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९. २५-२६ ]
स्वाध्याय व व्युत्सर्ग के भेद
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से वैयावृत्त्य के भी दस प्रकार है- १. मुख्यरूप से जिसका कार्य व्रत और आचार ग्रहण कराना हो वह आचार्य है । २. मुख्यरूप से जिसका कार्य श्रुताभ्यास कराना हो वह उपाध्याय है । ३. महान् और उग्र तप करनेवाला तपस्वी है । ४. नवदीक्षित होकर शिक्षण प्राप्त करने का उम्मीदवार शैक्ष है । ५. रोग आदि से क्षीण ग्लान है । ६. भिन्न-भिन्न आचार्यो के शिष्यरूप साधु यदि परस्पर सहाध्यायी होने से समान वाचनावाले हो तो उनका समुदाय गण है । ७. एक ही दीक्षाचार्य का शिष्य परिवार कुल है । ८. धर्म का अनुयायी समुदाय संघ है जो साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका के रूप मे चार प्रकार का है । ९. प्रव्रज्याधारी को साधु कहते है । १०. ज्ञान आदि गुणो मे समान समनोज्ञ या समानशील कहलाता है । २४ ।
स्वाध्याय के भेद
वाचनाप्रच्छनानुप्रेक्षाम्नायधर्मोपदेशाः । २५ ॥
वाचना, प्रच्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय और धर्मोपदेश --ये स्वाध्याय के पाँच भेद हैं ।
ज्ञान प्राप्त करने, उसे सन्देहरहित, विशद और परिपक्व बनाने एवं उसका प्रचार करने का प्रयत्न - ये सभी स्वाध्याय मे आते है, अतः उसके यहाँ पाँच भेद अभ्यासशैली के क्रमानुसार कहे गए है. १. शब्द या अर्थ का पहला पाठ लेना वाचना है । २. शंका दूर करने अथवा विशेष निर्णय के लिए पूछना प्रच्छना है । ३. शब्द, पाठ या उसके अर्थ का चिन्तन करना अनुप्रेक्षा है । ४ सीखी हुई वस्तु का शुद्धिपूर्वक पुन' - पुन उच्चारण करना आम्नाय अर्थात् पुनरावर्तन है । ५. जानी हुई वस्तु का रहस्य समझाना अथवा धर्म का कथन करना धर्मोपदेश है । २५ ।
व्युत्सर्ग के भेद
बाह्याभ्यन्तरोपध्योः । २६ ।
बाह्य और आभ्यन्तर उपधि का त्याग - ये व्युत्सर्ग के दो प्रकार हैं ।
वास्तव मे अहंता ममता की निवृत्ति के रूप में त्याग एक ही है, फिर भी त्याज्य वस्तु बाह्य और आभ्यन्तर के रूप मे दो प्रकार की होती है, इसीलिए व्युत्सर्ग या त्याग के भी दो प्रकार कहे गए है- -१. धन, धान्य, मकान, क्षेत्र आदि बाह्य पदार्थो की ममता का त्याग करना बाह्योपधि-व्युत्सर्ग है और २. शरीर की ममता का त्याग करना एवं काषायिक विकारो की तन्मयता का त्याग करना आभ्यन्तरोपधि-व्युत्सर्ग है । २६ ।
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