेकपूर्वक गुण को गुण और दोष को दोष समझनेवाले साधक के लिए भी उक्त प्रकार के प्रशंसा और संस्तव सर्वथा हानिकारक होते है, ऐसी बात नही है।
उक्त पाँचों अतिचार व्रती श्रावक और साधु के लिए समान है, क्योंकि दोनों के लिए सम्यक्त्व साधारण धर्म है । १८ ।
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७. १९-३२ ]
व्रत और शील के अतिचार
व्रत व शील के अतिचारों की सख्या तथा नाम-निर्देश
व्रतशीलेषु पञ्च पञ्च यथाक्रमम् । १९ । बन्धवधच्छविच्छेदातिभारारोपणान्नपाननिरोधाः । २० । मिथ्योपदेशर हस्याभ्याख्यानकूटलेख क्रियान्यासापहारसाकार मन्त्रभेदाः । २१ ।
स्तेनप्रयोगतदाहृतादानविरुद्ध राज्यातिक्रमहीनाधिकमानोन्मानप्रतिरूपकव्यवहाराः । २२ ।
परविवाह करणेत्वरपरिगृहीताऽपरिगृहीतागमनानङ्गक्रीडातीव्रकामाभिनिवेशाः । २३ ।
क्षेत्रवास्तु हिरण्यसुवर्णधनधान्यदासीदास कुप्यप्रमाणातिक्रमाः । २४ । ऊर्ध्वाधस्तिर्यग्व्यतिक्रमक्षेत्र वृद्धिस्मृत्यन्तर्धानानि । २५ । आनयन प्रेष्यप्रयोगशब्दरूपानुपातपुद्गलक्षेपाः । २६ । कन्दर्पौत्कुच्यमौखर्यासमीक्ष्याधिकरणोप
भोगाधिकत्वानि । २७ ।
योगदुष्प्रणिधानानादरस्मृत्यनुपस्थापनानि । २८ । अप्रत्यवेक्षिताप्रमार्जितोत्सर्गादाननिक्षेप संस्ता रोपक्रमणानादरस्मृत्य -
नुपस्थापनानि । २९ ॥
सचित्तसम्बद्धसंमिश्राभिषवदुष्पक्वाहाराः । ३० ।
सचित्तनिक्षेपपिधानपरव्यपदेशमात्सर्यकालातिक्रमाः । ३१ ।
जीवितमरणाशंसामित्रानुरागसुखानुबन्धनिदान करणानि । ३२ । व्रतों और शीलों के पाँच-पाँच अतिचार हैं । वे क्रमश: इस प्रकार
हैं :
बन्ध, वध, छविच्छेद, अतिभार का लादना और अन्न-पान का निरोध ये पाँच अतिचार प्रथम अहिसा अणुव्रत के है ।
मिथ्योपदेश, रहस्याभ्याख्यान, कूटलेखक्रिया, न्यासापहार और साकार-मन्त्रभेद ये पाँच अतिचार दूसरे सत्य अणुव्रत के है ।
स्तेनप्रयोग, स्तेनाहृतादान, विरोधी राज्य का अतिक्रम, हीनाधिक मानोन्मान और प्रतिरूपक व्यवहार ये पॉच अतिचार तीसरे अचौर्य अणुव्रत के हैं ।
१८५
परविवाहकरण, इत्वरपरिगृहीतागमन, अपरिगृहीतागमन, अनङ्गक्रीड़ा और तीव्रकामाभिनिवेश ये पाँच अतिचार चौथे ब्रह्मचर्य अणुव्रत के हैं ।
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१८६
तत्त्वार्थसूत्र
[७. १९-३२ क्षेत्र और वास्तु, हिरण्य और सुवर्ण,धन और धान्य, दासी और दास एवं कुप्य के प्रमाण का अतिक्रम ये पांच अतिचार पाँचवें परिग्रहपरिमाण अणुव्रत के हैं।
ऊर्ध्वव्यतिक्रम, अधोव्यतिक्रम, तिर्यग्व्यतिक्रम, क्षेत्रवृद्धि और स्मृत्यन्तर्धान ये पाँच अतिचार छठे दिग्विरति व्रत के हैं।
आनयनप्रयोग, प्रेष्यप्रयोग, शब्दानुपात, रूपानुपात, पुद्गलक्षेप ये पाँच अतिचार सातवें देशविरति व्रत के है। ____ कन्दर्प, कौत्कुच्य, मौखर्य, असमीक्ष्य-अधिकरण और उपभोग का आधिक्य ये पाँच अतिचार आठवें अनर्थदण्डविरमण व्रत के हैं । ___ कायदुष्प्रणिधान, वचनदुष्प्रणिधान, मनोदुष्प्रणिधान, अनादर और स्मृति का अनुपस्थापन ये पाँच अतिचार सामायिक व्रत के हैं ।
अप्रत्यवेक्षित और अप्रमार्जित में उत्सर्ग, अप्रत्यवेक्षित और अप्रमाजित में आदान-निक्षेप, अप्रत्यवेक्षित और अप्रमाजित सस्तार का उपक्रम, अनादर और स्मृति का अनुपस्थापन ये पांच अतिचार पोषध व्रत के हैं।
सचित्त आहार, सचित्तसम्बद्ध आहार, सचित्तसंमिश्न आहार, अभिषव आहार और दुष्पक्व आहार ये पांच अतिचार भोगोफ्भोग व्रत के हैं।
सचित्तनिक्षेप, सचित्तपिधान, परव्यपदेश, मात्सर्य और कालातिक्रम ये पांच अतिचार अतिथिसंविभाग व्रत के हैं । __ जीविताशंसा, मरणाशंसा, मित्रामुराग, सुखानुबन्ध और निदानकरण ये पाँच अतिचार मारणान्तिक संलेखना के हैं।
श्रद्धा और ज्ञान-पूर्वक स्वीकार किए जानेवाले नियम को व्रत कहते है । इसके अनुसार श्रावक के बारह व्रत 'व्रत' शब्द मे आ जाते है । फिर भी यहां व्रत और शील इन दो शब्दों के प्रयोग द्वारा यह निर्देश किया गया है कि चारित्र-धर्म के मूल नियम अहिंसा-सत्य आदि पांच है, दिग्विरमण आदि शेष नियम इन मूल नियमो की पुष्टि के लिए ही है। प्रत्येक व्रत और शील के पांच-पांच अतिचार मध्यमदृष्टि से ही गिनाए गए है, क्योकि संक्षेपदृष्टि से तो कम भी सोचे जा सकते है एवं विस्तारदृष्टि से पांच से अधिक भी हो सकते है ।
चारित्र का अर्थ है रागद्वेष आदि विकारों का अभाव साधकर समभाव का परिशीलन करना । चारित्र के इस मूल स्वरूप को सिद्ध करने के लिए अहिंसा, सत्य आदि जो नियम व्यावहारिक जीवन में उतारे जाते है वे सभी चारित्र
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७. १९-३२] व्रत और शील के अतिचार
१८७ कहलाते हैं। व्यावहारिक जीवन देश, काल आदि की परिस्थिति तथा मानवबुद्धि की संस्कारिता के अनुसार बनता है, अतः उक्त परिस्थिति और संस्कारिता के परिवर्तन के साथ ही जीवन-व्यवहार भी बदलता रहता है। यही कारण है कि चारित्र का मूल स्वरूप एक होने पर भी उसके पोषक रूप में स्वीकार किए जानेवाले नियमों की संख्या तथा स्वरूप मे परिवर्तन अनिवार्य है । इसीलिए शास्त्रों में श्रावक के व्रत व नियम भी अनेक प्रकार से विभिन्न रूप मे मिलते हैं
और भविष्य में भी इनमें परिवर्तन होता रहेगा। फिर भी यहाँ ग्रन्थकार ने श्रावक-धर्म के तेरह भेद मानकर प्रत्येक भेद के अतिचारों का कथन किया है। वे क्रमशः इस प्रकार हैं :
अहिंसाव्रत के प्रतिचार-१. बन्ध-किसी भी प्राणी को उसके इष्टस्थान पर जाते हुए रोकना या बाँधना । २. वध-लाठी या चाबुक आदि से प्रहार करना । ३. छविच्छेद-कान, नाक, चमडी आदि अवयवों का भेदन या छेदन करना। ४. अतिभारारोपण-मनुष्य या पशु आदि पर शक्ति से ज्यादा भार लादना। ५. अन्नपाननिरोध-किसी के खाने-पीने मे रुकावट डालना। उत्सर्ग मार्ग यह है कि किसी भी प्रयोजन के बिना व्रतधारी गृहस्थ इन दोषों का कदापि सेवन न करे, परन्तु घर-गृहस्थी का कार्य आ पड़ने पर विशेष प्रयोजन के कारण यदि इनका सेवन करना ही पड़े तब भी कोमलभाव से ही काम लेना चाहिए । १९-२० ।
सत्यवत के प्रतिबार-१. मिथ्योपदेश-सही-गलत समझाकर किसी को विपरीत मार्ग में डालना। २. रहस्याभ्याख्यान-रागवश विनोद के लिए किसी पति-पत्नी को अथवा अन्य स्नेही जनों को एक-दूसरे से अलग कर देना अथवा किसी के सामने दूसरे पर दोषारोपण करना । ३. कूटलेखक्रिया--मोहर, हस्ताक्षर आदि द्वारा झूठो लिखा-पढ़ी करना तथा खोटा सिक्का आदि चलाना । ४. न्यासापहार--कोई धरोहर रखकर भूल जाय तो उसका लाभ उठाकर थोड़ी या पूरी धरोहर दवा जाना। ५. साकारमंत्रभेद--किन्ही की आपसी प्रीति तोडने के विचार से एक-दूसरे की चुगली करना या किसी की गुप्त बात प्रकट कर देना । २१ ।
अस्तेयवत के प्रतिचार-१. स्तेनप्रयोग-किसी को चोरी करने के लिए स्वयं प्रेरित करना या दूसरे के द्वारा प्रेरणा दिलाना अथवा वैसे कार्य मे सहमत होना। २ स्तेन-आहृतादान--प्रेरणा या सम्मति के बिना चोरी करके लाई गई चीज ले लेना। ३. विरुद्धराज्यातिक्रम--वस्तुओं के आयात-निर्यात पर राज्य की ओर से कुछ बन्धन लगे होते हैं अथवा कर आदि की व्यवस्था रहती है, राज्य के इन नियमों का उल्लंघन करना। ४. हीनाधिक मानोन्मान--न्यूनाधिक नाप, बाट
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१८८ तत्त्वार्थसूत्र
[७. १९-३२ या तराजू आदि से लेन-देन करना। ५. प्रतिरूपकव्यवहार--असली के बदले नकली वस्तु चलाना । २२ ।
ब्रह्मचर्यवत' के अतिचार-१. परविवाहकरण---निजो संतति के उपरात कन्यादान के फल की इच्छा से अथवा स्नेह-सम्बन्ध से दूसरे की संतति का विवाह करना । २. इत्वरपरिगृहीतागमन--किसी दूसरे के द्वारा स्वीकृत अमुक समय तक वेश्या या वैसी साधारण स्त्री का उसी कालावधि मे भोग करना । ३. अपरिगृहीतागमन--वेश्या का, जिसका पति विदेश चला गया है उस वियोगिनी स्त्री का अथवा किसी अनाथ या किसी पुरुष के कब्जे मे न रहनेवाली स्त्री का उपभोग करना। ४. अनंगक्रीड़ा--अस्वाभाविक अर्थात् सृष्टिविरुद्ध काम का सेवन । ५. तीव्रकामाभिलाष--बार-बार उद्दीपन करके विविध प्रकार से कामक्रीड़ा करना । २३ ।
अपरिग्रहवत के अतिचार-१. क्षेत्रवास्तु-प्रमाणातिक्रम--जो जमीन खेतीबाड़ी के योग्य हो वह क्षेत्र और जो रहने योग्य हो वह वास्तु, इन दोनों का प्रमाण निश्चित करने के बाद लोभवश मर्यादा का अतिक्रमण करना। २. हिरण्यसुवर्ण-प्रमाणातिक्रम--गढ़े हुए या बिना गढे हुए चाँदी और स्वर्ण दोनों के स्वीकृत प्रमाण का उल्लंघन करना । ३. धनधान्य-प्रमाणातिक्रम-गाय, भैस आदि पशुधन और गेहूँ, बाजरा आदि धान्य के स्वीकृत प्रमाण का उल्लंघन करना। ४. दासीदास-प्रमाणातिक्रम---नौकर, चाकर आदि कर्मचारियो के प्रमाण का अतिक्रमण करना। ५. कुप्यप्रमाणातिक्रम-बर्तनो और वस्त्रों के प्रमाण का अतिक्रमण करना । २४ ।
दिग्विरमरणवत के अतिचार-१. ऊर्ध्वव्यतिक्रम-वृक्ष, पर्वत आदि पर चढ़ने को ऊँचाई के स्वीकृत प्रमाण का लोभ आदि विकार के कारण भंग करना। २-३. अधो तथा तिर्यग्व्यतिक्रम-इसी प्रकार नीचे तथा तिरछे जाने के प्रमाण का मोहवश भङ्ग करना । ४. क्षेत्रवृद्धि--भिन्न-भिन्न दिशाओं का भिन्न-भिन्न प्रमाण स्वीकार करने के बाद कम प्रमाणवाली दिशा में मुख्य प्रसंग आ पड़ने पर दूसरी दिशा के स्वीकृत प्रमाण मे से अमुक भाग घटाकर इष्ट दिशा के प्रमाण मे वृद्धि करना । ५. स्मृत्यन्तर्धान-~-प्रत्येक नियम के पालन का आधार स्मृति है, यह जानकर भी प्रमाद या मोह के कारण नियम के स्वरूप या उसकी मर्यादा को भूल जाना । २५ ।
१. इसकी विशेष व्याख्या के लिए देखें-'जैन दृष्टिए ब्रह्मचर्य' नामक गुजराती
निबन्ध ।
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७ १९-३२] व्रत और शील के अतिचारो की संख्या
१८९ देशावकाशिकव्रत के अतिचार--१. आनयनप्रयोग--जितने प्रदेश का नियम लिया हो, आवश्यकता पड़ने पर स्वयं न जाकर संदेश आदि द्वारा दूसरे से उसके बाहर की वस्तु मँगवा लेना। २. प्रेष्यप्रयोग- स्थान सम्बन्धी स्वीकृत मर्यादा के बाहर काम पड़ने पर स्वयं न जाना और न दूसरे से ही उस वस्तु को मँगवाना किन्तु नौकर आदि से आज्ञापूर्वक वहाँ बैठे-बिठाए काम करा लेना । ३. शब्दानुपात--स्वीकृत मर्यादा के बाहर स्थित व्यक्ति को बुलाकर काम कराने के लिए खाँसी आदि द्वारा उसे पास आने के लिए सावधान करना। ४. रूपानुपात--किसी तरह का शब्द न कर आकृति आदि बतलाकर दूसरे को अपने पास आने के लिए सावधान करना । ५ पुद्गलक्षेप --कंकड, ढेला आदि फेककर किसी को अपने पास आने के लिए सूचना देना । २६ ।
अनर्थदंडविरमणव्रत के अतिचार ---१. कन्दर्प-रागवश असभ्य भाषण तथा परिहास आदि करना । २. कौत्कुच्य-परिहास व अनिष्ट भाषण के अतिरिक्त नटभांड जैसी शारीरिक कुचेष्टाएँ करना । ३. मौखर्य-निर्लज्जता से सम्बन्धरहित एवं अधिक बकवाद करना । ४. असमीक्ष्याधिकरण-अपनी आवश्यकता का बिना विचार किए अनेक प्रकार के सावध उपकरण दूसरे को उसके काम के लिए देते रहना। ५. उपभोगाधिक्य आवश्यकता से अधिक वस्त्र, आभूषण, तेल, चन्दन आदि रखना । २७ ।
__ सामायिकवत के अतिचार--१. कायदुष्प्रणिधान-हाथ, पैर आदि अंगों को व्यर्थ और बुरी तरह से चलाते रहना। २. वचनदुष्प्रणिधान-संस्कार-रहित तथा अर्थ-रहित एवं हानिकारक भाषा बोलना । ३. मनोदुष्प्रणिधान-क्रोध, द्रोह आदि विकारों के वश होकर चिन्तन आदि मनोव्यापार करना। ४. अनादर-सामायिक में उत्साह का न होना अर्थात् समय होने पर भी प्रवृत्त न होना अथवा ज्योंत्यों प्रवृत्ति करना। ५. स्मृति-अनुपस्थापन-एकाग्रता का अभाव अर्थात् चित्त के अव्यवस्थित होने से सामायिक की स्मृति का न रहना । २८ ।
पौषधव्रत के अतिचार-१. अप्रत्यवेक्षित तथा अप्रमाणित मे उत्सर्ग-आँखों से बिना देखे ही कि कोई जीव है या नही, एवं कोमल उपकरण से प्रमार्जन किए बिना ही जहां-तहाँ मल, मूत्र, श्लेष्म आदि का त्याग करना। २. अप्रत्यवेक्षित और अप्रमार्जित मे आदाननिक्षेप-इसी प्रकार प्रत्यवेक्षण और प्रमार्जन किए बिना ही लकडी, चौकी आदि वस्तुओ को लेना व रखना। ३ अप्रत्यवेक्षित तथा अप्रमार्जित संस्तार का उपक्रम-प्रत्यवेक्षण एवं प्रमार्जन किए बिना ही बिछौना करना या आसन बिछाना। ४. अनादर-पोषध में उत्साहरहित ज्यों-त्यों करके
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१९० तत्त्वार्थसूत्र
[७. ३३-३४ प्रवृत्ति करना। ५. स्मृत्यनुपस्थापन-पौषध कब और कैसे करना या न करना एवं किया है या नहीं इत्यादि का स्मरण न रहना । २९ ।
__ मोगोपभोगव्रत के प्रतिचार--१. सचित्त-आहार-किसी भी वनस्पति आदि सचेतन पदार्थ का आहार करना । २. सचित्तसम्बद्ध आहार-कड़े बीज या गुठली आदि सचेतन पदार्थ से युक्त बेर या आम आदि पके फलों को खाना । ३. सचित्तसंमिश्र आहार-तिल, खसखस आदि सचित्त वस्तु से मिश्रित लड्डू आदि का भोजन अथवा चींटी, कुन्थु आदि से मिश्रित वस्तु का सेवन करना। ४. अभिषवआहार-किसी भी प्रकार के एक मादक द्रव्य का सेवन करना अथवा विविध द्रव्यों के मिश्रण से उत्पन्न मद्य आदि रस का सेवन करना । ५. दुष्पक्व-आहारअधपके या ठीक से न पके हुए पदार्थ को खाना । ३०।
प्रतिथिसंविभागवत के प्रतिचार--१. सचिसविक्षेप-खाने-पीने की देने योग्य वस्तु को काम मे न आने जैसी बना देने की बुद्धि से किसी सचेतन वस्तु में रख देना। २. सचित्तपिधान-इसी प्रकार देय वस्तु को सचेतन वस्तु से ढक देना। ३. परव्यपदेश-अपनो देय वस्तु को दूसरे की बताकर उसके दान से अपने को मानपूर्वक बचा लेना । ४. मात्सर्य-दान देते हुए भी आदर न रखना अथवा दूसरे के दानगुण की ईर्ष्या से दान देने के लिए तत्पर होना । ५. कालातिक्रम-किसी को कुछ देना न पड़े इस आशय से भिक्षा का समय न होने पर भी खा पी लेना । ३१ ।
संलेखनावत के अतिचार--१. जीविताशंसा--पूजा, सत्कार आदि विभूति देखकर लालचवश जीवन की अभिलाषा । २. मरणाशंसा-सेवा, सत्कार आदि करने के लिए किसी को पास आते न देखकर उद्वग के कारण मृत्यु को चाहना । ३. मित्रानुराग-मित्रों पर या मित्रतुल्य पुत्रादि पर स्नेह-बन्धन रखना। ४. सुखानुबन्ध--अनुभूत सुखों का स्मरण करके उन्हे ताजा बनाना । ५. निदानकरण-- तप व त्याग का बदला किसी भी तरह के भोग के रूप मे चाहना। __ ऊपर वर्णित अतिचारों का यदि जानबूझकर अथवा वक्रतापूर्वक सेवन किया जाय तब तो वे व्रत के खण्डनरूप होकर अनाचार कहलाएंगे और भूल से असावधानीपूर्वक सेवन किए जाने पर अतिचार कहे जाएँगे । ३२ ।
दान तथा उसकी विशेषता अनुग्रहार्थ स्वस्यातिसर्गो दानम् । ३३ ।
विधिव्यवातपात्रविशेषातद्विशेषः। ३४ । अनुग्रह के लिए अपनी वस्तु का त्याग करना दान है।
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७. ३३-३४ ] दान तथा उसकी विशेषता
१९१ विधि, देयवस्तु, दाता और पात्र की विशेषता से दान की विशेषता है।
दानधर्म समस्त सद्गुणों का मूल है, अतः पारमार्थिक दृष्टि से उसका विकास अन्य सद्गुणों के उत्कर्ष का आधार है और व्यवहार-दृष्टि से मानवीय व्यवस्था के सामंजस्य का आधार है।
दान का अर्थ है न्यायपूर्वक प्राप्त वस्तु का दूसरे के लिए अर्पण । यह अर्पण करनेवाले तथा स्वीकार करनेवाले दोनों का उपकारक होना चाहिए । इसमे अर्पणकर्ता का मुख्य उपकार तो यह है कि उस वस्तु पर से उसकी ममता हटे और इस प्रकार उसे सन्तोष और समभाव की प्राप्ति हो। स्वीकारकर्ता का उपकार यह है कि उस वस्तु से उसे अपनी जीवनयात्रा में मदद मिले और परिणामस्वरूप उसके सद्गुणों का विकास हो ।
दानरूप मे सभी दान समान होने पर भी उनके फल मे तरतमभाव रहता है । यह तरतमभाव दानधर्म की विशेषता के कारण होता है। यह विशेषता मुख्यतया दानधर्म के चार अङ्गों की विशेषता के अनुसार होती है। इन चार अङ्गों को विशेषताएं इस प्रकार है-१.विधि-विधि की विशेषता मे देश, काल का औचित्य और प्राप्तकर्ता के सिद्धान्त को बाधा न पहुँचे ऐसी कल्पनीय वस्तु का अर्पण इत्यादि बातों का समावेश है। २. द्रव्य-द्रव्य की विशेषता में देय वस्तु के गुणों का समावेश होता है । जिस वस्तु का दान किया जाय वह प्राप्तकर्ता पात्र की जीवनयात्रा में पोषक तथा परिणामतः उसके निजी गुणविकास में निमित्त बननेवाली हो। ३. दाता-दाता को विशेषता मे पात्र के प्रति श्रद्धा का होना, उसके प्रति तिरस्कार या असूया का न होना तथा दान देते समय या बाद मे विषाद न करना इत्यादि दाता के गुणों का समावेश है। ४. पात्र--सत्पुरुषार्थ के लिए जागरूक रहना दान लेनेवाले पात्र की विशेषता है । ३३-३४ ।
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.८:
बन्ध
आस्रव के विवेचन के प्रसंग से व्रत और दान का वर्णन ..रने के पश्चात् अब इस आठवे अध्याय मे बन्धतत्त्व का वर्णन किया जाता है ।
बन्धहेतुओं का निर्देश मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगा बन्धहेतवः। १ । मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग-ये पाँच बन्ध के हेतु हैं।
बन्ध के स्वरूप का वर्णन आगे सूत्र २ मे आया है। यहाँ उसके हेतुओं का निर्देश है । बन्ध के हेतुओं की संख्या के विषय में तीन परम्पराएँ दिखाई देती है । एक परम्परा के अनुसार कषाय और योग ये दो ही बन्धहेतु है। दूसरी परम्परा में मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग ये चार बन्धहेतु माने गए है । तीसरी परम्परा में उक्त चार हेतुओं मे प्रमाद को बढाकर पाँच बन्धहेतुओं का वर्णन है। संख्या और उसके कारण नामों में भेद दिखाई देने पर भी तात्त्विक दृष्टि से इन परम्पराओं मे कोई अन्तर नही है । प्रमाद एक तरह का असंयम ही है, अतः वह अविरति या कषाय के अन्तर्गत ही है । इसी दृष्टि से कर्मप्रकृति आदि ग्रन्थों में चार बन्धहेतु कहे गए हैं। मिथ्यात्व और असंयम ये दोनों कषाय के स्वरूप से भिन्न नही पडते, अतः कषाय और योग को ही बन्धहेतु कहा गया है। __ प्रश्न--सचमुच यदि ऐसी ही बात है तब प्रश्न होता है कि उक्त संख्याभेद की विभिन्न परम्पराओं का आधार क्या है ?
उत्तर-कोई भी कर्मबन्ध हो, उस समय उसमे अधिक-से-अधिक जिन चार अंशो का निर्माण होता है, कषाय और योग ये दोनो ही उनके अलग-अलग कारण है, क्योंकि प्रकृति एवं प्रदेश अंशों का निर्माण योग से होता है एवं स्थिति तथा अनभागरूप अंशो का निर्माण कषाय से । इस प्रकार एक ही कर्म मे उत्पन्न होनेवाले उक्त चार अंशों के कारणों का विश्लेषण करने के विचार से शास्त्र मे
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८. १]
बन्धुहेतुओं की व्याख्या कषाय और योग इन दो बन्धहलुओं का धन है तथा यात्मिक विकास की चढाव-उतारवाली भूमिकास्वरूप गुणस्थानों में बंधनेवाली कर्मप्रकृलियों के सरलमभाव के कारण को दर्शाने के लिए मिथ्यात्ब, अविरति, कषाय और योग बन चार बन्धहेतुओं का कथन है । जिस गुणास्थान में जितने अधिक बन्धहेतु होंगे उस गुणस्थान में कर्मप्रकृतियों का बन्ध भी उतना ही अधिक होगा भौर जहाँ ये बन्धहेतु कम होगे वहाँ कर्मप्रकृतियों का बन्ध भी कम ही होगा। इस प्रकार मिथ्यात्व आदि चार हेतुओ के कथन की परम्परा अलग-अलग गुणस्थानों में तरतमभाव को प्राप्त होनेवाले कर्मबन्ध के कारण के स्पष्टीकरण के लिए है और कषाय एवं योग इन दो हेतुओं के कथन की परम्परा किसी एक ही कर्म मे सम्भावित चार अंशों के कारण का पृथक्करण करने के लिए है। पाँच बन्षहेतुनों की परम्परा का आशय चार बन्धहेतुओं की परम्परा से किसी प्रकार भी भिन्न नहीं है और यदि है भी तो केवल इतना ही कि जिज्ञासु शिष्यो को बन्धहेतुओ का विस्तार से ज्ञान हो जाय ।
बन्धहेतुओं की व्याख्या मिथ्यात्व-मिथ्यात्व का अर्थ है मिथ्यादर्शन, जो सम्यग्दर्शन से विपरीत होता है। सम्यग्दर्शन वस्तु का तात्त्विक श्रद्धान होने से विपरीतदर्शन दो तरह का फलित होता है-१. वस्तुविषयक यथार्थ श्रद्धान का अभाव और २. वस्तु का अयथार्थ श्रद्धान । पहले और दूसरे मे इतना ही अन्तर है कि पहला बिलकुल मूढदशा मे भी हो सकता है, जब कि दूसरा विचारदशा में ही होता है। अभिनिवेश के कारण विचारशक्ति का विकास होने पर भी जब किसी एक ही दृष्टि को पकड लिया जाता है तब अतत्त्व मे पक्षपात होने से वह दृष्टि मिथ्यादर्शन कहलाती है जो उपदेशजन्य होने से अभिगृहीत कही जाती है । जब विचारदशा जाग्रत न हुई हो तब अनादिकालीन आवरण के कारण केवल मूढता होती है। उस समय तत्त्व का श्रद्धान नही होता तो अतत्त्व का भी श्रद्धान नही होता । इस दशा में मात्र मूढता होने से उसे तत्त्व का अश्रद्धान कह सकते है । वह नैसर्गिक या उपदेशनिरपेक्ष होने से अनभिगृहीत कहा जाता है । दृष्टि या पन्थ सम्बन्धी सभी ऐकान्तिक कदाग्रह अभिगृहीत मिथ्यादर्शन है जो मनुष्य जैसी विकसित जाति मे हो सकते है। दूसरा अनभिगृहीत मिथ्यादर्शन कीट, पतंग आदि मूच्छित चेतनावाली जातियों में ही सम्भव है ।
अविरति, प्रमाव-अविरति अर्थात् दोषों से विरत न होना। प्रमाद अर्थात् आत्मविस्मरण अर्थात् कुशल कार्यो मे अनादर, कर्तव्य-अकर्तव्य की स्मृति मे असावधानी ।
१३
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तत्त्वार्थसूत्र
[ ८. २-४ कषाय, योग-कषाय अर्थात् समभाव की मर्यादा तोड़ना । योग का अर्थ है मानसिक, वाचिक और कायिक प्रवृत्ति । ___ छठे अध्याय में वर्णित तत्प्रदोष आदि बन्धहेतुओं और यहाँ पर निर्दिष्ट मिथ्यात्व आदि बन्धहेतुओ में इतना ही अन्तर है कि तत्प्रदोषादि प्रत्येक कर्म के विशिष्ट बन्धहेतु होने से विशेष है, जब कि मिथ्यात्व आदि समस्त कर्मों के समान बन्धहेतु होने से सामान्य है । मिथ्यात्व से लेकर योग तक पाँचों हेतुओं मे से जहाँ पूर्व-पूर्व के बन्धहेतु होगे वहाँ बाद के भी सभी होंगे यह नियम है, जैसे मिथ्यात्व के होने पर अविरति आदि चार और अविरति के होने पर प्रमाद आदि शेष तीन अवश्य होंगे। परन्तु जब उत्तर बन्धहेतु होगा तब पूर्व बन्धहेतु हो और न भी हो, जैसे अविरति के होने पर पहले गुणस्थान मे मिथ्यात्व होगा परन्तु दूसरे, तीसरे, चौथे गुणस्थान में अविरति के होने पर भी मिथ्यात्व नही रहता । इसी प्रकार दूसरे हेतुओं के विषय मे भी समझना चाहिए । १ ।
बन्ध का स्वरूप सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान् पुद्गलानादत्ते । २।
स बन्धः । ३। कषाय के सम्बन्ध से जीव कर्म के योग्य पुद्गलों का ग्रहण करता है। वह बन्ध है।
पुद्गल की अनेक वर्गणाएँ (प्रकार ) है। उनमें से जो वर्गणाएँ कर्मरूप परिणाम को प्राप्त करने की योग्यता रखती है उन्ही को जीव ग्रहण करके अपने आत्मप्रदेशों के साथ विशिष्ट रूप से जोड़ देता है, अर्थात् स्वभाव से जीव अमूर्त होने पर भी अनादिकाल से कर्मसम्बन्धवाला होने से मूर्तवत् हो जाता है । अतः वह मूर्त कर्मपुद्गलो का ग्रहण करता है। जैसे दीपक बत्ती द्वारा तेल को ग्रहण करके अपनी उष्णता से उसे ज्वाला मे परिणत कर लेता है वैसे ही जीव काषायिक विकार से योग्य पुद्गलो को ग्रहण करके उन्हे कर्मरूप में परिणत कर लेता है।
आत्मप्रदेशो के साथ कर्मरूप परिणाम को प्राप्त पुद्गलो का यह सम्बन्ध ही बन्ध कहलाता है। ऐसे बन्ध मे मिथ्यात्व आदि अनेक निमित्त होते है, फिर भी यहाँ कषाय के सम्बन्ध से पुद्गलों का ग्रहण होने की बात अन्य हेतुओ की अपेक्षा कषाय की प्रधानता प्रदर्शित करने के लिए ही कही गई है । २-३ ।
बन्ध के प्रकार प्रकृतिस्थित्यनुभावप्रदेशास्तद्विधयः । ४। प्रकृति, स्थिति, अनुभाव और प्रदेश ये चार उसके (बन्ध के ) प्रकार हैं।
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१९५
८.५]
मूलप्रकृति-भेदो का नाम-निर्देश कर्मपुद्गल जीव द्वारा ग्रहण किए जाने पर कर्मरूप परिणाम को प्राप्त होते है। इसका अर्थ यही है कि उसी समय उसमे चार अंशो का निर्माण होता है और वे अंश ही बन्ध के प्रकार है। उदाहरणार्थ बकरी, गाय, भैस आदि द्वारा खाई हुई घास आदि चीजें जब दूध के रूप में परिणत होती है तब उसमे मधुरता का स्वभाव निर्मित होता है; वह स्वभाव अमुक समय तक उसी रूप में बना रह सके ऐसी कालमर्यादा उसमे निर्मित होती है; इस मधुरता मे तीत्रता, मन्दता आदि विशेषताएँ भी होती है और साथ ही इस दूध का पौद्गलिक परिणाम भी बनता है । इसी प्रकार जीव द्वारा ग्रहण होकर उसके प्रदेशो मे संश्लेष को प्राप्त कर्मपुद्गलों में भी चार अंशो का निर्माण होता है। वे अंश ही प्रकृति, स्थिति, अनुभाव और प्रदेश है।
१. कर्मपुद्गलों मे ज्ञान को आवरित करने, दर्शन को रोकन, सुख-दुख देने आदि का जो स्वभाव बनता है वह स्वभावनिर्माण ही प्रकृतिबन्ध है। २. स्वभाव बनने के साथ ही उस स्वभाव से अमक काल तक च्यत न होने की मर्यादा भी पुद्गलों मे निर्मित होती है, यह कालमर्यादा का निर्माण ही स्थितिबन्ध है। ३. स्वभावनिर्माण के साथ ही उसमे तीव्रता, मन्दता आदि रूप में फलानुभव करानेवाली विशेषताएं बंधती है, यही अनुभावबन्ध है । ४. ग्रहण किए जाने पर भिन्न-भिन्न स्वभाव मे परिणत होनेवाली कर्मपुद्गलराशि स्वभावानुसार अमुक-अमुक परिमाण में बँट जाती है, यह परिमाणविभाग ही प्रदेशबन्ध है ।
बन्ध के इन चार प्रकारों मे से पहला और अन्तिम दोनों योग के आश्रित हैं, क्योंकि योग के तरतमभाव पर ही प्रकृति और प्रदेश बन्ध का तरतमभाव अवलम्बित है। दूसरा और तीसरा प्रकार कषाय के आश्रित है, क्योकि कषाय की तीव्रता-मन्दता पर ही स्थिति और अनुभाव बन्ध की अल्पाधिकता अवलम्बित है । ४।
__ मूलप्रकृति-भेदो का नामनिर्देश आद्यो ज्ञानदर्शनावरणवेदनीयमोहनीयायुष्कनामगोत्रान्तरायाः । ५ ।
प्रथम अर्थात् प्रकृतिबन्ध ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयुष्क, नाम, गोत्र और अन्तरायरूप है।
अध्यवसाय-विशेष से जीव द्वारा एक ही बार मे गृहीत कर्मपुद्गलराशि मे एक साथ आध्यवसायिक शक्ति की विविधता के अनुसार अनेक स्वभाव निर्मित होते है । वे स्वभाव अदृश्य होते है, फिर भी उनका परिगणन उनके कार्य प्रभावको देखकर किया जा सकता है। एक या अनेक जीवों पर होनेवाले कर्म के
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तत्त्वार्थसूत्र
[८. ६-१४
असंख्य प्रभाव अनुभव मे आते है। वास्तव मे इन प्रभावों के उत्पादक स्वभाव भी असंख्यात हैं । फिर भी संक्षेप मे वर्गीकरण करके उन सभी को आठ भागों में बाँट दिया गया है। यही मलप्रकृतिबन्ध है। इन्ही आठ मूलप्रकृति-भेदों का नामनिर्देश यहाँ किया गया है। वे है-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयुक, नाम, गोत्र और अन्तराय ।
१. ज्ञानावरण--जिसके द्वारा ज्ञान (विशेषबोध ) का आवरण हो। २ दर्शनावरणजिसके द्वारा दर्शन ( सामान्यबोध ) का आवरण हो । ३. वेदनीय-जिससे सुख या दु.ख का अनुभव हो। ४. मोहनीय-जिससे आत्मा मोह को प्राप्त हो। ५. आयुष्क-जिससे भव धारण हो। ६. नाम-जिससे विशिष्ट गति, जाति आदि की प्राप्ति हो । ७. गोर-जिससे ऊँचपन या नीचपन मिले। ८. अन्तराय-जिससे दान के देने-लेने तथा भोगादि मे विघ्न पड़े।
कर्म के विविध स्वभावों के संक्षेप मे आठ भाग है, फिर भी विस्तृतरुचि के जिज्ञासुओं के लिए मध्यममार्ग का अवलंबन करके उन आठ का पुनः दूसरे प्रकार से वर्णन किया गया है, जो उत्तरप्रकृतिभेदो के नाम से प्रसिद्ध है । ऐसे उत्तरप्रकृति-भेद ९७ है । वे मूलप्रकृति के क्रम से आगे बतलाए गए है । ५।
उत्तरप्रकृति-भेदो की संख्या और नामनिर्देश पञ्चनवद्वयष्टाविंशतिचतुद्विचत्वारिंशद्विपञ्चभेदा यथाक्रमम् । ६। मत्यादीनाम् । ७।। चक्षुरचक्षुरवधिकेवलानां निद्रानिद्रानिद्राप्रचलाप्रचलाप्रचलास्त्यानगद्धिवेदनीयानि च । ८। सदसद्वद्ये।९। दर्शनचारित्रमोहनीयकषायनोकषायवेदनीयाख्यास्त्रिद्विषोडशनवभेदाः सम्यक्त्वमिथ्यात्वतदुभयानि कषायनोकषायावनन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणसंज्वलनविकल्पाश्चैकशः क्रोधमानमायालोभा हास्यरत्यरतिशोकभयजुगुप्सास्त्रीपुंनपुंसकवेदाः । १०। नारकतैर्यग्योनमानुषदैवानि ।११।। गतिजातिशरीराङ्गोपाङ्गनिर्माणबन्धनसङ्घातसंस्थानसंहननस्पर्शरसगन्धवर्णानुपूर्व्यगुरुलघूपधातपराघातातपोद्योतोच्छ्वासविहायोगतयः प्रत्येकशरीरत्रससुभगसुस्वरशुभसूक्ष्मपर्याप्तस्थिरादेययशांसि सेतराणि तीर्थकृत्त्वं च । १२॥ उच्चैर्नीचैश्च । १३ । दानादीनाम् । १४॥
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८. ६-१४ ]
उत्तरप्रकृति-भेदों की संख्या और नामनिर्देश
१९७
आठ मूलप्रकृतियों के क्रमशः पाँच, नौ, दो, अट्ठाईस, चार, बयालीस, दो तथा पाँच भेद है ।
मति आदि पाँच ज्ञानो के आवरण पाँच ज्ञानावरण हैं ।
चक्षुर्दर्शन, अचक्षुर्दर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन इन चारों के आवरण तथा निद्रा, निद्रानिद्रा, प्रचला, प्रचलाप्रचला और स्त्यानगृद्धि - रूप पाँच वेदनीय -- ये नौ दर्शनावरणीय हैं ।
प्रशस्त ( सुखवेदनीय ) और अप्रशस्त ( दु.खवेदनीय ) - ये दो वेदनीय हैं ।
दर्शनमोह, चारित्रमोह, कषायवेदनीय और नोकषायवेदनीय इन चारों के क्रमशः तीन, दो, सोलह और नौ भेद है । सम्यक्त्व, मिथ्यात्व, तदुभय ( सम्यक्त्वमिथ्यात्व ) ये तीन दर्शनमोहनीय के भेद है । कषाय और नोकषाय ये दो चारित्रमोहनीय के भेद है । इनमें से क्रोध, मान, माया और लोभ ये प्रत्येक अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान और संज्वलन के रूप में चार-चार प्रकार के होने से कषायचारित्रमोहनीय के सोलह भेद बनते हैं तथा हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद ये नौ नोकषायचारित्रमोहनीय के भेद हैं !
नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव – ये चार आयु के भेद हैं ।
गति, जाति, शरीर, अङ्गोपाङ्ग, निर्माण, बन्धन, संघात, संस्थान, संहनन, स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण, आनुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, आतप, उद्योत, उच्छ्वास, विहायोगति तथा साधारण और प्रत्येक, स्थावर और त्रम, दुभंग और सुभग, दु.स्वर और सुस्वर, अशुभ और शुभ, बादर और सूक्ष्म, अपर्याप्त और पर्याप्त, अस्थिर और स्थिर, अनादेय और आदेय, अयश और यश एवं तोर्थकरत्व - ये बयालीस नामकर्म के प्रकार हैं ।
उच्च और नीच - ये दो गोत्रकर्म के प्रकार है । दान आदि के पांच अन्तराय है ।
ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्म को प्रकृतियाँ- - १. मति आदि पाँच ज्ञान और चक्षुर्दर्शन आदि चार दर्शनों का वर्णन पहले हो चुका है ।" उनमे से प्रत्येक आवरण करनेवाले स्वभाव से युक्त कर्म क्रमशः मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण,
१. देखें – अ० १, सूत्र ९ से ३३, अ० २, सू० है |
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१९८ तत्त्वार्थसूत्र
[८. ६-१४ अवधिज्ञानावरण, मनःपर्यायज्ञानावरण और केवलज्ञानावरण ये पांच ज्ञानावरण है, तथा चक्षुर्दर्शनावरण, अचक्षुर्दर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण और केवलदर्शनावरण ये चार दर्शनावरण है। उक्त चार के अतिरिक्त अन्य पाँच दर्शनावरण इस प्रकार है-१. जिस कर्म के उदय से ऐसी निद्रा आये कि सुखपूर्वक जागा जा सके वह निद्रावेदनीय दर्शनावरण है। २. जिस कर्म के उदय से निद्रा से जागना अत्यन्त कठिन हो वह निद्रानिद्रा-वेदनीय दर्शनावरण है । ३. जिस कर्म के उदय से बैठे-बैठे या खडे-खड़े ही नीद आ जाय वह प्रचलावेदनीय दर्शनावरण है। ४. जिस कर्म के उदय से चलते-चलते ही नीद आ जाय वह प्रचलाप्रचलावेदनीय दर्शनावरण है । ५ जिस कर्म के उदय से जाग्रत अवस्था मे सोचे हुए काम को निद्रावस्था में करने का सामर्थ्य प्रकट हो जाय वह स्त्यानगृद्धि दर्शनावरण है; इस निद्रा में सहज बल से अनेकगुना अधिक बल प्रकट होता है । ७-८ । - वेदनीय कर्म की प्रकृतियाँ-१. जिस कर्म के उदय से प्राणी को सुख का अनुभव हो वह सातावेदनीय और २. जिस कर्म के उदय से प्राणी को दु.ख का अनुभव हो वह असातावेदनीय है । ९ । ___ दर्शनमोहनीय कर्म की प्रकृतियाँ-१. जिस कर्म के उदय से तत्त्वों के यथार्थ स्वरूप मे रुचि न हो वह मिथ्यात्वमोहनीय है। २. जिस कर्म के उदय-समय में यथार्थता की रुचि या अरुचि न होकर डांवाडोल स्थिति रहे वह मिश्रमोहनीय है। ३. जिसका उदय तात्त्विक रुचि का निमित्त होकर भी औपशमिक या क्षायिकभाववाली तत्त्वरुचि का प्रतिबन्ध करता है वह सम्यक्त्वमोहनीय है।
चारित्रमोहनीय कर्म की पच्चीस प्रकृतियाँ सोलह कषाय-क्रोध, मान, माया और लोभ ये कषाय के मुख्य चार भेद है । तीव्रता के तरतमभाव की दृष्टि से प्रत्येक के चार-चार प्रकार है । जो कर्म क्रोध आदि चार कषायों को इतना अधिक तीव्र बना दे कि जिसके कारण जीव को अनन्तकाल तक संसार मे भ्रमण करना पड़े वह कर्म अनुक्रम से अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ है । जिन कर्मों के उदय से आविर्भाव को प्रास कषाय केवल इतने ही तीव्र हो कि विरति का ही प्रतिबन्ध कर सकें वे अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया और लोभ है। जिनका विपाक देशविरति का प्रतिबन्ध न करके केवल सर्वविरति का ही प्रतिबन्ध करे वे प्रत्याख्यानावरणीय क्रोध, मान, माया और लोभ है। जिनके विपाक की तीव्रता सर्वविरति का प्रतिबन्ध तो न करे लेकिन उसमे स्खलन और मालिन्य उत्पन्न करे वे संज्वलन क्रोध, मान, माया और लोभ है ।
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८. ६ १४ ]
उत्तरप्रकृति-भेदों की संख्या और नामनिर्देश
१९९
नौ नोकषाय - १. हास्य की उत्पादक प्रकृतिवाला कर्म हास्यमोहनीय है । २- ३. कही प्रीति और कही अप्रीति के उत्पादक कर्म अनुक्रम से रतिमोहनीय और अरतिमोहनीय है । ४. भयशीलता का जनक भयमोहनीय है । ५. शोकशीलता का जनक शोकमोहनीय है । ६. घृणाशीलता का जनक जुगुप्सामोहनीय है । ७. स्त्रैणभाव-विकार का उत्पादक कर्म स्त्रीवेद है । ८. पौरुषभाव-विकार का उत्पादक कर्म पुरुषवेद है । ९. नपुंसकभाव-विकार का उत्पादक कर्म नपुंसकवेद है । ये नौ मुख्य कषाय के सहचारी एवं उद्दीपक होने से नोकषाय है । १० ।
श्रायुकर्म के चार प्रकार -- जिन कर्मों के उदय से देव, मनुष्य, तियंच और नरक गति मिलती है वे क्रमशः देव, मनुष्य, तिर्यंच और नरक के आयुष्य है । ११ ।
नामकर्म की बयालीस प्रकृतियाँ
चौदह पिण्डप्रकृतियाँ- १. सुख-दुःख भोगने के योग्य पर्याय विशेषरूप देवादि चार गतियों को प्राप्त करानेवाला कर्म गति है । २. एकेन्द्रियत्व से लेकर पंचेन्द्रियत्व तक समान परिणाम को अनुभव करानेवाला कर्म जाति है । ३. औदारिक आदि शरीर प्राप्त करानेवाला कर्म शरीर है । ४. शरीरगत अङ्गों और उपाङ्गों का निमित्तभूत कर्म अङ्गोपाङ्ग है । ५- ६. प्रथम गृहोत औदारिक आदि पुद्गलों के साथ ग्रहण किए जानेवाले नवीन पुद्गलों का सम्बन्ध जो कर्म कराता है वह बन्धन है और बद्धपुद्गलों को शरीर के नानाविध आकारों में व्यवस्थित करनेवाला कर्म संघात है । ७-८. अस्थिबन्ध की विशिष्ट रचनारूप संहनन और शरीर की विविध आकृतियों का निमित्त कर्म संस्थान है । ९ १२. शरीरगत श्वेत आदि पाँच वर्ण, सुरभि आदि दो गन्ध, तिक्त आदि पाँच रस, शीत आदि आठ स्पर्श - इनके नियामक कर्म अनुक्रम से वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श है । १३. विग्रह द्वारा जन्मान्तर- गमन के समय जीव को आकाश-प्रदेश की श्रेणी के अनुसार गमन करानेवाला कर्म आनुपूर्वी हैं । १४. प्रशस्त और अप्रशस्त गमन का नियामक कर्म विहायोगति है । ये चौदह पिण्डप्रकृतियाँ कहलाती है । इनके अवान्तर भेद भी है, इसीलिए यह नामकरण है ।
त्रसदशक और स्थावरदशक -- -१-२. जिस कर्म के उदय से स्वतन्त्रभाव से गमन करने की शक्ति प्राप्त हो वह त्रस और इसके विपरीत जिसके उदय से वैसी शक्ति प्राप्त न हो वह स्थावर है । ३-४. जिस कर्म के उदय से जीवों को चर्मचक्षु गोचर बादर शरीर की प्राप्ति हो वह बादर, इसके विपरीत जिससे चर्मचक्षु के अगोचर सूक्ष्मशरीर की प्राप्ति हो वह सूक्ष्म है । ५- ६. जिस कर्म के उदय
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तत्त्वार्थसूत्र
[८.६-१४ से प्राणी स्वयोग्य पर्याप्ति पूर्ण करे वह पर्याप्त, इसके विपरीत जिसके उदय से स्वयोग्य पर्याप्ति पूर्ण न कर सके वह अपर्याप्त है। ७-८. जिस कर्म के उदय से जीव को भिन्न-भिन्न शरीर की प्राप्ति हो वह प्रत्येक और जिसके उदय से अनन्त जीवों का एक ही साधारण शरीर हो वह साधारण है । ९-१०. जिस कर्म के उदय से हड्डी, दाँत आदि स्पिर अवयव प्राप्त हों वह स्थिर और जिसके उदय से जिह्वा आदि अस्थिर अवयव प्राप्त हो वह अस्थिर है। ११-१२. जिस कर्म के उदय से नाभि के ऊपर के अवयव प्रशस्त हों वह शुभ और जिस कर्म के उदय से नाभि के नीचे के अवयव अप्रशस्त हों वह अशुभ है। १३-१४. जिस कर्म के उदय से जीव का स्वर श्रोता में प्रीति उत्पन्न करे वह सुस्वर और जिस कर्म के उदय से श्रोता मे अप्रीति उत्पन्न हो वह दु स्वर है। १५-१६. जिस कर्म के उदय से कोई उपकार न करने पर भी जो सबको प्रिय लगे वह सुभग और जिस कर्म के उदय से उपकार करने पर भी सबको प्रिय न लगे वह दुर्भग है। १७-१८. जिस कर्म के उदय से वचन बहुमान्य हो वह आदेय और जिस कर्म के उदय से वैसा न हो वह अनादेय है। १९-२० जिस कर्म के उदय से दुनिया में यश व कीनि प्राप्त हो वह यशःकीति और जिस कर्म के उदय से यश व कीति प्राप्त न हो वह अयशःकीति है।
अाठ प्रत्येकप्रकृतियाँ--१. जिस कर्म के उदय से शरीर गुरु या लघु परिणाम को न पाकर अगुरुलघु के रूप में परिणत होता है वह अगुरुलघु है। २. प्रतिजिह्वा, चौरदन्त, रसौली आदि उपघातकारी अवयवों को प्राप्त करानेवाला कर्म उपघात है। ३. दर्शन या वाणी से दूसरे को निष्प्रभ कर देनेवाली दशा प्राप्त करानेवाला कर्म पराघात है । ४. श्वास लेने व छोड़ने की शक्ति का नियामक कर्म श्वासोच्छवास है। ५-६. अनुष्ण शरीर मे उष्ण प्रकाश का नियामक कर्म आतप और शीत प्रकाश का नियामक कर्म उद्योत है । ७. शरीर में अङ्ग-प्रत्यङ्गों को यथोचित स्थान मे व्यवस्थित करनेवाला कर्म निर्माण है। ८. धर्म व तीर्थ प्रवर्तन करने की शक्ति देनेवाला कर्म तीर्थंकर है। १२ ।
गोत्र-कर्म की दो प्रकृतियां--१. प्रतिष्ठा प्राप्त करानेवाले कुल में जन्म दिलानेवाला कर्म उच्चगोत्र और २. शक्ति रहने पर भी प्रतिष्ठा न मिल सके ऐसे कुल मे जन्म दिलानेवाला कर्म मीचगोत्र है । १३ ।
अन्तराय कर्म की पाँच प्रकृतियॉ--जो कर्म कुछ भी देने, लेने, एक बार या बार-बार भीगने और सामर्थ्य में अन्तराय ( विघ्न) पैदा कर देते है बे क्रमशः दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय और वीर्यान्तराय
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८ १५-२२] स्थिति व अनुभाव बन्ध
२०१ स्थितिबन्ध आदितस्तिसृणामन्तरायस्य च त्रिंशत्सागरोपमकोटीकोटयः परा स्थितिः । १५ । सप्ततिर्मोहनीयस्य । १६ । नामगोत्रयोविंशतिः। १७ । त्रयस्त्रिशत्सागरोपमाण्यायुष्कस्य । १८ । अपरा द्वादशमुहूर्ता वेदनीयस्य । १९ । नामगोत्रयोरष्टौ । २०।
शेषाणामन्तमुहूर्तम् । २१ । प्रथम तीन अर्थात् ज्ञानावरण, दर्शनावरण और वेदनीय तथा अन्तराय इन चार कर्म-प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति तीस कोटाकोटी सागरोपम है।
मोहनीय की उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोटाकोटी सागरोपम है । नाम और गोत्र की उत्कृष्ट स्थिति बीस कोटाकोटी सागरोपम है । आयुष्क की उत्कृष्ट स्थिति तैतीस सागरोपम है। वेदनीय की जघन्य स्थिति बारह मुहूर्त है । नाम और गोत्र की जघन्य स्थिति आठ मुहूर्त है ।
शेष पाँच अर्थात् ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तराय, मोहनीय और आयुष्य की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त है।
प्रत्येक कर्म की उत्कृष्ट स्थिति के अधिकारी मिथ्यादृष्टि पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव होते है, जघन्य स्थिति के अधिकारी भिन्न-भिन्न जीव होते है । ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, नाम, गोत्र और अन्तराय इन छहों की जघन्य स्थिति मूक्ष्मसम्पराय नामक दसवें गुणस्थान मे सम्भव है। मोहनीय की जघन्य स्थिति नवें अनिवृत्तिबादरसम्पराय नामक गुणस्थान मे सम्भव है। आयुष्य की जघन्य स्थिति संख्यातवर्षजीवी तिर्यच और मनुष्य मे सम्भव है। मध्यम स्थिति के असंख्यात प्रकार है और उनके अधिकारी भी काषायिक परिणाम की तरतमता के अनुसार असंख्यात हैं । १५-२१ ।
अनुभावबन्ध विपाकोऽनुभावः। २२। स यथानाम । २३ । ततश्च निर्जरा। २४ ।
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तत्त्वार्थसूत्र
[७. २३-२४ विपाक अर्थात् विविध प्रकार के फल देने की शक्ति ही अनुभाव है।
अनुभाव का वेदन भिन्न-भिन्न कर्म की प्रकृति अथवा स्वभाव के अनुसार किया जाता है।
उससे अर्थात् वेदन से निर्जरा होती है।
अनुभाव और उसका बन्ध--बन्धनकाल में उसके कारणभूत काषायिक अध्यवसाय के तीव्र मन्द भाव के अनुसार प्रत्येक कर्म मे तीव्र-मन्द फल देने की शक्ति उत्पन्न होती है। फल देने का यह सामर्थ्य ही अनुभाव है और उसका निर्माण ही अनुभावबन्ध है ।
अनुभाव का फल-अनुभाव समय आने पर ही फल देता है, परन्तु इस विषय में इतना ज्ञातव्य है कि प्रत्येक अनुभाव (फलप्रद )-शक्ति स्वयं जिस कर्म मे निष्ठ हो उस कर्म के स्वभाव (प्रकृति ) के अनुसार ही फल देती है, अन्य कर्म के स्वभावानुसार नहीं। उदाहरणार्थ ज्ञानावरण कर्म का अनुभाव उस कर्म के स्वभावानुसार ही तीव्र या मन्द फल देता है-वह ज्ञान को ही आवृत करता है, दर्शनावरण, वेदनीय आदि अन्य कर्म के स्वभावानुसार फल नही देता । साराश यह है कि वह न तो दर्शनशक्ति को आवृत करता है और न सुख-दु ख के अनुभाव आदि कार्य को ही उत्पन्न करता है । इसी प्रकार दर्शनावरण का अनुभाव दर्शन-शक्ति को तीव्र या मन्द रूप से आवृत करता है, ज्ञान के आच्छादन आदि अन्य कर्मो के कार्यो को नहीं करता।
कर्म के स्वभावानुसार विपाक के अनुभावबन्ध का नियम भी मूलप्रकृतियों पर ही लागू होता है, उत्तरप्रकृतियों पर नहीं। क्योंकि किसी भी कर्म की एक उत्तरप्रकृति बाद मे अध्यवसाय के बल से उसी कर्म की अन्य उत्तरप्रकृति के रूप में बदल जाती है, जिससे पहली का अनुभाव परिवर्तित उत्तरप्रकृति के स्वभावानुसार तीव्र या मन्द फल देता है। जैसे मतिज्ञानावरण जब श्रुतज्ञानावरण आदि सजातीय उत्तरप्रकृति के रूप मे संक्रमण करता है तब मतिज्ञानावरण का अनुभाव भी श्रुतज्ञानावरण आदि के स्वभावानुसार ही श्रुतज्ञान या अवधि आदि ज्ञान को आवृत करने का काम करता है । लेकिन उत्तरप्रकृतियों मे कितनी ही ऐसी है जो सजातीय होने पर भी परस्पर संक्रमण नहीं करती। जैसे दर्शनमोह और चारित्रमोह मे से दर्शनमोह चारित्रमोह के रूप मे अथवा चारित्रमोह दर्शनमोह के रूप में संक्रमण नहीं करता। इसी प्रकार नारकआयुष्क तिर्यंचआयुष्क के रूप मे अथवा अन्य किसी आयुष्क के रूप मे संक्रमण नही करता।
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८. २५ ]
प्रदेशबन्ध प्रकृतिसंक्रमण की भांति ही बन्धकालीन रस और स्थिति में भी बाद मे अध्यवसाय के कारण परिवर्तन हो सकता है, तोवरस मन्द और मन्दरस तीव्र हो सकता है । इसी प्रकार स्थिति भी उत्कृष्ट से जघन्य और जघन्य से उत्कृष्ट हो सकती है।
फलोदय के बाद मुक्त कर्म की दशा--अनुभावानुसार कर्म के तीव्र-मन्द फल का वेदन हो जाने पर वह कर्म आत्मप्रदेशो से अलग हो जाता है अर्थात् फिर संलग्न नही रहता। यही कर्मनिवृत्ति-निर्जरा है। जैसे कर्म की निर्जरा उसके फल-वेदन से होती है वैसे ही प्रायः तप से भी होती है । तप के बल से अनुभावानुसार फलोदय के पहले ही कर्म आत्मप्रदेशों से अलग हो सकते है । यह बात सूत्र में 'च' शब्द द्वारा व्यक्त की गई है । २२-२४ ।
प्रदेशबन्ध नामप्रत्ययाः सर्वतो योगविशेषात् सूक्ष्मैकक्षेत्रावगाढस्थिताः सर्वात्मप्रदेशेष्वनन्तानन्तप्रदेशाः । २५ ।
कर्म ( प्रकृति ) के कारणभूत सूक्ष्म, एकक्षेत्र को अवगाहन करके रहे हुए तथा अनन्तानन्त प्रदेशवाले पुद्गल योगविशेष से सभी ओर से सभी आत्मप्रदेशों में बन्ध को प्राप्त होते हैं।
प्रदेशबन्ध एक प्रकार का सम्बन्ध है और उस सम्बन्ध के दो आधार हैकर्मस्कन्ध और आत्मा । इनके विषय मे जो आठ प्रश्न उत्पन्न होते है उन्ही का उत्तर इस सूत्र मे दिया गया है। प्रश्न इस प्रकार है :
१. जब कर्मस्कन्धों का बन्ध होता है तब उनमे क्या निर्माण होता है ? २ इन स्कन्धों का ऊँचे, नीचे या तिरछे किन आत्मप्रदेशों द्वारा ग्रहण होता है ? ३. सभी जीवों का कर्मबन्ध समान होता है या असमान ? यदि असमान होता है तो क्यों ? ४. वे कर्मस्कन्ध स्थूल होते है या सूक्ष्म ? ५. जीव-प्रदेशवाले क्षेत्र मे रहे हुए कर्मस्कन्धों का ही जीवप्रदेश के साथ बन्ध होता है या उससे भिन्न क्षेत्र में रहे हुए का भी होता है ? ६. वे बन्ध के समय गतिशील होते है या स्थितिशील ? ७. उन कर्मस्कन्धो का सम्पूर्ण आत्म-प्रदेशों मे बन्ध होता है या कुछ ही आत्मप्रदेशों में ? ८. वे कर्मस्कन्ध संख्यात, असंख्यात, अनन्त या अनन्तानन्त मे से कितने प्रदेशवाले होते है ?
इन आठों प्रश्नों के सूत्रगत उत्तर क्रमश. इस प्रकार है :
१. आत्मप्रदेशों के साथ बँधनेवाले पुद्गलस्कन्धों में कर्मभाव अर्थात् ज्ञानावरणत्व आदि प्रकृतियां बनती है । सारांश यह है कि वैसे स्कन्धों से उन प्रकृतियों
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२०४ तत्त्वार्यसूत्र
[८. २६ का निर्माण होता है । इसीलिए उन स्कन्धों को सभी प्रकृतियो का कारण कहा गया है । २. ऊँची, नीची और तिरछी सभी दिशाओं मे रहे हुए आत्मप्रदेशों के द्वारा कर्मस्कन्धों का ग्रहण होता है, किसी एक ही दिशा के आत्मप्रदेशों द्वारा नही । ३ सभी जीवों के कर्मबन्ध के असमान होने का कारण यह है कि सभी के मानसिक, वाचिक और कायिक योग ( व्यापार ) समान नहीं होते । यही कारण है कि योग के तरतमभाव के अनुसार प्रदेशबन्ध मे भी तरतमभाव आ जाता है । ४. कर्मयोग्य पुद्गलस्कन्ध स्थूल ( बादर ) नही होते, सूक्ष्म ही होते है, वैसे सूक्ष्मस्कन्धों का ही कर्मवर्गणा मे से ग्रहण होता है। ५. जीवप्रदेश के क्षेत्र में रहे हुए कर्मस्कन्धों का ही बन्ध होता है, उसके बाहर के क्षेत्र के कर्मस्कन्धों का नहीं। ६. केवल स्थिर होने से ही बन्ध होता है, क्योकि गतिशील स्कन्ध अस्थिर होने से बन्ध को प्राप्त नहीं होते। ७. प्रत्येक कर्म के अनन्त स्कन्धों का सभी आत्मप्रदेशों मे बन्ध होता है। ८. बँधनेवाले समस्त कर्मयोग्य स्कन्ध अनन्तानन्त परमाणुओं के ही बने होते है, कोई भी संख्यात, असंख्यात या अनन्त परमाणुओं का बना हुआ नही होता । २५ ।
पुण्य और पाप प्रकृतियाँ सद्वैद्यसम्यक्त्वहास्यरतिपुरुषवेदशुभायुर्नामगोत्राणि
पुण्यम् । २६ । सातावेदनीय, सम्यक्त्व-मोहनीय, हास्य, रति, पुरुषवेद, शुभआयु, शुभनाम और शुभगोत्र ये प्रकृतियाँ पुण्यरूप हैं ( शेष सभी प्रकृतियाँ पापरूप हैं)।
जिन कर्मों का बन्ध होता है उनका विपाक केवल शुभ या अशुभ ही नही होता अपितु अध्यवसायरूप कारण की शुभाशुभता के निमित्त से वे शुभाशुभ दोनों प्रकार के होते है । शुभ अध्यवसाप से निमित विपाक शुभ ( इष्ट ) होता है और अशुभ अध्यवसाय से निर्मित विपाक अशुभ (अनिष्ट ) होता है । जिस परिणाम में संक्लेश जितना कम होगा वह परिणाम उतना ही अधिक शुभ और जिस परिणाम में संक्लेश जितना अधिक होगा वह परिणाम उतना ही अशुभ होगा। कोई भी एक परिणाम ऐसा नहीं है जिसे केवल शुभ या केवल अशुभ कहा जा सके । प्रत्येक परिणाम शुभ-अशुभ अथवा उभयरूप होने पर भी उसमे शुभत्व-अशुभत्व का व्यवहार गौणमुख्यभाव की अपेक्षा से किया जाता है, इसीलिए जिस शुभ परिणाम से पुण्य-प्रकृतियों मे शुभ अनुभाग बंधता है उसी परिणाम से पाप-प्रकृतियों मे अशुभ अनुभाग भी बँधता है। इसके विपरीत जिस परिणाम से अशुभ अनुभाग बघता है उसी परिणाम से पुण्य-प्रकृतियों में शुभ अनुभाग
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८. २६ ]
पुण्य और पाप प्रकृतियाँ भी बँधता है । इतना ही अन्तर है कि जैसे प्रकृष्ट शुभ परिणाम से होनेवाला शुभ अनुभाग प्रकृष्ट होता है और अशुभ अनुभाग निकृष्ट होता है वैसे ही प्रकृष्ट अशुभ परिणाम से बँधनेवाला अशुभ अनुभाग प्रकृष्ट होता है और शुभ अनुभाग निकृष्ट होता है।
पुण्यरूप में प्रसिद्ध ४२ प्रकृतियाँ' ---सातावेदनीय, मनुष्यायुष्क, देवायुष्क, तिर्यच-आयुष्क, मनुष्यगति, देवगति, पचेन्द्रियजाति; औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस, कार्मण ये पाँच शरीर; औदारिक-अंगोपांग, वैक्रिय-अंगोपांग, आहारकअंगोपांग, समचतुरस्र-संस्थान, वज्रर्षभनाराच-संहनन, प्रशस्त वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श; मनुष्यानुपूर्वी, देवानुपूर्वी, अगुरुलघु, पराघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत, प्रशस्त विहायोगति, स, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यश.कीर्ति, निर्माणनाम, तीर्थकरनाम और उच्चगोत्र ।
पापरूप में प्रसिद्ध ८२ प्रकृतियाँ-पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नौ नोकषाय, नारकायुष्क, नरकगति, तिर्यंचगति, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, प्रथम संहनन को छोड़ शेष पाँच संहनन-अर्धवज्रर्षभनाराच, नाराच, अर्धनाराच, कीलिका और सेवार्त; प्रथम संस्थान को छोड शेष पाँच संस्थान-न्यग्रोधपरिमण्डल, सादि, कुब्ज, वामन और हुड, अप्रशस्त वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, नारकानुपूर्वी, तियंचानुपूर्वी, उपघात, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दु स्वर, अनादेव, अयशःकीति, नीचगोत्र और पांच अन्तराय । २६ ।
१. ये ४२ पुण्य-प्रकृतियाँ कर्मप्रकृति व नवतत्त्व आदि अनेक ग्रन्यो में प्रसिद्ध है । दिगम्बर ग्रन्यो मे भो ये ही प्रकृतियाँ पुण्यरूप से प्रसिद्ध है। प्रस्तुत सत्र से पुण्यरूप में निर्दिष्ट सम्यक्त्व, हास्य, रति और पुरुषवेद व चार प्रकृति यो का अन्य किसी ग्रन्थ में पुण्यरूप से वर्णन नही है । __ इन चार प्रकृतियो को पुण्यरूप माननेवाला मतविशेष बहुत प्राचीन है, ऐसा ज्ञात होता है, क्योकि प्ररतुत सत्र में उपलब्ध इनके उल्लेख के उपरांत भाष्यवृत्तिकार ने भी मतभेद को दरसानेवाली कारिकाएँ दी है और लिखा है कि इस मंतव्य का रहस्य सम्प्रदाय-विच्छेद के कारण हमें मालूम नहीं होता। हाँ, चतुर्दशपूर्वधारी जानते होगे।
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संवर-निर्जरा बन्ध के वर्णन के बाद अब इस नवें अध्याय में संवर एवं निर्जरा तत्त्व का निरूपण किया जाता है।
संवर का स्वरूप
आस्रवनिरोधः संवरः।१। आस्रव का निरोध संवर है।
जिस निमित्त से कर्म का बन्ध होता है वह आस्रव है। आस्रव की व्याख्या पहले की जा चुकी है । आस्रव का निरोध अर्थात् प्रतिबन्ध करना ही संवर है । आस्रव के ४२ भेद पहले बतलाए जा चुके है । उनका जितने-जितने अंश मे निरोध होगा उतने-उतने अंश में संवर कहा जाएगा। आध्यात्मिक विकास का क्रम ही आस्रवनिरोध के विकास पर आश्रित है । अतः जैसे-जैसे आस्रव-निरोध बढ़ता जाता है. वैसे-वैसे गुणस्थान' की भी वृद्धि होती है ।
संवर के उपाय स गुप्तिसमितिधर्मानुप्रेक्षापरीषहजयचारित्रैः । २।
तपसा निर्जरा च।३। वह संवर गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय और चारित्र से होता है।
तप से संवर और निर्जरा होती है।
१. जिस गुणस्थान मे मिथ्यात्व, अविरति आदि चार हेतुओ मे से जो-जो हेतु सम्भव हो और उनके कारण जिन-जिन कर्म-प्रकृतियो का बन्ध सम्भव हो उन हेतुओ और तज्जन्य कर्मप्रकृतियो के बन्ध का विच्छेद ही उस गुणस्थान से ऊपर के गुणस्थान का रावर है अर्थात् पूर्व-पूर्ववती गुणस्थान के आस्रव या तज्जन्य बन्ध का अभाव ही उत्तर-उत्तरवतों गुणस्थान का सवर है। इसके लिए देखे-दूसरे कर्मग्रन्थ मे बन्ध. करण और चौथा कर्मग्रन्थ ( गाथा ५१-५८ ) तथा प्रस्तुत सूत्र की सर्वार्थसिद्धि टीका।
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९. ४-५ ]
गुप्ति का स्वरूप
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सामान्यतः संवर का एक ही स्वरूप है, फिर भी प्रकारान्तर से उसके अनेक भेद कहे गए है । संक्षेप में से इसके ७ और विस्तार मे ६९ उपाय बताए गए है । यह संख्या धार्मिक आचारों के विधानो पर अवलम्बित है ।
जैसे तप संवर का उपाय है वैसे ही वह निर्जरा का भी प्रमुख कारण है । सामान्यतया तप अभ्युदय ( लौकिक सुख ) की प्राप्ति का साधन माना जाता है, फिर भी वह निःश्रेयस ( आध्यात्मिक सुख ) का भी साधन है क्योकि तप एक होने पर भी उसके पीछे की भावना के भेद के कारण वह सकाम और निष्काम दो प्रकार का हो जाता है । सकाम तप अभ्युदय का साधक हैं और निष्काम तप निश्रेयस का । २-३ ।
गुप्ति का स्वरूप सम्यग्योगनिग्रहो गुप्तिः । ४ ।
योगों का भलीभाँति निग्रह करना गुप्ति है ।
कायिक, वाचिक और मानसिक क्रिया अर्थात् योग का सभी प्रकार से निग्रह करना गुप्ति नही है, किन्तु प्रशस्त निग्रह ही गुप्ति होकर संवर का उपाय बनता है । प्रशस्त निग्रह का अर्थ है सोचसमझकर तथा श्रद्धापूर्वक स्वीकार किया गया अर्थात् बुद्धि और श्रद्धापूर्वक मन, वचन और काय को उन्मार्ग से रोकना और सन्मार्ग मे लगाना । योग के संक्षेप मे तीन भेद है, अतः निग्रहरूप गुप्ति के भी तीन भेद होते है :
१. किसी भी वस्तु के लेने व रखने में अथवा बैठने उठने व चलने-फिरने मे कर्तव्य - अकर्तव्य का विवेक हो, इस प्रकार शारीरिक ब्यापार का नियमन करना ही काय गुप्ति हैं । २. बोलने के प्रत्येक प्रसंग पर या तो वचन का नियमन करना या मौन धारण करना वचनगुप्ति है । ३. दुष्ट संकल्प एवं अच्छे-बुरे मिश्रित संकल्प का त्याग करना और अच्छे संकल्प का सेवन करना मनोगुप्ति है ।
समिति के भेद
ईर्याभाषैषणादाननिक्षेपोत्सर्गाः समितयः । ५ ।
सम्यगईर्या, सम्यग्भाषा, सम्यग्एषणा, सम्यग्आदान- निक्षेप और सम्यग्उत्सर्ग ये पाँच समितियाँ है ।
सभी समितियाँ विवेकयुक्त प्रवृत्तिरूप होने से संवर का उपाय बनती है । पाँचों समितियाँ इस प्रकार है :
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तत्त्वार्थसूत्र १. ईर्यासमिति-किसी भी जन्तु ( प्राणी) को क्लेश न हो, इसलिए सावधानीपूर्वक चलना । २. भाषासमिति-सत्य, हितकारी, परिचित और संदेहरहित बोलना । ३. एषणासमिति-जीवन-यात्रा मे आवश्यक निर्दोष साधनों को जुटाने के लिए सावधानीपूर्वक प्रवृत्ति करना। ४. आदाननिक्षेपसमिति-वस्तुमात्र को भलीभांति देखकर एवं प्रमार्जित करके लेना या रखना । ५. उत्सर्गसमिति-जीवरहित प्रदेश में देखभालकर एवं प्रमार्जित करके ही अनुपयोगी वस्तुओं का विसर्जन करना।
प्रश्न-गुप्ति और समिति मे क्या अन्तर है ?
उत्तर-गुप्ति मे असत्क्रिया के निषेध की मुख्यता है और समिति में सक्रिया के प्रवर्तन की मुख्यता है । ५ ।
धर्म के भेद उत्तमः क्षमामार्दवार्जवशौचसत्यसंयमतपस्त्यागाकिञ्चन्यब्रह्मचर्याणि धर्मः ।।
क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य ये दस उत्तम धर्म हैं।
क्षमा आदि गुणों को जीवन में उतारने से ही क्रोध आदि दोषों का अभाव होता है, इसीलिए इन गुणों को संवर का उपाय कहा गया है। क्षमा आदि दस प्रकार का धर्म जब अहिसा, सत्य आदि मूलगुणों तथा स्थान, आहार-शुद्धि आदि उत्तरगुणों के प्रकर्ष से युक्त होता है तभी यतिधर्म बनता है, अन्यथा नहीं । अभि. प्राय यह है कि अहिसा आदि मूलगुणो या उत्तरगुणों के प्रकर्ष से रहित क्षमा आदि गुण भले ही सामान्य धर्म कहलाएँ पर यतिधर्म की कोटि मे नही आ सकते । ये दस धर्म इस प्रकार है
१. क्षमा-सहनशील रहना अर्थात् क्रोध पैदा न होने देना और उत्पन्न क्रोध को विवेक तथा नम्रता से निष्फल कर डालना। क्षमा की साधना के पाँच उपाय है : अपने मे क्रोध के निमित्त के होने या न होने का चिन्तन करना, क्रोधवृत्ति के दोषों का विचार करना, बालस्वभाव का विचार करना, अपने किए हुए कर्म के परिणाम का विचार करना और क्षमा के गुणों का चिन्तन करना ।
(क) कोई क्रोध करे तब उसके कारण को अपने मे हूँढना। यदि दूसरे के क्रोध का कारण अपने में दृष्टिगोचर हो तो ऐसा विचार करना कि भूल तो मेरी अपनी ही है, दूसरे की बात तो सच है । कदाचित् अपने मे दूसरे के क्रोध का
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९. ६ ] धर्म के भेद
२.९ कारण दिखाई न पड़े तो सोचना चाहिए कि यह बेचारा अज्ञान से मेरी भूल निकालता है। यहो अपने मे क्रोध के निमित्त के होने या न होने का चिन्तन है।।
( ख ) जिसे क्रोध आता है वह विभ्रममतियुक्त होने से आवेश मे आकर दूसरे के साथ शत्रुता बांधता है, फिर उसे मारता या हानि पहुंचाता है और इस तरह अपने अहिंसाव्रत को नष्ट करता है। इस प्रकार के अनर्थ का चिन्तन ही क्रोधवृत्ति के दोषों का चिन्तन कहलाता है ।
(ग ) कोई पीठपीछे निन्दा करे तो ऐसा चिन्तन करना कि बाल (नासमझ) लोगों का यह स्वभाव ही है, इसमे बात ही क्या है ? उलटा लाभ है जो बेचारा पोठपीछे गाली देता है, सामने तो नही आता । यही प्रसन्नता की बात है । जब कोई सामने आकर गाली दे तब ऐसा सोचना कि यह तो बालजनों की ही बात है, जो अपने स्वभाव के अनुसार ऐसा करते हैं, इससे अधिक तो कुछ करते नही । सामने आकर गाली ही देते है, प्रहार तो नहीं करते, यह भी लाभ ही है। इसी प्रकार यदि कोई प्रहार करे तो उपकार मानना कि वह प्राणमुक्त तो नहीं करता और यदि कोई प्राणमुक्त करे तब धर्मभ्रष्ट न कर सकने का लाभ मानकर अपने प्रति उसकी दया का चिन्तन करना । इस प्रकार जैसे-जैसे अधिक कठिनाइयाँ आये वैसेवैसे अपने में विशेष उदारता और विवेक का विकास करके उपस्थित कठिनाइयों को सरल बनाना ही बालस्वभाव का चिन्तन है ।
(घ) कोई क्रोध करे तब यह सोचना कि इस अवसर पर दूसरा तो निमित्तमात्र है, वास्तव मे यह प्रसंग मेरे अपने ही पूर्वकृत कर्मो का परिणाम है । यही अपने कृत कर्मों का चिन्तन है ।
(ङ) कोई क्रोध करे तब यह सोचना कि 'क्षमा धारण करने से चित्त स्वस्थ रहता है, बदला लेने या प्रतिकार करने में व्यय होनेवाली शक्ति का उपयोग सन्मार्ग मे किया जा सकता है । यही क्षमा के गुणों का चिन्तन है ।
२. मार्दव-चित्त में मृदुता और व्यवहार में भी नम्रवृत्ति का होना मार्दव गुण है। इसकी सिद्धि के लिए जाति, कुल, रूप, ऐश्वर्य, विज्ञान ( बुद्धि ), श्रुत (शास्त्र), लाभ (प्राप्ति), वीर्य ( शक्ति) के विषय मे अपने को बड़ा या ऊंचा मानकर गवित न होना और इन वस्तुओ की विनश्वरता का विचार करके अभिमान के कांटे को निकाल फेंकना ।
३. प्रार्जव-भाव की विशुद्धि अर्थात् विचार, भाषण और व्यवहार की एकता ही आर्जव गुण है । इसकी प्राप्ति के लिए कुटिलता या मायाचारी के दोषो के परिणाम का विचार करना।
१४
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तत्त्वार्थ सूत्र
[ ९.६
४. शौच-धर्म के साधनों तथा शरीर तक मे भी आसक्ति न रखना- ऐसी निर्लोभता शौच है ।
२१०
५. सत्य — सत्पुरुषों के लिए हितकारी व यथार्थ वचन बोलना ही सत्य है । भाषासमिति और सत्य में अन्तर यह है कि प्रत्येक मनुष्य के साथ बोलचाल मे विवेक रखना भाषासमिति है और अपने समशील साधु पुरुषों के साथ सम्भाषणव्यवहार मे हित, मित और यथार्थ वचन का उपयोग करना सत्य नामक यतिधर्म है ।
६. संयम - मन, वचन और काय का नियमन करना अर्थात् विचार, वाणी और गति, स्थिति आदि मे यतना ( सावधानी ) का अभ्यास करना सयम है ।" ७. तप- मलिन वृत्तियों को निर्मूल करने के निमित्त अपेक्षित शक्ति की साधना के लिए किया जानेवाला आत्मदमन तप है ।
२
८. त्याग - पात्र को ज्ञानादि सद्गुण प्रदान करना त्याग है ।
९. प्राचिन्य- किसी भी वस्तु मे ममत्वबुद्धि न रखना आकिंचन्य है ।
१०. ब्रह्मचर्य - त्रुटियों को दूर करने के लिए ज्ञानादि सद्गुणों का अभ्यास करना एवं गुरु की अधीनता के सेवन के लिए ब्रह्म (गुरुकुल) मे चर्य ( बसना ) ब्रह्मचर्य है । इसके परिपालनार्थ अतिशय उपकारक अनेक गुण है, जैसे आकर्षक
१. संयम के सत्रह प्रकार है, जो भिन्न-भिन्न रूप मे है : पाँच इंद्रियों का निग्रह, पाँच अव्रतों का त्याग, चार कषायो का जय तथा मन, वचन और काय की विरति । इसी प्रकार पॉच स्थावर और चार त्रस ये नौ संयम तथा प्रेक्ष्यसंयम, उपेक्ष्यसयम, अपहृत्यसंयम, प्रमृज्यमंयम, कायसंयम, वाक्संयम, मन. संयम और उपकरणसंयम इस तरह कुल सत्रह प्रकार का संयम है ।
२. इसका वर्णन इसी अध्याय के सूत्र १६-२० मे है । इसके उपरांत अनेक तपस्वियो द्वारा आचरित अलग-अलग प्रकार के तप जैन परम्परा मे प्रसिद्ध है । जैसे यवमध्य और वज्रमध्य ये दो; चान्द्रायण; कनकावली, रत्नावली और मुक्तावली ये तीन; क्षुल्लक और महा ये दो सिंहविक्रीडित; सप्तसप्तमिका, अष्ठअष्टमिका, नवनवमिका, दशदशमिका ये चार प्रतिमाएँ; क्षुद्र और महा ये दो सर्वतोभद्र, भद्रोत्तर आचाम्ल; वर्धमान एवं बारह भिक्षप्रतिमाएँ इत्यादि । इनके विशेष वर्णन के लिए देखें- आत्मानन्द सभा द्वारा प्रकाशित तपोरत्नमहोदधि नामक ग्रन्थ |
३. गुरु ( आचार्य ) पाँच प्रकार के है - प्रव्राजक, दिगाचार्य, श्रुतोद्दे ष्टा, श्रुतसमुद्दे ष्टा, आम्नायार्थवाचक | जो प्रव्रज्या देता है वह प्रव्राजक, जो वस्तुमात्र की अनुज्ञा प्रदान करे वह दिगाचार्य, जो आगम का प्रथम पाठ पढाए वह श्रुतोद्दे ष्टा, जो स्थिर परिचय कराने के लिए आगम का विशेष प्रवचन करे वह श्रुतसमुद्देष्टा और जो आम्नाय के उत्सर्ग और अपवाद का रहस्य बतलाए वह आम्नायार्थवाचक कहलाता है ।
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९. ७ ] अनुप्रेक्षा के भेद
२११ स्पर्श, रस, गन्ध, रूप, शब्द और शरीर-संस्कार आदि मे न उलझना । इसी प्रकार अध्याय ७ के सूत्र ३ मे वर्णित चतुर्थ महाव्रत की पाँच भावनाओं का विशेष रूप से अभ्यास करना।६।
अनुप्रेक्षा के भेद अनित्याशरणसंसारैकत्वान्यत्वाशुचित्वास्रवसंवरनिर्जरालोकबोधिदुर्लभधर्मस्वाख्यातत्वानुचिन्तनमनुप्रेक्षाः । ७।
अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचि, आस्रव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधिदुर्लभत्व और धर्मस्वाख्यातत्व--इनका अनुचिन्तन ही अनुप्रेक्षाएं हैं। __ अनुप्रेक्षा अर्थात् गहन चिन्तन । तात्त्विक और गहरे चिन्तन द्वारा रागद्वेष आदि वृत्तियाँ रुक जाती है। इसीलिए ऐसे चिन्तन को संवर का उपाय कहा गया है।
जीवनशुद्धि मे विशेष उपयोगी बारह विषयो को चुनकर उनके चिन्तन को बारह अनुप्रेक्षाओं के रूप मे गिनाया गया है । अनुप्रेक्षा को भावना भी कहते है । बारह अनुप्रेक्षाओं का परिचय नीचे दिया जा रहा है ।
१. अनित्यानुप्रेक्षा—किसी भी प्राप्त वस्तु के वियोग से दु ख न हो इसलिए उन सभी वस्तुओं मे आसक्ति कम करना आवश्यक है । इसके लिए ही शरीर और घरबार आदि वस्तुएँ एवं उनके सम्बन्ध नित्य और स्थिर नही है, ऐसा चिन्तन करना ही अनित्यानुप्रेक्षा है ।
२. प्रशरणानुप्रेक्षा-एकमात्र शुद्ध धर्म को ही जीवन का शरणभूत स्वीकार करने के लिए अन्य सभी वस्तुओं से ममत्व हटाना आवश्यक है। इसके लिए ऐसा चिन्तन करना कि जैसे सिंह के पंजे मे पडे हुए हिरन का कोई शरण नहीं वैसे ही आधि ( मानसिक रोग), व्याधि ( शारीरिक रोग) और उपाधि से ग्रस्त मैं भी सर्वदा के लिए अशरण हूँ। यह अशरणानुप्रेक्षा है।
३. संसारानुप्रेक्षा-संसारतृष्णा का त्याग करने के लिए सांसारिक वस्तुओं मे निर्वेद ( उदासीनता ) की साधना आवश्यक है। इसीलिए ऐसी वस्तुओं से मन को हटाने के लिए ऐसा चिन्तन करना कि इस अनादि जन्म-मरण-संसार में न तो कोई स्वजन है और न कोई परजन, क्योंकि प्रत्येक के साथ तरह-तरह के सम्बन्ध जन्म-जन्मान्तर में हुए है। इसी प्रकार राग, द्वेष और मोह से संतप्त प्राणी विषयतृष्णा के कारण एक-दूसरे को हडपने की नीति से असह्य दुःखों का
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२१२ तत्त्वार्थसूत्र
[९.७ अनुभव करते है । यह संसार हर्ष-विषाद, सुख-दु.ख आदि द्वन्द्वों का स्थान है और सचमुच कष्टमय है । इस प्रकार का चिन्तन संसारानुप्रेक्षा है ।
४. एकत्वानुप्रेक्षा-मोक्ष-प्राप्ति की दृष्टि से रागद्वेष के प्रसंगों मे निर्लेपता की साधना आवश्यक है । अत. स्वजन-विषयक राग तथा परजन-विषयक द्वष को दूर करने के लिए ऐसा विचार करना कि 'मै अकेला ही जन्मता-मरता हूँ, अकेला ही अपने बोये हुए कर्मबीजो के सुख-दु खादि फलो का अनुभव करता हूँ, बास्तव मे मेरे सुख-दुःख का कोई कर्ता-हर्ता नही है' । यह एकत्वानुप्रेक्षा है।
५. अन्यत्वानुप्रेक्षा-मनुष्य मोहावेश से शरीर और अन्य वस्तुओं की ह्रासवृद्धि मे अपनी ह्रास-वृद्धि को मानने को भूल करके मूल कर्तव्य को भूल जाता है। इस स्थिति के निरासार्थ शरीर आदि अन्य वस्तुओं मे अपनी आदत को दूर करना आवश्यक है । इसीलिए इन दोनो के गुण-धर्मो की भिन्नता का चिन्तन करना कि शरीर तो जड, स्थूल तथा आदि-अन्त युक्त है और मैं तो चेतन, सूक्ष्म-आदि, अन्तरहित हूँ। यह अन्यत्वानुप्रेक्षा है ।
६. अशुचित्वानुप्रेक्षा-सबसे अधिक घृणास्पद शरीर ही है, अतः उस पर से मूर्छा घटाने के लिए ऐसा सोचना कि शरीर स्वयं अशुचि है, अशुचि से ही पैदा हुआ है, अशुचि वस्तुओ से इसका पोषण हुआ है, अशुचि का स्थान है और अशुचि-परम्परा का कारण है । यह अशुचित्वानुप्रेक्षा है ।
७. प्रास्रवानप्रेक्षा-इन्द्रिय-भोगो की आसक्ति कम करने के लिए प्रत्येक इन्द्रिय के भोगसम्बन्धी राग से उत्पन्न होनेवाले अनिष्ट परिणामों का चिन्तन करना आस्रवानुप्रेक्षा है।
८. संवरानुप्रेक्षा--दुर्वृत्ति के द्वारों को बन्द करने के लिए सद्वृत्ति के गुणों का चिन्तन करना संवरानुप्रेक्षा है ।
९. निर्जरानप्रेक्षा-कर्म-बन्धन को नष्ट करने की वृत्ति दृढ़ करने के लिए विविध कर्म-विपाकों का चिन्तन करना कि दु.ख के प्रसंग दो प्रकार के होते है
इच्छा और सज्ञान प्रयत्न के बिना प्राप्त हुआ, जैसे पशु, पक्षी और बहरे, बाद दु.खप्रधान जन्म तथा उत्तराधिकार मे प्राप्त गरीबी: दूसरा सदुद्देश्य से सज्ञान प्रयत्नपूर्वक प्राप्त किया हुआ, जैसे तप और त्याग के कारण प्राप्त गरीबी और शारीरिक कृशता आदि । पहले मे वृत्ति का समाधान न होने से वह अरुचि का कारण होकर अकुशल परिणामदायक बनता है और दूसरा सद्वृत्तिजनित होने से उसका परिणाम कुशल ही होता है। अतः अचानक प्राप्त हुए कटुक विपाकों में समाधान-वृत्ति साधना तथा जहाँ सम्भव हो वहाँ तप और
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२१३
९. ८-१७ ]
परीषह त्याग द्वारा कुशल परिणाम की प्राप्ति हो इस प्रकार संचित कर्मों को भोगना श्रेयस्कर है । यह निर्जरानुप्रेक्षा है।
१०. लोकानुप्रेक्षा-तत्त्वज्ञान की विशुद्ध के निमित्त विश्व के वास्तविक स्वरूप का चिन्तन करना लोकानुप्रेक्षा है ।
११. बोधिदुर्लभत्वानुप्रेक्षा-प्राप्त हुए मोक्षमार्ग मे अप्रमत्तभाव की साधना के लिए ऐसा विचार करना कि 'अनादिप्रपंच-जाल मे, विविध दु.खों के प्रवाह में तथा मोह आदि कर्मों के तीव्र आघातो को सहन करते हुए जीव को शुद्ध दृष्टि और शुद्ध चारित्र प्राप्त होना दुर्लभ है' । यह बोधिदुर्लभत्वानुप्रेक्षा है।
१२. धर्मस्वाख्यातत्वानुप्रेक्षा-धर्ममार्ग से च्युत न होने और उसके अनुष्ठान में स्थिरता लाने के लिए ऐसा चिंतन करना कि 'यह कितना बड़ा सौभाग्य है कि जिससे समस्त प्राणियों का कल्याण होता है ऐसे सर्वगुणसम्पन्न धर्म का सत्पुरुषों ने उपदेश किया है । यह धर्मस्वाख्यातत्वानुप्रेक्षा है । ७ ।
। परीषह मार्गाऽच्यवननिर्जराथ परिसोढव्याः परीषहाः। ८ । क्षुत्पिपासाशीतोष्णदंशमशकनाग्न्यारतिस्त्रीचर्यानिषद्याशय्याक्रोशवधयाचनाऽलाभरोगतृणस्पर्शमलसत्कारपुरस्कारप्रज्ञाज्ञानादर्शनानि ।९। सूक्ष्मसम्परायच्छमस्थवीतरागयोश्चतुर्दश । १० । एकादश जिने । ११ । बादरसम्पराये सर्वे । १२ । ज्ञानावरणे प्रज्ञाज्ञाने। १३ । दर्शनमोहान्तराययोरदर्शनालाभौ । १४ । चारित्रमोहे नाग्न्यारतिस्त्रीनिषद्याक्रोशयाचनासत्कारपुरस्काराः।१५। वेदनीये शेषाः । १६ । एकादयो भाज्या युगपदैकोनविंशतेः। १७ ।
मार्ग से च्युत न होने एवं कर्मों के क्षय के लिए जो सहन करने योग्य हों वे परीषह हैं।
१. श्वेताम्बर व दिगम्बर सभी पुस्तको में 'घ' छपा हुआ मिलता है, परन्तु यह परीषह शब्द के 'ष' के साम्य के कारण व्याकरणविषयक भ्रान्ति-मात्र है। वस्तुतः व्याकरण के अनुसार ‘परिसोढव्याः ' ही शद्ध रूप है। जैसे देखे-सिद्धहेम व्याकरण, २.३.४८ तथा पाणिनीय व्याकरण, ८३ ११५
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तत्त्वार्थसूत्र
[ ९. ८-१७ क्षुधा, तृष्णा, शीत, उष्ण, दंशमशक, नग्नत्व, अरति, स्त्री, चर्या, निषद्या, शय्या, आक्रोश, वध, याचना, अलाभ, रोग, तृणस्पर्श, मल, सत्कार-पुरस्कार, प्रज्ञा, अज्ञान और अदर्शन--ये बाईस परीषह हैं।
सूक्ष्मसम्पराय व छद्मस्थवीतराग में चौदह परीषह सम्भव हैं । जिन भगवान् में ग्यारह परीषह सम्भव हैं। बादरसम्पराय में बाईसों परीषह सम्भव हैं। ज्ञानावरणरूप निमित्त से प्रज्ञा और अज्ञान परीषह होते हैं । दर्शनमोह से अदर्शन और अन्तराय कर्म से अलाभ परीषह होते हैं।
चारित्रमोह से नग्नत्व, अरति, स्त्री, निषद्या, आक्रोश, याचना और सत्कार-पुरस्कार परीषह होते है ।
वेदनीय से शेष सभी परीषह होते है।
एक साथ एक आत्मा में १ से १९ तक परीषह विकल्प से सम्भव हैं। __ संवर के उपाय के रूप में सूत्रकार ने परीषहों के पाँच अंगों का निरूपण किया है-१. परीषहो का लक्षण, २. उनकी संख्या, ३. अधिकारी भेद से उनका विभाग, ४. उनके कारणो का निर्देश और ५. एक साथ एक जीव में सम्भाव्य परीषह । यहाँ प्रत्येक अग का विशेष विचार किया जाता है ।
१. लक्षण-अङ्गीकृत धर्ममार्ग मे स्थिर रहने और कर्मबन्धन के विनाश के लिए जो स्थिति समभावपूर्वक सहन करने योग्य है उसे परीषह कहते है । ८ ।
२. संख्या-यद्यपि परीषहों की संख्या संक्षेप मे कम और विस्तार मे अधिक भी कल्पित की जा सकती है तथापि त्याग के विकास के लिए विशेषरूप मे बाईस परीषह शास्त्र मे बतलाए गए है । वे ये है-१-२ क्षुधा और पिपासा-- भूख और प्यास की चाहे जैसी वेदना हो, फिर भी अङ्गीकृत मर्यादा के विपरीत आहार-जल न लेते हुए समभावपूर्वक इन वेदनाओ को सहना। ३-४. शीत व उष्ण- ठंड और गरमी से चाहे जितना कष्ट होता हो, फिर भी उसके निवारणार्थ किसी भी अकल्प्य वस्तु का सेवन न करके समभावपूर्वक उन वेदनाओं को सहना । ५. दशमशक-डाँस, मच्छर आदि जन्तुओ के उपद्रव को खिन्न न होते हुए समभावपूर्वक सहन करना। ६. नग्नता'नग्नता को समभावपूर्वक सहन
१. इस परीषह के विषय मे श्वेताम्बर व दिगम्बर दोनो सम्प्रदायो में विशेष मतभेद है और इसी के कारण श्वेताम्बर-दिगम्बर नाम पडे है । श्वेताम्बर शास्त्र विशिष्ट साधकों के
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९. ८-१७.]
परीषह करना। ७. अरति-अंगीकृत मार्ग मे अनेक कठिनाइयों के कारण अरुचि का प्रसंग आने पर उस समय अरुचि न लाते हुए धैर्यपूर्वक उसमे रस लेना । ८. स्त्री-पुरुष या स्त्री साधक का अपनी साधना मे विजातीय आकर्षण के प्रति न ललचाना । ९. चर्या-स्वीकृत धर्मजीवन को पुष्ट रखने के लिए असंग होकर भिन्न-भिन्न स्थानों मे विहार करना और किसी भी एक स्थान मे नियतवास स्वीकार न करना । १०. निषद्या-साधना के अनुकूल एकान्त स्थान में मर्यादित समय तक आसन लगाकर बैठे हुए साधक के ऊपर यदि भय का प्रसंग आ जाय तो उसे अकम्पितभाव से जीतना अथवा आसन से च्युत न होना । ११. शय्याकोमल या कठोर, ऊँची या नीची, जैसी भी जगह सहजभाव से मिले वहाँ समभावपूर्वक शयन करना। १२. आक्रोश-कोई पास आकर कठोर या अप्रिय वचन कहे तब भी उसे सत्कार समझना । १३. वध-किसी के द्वारा ताड़नतर्जन किये जाने पर भी उसे सेवा ही मानना । १४. याचना-दीनता या अभिमान न रखते हुए सहज धर्मयात्रा के निर्वाहार्थ याचकवृत्ति स्वीकार करना । १५. अलाभ-याचना करने पर भी यदि अभीष्ट वस्तु न मिले तो प्राप्ति के बजाय अप्रासि को ही सच्चा तप मानकर संतोष रखना। १६. रोग-व्याकुल न होकर समभावपूर्वक किसी भी रोग को सहन करना । १७. तृणस्पर्श-संथारे मे या अन्यत्र तृण आदि की तीक्ष्णता अथवा कठोरता अनुभव हो तो मृदुशय्या के सेवन जैसी प्रसन्नता रखना। १८. मल-शारीरिक मैल चाहे जितना हो, फिर भी उससे उद्विग्न न होना और स्नान आदि संस्कारों की इच्छा न करना। १९. सत्कार-पुरस्कार-चाहे जितना सत्कार मिले पर उससे प्रसन्न न होना और सत्कार न मिलने पर खिन्न न होना। २०. प्रज्ञा–प्रज्ञा अर्थात् चमत्कारिणी बुद्धि होने पर उसका गर्व न करना और वैसी बुद्धि न होने पर खेद न करना। २१. अज्ञान-विशिष्ट शास्त्रज्ञान से गर्वित न होना और उसके अभाव में आत्मावमानना न रखना। २२ अदर्शन--सूक्ष्म और अतीन्द्रिय पदार्थों का दर्शन न होने से स्वीकृत त्याग निष्फल प्रतीत होने पर विवेकपूर्वक श्रद्धा रखना और प्रसन्न रहना । ९।
लिए सर्वथा नग्नत्व को स्वीकार करके भी अन्य साधको के लिए मर्यादित वस्त्र-पात्र की आज्ञा देते है और तदनुसार अमूर्छित भाव से वस्त्रपात्र रखनेवाले को भी वे साधु मानते है, जब कि दिगम्बर शास्त्र मुनिनामधारक सभी साधको के लिए समानरूप से ऐकान्तिक नग्नत्व का विधान करते है । नग्नत्व को अचेलक परीषह भी कहते है । आधुनिक शोधक विद्वान् वस्त्रपात्र धारण करनेवाली श्वेतांबर परंपरा में भगवान् पार्श्वनाथ की सवस्त्र परम्परा का मूल देखते है और सर्वथा नग्नत्ववाली दिगंबर परंपरा में भ० महावीर की अवस्त्र परंपरा का मूल देखते है ।
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तत्त्वार्थसूत्र
[ ९. ८-१७ ३. अधिकारी-भेद-जिसमे सम्पराय (लोभकषाय ) की बहुत कम सम्भावना हो उस सूक्ष्मसम्पराय नामक गुणस्थान मे तथा उपशान्तमोह व क्षीणमोह नामक गुणस्थानों में चौदह परीषह ही सम्भव है । वे ये है-क्षुधा, पिपासा, शीत, उष्ण, दंशमशक, चर्या, प्रज्ञा, अज्ञान, अलाभ, शय्या, वध, रोग, तृणस्पर्श और मल । शेष आठ सम्भव नहीं है, क्योकि वे मोहजन्य है, एवं ग्यारहवें और बारहवे गुणस्थानों में मोहोदय का अभाव है। यद्यपि दसवें गुणस्थान में मोह होता है पर वह इतना अल्प होता है कि न होने जैसा ही कह सकते है। इसीलिए इस गुणस्थान में भी मोहजन्य आठ परीषहों की शक्यता का उल्लेख न करके केवल चौदह की शक्यता का उल्लेख किया गया है ।
तेरहवें और चौदहवें' गुणस्थानों में केवल ग्यारह ही परीषह सम्भव है । वे है-क्षुधा, पिपासा, शीत, उष्ण, देशमशक, चर्या, शय्या, वध, रोग, तृणस्पर्श और मल । शेष ग्यारह घातिकर्मजन्य होते हैं और इन गुणस्थानों मे घातिकर्मों का अभाव होने से वे सम्भव नही है ।
जिसमें सम्पराय ( कषाय ) की बादरता अर्थात् विशेष रूप में सम्भावना हो उस बादरसम्पराय नामक नवें गुणस्थान में बाईस परीषह होते है, क्योंकि परीषहों के कारणभूत सभी कर्म वहीं होते है । नवें गुणस्थान में बाईस परीषहों की सम्भावना का कथन करने से उसके पहले के छठे आदि गुणस्थानों में उतने ही परीषह सम्भव हैं, यह स्वतः फलित हो जाता है । १०-१२ ।
४. कारण-निर्देश-कुल चार कर्म परीषहों के कारण माने गये है।
१. इन दो गुणस्थानो मे परीषहों के विषय में दिगम्बर और श्वेताम्बर संप्रदायो मे मतभेद है, जो सर्वज्ञ में कवलाहार मानने और न मानने के कारण है। इसीलिए दिगम्बर व्याख्याग्रन्थ 'एकादश जिने सूत्र को मानते हुए भी इसकी व्याख्या तोड-मरोड कर करते प्रतीत होते है । व्याख्या एक नही बल्कि दो की गई है और वे तीन साम्प्रदायिक मतभेद के बाद की ही है, ऐसा स्पष्ट प्रतीत होता है। पहली व्याख्या के अनुसार ऐसा अर्थ किया जाता है कि जिन (सर्वज्ञ ) मे क्षधा आदि ग्यारह परीषह ( वेदनीय कर्मजन्य ) है, लेकिन मोह न होने से वे क्षधा आदि वेदना रूप न होने के कारण उपचार मात्र से द्रव्य परीषह है। दूसरी व्याख्या के अनुसार 'न' शब्द का अभ्याहार करके यह अर्थ किया जाता है कि जिनमें वेदनीय कर्म होने पर भी तदाश्रित क्षधा आदि ग्यारह परोषह मोह के अभाव के कारण बाधा-रूप न होने से है ही नहीं।
२. दिगम्बर व्याख्या-ग्रन्थ यहाँ बादरसम्पराय शब्द को संज्ञा न मानकर विशेषण मानते हैं, जिस पर से वे छठे आदि चार गुणस्थानो का अर्थ घटित करते है ।
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९. १८ ]
चारित्र के भेद
ज्ञानावरण प्रज्ञा' व अज्ञान परीषहों का कारण है; अन्तरायकर्म अलाभपरीषह का कारण है; मोहनीय मे से दर्शनमोहनीय अदर्शन का और चारित्रमोहनीय नग्नत्व, अरति, स्त्री, निषद्या, आक्रोश, याचना, सत्कार इन सात परीषहों का कारण है; वेदनीय कर्म ऊपर निर्दिष्ट सर्वज्ञ मे सम्भाव्य ग्यारह परीषहों का कारण है । १३-१६ ।
५. एक साथ एक जीव में संभाव्य परोषह - बाईस परीषहों में अनेक परीषह परस्परविरोधी हैं, जैसे शीत, उष्ण, चर्या, शय्या और निषद्या । इनमे से पहले दो और बाद के तीन एक साथ सम्भव ही नही है । शीत परीषह के होने पर उष्ण और उष्ण के होने पर शीत सम्भव नही । इसी प्रकार चर्या, शय्या और निषद्या इन तीनों मे से भो एक समय मे एक ही परीषह सम्भव है । इसीलिए उक्त पाँचों में से एक समय मे किन्हीं भी दो को सम्भव और तीन को असम्भव मानकर एक आत्मा मे एक साथ अधिक-से-अधिक १९ परीषह सम्भव माने गये है । १७ ।
चारित्र के भेद
सामायिकच्छेदोपस्थाप्यपरिहारविशुद्धिसूक्ष्मसम्पराय - यथाख्यातानि चारित्रम् । १८ ।
२१७
सामायिक, छेदोपस्थापन, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसम्पराय और यथाख्यात -- यह पाँच प्रकार का चारित्र है ।
आत्मिक शुद्धदशा में स्थिर रहने का प्रयत्न करना चारित्र है । परिणामशुद्धि के तरतमभाव की अपेक्षा से चारित्र के सामायिक आदि पाँच भेद है । वे इस प्रकार है :
१. सामायिक चारित्र - समभाव मे स्थित रहने के लिए समस्त अशुद्ध प्रवृत्तियों का त्याग करना सामायिकचारित्र है । छेदोपस्थापन आदि शेष चार चारित्र सामायिकरूप तो है ही, फिर भी आचार और गुण की कुछ विशेषताओं के कारण इन चारों का सामायिक से पृथक् रूप मे वर्णन किया गया है । इत्वरिक अर्थात् कुछ समय के लिए अथवा यावत्कथिक अर्थात् सम्पूर्ण जीवन के लिए जो पहले-पहल मुनि दीक्षा ली जाती है वह सामायिक है ।
२. छेदोपस्थापनचारित्र -- प्रथम दीक्षा के पश्चात् विशिष्ट श्रुत का अभ्यास कर लेने पर विशेष शुद्धि के लिए जीवनपर्यंत पुनः जो दीक्षा ली जाती है, एवं
१. चमत्कारिणी बुद्धि कितनी ही क्यों न हो, परिमित होने के कारण ज्ञानावरण के आश्रित ही होती है, अतः प्रज्ञापरीषह ज्ञानावरणजन्य ही है ।
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२१८
तत्त्वार्थसूत्र
[९. १९-२० प्रथम दीक्षा मे दोषापत्ति आने से उसका छेद करके फिर नये सिरे से जो दीक्षा का आरोपण किया जाता है, वह छेदोपस्थापनचारित्र है। इनमे पहला निरतिचार और दूसरा सातिचार छेदोपस्थापनचारित्र है ।
३. परिहारविशुद्धिचारित्र-जिसमे विशिष्ट प्रकार के तपःप्रधान आचार का पालन किया जाता है वह परिहारविशुद्धिचारित्र है ।'
४. सक्ष्मसंपरायचारित्र-जिसमे क्रोध आदि कषायों का तो उदय नही होता, केवल लोभ का अंश अतिसूक्ष्मरूप मे रहता है, वह सूक्ष्मसम्परायचारित्र है।
५. यथाख्यातचारित्र-जिसमें किसी भी कषाय का बिलकुल उदय नहीं रहता वह यथाख्यात अर्थात् वीतरागचारित्र है ।२
तप अनशनावमौदर्यवृत्तिपरिसंख्यानरसपरित्यागविविक्तशय्यासनकायक्लेशा बाह्य तपः । १९ । प्रायश्चित्तबिनयवैयावृत्त्यस्वाध्यायव्युत्सर्गध्यानान्युत्तरम् । २० ।
अनशन, अवमौदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्त शय्यासन और कायक्लेश-ये बाह्य तप हैं।
प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्त्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान-ये आभ्यन्तर तप हैं।
वासनाओं को क्षीण करने तथा समुचित आध्यात्मिक शक्ति की साधना के लिए शरीर, इन्द्रिय और मन को जिन-जिन उपायों से तपाया जाता है वे सभी तप कहे जाते है । तप के बाह्य और आभ्यन्तर दो भेद हैं । बाह्य तप वह है जिसमें शारीरिक क्रिया की प्रधानता हो तथा जो बाह्य द्रव्यों की अपेक्षासहित होने से दूसरों को दिखाई दे । आभ्यन्तर तप वह है जिसमे मानसिक क्रिया की प्रधानता हो तथा जो मुख्यरूप से बाह्य द्रव्यों की अपेक्षा से रहित होने से दूसरों को दिखाई न भी दे। स्थूल तथा लोगो द्वारा ज्ञात होने पर भी बाह्य तप का आभ्यन्तर तप की पुष्टि मे उपयोगी होने से ही महत्त्व माना गया है। बाह्य और आभ्यन्तर तप के वर्गीकरण में समग्र स्थूल और सूक्ष्म धार्मिक नियमों का समावेश हो जाता है।
१. देखें-हिन्दी चौथा कर्मग्रन्थ, पृ० ५६-६१ । २. इसके अथाख्यात और तथाख्यात नाम भी मिलते है ।
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९. २१-२२ ]
प्रायश्चित्त आदि आभ्यन्तर तपो के भेद
२१९
बाह्य तप-बाह्य तप के छः प्रकार ये हैं-१. अनशन-विशिष्ट अवधि तक या आजीवन सब प्रकार के आहार का त्याग करना । इनमें पहला इत्वरिक और दूसरा यावत्कथिक है। २. अवमौदर्य या ऊनोदरी-जितनी भूख हो उससे कम आहार करना। ३. वृत्तिपरिसंख्यान--विविध वस्तुओं की लालसा कम करना। ४. रसपरित्याग-घी, दूध आदि तथा मद्य, मधु, मक्खन आदि विकारवर्धक रसों का त्याग करना । ५. विविक्त शय्यासन-बाधारहित एकान्त स्थान में रहना। ६. कायक्लेश-ठंड, गरमी या विविध आसनादि द्वारा शरीर को कष्ट देना ।
प्राभ्यन्तर तप-आभ्यन्तर तप के छ. प्रकार ये है-१. प्रायश्चित्त-धारण किए हुए व्रत मे प्रमादजनित दोषों का शोधन करना। २. विनय-ज्ञान आदि सद्गुणो मे आदरभाव । ३. वैयावृत्त्य-योग्य साधनों को जुटाकर अथवा अपने आपको काम में लगाकर सेवाशुश्रूषा करना। विनय और वैयावृत्त्य मे यही अन्तर है कि विनय मानसिक धर्म है और वैयावृत्त्य शारीरिक धर्म है। ४ स्वाध्याय-ज्ञानप्राप्ति के लिए विविध प्रकार का अध्ययन करना। ५. व्युत्सर्गअहंता और ममता का त्याग करना । ६. ध्यान-चित्त के विक्षेपों का त्याग करना। १९-२० ।
प्रायश्चित्त आदि आभ्यन्तर तपो के भेद नवचतुर्दशपञ्चद्विभेदं यथाक्रमं प्राग्ध्यानात् । २१ । ध्यान के पूर्ववर्ती आभ्यन्तर तपों के क्रमशः नौ, चार, दस, पाँच और दो भेद हैं।
ध्यान का विचार विस्तृत होने से उसे अन्त मे रखकर उसके पहले के प्रायश्चित्त आदि पाँच आभ्यन्तर तपो के भेदों की संख्या ही यहाँ निर्दिष्ट की गई है । २१ ।
प्रायश्चित्त के भेद आलोचनप्रतिक्रमणतदुभयविवेकव्युत्सर्गतपश्छेदपरिहारोपस्थापनानि । २२। आलोचन, प्रतिक्रमण, तदुभय, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, परिहार और उपस्थापन-ये प्रायश्चित्त के नौ भेद है।
दोष अर्थात् भूल के शोधन के अनेक प्रकार है और वे सभी प्रायश्चित्त है । संक्षेप मे वे नौ है-१. गुरु के समक्ष शुद्धभाव से अपनी भूल प्रकट करना आलोचन है। २. हुई भूल का अनुताप करके उससे निवृत्त होना और आगे भूल न हो इसके
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२२०
तत्त्वार्थ सूत्र
[ २३-२४
लिए सावधान रहना प्रतिक्रमण हैं । ३. उक्त आलोचन और प्रतिक्रमण दोनों साथ करना तदुभय अर्थात् मिश्र है । ४. खाने-पीने आदि की यदि अकल्पनीय वस्तु आ जाय और बाद मे पता चले तो उसका त्याग करना विवेक है । ५. एकाग्रतापूर्वक शरीर और वचन के व्यापारों को छोड़ना व्युत्सर्ग है । ६. अनशन आदि बाह्य तप करना तप है । ७. दोष के अनुसार दिवस, पक्ष, मास या वर्ष की प्रव्रज्या कम करना छेद है । ८. दोषपात्र व्यक्ति से दोष के अनुसार पक्ष, मास आदि पर्यन्त किसी प्रकार का संसर्ग न रखकर उसे दूर से परिहरना परिहार है । ९ अहिंसा, सत्य, ब्रह्मचर्य आदि महाव्रतो का भग होने पर पुन: शुरू से उन महाव्रतों का आरोपण करना उपस्थापन है ।' २२ ।
विनय के भेद
ज्ञानदर्शनचारित्रोपचाराः । २३ ।
ज्ञान, दर्शन, चारित्र और उपचार – ये विनय के चार भेद हैं ।
विनय वस्तुतः गुणरूप में एक ही है, फिर भी उसके ये भेद विषय की दृष्टि से ही वर्णित है । विनय के विषय को मुख्यतः यहाँ चार भागों में विभाजित किया गया है, जैसे -- १. ज्ञान प्राप्त करना, उसका अभ्यास जारी रखना और भूलना नही- - यह ज्ञान का विनय है । २ तत्त्व की यथार्थ प्रतीतिस्वरूप सम्यग्दर्शन से विचलित न होना, उसके प्रति उत्पन्न होनेवाली शङ्काओं का निवारण करके निशंकभाव की साधना करना दर्शनविनय है । ३. सामायिक आदि चारित्रो में चित्त का समाधान रखना चारित्रविनय है । ४. जो अपने से सद्गुणो मे श्रेष्ठ हो उसके प्रति अनेक प्रकार से योग्य व्यवहार करना, जैसे उसके सम्मुख जाना, उसके आने पर खड़े होना, आसन देना, वन्दन करना इत्यादि उपचारविनय है | २३ |
वैयावृत्त्य के भेद
आचार्योपाध्यायतपस्विशैक्षकग्ला नगण कुलसद्धसाधुसमनोज्ञानाम् ॥ २४ ॥
आचार्य, उपाध्याय, तपस्वी, शैक्ष, ग्लान, गण, कुल, संघ, समनोज्ञ–यह दस प्रकार का वैयावृत्त्य है ।
साधु और वैयावृत्त्य सेवारूप है । अतः दस प्रकार के सेव्य ( सेवायोग्य पात्रो) के होने
१. परिहार और उपस्थापन इन दोनो के स्थान पर मूल, अनवस्थाप्य व पारांचिक इन तीन प्रायश्चित्तों के होने से कई ग्रन्थो में दस प्रायश्चित्तो का वर्णन है । प्रत्येक प्रायश्चित्त किन-किन और कैसे-कैसे दोषो पर लागू होता है इसका विशेष स्पष्टीकरण व्यवहार, जीतकल्पसूत्र आदि प्रायश्चित्त-प्रधान ग्रन्थो में द्रष्टव्य है ।
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९. २५-२६ ]
स्वाध्याय व व्युत्सर्ग के भेद
२२१
से वैयावृत्त्य के भी दस प्रकार है- १. मुख्यरूप से जिसका कार्य व्रत और आचार ग्रहण कराना हो वह आचार्य है । २. मुख्यरूप से जिसका कार्य श्रुताभ्यास कराना हो वह उपाध्याय है । ३. महान् और उग्र तप करनेवाला तपस्वी है । ४. नवदीक्षित होकर शिक्षण प्राप्त करने का उम्मीदवार शैक्ष है । ५. रोग आदि से क्षीण ग्लान है । ६. भिन्न-भिन्न आचार्यो के शिष्यरूप साधु यदि परस्पर सहाध्यायी होने से समान वाचनावाले हो तो उनका समुदाय गण है । ७. एक ही दीक्षाचार्य का शिष्य परिवार कुल है । ८. धर्म का अनुयायी समुदाय संघ है जो साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका के रूप मे चार प्रकार का है । ९. प्रव्रज्याधारी को साधु कहते है । १०. ज्ञान आदि गुणो मे समान समनोज्ञ या समानशील कहलाता है । २४ ।
स्वाध्याय के भेद
वाचनाप्रच्छनानुप्रेक्षाम्नायधर्मोपदेशाः । २५ ॥
वाचना, प्रच्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय और धर्मोपदेश --ये स्वाध्याय के पाँच भेद हैं ।
ज्ञान प्राप्त करने, उसे सन्देहरहित, विशद और परिपक्व बनाने एवं उसका प्रचार करने का प्रयत्न - ये सभी स्वाध्याय मे आते है, अतः उसके यहाँ पाँच भेद अभ्यासशैली के क्रमानुसार कहे गए है. १. शब्द या अर्थ का पहला पाठ लेना वाचना है । २. शंका दूर करने अथवा विशेष निर्णय के लिए पूछना प्रच्छना है । ३. शब्द, पाठ या उसके अर्थ का चिन्तन करना अनुप्रेक्षा है । ४ सीखी हुई वस्तु का शुद्धिपूर्वक पुन' - पुन उच्चारण करना आम्नाय अर्थात् पुनरावर्तन है । ५. जानी हुई वस्तु का रहस्य समझाना अथवा धर्म का कथन करना धर्मोपदेश है । २५ ।
व्युत्सर्ग के भेद
बाह्याभ्यन्तरोपध्योः । २६ ।
बाह्य और आभ्यन्तर उपधि का त्याग - ये व्युत्सर्ग के दो प्रकार हैं ।
वास्तव मे अहंता ममता की निवृत्ति के रूप में त्याग एक ही है, फिर भी त्याज्य वस्तु बाह्य और आभ्यन्तर के रूप मे दो प्रकार की होती है, इसीलिए व्युत्सर्ग या त्याग के भी दो प्रकार कहे गए है- -१. धन, धान्य, मकान, क्षेत्र आदि बाह्य पदार्थो की ममता का त्याग करना बाह्योपधि-व्युत्सर्ग है और २. शरीर की ममता का त्याग करना एवं काषायिक विकारो की तन्मयता का त्याग करना आभ्यन्तरोपधि-व्युत्सर्ग है । २६ ।
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२२२
तत्त्वार्थसुत्र
[९. २७-२८
ध्यान उत्तमसंहननस्यैकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानम् । २७ ।
आमुहूर्तात् । २८। उत्तम संहननवाले का एक विषय' में अन्तःकरण की वृत्ति का स्थापन ध्यान है।
वह मुहूर्त तक अर्थात् अन्तर्मुहूर्त पर्यंत रहता है।
यहाँ ध्यान से सम्बन्धित अधिकारी, स्वरूप और काल का परिमाण ये तीन बातें वर्णित है।
१. अधिकारी-छः प्रकार के संहननों ( शारीरिक संघटनों) मे वज्रर्षभनाराच3, अर्धवज्रर्षभनाराच और नाराच ये तीन उत्तम माने जाते है । उत्तम संहननवाला ही ध्यान का अधिकारी होता है, क्योकि ध्यान करने मे आवश्यक मानसिक बल के लिए जितना शारीरिक बल आवश्यक है वह उक्त तीन संहननवाले शरीर में सम्भव है, शेष तीन संहननवाले मे नही । मानसिक बल का एक प्रमुख आधार शरीर है और शरीरबल शारीरिक संघटन पर निर्भर करता है; अतः उत्तम संहननवाले के अतिरिक्त दूसरा कोई ध्यान का अधिकारी नही है । शारीरिक संघटन जितना कम होगा उतना ही मानसिक बल भी कम होगा और मानसिक बल जितना कम होगा उतनी ही चित्त की स्थिरता भी कम होगी। इसलिए कमजोर शारीरिक संघटन या अनुत्तम संहननवाला किसी भी प्रशस्त विषय में जितनी एकाग्रता साध सकता है वह इतनी कम होती है कि ध्यान मे उसकी गणना ही नहीं हो सकती।
१. भाष्य के अनुसार इस सत्र मे दो प्रकार के ध्यान कहे गए है--१. एकाग्रचिन्ता और २. निरोध। किन्तु ऐसा लगता है कि किसी अन्य टीकाकार की दृष्टि में यह बात नहीं आई। अतः हमने भी यहाँ पर पुराने टीकाकारों का ही अनुसरण किया है । वस्तुतः यही दो प्रकार सत्रकार द्वारा यहाँ निर्दिष्ट है। देखे-प्राकृत टेक्स्ट सोसायटी द्वारा प्रकाशित दशवैकालिक को अगस्त्यसिंहकृत चूर्णि, पृ० १६ तथा ५० दलसुख मालवणिया का लेख, गुजरात युनिवर्सिटी द्वारा प्रकाशित पत्रिका विद्या, भाग १५, अंक २, अगस्त १६७२, पृ० ६१ ।
२. दिगम्बर ग्रन्थो में तीन उत्तम संहननवाले को ही ध्यान का अधिकारी माना गया है लेकिन भाष्य और उसकी वृत्ति में प्रथम दो संहननवाले को ध्यान का अधिकारी माना गया है ।
३. इसकी जानकारी के लिए देखें-अ०८, स० १२ ।
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९.२७-२८ ] ध्यान
२२३ २ स्वरूप-सामान्यतः क्षण में एक, क्षण मे दूसरे, क्षण मे तीसरे ऐसे अनेक विषयो को अवलबन करके प्रवृत्त ज्ञानधारा भिन्न-भिन्न दिशाओ से बहती हुई हवा मे स्थित दीपशिखा की भाँति अर्थात् अस्थिर होती है । ऐसी ज्ञानधारा--- चिन्ता को विशेष प्रयत्नपूर्वक शेष विषयो से हटाकर किसी एक ही इष्ट विषय मे स्थिर रखना अर्थात् ज्ञानधारा को अनेक विषयगामिनी न बनने देकर एक विषयगामिनी बना देना ही ध्यान है । ध्यान का यह स्वरूप असर्वज्ञ ( छद्मस्थ ) मे ही सम्भव है । इसलिए ऐसा ध्यान बारहवें गुणस्थान तक होता है।
सर्वज्ञत्व प्राप्त होने के बाद अर्थात् तेरहवे और चौदहवे गुणस्थानों मे भी ध्यान स्वीकार तो अवश्य किया गया है, पर उसका स्वरूप भिन्न है। तेरहवें गुणस्थान के अन्त मे जब मानसिक, वाचिक और कायिक योग-व्यापार के निरोध का क्रम प्रारम्भ होता है तब स्थूल कायिक व्यापार के निरोध के बाद सूक्ष्म कायिक व्यापार के अस्तित्व के समय मे सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती नामक तीसरा शुक्ल ध्यान माना गया है और चौदहवें गुणस्थान की सम्पूर्ण अयोगिपन की दशा मे शैलेशीकरण के समय मे समुच्छिन्नक्रियानिवृत्ति नामक चौथा शुक्लध्यान माना गया है। ये दोनों ध्यान उक्त दशाओ मे चित्तव्यापार न होने से छद्मस्थ की भांति एकाग्रचिन्तानिरोधरूप तो है ही नहीं, अतः उक्त दशाओं मे ध्यान को घटाने के लिए सूत्रगत प्रसिद्ध अर्थ के उपरान्त 'ध्यान' शब्द का अर्थ विशेष विशद किया गया है कि केवल कायिक स्थूल व्यापार के निरोध का प्रयत्न भी ध्यान है और आत्मप्रदेशों की निष्प्रकम्पता भी ध्यान है ।
फिर भी ध्यान के विषय में एक प्रश्न रहता है कि तेरहवें गुणस्थान के प्रारम्भ से योगनिरोध का क्रम शुरू होता है, तब तक की अवस्था मे अर्थात् सर्वज्ञ हो जाने के बाद की स्थिति मे क्या कोई ध्यान होता है ? यदि होता है तो कौन-सा ? इसका उत्तर दो प्रकार से मिलता है : १. विहरमाण सर्वज्ञ की दशा मे ध्यानान्तरिका कहकर उसमे अध्यानित्व ही मानकर कोई ध्यान स्वीकार नहीं किया गया है । २. सर्वज्ञदशा मे मन, वचन और शरीर के व्यापारसम्बन्धी सुदृढ प्रयत्न को ही ध्यान के रूप मे मान लिया गया है।
३. काल का परिमारण-उपर्युक्त एक ध्यान अधिक-से-अधिक अन्तर्मुहूर्त तक ही टिकता है, बाद में उसे टिकाना कठिन है, अतः उसका कालपरिमाण अन्तर्मुहूर्त है।
कई लोग श्वास-उच्छ्वास रोक रखने को ही ध्यान मानते हैं तथा अन्य
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२२४
तत्त्वार्थसूत्र
[९. २९-३० कुछ लोग मात्रा से काल की गणना करने को ही ध्यान मानते है । परन्तु जैनपरम्परा मे यह कथन स्वीकार नहीं किया गया है, क्योकि यदि सम्पूर्णतया श्वासउच्छवास क्रिया रोक दी जाय तो शरीर ही नहीं टिकेगा। इसलिए मन्द या मन्दतम श्वास का सचार तो ध्यानावस्था मे रहता ही है । इसी प्रकार जब कोई मात्रा से काल को गिनेगा तब तो गिनती के काम मे अनेक क्रियाएँ करने मे लग जाने से उसके मन को एकान के स्थान पर व्यग्र ही मानना पडेगा । यही कारण है कि दिवस, मास और उससे अधिक समय तक ध्यान के टिकने को लोकमान्यता भी जैनपरम्परा को ग्राह्य नही है। इसका कारण यह है कि लम्बे समय तक ध्यान साधने से इन्द्रियों का उपघात सम्भव है, अत. ध्यान को अन्तर्मुहर्त से अधिक काल तक बढाना कठिन है । 'एक दिवस, एक अहोरात्र अथवा उससे अधिक समय तक ध्यान किया' -इस कथन का अभिप्राय इतना ही है कि उतने समय तक ध्यान का प्रवाह चलता रहा । किसी भी एक आलंबन का एक बार ध्यान करके पुनः उसी आलम्बन का कुछ रूपान्तर से या दूसरे ही आलम्बन का ध्यान किया जाता है और पुनः इसी प्रकार आगे भी ध्यान किया जाता है तो वह ध्यानप्रवाह बढ जाता है । यह अन्तर्मुहूर्त का कालपरिमाण छद्मस्थ के ध्यान का है । सर्वज्ञ के ध्यान का कालपरिमाण तो अधिक भी हो सकता है, क्योंकि सर्वज्ञ मन, वचन और शरीर के प्रवृत्तिविषयक सुदृढ प्रयत्न को अधिक समय तक भी बढा सकता है।
जिस आलम्बन पर ध्यान चलता है वह आलम्बन सम्पूर्ण द्रव्यरूप न होकर उसका एकदेश ( एक पर्याय ) होता है, क्योकि द्रव्य का चिन्तन उसके किसी-नकिसी पर्याय द्वारा ही सम्भव होता है । २७-२८ ।
ध्यान के भेद और उनका फल आतरौद्रधर्मशुक्लानि । २९ ।
परे मोक्षहेतू । ३० । आर्त, रौद्र, धर्म और शुक्ल-ये ध्यान के चार प्रकार हैं। अन्त के दो ध्यान मोक्ष के कारण है।
उक्त चार मे से आर्त और रौद्र ये दो ध्यान संसार के कारण होने से दुनि है और हेय (त्याज्य ) है । धर्म और शुक्ल ये दो ध्यान मोक्ष के कारण होने से ध्यान है और उपादेय ( ग्राह्य ) है । २९-३० ।
१. 'अ, ३' आदि एक-एक ह्रस्व स्वर के उच्चारण में जितना समय लगता है उसे एक मात्रा कहते है । स्वरहीन व्यञ्जन के उच्चारण मे अर्धमात्रा जितना समय लगता है। मात्रा या अर्थमात्रा परिमित समय को जानने का अभ्यास करके उसी के अनुसार अन्य क्रियाओं के समय की गणना करना कि अमुक काम मे इतनो मात्राएँ हुई...मात्रा द्वारा काल की गणना कहलाती है।
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९. ३१-३५ ]
आर्तध्यान
चारों ध्यानों के भेद और अधिकारी
आर्तध्यान
आर्तममनोज्ञानां सम्प्रयोगे तद्विप्रयोगाय स्मृतिसम
न्वाहारः । ३१ ।
वेदनायाश्च । ३२ ॥
विपरीतं मनोज्ञानाम् । ३३ ।
निदानं च । ३४ ।
तदविरतदेशविरतप्रमत्तसंयतानाम् । ३५ ।
अप्रिय वस्तु के प्राप्त होने पर उसके वियोग के लिए सतत चिन्ता करना पहला आर्तध्यान है ।
२२५
दुःख आ पड़ने पर उसके निवारण की सतत चिन्ता करना दूसरा आर्तध्यान है ।
प्रिय वस्तु का वियोग होने पर उसकी प्राप्ति के लिए सतत चिन्ता करना तीसरा आर्तध्यान है ।
अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति के लिए संकल्प करना या सतत चिन्ता करना चौथा आर्तध्यान है ।
वह ( आर्तध्यान ) अविरत, देशविरत और प्रमत्तसंयत -- इन गुणस्थानों में ही सम्भव है ।
गया है ।
दुख की
यहाँ आर्तध्यान के भेद और उसके अधिकारी का निरूपण किया अर्ति का अर्थ है पीड़ा या दुःख, उसमे से जो उत्पन्न हो वह आर्त । उत्पत्ति के मुख्य कारण चार है - १. अनिष्ट वस्तु का संयोग, २ . इष्ट वस्तु का वियोग, ३. प्रतिकूल वेदना और ४. भोग की लालसा । इन्हीं के आधार पर आर्तध्यान के चार प्रकार कहे गये है । १. अनिष्ट वस्तु का संयोग होने पर तद्भव दुःख से व्याकुल आत्मा उसे दूर करने के लिए जो सतत चिन्ता करता रहता है वही अनिष्टसंयोग - आर्तध्यान है । २. इसी प्रकार किसी इष्ट वस्तु का वियोग हो जाने पर उसकी प्राप्ति के लिए सतत चिन्ता करना इष्टवियोग-आर्तध्यान है । ३. शारीरिक या मानसिक पीडा होने पर उसके निवारण की व्याकुलतापूर्वक चिन्ता करना रोगचिन्ता - आर्तध्यान है । ४. भोगों की लालसा की उत्कटता के कारण अप्राप्त वस्तु को प्राप्त करने का तीव्र संकल्प निदानआर्तध्यान है ।
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तत्त्वार्थ सूत्र
[ ९. ३६-३८
प्रथम के चार तथा देशविरत व प्रमत्तसंयत इन छः गुणस्थानों में उक्त आर्तध्यान सम्भव है | इनमे भी प्रमत्तसंयत गुणस्थान मे निदान को छोड़कर तीन ही आर्तध्यान सम्भव है । ३१-३५ ।
२२६
रौद्रध्यान
हिंसाऽनृतस्तेयविषय संरक्षणेभ्यो रौद्रमविरतदेशविरतयोः । ३६ ।
हिंसा, असत्य, चोरी और विषयरक्षण के लिए सतत चिन्ता करना रोद्रध्यान है, जो अविरत और देशविरत में सम्भव है ।
प्रस्तुत सूत्र मे रौद्रध्यान के भेद और उसके अधिकारियों का वर्णन है । रौद्रध्यान के चार भेद उसके कारणों के आधार पर आर्तध्यान की भाँति ही बतलाए गए है । जिसका चित्त क्रूर व कठोर होता है वह रुद्र कहलाता है और ऐसी आत्मा द्वारा किया जानेवाला ध्यान रौद्र है । हिसा करने, झूठ बोलने, चोरी करने और प्राप्त विषयों के संरक्षण की वृत्ति से क्रूरता व कठोरता उत्पन्न होती है । इन्ही के कारण जो सतत चिन्ता होती है वह क्रमशः हिसानुबन्धी, अनृतानुबन्धी, स्तेयानुबन्धी और विषयसंरक्षणानुबन्धी रौद्रध्यान है । इस ध्यान के स्वामी या अधिकारी पहले पाँच गुणस्थानवाले होते है । ३६ ।
धर्मध्यान
आज्ञाऽपायविपाकसंस्थानविचयाय धर्ममप्रमत्तसंयतस्य । ३७ । उपशान्तक्षीणकषाययोश्च । ३८ ।
आज्ञा, अपाय, विपाक और संस्थान की विचारणा के लिए मनोवृत्ति को एकाग्र करना धर्मध्यान है, जो अप्रमत्तसयत में सम्भव है ।
वह धर्मध्यान उपशान्तमोह और क्षीणमोह गुणस्थानों में भी सम्भव है ।
यहाँ धर्मध्यान के भेद और उसके अधिकारियों का निर्देश है ।
योग – १. वीतराग तथा सर्वज्ञ पुरुष की आज्ञा क्या है और वह कैसी होनी चाहिए ? इसकी परीक्षा करके वैसी आज्ञा का पता लगाने के लिए मनोयोग लगाना आज्ञाविचय- धर्मध्यान है । २. दोषो के स्वरूप और उनसे छुटकारा पाने के विचारार्थ मनोयोग लगाना अपायविचय - धर्मध्यान है । ३. अनुभव मे आनेवाले विपाकों में से कौन-कौन-सा विपाक किस-किस कर्म का आभारी है तथा अमुक कर्म का अमुक विपाक सम्भव है इसके विचारार्थ मनोयोग लगाना विपाकविचय
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९ ३९-४६ ] शुक्लध्यान
२२७ धर्मध्यान है। ४. लोकस्वरूप का विचार करने में मनोयोग लगाना संस्थानविचय-धर्मध्यान है।
स्वामी-धर्मध्यान के स्वामियों (अधिकारियों) के विषय में श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्पराओ मे मतैक्य नही है। श्वेताम्बर मान्यता के अनुसार उक्त दो सूत्रों में निर्दिष्ट सातवें, ग्यारहवे और बारहवें गुणस्थानों में तथा इस कथन से सचित आठवें आदि बीच के तीन गुणस्थानो मे अर्थात् सातवें से बारहवे तक के छहों गुणस्थानो मे धर्मध्यान सम्भव है। दिगम्बर परम्परा मे चौथे से सातवें तक के चार गुणस्यानो में ही धर्मध्यान की सम्भावना मान्य है। उसका तर्क यह है कि श्रेणी के आरम्भ के पूर्व तक ही सम्यग्दृष्टि मे धर्मध्यान सम्भव है
और श्रेणी का आरम्भ आठवे गुणस्थान से होने के कारण आठवे आदि मे यह ध्यान किसी भी प्रकार सम्भव नहीं है । ३७-३८ ।
शुक्लध्यान शुक्ले चाद्ये पूर्वविदः' । ३९ । परे केवलिनः । ४०। पृथक्त्वैकत्ववितर्कसूक्ष्मक्रियाप्रतिपातिव्युपरतक्रियानिवृत्तीनि । ४१ । तत्र्येककाययोगायोगानाम् । ४२ । एकाश्रये सवितर्के पूर्वे । ४३ । अविचारं द्वितीयम् । ४४॥ वितर्क. श्रुतम् । ४५। विचारोऽर्थव्यञ्जनयोगसङ्क्रान्तिः । ४६ ।
उपशान्तमोह और क्षीणमोह में पहले के दो शुक्लध्यान सम्भव है । ये दो शुक्लध्यान पूर्वधर को होते है । ___ बाद के दो केवली को होते हैं ।
१. 'पूर्वविदः' अंश प्रस्तुत सत्र का ही है और इतना सूत्र अलग नहीं है, यह भाष्य के टीकाकार का कथन है । दिगंबर परंपरा में भी इस अंश को सत्र के रूप में अलग स्थान नहीं दिया गया है। अतः यहाँ भी वैसे ही रखा गया है। फिर भी भाष्य से स्पष्ट ज्ञात होता है कि 'पूर्वविदः' स्वतंत्र सूत्र है ।
२. प्रस्तुत सूत्र में अधिकतर 'अवीचार' रूप ही देखने में आता है, फिर भी यहाँ सूत्र व विवेचन में हस्व 'वि' के प्रयोग द्वारा एकता रखी गई है।
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२२८
तत्त्वार्थसूत्र
[ ९. ३९-४६ पृथक्त्ववितर्क, एकत्ववितर्क, सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती और व्युपरतक्रियानिवृत्ति--ये चार शुक्लध्यान है।
वह ( शुक्लध्यान ) अनुक्रम से तीन योमवाले, किसी एक योगवाले, काययोगवाले और योगरहित को होता है।
पहले के दो एकाश्रित एवं सवितर्क होते हैं । इनमें से पहला सविचार है, दूसरा अविचार है ! वितर्क अर्थात् श्रुत। विचार अर्थात् अर्थ, व्यञ्जन एव योग को संक्रान्ति ।
यहाँ शुक्लध्यान से सम्बन्धित स्वामी, भेद और स्वरूप ये तीन बातें वर्णित है।
स्वामी स्वामी-विषयक कथन यहाँ दो प्रकार से किया गया है-पहला गुणस्थान की दृष्टि से और दूसरा योग की दृष्टि से ।
गुणस्थान की दृष्टि से शुक्लध्यान के चार भेदों में से पहले दो भेदों के स्वामी ग्यारहवें और बारहवे गुणस्थानवाले ही होते है जो कि पूर्वधर भी हों। 'पूर्वधर' विशेषण से सामान्यतः यह अभिप्राय है कि जो पूर्वधर न हो पर ग्यारह आदि अङ्गों का धारक हो उसके ग्यारहवे-बारहवे गुणस्थान में शुक्लध्यान न होकर धर्मध्यान ही होगा। इस सामान्य विधान का एक अपवाद यह है कि जो पूर्वधर न हों उन माषतुष, मरुदेवी आदि जैसी आत्माओं मे भी शुक्लध्यान सम्भव है। शुक्लध्यान के शेष दो भेदों के स्वामी केवली अर्थात् तेरहवें और चौदहवें गुणस्थानवाले ही है।
योग की दृष्टि से तीन योगवाला ही चार मे से पहले शुक्लध्यान का स्वामी होता है । मन, वचन और काय मे से किसी भी एक योगवाला शुक्लध्यान के दूसरे भेद का स्वामी होता है। इस ध्यान के तीसरे भेद का स्वामी केवल काययोगवाला और चौथे भेद का स्वामी एकमात्र अयोगी होता है।
भेद-शुक्लध्यान के भी अन्य ध्यानों की भांति चार भेद है, जो इसके चार पाये भी कहलाते है। उनके नाम इस प्रकार हैं-१ पृथक्त्ववितर्कसविचार, २ एकत्ववितर्क-निविचार, ३. सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती, ४. व्युपरतक्रियानिवृत्ति ( समुच्छिन्नक्रियानिवृत्ति )।
पहले दो शुक्लध्यानों का आश्रय एक है अर्थात् उन दोनों का आरम्भ पूर्वज्ञानधारी आत्मा द्वारा होता है। इसीलिए ये दोनों ध्यान वितर्क-श्रुतज्ञान
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९. ३९-४६ ] शुक्लध्यान
२२९ सहित है। दोनों मे वितर्क का साम्य होने पर भी यह वैषम्य है कि पहले में पृथक्त्व ( भेद ) है, जब कि दूसरे मे एकत्व ( अभेद ) है। इसी प्रकार पहले में विचार ( सक्रम ) है, जब कि दूसरे मे विचार नही है। इसी कारण इन दोनों ध्यानो के नाम क्रमशः पृथक्त्ववितर्क-सविचार और एकत्ववितर्क-निर्विचार है ।
पृथक्त्ववितर्क-सविचार -जब ध्यान करनेवाला पूर्वधर हो तब वह पूर्वगत श्रुत के आधार पर और जब पूर्वधर न हो तब अपने मे सम्भावित श्रुत के आधार पर किसी भी परमाणु आदि जड में या आत्मरूप चेतन मे-एक द्रव्य मे उत्पत्ति, स्थिति, नाश, मूर्तत्व, अमूर्तत्व आदि अनेक पर्यायो का द्रव्यास्तिक, पर्यायास्तिक आदि विविध नयो के द्वारा भेदप्रधान चिन्तन करता है और यथासम्भव श्रुतज्ञान के आधार पर किसी एक द्रव्यरूप अर्थ पर से दूसरे द्रव्यरूप अर्थ पर या एक द्रव्यरूप अर्थ पर से पर्यायरूप अन्य अर्थ पर अथवा एक पर्यायरूप अर्थ पर से अन्य पर्यायरूप अर्थ पर या एक पर्यायरूप अर्थ पर से अन्य द्रव्यरूप अर्थ पर चिन्तन के लिए प्रवृत्त होता है। इसी प्रकार अर्थ पर से शब्द पर और शब्द पर से अर्थ पर चिन्तन के लिए प्रवृत्त होता है तथा मन आदि किसी भी एक योग को छोड़कर अन्य योग का अवलम्बन लेता है, तब वह ध्यान पृथक्त्ववितर्क-सविचार कहलाता है। कारण यह है कि इसमे वितर्क (श्रुतज्ञान ) का अवलम्बन लेकर किसी भी एक द्रव्य मे उसके पर्यायो के भेद ( पृथक्त्व ) का विविध दृष्टियो से चिन्तन किया जाता है और श्रुतज्ञान को अवलम्बित करके एक अर्थ पर से दूसरे अर्थ पर, एक शब्द पर से दूसरे शब्द पर, अर्थ पर से शब्द पर, शब्द पर से अर्थ पर तथा एक योग से दूसरे योग पर संक्रम ( संचार) करना पडता है।
एकक्त्ववितर्क-निविचार-उक्त कथन के विपरीत जब ध्यान करनेवाला अपने मे सम्भाव्य श्रुत के आधार पर किसी एक ही पर्यायरूप अर्थ को लेकर उस पर एकत्व ( अभेदप्रधान ) चिन्तन करता है और मन आदि तीन योगो मे से किसी एक ही योग पर अटल रहकर शब्द और अर्थ के चिन्तन एवं भिन्नभिन्न योगो मे संचार का परिवर्तन नहीं करता, तब वह ध्यान एकत्ववितर्कनिर्विचार कहलाता है, क्योकि इसमे वितर्क ( श्रुतज्ञान ) का अवलम्बन होने पर भी एकत्व ( अभेद ) का चिन्तन प्रधान रहता है और अर्थ, शब्द अथवा योगो का परिवर्तन नही होता।
उक्त दोनों में से पहले भेदप्रधान का अभ्यास दृढ हो जाने के बाद ही दूसरे अभेदप्रधान ध्यान की योग्यता प्राप्त होती है । जैसे समग्र शरीर में व्याप्त सर्पादि के जहर को मन्त्र आदि उपचारो से डंक की जगह लाकर स्थापित किया जाता है
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२३० तत्त्वार्थसूत्र
[ ९. ४७ वैसे ही सम्पूर्ण जगत् मे भिन्न-भिन्न विषयों मे अस्थिर रूप मे भटकते हुए मन को ध्यान के द्वारा किसी भी एक विषय पर केन्द्रित करके स्थिर किया जाता है। स्थिरता दृढ हो जाने पर जैसे बहुत-सा ईधन निकाल लेने और बचे हुए थोड़े से इंधन को सुलगा देने से अथवा पूरे ईंधन को हटा देने से आग बुझ जाती है वैसे ही उपर्युक्त क्रम से एक विषय पर स्थिरता प्राप्त होते हो मन भी सर्वथा शान्त हो जाता है अर्थात् चंचलता मिट जाने से निष्प्रकम्प बन जाता है। परिणामतः ज्ञान के सकल आवरणों का विलय हो जाने पर सर्वज्ञता प्रकट होती है ।
सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती-जब सर्वज्ञ भगवान् योगनिरोध के क्रम मे' अन्ततः सूक्ष्मशरीर योग का आश्रय लेकर शेष योगों को रोक देते है तब वह सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती ध्यान कहलाता है, क्योंकि उसमे श्वास-उच्छ्वास के समान सूक्ष्मक्रिया ही शेष रह जाती है और उससे पतन भी सम्भव नही है । ___ समुच्छिन्नक्रियानिवृत्ति-जब शरीर की श्वास-प्रश्वास आदि सूक्ष्म क्रियाएँ भी बन्द हो जाती है और आत्मप्रदेश सर्वथा निष्प्रकम्प हो जाते है तब वह समुच्छिन्नक्रियानिवृत्ति ध्यान कहलाता है, क्योकि इसमे स्थूल या सूक्ष्म किसी भी प्रकार की मानसिक, वाचिक, कायिक क्रिया नही होती और वह स्थिति बाद में नष्ट भी नही होती । इस चतुर्थ ध्यान के प्रभाव से समस्त आस्रव और बन्ध के निरोधपूर्वक शेष कर्मो के क्षीण हो जाने से मोक्ष प्राप्त होता है। तीसरे और चौथे शुक्लध्यान मे किसी भी प्रकार के श्रुतज्ञान का आलंबन नही होता, अत. वे दोनो अनालंबन भी कहलाते है । ३९-४६ ।
सम्यग्दृष्टियों की कर्मनिर्जरा का तरतमभाव सम्यग्दृष्टिश्रावकविरतानन्तवियोजकदर्शनमोहक्षपकोपशमकोपशान्तमोहक्षपकक्षीणमोहजिनाः क्रमशोऽसङ्ख्येयगुणनिर्जराः । ४७ ।
सम्यग्दृष्टि, श्रावक, विरत, अनन्तानुबन्धिवियोजक, दर्शनमोहक्षपक, उपशमक, उपशान्तमोह, क्षपक, क्षीणमोह और जिन--ये दस क्रमशः असंख्ययगुण निर्जरावाले होते है ।
१. यह क्रम यों है-स्थूल काययोग के आश्रय से वचन और मन के स्थूल योग को सक्ष्म बनाया जाता है, उसके बाद वचन और मन के सूक्ष्म योग को अवलम्बित करके शरीर के स्थूल योग को सूक्ष्म बनाया जाता है। फिर शरीर के सक्ष्म योग को अवलम्बित करके वचन और मन के सक्ष्म योग का निरोध किया जाता है और अन्त में सक्ष्मशरीरयोग का भी निरोध किया जाता है ।
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९. ४८ ]
निर्ग्रन्थ के भेद
२३१
सर्व कर्मबन्धनों का सर्वथा क्षय ही मोक्ष है और कर्मों का अंशतः क्षय निर्जरा है । दोनों के लक्षणों पर विचार करने से स्पष्ट है कि निर्जरा मोक्ष का पूर्वगामी अंग है । प्रस्तुत शास्त्र में मोक्षतत्त्व का प्रतिपादन मुख्य है, अतः उसकी नितान्त अंगभूत निर्जरा का विचार करना भी यहाँ उपयुक्त है । इसलिए यद्यपि सकल संसारी आत्माओ मे कर्मनिर्जरा का क्रम जारी रहता है तथापि यहाँ विशिष्ट आत्माओं को ही कर्मनिर्जरा के क्रम का विचार किया गया है । वे विशिष्ट अर्थात् मोक्षाभिमुख आत्माएं है । यथार्थ मोक्षाभिमुखता सम्यग्दृष्टि की प्राप्ति से ही प्रारम्भ हो जाती है और वह जिन ( सर्वज्ञ ) अवस्था मे पूरी होती है । स्थूलदृष्टि की प्राप्ति से लेकर सर्वज्ञदशा तक मोक्षाभिमुखता के दस विभाग किए गए है, जिनमें पूर्व-पूर्व की अपेक्षा उत्तर - उत्तर विभाग में परिणाम की विशुद्धि सविशेष होती है । परिणाम की विशुद्धि जितनी अधिक होगी, कर्मनिर्जरा भी उतनी ही विशेष होगी । अतः प्रथम- प्रथम अवस्था मे जितनी कर्मनिर्जरा होती है उसकी अपेक्षा आगे-आगे की अवस्था मे परिणामविशुद्धि की विशेषता के कारण कर्मनिर्जरा भी असंख्यातगुनी बढती जाती है । इस प्रकार बढ़ते-बढ़ते अन्त मे सर्वज्ञ - अवस्था में निर्जरा का प्रमाण सबसे अधिक हो जाता है । कर्मनिर्जरा के इस तरतमभाव मे सबसे कम निर्जरा सम्यग्दृष्टि की और सबसे अधिक निर्जरा सर्वज्ञ को होती है । इन दस अवस्थाओं का स्वरूप इस प्रकार है :
१. सम्यग्दृष्टि - जिस अवस्था मे मिथ्यात्व दूर होकर सम्यक्त्व का आविर्भाव होता है । २. श्रावक --- जिसमे अप्रत्याख्यानावरण कषाय के क्षयोपशम से अल्पांश में विरति ( त्याग ) प्रकट होती है । ३ विरत - जिसमें प्रत्याख्यानावरण कषाय के क्षयोपशम से सर्वाश मे विरति प्रकट होती है । ४. अनन्तवियोजक -- जिसमे अनन्तानुबन्धी कषाय का क्षय करने योग्य विशुद्धि प्रकट होती है । ५. दर्शनमोहक्षपक -- जिसमे दर्शनमोह का क्षय करने योग्य विशुद्धि प्रकट होती है । ६. उपशमक - जिस अवस्था में मोह की शेष प्रकृतियो का उपशम जारी हो । ७. उपशान्तमोह - जिसमे उपशम पूर्ण हो चुका हो । ८. क्षपक – जिसमे मोह की शेष प्रकृतियो का क्षय जारी हो । ९. क्षीणमोह - जिसमें मोह का क्षय पूर्ण सिद्ध हो चुका हो । १०. जिन - जिसमे सर्वज्ञता प्रकट हो गई हो । ४७ ।
निर्ग्रन्थ के भेद
पुलाकबकुशकुशीलनिर्ग्रन्थस्नातका निर्ग्रन्थाः । ४८ ।
पुलाक, बकुश, कुशील, निर्ग्रन्थ और स्नातक - ये निर्ग्रन्थ के पाँच प्रकार हैं ।
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२३२ तत्त्वार्थसूत्र
[ ९. ४९ निर्ग्रन्थ शब्द का तात्त्विक (निश्चयनयसिद्ध ) अर्थ भिन्न है और व्यावहारिक (साम्प्रदायिक ) अर्थ भिन्न है। दोनों अर्थो के एकीकरण को ही यहां निर्ग्रन्थसामान्य मानकर उसी के पाँच भेद कहे गए है। निर्ग्रन्थ वह है जिसमे रागद्वष की गाँठ बिलकुल न रहे । निर्ग्रन्थ शब्द का यही तात्त्विक अर्थ है । अपूर्ण होने पर भी तात्त्विक निर्ग्रन्थता का अभिलाषी हो-भविष्य मे यह स्थिति प्राप्त करना चाहता हो-वह व्यावहारिक निर्ग्रन्थ है । पाँच भेदों मे से प्रथम तीन व्यावहारिक है और शेष दो तात्त्विक । इन पाँच भेदों का स्वरूप इस प्रकार है :
१. पुलाक-मूलगुण तथा उत्तरगुण मे परिपूर्णता प्राप्त न करते हुए भी वीतराग-प्रणीत आगम से कभी विचलित न होनेवाला निर्ग्रन्थ । २. बकुशशरीर और उपकरण के संस्कारों का अनुसरण करनेवाला, सिद्धि तथा कीति का अभिलाषी, सुखशील, अविविक्त ( ससंग), परिवारवाला तथा छेद (चारित्र ) पर्याय की हानि तथा शबल अतिचार दोषों से युक्त निर्ग्रन्थ । ३. कुशील-इसके दो प्रकार है। इन्द्रियों का वशवर्ती होने से उत्तरगुणों की विराधनामूलक प्रवृत्ति करनेवाला प्रतिसेवना-कुशील है और कभी भी तीव्र कषाय के वश न होकर कदाचित् मन्द कषाय के वशीभूत हो जानेवाला कषाय-कुशील है। ४. निर्ग्रन्थ-सर्वज्ञता न होने पर भी जिसमे रागद्वेष का अत्यन्त अभाव हो और अन्तर्मुहूर्त के बाद ही सर्वज्ञता प्रकट होनेवाली हो । ५. स्नातक--जिसमे सर्वज्ञता प्रकट हो गई हो । ४८ ।
निर्ग्रन्थों की विशेषता-द्योतक आठ बातें संयमश्रुतप्रतिसेवनातीर्थलिङ्गलेश्योपपातस्थानविकल्पतःसाध्याः। ४९ ।
संयम, श्रुत, प्रतिसेवना, तीर्थ, लिङ्ग, लेश्या, उपपात और स्थान के भेद से इन निर्ग्रन्थों की विशेषताएँ सिद्ध होती हैं।
ऊपर जिन पाँच प्रकार के निर्ग्रन्थों का वर्णन हुआ है उनका विशेष स्वरूप जानने के लिए यहाँ यह विचार किया गया है कि संयम आदि आठ बातों का प्रत्येक निर्ग्रन्थ से कितना सम्बन्ध है।
१. संयम-सामायिक आदि पाँच संयमों मे से सामायिक और छेदोपस्थापनीय इन दो संयमों में पुलाक, बकुश और प्रतिसेवनाकुशील ये तीन निर्ग्रन्थ होते है; कषायकुशील उक्त दो एवं परिहारविशुद्धि व सूक्ष्मसम्पराय इन चार संयमो में होता है । निर्ग्रन्थ और स्नातक एकमात्र यथाख्यातसंयमवाले होते है ।
२. श्रुत-पुलाक, बकुश और प्रतिसेवनाकुशील इन तीनों का उत्कृष्ट श्रुत पूर्ण दशपूर्व और कषायकुशील एवं निर्ग्रन्थ का उत्कृष्ट श्रुत चतुर्दश पूर्व होता है;
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९. ४९ ] निर्ग्रन्थों की विशेषता-द्योतक आठ बाते
२३३ जघन्य श्रुत पुलाक का आचारवस्तु' होता है; बकुश, कुशील एवं निग्रन्थ का अष्ट प्रवचनमाता ( पाँच समिति और तीन गुप्ति ) प्रमाण होता है । स्नातक सर्वज्ञ होने से श्रुत से परे ही होता है ।
३. प्रतिसेवना (विराधना )--पुलाक पाँच महाव्रत और रात्रिभोजनविरमण इन छहों में से किसी भी व्रत का दूसरे के दबाव या बलात्कार के कारण खंडन करता है। कुछ आचार्यो के मत से पुलाक चतुर्थ व्रत का विराधक होता है । बकुश दो प्रकार के होते है-उपकरणबकुश और शरीरबकुश। उपकरण मे आसक्त बकुश नाना प्रकार के मूल्यवान् और अनेक विशेषताओं से युक्त उपकरण चाहता है, संग्रह करता है और नित्य उनका संस्कार करता है। शरीर में आसक्त बकुश शरीर-शोभा के लिए शरीर का संस्कार करता रहता है । प्रतिसेवनाकुशील मूलगुणों की विराधना तो नहीं करता पर उत्तरगुणों की कुछ विराधना करता है। कषायकुशील, निर्ग्रन्थ और स्नातक के द्वारा विराधना होती ही नही ।
४. तीर्थ ( शासन )-पांचों प्रकार के निर्ग्रन्थ तीर्थंकरों के शासन मे होते है । कुछ आचार्यों का मत है कि पुलाक, बकुश और प्रतिसेवनाकुशील ये तीन तीर्थ मे नित्य होते है और शेष कषायकुशील आदि तीर्थ में भी होते है और अतीर्थ में भी होते है।
५. लिङ्ग-लिङ्ग (चिह्न) दो प्रकार का होता है-द्रव्य और भाव । चारित्रगुण भावलिङ्ग है और विशिष्ट वेश आदि बाह्य स्वरूप द्रव्यलिङ्ग है । पाँचों प्रकार के निर्ग्रन्थों मे भावलिङ्ग अवश्य होता है, परन्तु द्रव्यलिङ्ग सबमे होता भी है और नही भी होता।
६. लेश्या-पुलाक में तेज, पद्म और शुक्ल ये अंतिम तीन लेश्याएँ होती है। बकुश और प्रतिसेवनाकुशील में छहों लेश्याएँ होती है। कषायकुशील यदि परिहारविशुद्धि चारित्रवाला हो तब तो तेज आदि तीन लेश्याएँ होती है और यदि सूक्ष्मसम्पराय चारित्रवाला हो तब एक शुक्ल लेश्या ही होती है । निर्ग्रन्थ और स्नातक मे शुक्ल लेश्या ही होती है । अयोगी स्नातक अलेश्य ही होता है ।
७. उपपात (उत्पत्तिस्थान )-पुलाक आदि चार निर्ग्रन्थो का जघन्य उपपात सौधर्म कल्प में पल्योपमपृथवत्व3 स्थितिवाले देवों मे होता है, पुलाक का उत्कृष्ट उपपात सहस्रार कल्प मे बीस सागरोपम की स्थिति मे होता है। बकुश और प्रतिसेवनाकुशील का उत्कृष्ट उपपात आरण और अच्युत कल्प में बाईस
१. इस नाम का नवें पूर्व का तीसरा प्रकरण । २. दिगम्बर ग्रन्थों में चार लेश्याओं का कथन है । ३. दिगम्बर ग्रन्थो में दो सागरोपम की स्थिति का उल्लेख है।
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२३४
तत्त्वार्थ सूत्र
[ ९.४९
सागरोपम की स्थिति में होता है । कषायकुशील और निर्ग्रन्थ का उत्कृष्ट उपपात सर्वार्थसिद्ध विमान में तैंतीस सागरोपम की स्थिति में होता है । स्नातक का निर्वाण ही होता है ।
८. स्थान ( संयम के स्थान - प्रकार )- - कषाय तथा योग का निग्रह ही संयम है । संयम सभी का सर्वदा समान नही होता, कषाय और योग के निग्रह के तारतम्य के अनुसार ही संयम में भी तरतमता होती है । जो निग्रह कम-से-कम संयमकोटि में गिना जाता है वहाँ से संपूर्ण निग्रहरूप संयम तक निग्रह की तीव्रतामन्दता को विविधता के कारण संयम के असंख्यात प्रकार है । वे सभी प्रकार ( भेद ) संयमस्थान कहलाते है । इनमे जहाँ तक कषाय का लेशमात्र भी सम्बन्ध हो वहाँ तक के संयमस्थान वषायनिमित्तक और उसके बाद के योगनिमित्तक है । योग का सर्वथा निरोध हो जाने पर प्राप्त स्थिति अन्तिम सयमस्थान है । जैसेजैसे पूर्व - पूर्ववर्ती संयमस्थान होगा वैसे-वैसे काषायिक परिणति विशेष होगी और जैसे-जैसे ऊँचा सयमस्थान होगा वैसे-वैसे काषायिक भाव भी कम होगा, इसीलिए ऊपर-ऊपर के संयमस्थानो को अधिक-से-अधिक विशुद्धिवाले स्थान जानना चाहिए । योगनिमित्तक संयमस्थानों में निष्कषायत्वरूप विशुद्धि समान होने पर भी जैसेजैसे योगनिरोध न्यूनाधिक होता है वैसे-वैसे स्थिरता भी न्यूनाधिक होती है, योगनिरोध की विविधता के कारण स्थिरता भी विविध प्रकार की होती है अर्थात् केवल योगनिमित्तक संयमस्थान भी असंख्यात प्रकार के होते है । अन्तिम संयमस्थान तो एक ही हो सकता है जिसमे परम प्रकृष्ट विशुद्धि और परम प्रकृष्ट स्थिरता होती है ।
उक्त प्रकार के संयमस्थानो मे से सबसे जघन्य स्थान पुलाक और कषायकुशील के हैं । ये दोनों असंख्यात संयमस्थानों तक साथ ही बढते जाते है । उसके बाद पुलाक रुक जाता है, परन्तु कषायकुशील अकेला ही बाद में भी असंख्यात स्थानों तक चढता जाता है । तत्पश्चात् असंख्यात संयमस्थानों तक कषायकुशील, प्रतिसेवनाकुशील और बकुश एक साथ बढते जाते है । उसके बाद बकुश रुक जाता है, प्रतिसेवनाकुशील भी उसके असंख्यात स्थानो तक चढकर रुक जाता है । तत्पश्चात् असंख्यात स्थानो तक चढकर कषायकुशील रुक जाता है । तदनन्तर अकषाय अर्थात् केवल योगनिमित्तक संयमस्थान आते है, जिन्हे निर्ग्रन्थ प्राप्त करता है और वह भी उसी प्रकार असंख्यात स्थानो तक जाकर रुक जाता है । सबके बाद एक मात्र अन्तिम, सर्वोपरि, विशुद्ध और स्थिर संयम आता है, जिसका सेवन करके स्नातक निर्वाण प्राप्त करता है । उक्त स्थान असंख्यात होने पर भी उनमें से प्रत्येक में पूर्व की अपेक्षा उत्तरस्थान की शुद्धि अनन्तानन्तगुनी मानी गई है । ४९ ।
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: १० :
मोक्ष
नवें अध्याय मे संवर और निर्जरा का निरूपण किया गया। अब इस दसर्वे और अन्तिम अध्याय मे मोक्षतत्त्व का निरूपण किया जा रहा है ।
कैवल्य की उत्पत्ति के हेतु मोहक्षयाज्ज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षयाच्च केवलम् । १। मोह के क्षय से और ज्ञानावरण, दर्शनावरण तथा अन्तराय के क्षय से केवलज्ञान प्रकट होता है ।
मोक्ष प्राप्त होने से पहले केवल-उपयोग ( सर्वज्ञत्व, सर्वदर्शित्व) की उत्पत्ति जैनशासन मे अनिवार्य मानी गई है। इसीलिए मोक्ष के स्वरूप का वर्णन करते समय केवल-उपयोग किन कारणों से होता है, यह पहले ही बतला दिया गया है । प्रतिबन्धक कर्म का नाश हो जाने से सहज चेतना निरावरण हो जाती है और इससे केवल-उपयोग का आविर्भाव होता है । चार प्रतिबन्धक कर्मो मे से पहले मोह ही क्षीण होता है और फिर अन्तर्मुहूर्त के बाद ही ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय इन तीन कर्मों का भी क्षय हो जाता है। मोह सबसे अधिक बलवान् है, अतः उसके नाश के बाद ही अन्य कर्मो का नाश सम्भव है। केवलउपयोग अर्थात् सामान्य और विशेष दोनों प्रकार का सम्पूर्ण बोध । यही स्थिति सर्वज्ञत्व और सर्वदर्शित्व की है । १ । कर्म के आत्यन्तिक क्षय के कारण और मोक्ष का स्वरूप
बन्धहेत्वभावनिर्जराभ्याम् । २।
कृत्स्नकर्मक्षयो मोक्षः । ३। बन्धहेतुओं के अभाव और निर्जरा से कर्मों का आत्यन्तिक क्षय होता है। __ सम्पूर्ण कर्मो का क्षय ही मोक्ष है ।
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२३६ तत्त्वार्थसूत्र
[१०.४ एक बार बँधे हुए कर्म का कभी-न-कभी तो क्षय होता ही है, पर वैसे कर्म का बन्धन पुनः सम्भव हो अथवा वैसा कोई कर्म अभी शेष हो तो ऐसी स्थिति मे यह नहीं कहा जा सकता कि कम का आत्यन्तिक क्षय हो गया है । आत्यन्तिक क्षय का अर्थ है पूर्वबद्ध कर्म तथा नवीन कर्म के बाँधने की योग्यता का अभाव । मोक्ष की स्थिति कर्म के आत्यन्तिक क्षय के बिना कदापि सम्भव नही, इसीलिए यहाँ आत्यन्तिक कर्म के क्षय के कारण वर्णित है। वे दो है : १. बन्धहेतुओ का अभाव और २. निर्जरा । बन्धहेतुओं का अभाव हो जाने से नवीन कर्म बंधते नहीं और पहले बँधे हुए कर्मो का अभाव निर्जरा से होता है । बन्धहेतु मिथ्यादर्शन आदि पाँच है जिनका कथन पहले हो चुका है । उनका अभाव समुचित संवर द्वारा होता है और तप, ध्यान आदि द्वारा निर्जरा भी होती है।
मोहनीय आदि पूर्वोक्त चार कर्मों का आत्यन्तिक क्षय हो जाने से वीतरागता और सर्वज्ञता प्रकट होती है, फिर भी वेदनीय आदि चार कर्म अत्यन्त विरल रूप में शेष रहते है जिनके कारण मोक्ष नहीं होता। इसीलिए इन शेष विरल कर्मो का क्षय भी आवश्यक है। इसके बाद ही सम्पूर्ण कर्मो का अभाव होने से जन्म-मरण का चक्र समाप्त हो जाता है । यही मोक्ष है । २-३ ।
अन्य कारण औपशमिकादिभव्यत्वाभावाच्चान्यत्र केवलसम्यक्त्वज्ञानदर्शनसिद्धत्वेभ्यः । ४।
क्षायिकसम्यक्त्व, क्षायिकज्ञान, क्षायिकदर्शन और सिद्धत्व के अतिरिक्त औपशमिक आदि भावों तथा भव्यत्व के अभाव से मोक्ष प्रकट होता है।
प्रौद्गलिक कर्म के आत्यन्तिक नाश की भांति उस कर्म के साथ कितने ही सापेक्ष भावों का नाश भी मोक्षप्राप्ति के पूर्व आवश्यक है। इसीलिए यहाँ वैसे भावों के नाश का मोक्ष के कारणरूप से कथन किया गया है। ऐसे मुख्य भाव चार है-१. औपशमिक, २. क्षायोपशमिक, ३. औदयिक और ४. पारिणामिक । औपशमिक आदि पहले तीन प्रकार के भाव तो सर्वथा नष्ट होते ही है, पर पारिणामिक भाव के बारे मे यह बात नही है । पारिणामिक भावों में से मात्र भव्यत्व का ही नाश होता है, अन्य का नही, क्योकि जीवत्व, अस्तित्व आदि दूसरे सभी पारिणामिक भाव मोक्ष-अवस्था मे भी रहते है । क्षायिकभाव कर्मसापेक्ष अवश्य है, फिर भी उसका अभाव मोक्ष में नहीं होता। इसीलिए सूत्र मे क्षायिकसम्यक्त्व आदि भावों के अतिरिक्त अन्य भावों के नाश को मोक्ष का
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१०. ५-६ ] मुक्त जीव का ऊर्ध्वगमन व सिध्यमान गति के हेतु २३७ कारण कहा गया है । यद्यपि सूत्र मे क्षायिकवीर्य, क्षायिकचारित्र और क्षायिकसुख आदि भावों का वर्जन क्षायिकसम्यक्त्व आदि की तरह नही किया गया है तो भी सिद्धत्व के अर्थ मे इन सभी भावों का समावेश कर लेने से इन भावों का वर्जन भी गृहीत है। ४ ।
मुक्त जीव का मोक्ष के बाद तुरन्त ऊर्ध्वगमन
तदनन्तरमूवं गच्छत्यालोकान्तात् । ५। सम्पूर्ण कर्मो का क्षय होने के पश्चात् मुक्त जीव तुरन्त लोक के अन्त तक ऊपर जाता है।
सम्पूर्ण कर्म और तदाश्रित औपशमिक आदि भावों का नाश होते ही तुरन्त एक साथ एक समय में तीन कार्य होते है-१. शरीर का वियोग, २. सिध्यमान गति और ३. लोकान्त-प्राप्ति । ५ ।
सिध्यमान गति के हेतु पूर्वप्रयोगादसङ्गत्वाबन्धच्छेदात्तथागतिपरिणामाच्च तद्गतिः।६।
पूर्व प्रयोग से, संग के अभाव से, बन्धन के टूटने से और वैसी गति के परिणाम से मुक्त जीव ऊपर जाता है । ___ जीव कर्मो से छूटते हो तत्काल गति करता है, स्थिर नहीं रहता । गति ऊँची और लोक के अन्त तक ही होती है, उससे ऊपर नही; यह शास्त्रीय मान्यता है । यहाँ प्रश्न उठता है कि कर्म या शरीर आदि पौलिक पदार्थो की सहायता के बिना अमूर्त जीव गति कैसे करता है ? ऊर्ध्वगति ही क्यों, अधोगति या तिरछी गति क्यो नही करता ? इन प्रश्नों के उत्तर यहाँ दिये गए है।
जीवद्रव्य का स्वभाव पुद्गल द्रव्य की भांति गतिशील है । अन्तर इतना ही है कि पुद्गल स्वभावतः अधोगतिशील है और जीव ऊर्ध्वगतिशील। जीव अन्य प्रतिबन्धक द्रव्य के संग या बंधन के कारण ही गति नही करता अथवा नीची या तिरछी दिशा में गति करता है। ऐसा द्रव्य कर्म है। कर्मसंग छूटने पर और उसके बन्धन टूटने पर कोई प्रतिबन्धक तो रहता नही, अतः मुक्त जीव को अपने स्वभावानुसार ऊर्ध्वगति करने का अवसर मिलता है । यहाँ पूर्वप्रयोग निमित्त बनता है अर्थात् उसके निमित्त से मुक्त जीव ऊर्ध्वगति करता है। पूर्वप्रयोग का अर्थ है पूर्वबद्ध कर्म के छूट जाने के बाद भी उससे प्राप्त वेग (आवेश )। जैसे कुम्हार का चाक डंडे और हाथ के हटा लेने के बाद भी पहले से प्राप्त वेग के कारण घूमता रहता है वैसे ही कर्ममुक्त जीव भी पूर्व-कर्म से प्राप्त आवेश के कारण
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तत्त्वार्थ सूत्र
[ १०.७
स्वभावानुसार ऊर्ध्वगति ही करता है । जीव की ऊर्ध्वगति लोक के अन्त से ऊपर नही होती, क्योकि लोकान्त के आगे धर्मास्तिकाय का अभाव है । प्रतिबन्धक कर्म द्रव्य के हट जाने से जीव की ऊर्ध्वगति के लिए तुम्बे और एरंड के बीज का उदाहरण दिया गया है । अनेक लेपो से युक्त तुंबा पानी मे पडा रहता है, परन्तु लेप के हटते ही वह स्वभावत पानी के ऊपर तैरने लगता है । कोश ( फली ) मे रहा हुआ एरंड-बीज फली के टूटते ही छिटककर उपर उठता है । इसी प्रकार कर्म-बन्धन के टूटते ही जीव भी उध्वंगामी होता है । ६ ।
२३८
सिद्धो की विशेषता द्योतक बारह बाते
क्षेत्र कालगति लिङ्गतीर्थचारित्रप्रत्येकबुद्धबोधित ज्ञानावगाहनान्तरसंख्याल्पबहुत्वतः साध्याः । ७ ।
क्षेत्र, काल, गति, लिङ्ग, तीर्थ, चारित्र, प्रत्येकबुद्धबोधित, ज्ञान, अवगाहना, अन्तर, सख्या और अल्प - बहुत्व - इन बारह बातों द्वारा सिद्धों की विशेषताओं का विचार किया जाता है ।
सिद्ध जीवों के स्वरूप को विशेष रूप से जानने के लिए बारह बातो का निर्देश किया गया है । यहाँ प्रत्येक बात के आधार पर सिद्धों के स्वरूप का विचार अभिप्रेत है । यद्यपि सभी सिद्ध जीवो मे गति, लिङ्ग आदि सांसारिक भावों के न रहने से कोई विशेष भेद नही रहता तथापि भूतकाल की दृष्टि से उनमे भी भेद की कल्पना और विचार किया जा सकता है । यहाँ क्षेत्र आदि जिन बारह बातों से विचार किया गया है उनमे से प्रत्येक के विषय मे यथासम्भव भूत और वर्तमान दृष्टि लगा लेनी चाहिए ।
१. क्षेत्र ( स्थान ) - वर्तमान भाव की दृष्टि से सभी मुक्त जीवों के सिद्ध होने का स्थान एक ही सिद्धक्षेत्र अर्थात् आत्मप्रदेश या आकाशप्रदेश है । भूत भाव की दृष्टि से इनके सिद्ध होने का स्थान एक नही है, क्योकि जन्म की दृष्टि से पन्द्रह मे से भिन्न-भिन्न कर्मभूमियो से और संहरण की दृष्टि से समग्र मनुष्यक्षेत्र से सिद्ध हो सकते है ।
सिद्ध होते है,
२. काल ( अवसरणी आदि लौकिक काल ) - वर्तमान दृष्टि से सिद्ध होने का कोई लौकिक कालचक्र नही है, क्योकि एक ही समय मे सिद्ध होते है । भूत दृष्टि से जन्म की अपेक्षा से अवसर्पिणी, उत्सर्पिणी तथा अनवसर्पिणी, अनुत्सर्पिणी मे जन्मे जीव सिद्ध होते है । इसी प्रकार संहरण की अपेक्षा से उक्त सभी कालो में सिद्ध होते है ।
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नो मनष्यगति से
और अन्तिम से पहले के
इन
का विचार ता) से ही सिद्ध होते हैं और द्रव्यलिङ्ग का विचार
१०.७ ] सिद्धों की विशेषता-द्योतक बारह बातें
२३९ ३ गलि-वर्तमान दष्टि से सिद्धगति म हा सिद्ध हात है। भत हो अन्तिम भाव को लेकर विचार करे तो मनुष्यगति से और भाव को लेकर विचार करें तो चारो गतियो से सिद्ध होते है।
४ लिङ्ग--लिङ्ग वेद या चिह्न को कहते है। पहले जर वर्तमान दृष्टि से अवेद ही सिद्ध होते है। भूत दृष्टि से स्त्री, तीनो वेदो से सिद्ध हो सकते है । दूसरे अर्थ के अनुसार वर्तमान ही सिद्ध होते है, भूत दृष्टि से यदि भावलिङ्ग अर्थात् आन्तरिक र करें तो स्वलिङ्ग ( वीतरागता ) से ही सिद्ध होते है और द्रव्यालि करे तो स्वलिङ्ग ( जैनलिङ्ग), परलिङ्ग ( जैनेतर पन्थी गृहस्थलिङ्ग इन तीनों लिङ्गो से सिद्ध होते है ।
५. तीर्थ--कोई तीर्थंकररूप मे और कोई अतीर्थकररूप में है अतीर्थंकर में कोई तीर्थ प्रवर्तित हो तब होते है और कोई नो तब भी होते है।
६ चारित्र--वर्तमान दृष्टि से सिद्ध जीव न तो चारित्री र अचारित्री । भूत दृष्टि से यदि अन्तिम समय को ले तब तो
पाख्यातचारित्री ही सिद्ध होते है और उसके पूर्व समय को लें तो तीन, चार त से सिद्ध होते है । सामायिक, सूक्ष्मसम्पराय और यथाख्यान
अथवा छेदोपस्थापनीय, सूक्ष्मसम्पराय और यथाख्यात ये तीन; सा विशुद्धि, सूक्ष्मसम्पराय और यथाख्यात ये चार एवं सामायिक परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसम्पराय और यथाख्यात ये पाँच चारित्र
७ प्रत्येकबद्धबोधित--प्रत्येकबोधित और बुद्धबोधित दोनो जो किसी के उपदेश के बिना अपनी ज्ञान-शक्ति से ही बोध प्राप्त है ऐसे स्वयंबुद्ध दो प्रकार के है-एक तो अरिहत और दूसरे हा जो किसी एकाध बाह्य निमित्त से वैराग्य और ज्ञान प्राप्त कर ये दोनो प्रत्येकबोधित है। जो दूसरे ज्ञानी से उपदेश ग्रहण कर वे बुद्धबोधित है । इनमें भी कोई तो दूसरे को बोध करानेवाले होते मात्र आत्म-कल्याणसाधक होते है।
८. ज्ञान--वर्तमान दृष्टि से मात्र केवलज्ञानी ही सिद्ध होते से दो, तीन, चार ज्ञानवाले भी सिद्ध होते हैं। दो अर्थात् मति और अर्थात् मति, श्रुत, अवधि अथवा मति, श्रुत, मनःपर्याय; चार अली अवधि और मनःपर्याय ।
चार तथा पाँच चारित्रों
ये
ती
. यथाख्यात ये तीन; सामायिक, परिहारयात ये चार एवं सामायिक, छेदोपस्थापनीय, यथाख्यात ये पाँच चारित्र जानने चाहिए ।
न केवलज्ञानी ही सिद्ध होते है। भूत दृष्टि
तीन
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२४०
तत्त्वार्थसूत्र
[१०.७ ९. अवगाहना ( ऊँचाई ) जघन्य अंगुलपृथक्त्वहीन सात हाथ और उत्कृ! पांच सौ धनुष के ऊपर धनुषपृथक्त्व जितनी अवगाहना से सिद्ध हो सकते है, यह भूत दृष्टि की अपेक्षा से कहा गया है। वर्तमान दृष्टि से जिस अवगाहना से सिद्ध हुआ हो उसी की दो-तृतीयांश अवगाहना होती है।
१०. अन्तर (व्यवधान)-किसी एक के सिद्ध होने के बाद तुरन्त ही जब दूसरा जीव सिद्ध होता है तो उसे 'निरन्तर-सिद्ध' कहते हैं। जघन्य दो समय और उत्कृष्ट आठ समय तक निरन्तर-सिद्धि चलती रहती है । जब किसी की सिद्धि के बाद अमुक समय व्यतीत हो जाने पर कोई सिद्ध होता है तब वह 'सान्तरसिद्ध' कहलाता है । दोनों के बीच की सिद्धि का अन्तर जघन्य एक समय और उत्कृष्ट छः भास का होता है।
११. संख्या-एक समय मे जघन्य ( कम-से-कम ) एक और उत्कृष्ट ( अधिक-से-अधिक ) एक सौ आठ सिद्ध होते है।
१२. अल्पबहुत्व-क्षेत्र आदि जिन ग्यारह बातों का विचार ऊपर किया गया है उनके विषय मे संभाव्य भेदों की परस्पर में न्यूनाधिकता का विचार करना ही अल्पबहुत्व है। जैसे क्षेत्रसिद्ध में सहरण-सिद्ध की अपेक्षा जन्मसिद्ध संख्यातगुणाधिक होते है। ऊर्ध्वलोकसिद्ध सबसे कम होते है, अधोलोकसिद्ध उनसे संख्यातगुणाधिक और तिर्यग्लोकसिद्ध उनसे भी संख्यातगुणाधिक होते है । समुद्रसिद्ध सबसे कम होते है और द्वीपसिद्ध उनसे संख्यातगुणाधिक होते है । इसी प्रकार काल आदि प्रत्येक बात से अल्पबहुत्व का विचार किया गया है। विशेष जिज्ञासु अन्य ग्रन्थों से अधिक ज्ञान प्राप्त कर सकते है ।
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अ
अंगुलासंख्यात १२३ अंगुला संख्येय १२१, १२२
अंगोपाग १२५, १९७, १९९
अकर्मभूमि ८०, ९३
अकषाय १५०
अकामनिर्जरा १५६, १५७, १६०, १६२
अकालमृत्यु ७९
अकृतागम ८०
अक्षिग्राही १६, १७
अगर्भज पञ्चेन्द्रिय ६८
अगारी १८०
अगुरुलघु १२७, १२८, १४४,
१९७, २००, २०५
अग्निकुमार ९७, ९९, १००
अग्निप्रवेश १६०, १६२
अग्निमाणव ९७
अग्निशिख ९७
अड्ग २५, २२८
अप्रविष्ट २५
अचाक्षुष १३२-१३४
अचित्त ६७, ६८
अचौक्ष १०१
अचौर्य अणुव्रत १८५
अनुक्रमणिका
अङ्गबाह्य २५
अचक्षुर्दर्शन ४९, ५३, ५९, १९७ अचक्षुर्दर्शनावरण ४९, १९८
१६
१९६,
अचौर्यव्रत १६८
अच्युत ९७, ९९, १००, १०४, ११०,
१११, २३३
अजघन्यगुण १३९
अजीव ५, ११४, ११५, ११८, १५४
अजीवका ११४
अजीवतत्त्व ६
अजीवाधिकरण १५४
अज्ञातभाव १५३
अज्ञान ३४, ४७, ५३, १५९, २१३
२१५
अञ्जना ८४
अञ्जलिकर्म १०७
अणिमा १०४
अणु ११८, १३१, १३२
अणुप्रचय १२२
अणुव्रत १६८, १८०, १८१ अणुव्रतधारी १८०, १८१
अण्डज ६७, ६९
अतिकाय ९७, १०१
अतिचार १८३, १८५, १९० अतिथिसंविभाग १८०, १८२
अतिथिसंविभागवत १८६, १९०
अतिपुरुष १०१
अतिभार १८५
अतिभारारोपण १८७
अतिरूप १०१
२४९
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________________
२४२
अतिसर्ग १९०
अतीत १०२ अतीतकाल १०३
अतीन्द्रिय ११७, १२५, १३३
अतीर्थंकर २३९
अथाख्यात २१८
अदत्तादान १७७
अदर्शन ५३, २१३-२१५
अधर्म ११४, ११८, १२०, १२४ अधर्मास्तिकाय ११४, ११५, ११७, ११८, १२४, १२५, १४४
अधस्तारक १०१
अधिकरण ८, ९, १५३, १५४
अधिगम ४
अधिगम सम्यग्दर्शन ५
अधोगति २३७
अधोभाग ८३
अघोलोक ८३
अधोलोकसिद्ध २४०
अधोभ्यतिक्रम १८६, १८८
अध्यवसाय ७५
अध्रुव १८
अध्रुवग्राही १६, १८
अनङ्गक्रीडा १८५, १८८
तत्त्वार्थ सूत्र
अनगार १८०
अनन्त १, ११, १०३, ११८, १२३, १२४, १३१, १३२, १४२, १४५
अनन्तगुण ७०
अनन्तवियोजक २३१
अनन्ताणु १३३
अनन्ताणुक १२१
अनन्तानन्त ११८, ११९, १२३, १३२ १४१, २०३
अनन्तानन्ताणुक १२१ अनन्तानुबन्धिवियोजक २३०
अनन्तानुबन्धी ४९, १९७, १९८ अनपवर्तना ७९
अनपवर्तनीय ७८-८१, ८७
अनभिगृहीत १९३
अनर्थदण्डविरति १८०, १८२
अर्पणा १३७
अर्पित १३६
अनवकाक्षक्रिया १५२
अनवसर्पिणी २३८
अनवस्थित २८
अनशन १६०, १६२, १८२, २१८,
२१९
अनाकार उपयोग ५२
अनागतकाल १०३
अनाचार १९०
अनादर १८६, १८९
अनादि ७३, १४२, १४६, १४७ अनादिभाव ७३
अनादेय १९६, १९७, २००, २०५
अनागामिक २८
अनाभोगक्रिया १५२
अनाभोगनिक्षेप १५५
अनासक्ति १७२
अनाहारक ६३, ६६ अनि सृतावग्रह १७ अनित्यत्व १३०
अनित्य १३८
अनित्य- अवक्तव्य १३८
अनित्यानुप्रेक्षा २११ अनिन्दित १०१
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________________
अनुक्रमणिका
२४३
अनिन्द्रिय १४, ५८, ६० अनिवृत्तिबादरसम्पराय २०१ अनिश्रित १६,१७ अनिश्रितग्राही १६,१७ अनिष्टसंयोग आर्तध्यान २२४ अनोक ९६ अनुकम्पा ४, १६०, १७१ अनुक्तावग्रह १८ अनुचिन्तन २११ अनुज्ञापितपानभोजन १६८, १६९ अनुतट १३० अनुत्तर १०४, १०९ अनुत्तरविमान ११२ अनुत्तरौपपातिकदशा २६ अनुत्सर्पिणो २३८ अनुरोक १६३ अनुपस्थापन १८६ अनुप्रेक्षा २०६, २११, २२१ अनुभाग १९२ अनुभागबन्ध १५०, १६४, १६५ अनुभाव १०६, १०७, १९४, २०२ अनुभावबन्ध १९५, २०१, २०२ अनुमत १५४ अनुमान ५०, १३१ अनुयोग ८ अनुवोचिअवग्रहयाचन १६८, १६९ अन्वीचिभाषण १६८, १६९ अनुश्रेणि ६४ अनृत १७६ अनृतानुबन्धी २२६ अनेकन्व १३७, १३८ अनेकान्त १३६
अन्तकृद्दशा २६ अन्तर ८, १० २३८ अन्तर ( व्यवधान ) २४० अन्तराय ४९, १५६, १६३, १९५
१९७,२००, २०१, २०५, २३५ अन्तराय कर्म १५६, १५८ अन्तराल ६३ अन्तराल गति ६३, ६५, ६६, ७५ अन्तर्वीप ८०, ९१, ९२ अन्तर्धान १८५ अन्तर्मुहूर्त ७९, ८९, ९४, १०७,
२२३, २३५ अन्त्य १२९-१३१ अन्धकार १२८ अन्नपाननिरोध १८५, १८७ अन्यत्व ५० अन्यत्वानुप्रेक्षा २१२ अन्यदृष्टिप्रशंसा १८३ अन्यदृष्टिसंस्तव १८३ अपचय ७३ अपरत्व १२६, १२७ अपरा ( जघन्य स्थिति ) १११ अपराजित ९९, १००, १०४, १०९ अपरिगृहीतागमन १८५, १८८ अपरिग्रह-अणुव्रत १८५ अपरिग्रहबत १६९, १८८ अपर्याप्त १९६,१९७, २००, २०५ अपवर्तना ७९ अपवर्तनीय ७९-८१ अपवाद २१० अपान १२६ अपाय २२६
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________________
२४४
तत्त्वार्थमूत्र
अपायविचय धर्मध्यान २२६ अपापुद्गलपरावर्त १० अपूर्वकरण ५ अपेक्षा ३६ अपेक्षावाद ३६ अप्रतिघात ७३ अप्रतिरूप ९७ अप्रतिष्ठान ८५ अप्रत्यवेक्षित १८६, १८९ अप्रत्यवेक्षितनिक्षेप १५५ अप्रत्याख्यान १९७ अप्रत्याख्यानक्रिया १५२ अप्रत्याख्यानावरण १९८ अप्रमत्त १७६ अप्रमत्तभाव ७५ अप्रमत्तसंयत २२६ अप्रमाद १५७ अप्रमार्जित १८५, १८६, १८९ अप्रवीचार ९८ अप्रशस्तविहायोगति २०५ अप्राप्यकारी २३ अबद्ध १३१ अब्रह्म १४९, १५१, १७६-१७८ अभयदान १६३ अभव्यत्व ४६, ४७, ५० अभिगृहीत १९३ अभिनिबोध १३, १४ अभिमान १०४, १०६ अभिषव-आहार १८६, १९० अभीक्ष्ण अवग्रहयाचन १६८, १६९ अभीक्ष्णज्ञानोपयोग १६२ अभीक्ष्णसवेग १६३
अभ्युदय २०७ अमनस्क ५४, ५५ अमितगति ९७ अमितवाहन ९७ अमूर्त ५८, १२२, १२४ अमूर्तत्व २२९ अम्ब ८७ अम्बरीष ८७ अयन १०३ अयश १९६, १९७ अयशःकीर्ति २००, २०५ अरति १९७, २१३-२१५ अतिमोहनीय १६१, १९९ अरिष्ठ १०८ अरिहन्त १०७, १५७, १६३, २३९ अरुण १०८ अरूपत्व ५० अम्पी ११५, ११६, १४७ अर्थ १, १९, २२७-२२९ अर्थनय ४५ अर्थपद ५ अर्यावग्रह २०, २३, २४ अर्धनाराच २०५ अर्धमात्रा २२४ अर्धवज्रर्षभनाराच २०५, २२२ अर्पणा १३७ अर्पित १३६ अर्हद्भक्ति १५६ अलाभ २१३-२१५ अलिङ्ग २३९ अलोक ३२ अलोकाकाश १२०, १२३
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________________
अनुक्रमणिका
२४५
अल्प १८, २३ अल्प-आरम्भ १५६,१५७ अल्पग्राही १६,१७ अल्प-परिग्रह १५६,१५७ अल्पबहुत्व ८, ११, २३८,२४० अल्पविध १८, २३ अवकाश १२४ अवक्तव्य १३८ अवक्रता १५७ अवगाह १२४ अवगाहना ( ॐवाई ) २३८, २४० अवग्रह १५, १६, १९, १६९ अवग्रहयाचन १६८, १६९ अवग्रहावधारण १६८, १६९ अवद्य १७० अवधान २२ अवधि ११, १३, ४९, २३९ अवधि-अज्ञान ३४ अवधिज्ञान २७, २८, ३२-३४, ५२,
१०५, १०७ अवधिज्ञानावरण ४९, १९८ अवधिज्ञानावरणीय २७ अवधिदर्शन ४९, ५२, ५३, १९७ अवधिदर्शनावरण ४९, १९८ अवधिलब्धि ५३ अवधिविषय १०४, १०५ अवमौदर्य २१८, २१९ अवयव ११४, ११९, १३९ अवयवप्रचय ११४ अवर्णवाद १५६,१५७ अवसर्पिणी ९४, २३८ अवस्थित २८
अवस्थितत्व ११६ अवाच्यत्व १३८ अवाय १५, १६, १९, २१ अवायज्ञान २३ अविकल्प्य १४४ अविग्रह ६२ अविचार २२७, २२८ अविभाज्य १४१ अविरत २२६ अविरति १९२, १९३ अविसंवाद १५७ अवीचार २२७ अव्यय १३५ अव्याबाध १०८ अव्याहतगति ७३ अव्रत १५१ अशरणानुप्रेक्षा २११ अशरीरसिद्धि २ अशाश्वत १३४ अशुचित्वानुप्रेक्षा २१२ अशुभ १९६,१९७, २००, २०५ अशुभनामकर्म १५६,१५७, १६२ अशुभयोग १४९, १५० अशोक १०१ अश्व १०१ अष्ट अष्टमिका २१० असत् १३७, १७६ असत्-आचरण १७६ असत्-कथन १७६ असत्-चिन्तन १७६ असत्-भाषण १७६ असत्य १५१,१६२,१६६,१७६,१७७
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________________
२४६
तत्त्वार्थसूत्र
अहमिन्द्र १०४, १०८ अहिंसा १६०, १६६, १७३, १७५ अहिंसा-अणु त १८५ अहिंसा-व्रत १६८, १८७ अहोरात्र १०२
आ
आकाश ८२, ८३, ८५, ११४-१२०,
१२३-१२५ आकाशग १०१ आकाशप्रदेश १०, १०४, २३८ आकाशास्तिकाय ११४, ११५, ११७,
असत्त्व १३८ असदृश १४० असद्गुणोद्भावन १५६, १५८, १६३ असद्वेद्य १५६ असंख्यात ११८ असंख्यातगुण ६९,७० असख्यातप्रदेशत्व ५० असंख्यातवर्षजीवी ७८, ८० असंख्याताणुक १२१ असंख्येय १०३, ११७, ११८ असंगत्व २३७ असंज्ञी ८७ असंदिग्ध १६, १७ असंदिग्धग्राही १६ असंयतत्व ४९ असंयम ४७ असमीक्ष्याधिकरण १८६, १८९ असम्यग्ज्ञान ११, १२ असर्वगतत्व ५० असर्वज्ञ २२३ असाता १०७ असातावेदनीय १२६, १५६, १५९,
१६४, १९८, २०५। असिद्धत्व ४६-४९ असिद्धभाव ४७ असुर ८२, ८७, ९९ असुरकुमार ९६, ९७, १०० असुरेन्द्र ११० अस्तिकाय ११४, ११८, १२० अस्तित्व ५०, १४४ अस्तेयवत १८७ अस्थिर १९६, १९७, २०५
आकिंचन्य २०८, २१० आकृति ८९ आक्रन्दन १५६, १५९ आक्रोश २१३-२१५ आगति ८७ आगम १३१ आगमप्रमाण ३७, ३८, १२४ आचामल २१० आचार २६ आचारवस्तु २३३ आचाराङ्ग २५ आचार्य १५७, १६३, २२१ आच्छादन १६३ आज्ञा २२६ आज्ञाविचय धर्मध्यान २२६ आज्ञाव्यापादिकी क्रिया १५२ आतप १२८, १३०, १९६,१९७,
२००, २०५ आत्मज्ञान ३५
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________________
आत्मत्व १४६
आत्मद्रव्य ५०, ११७ आत्मनिन्दा १५८, १६३
आत्मपरिणाम १५७
आत्मप्रदेश ८८, २३८ आत्मप्रशंसा १५८, १६३
आत्मरक्ष ९६
आत्मविवेक ३५
आत्मशुद्धि ४८
आत्मा ३, १३, ४०, ४८, ५०, ६५, १२१, १२५, १२६, १२९, १३४, १३६-१३८, १४३-१४६, २०३ आदाननिक्षेप १८६, १८९, २०७ आदाननिक्षेपणसमिति
१६८, १६९,
२०८
आदि १३९
आदित्य १०८
आदिमान् १४६, १४७
आदेय १९६, १९७, २००, २०५
आधारक्षेत्र १२२
अधिकरणिकी क्रिया १५२
आधेय ११९, १२०
आनत ९७, ९९, १००, १०४
आनन्द १४५
आनयनप्रयोग १८६, १८९ आनुगामिक २८
आनुपूर्वी ६५, १९६, १९७, १९९
आपेक्षिक १२९
आभियोग्य ९६, १०२
आभ्यन्तरतप २१८
आभ्यन्तरोपधिव्युत्सर्ग २२१
आम्नाय २२१
अनुक्रमणिका
For Private
आम्नायार्थवाचक २१०
आयु ४९, ७९, १०९, ११०, १९७
आयुकर्म १२६
आयुष १५६
आयुष्क १९५, १९६, २०१ आयुष्कर्म १९९
स्थिति ८७
आरण ९७, ९९, १००, १०४, ११७ १११, २३३
आरम्भ १५४, १५५, १६१
आरम्भक ७२
आरम्भक्रिया १५२
आरम्भवृत्ति १६१
आर्जव १५६, २०८, २०९ आर्त २२४
आर्तध्यान २२५
आर्य ८८, ८९, ९३
आर्यदेश ९३
आर्यसत्य ५
आलोकितपानभोजन १६८, १६९
आलोचन २१९
आवलिका १०३
आवश्यक १५८
आवश्यक परिहाणि १६३
आवास १००
आसक्ति १७८
आसादन १५६, १५९
आस्तिक्य ४
२४७
आस्रव ५, ६, १४८, १५३ आस्रवनिरोध २०६
आस्रवानुप्रेक्षा २१२
आहार ६५, १०६
Personal Use Only
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________________
२४८
तत्त्वार्थसूत्र
आहारक ६६, ६९-७१, ७६, ७७,
२०५ आहारक अङ्गोपाङ्ग २०५ आहारकलब्धि ७४, ७५ आहारदान १६३ आह्नक १०१
इक्ष्वाकु ९३ इत्थंत्व १३० इत्वरपरिगृहीतागमन १८५, १८८ इत्वरिक २१७ इन्द्र ९६, १०८ इन्द्रिय १३, १४, १८, ५६, ६०,
१५१ इन्द्रियगम्य १२४ इन्द्रियविषय १०४, १०५, ११७ इन्द्रियव्यापार १५३ इषुगति ६५ इष्टवियोग आर्तध्यान २२५
उच्च १९६, १९७ उच्चगोत्र २००, २०५ उच्चगोत्र कर्म १५८, १६३ उच्छ्वास १०६, १२५, १९६, १९७,
२०५ उच्छवासवायु १२६ उत्कालिक २५ उत्कृष्ट ८७, १४१ उत्कृष्टस्थिति ११३ उत्तमपुरुष ७८, ८० उत्तरकुरु ८८, ८९, ९१, ९२ उत्तरगुण १८१ उत्तरगुण निर्वर्तना १५५ उत्तरप्रकृति १९६, २०२ उत्तरव्रत १८१ उत्तराध्ययन २६ उत्पत्ति २२९ उत्पाद १३४, १३६ उत्सर्ग १८६, १८९, २०७, २१० उत्सर्गसमिति २०८ उत्सर्पिणी ९४ २३८ उदधिकुमार ९७, ९९, १०० उद्भावन १६३ उद्योत १२८, १३०, १९६, १९७,
२००, २०५ उन्मत्त ३४ उपकरण ५६-५८ उपकरणबकुश २३३ उपकरणसंयोगाधिकरण १५६ उपकरणेन्द्रिय २०, २१, ५७ उपकार १२३, १२५, १२६ उपक्रम ७९ उपग्रह १२३
ईर्या २०७ ईर्यापथकर्म १५० ईर्यापथक्रिया १५१ ईर्यापथिक १५१ ईर्यासमिति १६८, १६९, २०८ ईशान ९७ ईषद् इन्द्रिय ६० ईहा १५, १६, १९, २१, २५
उक्तावग्रह १८ उग्र ९३
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--------------------------------------------------------------------------
________________
अनुक्रमणिका
२४९
उष्ण ६७, ६८, १२९, २१३, २१४ उष्णवेदना ८६
ऊनोदरी २१९ ऊर्ध्वगति २३७ ऊर्ध्वलोक ८३, १०५ ऊर्ध्वलोकसिद्ध २४० ऊर्ध्वव्यतिक्रम १८८
उपघात १५६, १५८, १५९, १९६,
.१९७, २००,२०५ उपचय ७३ उपचारविनय २२० उपचार-श्रुत २६ उपधि २२१ उपपात ६७, ६९, १०६, १०७, २३३ उपपात जन्म ६७, ६९,७१, ७६ उपभोग ४०, ४९, ७०, ७५, ७६ उपभोगपरिभोगपरिमाण १८०, १८२ उपभोगाधिक्य १८६, १८९ उपभोगान्तरात २०० उपयोग ५०-५२, ५६-५८, ११४,
१२५, १४३, १४६ उपयोग-भेद ५३ उपयोगराशि ५२ उपयोगेन्द्रिय ५७ उपलक्षण ५१, ५२ उपवास १५९ उपव्रत १६२ उपशम ४८-५० उपशमक २३०, २३१ उपशान्तमोह २१६, २२६,२२७,२३०,
ऋजु ६३, ६५ ऋजुगति ६४ ऋजुमति २९,३० ऋजुसूत्र ३५, ४१, ४४ ऋजुसूत्रनय ४२ ऋतु १०३ ऋषिभाषित २६ ऋषिवादिक १०१
उपस्थापन २१९, २२० उपहार १०७ उपादान १२४ उपाध्याय २२१ उपासकदशा २६ उपासना १०७ उमास्वाति १८१ उरग ८७,९४
एकत्व १३०, १३७,१३८,२११,२२७ एकत्ववितर्कनिर्विचार २२८,२२९ एकत्वानुप्रेक्षा २१२ एकविध १७ एकविधग्राही १६,१७ एकाग्रचिन्ता २२२ एकाग्रचिन्तानिरोध २२२ एकान्तक्षणिक ४७ एकान्तक्षणिकता ४७ एकान्तनित्य ४७ एकेन्द्रिय ५६, ६८, ८८, २०५ एवंभूत ३६, ४५ एवंभूतनय ४२, ४४
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--------------------------------------------------------------------------
________________
२५०
तत्त्वार्थसूत्र
एषणा २०७ एषणासमिति १६८,१६९, २०८
ऐगवतक्षेत्र ९१ ऐरावतवर्ष ८८,९० ऐशान ९७-१००, १०४, १११ ऐश्वर्य २०९ ऐहिक आपत्ति १७० ऐहिक दोषदर्शन १७०
औ औत्करिक १३० औदयिक ४६-४८, ५०, २३६ औदारिक ६९ ७१, १२२,१२३,
१२५,१५५, २०५ औदारिक अङ्गोपाङ्ग २०५ औदारिक पुद्गल ६७ औदारिक शरीर ७१, २९५ औपातिक ७०, १०९ औपशमिक ११, ४६.४९, २३६ औपशमिक सम्यक्त्व ११
कतो १३७ कर्तृत्व ५० कर्म ४८, ६५, ७५, १३७, १५६
१६५, १९२, १९६ कर्म-आर्य १३ कर्म-पुद्गल ५, ६६, १९५ कर्मप्रकृति १६४, १९२, २०५ कर्मबन्ध १५१, १५४, १९२ कर्मभूमि ८०, ८८,८९, ९३ कर्मयोग ६२ कर्मवर्गणा ६६,६७, २०४ कर्मस्कन्ध २०३ कर्मेन्द्रिय ५७ कल्प २६, १०४, १०७ कल्पातीत ९६, ९९,१००, १०३,
१०४, १०७ कल्पोपपन्न ९६, ९९,१००, १०३ कवलाहार २१६ कषाय ४६,४७, ४९, १५१, १५४,
१५६-१५८, १६५, १९२-१९४,
१९७, १९८, २०५ कषायकुशील २३२ कषायचारित्रमोहनीय १९७ कषायमोहनीय ४९, १६१ कषाय रहित १५० कषायवेदनीय १९७ कषायसहित १५० कमैला १२९ काक्षा १८३ काक्षातिचार १८४ काण्ड ८४, ९० कादम्ब १०१ कापिष्ट ९९
कठिन १२९ कड़वा १२९. कदम्बक १०१ कनकावली २१० कन्दर्प १८६, १८९ कमलपूजा १८३ कम्बोज ९३ करुणा १७१ करुणावृत्ति १७० कर्ण २३
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________________
अनुक्रमणिका
२५१
कापोत ४९, ८६, ९७ काम १ कामराग १७७, १७८ कामसुख ९८ काय १४८, १६२, १६६, १७७ कायक्लेश २१८, २१९ कायगुप्ति २०७ कायदुष्प्रणिधान १८९ कायनिसर्ग १५६ कायप्रवीचार ९८ काययोग १४८, १४९, १५१, २३० कायस्थिति ९४ कायस्वभाव १७० कायिकी क्रिया १५२ कायोत्सर्ग २६ कारित १५४ कारुण्य १७० कार्तिकेय १८१ कार्मण ६९,७०, ७३-७५, २०५ कार्मणयोग ६३, ६६ कार्मणशरीर ६६, ६७, ७६, १२२,
१२३, १२५ कार्य ११८, १२४ काल ८, १०, ९७, १००, १०१,
११४, १३४, १४२, १४४,
१४५, २३८ कालमर्यादा ७३, ७९ कालमान ६५ कालमृत्यु ७९ कालविभाग ९९, १०३ कालव्यवहार १०२ काला १२९
कालातिक्रम १८६, १९० कालिक २५ कालोदधि ८९, ९२, १०२ किपुरुष ९७, ९९-१०१ किंपुरुषोत्तम १०१ किन्नर ९७, ९९-१०१ किन्नरोत्तम १०१ किल्विषिक ९६ कीलिका २०५ कुन्दकुन्द १८१ कुप्यप्रमाणातिक्रम १८६, १८८ कुब्ज २०५ कुम्हार ९३ कुरु ९३ कुल २०९, २२०, २२१ कुल-आर्य ९३ कुलकर ९३ कुशील २३१, २३२ कूटलेखक्रिया १८५, १८७ कूटस्थनित्य ४७, १३४ कूटस्थतित्यता ४७ कूष्माण्ड १०१ कृत १५४ कृतनाश ८० कृत्रिम ७६ कृषि ९३ कृष्ण ४९, ८६, ९७ केवल ११, १३ केवल उपयोग २३५ केवलज्ञान ३१-३३, ४९, ५२, ३,
२३५
केवलज्ञानावरण ४९, १९८
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________________
२५२
केवलज्ञानी १५७
केवलदर्शन ४९, ५२, ५३, १९७ केवलदर्शनावरण ४९, १९८
केवललब्धि ५३
केवली १५६, २२७
केवलो अवर्णवाद १६०
केवली समुद्घात ८८, १२२
कौत्कुच्य १८६, १८९
क्रिया १२६, १२७, १५१ क्रियादृष्टि ४५
क्रियानय ४५
क्रोध ४९, १५१, १५५, १५९, १६९, १९७, १९८
क्रोधप्रत्याख्यान १६८
क्षणस्थायी १४६
क्षपक २३०, २३१
क्षमा २०८, २०९
क्षय ४८, ५०, १४८, २३५ क्षयोपशम १४, १७, २३, २४, ४९,
५०, १२५, १४८
क्षान्ति १५६, १५७, १६०
क्षायिक ४६-४९
श्रमिकचारित्र २३७
क्षायिकज्ञान २३६
तत्त्वार्थ सूत्र
क्षायिक दर्शन २३६
क्षायिकभाव ४९
क्षात्रिकवीर्य २३७
क्षायिक सम्यक्त्व ११, २३६, २३७
क्षायिकसुख २३७
क्षायोपशमिक ११, ४६-४९, २३६ क्षायोपशमिकभाव ४९
क्षायोपशमिकसम्यक्त्व ११
क्षिप्र १६
क्षिप्रग्राही १६, १७
क्षीणकषाय २२६
क्षीणमोह २१६, २२७, २३०, २३१ क्षुद्रसर्वतोभद्र २१०
क्षुधा २१४
क्षुल्लक सिंहविक्रीडित २१०
क्षेत्र ८, ९, ३०, ८९, ९२, १४२, १८६ क्षेत्र ( स्थान ) २३८
क्षेत्र - आर्य ९३
क्षेत्रकृत ३०
क्षेत्र वास्तुप्रमाणातिक्रम १८८
क्षेत्र वृद्धि १८८ क्षेत्रसिद्ध २४०
खट्टा १२९
खट्वाङ्ग १०१
खण्ड १३०
खरकाण्ड ८४
ख
ग
गण २२१
गणधर २५
गति ४६, ४७, ४९, ६२, ८७, १०४, १०५, १२३ - १२५, १२७, १९६, १९७, १९९, २३८, २३९ गतिक्रिया ६३, ६४, ११७ गतित्रस ५५, ५६ गतिसामर्थ्य १०६
For Private Personal Use Only
गन्ध १९, ५७, ५८, ८६, ११६, ११९, १२८, १२९, १३१, १४३-१४५, १६९, १९६, १९७, १९९, २०५, २११
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________________
अनुक्रमणिका
२५३
गोम्मटसार जीवकाण्ड १० ग्रह ९९,१००, १०२, ११३ ग्रेवेयक ९९,१००, १०४, १०७,११०,
१११ ग्लान २२१
गन्धर्व ९७ गमनक्रिया १०५ गरुड १०१ गर्दतोय १०८ गर्भ ६७, ७६ गर्भज ९४ गर्भजतिर्यंच ६२ गर्भजन्म ६७, ६९, ७१ गर्भज पंचेन्द्रिय ९४ गर्भज मनुष्य ६२, ६८ गर्भोत्पन्न ६१ गाँव ८८ गान्धर्व ९९-१०१ गीतयश ९७, १०१ गीतरति ९७, १०१ गुण १४३-१४६ गुणत्व ५० गुणप्रत्यय २७-२९ गुणरहित १४५ गुणव्रत १८१,१८२ गुणस्थान २, १९३, २०६, २२६,
२२७ गुणान्तर १४५ गुप्ति २०६,२०७ गुरु १०२, १२९ गुरुकुल २१० गुरुलघु १४४ गृहस्थलिंग २३९ गोत्र ४९, १९५,१९६, २०१ गोत्रकर्म १९७ गोपालदास बरैया १२७ गोमूत्रिका ६५
घट १०१ घन १२९ धनवात ८३,८४ घनाम्बु ८२ घनोदधि ८३ घनोदधि-वलय ८४, ५ घर्मा ८४ घातन ८५ घातिकर्म २१६ घ्राण १५, २३, ५६, १३३ घ्राणेन्द्रिय ५७
च चक्रवर्ती ८०, ९३ चक्षु १४,१५, ५६ चक्षुरिन्द्रिय ५७ चक्षुर्दर्शन ४९, ५२, ५३, १९७ चक्षुर्दशनावरण ४९, १९८ चतुःभक्ति १६३ चतुरणुक १२१ चतुरिन्द्रिय ५५,५६, ९४, २०५ चतुर्दशपूर्वधारी ७७, १०७ चतुनिकाय ९५,९६ चतुर्विंशतिस्तव २६ चतुष्पद ९४ चन्द्र ९७, १००, १०२,१०३, ११३ चन्द्रमण्डल १०२
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________________
२५४
तत्त्वार्थसूत्र
छाया १२८, १३० छेद २१९,२२० छेदोपस्थापनचारित्र २१७ छेदोपस्थापनीय २३९
चमर ९७, ११० चम्पक १०१ चरज्योतिष्क १०२ वरपरा १२९ चरमदेह ८० चरमशरीरी ७८ चर्य २१० नर्या २१३-२१५ चाक्षुष १३२-१३४ चान्द्रायण २१० चारित्र ४६, ४९, १४४,१४५, २०६,
२१७, २३८, २३९ चारित्रधर्म १८३, १८६ चारित्रमोह १५६, १९७, २१४ चारित्रमोहनीय ४९, १५६,१५७, १६१ चारित्रविनय २२० चारित्रशुद्धि १८३ चिन्ता १३,१४ चीन ४० चूडामणि १०० चूलिका २० चेतन १२४,१२५, १३६ चेतना १३७, १४३, १४५ चेतनाशक्ति ३४, ५१,५२, १४३ चोरी १४९, १५१, १५३, १६२, १६६ चौक्ष १०१ चौर्णिक १३०
जगत् ५० जगत्स्वभाव १७०, १७२ जघन्य ८७, १४० जघन्यगुण १३८,१३९ जघन्यस्थिति ११३ जघन्येतर १४०,१४१ जड १२४,१२५, १३६ जन्म ६७,६९ जन्मसिद्ध ७६, २४० जन्मान्तर ६३ जन्माभिषेक १०७ जम्बूद्वीप ८८-९१, १०२ जयन्त ९९,१००, १०४, १०९ जरायु ६९ जरायुज ६७, ६९ जल १२९ जलकान्त ९७ जलकाय ५४,५५, ६०, ९४ जलचर ९४ जलपतन १६० जलप्रभ ९७ जलप्रवेश १६२ जलबहुल ८४ जलराक्षस १०१ जलसमाधि १८३ जाति २०, १९६,१९७, १९९, २०९ जाति-आर्य ९३
छद्मस्थ १४४, २२४ छद्मस्थवीतराग २१३,२१४ छविच्छेद १८५, १८७
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________________
अनुक्रमणिका
२५५
ज्ञान १, ११, ४६, ४७, ५३, १४३,
१५९, १९५, २३८, २३९ ज्ञानदान १६३ ज्ञानदृष्टि ४५ ज्ञाननय ४५ ज्ञाननिह्नव १५८ ज्ञानप्रदोष १६४,१६५ ज्ञानबिन्दुप्रकरण ६२ ज्ञानमात्सर्य १५८ ज्ञान-विनय २२० ज्ञानव्यापार २५ ज्ञानान्तराय १५८ ज्ञानावरण १५६, १९५,१९६, २०१,
२०५ ज्ञानावरणीय ३४, १४९, १५८, १६४,
जिन २१४, २३०,२३१ जिनसेन १८१ जिह्वा २३ जीतकल्पसूत्र २२० जाव २, ५, १०, ४६, ५०, ५३, ६२-
६४, ७१, ११४, ११५, ११७, ११८, १२०-१२२, १२४, १२६
१२८, १५४ जीव-अधिकरण १५४ जीव-तत्त्व ६ जीवत्व ४६,४७, ५० जीवन १२५ जीवप्रदेश २०३ जीवराशि ४८, १२२ जीवास्तिकाय ११७ जीवित १२६ जो विताशसा १९० जुगुप्सा १९७ जुगुप्सामोहनीय १६१, १९९ जुलाहा ९३ जैनदर्शन ५, ३७, ४७, ११५, १२४,
१२५, १२९, १३४-१३६, १४६ जैनधर्म १७० जैनलिङ्गिक मिथ्यात्वी १०७ जैनशासन २६, २३५ जैनसंघ १७० जैनसिद्धान्तप्रवेशिका १२७ जैनेतरलिङ्गिक मिथ्यात्वी १०७ जोष १०१ ज्ञान ९३ ज्ञातभाव १५३ ज्ञाताधर्मकथा २६
ज्ञानासादन १५८ ज्ञानेन्द्रिय ५७ ज्ञानोपयोग १५६, १५७ ज्ञेयत्व १४४ ज्ञेय भाव ६ ज्योतिश्चक्र १०२ ज्योतिष्क ९५, ९७-९९, १०१, ११३ ज्योतिष्कनिकाय ९६, १००
तत १२९ तत्त्व २, ५-८, ११५ तत्त्वनिश्चय ४ तत्त्वार्थ ५ तत्त्वार्थभाष्यवृत्ति १८ तत्प्रदोष १५६, १५८, १९४ तथाख्यात २१८
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________________
२५६
तत्त्वार्थसूत्र तथागतिपरिणाम २३७
तीर्थकरत्व १९७ तद्भाव १४५
तीर्थकर नामकर्म १५८, २०५ तनुवात ८३
तीर्थकृत्त्व १५६ तनुवातवलय ८४
तीव्रकामाभिनिवेश १८५, १८८ तप १५७, १६३, २०६,२०७, २१०, तीव्रभाव १५३ २१९,२२०, २३६
तुम्बरु १०१ तपस्वी २२१
तुम्बुरव १०१ तपोरत्नमहोदधि २१०
तुषित १०८ तम १२८, १३०
तृष्णीक १०१ तमःप्रभा ८२, ८४, ८६
तृणस्पर्श २१३-२१५ ताड़न १६४
तृषा २१३,२१४
तेजः ४९, १२९ ताप १५६, १५९
तेज.काय ५४, ५५, ६१, ९४ तारा १००, ११३
तेजःकायिक ६८ तारागण १०२ तारामण्डल १०२
तैजस ६९, ७०, ७३, ७४, ७६, ७७, तालपिशाच १०१
२०५
तैर्यग्योनि १५६ तिरछीगति २३७ तिर्यग्योनि ८९, १०९
त्याग १५७, १६३, २०८, २१० तिर्यग्लोकसिद्ध २४०
त्रस ५४,५५, १९६,१९७, १९९, २०५ तिर्यग्व्यतिक्रम १८५,१८६, १८८
त्रसत्व ५४
त्रसदशक १९९ तिर्यञ्च २७,२८, ४९, ६१, ६८,६९,
सनाड़ी ७३ ८२, ८७-८९, १०९, १६१, १९७, १९९, २०१
त्रसनामकर्म ५५ तिर्यञ्च आयु १५७, १६१
त्रायस्त्रिश ९६, १०८
त्रिकालग्राही ३१ तिर्यञ्च आयुष्क २०५ तिर्यश्चगति २०५
त्रीन्द्रिय ५५, ५६, ९४, २०५ तिर्यञ्चानुपूर्वी २०५
त्र्यणुक १२१, १४६ तिलोयपण्णत्ति १० तीर्थ २३८, २३९
दंशमशक २१३, २१४ तीर्थ ( शासन ) २३३
दक्षिणार्ध ११० तीर्थंकर २५, २९, ८०, ९३, १०७, दक्षिणार्धाधिपति ११० १०८, १६२, २००, २३९
दम्भ १७९
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________________
अनुक्रमणिका
२५.
दया १४९ दर्शन ३०, ४६, ५३, १४३, १९५ दर्शनक्रिया १५२ दर्शननिह्नव १५८ दर्शनप्रदोष १५८ दर्शनमोह १५६, १९७, २१४ । दर्शनमोहक्षपक २३०, २३१ दर्शनमोहनीय ४९, १५७, १६०, १९८ दर्शनविनय २२० दर्शनविशुद्धि १५६, १५७, १६२ दर्शनावरण १५६, १९५, १९६, २०१,
२०५ दर्शनावरणीय १५८, १६४, १९७,
२३५ दशदशमिका २१० दशवकालिक २६ दशाश्रुतस्कन्ध २६ दाढ़ा ९१ दाता १९१ दान ४६, ४९, ७५, १४९, १५३,
१५५-१५७, १६७, १९०, १९१,
१९७ दानान्तराय २०० दासीदासप्रमाणातिक्रम १८५, १८६,
१८८ दिक्कुमार ९७, ९९, १०० दिगम्बर १३९, १४०; १४४, २१४,
दिन १०३ दिनपृथक्त्व १०६ दिवाभोजन १६७ दिशा १०८ दीक्षाचार्य २२१ दीपक १९४ दुःख ५, १२५, १५६, १५९ दुःख-भावना १७१ दुःखवेदनीय १९७ दुःस्वर १९६, १९७, २००, २०५ दुर्गन्ध १२९ दुर्भग १९६, १९७, २००, २०५ दुष्पक्व-आहार १९० दुष्प्रणिधान १८५ दुष्प्रमार्जितनिक्षेप १५५ दृश्यहिंसा १७४ दृष्टिवाद २६ देयवस्तु १९१ देव २७, २८, ४९, ६१, ६२, ६७,
६९, ७६, ७७, ८२, ८७, ८८, ९५, १०९, १५६, १५७, १९७,
देवकुरु ८८, ८९, ९१, ९२ देवगति २०५ देवजन्म १०९ देवर्षि १०८ देवानुपूर्वी २०५ देवायु १५७, १६२ देवायुष्क २०५ देवावर्णवाद १६० देवी ९८ देशना ३६
दिगाचार्य २१० दिग्द्रव्य १२५ दिग्विरति १८०, १८२ दिग्विरमणव्रत १८८
१७
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________________
२५८
तस्वार्थसूत्र देशपरिक्षेपी ३६, ३९
द्वीप ८८,८९ देशविरत २२६
द्वीपकुमार ९७, ९९, १०० देशविरति ८८, १८०, १८२, १९८ द्वीपसमुद्र ८८ देह ८२, ८५, १०१
द्वीपसिद्ध २४० दोषदर्शन १७०, १७१
द्वेष १७८ दोषनिवृत्ति १६६
द्वयणुक १२१, १२९, १३८, १४६ धुति १०४,१०५
घ द्रव्य ५, ६, १९, ३१, ५९, ११५, धनधान्यप्रमाणातिक्रम १८५, १८६, ११७, १२०, १२४-१२६, १३१,
१८८ १३७, १४२-१४६
धरण ९७, ११० द्रव्यदृष्टि ३८, १३७
धर्म १,११४, ११७, ११८, १२०, द्रव्यनपुसकवेद ७८
१२४, १२६, १५६, १५७, द्रव्यनिक्षेप ७
२०६, २०८, २२४ । द्रव्यपाप ५
धर्मतत्त्व ४ द्रव्यपुण्य ५
धर्मध्यान २२६, २२७ द्रव्यपुरुषवेद ७८
धर्मस्वाख्यातत्व २११ द्रव्यबन्ध ५४
धर्मस्वाख्यातत्वानुप्रेक्षा २१३ द्रव्यभाषा १२५
धर्मावर्णवाद १६० द्रव्यमन ५४, ५५, १२६
धर्मास्तिकाय ११४-११८, १२३-१२५, द्रव्यलिङ्ग २३३
१२७, १४४, १४५, २३८ द्रव्यलेश्या ९५,९७
धर्मोपदेश २२१ द्रव्यवेद ७८
धातकीखण्ड ८८,८९, ९१, १०२ द्रव्य-स्त्रीवेद ७८
धारणा १५, १६, १९, २१ द्रव्यहिंसा १७४
धूमप्रभा ८२, ८४, ८६
ध्यान २१८, २१९, २२२, २३६ द्रव्याधिकरण १५४
ध्यानप्रवाह २२४ द्रव्याथिक ३८, ३९, ४५
ध्यानान्तरिका २२३ द्रव्याथिकनय ३९, ४१ द्रव्यास्तिक २२९
ध्रुव १६, १८
धोव्य १३३-१३६ द्रव्येन्द्रिय ५६, ५७, ६१ द्वादशाङ्गी २५ द्विचरम १०९
नक्षत्र ९९, १००, १०२, ११३ द्वीन्द्रिय ५४-५६, ९४, २०५
नग्नता २१४
व
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________________
अनुक्रमणिका
२५९
नग्नत्व २१३-२१५ नदी ९२ नन्दन ९० नन्दीसूत्र १७, १८ नपुसक ४९,७७, १६१ नपुसकलिङ्ग ७८ नणुसकवेद ७८,१९७,१९९ नमस्कार १०७ नम्रवृत्ति १५८, १६३ नय २, ८, ३५, ३७, ३८ नयदृष्टि ४५ नयवाद ३६-३८, नरक ४९, ८२,८५,८६,१६१,१९९ नरकगति २०५ नरकपाल ८८ नरकभूमि ७३-८८ नरकायु १५७, १६१ नरकावास ८५ नवतत्त्व २०५ नवनवमिका २१० नव्य-मोमासक ४७ नाई ९३ नाग १०१ नागकुमार ९७, ९९,१०० नाग्न्य २१३ नाम ६, ७, ४९, १९५, १९६, २०१ नामकर्म ४९, ६५, १२५, १५७ नामनिक्षेप ७ नारक २७, २८, ६१, ६२, ६७-६९,
७६, ७७, ८२, ८५-८७, १०९,
११२, १५६, १९७ नारकानुपूर्वी २०५
नारकायुष्क २०५ नारद १०१ नाराच २०५, २२२ नाश २२९ निःशल्य १७९ निःशीलत्व १६२ निःश्रेयस २०७ निःश्वास १२५ निःश्वासवायु १२६ नि.सृतावग्रह १७ निकाय ६०, ९५ निक्षेप ६, ७, १५४, १५५ निगोदशरीर १२३ निग्रह २०७ नित्य ११५, ११६,१३१,१३४,१३६,
१३८, १४५ नित्य-अनित्य १३८ नित्य-अनित्य-अवक्तव्य १३८ नित्य-अवक्तव्य १३८ नित्यत्व ११६ निदान १७९ निदान-आर्तध्यान २२५ निदानकरण १८५, १८६, १९० निद्रा १९७ निद्रानिद्रा १९७ निद्रानिद्रावेदनीय १९८ निद्रावेदनीय १९८ निन्दा १५६, १६३ निबन्ध ३१ निरन्तरसिद्ध २४० निरन्वय क्षणिक १३४ निरन्वय परिणाम-प्रवाह ४७
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________________
२६०
तस्वार्थसूत्र
निरन्वय विनाशी १४६ निरभिमानता १५८ निरवद्य ७७ निराकार-उपयोग १४६ निरुपभोग ७०, ७५, ७६ निरोध ५, २०६, २२२ निर्गुण १४५ निम्रन्थ २३१, २३२, २३४ निर्जरा ५, ७५, २०१-२०३, २०६,
२३१,२३६ निर्जरा तत्त्व ६, निर्जरानुप्रेक्षा २११, २१२ निर्देश ८,९ निर्भयता १६८ निर्माण १९६, १९७, २०० निर्माण नाम २०५ निर्वर्तना १५४, १५५ निर्वाण ८८ निर्विकल्पकबोध ५२ निर्वृत्ति ५६-५८ निर्वृत्ति-इन्द्रिय ५७ निर्वेद ४, २११ निर्वतत्व १६२ निवृत्ति १२७, १६६ निशीथ २६ निश्चय-उपयोग ५१ निश्चयदृष्टि १२० निश्चयनय ४५ निश्चयसम्यक्त्व ४ निश्चयहिंसा १७४ निश्रित १७ निश्रितग्राही १६, १७
निषद्या २१३-२१५ निषध ८८,८९ निषधपर्वत ९१ निष्काम २०७ निष्क्रमण १०८ निष्क्रिय ११६, ११७ निष्फलता ८० निसर्ग ४, १५४-१५६ निसर्गक्रिया १५२ निसर्गसम्यग्दर्शन ५ निह्नव १५६, १५८ नीच १९६, १९७ नीचगोत्र २००, २०५ नीचगोत्र कर्म १५८, १६३ नीचैर्गोत्र १५६ नीचैर्वृत्ति १५६ नील ४९, ८६, ८८, ८९, ९७, १४३ नीलपर्वत ९१ नीला १२९ नेत्र १३३ नैगम ३५ नैगमनय ३९,४० नैयायिक ४७, १२९, १४६ नोइन्द्रिय ६० नोकषाय १९७, १९९, २०५ नोकषाय चारित्रमोहनीय १९७ नोकषाय वेदनीय १९७ न्यग्रोधपरिमण्डल २०५ न्याय ( दर्शन ) ५, ११५, १२४ न्यायशास्त्र १३ न्यायावतार २, १३ न्यास ६ न्यासापहार १८५, १८७
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________________
अनुक्रमणिका
२६१
पक्ष १०२, १०३ पक्षी ८७ पङ्कप्रभा ८२, ८४, ८६ पङ्कबहुल ८४ पञ्चेन्द्रिय ५५, ५६, ९४ पञ्चेन्द्रियजाति २०५ पटक १०१ पटुक्रम २२ पठन ९३ पदार्थ ४, १२४ पद्म ४९, १०७ परघात १९६, १९७ परत्व १२६, १२७ परनिन्दा १५८, १६३ परप्रशंसा १५८, १६३ परप्रसन्नता १८३ परमाणु ११५, ११७, ११९, १२१,
१२३, १३१, १३४, १३८, १३९ परमाधार्मिक ८७,८८ परमावधिज्ञान ३२ परलिंग २३९ परविवाहकरण १८५, १८८ परव्यपदेश १८५, १९० पराघात २००, २०५ परार्पण १८३ परिग्रह १०४, १०६, १५१, १६१,
परिणामिनित्यता ४७ परिणामिनित्यत्व १३५ परिणामिनित्यत्ववाद १३५ परिताप १२६ परिदेवन १५६, १५९ परिहार २१९, २२० परिहारविशुद्धि २३९ परिहारविशुद्धि चारित्र २१७, २१८ परीषह २१३-२१७ परीषहजय २०६ परोक्ष १२, १३ परोक्ष-प्रमाण १२, १३ पर्याप्त १९६, १९७, २००, २०५ पर्याय १९, ३१, ४८,४९, ५९, ११५;
११९, १२६, १३०, १३७,
१४२, १४३, १४५ पर्यायदृष्टि ३८, १३७ पर्यायपरिषमन ११७ पर्याय-प्रवाह १४३, १४४ पर्यायाथिक ३८ पर्यायास्तिक २२९ पर्वत ८८, ८९, ९२ पर्वतप्रपात १६२ पल्योपम ९४, १०३, १०६, १११,
परिग्रहवृत्ति १६१ परिणाम ११, ८२, ८५, १२४, १२६,
१४६, १५३ परिणामिनित्य ४७, १३४, १३५
पाठन ९३ पाणिनीय व्याकरण २१३ पाणिमुक्ता ६५ पाण्डुक ९० पात्र १९१ पाप ५,१४९ पापप्रकृति २०४
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________________
२६२
तत्त्वार्थसूत्र
पापानुभाग १५० पारलौकिक अनिष्ट १७७ पारलौकिक दोषदर्शन १७१ पारिग्रहिकी क्रिया १५२ पारिणामिक ४६-४८, ५०, ५१, २३६ पारितापनिकी क्रिया १५२ पारिषद्य ९६ पिण्डप्रकृति १९९ पिपासा २१३, २१४ पिशाच ९७, ९९-१०१ पीत ९५, ९७, १०७, १४३ पीला १२९ पुलिङ्ग ७८ पुवेद १९६ पुण्य ५, १४९ पुण्यप्रकृति २०४ पुण्यानुभाव १५० पुद्गल १९,६४,६५, ६७,७२,११४-
११८,१२०, १२१, १२४,१२५, १२७-१३१, १४३, १४४, १४६,
१५५, १९४ पुद्गलक्षेप १८५, १८६, १८९ पुद्गलद्रव्य ३२ पुद्गलपरावर्त १० पुद्गलपिण्ड १३० पुद्गलस्कन्ध ११९ पुद्गलास्तिकाय ११४, ११५, ११७ पुनरावर्तन २२१ पुनर्जन्म ६३ पुरुष ४९, १०१, १६१ पुरुषवृषभ १०१ पुरुषवेद ७८, १९७, १९९, २०४
पुरुषार्थ १ पुरुषोत्तम १०१ पुलाक २३१, २३२ पुलिन्द ९३ पुष्करवरद्वीप ८९ पुष्कराध ८८, १०२ पुष्करार्धद्वीप ८९, ९१ पुष्करोदधि ८९ पूर्ण ९७ पूर्णभद्र ९७, १०१ पूर्वकोटि १४७ पूर्वजन्म ६२,८८ पूर्वधर २२७, २२८ पूर्वप्रयोग २३७ पूर्वभव ६७ पूर्वरतिविलासस्मरणवर्जन १६९ पूर्वविद् २२७ पूर्वशरीर ६३ पूर्वावधि ९ पृथक्त्व २२७, २२९ पृथक्त्ववितर्क २२८ पृथक्त्ववितर्क सविचार २२८, २२९ पथिवीकाय ५४, ५५, ६० पृथ्वी १२८, १२९ पृथ्वीकाय ९४ पृथ्वीपिण्ड ८३ पोतज ६७, ६९ पौद्गलिक २२, १२५, १२९-१३१,
१३८ पौषधोपवास १८०, १८२ प्रकाश १०३ प्रकीर्णक ९६
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अनुक्रमणिका
२६३
प्रकीर्णतारा ९९, १००, १०२ प्रकृति ११५, १९२, १९४, १९५ 'प्रकृतिबन्ध १९५, १९६ प्रकृतिविभाग १६४ प्रकृतिसंक्रमण २०३ प्रचय ११४ प्रचला १९७ प्रचलाप्रचला १९७ 'प्रचलाप्रचलावेदनीय १९८ प्रचलावेदनीय १९८ प्रच्छना २२१ प्रज्ञा २१३-२१५ प्रणिपात १०७ प्रणीतरस भोजन १६९ प्रणीतरस भोजनवर्जन १६९ प्रतर १३० प्रतिक्रमण २६, २१९, २२० प्रतिघात ७३ प्रतिच्छन्न १०१ प्रतिरूप ९७, १०१ प्रतिरूपक व्यवहार १८५, १८८ प्रतिसेवना २३२, २३३ प्रतिसेवनाकुशील २३२ प्रत्यक्ष १३, ५० प्रत्यक्ष-प्रमाण १२ प्रत्यभिज्ञान १३६ प्रत्याख्यान २६, १९७ प्रत्याख्यानावरणीय १९८ प्रत्युत्थान १०७ प्रत्येक १९६, १९७, २००, २०५ प्रत्येकबुद्ध २६ प्रत्येकबुद्धबोधित २३८, २३९
प्रत्येकबोधित २३९ प्रदीप ११९, १२०, १२२ प्रदेश ६९, ७०, ११७-११९, १२३,
१९२, १९४, १९५ प्रदेशत्व ५०, १४४ प्रदेशप्रचय ११८ प्रदेशबन्ध १६४, १६५, १९५, २०३,
२०४ प्रदेशोदय ४८ प्रधान ११५ प्रभञ्जन ९७ प्रभामण्डल १०२ प्रभाव १०४ प्रमत्तयोग १७२,१७४-१७७ प्रमत्तसंयत २२६ प्रमाण २, ८, १२ प्रमाणमीमांसा १३ प्रमाणलक्षण १२ प्रमाणविभाग १२ प्रमाणाभास १२ प्रमाद १७४, १९२, १९३ प्रमोद १७०, १७१ प्रमोदवृत्ति १७० प्रयोगक्रिया १५१ प्रयोगज १२९ प्रवचन-भक्ति १५६-१५८ प्रवचनमाता २३३ प्रवचनवत्सलत्व १५६ प्रवचनवात्सल्य १५८, १६३ प्रवीचार ९८ प्रवृत्ति १६६ प्रव्राजक २१०
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२६४
तत्त्वार्थसूत्र
प्रशम ४ प्रशस्त २०५ प्रशस्तनिग्रह २०७ प्रशस्तवर्ण २०५ प्रश्नव्याकरण २६ प्रसार ८५ प्राण १२६, १५२ प्राणत ९७, ९९,१००, १०४ प्राणवध १७२, १७५ प्राणातिपात १५३ प्राणातिपातिकी क्रिया १५२ प्रात्ययिकी क्रिया १५२ प्रादोषिकी क्रिया १५२ प्राप्यकारी २३ प्रायश्चित्त २१८-२२० प्रेष्यप्रयोग १८५, १८६, १८९
बहुविध १६, १८, २३ बहुश्रुत १५६,१५७, १६३ बादर ७६, १९६, १९७, २०५ बादरसम्पराय २१४,२१६ बालतप १५६, १५७, १६०, १६२ बालभाव १६२ बाहुल्य ८५ बाह्यतप २१८, २१९ बाह्योपधि-व्युत्सर्ग २२१ बुद्धबोधित २३९ बुधग्रह १०२ बोधिदुर्लभत्वानुप्रेक्षा २१३ बौद्धदर्शन ५, ४७, १२८, १४६ ब्रह्म १३४, १७८, २१० ब्रह्मचर्य १४९, १७६, १७९, २१० ब्रह्मचर्य-अणुव्रत १८५ ब्रह्मचर्य-व्रत १६९ ब्रह्मराक्षस १०१ ब्रह्मलोक ९९, १००, १०४, १०८ ब्रह्मोत्तर ९९
फल १३७
बकुश २३१-२३४ बन्ध १, ५, १२८,१२९, १३८-१४०,
१४२, १५०, १४५, १८७,
१९२-१९४ बन्धतत्त्व ६ बन्धन १६४, १९६, १९७, १९९ बन्धहेतु १५६-१६३, १९२-१९४,
२३५, २३६ बलदेव ९३ बलि ९७, २१० बहु १६, १८, २३ बहु-आरम्भ १५६, १५७ बहु-परिग्रह १५६, १५७
भक्तपानसंयोगाधिकरण १५६, भगवतीसूत्र ८३ भद्रशाल ९० भद्रोत्तर २१० भय १६९, १७२, १९७ भयमोहनीय १६१, १९९ भरत ८८, ९० भरतवर्ष ८९ भव ६७ भवन ११० भवनपति ९५, ९७, ९८, ११३
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--------------------------------------------------------------------------
________________
भवनपति निकाय ९६
भवनवासी ९९
भवनवासी निकाय १००
भवप्रत्यय २७, २८
भवस्थिति ९४
भविष्य ३९
भव्यत्व ४६, ४७, ५०
भाज्य ३२, ७०, ११९, २१३
भाव ५, ६, ८, १०, १३५, १४२
भाव नपुसकवेद ७८
भावना १६८, २११ भावनिक्षेप ७
भाव - परमाणु ११९
भाव - पुरुषवेद ७८
भावबन्ध ५४
भावभाषा १२५
भावमन ५४, ५५, १२५
भावलिङ्ग २३३, २३९
भावलेश्या ९५
भाववेद ७८
भाव-स्त्रीवेद ७८
भावहिंसा १७४
भावाधिकरण १५४, १५५
भावेन्द्रिय ५६, ५७, ६१
अनुक्रमणिका
भाषा १०, १२५, १२६, १२९, २०७ भाषा-आर्य ९३
१४८
भाषा - परिणाम भाषा - वर्गणा १२५, १२९, १४८ भाषासमिति २०८, २१०
भाष्य १३९, १४० भाष्यवृत्ति १५७ भास्वान् १०१
१८
भिक्षुप्रतिमा २१० भीम ९७, १०१ भुजंग १०१
भुजग ९४ भुजपरिसर्प ८७
भूत ३९, ९७, ९९, १००, १५६ भूत - अनुकम्पा १५६, १५७, १६० भूतवादिक १०१
भूतानन्द ९७, १०१
भूतोत्तम १०१
भूमि ८२, ८५
भेद १२८, १३०-१३४
भेद - संघात
भैरव - जप
१३२, १३४
१८३
भोक्ता १३७ भोक्तृत्व ५०
भोग ४६, ४९
भोगभूमि ९३, १५७
भोगशाली १०१
भोगान्तराय २००
भोगोपभोगव्रत १८६, १९०
म
For Private Personal Use Only
२६५
मकर १०१
मङ्गल १०२
मणिभद्र ९७, १०१
मति ११, १३, १४, २४, ३३, ४९,
२३९
मति - अज्ञान ३४, ४९, ५२
मति - अज्ञानावरण ४९
मतिज्ञान १३, १४, २३-२५, ३१,
३२, ३४, ५२, ६०
मतिज्ञानावरण ४९, १२५, १९७
Page #432
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६६
तत्त्वार्थसूत्र
मतिज्ञानावरणीय १४ मत्स्य ८७ मध्यम १४१ मध्यलोक ८३, ८८, ८९ मन १०, १३, १५, १८, २९, ५४,
५९-६१, १२५, १२६, १२९,
१४८, १६२, १६६, १७७ मनःपर्याय ११, १३, २९-३१, ५३,
२३९ मनःपर्यायज्ञान २९, ३२, ३३, ४९,
मनःपर्यायज्ञानावरण ४९, १९८ मनःपर्यायज्ञानी ८९ मनरहित ५४, ५५ मनसहित ५४, ५५ मनुष्य २७, २८, ४९, ६१, ८२, ८७.
८९, १०९, १६१, १९७, १९९,
२०१ मनुष्य-आयु १५७, १६१ मनुष्यगति २०५, २३९ मनुष्यजन्म १०९ मनुष्यजाति ९२ मनुष्ययक्ष १०१ मनुष्यलोक ९२,१००, १०२-१०४ मनुष्यानुपूर्वी २०५ मनुष्यायुष्क २०५ मनोगुप्ति १६८, १६९, २०७ मनोज्ञामनोज्ञ रससमभाव १७० मनोज्ञामनोज्ञ स्पर्शसमभाव १७० मनोदुष्प्रणिधान १८६, १८९ मनोद्रव्य २० - मनोनिसर्ग १५६
मनोयोग ६४, १४८, १४९ मनोरम १०१ मनोवर्गणा १२६ मनोव्यापार २५ मनोहरेन्द्रियावलोकनवर्जन १६९ मन्दक्रम २०, २१ मन्दभाव १५३ मरण १२५, १२६ मरणाशंसा १८५, १८६, १९० मरुत १०१, १०८,१०९ मरुदेव १०१ मरुदेवी २२८ मल २१३-२१५ महाकादम्ब १०१ महाकाय ९७, १०१ महाकाल ९७, १०१ महाघोष ९७ महातमःप्रभा ८२,८४, ८६ महापुरुष ९७, १०१ महाभीम ९७, १०१ महाविदेह १०१ महावीर ४०, १८१ महावेग १०१ महाव्रत १६८, १७०, १८१ महाशुक्र ९९, १००, १०४ महासर्वतोभद्र २१० महासिंहविक्रीडित २१० महास्कन्दिक १०१ महास्कन्ध १२९ महाहिमवत् ८८ महाहिमवान् ८९, ९१ महिमा १०४
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--------------------------------------------------------------------------
________________
अनुक्रमणिका
२६७
महेष्वक्ष १०१ महोरग ९७, ९९-१०१ माघवी ८४ माघव्या ८४ मात्रा २२४ मात्सर्य १५६, १९० माध्यस्थ्य १७० माध्यस्थ्य-भावना १७२ माध्यस्थ्यवृत्ति १७० मान ४९, १५१, १५५, १९७, १९८ मानुष १५६, १९६ मानुषोत्तर ३२,८८,८९, ९२, १०२ माया ४९, १५१, १५५-१५७, १६१, १९७, १९८ मायाक्रिया १५२ मारणान्तिकी १८० मार्ग ५ मार्गप्रभावना १५६, १५८, १६३ मार्दव १५६, २०८,२०९। माषतुष २२८ मास १०२, १०३ माहेन्द्र ९९, १००, १०४, १११ मित्रानुराग १८५, १८६, १९० मिथुन १७७ मिथ्यात्व १९२, १९३, १९७, २०५ मिथ्यात्वक्रिया १५१ मिथ्यात्वमोहनीय ११, ४९, १९८ मिथ्यात्व-सहचरित ११ मिथ्यात्वी ५३ मिथ्यादर्शन ४६,४७, ४९, १७९, १९३ मिथ्यादर्शनक्रिया १५२ मिथ्यादृष्टि ३४
मिथ्यादृष्टिप्रशंसा १८४ मिथ्यादृष्टिसंस्तव १८४ मिथ्योपदेश १८५, १८७ मिश्र ४६, ६७ मिश्रमोहनीय १९८ मीठा १२९ मीमांसा-द्वार ८ मुक्त ४८, ५३, ५४ मुक्त.जीव २३७ मुक्तावली २१० मुखरपिशाच १०१ मुच्यमान ६४, ६५ मुहूर्त १०२, १०३ मूढता १९३ मूर्छा १७८ मूर्त २८, ११९, १२३, १२५ मूर्तत्व ११७, २२९ मूर्ति ११७ मूलगुण १८१ मूलगुण-निर्वर्तना १५५ मूलजाति ( द्रव्य ) १३५ मूलद्रव्य ११५ मूलप्रकृति १९६, २०२ मूलप्रकृतिबन्ध १९६ मूलप्रकृति-भेद १९६ मूलबत १८१ मृदु १२९ मेरु ८८, ९९-१०२, १०४ मेरुकान्त १०१ मेरुपर्वत ८३, ८९-९१ मेरुप्रभ १७१ मैत्री १७०, १७१
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--------------------------------------------------------------------------
________________
२६८
तत्त्वार्थसूत्र
मैत्रीवृत्ति १७० मैथुन १६६, १७७, १७८ मोक्ष १-६, २६, ६३,६४, १०८,१०९,
२३१, २३५, २३६ मोक्षमार्ग १, ७, ९३ मोक्षमार्गप्रभावना १६३ मोक्षहेतु २२४ मोक्षाभिमुख ३५, २३१ मोक्षाभिमुखता २३१ मोह १७८, २३५ मोहनीय १९५, १९६, २०१ मौखर्य १८५, १८६, १८९ म्लेच्छ ८८,८९, ९३
युगलिक-धर्म ९३ युगलिया ९१ योग २, ६६, १४६, १४८,१५१,
१५४, १५५, १५७,१५८, १६५,
१९२-१९४, २०४, २२८ योगदर्शन ५ योगनिग्रह २०७ योगनिरोध २२३, २३४ योगरहित २२८ योगवक्रता १५६, १५७,१६२ योनि ६८, ६९ यौगिक ७
यक्ष ९७, ९९-१०१ यक्षोत्तम १०१ यजन ९३ यतिधर्म २१० यथाख्यात २३९ यथाख्यात चारित्र २१७, २१८ यथोक्तनिमित्त २७ यदृच्छोपलब्धि ३४ यवन ९३ यवमध्य २१० यश १९६, १९७ यश कीर्ति २००, २०५ यशस्वान् १०१ याचना २१३-२१५ याजन ९३ यावत्कथिक २१७ युग १०३ युगलिक ८०
रचना ८९ रति १९७, २०४ रतिप्रिय १०१ रतिमोहनीय १६१, १९९ रतिश्रेष्ठ १०१ रत्नत्रय ३ रत्नप्रभा ८२, ८४-८६, ८८, १००,
१०५ रत्नावली २१० रम्यक ८८, ९० रम्यकवर्ष ८९, ९१ रस १९, ५७,५८,८६, ११६, ११९,
१२८, १२९, १३१, १४३-१४५, १६९, १९६,१९७, १९९, २०५,
२११ रसन १५, ५६ रसना १३३ रसनेन्द्रिय ५७ रस-परित्याग २१८, २१९
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--------------------------------------------------------------------------
________________
अनुक्रमणिका
२६९
रौरव ८५
रस-बन्ध १६४ रहस्याभ्याख्यान १८५, १८७ राक्षस ९७, ९९-१०१ राग १७८ रागद्वेष २, ५४ रागसयुक्त स्त्रीकथा-वर्जन १६९ राजवार्तिक १७, १८, १४९ राजा ४४ रात १०३ रात्रिभोजन १६७ रात्रिभोजन-विरमण १६६, १६७ राम ४०
रिष्टा ८४ स्वमी ८८, ८९ लमी पर्वत ९१ रुद्र २२६ रूक्ष १२९, १४१, १४२ रूक्षत्व १३८
लक्षण ५२ लघु १२९ लता ८८ लब्धि ४७, ४९, ५६-५८, ७१, ९२,
१२५ लब्धित्रस ५५ लव्धी न्द्रिय ५७ लवण ८८,८९ लवणसमुद्र ९१, १०२ लाङ्गलिका ६५ लान्तक ९९, १००, १०४ लाभ ४६, ४९, २०९ लाभान्तराय २०० लाल १२९ लिङ्ग ४, १३, ४३, ४६, ४७, ७७,
७८, २३३, २३९ लिपि ९३ लेश्या ४६, ४७, ४९, ८२, ८५, ९५,
९७, १०३, १०७, २३३ लेश्याविशुद्धि १०४, १०५ लोक ७३, ८३, १२०, २३७ लोकनाली १०५ लोकपाल ९६ लोकरूढि ४०, ४१ लोकस्वभाव ४० लोकाकाश ११९-१२३ लोकानुप्रेक्षा २११, २१३ लोकानुभाव १०७ लोकान्त २३७, २३८ लोकान्तिक १०८
रूप ३१, ५७, ९८, ११६, ११७,
१४३-१४५, १६९, २०९, २११ रूपत्व-स्वभाव १४६ स्पयक्ष १०१ रुपशाली १०१ रूपानुपात १८९ रूपित्व ११७ रूपी ११५, १४७ रैवत १०१ रोम २१३-२१५ रोगचिन्ता वार्तध्यान २२५ रौद्र ८५, २२६ रौद्रध्यान २२४, २२६
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--------------------------------------------------------------------------
________________
२०७०
लोकोत्तर २६
लोच १५९
लोभ ४९, १५१, १५५, १६९, १९७,
१९८
लोभ- प्रत्याख्यान १६८ लौकिक्ज्ञान ३५
किकदृष्टि ३५ लौकिकप्रत्यक्ष १२४
व
वंश ९०
वंशा ८४
वक्र ६३, ६५
वक्रगति ६४
वक्रता १५७
वचन १४८, १६२, १६६, १७७
वचनगुप्ति २०७
वचनदुष्प्रणिधान १८९
वचननिसर्ग १५६
वचनयोग ६४, १४८
वज्र १०१
वज्रमध्य २१०
वज्रर्षभनाराच २०५, २२२
वट १०१
वध १५६, १५९, १६४, १८५, १८७,
२१३-२१५
वनपिशाच १०१
वनस्पतिकाय ५४, ५५, ६०, ९४
वनाविपति १०१
वनाहार १०१
वन्दनक २६
तत्वार्थ सूत्र
वन्दना १०७ वर्गणा १९४
वर्ण ५८, ८६, ११९, १२८, १२९, १३१, १९६, १९७, १९९
वर्तना १२६, १२७, १४५
वर्तमान १०२, १०३ वर्तमानग्राही ३१
वर्धमान २८, ३९, २१०
वर्धमान सकोरा - संपुट १०१
वर्ष ८८, ९०, १०३ वर्षधर ८८, ८९, ९१, ९२
वलय ८८, ८९
वसुदी १८१
वस्तु १३७
वह्नि १०८ वाग्योग १४९
वाचना २२१
वाच्यत्व १३८ वाणिज्य ९३
वाणी १२५
वात ८२
वातकुमार ९७, १००
वामन २०५
वायु १२९
वायुकाय ५४, ५५, ६०, ६१, ९४ वायुकायिक ७६
वालुकाप्रभा ८२, ८४, ८६ वासिष्ठ ९७
वासुदेव ८०, ९३
वास्य ९०
विकल ३०
विकलेन्द्रिय ६८
विकल्प्य गुण १४४
विक्रिया ८२, ८५, ८६
For Private Personal Use Only
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________________
विग्रह ६३, १९९ विग्रहगति ६२, ६४
विघ्न १०१
विघ्नकरण १५६
विचय २२६
विचार २२७, २२८
विचारदशा १९३
विचिकित्सा १८३
विचिकित्साविचार १८४
विजय ९१, ९२, ९९, १००, १०४,
१०९-१११
विज्ञान २०९
वितत १२९
वितर्क २२७ - २२९
विदार- क्रिया १५२
विदिशा १०८
विदेह ९०, ९१, ९३
विदेहक्षेत्र ९१
विदेहमुक्ति २
विदेहवर्ष ८८, ८९
विद्या ९२
अनुक्रमणिका
विद्युत्कुमार ९७, १००
विधान ८, ९
विधि १९०, १९१
विनय २१८, २१९
विनयसम्पन्न १५७
विनयसम्पन्नता १५६, १५७, १६२
विनायक १०१
विपर्यय-ज्ञान ३४
विपाक २६, ७५, १५१, १९८, २०१ विपाकविचय धर्मध्यान २२६, २२७ विपाकानुभव ४८, ८०
विपाकोदय ४८
विपुलमति २९, ३०
विप्रयोग २२५
विभङ्ग ज्ञान ३४, ४९, ५२
विभङ्ग ज्ञानावरण ४९
विमान १०७,
विरत २३०, २३१ विरति १६६
विरुद्धराज्यातिक्रम १८५-१८७
विविक्तशय्यासन २१८, २१९
विवृत ६७, ६८
विवेक २१९, २२० विशकलित १३२
विशुद्ध ७१
विशुद्धि ३० विशुद्धिकृत ३०
विशेष १९
विशेषज्ञान २२
विश्वावसु १०१ विषभक्षण १६२
विषय ३०
विषयकृत ३०
विषयरति १०८ विषयसंरक्षणानुबन्धी २२६
विष्कम्भ ८८, ८९
विसंवाद १५७
विसंवादन १५६, १५७, १६२
विसदृश १३८, १४१, १४२ विसर्ग ११९
विहायोगति १९६, १९७, २०५ वीतराग २२६ वीतरागता २३६
For Private Personal Use Only
२७१
Page #438
--------------------------------------------------------------------------
________________
२७२
तत्त्वार्थसूत्र
वीतरागभाव १
वैससिक १२९ वीर्य ४६, ४९, १४४, १४५, १५३, व्यञ्जन २०, २१, २२७, २२८ २०९
व्यञ्जनावग्रह २०-२४ वीर्यान्तराय १२५, १४८, २०० व्यतिक्रम १८५, १८६ वृक्ष ८८
व्यतिपातिकभद्र १०१ वृत्ति १३९, १४०
व्यन्तर ९७-९९, १०१, ११३ वृत्तिकार १४७, १५७
व्यन्तरनिकाय ९६, १०० वृत्तिपरिसंख्यान २१८, २१९
व्यपरोपण १७२ वेणुदारी ९७
व्यय १३४-१३६ वेणुदेव ९७
व्यवहार २६, ३५, २२० वेद ७७
व्यवहारदृष्टि १२० वेदना ८२, ८५, ८६, १०६, २२५
व्यवहारनय ३९, ४१, ४५ वेदनीय ४९, १६४,१९५-१९७, २०१,
व्यवहारसम्यक्त्व ४
व्यवहारसिद्ध ९० २१४
व्याकरण २१३ वेदमोहनीय ४९ वेदान्त ११७
व्याख्याप्रज्ञप्ति २६
व्याघात ७१ वेदान्तदर्शन ४७
व्यावहारिक निग्रन्थ २३२ वेलम्ब ४७
व्यावहारिक हिंसा १७४ वैक्रिय ६९-७१, ७६, ७७, २०५ ।
व्यास ८९ वैक्रिय-अंगोपाङ्ग २०५।
व्युत्सर्ग २१८-२२१ वैक्रियपुद्गल ६९
व्युपरतक्रियानिवृत्ति २२८ वैक्रियलब्धि ७४, ७५, ८८ वैजयन्त ९९, १००, १०४, १०९
व्रत १५७, १५९, १६२, १६६-१७० वैधर्म्य ११५, ११७
व्रतानतिचार १५६, १६२ वैभाविक ४८
व्रती १७९, १८० वैमानिक ९५, ९७, ९९, १००, १०३
व्रत्यनुकम्पा १५६, १५७, १६० वैमानिकनिकाय ९६ वैयावृत्त्य १५७, २१८-२२०
शक ९३ वैयावृत्त्यकरण १५६, १६३
शक्त्यन्तर १४५ वैराग्य १७०, १७२
शक्र ९७ वैशेषिकदर्शन ४७, ११५, ११७, १२४, शङ्का १८३ १२८, १२९
शङ्कातिचार १८४
Page #439
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनुक्रमणिका
२७३
शुक्र ९९, १०२ शुक्ल ४९, १०७, २२४ शुक्लध्यान २२७, २२८ शुद्धध्यान १८३ शुभ ७१, १५६, १६२, १९६, १९७,
२००, २०५
शतार ९९ शनैश्वर १०२ शबर ९३ शब्द ३५, ५७, ५८, ७५, ८६, ९८,
१२८, १२९, १६९, २११, २२९ शब्दनय ४२, ४३, ४५ शब्द-पुद्गल २२ शब्दानुपात १८९ शब्दोल्लेख २५, ३२ शयन १६८ शय्या २१३-२१५ शरीर १०, ६९-७१, ७४,७५, १०४,
१०६, १२५, १९६, १९७, १९९ शरीर नामकर्म ५० शरीर-बकुश २३३ शरीर-संस्कार २११ शर्करा ८२ शर्कराप्रभा ८२, ८४, ८६, १०५ शल्य १७९ शहर ८८ शाश्वत १३४ शास्त्र १६३ शास्त्रश्रुत ३२ शिक्षाव्रत १८१, १८२ शिखरी ८९ शिखरी पर्वत ९१ शिल्प-आर्य ९३ शीत ६७, ६८,८६,१२९, २१३, २१४ शोतोष्ण ६७, ६८, ८६ शील १५७, १६२ शीलवतानतिचार १६२
शुभआयु २०४ शुभगोत्र २०४ शुभध्यान १८३ शुभनाम २०४ शुभनामकर्म १५६, १५७ शुभयोग १४९, १५० शुषिर १२९ शैक्ष २२१ शैला ८४ शैलेशी-अवस्था २ शैलेशीकरण २२३ शोक १५६, १५९, १९७ शोकमोहनीय १६१, १९९ शोचन ८५ शौच १५६, १५७, १६०, २१० श्रद्धान ४ श्रावक १६०, १८१, १८६, २३०,
२३१ श्रावकधर्म १८७ श्राविका १६० श्रुत ११, २४, २६, ३३, ३७, ४९,
५८, ५९, १५६, १५७, २०९,
२३२, २३९ श्रुत-अज्ञान ३४, ४९, ५२ श्रुत-अज्ञानावरण ४९ श्रुत-अवर्णवाद १६०
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--------------------------------------------------------------------------
________________
२७४
तत्त्वार्थसूत्र
श्रुतग्रन्थ २५
संज्ञी ६० श्रुतज्ञान २४, २५, ३१, ३२, ३४, ५२, संज्वलन १९७, १९८ ६०, २२१
संदिग्ध १७ श्रुतज्ञानावरण २४, ४९, १२५, १९७ संदिग्धग्राही १६ श्रुतसमुद्देष्टा २१०
संपराय २१६ श्रुतोद्देष्टा २१०
संप्रधारण संज्ञा ६२ श्रेणि ६२
संप्रयोग २२५ श्रोत्र १५, ५६
संमूर्छन ६७, ७६ श्रोत्रेन्द्रिय ५७
संमूर्छन-जन्म ६७, ६९, ७१ श्लेष १३८
संमूछिम ६१,७७, ९४, १२३ श्वासोच्छ्वास १०, २००
संयम १६०,२१०,२३२ श्वेतभद्र १०१
संयमासंयम ४९, १५६, १५७, १६०, श्वेताम्बर १३९, २१४
संयोग १५४,१५६ स
संरक्षण २२६ संकल्प ९८
संरम्भ १५४,१५५ संकेत २५
संलेखना १८०-१८३ संक्रमण २०२
संवर ५,१५३,२०६, २०७, २३६ संक्रान्ति २२७, २२८
संवर-तत्त्व ६ संक्लिष्ट ८२
संवरानुप्रेक्षा २११, २१२ संख्या ८, ९, २०, ४३, २४०
संवृत ६७, ६८ संख्यात ११८
संवृत-विवृत ६७,६८ संख्याताणुक १२१
संवेग ४,१५६,१५७,१६३,१७०,१७२ संख्येय १०३, ११८
संसार १, ३, २११ संग्रह ३५, ३९
संसारानुप्रेक्षा २११ संग्रहनय ४०
संसाराभिमुख ३५ संघ १५६, १५७, २३१
संसारी ४८, ५३, ५४, ६२, ६६ संघ-अवर्णवाद १६०
संस्तारोपक्रमण १८५, १८६ संघर्ष १२९
संस्थान ८६, १२८, १३०, १९६, संघसाधुसमाधिकरण १५६, १६३ ।।
१९७, १९९ सघात १३१-१३४,१९६, १९७, १९९ संस्थानविचय धर्मध्यान २२६, २२७ संघातभेद १३१
सहनन १९६, १९७, १९९, २०५ संज्ञा १३,१४, ६१
संहरण ९२
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--------------------------------------------------------------------------
________________
सहरण सिद्ध २४० संहार ११९
सकषाय १५०
सकाम २०७
सचित्त ६७, ६८, १८५ सचित्त आहार १८५, १९० सचित्तनिक्षेप १८५, १९० सचित्त पिधान १८५, १९० सचित्तसंमिश्र आहार १८५, १९० सचित्तसम्बद्ध आहार १८५, १९० सचित्ताचित्त ६७, ६८
सत् ८, ९, १३४-१३७
सत्कार - पुरस्कार २१३-२१५
सत्त्व ८२, १३८
सत्पुरुष ९७, १०१
सत्य २, १४९, १७७, २१०
सत्य- अणुव्रत १८५
सत्यव्रत १६८
सदृश १३८-१४२
सद्गुणाच्छादन १५६, १५८, १६३
सद्वेद्य १५६, १९६
सनत्कुमार ९७
सप्तभंगी १३८
सप्तसप्तमिका २१०
सफेद १२९
सम १४१, १४२
समचतुरस्र संस्थान २०५
समनस्क ५४, ५५, ६०, ६२
समनोज्ञ २२१
समन्तभद्र १८१
समन्तानुपालन क्रिया १५२ समन्वाहार २२५
अनुक्रमणिका
समभाव ३५, १८६
समभिरूढ़ ३६
समभिरूढ़नय ४२, ४३
समय ६३, ६५, १०३, १४४, १४५
समवाय २६
समादानक्रिया १५१
समाधि १५७
समारम्भ १५४, १५५
समिति २०६ - २०८ समुच्छिन्नक्रियानिवृत्ति २२३, २३०
२७५
समुदय ५
समुद्र ८८-९० समुद्रसिद्ध २४०
सम्यक् चारित्र १-३
सम्यक्त्व ५, ११, ४६, ४९, ५३, ८८, १४५, १८३, १९७ सम्यक्त्वक्रिया १५१, १५३ सम्यक्त्वमिथ्यात्व १९७
सम्यक्त्वमोहनीय १९८, २०४ सम्यक्त्वसहचरित ११
सम्यक्त्वी ५३
सम्यग्ज्ञान १-३, ११, १२
सम्यग्दर्शन १-४, ७-९, १८३, १९३
सम्यग्दृष्टि ३४, १०७, २३०, २३१
सम्यग्भाषा २०७
सरागसंयम १५६, १५७, १६०, १६२
सरोवर ८८
सर्वज्ञ २२४, २२६
सर्वज्ञत्व २३५
सर्वतोभद्र १०१, २१०
सर्वदशित्व २३५
सर्वपरिक्षेपी ३६, ३९
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२७६
तत्त्वार्थसूत्र
साध्वी १६० सानत्कुमार ९७,९९,१००,१०४,११०,
सर्वार्थसिद्ध ९९, १००, १०४, १०७,
१०९-१११ सर्वार्थसिद्धि ६९, १३९, १४०, १४७ सविकल्पक बोध ५२ सविग्रह ६२ सवितर्क २२७, २२८ सहजचेतना २३५ सहसानिक्षेप १५५ सहस्रार ९९, १००, १०४, २३३ सांख्य ५, ४७, ११५, ११७, १२४ सांख्यदर्शन १३५ सांपरायिक १५०,१५१, १५६, १६३ सांप्रत ३६ साकार-उपयोग ५२, ५३, १४६ साकारमन्त्रभेद १८५, १८७ सागरोपम ८२, ८७, १०३, १०६,
११०-११२ साता १०७ साता-वेदना १०७ सातावेदनीय १२६,१५७,१६०,१९८,
२०४,२०५ सादि २०५ सादि-अनन्त ९ सादि-सान्त १४२ साधक-अवस्था ३ साधन ८,९ सार्मिक १६८ सार्मिक-अवग्रहयाचन १६९ साधर्म्य ११५, ११६ साधारण १९६, १९७, २००,२०५ साधारणशरीर १२३ साधु १५७,१६०,२२१
सान्तर-सिद्ध २४० सामानिक ९६, १०८ सामान्य १९ सामान्यग्राही ३० सामान्य ज्ञान २२ सामायिक २६, १६३,१८० १८२,
२३९ सामायिक चारित्र २१७ सारस्वत १०८ सावयव ७५ सिंह ८७, १०१ सिंहविक्रीडित २१० सिद्ध २३८ सिद्ध-अवस्था ३ सिद्धक्षेत्र २३८ सिद्धगति २३९ सिद्धत्व २३६ सिद्धशिला १०७ सिद्धहेमव्याकरण २१३ सीमान्तक ८५ सुख १, ३, १०४, १०५, १२५ सुखवेदना १०७ सुखवेदनीय १९७ सुखानुबन्ध १८५, १९० सुखाभास ३,४ सुगन्ध १२९ सुघोष ९७ सुपर्णकुमार ९७, ९९, १०० सुभग १९६, १९७, २००, २०५ सुभद्र १०१
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सुमनोभद्र १०१ सुमेरु पर्वत ९१ सुरूप १०१
सुलस १०१
सुस्वर १९६, १९७, २००, २०५
सूक्ष्म ६९, ७१, १३१, १९६, १९७, २०५
सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती २२३, २२८, २३० सूक्ष्मत्व १२८ - १३० सूक्ष्मत्वपरिणामदशा १२३
सूक्ष्म परमाणु ५४ सूक्ष्म शरीर ६३ सूक्ष्मसम्पराय २०१,
२१६, २१७, २३९
सूक्ष्मसम्पराय चारित्र २१८
सूत्रकार १४४, १४५
सूत्रकृत २६
चनुक्रमणिका
२१३, २१४,
सूत्रकृताङ्ग २५
सूर्य ९७, ९९, १००, १०२, १०३, ११३ सूर्यमण्डल १०२
सेन्द्रिय ७५
सेवक ७, ४४
सौमनस ९०
स्कन्दिक १०१
सेवा १५३
सेवार्त २०५
सोपभोग ७६
सौक्ष्म्य १२८
सौधर्म ९७, ९९, १००, १०४, ११०,
१११, १५७, २३३
स्कन्ध ७२, ११८-१२१, १२३, १२५,
१२६, १३१-१३३, १३८
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स्कन्धशाली १०१ स्तनितकुमार ९७, १००
स्तुति १०७
स्तेनप्रयोग १८५, १८७
स्तेनाहृतादान १८५, १८७ स्तेय १७७
स्तेयानुबन्धी २२६
स्त्यानगृद्धि १९६ - १९८
स्त्री ४९, ८७, १६१, २१३-२१५ स्त्री- कथा - वर्जन १६८
स्त्री पशु षण्ढसेवितशयनासनवर्जन १६९ स्त्री-मनोहरागावलोकनवर्जन १६९ स्त्रीलिङ्ग ७८
स्त्रीवेद ७८, १६१, १९७, १९९
स्थलचर ९४
स्थान २६, २३४
२७७
स्थानाङ्ग १०९
स्थापना ६ स्थापनानिक्षेप ७
स्थावर ५४, १९६, १९७, १९९, २०५
स्थावरत्व ५४
स्थावरदशक १९९
स्थावर नामकर्म ५५
स्थिति ८, ९, ८७, ८९, ९४, १०४,
१०९, १२३-१२५, १९२, १९४, १९५, २२९
स्थितिक्षेत्र १२० स्थितिबन्ध १९५
स्थिर ११५, १९६, १९७, २००, २०५
स्थूल ७१
स्थूलत्व १२८-१३०, १३३
स्थूलभाव १२३
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________________ 278 तत्त्वार्थसूत्र स्थौल्य 128 स्नातक 231, 232, 234 स्निग्ध 129, 139, 141, 143 स्निग्धत्व 138 स्पर्श 19, 56-58,86, 98, 116, 128,129, 131, 143-145, 169, 196,197, 199, 205, 211 स्पर्शन 8, 10, 15, 23, 56, 133, हरि 90, 93. 97 हरिभद्र 101 हरिवर्ष 89 हरिसह 97 हस्ति 101 स्पर्शनक्रिया 152 स्पर्शन-क्षेत्र 10 स्पर्शेन्द्रिय 57 स्मरण 25, 126 स्मृति 13, 14 स्मृत्यनुपस्थापन 185, 186, 189, हानोपाय 5 हास्य 169, 197, 204 हास्यप्रत्याख्यान 168 हास्यमोहनीय 161, 199 हाहा 101 हिंसा 75, 149, 151, 153, 155, 162, 166,170,172,173, स्मृत्यन्तर्धान 185, 186, 188 स्वगुणाच्छादन 163 स्वप्रतिष्ठ 120 स्वभाव 73, 128, 156, 157 स्वयम्भूरमण 90 स्व-रूप 137 स्वर्ग 96 स्वलिङ्ग 239 स्वसंवेदन 50 स्वहस्तक्रिया 152 स्वाध्याय 218, 219, 221 स्वानुभूत 32 स्वामिकृत 30 स्वामित्व 8, 9 स्वामी 30, 73 हिसानुबन्धो 226 हिंसाविरति 162 हिंसाविरमण 168 हिन्दुस्तान 40 हिमवान् 89, 91 हिरण्यसुवर्णप्रमाणातिक्रम 185, 186, 188 होनाधिकमानोन्मान 185, 187 हीयमान 28 हुड 205 हूहू 101 हृदयंगम 101 हेय 5 हेयहेतु 5 हैमवत 90 हैमवतवर्ष 89 हैरण्यवत 90 हैरण्यवतवर्ष 89