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९. ३१-३५ ]
आर्तध्यान
चारों ध्यानों के भेद और अधिकारी
आर्तध्यान
आर्तममनोज्ञानां सम्प्रयोगे तद्विप्रयोगाय स्मृतिसम
न्वाहारः । ३१ ।
वेदनायाश्च । ३२ ॥
विपरीतं मनोज्ञानाम् । ३३ ।
निदानं च । ३४ ।
तदविरतदेशविरतप्रमत्तसंयतानाम् । ३५ ।
अप्रिय वस्तु के प्राप्त होने पर उसके वियोग के लिए सतत चिन्ता करना पहला आर्तध्यान है ।
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दुःख आ पड़ने पर उसके निवारण की सतत चिन्ता करना दूसरा आर्तध्यान है ।
प्रिय वस्तु का वियोग होने पर उसकी प्राप्ति के लिए सतत चिन्ता करना तीसरा आर्तध्यान है ।
अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति के लिए संकल्प करना या सतत चिन्ता करना चौथा आर्तध्यान है ।
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वह ( आर्तध्यान ) अविरत, देशविरत और प्रमत्तसंयत -- इन गुणस्थानों में ही सम्भव है ।
गया है ।
दुख की
यहाँ आर्तध्यान के भेद और उसके अधिकारी का निरूपण किया अर्ति का अर्थ है पीड़ा या दुःख, उसमे से जो उत्पन्न हो वह आर्त । उत्पत्ति के मुख्य कारण चार है - १. अनिष्ट वस्तु का संयोग, २ . इष्ट वस्तु का वियोग, ३. प्रतिकूल वेदना और ४. भोग की लालसा । इन्हीं के आधार पर आर्तध्यान के चार प्रकार कहे गये है । १. अनिष्ट वस्तु का संयोग होने पर तद्भव दुःख से व्याकुल आत्मा उसे दूर करने के लिए जो सतत चिन्ता करता रहता है वही अनिष्टसंयोग - आर्तध्यान है । २. इसी प्रकार किसी इष्ट वस्तु का वियोग हो जाने पर उसकी प्राप्ति के लिए सतत चिन्ता करना इष्टवियोग-आर्तध्यान है । ३. शारीरिक या मानसिक पीडा होने पर उसके निवारण की व्याकुलतापूर्वक चिन्ता करना रोगचिन्ता - आर्तध्यान है । ४. भोगों की लालसा की उत्कटता के कारण अप्राप्त वस्तु को प्राप्त करने का तीव्र संकल्प निदानआर्तध्यान है ।
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