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तत्त्वार्थसूत्र
[९. २९-३० कुछ लोग मात्रा से काल की गणना करने को ही ध्यान मानते है । परन्तु जैनपरम्परा मे यह कथन स्वीकार नहीं किया गया है, क्योकि यदि सम्पूर्णतया श्वासउच्छवास क्रिया रोक दी जाय तो शरीर ही नहीं टिकेगा। इसलिए मन्द या मन्दतम श्वास का सचार तो ध्यानावस्था मे रहता ही है । इसी प्रकार जब कोई मात्रा से काल को गिनेगा तब तो गिनती के काम मे अनेक क्रियाएँ करने मे लग जाने से उसके मन को एकान के स्थान पर व्यग्र ही मानना पडेगा । यही कारण है कि दिवस, मास और उससे अधिक समय तक ध्यान के टिकने को लोकमान्यता भी जैनपरम्परा को ग्राह्य नही है। इसका कारण यह है कि लम्बे समय तक ध्यान साधने से इन्द्रियों का उपघात सम्भव है, अत. ध्यान को अन्तर्मुहर्त से अधिक काल तक बढाना कठिन है । 'एक दिवस, एक अहोरात्र अथवा उससे अधिक समय तक ध्यान किया' -इस कथन का अभिप्राय इतना ही है कि उतने समय तक ध्यान का प्रवाह चलता रहा । किसी भी एक आलंबन का एक बार ध्यान करके पुनः उसी आलम्बन का कुछ रूपान्तर से या दूसरे ही आलम्बन का ध्यान किया जाता है और पुनः इसी प्रकार आगे भी ध्यान किया जाता है तो वह ध्यानप्रवाह बढ जाता है । यह अन्तर्मुहूर्त का कालपरिमाण छद्मस्थ के ध्यान का है । सर्वज्ञ के ध्यान का कालपरिमाण तो अधिक भी हो सकता है, क्योंकि सर्वज्ञ मन, वचन और शरीर के प्रवृत्तिविषयक सुदृढ प्रयत्न को अधिक समय तक भी बढा सकता है।
जिस आलम्बन पर ध्यान चलता है वह आलम्बन सम्पूर्ण द्रव्यरूप न होकर उसका एकदेश ( एक पर्याय ) होता है, क्योकि द्रव्य का चिन्तन उसके किसी-नकिसी पर्याय द्वारा ही सम्भव होता है । २७-२८ ।
ध्यान के भेद और उनका फल आतरौद्रधर्मशुक्लानि । २९ ।
परे मोक्षहेतू । ३० । आर्त, रौद्र, धर्म और शुक्ल-ये ध्यान के चार प्रकार हैं। अन्त के दो ध्यान मोक्ष के कारण है।
उक्त चार मे से आर्त और रौद्र ये दो ध्यान संसार के कारण होने से दुनि है और हेय (त्याज्य ) है । धर्म और शुक्ल ये दो ध्यान मोक्ष के कारण होने से ध्यान है और उपादेय ( ग्राह्य ) है । २९-३० ।
१. 'अ, ३' आदि एक-एक ह्रस्व स्वर के उच्चारण में जितना समय लगता है उसे एक मात्रा कहते है । स्वरहीन व्यञ्जन के उच्चारण मे अर्धमात्रा जितना समय लगता है। मात्रा या अर्थमात्रा परिमित समय को जानने का अभ्यास करके उसी के अनुसार अन्य क्रियाओं के समय की गणना करना कि अमुक काम मे इतनो मात्राएँ हुई...मात्रा द्वारा काल की गणना कहलाती है।
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