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तत्त्वार्थ सूत्र
[ ९.४९
सागरोपम की स्थिति में होता है । कषायकुशील और निर्ग्रन्थ का उत्कृष्ट उपपात सर्वार्थसिद्ध विमान में तैंतीस सागरोपम की स्थिति में होता है । स्नातक का निर्वाण ही होता है ।
८. स्थान ( संयम के स्थान - प्रकार )- - कषाय तथा योग का निग्रह ही संयम है । संयम सभी का सर्वदा समान नही होता, कषाय और योग के निग्रह के तारतम्य के अनुसार ही संयम में भी तरतमता होती है । जो निग्रह कम-से-कम संयमकोटि में गिना जाता है वहाँ से संपूर्ण निग्रहरूप संयम तक निग्रह की तीव्रतामन्दता को विविधता के कारण संयम के असंख्यात प्रकार है । वे सभी प्रकार ( भेद ) संयमस्थान कहलाते है । इनमे जहाँ तक कषाय का लेशमात्र भी सम्बन्ध हो वहाँ तक के संयमस्थान वषायनिमित्तक और उसके बाद के योगनिमित्तक है । योग का सर्वथा निरोध हो जाने पर प्राप्त स्थिति अन्तिम सयमस्थान है । जैसेजैसे पूर्व - पूर्ववर्ती संयमस्थान होगा वैसे-वैसे काषायिक परिणति विशेष होगी और जैसे-जैसे ऊँचा सयमस्थान होगा वैसे-वैसे काषायिक भाव भी कम होगा, इसीलिए ऊपर-ऊपर के संयमस्थानो को अधिक-से-अधिक विशुद्धिवाले स्थान जानना चाहिए । योगनिमित्तक संयमस्थानों में निष्कषायत्वरूप विशुद्धि समान होने पर भी जैसेजैसे योगनिरोध न्यूनाधिक होता है वैसे-वैसे स्थिरता भी न्यूनाधिक होती है, योगनिरोध की विविधता के कारण स्थिरता भी विविध प्रकार की होती है अर्थात् केवल योगनिमित्तक संयमस्थान भी असंख्यात प्रकार के होते है । अन्तिम संयमस्थान तो एक ही हो सकता है जिसमे परम प्रकृष्ट विशुद्धि और परम प्रकृष्ट स्थिरता होती है ।
उक्त प्रकार के संयमस्थानो मे से सबसे जघन्य स्थान पुलाक और कषायकुशील के हैं । ये दोनों असंख्यात संयमस्थानों तक साथ ही बढते जाते है । उसके बाद पुलाक रुक जाता है, परन्तु कषायकुशील अकेला ही बाद में भी असंख्यात स्थानों तक चढता जाता है । तत्पश्चात् असंख्यात संयमस्थानों तक कषायकुशील, प्रतिसेवनाकुशील और बकुश एक साथ बढते जाते है । उसके बाद बकुश रुक जाता है, प्रतिसेवनाकुशील भी उसके असंख्यात स्थानो तक चढकर रुक जाता है । तत्पश्चात् असंख्यात स्थानो तक चढकर कषायकुशील रुक जाता है । तदनन्तर अकषाय अर्थात् केवल योगनिमित्तक संयमस्थान आते है, जिन्हे निर्ग्रन्थ प्राप्त करता है और वह भी उसी प्रकार असंख्यात स्थानो तक जाकर रुक जाता है । सबके बाद एक मात्र अन्तिम, सर्वोपरि, विशुद्ध और स्थिर संयम आता है, जिसका सेवन करके स्नातक निर्वाण प्राप्त करता है । उक्त स्थान असंख्यात होने पर भी उनमें से प्रत्येक में पूर्व की अपेक्षा उत्तरस्थान की शुद्धि अनन्तानन्तगुनी मानी गई है । ४९ ।
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