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९. ३९-४६ ] शुक्लध्यान
२२९ सहित है। दोनों मे वितर्क का साम्य होने पर भी यह वैषम्य है कि पहले में पृथक्त्व ( भेद ) है, जब कि दूसरे मे एकत्व ( अभेद ) है। इसी प्रकार पहले में विचार ( सक्रम ) है, जब कि दूसरे मे विचार नही है। इसी कारण इन दोनों ध्यानो के नाम क्रमशः पृथक्त्ववितर्क-सविचार और एकत्ववितर्क-निर्विचार है ।
पृथक्त्ववितर्क-सविचार -जब ध्यान करनेवाला पूर्वधर हो तब वह पूर्वगत श्रुत के आधार पर और जब पूर्वधर न हो तब अपने मे सम्भावित श्रुत के आधार पर किसी भी परमाणु आदि जड में या आत्मरूप चेतन मे-एक द्रव्य मे उत्पत्ति, स्थिति, नाश, मूर्तत्व, अमूर्तत्व आदि अनेक पर्यायो का द्रव्यास्तिक, पर्यायास्तिक आदि विविध नयो के द्वारा भेदप्रधान चिन्तन करता है और यथासम्भव श्रुतज्ञान के आधार पर किसी एक द्रव्यरूप अर्थ पर से दूसरे द्रव्यरूप अर्थ पर या एक द्रव्यरूप अर्थ पर से पर्यायरूप अन्य अर्थ पर अथवा एक पर्यायरूप अर्थ पर से अन्य पर्यायरूप अर्थ पर या एक पर्यायरूप अर्थ पर से अन्य द्रव्यरूप अर्थ पर चिन्तन के लिए प्रवृत्त होता है। इसी प्रकार अर्थ पर से शब्द पर और शब्द पर से अर्थ पर चिन्तन के लिए प्रवृत्त होता है तथा मन आदि किसी भी एक योग को छोड़कर अन्य योग का अवलम्बन लेता है, तब वह ध्यान पृथक्त्ववितर्क-सविचार कहलाता है। कारण यह है कि इसमे वितर्क (श्रुतज्ञान ) का अवलम्बन लेकर किसी भी एक द्रव्य मे उसके पर्यायो के भेद ( पृथक्त्व ) का विविध दृष्टियो से चिन्तन किया जाता है और श्रुतज्ञान को अवलम्बित करके एक अर्थ पर से दूसरे अर्थ पर, एक शब्द पर से दूसरे शब्द पर, अर्थ पर से शब्द पर, शब्द पर से अर्थ पर तथा एक योग से दूसरे योग पर संक्रम ( संचार) करना पडता है।
एकक्त्ववितर्क-निविचार-उक्त कथन के विपरीत जब ध्यान करनेवाला अपने मे सम्भाव्य श्रुत के आधार पर किसी एक ही पर्यायरूप अर्थ को लेकर उस पर एकत्व ( अभेदप्रधान ) चिन्तन करता है और मन आदि तीन योगो मे से किसी एक ही योग पर अटल रहकर शब्द और अर्थ के चिन्तन एवं भिन्नभिन्न योगो मे संचार का परिवर्तन नहीं करता, तब वह ध्यान एकत्ववितर्कनिर्विचार कहलाता है, क्योकि इसमे वितर्क ( श्रुतज्ञान ) का अवलम्बन होने पर भी एकत्व ( अभेद ) का चिन्तन प्रधान रहता है और अर्थ, शब्द अथवा योगो का परिवर्तन नही होता।
उक्त दोनों में से पहले भेदप्रधान का अभ्यास दृढ हो जाने के बाद ही दूसरे अभेदप्रधान ध्यान की योग्यता प्राप्त होती है । जैसे समग्र शरीर में व्याप्त सर्पादि के जहर को मन्त्र आदि उपचारो से डंक की जगह लाकर स्थापित किया जाता है
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