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२३० तत्त्वार्थसूत्र
[ ९. ४७ वैसे ही सम्पूर्ण जगत् मे भिन्न-भिन्न विषयों मे अस्थिर रूप मे भटकते हुए मन को ध्यान के द्वारा किसी भी एक विषय पर केन्द्रित करके स्थिर किया जाता है। स्थिरता दृढ हो जाने पर जैसे बहुत-सा ईधन निकाल लेने और बचे हुए थोड़े से इंधन को सुलगा देने से अथवा पूरे ईंधन को हटा देने से आग बुझ जाती है वैसे ही उपर्युक्त क्रम से एक विषय पर स्थिरता प्राप्त होते हो मन भी सर्वथा शान्त हो जाता है अर्थात् चंचलता मिट जाने से निष्प्रकम्प बन जाता है। परिणामतः ज्ञान के सकल आवरणों का विलय हो जाने पर सर्वज्ञता प्रकट होती है ।
सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती-जब सर्वज्ञ भगवान् योगनिरोध के क्रम मे' अन्ततः सूक्ष्मशरीर योग का आश्रय लेकर शेष योगों को रोक देते है तब वह सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती ध्यान कहलाता है, क्योंकि उसमे श्वास-उच्छ्वास के समान सूक्ष्मक्रिया ही शेष रह जाती है और उससे पतन भी सम्भव नही है । ___ समुच्छिन्नक्रियानिवृत्ति-जब शरीर की श्वास-प्रश्वास आदि सूक्ष्म क्रियाएँ भी बन्द हो जाती है और आत्मप्रदेश सर्वथा निष्प्रकम्प हो जाते है तब वह समुच्छिन्नक्रियानिवृत्ति ध्यान कहलाता है, क्योकि इसमे स्थूल या सूक्ष्म किसी भी प्रकार की मानसिक, वाचिक, कायिक क्रिया नही होती और वह स्थिति बाद में नष्ट भी नही होती । इस चतुर्थ ध्यान के प्रभाव से समस्त आस्रव और बन्ध के निरोधपूर्वक शेष कर्मो के क्षीण हो जाने से मोक्ष प्राप्त होता है। तीसरे और चौथे शुक्लध्यान मे किसी भी प्रकार के श्रुतज्ञान का आलंबन नही होता, अत. वे दोनो अनालंबन भी कहलाते है । ३९-४६ ।
सम्यग्दृष्टियों की कर्मनिर्जरा का तरतमभाव सम्यग्दृष्टिश्रावकविरतानन्तवियोजकदर्शनमोहक्षपकोपशमकोपशान्तमोहक्षपकक्षीणमोहजिनाः क्रमशोऽसङ्ख्येयगुणनिर्जराः । ४७ ।
सम्यग्दृष्टि, श्रावक, विरत, अनन्तानुबन्धिवियोजक, दर्शनमोहक्षपक, उपशमक, उपशान्तमोह, क्षपक, क्षीणमोह और जिन--ये दस क्रमशः असंख्ययगुण निर्जरावाले होते है ।
१. यह क्रम यों है-स्थूल काययोग के आश्रय से वचन और मन के स्थूल योग को सक्ष्म बनाया जाता है, उसके बाद वचन और मन के सूक्ष्म योग को अवलम्बित करके शरीर के स्थूल योग को सूक्ष्म बनाया जाता है। फिर शरीर के सक्ष्म योग को अवलम्बित करके वचन और मन के सक्ष्म योग का निरोध किया जाता है और अन्त में सक्ष्मशरीरयोग का भी निरोध किया जाता है ।
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