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तत्त्वार्थसूत्र
[ ९. ३९-४६ पृथक्त्ववितर्क, एकत्ववितर्क, सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती और व्युपरतक्रियानिवृत्ति--ये चार शुक्लध्यान है।
वह ( शुक्लध्यान ) अनुक्रम से तीन योमवाले, किसी एक योगवाले, काययोगवाले और योगरहित को होता है।
पहले के दो एकाश्रित एवं सवितर्क होते हैं । इनमें से पहला सविचार है, दूसरा अविचार है ! वितर्क अर्थात् श्रुत। विचार अर्थात् अर्थ, व्यञ्जन एव योग को संक्रान्ति ।
यहाँ शुक्लध्यान से सम्बन्धित स्वामी, भेद और स्वरूप ये तीन बातें वर्णित है।
स्वामी स्वामी-विषयक कथन यहाँ दो प्रकार से किया गया है-पहला गुणस्थान की दृष्टि से और दूसरा योग की दृष्टि से ।
गुणस्थान की दृष्टि से शुक्लध्यान के चार भेदों में से पहले दो भेदों के स्वामी ग्यारहवें और बारहवे गुणस्थानवाले ही होते है जो कि पूर्वधर भी हों। 'पूर्वधर' विशेषण से सामान्यतः यह अभिप्राय है कि जो पूर्वधर न हो पर ग्यारह आदि अङ्गों का धारक हो उसके ग्यारहवे-बारहवे गुणस्थान में शुक्लध्यान न होकर धर्मध्यान ही होगा। इस सामान्य विधान का एक अपवाद यह है कि जो पूर्वधर न हों उन माषतुष, मरुदेवी आदि जैसी आत्माओं मे भी शुक्लध्यान सम्भव है। शुक्लध्यान के शेष दो भेदों के स्वामी केवली अर्थात् तेरहवें और चौदहवें गुणस्थानवाले ही है।
योग की दृष्टि से तीन योगवाला ही चार मे से पहले शुक्लध्यान का स्वामी होता है । मन, वचन और काय मे से किसी भी एक योगवाला शुक्लध्यान के दूसरे भेद का स्वामी होता है। इस ध्यान के तीसरे भेद का स्वामी केवल काययोगवाला और चौथे भेद का स्वामी एकमात्र अयोगी होता है।
भेद-शुक्लध्यान के भी अन्य ध्यानों की भांति चार भेद है, जो इसके चार पाये भी कहलाते है। उनके नाम इस प्रकार हैं-१ पृथक्त्ववितर्कसविचार, २ एकत्ववितर्क-निविचार, ३. सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती, ४. व्युपरतक्रियानिवृत्ति ( समुच्छिन्नक्रियानिवृत्ति )।
पहले दो शुक्लध्यानों का आश्रय एक है अर्थात् उन दोनों का आरम्भ पूर्वज्ञानधारी आत्मा द्वारा होता है। इसीलिए ये दोनों ध्यान वितर्क-श्रुतज्ञान
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