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यथार्थ व्रती की प्राथमिक योग्यता
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मुख्य है और वे प्रवृत्तियाँ ही मुख्य रूप से आध्यात्मिक या लौकिक जीवन को कुरेद डालती है । इसीलिए हिसा आदि प्रवृत्तियों को पांच भागों में बाँटकर पांच दोषों का वर्णन किया गया है ।
दोषों को इस संख्या में समय-समय पर और देश-भेद से परिवर्तन होता रहा है और होता रहेगा, फिर भी संख्या और स्थूल नाम के मोह में न पड़कर इतना जान लेना पर्याप्त है कि इन प्रवृत्तियों के राग, द्वेष व मोह आदि दोषों का त्याग करने की ही बात मुख्य है । अतः हिंसा आदि पाँच दोषों में कौन-सा दोष प्रधान है, किसका पहले या बाद मे त्याग करना चाहिए यह प्रश्न ही नहीं रहता। हिसादोष की व्यापक व्याख्या में असत्य आदि सभी दोष आ जाते हैं । इसी प्रकार असत्य या चोरी आदि किसी भी दोष की व्यापक व्याख्या में शेष सब दोष आ जाते है। यही कारण है कि अहिसा को मुख्य धर्म माननेवाले हिंसादोष में असत्यादि सब दोषों को समाहित कर लेते है और केवल हिंसा के त्याग मे ही अन्य सभी दोषों का त्याग भी समझते है। सत्य को परमधर्म माननेवाले असत्य में शेष सब दोषों को घटित कर केवल असत्य के त्याग में ही सब दोषों का त्याग समझते है। इसी प्रकार संतोष, ब्रह्मचर्य आदि को मुख्य धर्म माननेवाले भी समझते है । १२ ।
यथार्थ व्रती की प्राथमिक योग्यता
निःशल्यो व्रती। १३ । शल्यरहित ही प्रत्ती होता है।
अहिसा, सत्य आदि व्रतों के ग्रहण करने मात्र से कोई सच्चा व्रती नहीं बन जाता । सच्चा व्रती बनने के लिए छोटी-से-छोटी और सबसे पहली शर्त एक ही है कि 'शल्य' का त्याग किया जाय । संक्षेप में शल्य तीन है : १. दम्भ-कपट, ढोंग अथवा ठगवृत्ति, २. निदान-भोगो को लालसा, ३. मिथ्यादर्शन-सत्य पर श्रद्धा न रखना अथवा असत्य का आग्रह । ये तीनों दोष मानसिक है। ये मन और तन दोनों को कुरेद डालते है और आत्मा भी कभी स्वस्थ नही रह पाती। शल्ययुक्त आत्मा किसी कारण से व्रत ग्रहण कर भी ले, किंतु वह उनके पालन में एकाग्र नहीं हो पाती । जैसे किसी अंग मे काँटा या तीक्ष्ण वस्तु चुभ जाय तो वह शरीर और मन को व्याकुल बना डालती है और आत्मा को भी कार्य में एकाग्र नही होने देती, वैसे ही ये मानसिक दोष भी उसी प्रकार की व्यग्रता पैदा करते है। इसीलिए व्रती बनने के लिए उनका त्याग प्रथम शर्त के रूप में आवश्यक माना गया है । १३ ।
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