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तत्त्वार्थ सूत्र
[ १०.७
स्वभावानुसार ऊर्ध्वगति ही करता है । जीव की ऊर्ध्वगति लोक के अन्त से ऊपर नही होती, क्योकि लोकान्त के आगे धर्मास्तिकाय का अभाव है । प्रतिबन्धक कर्म द्रव्य के हट जाने से जीव की ऊर्ध्वगति के लिए तुम्बे और एरंड के बीज का उदाहरण दिया गया है । अनेक लेपो से युक्त तुंबा पानी मे पडा रहता है, परन्तु लेप के हटते ही वह स्वभावत पानी के ऊपर तैरने लगता है । कोश ( फली ) मे रहा हुआ एरंड-बीज फली के टूटते ही छिटककर उपर उठता है । इसी प्रकार कर्म-बन्धन के टूटते ही जीव भी उध्वंगामी होता है । ६ ।
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सिद्धो की विशेषता द्योतक बारह बाते
क्षेत्र कालगति लिङ्गतीर्थचारित्रप्रत्येकबुद्धबोधित ज्ञानावगाहनान्तरसंख्याल्पबहुत्वतः साध्याः । ७ ।
क्षेत्र, काल, गति, लिङ्ग, तीर्थ, चारित्र, प्रत्येकबुद्धबोधित, ज्ञान, अवगाहना, अन्तर, सख्या और अल्प - बहुत्व - इन बारह बातों द्वारा सिद्धों की विशेषताओं का विचार किया जाता है ।
सिद्ध जीवों के स्वरूप को विशेष रूप से जानने के लिए बारह बातो का निर्देश किया गया है । यहाँ प्रत्येक बात के आधार पर सिद्धों के स्वरूप का विचार अभिप्रेत है । यद्यपि सभी सिद्ध जीवो मे गति, लिङ्ग आदि सांसारिक भावों के न रहने से कोई विशेष भेद नही रहता तथापि भूतकाल की दृष्टि से उनमे भी भेद की कल्पना और विचार किया जा सकता है । यहाँ क्षेत्र आदि जिन बारह बातों से विचार किया गया है उनमे से प्रत्येक के विषय मे यथासम्भव भूत और वर्तमान दृष्टि लगा लेनी चाहिए ।
१. क्षेत्र ( स्थान ) - वर्तमान भाव की दृष्टि से सभी मुक्त जीवों के सिद्ध होने का स्थान एक ही सिद्धक्षेत्र अर्थात् आत्मप्रदेश या आकाशप्रदेश है । भूत भाव की दृष्टि से इनके सिद्ध होने का स्थान एक नही है, क्योकि जन्म की दृष्टि से पन्द्रह मे से भिन्न-भिन्न कर्मभूमियो से और संहरण की दृष्टि से समग्र मनुष्यक्षेत्र से सिद्ध हो सकते है ।
सिद्ध होते है,
२. काल ( अवसरणी आदि लौकिक काल ) - वर्तमान दृष्टि से सिद्ध होने का कोई लौकिक कालचक्र नही है, क्योकि एक ही समय मे सिद्ध होते है । भूत दृष्टि से जन्म की अपेक्षा से अवसर्पिणी, उत्सर्पिणी तथा अनवसर्पिणी, अनुत्सर्पिणी मे जन्मे जीव सिद्ध होते है । इसी प्रकार संहरण की अपेक्षा से उक्त सभी कालो में सिद्ध होते है ।
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