Book Title: Tattvarthasutra Hindi
Author(s): Umaswati, Umaswami, Sukhlal Sanghavi
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 397
________________ ९. ४८ ] निर्ग्रन्थ के भेद २३१ सर्व कर्मबन्धनों का सर्वथा क्षय ही मोक्ष है और कर्मों का अंशतः क्षय निर्जरा है । दोनों के लक्षणों पर विचार करने से स्पष्ट है कि निर्जरा मोक्ष का पूर्वगामी अंग है । प्रस्तुत शास्त्र में मोक्षतत्त्व का प्रतिपादन मुख्य है, अतः उसकी नितान्त अंगभूत निर्जरा का विचार करना भी यहाँ उपयुक्त है । इसलिए यद्यपि सकल संसारी आत्माओ मे कर्मनिर्जरा का क्रम जारी रहता है तथापि यहाँ विशिष्ट आत्माओं को ही कर्मनिर्जरा के क्रम का विचार किया गया है । वे विशिष्ट अर्थात् मोक्षाभिमुख आत्माएं है । यथार्थ मोक्षाभिमुखता सम्यग्दृष्टि की प्राप्ति से ही प्रारम्भ हो जाती है और वह जिन ( सर्वज्ञ ) अवस्था मे पूरी होती है । स्थूलदृष्टि की प्राप्ति से लेकर सर्वज्ञदशा तक मोक्षाभिमुखता के दस विभाग किए गए है, जिनमें पूर्व-पूर्व की अपेक्षा उत्तर - उत्तर विभाग में परिणाम की विशुद्धि सविशेष होती है । परिणाम की विशुद्धि जितनी अधिक होगी, कर्मनिर्जरा भी उतनी ही विशेष होगी । अतः प्रथम- प्रथम अवस्था मे जितनी कर्मनिर्जरा होती है उसकी अपेक्षा आगे-आगे की अवस्था मे परिणामविशुद्धि की विशेषता के कारण कर्मनिर्जरा भी असंख्यातगुनी बढती जाती है । इस प्रकार बढ़ते-बढ़ते अन्त मे सर्वज्ञ - अवस्था में निर्जरा का प्रमाण सबसे अधिक हो जाता है । कर्मनिर्जरा के इस तरतमभाव मे सबसे कम निर्जरा सम्यग्दृष्टि की और सबसे अधिक निर्जरा सर्वज्ञ को होती है । इन दस अवस्थाओं का स्वरूप इस प्रकार है : १. सम्यग्दृष्टि - जिस अवस्था मे मिथ्यात्व दूर होकर सम्यक्त्व का आविर्भाव होता है । २. श्रावक --- जिसमे अप्रत्याख्यानावरण कषाय के क्षयोपशम से अल्पांश में विरति ( त्याग ) प्रकट होती है । ३ विरत - जिसमें प्रत्याख्यानावरण कषाय के क्षयोपशम से सर्वाश मे विरति प्रकट होती है । ४. अनन्तवियोजक -- जिसमे अनन्तानुबन्धी कषाय का क्षय करने योग्य विशुद्धि प्रकट होती है । ५. दर्शनमोहक्षपक -- जिसमे दर्शनमोह का क्षय करने योग्य विशुद्धि प्रकट होती है । ६. उपशमक - जिस अवस्था में मोह की शेष प्रकृतियो का उपशम जारी हो । ७. उपशान्तमोह - जिसमे उपशम पूर्ण हो चुका हो । ८. क्षपक – जिसमे मोह की शेष प्रकृतियो का क्षय जारी हो । ९. क्षीणमोह - जिसमें मोह का क्षय पूर्ण सिद्ध हो चुका हो । १०. जिन - जिसमे सर्वज्ञता प्रकट हो गई हो । ४७ । निर्ग्रन्थ के भेद पुलाकबकुशकुशीलनिर्ग्रन्थस्नातका निर्ग्रन्थाः । ४८ । पुलाक, बकुश, कुशील, निर्ग्रन्थ और स्नातक - ये निर्ग्रन्थ के पाँच प्रकार हैं । Jain Education International For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org

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