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तत्त्वार्थ मूत्र
[६.११-२६ के लिए उसके ही उपायों को प्रसन्नतापूर्वक करता हुआ त्यागी भी सद्धृत्ति के कारण पाप का बन्ध नहीं करता।
सातावेदनीय कर्म के बन्धहेतु-१. अनुकम्पा--प्राणि-मात्र के प्रति अनुकम्पा ही भूतानुकम्पा है अर्थात् दूसरे के दुख को अपना दुःख मानने का भाव । २. वत्यनुकम्पा-अल्पांश में प्रतधारी गृहस्थ और सर्वाश में व्रतधारी त्यागी दोनों पर विशेष अनुकम्पा रखना । ३. दान-- अपनी वस्तु दूसरों को नम्रभाव से अर्पित करना। ४. सरागसंयमादि योग'सरागसयम, संयमासंयम, अकामनिर्जरा और बालतप इन सबमे यथोचित ध्यान देना । संसार की कारणरूप तृष्णा को दूर करने के लिए तत्पर होकर संयम स्वीकार कर लेने पर भी जब मन से राग के संस्कार क्षीण नहीं होते तब वह सरागसंयम कहलाता है। आशिक संयम का स्वीकार संयमासंयम है । स्वेच्छापूर्वक नही किन्तु परतंत्रता से भोगों का त्याग करना अकामनिर्जरा है। बाल अर्थात् यथार्थ ज्ञान से शून्य मिथ्यादृष्टिवालों का अग्निप्रवेश, जलपतन, गोबर आदि का भक्षण, अनशन आदि तप बालतप है । ५. क्षान्ति-धर्मदृष्टि से क्रोधादि दोषो का शमन । ६. शौच- लोभवृत्ति और ऐसे ही अन्य दोषों का शमन । १३ ।
दर्शनमोहनीय कर्म के बन्धहेतु-१. केवली का अवर्णवाद--दुर्बुद्धिपूर्वक केवली के असत्य दोषों को प्रकट करना, जैसे सर्वज्ञता की संभावना को स्वीकार न करना और कहना कि 'सर्वज्ञ होकर भी उसने मोक्ष के सरल उपाय न बतलाकर जिनका आचरण शक्य नही ऐसे दुर्गम उपाय क्यों बतलाए है' इत्यादि । २. श्रुत का अवर्णवाद-शास्त्र के मिथ्या दोषों का द्वेषबुद्धि से वर्णन करना, जैसे कहना कि 'यह शास्त्र अनपढ लोगो की प्राकृत भाषा मे अथवा पण्डितों को जटिल संस्कृत भाषा मे होने से तुच्छ है, अथवा इसमे विविध व्रत, नियम तथा प्रायश्चित्त आदि का अर्थहीन एवं कष्टप्रद वर्णन है' । ३. संघ का अवर्णवाद-साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविकारूप चतुर्विध संघ के मिथ्या दोष प्रकट करना, जैसे यह कहना कि 'साधु लोग व्रत-नियम आदि का व्यर्थ क्लेश उठाते है, साधुत्व तो संभव ही नहीं तथा उसका कोई अच्छा परिणाम भी नहीं निकलसा' । श्रावको के विषय मे कहना कि 'वे स्नान, दान आदि शिष्ट प्रवृत्तियाँ नहीं करते और म पवित्रता ही मानते है' इत्यादि । ४. धर्म का अवर्णवाद--अहिंसा आदि महान् धर्मों के मिथ्या दोष बतलाना या यह कहना कि 'धर्म प्रत्यक्ष कहाँ दीखता है और जो प्रत्यक्ष नहीं दीखता उसका अस्तित्व कैसे संभव है तथा यह कहना कि 'अहिसा से मनुष्य जाति अथवा राष्ट्र का पतन हुआ है' इत्यादि । ५. देवों का अपर्णवाद-देवों की निन्दा करना, जैसे यह कहना कि 'देव तो है ही नहीं, और हों तो भी व्यर्थ है, क्योंकि
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