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तत्त्वार्थ सूत्र
[ २३-२४
लिए सावधान रहना प्रतिक्रमण हैं । ३. उक्त आलोचन और प्रतिक्रमण दोनों साथ करना तदुभय अर्थात् मिश्र है । ४. खाने-पीने आदि की यदि अकल्पनीय वस्तु आ जाय और बाद मे पता चले तो उसका त्याग करना विवेक है । ५. एकाग्रतापूर्वक शरीर और वचन के व्यापारों को छोड़ना व्युत्सर्ग है । ६. अनशन आदि बाह्य तप करना तप है । ७. दोष के अनुसार दिवस, पक्ष, मास या वर्ष की प्रव्रज्या कम करना छेद है । ८. दोषपात्र व्यक्ति से दोष के अनुसार पक्ष, मास आदि पर्यन्त किसी प्रकार का संसर्ग न रखकर उसे दूर से परिहरना परिहार है । ९ अहिंसा, सत्य, ब्रह्मचर्य आदि महाव्रतो का भग होने पर पुन: शुरू से उन महाव्रतों का आरोपण करना उपस्थापन है ।' २२ ।
विनय के भेद
ज्ञानदर्शनचारित्रोपचाराः । २३ ।
ज्ञान, दर्शन, चारित्र और उपचार – ये विनय के चार भेद हैं ।
विनय वस्तुतः गुणरूप में एक ही है, फिर भी उसके ये भेद विषय की दृष्टि से ही वर्णित है । विनय के विषय को मुख्यतः यहाँ चार भागों में विभाजित किया गया है, जैसे -- १. ज्ञान प्राप्त करना, उसका अभ्यास जारी रखना और भूलना नही- - यह ज्ञान का विनय है । २ तत्त्व की यथार्थ प्रतीतिस्वरूप सम्यग्दर्शन से विचलित न होना, उसके प्रति उत्पन्न होनेवाली शङ्काओं का निवारण करके निशंकभाव की साधना करना दर्शनविनय है । ३. सामायिक आदि चारित्रो में चित्त का समाधान रखना चारित्रविनय है । ४. जो अपने से सद्गुणो मे श्रेष्ठ हो उसके प्रति अनेक प्रकार से योग्य व्यवहार करना, जैसे उसके सम्मुख जाना, उसके आने पर खड़े होना, आसन देना, वन्दन करना इत्यादि उपचारविनय है | २३ |
वैयावृत्त्य के भेद
आचार्योपाध्यायतपस्विशैक्षकग्ला नगण कुलसद्धसाधुसमनोज्ञानाम् ॥ २४ ॥
आचार्य, उपाध्याय, तपस्वी, शैक्ष, ग्लान, गण, कुल, संघ, समनोज्ञ–यह दस प्रकार का वैयावृत्त्य है ।
साधु और वैयावृत्त्य सेवारूप है । अतः दस प्रकार के सेव्य ( सेवायोग्य पात्रो) के होने
१. परिहार और उपस्थापन इन दोनो के स्थान पर मूल, अनवस्थाप्य व पारांचिक इन तीन प्रायश्चित्तों के होने से कई ग्रन्थो में दस प्रायश्चित्तो का वर्णन है । प्रत्येक प्रायश्चित्त किन-किन और कैसे-कैसे दोषो पर लागू होता है इसका विशेष स्पष्टीकरण व्यवहार, जीतकल्पसूत्र आदि प्रायश्चित्त-प्रधान ग्रन्थो में द्रष्टव्य है ।
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