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तत्त्वार्थ सूत्र
[ ९. ३६-३८
प्रथम के चार तथा देशविरत व प्रमत्तसंयत इन छः गुणस्थानों में उक्त आर्तध्यान सम्भव है | इनमे भी प्रमत्तसंयत गुणस्थान मे निदान को छोड़कर तीन ही आर्तध्यान सम्भव है । ३१-३५ ।
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रौद्रध्यान
हिंसाऽनृतस्तेयविषय संरक्षणेभ्यो रौद्रमविरतदेशविरतयोः । ३६ ।
हिंसा, असत्य, चोरी और विषयरक्षण के लिए सतत चिन्ता करना रोद्रध्यान है, जो अविरत और देशविरत में सम्भव है ।
प्रस्तुत सूत्र मे रौद्रध्यान के भेद और उसके अधिकारियों का वर्णन है । रौद्रध्यान के चार भेद उसके कारणों के आधार पर आर्तध्यान की भाँति ही बतलाए गए है । जिसका चित्त क्रूर व कठोर होता है वह रुद्र कहलाता है और ऐसी आत्मा द्वारा किया जानेवाला ध्यान रौद्र है । हिसा करने, झूठ बोलने, चोरी करने और प्राप्त विषयों के संरक्षण की वृत्ति से क्रूरता व कठोरता उत्पन्न होती है । इन्ही के कारण जो सतत चिन्ता होती है वह क्रमशः हिसानुबन्धी, अनृतानुबन्धी, स्तेयानुबन्धी और विषयसंरक्षणानुबन्धी रौद्रध्यान है । इस ध्यान के स्वामी या अधिकारी पहले पाँच गुणस्थानवाले होते है । ३६ ।
धर्मध्यान
आज्ञाऽपायविपाकसंस्थानविचयाय धर्ममप्रमत्तसंयतस्य । ३७ । उपशान्तक्षीणकषाययोश्च । ३८ ।
आज्ञा, अपाय, विपाक और संस्थान की विचारणा के लिए मनोवृत्ति को एकाग्र करना धर्मध्यान है, जो अप्रमत्तसयत में सम्भव है ।
वह धर्मध्यान उपशान्तमोह और क्षीणमोह गुणस्थानों में भी सम्भव है ।
यहाँ धर्मध्यान के भेद और उसके अधिकारियों का निर्देश है ।
योग – १. वीतराग तथा सर्वज्ञ पुरुष की आज्ञा क्या है और वह कैसी होनी चाहिए ? इसकी परीक्षा करके वैसी आज्ञा का पता लगाने के लिए मनोयोग लगाना आज्ञाविचय- धर्मध्यान है । २. दोषो के स्वरूप और उनसे छुटकारा पाने के विचारार्थ मनोयोग लगाना अपायविचय - धर्मध्यान है । ३. अनुभव मे आनेवाले विपाकों में से कौन-कौन-सा विपाक किस-किस कर्म का आभारी है तथा अमुक कर्म का अमुक विपाक सम्भव है इसके विचारार्थ मनोयोग लगाना विपाकविचय
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