Book Title: Tattvarthasutra Hindi
Author(s): Umaswati, Umaswami, Sukhlal Sanghavi
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 403
________________ १०. ५-६ ] मुक्त जीव का ऊर्ध्वगमन व सिध्यमान गति के हेतु २३७ कारण कहा गया है । यद्यपि सूत्र मे क्षायिकवीर्य, क्षायिकचारित्र और क्षायिकसुख आदि भावों का वर्जन क्षायिकसम्यक्त्व आदि की तरह नही किया गया है तो भी सिद्धत्व के अर्थ मे इन सभी भावों का समावेश कर लेने से इन भावों का वर्जन भी गृहीत है। ४ । मुक्त जीव का मोक्ष के बाद तुरन्त ऊर्ध्वगमन तदनन्तरमूवं गच्छत्यालोकान्तात् । ५। सम्पूर्ण कर्मो का क्षय होने के पश्चात् मुक्त जीव तुरन्त लोक के अन्त तक ऊपर जाता है। सम्पूर्ण कर्म और तदाश्रित औपशमिक आदि भावों का नाश होते ही तुरन्त एक साथ एक समय में तीन कार्य होते है-१. शरीर का वियोग, २. सिध्यमान गति और ३. लोकान्त-प्राप्ति । ५ । सिध्यमान गति के हेतु पूर्वप्रयोगादसङ्गत्वाबन्धच्छेदात्तथागतिपरिणामाच्च तद्गतिः।६। पूर्व प्रयोग से, संग के अभाव से, बन्धन के टूटने से और वैसी गति के परिणाम से मुक्त जीव ऊपर जाता है । ___ जीव कर्मो से छूटते हो तत्काल गति करता है, स्थिर नहीं रहता । गति ऊँची और लोक के अन्त तक ही होती है, उससे ऊपर नही; यह शास्त्रीय मान्यता है । यहाँ प्रश्न उठता है कि कर्म या शरीर आदि पौलिक पदार्थो की सहायता के बिना अमूर्त जीव गति कैसे करता है ? ऊर्ध्वगति ही क्यों, अधोगति या तिरछी गति क्यो नही करता ? इन प्रश्नों के उत्तर यहाँ दिये गए है। जीवद्रव्य का स्वभाव पुद्गल द्रव्य की भांति गतिशील है । अन्तर इतना ही है कि पुद्गल स्वभावतः अधोगतिशील है और जीव ऊर्ध्वगतिशील। जीव अन्य प्रतिबन्धक द्रव्य के संग या बंधन के कारण ही गति नही करता अथवा नीची या तिरछी दिशा में गति करता है। ऐसा द्रव्य कर्म है। कर्मसंग छूटने पर और उसके बन्धन टूटने पर कोई प्रतिबन्धक तो रहता नही, अतः मुक्त जीव को अपने स्वभावानुसार ऊर्ध्वगति करने का अवसर मिलता है । यहाँ पूर्वप्रयोग निमित्त बनता है अर्थात् उसके निमित्त से मुक्त जीव ऊर्ध्वगति करता है। पूर्वप्रयोग का अर्थ है पूर्वबद्ध कर्म के छूट जाने के बाद भी उससे प्राप्त वेग (आवेश )। जैसे कुम्हार का चाक डंडे और हाथ के हटा लेने के बाद भी पहले से प्राप्त वेग के कारण घूमता रहता है वैसे ही कर्ममुक्त जीव भी पूर्व-कर्म से प्राप्त आवेश के कारण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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