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तत्त्वार्थसुत्र
[९. २७-२८
ध्यान उत्तमसंहननस्यैकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानम् । २७ ।
आमुहूर्तात् । २८। उत्तम संहननवाले का एक विषय' में अन्तःकरण की वृत्ति का स्थापन ध्यान है।
वह मुहूर्त तक अर्थात् अन्तर्मुहूर्त पर्यंत रहता है।
यहाँ ध्यान से सम्बन्धित अधिकारी, स्वरूप और काल का परिमाण ये तीन बातें वर्णित है।
१. अधिकारी-छः प्रकार के संहननों ( शारीरिक संघटनों) मे वज्रर्षभनाराच3, अर्धवज्रर्षभनाराच और नाराच ये तीन उत्तम माने जाते है । उत्तम संहननवाला ही ध्यान का अधिकारी होता है, क्योकि ध्यान करने मे आवश्यक मानसिक बल के लिए जितना शारीरिक बल आवश्यक है वह उक्त तीन संहननवाले शरीर में सम्भव है, शेष तीन संहननवाले मे नही । मानसिक बल का एक प्रमुख आधार शरीर है और शरीरबल शारीरिक संघटन पर निर्भर करता है; अतः उत्तम संहननवाले के अतिरिक्त दूसरा कोई ध्यान का अधिकारी नही है । शारीरिक संघटन जितना कम होगा उतना ही मानसिक बल भी कम होगा और मानसिक बल जितना कम होगा उतनी ही चित्त की स्थिरता भी कम होगी। इसलिए कमजोर शारीरिक संघटन या अनुत्तम संहननवाला किसी भी प्रशस्त विषय में जितनी एकाग्रता साध सकता है वह इतनी कम होती है कि ध्यान मे उसकी गणना ही नहीं हो सकती।
१. भाष्य के अनुसार इस सत्र मे दो प्रकार के ध्यान कहे गए है--१. एकाग्रचिन्ता और २. निरोध। किन्तु ऐसा लगता है कि किसी अन्य टीकाकार की दृष्टि में यह बात नहीं आई। अतः हमने भी यहाँ पर पुराने टीकाकारों का ही अनुसरण किया है । वस्तुतः यही दो प्रकार सत्रकार द्वारा यहाँ निर्दिष्ट है। देखे-प्राकृत टेक्स्ट सोसायटी द्वारा प्रकाशित दशवैकालिक को अगस्त्यसिंहकृत चूर्णि, पृ० १६ तथा ५० दलसुख मालवणिया का लेख, गुजरात युनिवर्सिटी द्वारा प्रकाशित पत्रिका विद्या, भाग १५, अंक २, अगस्त १६७२, पृ० ६१ ।
२. दिगम्बर ग्रन्थो में तीन उत्तम संहननवाले को ही ध्यान का अधिकारी माना गया है लेकिन भाष्य और उसकी वृत्ति में प्रथम दो संहननवाले को ध्यान का अधिकारी माना गया है ।
३. इसकी जानकारी के लिए देखें-अ०८, स० १२ ।
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