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९ ३९-४६ ] शुक्लध्यान
२२७ धर्मध्यान है। ४. लोकस्वरूप का विचार करने में मनोयोग लगाना संस्थानविचय-धर्मध्यान है।
स्वामी-धर्मध्यान के स्वामियों (अधिकारियों) के विषय में श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्पराओ मे मतैक्य नही है। श्वेताम्बर मान्यता के अनुसार उक्त दो सूत्रों में निर्दिष्ट सातवें, ग्यारहवे और बारहवें गुणस्थानों में तथा इस कथन से सचित आठवें आदि बीच के तीन गुणस्थानो मे अर्थात् सातवें से बारहवे तक के छहों गुणस्थानो मे धर्मध्यान सम्भव है। दिगम्बर परम्परा मे चौथे से सातवें तक के चार गुणस्यानो में ही धर्मध्यान की सम्भावना मान्य है। उसका तर्क यह है कि श्रेणी के आरम्भ के पूर्व तक ही सम्यग्दृष्टि मे धर्मध्यान सम्भव है
और श्रेणी का आरम्भ आठवे गुणस्थान से होने के कारण आठवे आदि मे यह ध्यान किसी भी प्रकार सम्भव नहीं है । ३७-३८ ।
शुक्लध्यान शुक्ले चाद्ये पूर्वविदः' । ३९ । परे केवलिनः । ४०। पृथक्त्वैकत्ववितर्कसूक्ष्मक्रियाप्रतिपातिव्युपरतक्रियानिवृत्तीनि । ४१ । तत्र्येककाययोगायोगानाम् । ४२ । एकाश्रये सवितर्के पूर्वे । ४३ । अविचारं द्वितीयम् । ४४॥ वितर्क. श्रुतम् । ४५। विचारोऽर्थव्यञ्जनयोगसङ्क्रान्तिः । ४६ ।
उपशान्तमोह और क्षीणमोह में पहले के दो शुक्लध्यान सम्भव है । ये दो शुक्लध्यान पूर्वधर को होते है । ___ बाद के दो केवली को होते हैं ।
१. 'पूर्वविदः' अंश प्रस्तुत सत्र का ही है और इतना सूत्र अलग नहीं है, यह भाष्य के टीकाकार का कथन है । दिगंबर परंपरा में भी इस अंश को सत्र के रूप में अलग स्थान नहीं दिया गया है। अतः यहाँ भी वैसे ही रखा गया है। फिर भी भाष्य से स्पष्ट ज्ञात होता है कि 'पूर्वविदः' स्वतंत्र सूत्र है ।
२. प्रस्तुत सूत्र में अधिकतर 'अवीचार' रूप ही देखने में आता है, फिर भी यहाँ सूत्र व विवेचन में हस्व 'वि' के प्रयोग द्वारा एकता रखी गई है।
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